UPANISHAD
Dariya Kahe Sabad Nirvana 05
Fifth Discourse from the series of 9 discourses – Dariya Kahe Sabad Nirvana by Osho. These discourses were given during JAN 21-30 1979.
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तीनि लोक के ऊपरे, अभय लोक बिस्तार
सत्त सुकृत परवाना पावै, पहुंचै जाय करार।
जोतिहि ब्रह्मा बिस्नु हहिं, संकर जोगी ध्यान।
सत्तपुरुष छपलोक महं, ताको सकल जहान।।
सोभा अगम अपार, हंसवंस सुख पावहीं।
कोइ ग्यानी करै विचार, प्रेमतत्तु जा उर बसै।।
जो सत सब्द बिचारै कोई। अभय लोक सिधारै सोई।।
कहन सुनन किमिकरि बनि आवै। सत्तनाम निजु परचै पावै।।
लीजै निरखि भेद निजु सारा। समुझि परै तब उतरै पारा।।
कंचल डाहै पावक जाई। ऐसे तन कै डाहहु भाई।।
जो हीरा घन सहै घनेरा। होहि हिरंबर बहुरि न फेरा।।
गहै मूल तब निर्मल बानी। दरिया दिल बिच सुरति समानी।।
पारस सब्द कहा समुझाई। सतगुरु मिलै त देहि दिखाई।।
सतगुरु सोइ जो सत्त चलावै। हंस बोधि छपलोक पठावै।।
घर घर ग्यान कथै बिस्तारा। सो नहिं पहुंचै लोक हमारा।।
सब घट ब्रह्म और नहिं दूजा। आतम देव क निर्मल पूजा।।
बादहि जनम गया सठ तोरा। अंत की बात किया तैं भौरा।।
पढ़ि पढ़ि पोथी भा अभिमानी। जुगति और सब म्रिथा बखानी।।
जौ न जानु छपलोक के मरमा। हंस न पहुंचिहि एहि षटकरमा।।
सार सब्द जब दृढ़ता लावै। तब सतगुरु कछु आप लखावै।।
दरिया कहै सब्द निरबाना। अबरि कहौं नहिं बेद बखाना।।
वेदै अरुझि रहा संसारा। फिरि फिरि होहि गरभ अवतारा।।
दरिया कहै सब्द निरबाना!
दरिया तो कहेंगे, पर तुम सुनोगे या नहीं, सवाल असली वहां है। सूरज निकले, पर आंख खोलोगे या नहीं, असली सवाल वहां है। वीणा कोई बजाए, लेकिन तुम वज्र-बधिर की तरह बैठे रह सकते हो। तुम्हारे हृदय में कोई झनकार उठेगी या नहीं, असली सवाल वहां है।
सदगुरु होते रहे। यह पृथ्वी कभी बांझ नहीं हुई। कभी कोई मीरा नाची, कभी कोई नानक गाया, कभी किसी दरिया ने पुकारा, मगर कितनों ने सुना? कितने थोड़े लोगों ने सुना! अंगुलियों पर गिने जा सकें, इतने थोड़े लोगों ने सुना। व्यर्थ में हमारी इतनी वासना है कि सार्थक पर नजर नहीं जाती। कोरे-थोथे शब्दों में हमारा ऐसा लगाव है, ऐसी आसक्ति है कि सत्य शब्द हमारे कान में पड़ते भी हैं तो हमारी पकड़ में नहीं आते। असत्य को तो बुद्धि से ही पकड़ा जा सकता है, अड़चन नहीं है। सत्य को हृदय से पकड़ना होता है, वहीं कठिनाई है। हृदय तो हमारे जड़ पड़े हैं। सदियां बीत गईं, न हम उन रास्तों पर चले, न हमने उन रास्तों पर इकट्ठे हो गए कूड़े-करकट के ढेर हटाए, हमें तो भूल ही गया है कि हमारे भीतर हृदय भी है कोई। हम तो अपनी-अपनी खोपड़ियों में बंद हो गए हैं। और खोपड़ियों में बंद पंडित हो जाओ भला, ज्ञानी न हो पाओगे। और यह शब्द उनके लिए हैं, जो ज्ञान के आकाश में उड़ना चाहते हैं।
पांडित्य तो कारागृह है; ज्ञान आकाश है। पांडित्य तो जंजीरें हैं, बेड़ियां हैं। सोने चढ़ी होंगी, हीरे-जवाहरात जड़ी होंगी, मगर बेड़ियां तो फिर भी बेड़ियां हैं। पांडित्य से कभी कोई मुक्त नहीं हुआ है, न कभी कोई हो सकेगा। मस्तिष्क से मोक्ष का कोई संबंध ही नहीं जुड़ता। और हृदय तो मोक्ष से जुड़ा ही है। तुम जरा हृदय की गुनगुन सुनो, तुम जरा हृदय के करीब आओ, तो यह शब्द तुम्हारी बंद कलियों को खोल दें, तुम्हारे बुझे दीयों को जला दें, तुम्हारे पत्थर जैसे पड़ गए हृदय में फिर पुनः प्राण फूंक दें। तुम फिर मिट्टी ही न रह जाओ, अमृत हो सको। फिर तुम पृथ्वी पर रेंगते कीड़े-मकोड़े ही न रहो, आकाश में उड़ना तुम्हारी क्षमता है।
हंसा, उड़ चल वा देश!
तुम हंस हो, ताल-तलैयों के किनारे बैठे गए हो। कूड़ा-करकट, कीचड़ में जी रहे हो। मोती चुगने थे तुम्हें, मानसरोवर तुम्हारा था, तुम किन कीचड़-कबाड़ में खोए हो? और इसलिए जहां भी हो वहीं दुखी हो; क्योंकि स्वभाव भरता नहीं। जहां भी हो स्वभाव के प्रतिकूल हो। और मौत रोज करीब आती जाती है; क्या इन्हीं ताल-तलैयों के किनारे, जहां सिवाय सड़ांध के और दुर्गंध के कुछ भी नहीं है, जीवन गंवा दोगे? पंख न फड़फड़ाओगे? उड़ोगे नहीं मानसरोवर की तरफ? वे स्वच्छ स्फटिक जल के झरने हिमालय के तुम्हें पुकारते नहीं? वह शांति, वह कुंआरा आनंद, तुम्हारे प्राणों में अभीप्सा नहीं जगाता? जगाता हो तो तुम सुन पाओगे…
दरिया कहै सब्द निरबाना!
दरिया तो कहेगा, दरिया कहता रहा है, दरिया आगे भी कहता रहेगा। दरिया आते रहे, दरिया आते रहेंगे।
‘दरिया’ शब्द भी बड़ा प्यारा है; उसका अर्थ होता है–सागर। सागर तो पुकारता रहा है, लेकिन तुम बूंद होने से राजी हो गए हो! तुम्हारे भीतर कब उठेगी यह अभीप्सा कि मैं भी सागर हो जाऊं? और ध्यान रहे, दिन थोड़े हैं, इने-गिने हैं, मौत किसी भी क्षण आ सकती है। जो फूल अभी खिला है, सांझ होते गिर जाएगा। जो अभी बसंत है, जल्दी ही पतझड़ हो जाएगा।
लो आ गया पतझार भी
सब पात पीले पड़ गए
कुछ बच रहे, कुछ झड़ गए
फिर वर्ष बीता एक यह, बीती बसंत-बहार भी,
लो आ गया पतझार भी।
कुछ वृष्टि के, हेमंत के
कुछ ग्रीष्म और बसंत के
दिन बीतते ये जा रहे, बन-मिट रहा संसार भी,
लो आ गया पतझार भी।
था कल बसंत यहां हंसा
अलि कुसुम-कलियों में फंसा
जड़ और चेतन में हुई क्षण एक आंखें चार भी,
लो आ गया पतझार भी।
अब वह न सौरभ वात में
अब वह न लाली पात में
अवशेष यदि कुछ तो निशा के आंसुओं का हार ही,
लो आ गया पतझार भी।
इस आह का क्या अर्थ है
दुख-सुख सुनाना व्यर्थ है
लौटा नहीं प्रिय को सकी, पिक की अशांत पुकार भी,
लो आ गया पतझार भी।
जिसमें विलीन बसंत है
उस शून्य का क्या अंत है
क्या शून्य में ही लय कभी होगा हमारा प्यार भी? लो आ गया पतझार भी।
देर कहां? पतझड़ चल ही चुका है। पत्ते पीले पड़ने ही लगे हैं। किसी भी क्षण झर जाएगा यह जीवन–यह जवानी, यह आपाधापी, ये सपने! क्या शून्य में ही खो जाना है? क्या कब्र को ही गंतव्य मान लिया है? अगर कब्र को ही गंतव्य मान लिया है और जीवन में धन के ठीकरे इकट्ठे करने के अतिरिक्त और कोई बड़ी अभीप्सा नहीं है, तो फिर तुम न सुन पाओगे। फिर दरिया लाख सिर पटकें, फिर दरिया लाख चिल्लाएं, तुम बहरे के बहरे रहोगे।
मगर दरिया जैसे व्यक्ति तुम्हारे बहरेपन की चिंता नहीं करते–पुकारे जाते हैं! कौन जाने कब सुन लो! किस अनजान क्षण में, भूल-चूक से सुन लो! किस अनजान घड़ी में, तुम्हारे बावजूद सुन लो! न सुनना चाहते हो और सुन लो! इस आशा में दरिया पुकारते हैं। ‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’
तीनि लोक के ऊपरे, अभय लोक बिस्तार।
तीन लोक बड़े मनोवैज्ञानिक हैं, उनका मनोविज्ञान समझना चाहिए। भूगोल तो तुम्हें बहुत समझाया गया है तीन लोकों का, कि पाताल है जमीन के नीचे, स्वर्ग है बादलों के ऊपर और दोनों के मध्य में है यह मृत्यु-लोक। यह सब तो बच्चों को समझाने की बातें हैं। जमीन के नीचे पाताल नहीं है, अमरीका है! अगर तुम खोदते ही चले जाओ, जहां बैठे हो वहीं से खुदाई शुरू करो, तो अमरीका में निकलोगे। और अमरीका के भी लोग सोचते हैं कि नरक नीचे है। अगर खोदते चले आएं तो यहां पूना में निकल आएंगे!
