UPANISHAD
Dhyan-Sutra (ध्यान-सूत्र) 01
First Discourse from the series of 9 discourses – Dhyan-Sutra (ध्यान-सूत्र) by Osho. These discourses were given in MAHABLESHWAR during FEB 12-15 1965.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
सबसे पहले तो आपका स्वागत करूं–इसलिए कि परमात्मा में आपकी उत्सुकता है–इसलिए कि सामान्य जीवन के ऊपर एक साधक के जीवन में प्रवेश करने की आकांक्षा है–इसलिए कि संसार के अतिरिक्त सत्य को पाने की प्यास है।
सौभाग्य है उन लोगों का, जो सत्य के लिए प्यासे हो सकें। बहुत लोग पैदा होते हैं, बहुत कम लोग सत्य के लिए प्यासे हो पाते हैं। सत्य का मिलना तो बहुत बड़ा सौभाग्य है। सत्य की प्यास होना भी उतना ही बड़ा सौभाग्य है। सत्य न भी मिले, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन सत्य की प्यास ही पैदा न हो, तो बहुत बड़ा हर्ज है।
सत्य यदि न मिले, तो मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं है। हमने चाहा था और हमने प्रयास किया था, हम श्रम किए थे और हमने आकांक्षा की थी, हमने संकल्प बांधा था और हमने जो हमसे बन सकता था, वह किया था। और यदि सत्य न मिले, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन सत्य की प्यास ही हममें पैदा न हो, तो जीवन बहुत दुर्भाग्य से भर जाता है।
और मैं आपको यह भी कहूं कि सत्य को पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना सत्य के लिए ठीक अर्थों में प्यासे हो जाना है। वह भी एक आनंद है। जो क्षुद्र के लिए प्यासा होता है, वह क्षुद्र को पाकर भी आनंद उपलब्ध नहीं करता। और जो विराट के लिए प्यासा होता है, वह उसे न भी पा सके, तो भी आनंद से भर जाता है।
इसे पुनः दोहराऊं–जो क्षुद्र के लिए आकांक्षा करे, वह अगर क्षुद्र को पा भी ले, तो भी उसे कोई शांति और आनंद उपलब्ध नहीं होता है। और जो विराट की अभीप्सा से भर जाए, वह अगर विराट को उपलब्ध न भी हो सके, तो भी उसका जीवन आनंद से भर जाता है। जिन अर्थों में हम श्रेष्ठ की कामना करने लगते हैं, उन्हीं अर्थों में हमारे भीतर कोई श्रेष्ठ पैदा होने लगता है।
कोई परमात्मा या कोई सत्य हमारे बाहर हमें उपलब्ध नहीं होगा, उसके बीज हमारे भीतर हैं और वे विकसित होंगे। लेकिन वे तभी विकसित होंगे जब प्यास की आग और प्यास की तपिश और प्यास की गर्मी हम पैदा कर सकें। मैं जितनी श्रेष्ठ की आकांक्षा करता हूं, उतना ही मेरे मन के भीतर छिपे हुए वे बीज, जो विराट और श्रेष्ठ बन सकते हैं, वे कंपित होने लगते हैं और उनमें अंकुर आने की संभावना पैदा हो जाती है।
जब आपके भीतर कभी यह खयाल भी पैदा हो कि परमात्मा को पाना है, जब कभी यह खयाल भी पैदा हो कि शांति को और सत्य को उपलब्ध करना है, तो इस बात को स्मरण रखना कि आपके भीतर कोई बीज अंकुर होने को उत्सुक हो गया है। इस बात को स्मरण रखना कि आपके भीतर कोई दबी हुई आकांक्षा जाग रही है। इस बात को स्मरण रखना कि कुछ महत्वपूर्ण आंदोलन आपके भीतर हो रहा है।
उस आंदोलन को हमें सम्हालना होगा। उस आंदोलन को सहारा देना होगा। क्योंकि बीज अकेला अंकुर बन जाए, इतना ही काफी नहीं है। और भी बहुत सी सुरक्षाएं जरूरी हैं। और बीज अंकुर बन जाए, इसके लिए बीज की क्षमता काफी नहीं है, और बहुत सी सुविधाएं भी जरूरी हैं।
जमीन पर बहुत बीज पैदा होते हैं, लेकिन बहुत कम बीज वृक्ष बन पाते हैं। उनमें क्षमता थी, वे विकसित हो सकते थे। और एक-एक बीज में फिर करोड