और ऊपर…! यूरी गागरिन जब पहली दफा, रूस का पहला अंतरिक्ष यात्री, चांद से वापस लौटा, तो पता है लोगों ने उससे क्या पूछा? पहला सवाल यह पूछा: ईश्वर मिला चांद पर? क्योंकि कहानियां हैं कि ईश्वर चांद पर रहता है। उसने कहा: कोई ईश्वर नहीं है, बिलकुल सन्नाटा है वहां! ईश्वर की तो बात छोड़ो कोई आदमी भी नहीं है, कोई पंडित-पुजारी भी नहीं है।
उस महत्वपूर्ण घटना की स्मृति में मास्को में एक म्युजियम बनाया गया है, जिसमें यूरी गागरिन जो भी कंकड़-पत्थर चांद से लाया था वे संगृहीत किए गए हैं। उस म्युजियम के द्वार पर लिखा है: चांद पर भी जाकर देख लिया गया, वहां भी कोई ईश्वर नहीं है।
चांद पर ईश्वर है, यह कहा किसने था? यह बच्चों को समझाने की कहानियां हैं, परि-कथाएं हैं।
ये भौगोलिक बातें नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक बातें हैं।
मनुष्य की तीन संभावनाएं हैं–साधारण मनुष्य की। फिर एक चौथी संभावना भी है। उस चौथी में उठना ही धर्म है। तीन में डूबे रहना संसार है। उस चौथी अवस्था को हमने कोई नाम नहीं दिया, क्योंकि उसे क्या नाम दें? हमारे पास जितने नाम हैं, वे सब तीन अवस्थाओं के ही हैं, क्योंकि तीन का ही हमें अनुभव है। तो चौथी को हमने सिर्फ चौथी कहा है–तुरीय। तुरीय का अर्थ होता है: चौथी, दि फोर्थ। उसको नाम नहीं दिया, सिर्फ चौथा कहा है, बस।
ये तीन अवस्थाएं हैं मन की। एक तो है: दुख की अवस्था, जिससे हम भलीभांति परिचित हैं। उस दुख की सघनता का नाम ही नरक है। वह जमीन के नीचे नहीं है, वह तुम्हारे ही मन की तलहटी में है, वह तुम्हारे ही मन के अचेतन में दबी पड़ी है। उसी मन के अचेतन से तुम्हारे दुख-स्वप्न, नाइटमेयर पैदा होते हैं। दूसरी अवस्था है: सुख। उसका भी तुम्हें थोड़ा-थोड़ा अनुभव है, इधर-उधर झलकें। न सही हो अनुभव, तो कम से कम आशा में झलकें, सपने में थोड़ी-थोड़ी प्रतीतियां–अब मिला, तब मिला! न भी हो अनुभव, तो इतना तो तुम सोच ही सकते हो कि दुख से जो विपरीत है, वह सुख। अगर दुख में कांटा चुभता है, तो सुख में फूलों की वर्षा होगी। न भी हुई हो वर्षा, तो भी अनुमान कर सकते हो। और दोनों के मध्य की जो अवस्था है, उससे तो सभी परिचित हैं: सुख-दुख का मिश्रण। उसका नाम है, मर्त्यलोक। जहां सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं–एक हाथ सुख, एक हाथ दुख। और जितना दुख पैदा करो, उतना ही सुख और जितना सुख पैदा करो, उतना ही दुख।
इस बात को समझना थोड़ा। इसके पीछे एक गहन विश्लेषण है।
क्या तुमने देखा नहीं कि जो लोग जितने ज्यादा सुख का अर्जन करते हैं उतने ज्यादा दुखी होते चले जाते हैं? एक अनुपात है। इसलिए आज अमरीका में यदि सर्वाधिक दुख है, तो उससे तुम यह मत सोच लेना कि तुम बड़ी अच्छी स्थिति में हो। उसका कुल मतलब इतना ही है कि आज अमरीका में सर्वाधिक सुख के साधन हैं, इसलिए सर्वाधिक दुख है। दुख और सुख अनुपात में बढ़ते हैं, साथ-साथ बढ़ते हैं, एक ही साथ बढ़ते हैं। अगर दुख का अनुपात दस है, तो सुख का अनुपात दस है। अगर दुख का अनुपात सौ है तो सुख का अनुपात सौ है। जैसे ही कोई समाज समृद्ध होता है, वैसे ही बड़ी आंतरिक दीनता-दरिद्रता और दुख से भर जाता है। आज अमरीका में जितने लोग पागल होते हैं, कहीं और नहीं। जितने लोग आत्मघात करते हैं, कहीं और नहीं; और जितने लोग मानसिक शांति की तलाश करते हैं, उतने कहीं और नहीं। इससे कभी-कभी भारतीय मन बड़ा चौंकता है: दुखी तो हमें होना चाहिए, जिनके पास कुछ भी नहीं है। न खाने को है, न कपड़े हैं, न छप्पर है, न दवा है, न बच्चों को स्कूल भेजने का उपाय है–जिनके पास कुछ भी नहीं है, दुखी तो हमें होना चाहिए।
मगर तुम्हें जीवन का गणित पता नहीं।
जिनके पास कुछ नहीं है, वे ज्यादा दुखी नहीं होते। क्योंकि ज्यादा दुखी होने के लिए ज्यादा सुखी होना पहले जरूरी है। जिसने सुख जाना है, उसे दुख का पता चलता है। ऐसा समझो कि तुम महलों में रहे और फिर एक दिन तुम्हें झोपड़े में रहना पड़े तब तुम्हें झोपड़े का दुख पता चलेगा। जो झोपड़े में ही रहा है सदा, उसे झोपड़े का कोई दुख पता नहीं चलेगा। जो सड़क पर ही सोता है, उसे सड़क पर सोने में कोई दुख पता नहीं चलता। लेकिन महलों से छीन कर लाए गए लोगों को सड़क पर सोने को कहो, तब उन्हें दुख पता चलेगा। दुख की प्रतीति के लिए सुख की पृष्ठभूमि चाहिए। और इससे विपरीत भी सच है। बिना दुख की प्रतीति के सुख की प्रतीति भी नहीं होती।
इसलिए जिन लोगों को सुख अनुभव करना है, वे कई तरह के दुख पैदा करते हैं अपने लिए, तब कहीं थोड़ा बहुत सुख अनुभव कर पाते हैं। अब एक आदमी को कुछ नहीं है, वह पहाड़ चढ़ने चला! अब पहाड़ पर चढ़ना दुखपूर्ण धंधा है, जीवन का खतरा है, लेकिन पहाड़ पर चढ़ेगा! उस पहाड़ की चढ़ाई में जहां जीवन प्रतिपल खतरे में है, एक पैर फिसला तो जीवन सदा के लिए खाई-खड्डों में खो जाएगा, हड्डी-मांस-मज्जा के टुकड़ों-टुकड़ों का भी पता नहीं चलेगा, बोटी-बोटी हो जाएगा, मगर उसी दुख के कारण, उसी दुख की संभावना के कारण, शिखर पर चढ़ना एक सुख की पुलक बन जाती है।
चांद पर जाने का सुख क्या है? चांद पर चलने का सुख क्या है? क्योंकि पहुंचना अति खतरनाक है। जितनी बड़ी चुनौती होती है, जितना बड़ा खतरा होता है, उतनी ही सुख की आशा बंधती है। जो लोग बड़े सुख चाहते हैं, उन्हें बड़े दुख पैदा करने पड़ते हैं। सैनिकों का यह आम अनुभव है युद्धों के मैदानों में कि जहां जीवन बिलकुल खतरे में होता है, वहां सुख की बड़ी तरंगें उठती हैं। जहां प्रतिपल खतरा है कि अब मरे कि तब मरे, वहां जीवन में निखार आ जाता है, सब धूल-धवांस झड़ जाती है, जीवन बड़ा सतेज हो जाता है।
सुख और दुख मिश्रित हैं; एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें से तुम एक को काट नहीं सकते। इसलिए नरक और स्वर्ग तो केवल परिकल्पनाएं हैं। हमने दुख जाना है; दुख की ही जो पराकाष्ठा की कल्पना है, उसका नाम नरक है। हमने सुख जाना है; सुख की ही जो पराकाष्ठा का नाम है, उसका नाम स्वर्ग है। सुख का अर्थ है: हमने दुख को बिलकुल काट दिया अपनी कल्पना में और सुख ही सुख बचा लिया। और दुख का अर्थ है: हमने सुख बिलकुल काट दिया और दुख ही दुख बचा लिया। इसलिए नरक दुश्मनों के लिए, सुख अपने लिए, मित्रों के लिए, प्रियजनों के लिए। अगर तुम ईसाई हो, तो ईसाई सिर्फ स्वर्ग जाएंगे, बाकी बस नरक। अगर तुम मुसलमान हो, तो बहिश्त मुसलमानों के लिए, किसी और के लिए नहीं। अगर तुम जैन हो या बौद्ध हो, तो बस तुम्हारे लिए स्वर्ग या नरक, तुम्हारे लिए स्वर्ग, बाकी के लिए नरक। अपने लिए स्वर्ग और शेष जो अपने साथ नहीं हैं, उनके लिए नरक। यह मनुष्य की साधारण ईर्ष्या, जलन, वैमनस्य की वृत्ति है। और इन तीन को हमने तीन लोक बना दिया है।
दरिया कहते हैं:
तीनि लोक के ऊपरे,…
अगर सच में सत्य की खोज करनी हो तो मन के ऊपर जाना पड़ता है, मनोविज्ञान के ऊपर जाना पड़ता है।
तीनि लोक के ऊपरे, अभय लोक बिस्तार।
वह चौथा है–जहां मन शून्य हो जाता है; जहां न दुख है, न सुख है, न दोनों का मिश्रण है; जहां दुख भी शांत, सुख भी शांत; जहां सब तरंगें शून्य हो गईं; जहां चेतना की झील निस्तरंग है; जहां सब स्तब्ध हो गया; जहां कोई शोरगुल नहीं–न प्रीतिकर, न अप्रीतिकर–जहां न कांटे हैं, न फूल; जहां न अपने हैं, न पराए; जहां न सफलता है, न विफलता है; जहां मन की सारी दौड़ें शांत हो गईं–जहां मन ही नहीं है–उस अ-मनी दशा को, उस उनमनी दशा को चौथी अवस्था कहा है, तुरीय कहा है।
उसको ही पतंजलि निर्विकल्प समाधि कहते हैं। जब तक विकल्प हैं, तब तक समाधि पूर्ण नहीं। जब तक कोई भी विचार है, तब तक समाधि पूर्ण नहीं। जब तक कोई भी अनुभव हो रहा है–सुख का या दुख का–तब तक समाधि पूर्ण नहीं है। जब कोई भी अनुभव नहीं होता, दर्पण तुम्हारी अनुभूति का बिलकुल निर्मल होता है, चित्त-वृति निरोधः, जहां चित्त की सारी वृत्तियों का निरोध हो गया है–वह दशा योग की है। वहां तुम परमात्मा से मिलते हो। उस चौथी दशा में तुम परमात्मा हो जाते हो।
तीनि लोक के ऊपरे, अभय लोक बिस्तार।
और वहीं भय मिटता है, इसलिए उसे अभय लोक कहा है। जो दुखी है, वह भी भयभीत रहता है–कि कहीं और दुख न आ जाएं। जो दुखी है, वह भयभीत रहता है कि पता नहीं कब इन दुखों से छुटकारा होगा, होगा भी कि नहीं होगा। जो सुखी है, वह भी भयभीत रहता है कि यह कितनी देर टिकेंगे सुख! अतीत के अनुभव यही कहते हैं कि सुख आते हैं, चले जाते हैं, टिकते नहीं। तो जो सुखी है, भय के कारण जोर से पकड़ता है। जो दुखी है, वह हटाता है। मगर चैन दोनों को नहीं है। जो सुखी है वह भी जानता है कि आज नहीं कल हाथ से छिटक जाएगा सुख। इसलिए पकड़ लो, चूस लो! मगर जितने जोर से तुम सुख को पकड़ोगे, उतने जल्दी छिटक जाता है।
सुख पारे जैसा है; मुट्ठी बांधी कि बिखर जाएगा। फिर बीनते फिरो पूरे फर्श पर और न बीन पाओगे। और जिंदगी लोगों की बिखरे हुए पारों को बीनने में ही बीत जाती है। और दुख को तुम जितना हटाओगे, उतना तुमसे चिपकेगा। दुख से तुम जितने भागोगे, छाया की तरह तुम्हारा पीछा करेगा। यह हमारी सामान्य अवस्था है। दोनों हालत में भय बना रहता है। दुखी आदमी तो भयभीत होता ही है कि इतना तो मिल गया, पता नहीं, हे प्रभु, और अब क्या होने को है!
मैंने सुना है, दिल्ली के एक राजनेता मरे। मरने के पहले–बड़े राजनेता थे, तो बड़ी दूर तक उनकी पहुंच थी–मरने के पहले आंखें बंद किए पड़े थे, देवदूत आ गए और कहा कि मृत्यु करीब है। राजनेता ने कहा: इतनी तो कृपा करो… कहां मुझे जाना है; जाने के पहले मैं स्वर्ग और नरक दोनों देख लेना चाहता हूं, ताकि चुनाव कर सकूं। बड़े नेता थे, चुनाव का हक होना ही चाहिए! देवदूतों ने कहा कि ठीक है… रिश्वत तो वहां भी चलती है। यहीं के लोग तो वहां देवदूत हो जाते हैं। यहीं की आदतें वहां पहुंच जाती हैं… नेता ने रिश्वत दी तो देवदूतों ने कहा कि ठीक है, एक झलक दिखा देते हैं।
पहले स्वर्ग ले गए। कुछ उदास-उदास सा मालूम पड़ा स्वर्ग! सुस्त-सुस्त! होगा भी, अगर तुम्हारे साधु-संत स्वर्ग जाते हैं तो होगा ही सुस्त! न वीणा बजेगी, न बांसुरी बजेगी। साधु-संत बैठे हैं अपने-अपने झाड़ के नीचे! धूलें जम गई होंगी, सदियों-सदियों से बैठे अनंत काल से। और साधु-संत नहाते-धोते तो हैं ही नहीं–शरीर का क्या आवेष्ठन! दतौन इत्यादि भी नहीं करते जो बहुत पहुंचे हुए संत हैं। जैन मुनि दतौन नहीं करते। क्या दतौन करना! यह तो सांसारिक लोगों के काम हैं। यह तो जैनियों के हाथ में अगर फिल्मों का बनाना आ जाए तो चुंबन तो दूर, दतौन भी बंद हो जाए। क्योंकि दतौन इत्यादि भी आदमी इसलिए करता है कि किसी का चुंबन करे, आलिंगन करे तो बास न आए। इसलिए पश्चिम में, जहां चुंबन खूब चलता है, वहां मुंह को सुवासित करने के लिए भी स्प्रे होते हैं।… बैठे हैं अपनी धूनी रमाए। कुछ नेता को जंचा नहीं! यह तो ऐसे लगा जैसे कुंभ का मेला हो–तरह-तरह के सर्कस, अखाड़े। कहा कि भाई, नरक और दिखा दो।
नरक देखा तो चकित हो गया। भरोसा न आया। जिस विश्रामालय में ले जाकर बिठाया गया, वातानुकूलित था, एअरकंडीशंड था; मधुर-मधुर संगीत बज रहा था, सुंदर कैबरे नृत्य चल रहा था। जंचा नेता को! दिल्ली का ही तो नेता था आखिर! लगा यह तो बिलकुल अशोका होटल मालूम होता है। अशोका को भी मात किया! और शैतान ने बड़े पुष्पहार पहनाए। और असली फूलों के… खादी के फूल भी नहीं, असली फूल! और ऐसी सुगंध जैसी नेता ने कभी जानी न थी। चाय लेंगे, काफी लेंगे, कोकाकोला लेंगे? कहा: कोकाकोला भी मिलता है यहां? दिल्ली में तो मुश्किल हो गया है। कोकाकोला भी ठीक फ्रिज से ठंडा किया हुआ! बहुत आनंदित हुए। कहा: यहीं आना चाहता हूं। देवदूतों से कहा कि बस, मरने के बाद यहां ले आना।
छह घंटे बाद उनकी मौत हुई, देवदूत लेकर नरक पहुंचे। जो आंख खोली तो एकदम घबड़ाहट हो गई। भयंकर लपटें जल रही थीं, कड़ाहे चढ़ाए गए थे, तेल उबल रहा था! लोग तेल में डाले जा रहे थे, सड़ाए जा रहे थे, बड़े कोड़े मारे जा रहे थे! नेता ने कहा: भाई, यह मामला क्या है, कुछ भूल-चूक हो गई क्या? थोड़ी देर पहले, छह घंटे पहले मैं आया था…! शैतान खिलखिला कर हंसने लगा। उसने कहा कि वह हमारा अतिथिगृह है। जो ऐसे ही दर्शक की तरह आते हैं, उनके लिए है। अब यह असली नरक! वह तो टूरिस्टों के लिए है। टूरिस्टों के लिए तो सब जगह इंतजाम करना पड़ता है। विशेष इंतजाम करना पड़ता है! अच्छी-अच्छी चीजें दिखाते हैं। अब असली मजा लो!
मैंने एक और नेता के संबंध में सुना। वे मरे, सीधे नरक ले जाए गए। और कहीं तो नेता जा भी नहीं सकते! अगर नेता कहीं और जा सकते हैं तो फिर बाकी लोगों में से कौन नरक जाएगा? सीधे नरक ले जाए गए। लेकिन पुराने नेता थे, जाने-माने नेता थे, काफी प्रसिद्धि थी–नरक के अखबारों में भी उनकी तस्वीरें छपती थीं–तो शैतान ने कहा: आप बड़े आदमी हैं, पहुंचे हुए हैं, जगत में आपकी बड़ी ख्याति है, इतना आपके लिए कर सकता हूं कि आप खुद ही चुन लें; नरक में कई विभाग हैं, जहां आपको रहना हो!
नेता ने इसमें भी बड़ी राहत ली कि चलो, थोड़ा चुनाव की सुविधा है।
एक जगह गए तो लोग कड़ाहों में जलाए जा रहे हैं। एक जगह गए तो लोगों को भयंकर कोड़े मारे जा रहे हैं! एक जगह गए तो लोगों की छातियों पर बड़े-बड़े पत्थर रखे गए हैं और उनके ऊपर राक्षस कूद रहे हैं। ऐसे जगह-जगह… बड़ी घबड़ाहट होने लगी नेता को कि इनमें से चुनना, कोई भी चुनना मुसीबत में पड़ना है। यह सब एक से एक पहुंचे हुए उपद्रव हो रहे हैं! एक जगह जाकर थोड़ा अच्छा लगा। लोग खड़े हैं–यद्यपि स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है, घुटने-घुटने तक मल-मूत्र भरा है। घुटने-घुटने मल-मूत्र में खड़े हैं–लेकिन चाय पी रहे हैं। उन्होंने कहा: कम से कम यह बेहतर है। मल-मूत्र का तो ऐसा है कि चलेगा! और जिंदगी भर की आदत है, मल-मूत्र में ही तो रहे। राजनीति मल-मूत्र के सिवा और क्या है? तो यह तो घुटने-घुटने क्या गले-गले भी इसमें डुबकी मारी है, यह तो ठीक है, यह चलेगा, मगर चाय भी पी रहे हैं लोग और गपशप भी कर रहे हैं–यह जंचा! उन्होंने कहा कि यह जगह ही मैं चुन लेता हूं। एक कप हाथ में थमा दिया गया, गरम-गरम चाय, मल-मूत्र में खड़े होकर पीने लगे, घुटने-घुटने मल-मूत्र में डूबे और तभी एकदम से घंटी बजी और जोर से खबर आई कि बस, अब सब लोग शीर्षासन करें।
ज्यादा देर नहीं चलती ये बातें। नरक में चाय भी मिले तो जरा सावधान रहना, कि जल्दी ही शीर्षासन करवाएंगे। अब शीर्षासन घुटने-घुटने मल-मूत्र में।
नरकहमारी परिकल्पनाएं हैं दुख की। जो-जो दुख आदमी सोच सकता है, वे हमने नरक में आरोपित किए हैं। लेकिन ध्यान रखना, जो-जो आदमी सोच सकता है, वह हो सकता है–हो ही रहा है। लोग मल-मूत्र में ही तो खड़े हुए हैं। मल-मूत्र में ही तो चाय इत्यादि भी चल रही है। और मल-मूत्र में ही शीर्षासन भी हो रहे हैं। तुम जरा अपनी जिंदगी को गौर से देखो, वहां तुम्हें क्या सुगंध अनुभव हो रही है? और तुम्हारी जिंदगी में जो थोड़े-बहुत सुख हैं, वे भी बड़े उदास हैं। उन सुखों में भी कोई त्वरा नहीं है, कोई रंग नहीं है। वे भी ज्योतिर्मय नहीं हैं। उन पर भी बड़ी धूल जमी है। वे भी पुनरुक्तियां हैं। हां, कभी-कभी कोई क्षण आता है जब अच्छा लगता है, मगर वैसे क्षण बहुत बार आ चुके हैं। वे क्षण भी नये नहीं हैं। वे क्षण भी परिचित हैं। उनमें भी कोई पुलक नहीं है। उनमें भी कुछ ऐसा आनंद-उल्लास नहीं है।
मगर इन दोनों के बीच आदमी डोलता रहता है–सुख और दुख। सुख होता है तो दुख से भयभीत रहता है कि कहीं दुख न आ जाए, सुख को पकड़ लूं–हालांकि सुख में भी कुछ होता नहीं, मगर बेहतर है, कम से कम बेहतर है, कम से कम दुख तो नहीं है।
एक धनी आदमी मर रहा था तो अपने बेटे को पास बुला कर कहा: तुझे मुझे कुछ बात कहनी है, एक खास बात कहनी है, कि बेटा, धन से सुख नहीं मिलता। मैंने जिंदगी भर धन इकट्ठा करके, यह अनुभव किया–धन से सुख नहीं मिलता। बेटे ने कहा: जो भी हो, मगर धन की वसीयत मेरे ही नाम कर जाना। बाप ने कहा: क्यों तुझे मेरी बात समझ में नहीं आई? बेटे ने कहा: बात बिलकुल ही समझ में आ गई है मुझे कि धन से सुख नहीं मिलता। लेकिन धन में एक सुविधा है–आदमी दुख चुन सकता है। जो भी दुख चाहिए, वह ले। धन न हो तो दुख चुनने तक की स्वतंत्रता नहीं रहती। इसका तो खयाल करो। धन हो तो आदमी महल में दुख लेना चाहे महल में दुख ले, हिमालय पर जाकर दुख लेना चाहे हिमालय पर दुख ले। स्विटजरलैंड में लेना चाहे दुख तो स्विटजरलैंड में ले; इस स्त्री का दुख लेना चाहे इसका ले, उस स्त्री का लेना चाहे उस स्त्री का ले। धन में एक सुविधा है, आदमी कम से कम दुख तो चुन सकता है अपनी मौज से। अगर धन पास में न हो, तो दुख चुनने तक की स्वतंत्रता नहीं रह जाती।
तो बेटे ने कहा: आप बिलकुल ठीक कहते हैं पिताजी, कि धन से सुख नहीं मिलता, लेकिन एक बात मैं आपको याद दिला दूं–धन से आदमी अपने दुख अपनी मौज से चुन सकता है।
शायद इतना ही फर्क है गरीब और अमीर आदमी में। गरीब को दुख चुनने की स्वतंत्रता नहीं है, अमीर को दुख चुनने की स्वतंत्रता है। मगर स्वतंत्रता है दुख चुनने की ही। यह भी कोई बड़ा फर्क हुआ? यह भी कोई बड़ा भेद हुआ? और अक्सर तो ऐसा हो जाता है कि पुराने पिटे-पिटाए दुख धीरे-धीरे हमारे मन में राजी आ जाते हैं। रोज-रोज नये-नये दुख चुन कर आदमी और भी दुखी होता है, क्योंकि उनकी पीड़ा अपरिचित होती है। उनका संताप नया होता है, उनके कांटे नये-नये स्थानों पर चुभते हैं।
दरिया कहते हैं: लेकिन दोनों भय की अवस्थाएं हैं। अभय कहां है? अभय तो वहां है जहां न दुख की चाह है न सुख की चाह है। जहां आदमी ने यह देख लिया कि दुख तो व्यर्थ हैं ही, सुख भी व्यर्थ हैं। और यह दोनों बातें अगर साथ-साथ न दिखाई पड़ें तो तुम्हारे जीवन में क्रांति न हो पाएगी। अगर तुम्हें लगे कि दुख तो व्यर्थ हैं, सुख व्यर्थ नहीं हैं, तो सुख के बचाने में दुख भी बच जाएंगे; वे एक ही साथ होते हैं, अलग-अलग किए ही नहीं जा सकते। उनको भिन्न-भिन्न करने के लिए कोई उपाय नहीं, कोई तलवार उनको दो टुकड़ों में नहीं काट सकती है। वे एक ही चीज को देखने के दो ढंग हैं, एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं।
तुम ऐसा समझो कि तुम्हारे पास पांच लाख रुपये हैं और तुम्हें कल दस लाख मिल जाएं, तो तुम सुखी होओगे या दुखी? तुम खूब सुखी हो जाओगे। और जिस आदमी के पास आज पंद्रह लाख रुपये हैं, कल उसके पास दस ही लाख रुपये रह जाएं, उसकी हालत क्या होगी? वह बहुत दुखी हो जाएगा। दोनों के पास दस लाख रुपये हैं। एक के पास पांच थे, उसके दस हो गए, एक के पास पंद्रह थे, उसके भी दस हो गए। अगर दस लाख रुपये में सुख होता तो दोनों को होना चाहिए था; दस लाख में दुख होता तो दोनों को होना चाहिए था। लेकिन एक को सुख हो रहा है क्योंकि उसके पास पांच थे, और एक को दुख हो रहा है क्योंकि उसके पास पंद्रह थे। तो दस लाख में सुख और दुख नहीं है, तुम्हारे देखने पर निर्भर हैं। तुम्हारी तुलना पर निर्भर है। तुम्हारी अपेक्षा पर निर्भर है।
इसलिए सुख-दुख को अलग नहीं किया जा सकता।
एक आदमी अपने घर आया और अपने निकटतम मित्र को ऐसी अवस्था में देखा कि उसे भरोसा न आया। उसकी पत्नी को वह गले लगा रहा था। जो पत्नी को गले लगा रहा था मित्र, वह भी थोड़ा घबड़ा गया कि अब क्या जवाब देगा। लेकिन उसके मित्र ने कहा: कोई चिंता न करो, जरा मेरे साथ बगल के कमरे में आओ। बगल के कमरे में ले जाकर कहा कि मुझे तो उसे गले लगाना पड़ता है, लेकिन मूर्ख, तू क्यों लगा रहाहै? मेरी तो मजबूरी है कि विवाह कर बैठा तो मुझे तो उसे गले लगाना पड़ता है, मगर मूर्ख, तुझे क्या हुआ? तुझे कौन सी परेशानी है जो तू गले लगा रहा है?
एक के लिए जो सुख हो सकता है, दूसरे के लिए दुख हो सकता है। वही घटना जो तुम्हें आज सुख है, कल दुख हो सकती है। आज जिस पत्नी के पीछे तुम दीवाने हो, कल उसी पत्नी से बचने के लिए दीवाने हो सकते हो। आज जिसके लिए मर सकते थे, कल उसी को मार सकते हो। आज जो मित्र था, कल शत्रु हो जाए। आज जो शत्रु है, कल मित्र हो जाए।
सुख और दुख अलग-अलग नहीं हैं–देखने के ढंग हैं, दृष्टियां हैं। और जो सारी दृष्टियों के ऊपर उठ जाता है, उसे दर्शन उपलब्ध होता है। जिसके पास कोई पक्षपात नहीं रह जाता; जो कहता है: न मुझे यह चाहिए, न वह चाहिए; न यह छोड़ना है, न वह छोड़ना है; जो न भोगी है, न त्यागी है–भोगी है सुख को पकड़ने वाला और जिसको तुम त्यागी कहते हो, वह है दुख को पकड़ने वाला, ज्ञानी दोनों नहीं करता। तुम्हारे भोगी अज्ञानी, तुम्हारे त्यागी अज्ञानी। ज्ञानी वह है जो न पकड़ता, न छोड़ता; जो आ जाता है, देखता है; जो चला जाता है, उसको जाते देखता है। ज्ञानी तो सिर्फ साक्षी होता है। एक द्रष्टा मात्र। कांटा गड़ा तो कांटे को देखता है, फूल गिरा तो फूल को देखता है। न फूल को पकड़ रखने की इच्छा है, न कांटा नहीं लगना चाहिए था, ऐसी कोई आकांक्षा। ऐसी चैतन्य की शांत अवस्था में अतिक्रमण होता है, भय के पार व्यक्ति उठ जाता है।
तीनि लोक के ऊपरे, अभय लोक बिस्तार।
सत्त सुकृत परवाना पावै, पहुंचै जाय करार।।
लेकिन केवल वे ही पहुंच सकते हैं जो परवाने हैं। जो सत्य की ज्योति में जल जाने को तत्पर हैं।
सत्त सुकृत परवाना पावै,…
जो अपने अहंकार को राख कर देने को तैयार हैं, जो अपने मन को भस्मीभूत कर देने को तैयार हैं, केवल वे ही… ‘पहुंचै जाय करार’… वे ही उस अदभुत तट पर लगते हैं। उनकी नौका उस तट पर लग जाती है जहां न सुख है, न दुख है। सुख स्वर्ग, दुख नरक–और दोनों के जो पार है, उसका नाम मोक्ष। उसी का नाम निर्वाण। ‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’
जोतिहि ब्रह्मा बिस्नु हहिं, संकर जोगी ध्यान।
सत्तपुरुष छपलोक महं, ताको सकल जहान।।
ज्योति-स्वरूप हैं ब्रह्मा, विष्णु, ज्योति-स्वरूप हैं शंकर, और ज्योति-स्वरूप हो जाओगे तुम भी, अगर योग को उपलब्ध हो जाओ, ध्यान को उपलब्ध हो जाओ। ध्यान का अर्थ है: तुम्हारा तादात्म्य छूट जाए–उन सब चीजों से जो तुम्हारे आस-पास घटती हैं लेकिन तुम नहीं हो। जैसे दर्पण के सामने से कोई गुजरा, एक सुंदर स्त्री गुजरी और दर्पण ने कहा: अहा, मैं कितना सुंदर हूं! यह तादात्म्य। एक कुरूप आदमी निकला और दर्पण सिकुड़ गया और मन ही मन बेचैन हो उठा और बड़ी ग्लानि लगी कि मैं भी कैसा कुरूप! यह तादात्म्य। लेकिन सुंदर स्त्री निकली कि कुरूप पुरुष निकला, दर्पण चुपचाप देखता रहा, झलकता रहा, जो भी निकला उसको झलकाता रहा और जानता रहा कि मैं तो दर्पण हूं, केवल दर्पण हूं, जो भी मेरे सामने आता है उसका प्रतिबिंब बनता है–यह साक्षीभाव, यह ध्यान।
दुख आया, तुम दुखी हो गए–ध्यान चूक गया। सुख आया, तुम सुखी हो गए–ध्यान चूक गया। दुख आया, आने दो, जाने दो; सुख आया, आने दो, जाने दो–तुम दर्पण रहो। तुम देखो भर। तुम इतना कहो कि अभी दुख है, अभी सुख है; अभी सुबह, अभी सांझ; अभी रोशनी थी, अब अंधेरा हो गया; अभी बसंत था, अब पतझड़ आ गया; अभी जिंदगी थी, अब मौत आ गई; तुम बस देखते रहो, और जो भी तुम देखो, उसके साथ एक मत हो जाओ, एकाकार मत हो जाओ। बस इतनी ही सी तो कला है ध्यान की!
और जो ध्यान को उपलब्ध हो गया, वह योग को उपलब्ध हो गया। क्योंकि जिसने अपने आस-पास घटती हुई घटनाओं से संबंध तोड़ लिया, उसका संबंध उस परम परमात्मा से जुड़ जाता है जो भीतर छिपा बैठा है। तुम दो में से एक से ही जुड़ सकते हो–या तो संसार से, जो तुम्हारे चारों तरफ है; या परमात्मा से, जो तुम्हारे भीतर है।
जोतिहि ब्रह्मा बिस्नु हहिं, संकर जोगी ध्यान।
सत्तपुरुष छपलोक महं, ताको सकल जहान।।
और अगर तुम सारे तादात्म्य छोड़ दो, तो तुम्हारे भीतर जो गुप्तलोक है, तुम्हारा जो रहस्यों का लोक है, तुम्हारे भीतर जो हृदय की अंतर-गुहा है, जहां तुम्हारे अतिरिक्त कोई और नहीं जा सकता–इसलिए उसे गुप्तलोक कहते हैं–बस तुम ही जा सकते हो वहां, दूसरा कोई तुम वहां नहीं ले जा सकते, अपने निकटतम मित्र को भी निमंत्रण नहीं दे सकते कि आओ मेरे भीतर, अपनी प्रेयसी को भी नहीं साथ ले जा सकते; प्रेयसी और मित्र तो बहुत दूर, अपने मन को भी साथ नहीं ले जा सकते, अपने तन को भी साथ नहीं ले जा सकते, अपने विचार के कण को भी साथ नहीं ले जा सकते, वहां कुछ भी नहीं ले जा सकते, सब बाहर का बाहर ही छोड़ देना पड़ता है। वहां तो बिलकुल ही निर्भार होकर… चित्तवृत्तिनिरोधः… जहां सारी चित्त की वृत्तियां बाहर छोड़ दी गई हैं, वैसी निवृत्ति की दशा में, वैसी संन्यस्त दशा में तुम अपने भीतर प्रवेश करते हो। और अकेले तुम ही प्रवेश कर सकते हो। उसी को दरिया कहते हैं: छपलोक, गुप्तलोक, छिपा हुआ लोक।
सत्तपुरुष छपलोक महं, ताको सकल जहान।
और वहां तुम उसे पाओगे जिसका यह सारा संसार है, जिसका यह सारा विस्तार है। वहां तुम मालिकों के मालिक को पा लोगे। और जिसने उसे पा लिया, सब पा लिया। जिसने उसे जान लिया, सब जानने योग्य जान लिया।
सोभा अगम अपार,…
उसकी शोभा अगम है, अपार है…
सोभा अगम अपार, हंसवंस सुख पावहीं।
कोइ ग्यानी करै विचार, प्रेमतत्तु जा उर बसै।।
‘सोभा अगम अपार’… कह न सकोगे, गूंगे हो जाओगे। बोल न सकोगे, अवाक हो जाओगे। हठात ठिठक जाओगे। जो दिखाई पड़ेगा, इतना विराट है कि उसमें तुम लीन हो जाओगे। जैसे एक छोटा सा दीया और सूरज से मिल जाए! एक छोटी बूंद सागर से मिल जाए!
सोभा अगम अपार, हंसवंस सुख पावहीं।
लेकिन केवल वे ही पा सकेंगे जिन्हें अपने हंस होने की याद आ गई कि हम हंसों के वंशज हैं।
तुम बुद्धों के वंशज हो–महावीर, मोहम्मद, जरथुस्त्र, लाओत्सु, बुद्ध, कबीर, नानक, दरिया, फरीद, तुम इनके वंशज हो। तुम परमहंसों के वंशज हो। मगर न मालूम किस भ्रांति में छोटे-छोटे ताल-तलैयों के पास बैठ गए हो, गंदे डबरों के पास बैठ गए हो। और वहीं घर बना लिया। वहीं गृहस्थी सजा ली!
ताल-तलैयों के पास जो बस गए हैं, उनका नाम गृहस्थ। और जिन्हें भूल ही गई याद कि दूर हिमालय के उत्तुंग शिखरों के पीछे छिपा हुआ हमारा लोक है, हमारा मानसरोवर है; जिन्हें भूल ही गई यह बात कि हम मोतियों को चुगते थे, कंकड़-पत्थरों पर अब निर्भर हो रहे हैं–उन्हीं को याद दिलाने के लिए जो जाग गए हैं वे पुकारते हैं और कहते हैं: हंसो, जागो! हंसा, उड़ चल वा देश!!
सारे बुद्धों की प्रक्रियाएं, सारे बुद्धों के शब्द एक छोटे से सूत्र में बांधे जा सकते हैं: हंसा, उड़ चल वा देश! तुम्हें याद दिलानी है तुम्हारे देश की! तुम परदेश में हो। तुम्हें स्वदेश भूल गया है।
सोभा अगम अपार, हंसवंस सुख पावहीं।
लेकिन जो दरिया के शब्द सुनेंगे और जिन्हें जरा भी याद आ जाएगी कि अरे, मैं कौन! उन्हें बड़ा सुख मिलेगा।
…हंसवंस सुख पावहीं।
ये शब्द उनके कानों में पड़ते हुए अमृत घोल जाएंगे।
…हंसवंस सुख पावहीं।
एक क्षण में उनके भीतर क्रांति हो सकती है। जिन्होंने सुना, एक क्षण में क्रांति हो गई है।
मैंने सुना है, एक सम्राट अपने बेटे पर नाराज हो गया। उसने उसे देश-निकाला दे दिया। देश निकाला देकर पछताया भी बहुत, लेकिन जिद्दी आदमी था। सोचा कि आज नहीं कल बेटा लौट आएगा, क्षमा मांगेगा तो क्षमा कर दूंगा। आखिर कब तक भटकेगा? लौटेगा। मगर बेटा भी बाप का ही बेटा था, वह भी जिद्दी था, वह भी नहीं लौटा तो नहीं लौटा। दस वर्ष बीत गए। बाप बूढ़ा होने लगा। एक ही बेटा था। वही मालिक था सारे राज्य का। अब बहुत पछताने लगा। उसने अपने वजीरों को भेजा कि खोजो, वह कहां है? अब राजपुत्र था, उसे कुछ और तो आता नहीं था; न कभी मजदूरी की थी, न कभी कोई और हस्तकला सीखी थी, नौकर-चाकर हर काम करते थे उसका। अगर कभी कोई राजा का बेटा चूक जाए राज्य से तो उसके पास सिवाय भिखारी होने के कोई और उपाय बचता नहीं। तो भिखारी हो गया था। भीख मांगता था। दस वर्ष में तो उसे याद ही भूल गई धीरे-धीरे कि मैं सम्राट था।
याद रखनी उचित भी नहीं। क्योंकि अगर यह याद बनी रहे तो पीड़ा बनी रहे, घाव भरे ही नहीं! घाव को भरना भी चाहिए न, आखिर आदमी को जीना है! और भीख मांगनी है। अल्युमिनियम के एक पात्र में भीख मांगता फिरता है। दो-दो पैसे, चार-चार पैसे के लिए गिड़गिड़ाता है। अगर वह याद रखे कि मैं सम्राट का बेटा हूं, तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा। और जब दुतकारा जाएगा कि आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, आज नहीं, कल जाना, कि आज घर में रोटी नहीं है, कि आज कोई घर में देने वाला नहीं है–अगर सम्राट का बेटा हो तो तलवार खींच ले। अगर सम्राट का बेटा हो तो पकड़ कर इस आदमी की गर्दन दबा दे। यह तो खतरनाक हो जाए! जिसे दो-दो पैसे मांगने हैं, वह कितनी देर तक सम्राट होने की याद रखेगा! हां, कुछ दिन तक, महीने दो महीने याद आती रही होगी। फिर याद का जीवन से जब कोई तालमेल न हो, तो याद धीरे-धीरे विस्मृत हो गई। दस साल में तो उसे बात आई-गई भूल ही गई। सपने में भी याद नहीं आती थी। भिखमंगा हो गया था, बिलकुल भिखमंगा हो गया था।
भीख मांग रहा था एक होटल के सामने, जहां लोग जुआ खेल रहे थे, चाय पी रहे थे, सिगरेट फूंक रहे थे। कह रहा था कि मेरे पैर जल रहे हैं, धूप बहुत तेज है, गर्मी आ गई, जूते मेरे पास नहीं हैं, कुछ-कुछ पैसा दे दो तो मैं जूते खरीद लूं। कुछ पैसे उसके भिक्षापात्र में थे भी, उनको खड़खड़ा रहा था, लोगों से गिड़गिड़ा रहा था! तभी आकर स्वर्ण-रथ वजीरों का रुका होटल के सामने। स्वर्ण-रथ का रुकना और दस साल एक–एक क्षण में पुंछ गए! स्वर्ण-रथ का रुकना, वजीर को देखना और वजीर का उतर कर और भिखारी के चरणों में गिरना, और कहा कि महाराज, वापस चलें। आपके पिता ने याद किया है, वे बूढ़े हो गए। सारा राज्य आपका है। आप यहां क्या कर रहे हैं?
एक क्षण में क्रांति हो गई। हाथ में जो ठीकरे लिए था, जिसमें कुछ पैसे थे, उसने उसे रास्तों पर फेंक दिया। अभी उन्हीं पैसों के लिए गिड़गिड़ा रहा था। अभी जो उसे एक पैसा देने को राजी नहीं थे, वे सब… होटल के सब काम बंद हो गए, जुआ बंद हो गया, होटल का मालिक, मैनेजर, सारे लोग भाग कर, भीड़ लगा कर खड़े हो गए कि महाराज, याद रखना हमें, भूल मत जाना!
उस राजकुमार ने कहा: सबसे पहले तो मेरे स्नान का इंतजाम करो, सुंदर वस्त्रों का इंतजाम करो, फिर मैं वापस चलता हूं। एक क्षण में दस साल ऐसे शून्य हो गए, जैसे कि रहे ही न हों! और एक क्षण में लोगों ने देखा कि उसकी आंखें कुछ और, भिखमंगे की आंखें कुछ और, सम्राट की आंखें कुछ और! अभी कपड़े वही भिखमंगे के थे, मगर उसके भीतर से एक ज्योति, एक आभा प्रकट होने लगी। उसकी चाल बदल गई! उसके खड़े होने का ढंग बदल गया! वह जब सिंहासन पर बैठा तो आदमी ही और था। कोई सोच ही नहीं सकता था कि यह दस साल तक भीख मांग रहा था।
दरिया की बात अगर सुनाई पड़ जाए तो ऐसी ही घटना तुम्हारे भीतर घट सकती है–घटनी चाहिए।
…हंसवंस सुख पावहीं।
कोइ ग्यानी करै विचार,…
तुममें जो थोड़े बोधपूर्ण होंगे, वे ही समझ पाएंगे, वे ही विचार कर पाएंगे।
…प्रेमतत्तु जा उर बसै।
तुम्हारे हृदय में ही वह तत्व बसा हुआ है, प्रेम का, जो अंततः परमात्मा को उघाड़ देता है। तुम्हारे भीतर ही प्रेम की किरण है जो परमात्मा के सूर्य से तुम्हें जोड़ देगी। सुनो! गुनो! ‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’
जो सत सब्द बिचारै कोई। अभय लोक सिधारै सोई।।
विचार करते ही अभय लोक के द्वार खुल जाते हैं। यह आघात पड़ते ही एक क्षण में महाक्रांति हो जाती है। कोई परमात्मा को साधना थोड़े ही है, सिर्फ हमने विस्मरण किया है, याद करना है, इसीलिए तो सारे संतों ने कहा है: नाम-स्मरण। नाम-स्मरण में बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। उसका कुल अर्थ इतना ही है कि तुम्हें कुछ करना नहीं है, सिर्फ याद करनी है, सिर्फ पुकार करनी है। तुम्हें बदलना नहीं है अपने को, तुम हो तो वही।
यह सम्राट के बेटे को कुछ बदलना पड़ा अपने को? यह था तो सम्राट का बेटा ही सिर्फ भूल गया था, विस्मृति हो गई थी।
और विस्मृति हो जाती है, बड़ी आसानी से हो जाती है। क्योंकि चारों तरफ विस्मृत लोग हैं। उन्हीं से तुम जुड़े हो। सत्संग का तो कहां सौभाग्य! कभी-कभार बड़ी मुश्किल से किसी सौभाग्यशाली को सत्संग मिलता है! नहीं तो भीड़-भाड़ है उन्हीं लोगों की–तुम्हारे जैसे ही लोगों की!
मैंने सुना है, एक हंस जा रहा था उड़ा हुआ अपनी हंसनी के साथ, कि रात थक गया था, एक वृक्ष पर बसेरा किया। कौवे का दिल आ गया उसकी हंसनी पर। स्वाभाविक। सोचा होगा कौवे ने: हेमामालिनी को कहां उड़ाए ले जा रहे हैं! बच्चू, अब बच कर निकल न सकोगे! कौओं का ही डेरा था उस वृक्ष पर। उसने बाकी कौओं को भी कहा कि इसको ऐसे निकलने न देंगे! ऐसी प्यारी चीज कहां लिए जा रहा है!
सुबह हुई, जब हंस उड़ने लगा, तो कौवे ने कहा: ठहरो भाई! वह जो कौआ नेता था, कौओं का, उसने कहा: मेरी पत्नी को कहां लिए जा रहे हो? हंस ने कहा: तुम्हारी पत्नी! होश से बात करो! यह हंसनी है, तुम कौवे हो,… कौवे ने कहा: होश से तू बात कर! क्या काले आदमी की गोरी औरत नहीं होती? और यह रंगभेद नहीं चलेगा। यह वर्णभेद नहीं चलेगा। किस जमाने की बातें कर रहा है? कोई मनु महाराज के जमाने की बातें कर रहा है? माना कि गोरी है, मगर पत्नी मेरी है! और न हो तो पंचायत बुला ली जाए।
तब जरा हंस डरा, क्योंकि पंचायत! तो वे ही कौवे ही थे, वहां तो कोई और हंस तो था नहीं। पंचायत जो तय कर दे। कौओं की पंचायत जुड़ी। और कौओं की पंचायत ने तय कर दिया कि पत्नी कौवे की है। हंस ज़ार-ज़ार रो रहा है! मगर करे क्या? भीड़-भाड़ कौओं की!
तुम्हारे चारों तरफ भी कौओं की भीड़-भाड़ है। उनका सारा उपाय तुम्हें विस्मरण करा देने का है। वे खुद भी भूले हैं, वे तुम्हें भी भुला रहे हैं। भीड़ से जागना पड़ता है। और जो भीड़ से जाग जाए, वही संन्यासी है। और भीड़ के बड़े सम्मोहन हैं। और भीड़ के पास बड़ी ताकत है। बना तो नहीं सकती भीड़ तुम्हें, लेकिन मिटा सकती है। वही उसकी ताकत है।
भीड़ बचपन से ही हर बच्चे को पकड़ लेती है और उसको कौआ बनाने में लग जाती है। लीपो, पोतो, संस्कार दे दो–कोई हिंदू कौआ, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन, कोई बौद्ध–सबको बना दो अलग-अलग ढंग के कौवे। कौन तुम्हें याद दिलाए कि तुम हंस हो! और तुम्हारे ऊपर इतना रंग पोता, इतनी कालिख पोती जाती है कि तुम अगर दर्पण के सामने भी पड़ जाओ तो भी तुम यही सोचोगे कि कौआ ही हूं, ये कोई हंस के ढंग हैं!
तुम्हारे सारे संस्कार अज्ञानियों के द्वारा दिए गए हैं। इसीलिए तो दरिया जैसे व्यक्ति जब तुम्हें पुकारते हैं तब भी तुम्हें याद नहीं आती। बुद्ध तुम्हें पुकारते हैं और याद नहीं आती। तुम्हारे द्वार पर ढोल बजाए जाते हैं और तुम्हें सुनाई नहीं पड़ते। नहीं कि सुनाई नहीं पड़ते, सुनाई भी पड़ जाते हैं तो भी भरोसा नहीं आता कि मैं और हंस, मैं और मानसरोवर का यात्री! नहीं-नहीं, यह बात किसी और के लिए कही जा रही होगी। यह मेरे लिए सच नहीं हो सकती। मैं तो अपनी कालिख जानता हूं।
मैं भी तुमसे कहता हूं कि तुम्हारी कालिख झूठी है। जरा ध्यान में नहाओ, बह जाएगी। तुम्हारे भीतर का हंस निखर आएगा।
जो सत सब्द बिचारै कोई। अभय लोक सिधारै सोई।।
तुम्हें सोचना ही होगा। जो जाग गए हैं, उनके वचन तुम्हें सोचने ही होंगे। और ध्यान रखना, जो जाग गए हैं, बहुत थोड़े हैं और जो सोए हैं, वे बहुत ज्यादा हैं। और सत्य का कोई निर्णय लोकतंत्र से नहीं होता। सत्य का निर्णय कोई वोट से नहीं होता। अगर कहीं वोट से निर्णय होते होते तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट कभी के हार चुके होते। कौओं की भीड़ ने हंसों की सब हंसनियां छीन ली होतीं।
सत्य का निर्णय वोट से नहीं होता। सत्य किसी के मत और भीड़ पर निर्भर नहीं होता। सत्य तो सत्य है; एक कहे कि अनेक कहें, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। और अक्सर तो एक ही कहेगा। अनेक नहीं कह सकते। क्योंकि एकाध ही कोई ध्यान को उपलब्ध होता है। अनेकों के विपरीत, अनेकों से मुक्त होकर, एकाध ही कोई मानसरोवर की यात्रा कर पाता है। और जिन्होंने यात्रा की है, उनके वचनों पर विवाद मत करना, उनके वचनों पर विचार करना।
विवाद और विचार का फर्क समझ लेना।
विवाद का अर्थ होता है: पहले ही पक्षपात तय किए हुए हैं, उन्हीं के अनुसार सोचना। विचार का अर्थ है: निष्पक्ष होकर सुनना, निष्पक्ष होकर सोचना। विचार का अर्थ है: खुले होकर, इस बात की संभावना मान कर कि हो सकता है दरिया ठीक कहते हों!
दरिया को पूरा का पूरा ध्यान देकर सुनना।
जो सत सब्द बिचारै कोई। अभय लोक सिधारै सोई।।
कहन सुनन किमिकरि बनि आवै। सत्तनाम निजु परचै पावै।।
और बड़ी कठिनाई है कहने की, दरिया कहते हैं: यद्यपि कह रहा हूं–‘दरिया कहै सब्द निरबाना’–लेकिन कठिनाई बड़ी है, क्योंकि शब्दों में बंधता नहीं वह अनुभव।
कहन सुनन किमिकरि बनि आवै।…
किस तरह कहूं उसे? कैसे तुम्हें चेताऊं? सोए को कैसे जगाऊं? बहरे को कैसे सुनाऊं? अंधे को कैसे दिखाऊं? यह सत्तनाम तो कुछ ऐसी बात है कि स्वयं परिचय हो तो ही परिचय होता है।
इसलिए कोई अगर यह सोचता हो कि जब सदगुरु मुझे ठीक-ठीक समझा देगा, पूरा-पूरा समझा देगा, तब मैं उसके साथ चलूंगा–तो फिर हो गई यात्रा! फिर यात्रा नहीं हो सकेगी। सदगुरु के साथ पूरी-पूरी समझ का अगर किसी ने पहले से ही आग्रह रखा, तो यह आग्रह पूरा किया ही नहीं जा सकता।
फिर सदगुरुओं के साथ यात्रा कैसे होती है?
दीवाने चाहिए, परवाने चाहिए। अब परवाना कोई शमा से यह थोड़े ही पूछता है कि पहले सिद्ध कर कि तू शमा है; कि पहले सिद्ध कर कि तुझमें मैं जलूंगा तो इससे मेरा पुनर्जन्म होगा; कि पहले सिद्ध कर कि क्यों आऊं तेरे पास, क्या है तेरे पास देने को, मुझे तो सिर्फ मृत्यु दिखाई पड़ती है, अमृत का तो मुझे कुछ अनुभव नहीं होता।
सदगुरु तो शमा है। शिष्य जब उसके पास आता है तो किसी बड़े चुंबकीय आकर्षण में खिंचा चला आता है। यह कोई सिर्फ चिंतन-मनन की बात नहीं है। चिंतन-मनन के पार कोई उसके हृदय को पकड़ लेता है, मथ डालता है। जैसे कोई किसी के प्रेम में गिर जाता है, ऐसे ही सदगुरु के प्रेम में गिरे, तो ही यात्रा शुरू हो सकती है। सदगुरु के साथ संबंध जोड़ना बस थोड़े से हिम्मतवर पागलों की बात है, मस्तों की बात है।
दिल ने रग-रग से छिपा रक्खा है राजे-इश्क दोस्त।
जिसको कह दे नब्ज ऐसी मेरी बीमारी नहीं।।
नब्जों से पहचानी जा सकें जो बीमारियां, प्रेम की बीमारी ऐसी बीमारी नहीं। औषधियों से जिनका इलाज हो सके, प्रेम की बीमारी ऐसी बीमारी नहीं। इसका इलाज तो सिर्फ समाधि से होता है, औषधि से नहीं। यह बीमारी तो बड़ी आंतरिक है। और बीमारी भी बीमारी नहीं, सौभाग्य है। धन्यभागी हैं वे जिनका किसी सदगुरु के साथ प्रेम का नाता जुड़ जाता है, जो सब छोड़-छाड़ उसके साथ हो लेते हैं, क्योंकि परमात्मा उन्हीं का है, और परमात्मा का राज्य भी उन्हीं का है।
लीजै निरखि भेद निजु सारा। समुझि परै तब उतरै पारा।।
सदगुरु के पास बैठ कर करना क्या होता है? साक्षीभाव। बैठना, देखना सदगुरु को–कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसे बोलता, कैसे नहीं बोलता? उसकी आंखों में झांकना। उसके हाथ में हाथ देना। उसके पैरों में सिर रखना। उसकी हवा को पीना। हां, उसकी हवा को श्वासों में भीतर ले जाना। क्योंकि उसकी हवा में भी कुछ पराग है, जो श्वासों के माध्यम से तुम्हारे हृदय को भी जाकर आंदोलित करेगी।
सत्संग का यही अर्थ होता है।
लीजै निरखि भेद निजु सारा।…
खूब निरखो, खूब पीओ!
…समुझि परै तब उतरै पारा।
और तब एक दिन समझ पड़ेगी कि यह आदमी उस पार जा चुका है, हम इस पार हैं। और जिस दिन यह समझ आ जाएगी यह आदमी उस पार जा चुका है, हम इस पार हैं–उसी क्षण छलांग लग जाती है। उसी क्षण संन्यास घटता है।
पहले आदमी आता है विद्यार्थी की भांति–जिज्ञासा से भरा हुआ। फिर शिष्य बनता है; जिज्ञासा शांत हो गई, अब अभीप्सा जगी। अब शब्दों में रस नहीं है, अब तो गुरु की निःशब्द उपस्थिति में रस है। और फिर भक्त बनता है; छलांग ले लेता है; चल पड़ता है उस अज्ञात सागर के अज्ञात तट की खोज में। पास में नाव नहीं, पतवार नहीं–बस एक भरोसा है, एक श्रद्धा है। लेकिन श्रद्धा ही तो नाव है, श्रद्धा ही तो पतवार है।
दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बहुत बार आई गई यह दीवाली
मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफन रात का हर चमन पर पड़ा है।
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
ऊषा को जगाओ, निशा को सुलाओ!
दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
सृजन शांति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाए
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा,
कि जब प्यार तलवार से जीत जाए।
घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ!
दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया कैद जिसने उसे शक्ति-छल से
स्वयं उड़ गया वह धुआं बन पवन में।
न मेरा तुम्हारा, सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ!
दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
मगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बन कर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते फूंस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा।
न फिर अग्नि कोई रचे रास इससे
सभी रो रहे आंसुओं को हंसाओ!
दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा।
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बड़ा महा उपक्रम करना है!
दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
ऐसा महा उपक्रम करना है, जैसे कोई जमीन को उठाए, गगन को झुकाए! यह कोई छोटे-मोटे दीयों से मिटने वाला अंधेरा नहीं है। यह बाहर की दीवालियां काम न आएंगी। लेकिन आदमी बड़ा बेईमान है। भीतर की दीवालियों से बचने के लिए बाहर की दीवालियां मनाता है।
जैन शास्त्र कहते हैं: दीवाली का जन्म हुआ महावीर की महा उपलब्धि के कारण। दीवाली की अमावस की रात महावीर को परम ज्ञान हुआ, संबोधि मिली, समाधि मिली, भीतर का दीया जगा, सूरज ऊगा; अनंत-अनंत काल का अंधेरा कटा, रात कटी, प्रभात हुआ। लेकिन हमने क्या किया? हमने बाहर मिट्टी के दीये जला लिए–उत्सव में। अगर महावीर से सच में कोई लगाव हो तो भीतर का दीया जलाओ, बाहर की दीवाली से क्या होगा? महावीर ने कोई बाहर का दीया नहीं जलाया था। सुबह हो जाने पर, अमावस की दीवाली की रात के बीत जाने पर जैन-मंदिरों में निर्वाण लाडू चढ़ाए जाते हैं। निर्वाण-लाडू! निर्वाण के लड्डू! क्योंकि महावीर को निर्वाण उपलब्ध हो गया, बांटो लड्डू! महावीर को तो भीतर अमृत का स्वाद मिला और तुम बूंदी के लड्डू बांट कर तृप्त हो रहे हो! और उनका नाम दे रहे हो–निर्वाण-लाडू! थोड़ी शर्म तो खाओ! थोड़ा संकोच तो करो! थोड़ा शर्माओ! महावीर का जागा भीतर का सूरज, तुमने जला लिए बाहर दीये। महावीर को मिली भीतर की मिठास बसा अमृत और तुम निर्वाण-लाडू बांट रहे हो! तुम कब तक अपने को धोखा दिए जाओगे? नहीं…
दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा।
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
कुछ बड़ा उपक्रम करना होगा। क्या है बड़े से बड़ा उपक्रम इस जगत में? धरा को उठाने और गगन को झुकाने से भी बड़ी बात इस दुनिया में क्या है? अपने को मिटाओ! यह मैं-भाव जाने दो! यही पर्दा है। यही ओट है। यही दीवाल है। इसे गिरा दो और तुम रोशनी ही रोशनी हो। रोशनी तुम्हारा स्वभाव है।
लीजै निरखि भेद निजु सारा। समुझि परै तब उतरै पारा।।
कंचल डाहै पावक जाई। ऐसे तन कै डाहहु भाई।।
और जैसे सोने को डाल देते हैं आग में और कंचन हो जाता है, कुंदन हो जाता है, शुद्ध हो जाता है। ऐसे ही अपने को भी आग में डालना सीखो।
कंचल डाहै पावक जाई। ऐसे तन कै डाहहु भाई।।
ऐसे ही अपने को भी जलाना होगा। परवाना बनो!
लेकिन हम ऐसे कुशल हैं, हमने मंदिर बना लिए झूठे, मस्जिदें बना लीं झूठी–वहां जाकर सिर भी पटक आते हैं, अहंकार साथ ही ले आते हैं वापस। पूजा भी कर लेते हैं, प्रार्थना भी कर लेते हैं, नमाज भी पढ़ लेते हैं और झुकता नहीं भीतर कोई भी–जरा नहीं झुकता।
मैं राजस्थान यात्राओं पर जाता था; तो अजमेर पर काफी देर गाड़ी खड़ी रहती थी, गाड़ी बदलनी पड़ती थी। सांझ का वक्त, और अजमेर, और बहुत से मुसलमान यात्री भी होते। वे जल्दी-जल्दी अपना मुसल्ला बिछा कर प्लेटफार्म पर नमाज में लग जाते। सांझ की नमाज। मैं भी घूमता देखता रहता। मैं बहुत हैरान हुआ! वे नमाज भी पढ़ते जाते, पीछे लौट-लौट कर भी देखते जाते कि गाड़ी कहीं छूट तो नहीं रही है। मेरे ही डिब्बे में एक सज्जन थे, उनसे थोड़ी मुलाकात भी हो गई थी, साथ ही चल रहे थे कोई दस-बारह घंटों से। वह अपना मुसल्ला बिछाए नमाज कर रहे थे। बीच-बीच में लौट-लौट कर देखते जा रहे थे। मैं उनके पीछे जाकर खड़ा हो गया और उनके सिर को मैंने सीधा कर दिया! उस समय तो कुछ भी नहीं बोले, नाराज तो बहुत हो गए, भनभना गए–कि नमाज में किसी का सिर…! जल्दी से नमाज पूरी की और कहा: आप आदमी कैसे हैं? आपने मेरा सिर क्यों जोर से घुमा दिया? इतनी जोर से घुमाया है कि मेरी गर्दन में दर्द हो रहा है! और नमाज में ऐसा किया जाता है?
मैंने कहा: तुम नमाज में जो कर रहे थे वह गलत था कि मैंने जो किया वह गलत था? तुम पीछे लौट-लौट कर क्या देख रहे थे? तुम नमाज पढ़ रहे थे कि गाड़ी छूट तो नहीं गई यह देख रहे थे? ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। अगर गाड़ी ही छूटने का डर है तो नमाज ही किसलिए पढ़ रहे हो! और अगर नमाज में डूब गए हो तो एक गाड़ी क्या हजार गाड़ियां छूट जाएं, क्या ले जाएंगी! मगर यह कैसी नमाज!
मैंने उन सज्जन से कहा कि अकबर नमाज पढ़ने बैठा है एक जंगल में–भटक गया है, शिकार करके लौट रहा है, रास्ता नहीं मिल रहा है, सांझ हो गई, नमाज पढ़ रहा है। और एक स्त्री–अल्हड़ युवती–भागी हुई आई–उसको धक्का देती हुई कि वह धक्के में गिर भी गया, भागती ही चली गई। बड़ा नाराज हुआ अकबर। एक तो सम्राट, दूसरा नमाज पढ़ रहा हो! जब वह स्त्री वापस लौटी तो अकबर ने कहा कि सुन बदतमीज औरत! तुझे यह पता नहीं कि मैं सम्राट हूं? और सम्राट को भी जाने दे, कोई भी नमाज पढ़ रहा हो, प्रार्थना में लीन हो, उसके साथ यह दुर्व्यवहार? तूने इतने जोर से मुझे धक्का दिया कि मैं लुढ़क ही गया! तेरे पास क्या उत्तर है?
उस स्त्री ने कहा: मुझे क्षमा करें! लेकिन मुझे याद ही नहीं कि आप बीच में भी थे, कि आप लुढ़के भी! लुढ़के होंगे तो आप ठीक कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे, मगर मुझे याद नहीं है। मेरा प्रेमी आ रहा था, मैं उससे मिलने जा रही थी। मैं तो सिर्फ एक बात आपसे पूछती हूं कि मेरे प्रेमी के कारण मुझे आप दिखाई ही नहीं पड़े और आप अपने प्रेमी से मिलने चले थे और आपको मेरा धक्का अनुभव में आ गया! यह कैसी नमाज! मेरा तो साधारण सा प्रेमी है, उसके लिए दीवानी हुई भागी जा रही थी, क्योंकि वर्ष भर बाद वह लौट रहा है शहर से, राह के किनारे उसका स्वागत करना है। तो मुझे तो कुछ याद नहीं, मैं बेहोश थी। मुझे पता नहीं कब आप आए, कब आप बीच में पड़े, कब आपको धक्का लगा। क्षमा करें मुझे! मगर इतना मैं याद दिलाऊं कि आप किस तरह अपने परम प्रेमी से मिलने गए थे कि मेरा धक्का लगा और आपको याद रहा!
अकबर ने लिखवाया है अपने संस्मरणों में कि उस स्त्री की बात मुझे फिर कभी भूली नहीं। मेरी नमाज झूठी थी।
प्यारे से मिलने चले हैं, फिर क्या याद! मगर कौन प्यारे से मिलने चला है? हमारी दीपावलियां झूठी, हमारे निर्वाण-लाडू झूठे, हमारे मंदिर-मस्जिद, पूजा के उपक्रम झूठे। हमने सब ऊपर-ऊपर के आयोजन कर लिए हैं। इतने सस्ते से नहीं होगा। स्वयं को मिटाने की कीमत चुकानी पड़ती है।
जो हीरा घन सहै घनेरा। होहि हिरंबर बहुरि न फेरा।।
जो हीरा बहुत काट-पीट सहता है… ‘जो हीरा घन सहै घनेरा’… जिस पर खूब घन पड़ते हैं… ‘होहि हिरंबर बहुरि न फेरा’… वही शुद्ध हीरा हो जाता है। फिर उसे वापस नहीं लौटना पड़ता।
मिटो, क्योंकि मिट कर ही तुम हो सकोगे। यह संसार अग्नि है, जलो। यह संसार घनों की चोट है, सहो। यह संसार परीक्षा है, इससे गुजरे तो फिर लौटना न पड़ेगा। फिर उस मालिक में लीन हो जाओगे।
गहै मूल तब निर्मल बानी। दरिया दिल बिच सुरति समानी।।
अगर इतनी हिम्मत हो, तो मूल तुम्हारे हाथ में आ जाए।
गहै मूल तब निर्मल बानी।…
और फिर तुम्हारे भीतर से एक झरना फूटे निर्मल वाणी का!
तुम वेद बनो, तुम कुरान बनो। तुम्हारे भीतर से आयतें उठें! और तुम्हारे भीतर से ऋचाएं जगें!
गहै मूल तब निर्मल बानी।…
और जिसके भीतर मूल आ गया, उसके भीतर पत्ते निकलेंगे, फूल लगेंगे। उसके भीतर अपूर्व का जन्म होगा। उसके शब्द-शब्द में सत्य की भनक होगी।
गहै मूल तब निर्मल बानी। दरिया दिल बिच सुरति समानी।।
और जिसको भीतर अनुभव हो गया उसे फिर कहीं और मंदिर में किसी मूरत को नहीं खोजना पड़ता। न वह काशी जाता न काबा।
…दरिया दिल बिच सुरति समानी।
उसके तो भीतर ही याद आ गई। उसके भीतर तो स्मरण का दीया जल गया, सुरति जग गई।
‘सुरति’ शब्द प्यारा है। जन्मा बुद्ध के साथ, पूरा हुआ नानक के साथ। बुद्ध ने जो शब्द उपयोग किया था, वह था–‘सम्मासति।’ संस्कृत में उसका रूप है–सम्यक स्मृति। फिर सम्मासति प्रयोग होते-होते घिसते-घिसते लोकभाषा में सुरति हो गया। सुरति का अर्थ होता है: याद, प्रभु की याद।
…दरिया दिल बिच सुरति समानी।
मिटो तो तुम्हारे भीतर ऐसा अहर्निश नाद उठे। सोते-जागते उपनिषद गूंजें तुम्हारे भीतर।
परवाने की बिसात ही क्या थी फना हुआ।
देखा तो शमा भी न रही अपने हाल में।।
और तुम मिटोगे तो तुम यह मत सोचना कि परमात्मा भी चुप रह जाता है।
परवाने की बिसात ही क्या थी फना हुआ।
वह तो ठीक था, परवाना ही था, उसकी सामर्थ्य ही क्या थी! बूंद ही थी, सागर में खो गई। परवाना लेकिन जब शमा पर जल उठता है तो तुम यह मत सोचना कि शमा भी अछूती रह जाती है, शमा भी फड़क उठती है, लपट उठती है।
परवाने की बिसात ही क्या थी फना हुआ।
देखा तो शमा भी न रही अपने हाल में।।
तो शमा भी डोल जाती है, नाच जाती है। और तुम्हारे भीतर जब शमा का नाच होता है तो कृष्ण की वीणा बजती है, मीरा पैरों में घूंघर बांध कर नाचती है, बुद्ध बोलते, उपनिषद रचे जाते, कुरान गूंजता, बाइबिल जन्मती। ये अलग-अलग ढंग हैं उस शमा के, जो किसी परवाने की याद में वर्षा कर देती है जगत के ऊपर। एक परवाना मिटता है, अनंतों के ऊपर बूंदाबांदी हो जाती है।
पारस शब्द कहा समुझाई। सतगुरु मिलै त देहि दिखाई।।
पारस पत्थर को छू जाए लोहा तो सोना हो जाता है। यह कहे-सुने की बात नहीं है। लाख कहते रहो, लाख कहते रहो, लोहा नहीं होगा सोना, तो नहीं होगा। और पारस पत्थर कितना ही समझाए कि मुझे छूने से तुम सोना हो जाओगे तो भी नहीं हो जाएगा। पारस पत्थर के पास आना होगा लोहे को। इस पास सरकने का नाम ही शिष्यत्व है।
पारस सब्द कहा समुझाई। सतगुरु मिलै त देहि दिखाई।।
और जब तक सदगुरु न मिल जाए तब तक दिखाई नहीं पड़ता। आंखें तुम्हारे पास हैं, रोशनी तुम्हारे पास है; मगर आंख और रोशनी का संबंध जोड़ने का कोई उपाय तुम्हारे पास नहीं है।
क्षण भर की पहचान,
जगत में जीने का सामान दे गई।
पहले भी पथ था, पंथी थे,
पर पथ से अनुरक्ति नहीं थी,
बिना तुम्हारे इस जीवन से,
मोह न था, आसक्ति नहीं थी।
तुम क्या मिले कि अनजाने ही,
मिलन-विरह का ज्ञान मिल गया,
जीऊं किसी के लिए या मिटूं?
गौरव मिला, गुमान मिल गया।
सहसा फूट पड़ीं मानस में
जो सरिताएं रुद्ध रही हैं,
और बहुत सी बातें हैं,
भाषा में जिनके शब्द नहीं हैं।
पाने की अभिलाषा,
स्वयं को खोने का वरदान दे गई।
क्षण भर की पहचान,
जगत में जीने का सामान दे गई।
दीपक सहज, ज्योति जन-जन में
मिलना कठिन स्नेह की बाती,
स्वर्ग सुलभ हो सकता है
पर पाना कठिन राह का साथी।
जो दे ऐसी शक्ति कि
पग-पग आदि-अंत की सीमा नापे,
जिसकी छाया में शूलों का
भय, फूलों का मोह न व्यापे।
बिना तुम्हारे, दुर्बल मिट्टी की
महिमा उदबुद्ध न होती,
जीवन-मरण, सतत-परिवर्तन
की सार्थकता सिद्ध न होती।
पग की प्रथम रुझान,
पंथ में मिटने के अरमान दे गई।
क्षण भर की पहचान,
जगत में जीने का सामान दे गई।
सदगुरु से पहचान हो जाए तो सदगुरु सेतु है। तुम्हारे और तुम्हारे बीच–सदगुरु सेतु है। तुम्हें तुमसे जोड़ देता है। तुम बाहर भी हो और भीतर भी हो, मगर तुम्हारे बाहर और भीतर के बीच तालमेल टूट गया है। उसी तालमेल को बिठा देता है।
सतगुरु सोई जो सत्त चलावै। हंस बोधि छपलोक पठावै।।
वही है सदगुरु जो तुम्हारे भीतर सत्य की अभीप्सा को सक्रिय कर दे। जो तुम्हारे भीतर सत्य को पाने की प्यास जला दे। जो तुम्हारे भीतर एक ऐसी अभीप्सा बन जाए, एक ऐसा बवंडर कि फिर तुम जैसे थे वैसे ही न रह सको।
…हंस बोधि छपलोक पठावै।
तुम्हें याद दिला दे मानसरोवर की, कि तुम हंस हो, कि मोती चुगो, कि क्या कूड़े-करकट में पड़े हो! जो तुम्हें तुम्हारी महिमा से अवगत करा दे।
क्षण भर की पहचान,
जगत में जीने का सामान दे गई।
पहले भी पथ था, पंथी थे,
पर पथ से अनुरक्ति नहीं थी,
बिना तुम्हारे इस जीवन से,
मोह न था, आसक्ति नहीं थी।
तुम क्या मिले कि अनजाने ही,
मिलन-विरह का ज्ञान मिल गया,
जीऊं किसी के लिए या मिटूं?
गौरव मिला, गुमान मिल गया।
सहसा फूट पड़ीं मानस में
जो सरिताएं रुद्ध रही हैं,
और बहुत सी बातें हैं,
भाषा में जिनके शब्द नहीं हैं।
पाने की अभिलाषा,
स्वयं को खोने का वरदान दे गई।
क्षण भर की पहचान,
जगत में जीने का सामान दे गई।
एक क्षण भर को सदगुरु से आंखें चार हो जाएं–और क्रांति का महाक्षण आ पहुंचा!
दीपक सहज, ज्योति जन-जन में
मिलना कठिन स्नेह की बाती,
स्वर्ग सुलभ हो सकता है
पर पाना कठिन राह का साथी।
जो दे ऐसी शक्ति कि
पग-पग आदि-अंत की सीमा नापे,
जिसकी छाया में शूलों का
भय, फूलों का मोह न व्यापे।
बिना तुम्हारे, दुर्बल मिट्टी की
महिमा उदबुद्ध न होती,
जीवन-मरण सतत-परिवर्तन
की सार्थकता सिद्ध न होती।
पग की प्रथम रुझान,
पंथ में मिटने के अरमान दे गई।
क्षण भर की पहचान,
जगत में जीने का सामान दे गई।
खोजो। खोजो सदगुरु को–कि जो तुम्हारे भीतर सत्य को गति दे दे; जो तुम्हारी बुझी-बुझी ज्योति को उकसा दे; जो तुम्हारे प्राणों को अनंत की अभीप्सा से भर दे; कि जो तुम्हारी आंखों को आकाश की तरफ उठा दे, कि जो तुमसे कहे: पृथ्वी तुम्हारा घर नहीं, परदेस है–कि अपने देश को खोजना है; कि बिना अपने देश को खोजे न कभी कोई तृप्त होगा, न कभी कोई आनंदित होता है।
घर-घर ग्यान कथै बिस्तारा। सो नहिं पहुंचै लोक हमारा।।
ऐसे तो घर-घर कथाएं चल रही हैं… सत्यनारायण की कथा हो रही है घर-घर!
घर-घर ग्यान कथै बिस्तारा। सो नहिं पहुंचै लोक हमारा।।
दरिया कहते हैं: याद रखना, यह घर-घर में चलने वाली कथाएं–यह रामायण की कथा और यह सत्यनारायण की कथा–यह सुन-सुन कर तुम हमारे लोक तक न पहुंच सकोगे। हमारे लोक तक तो तुम तभी पहुंच सकते हो जब तुम्हें हमारे लोक तक पहुंचा हुआ कोई आदमी मिल जाए। ये पंडित-पुजारी जो दो कौड़ी में तुम खरीद लेते हो; ये पंडित-पुजारी जो तुम्हारे नौकर-चाकर हैं; ये पंडित-पुजारी जो तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी कर रहे हैं; ये पंडित-पुजारी जिन्होंने केवल तुम्हें थोथा धार्मिक होने का भ्रम दे दिया है, इनसे काम नहीं होगा!
आंख अनकहनी कहानी कह गई,
सांस सूनापन सिसक कर सह गई।
बात जीवन भर तुम्हारी की मगर,
बात इतनी, बात आधी रह गई।
ये कथाएं सुनते रहो, आधी की बात आधी ही रहेगी; इससे बात पूरी होने वाली नहीं है।
हमारे बाग में गर प्यार के अंकुर नहीं फूटे, नहीं फूले,
हमारी शाख पै मनुहार के पंछी नहीं झूले, नहीं झूले,
न पोंछी डबडबाई आंख तारों की तमिस्रा ने,
मगर हम किरण की मुस्कान को फिर भी नहीं भूले, नहीं भूले।
किसी ऐसे आदमी से मिलो कि जिसका मुस्कान में तुम्हें परमात्मा की मुस्कान दिखाई पड़ जाए; कि जिसकी आंख में परमात्मा की थोड़ी सी झलक तुम्हारी पकड़ में आ जाए।
हमारे बाग में गर प्यार के अंकुर नहीं फूटे, नहीं फूले,
हमारी शाख पै मनुहार के पंछी नहीं झूले, नहीं झूले,
न पोंछी डबडबाई आंख तारों की तमिस्रा ने,
मगर हम किरण की मुस्कान को फिर भी नहीं भूले, नहीं भूले।
एक किरण की मुस्कान तुम्हें पकड़ ले कि तुम्हारा जीवन रूपांतरित होना शुरू हो जाएगा; फिर तुम वही नहीं हो सकते, जो रहे हो।
सब घट ब्रह्म और नहिं दूजा।…
ऐसे तो वह घट-घट में समाया हुआ है, मगर कौन तुम्हें जगाए?
…आतम देव क निर्मल पूजा।
कहीं और पूजा करने की जरूरत नहीं, अपने भीतर ही पूजा के थाल सजाओ।
मगर कौन तुम्हें चेताए?
बादहि जनम गया सठ तोरा।…
तुम तो व्यर्थ वाद-विवाद में ही जीवन गंवा रहे हो।
…अंत की बात किया तै भौरा।
और मौत करीब आती जाती है। मौत तुम्हारे विवादों से न जीती जा सकेगी। मौत को जीतना हो तो अमृत से थोड़ी पहचान करो।
पढि-पढ़ि पोथी भा अभिमानी।…
और किताबें भी तुमने कम नहीं पढ़ी हैं, खूब पढ़ी हैं, लेकिन उन सबसे तुम्हारा अभिमान सघन हुआ है। पतंगे होकर तुम जल नहीं गए हो शमा पर, तुम्हारा अहंकार और मजबूत हो गया है।
पढ़ि-पढ़ि पोथी भा अभिमानी। जुगति और सब म्रिथा बखानी।।
लेकिन जब तक कोई तुम्हें कुंजी न दे-दे, कोई तुम्हें युक्ति न दे-दे–कोई जो जानता हो उस मार्ग पर और चला हो उस मार्ग पर, अपना हाथ तुम्हारे हाथ में न दे-दे, तब तक ये सब बातें व्यर्थ हैं और व्यर्थ ही रहेंगी।
जौ न जानु छपलोक के मरमा। हंस न पहुंचिहि एहि षटकरमा।।
जब तक तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति न मिल जाए जो मानसरोवर हो आया है, तब तक तुम्हारे न मालूम कितने कर्म तुम करते रहो–सारे षट्कर्म करते रहो–‘हंस न पहुंचिहि एहि षटकरमा। जौ न जानु छपलोक के मरमा।’
सार सब्द जब दृढ़ता लावै।…
और जब तुम किसी की वाणी सुनोगे–जागे की, जाग्रत की–‘दरिया कहै सब्द निरबाना’–जब कोई ऐसी चोट तुम्हारे हृदय पर कर जाएगा, तो दृढ़ता पैदा होती है, श्रद्धा पैदा होती है।
सार सब्द जब दृढ़ता लावै। तब सतगुरु कुछ आप लखावै।।
और तभी उसी दृढ़ता से भरे हुए हृदय में सदगुरु ज्योति जगा सकता है।
दरिया कहै सब्द निरबाना। अबरि कहौं नहिं बेद बखाना।।
बड़ी प्यारी बात कहते हैं, कि मैं अपनी कह रहा हूं, कोई वेद का बखान नहीं कर रहा हूं; किसी शास्त्र की टीका नहीं कर रहा हूं, स्वयं का अनुभव कह रहा हूं।
दरिया कहै सब्द निरबाना। अबरि कहौं नहिं बेद बखाना।।
वेदै अरुझि रहा संसारा। फिर-फिर होहि गरभ अवतारा।।
वेदों की तो चर्चा खूब चल रही है। बड़े पंडित हैं, बड़े साहित्य-शोधी हैं! वेदों पर कितना लिखा जाता है! टीकाओं पर टीकाएं लिखी जाती हैं! और सब गिर-गिर पड़ते हैं वापस उसी गर्भ में। वही संसार जारी रहता है।
दरिया कहै सब्द निरबाना। अबरि कहौं नहिं बेद बखाना।
अपनी कहता हूं! वेद क्या कहते हैं, इसकी मुझे चिंता नहीं!
जानने वाले सदा अपना अनुभव कहते हैं। हालांकि मजे की बात यह है: जो भी अपना अनुभव कहता है, सारे वेद उसके साक्षी हो जाते हैं। और जो सिर्फ वेदों की व्याख्या करते रहते हैं, वे वेदों के साथ अनाचार-व्यभिचार करते रहते हैं। क्योंकि उन्हें अनुभव नहीं है, वे जो भी अर्थ करेंगे, गलत होंगे, अनर्थ होंगे।
एक ही बात, एक ही शास्त्र, एक ही ज्योति खोजनी है–वह तुम्हारे भीतर है। और सब फिकरें छोड़ो! उस एक की तलाश करो।
फिक्रे राहत छोड़ बैठे हम तो राहत मिल गई।
हमने किस्मत से लिया जो काम था तदबीर का।।
प्रयास छोड़ो। अपने भीतर श्रद्धा में शांत होकर बैठ जाओ, तो जो काम तदबीर से होता है, वह सिर्फ तकदीर से हो जाता है। वह जो बड़े पुरुषार्थ से होता है, वह सिर्फ चुपचाप बैठ कर समर्पण से हो जाता है।
जीवन सरल है; शास्त्रों ने जटिल कर दिया है। सत्य सुगम है; सिद्धांतों ने बुरी तरह उलझा दिया है। वाद-विवाद में न पड़ो, ध्यान में उतरो! निर्वाण तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
दरिया कहै सब्द निरबाना!
आज इतना ही।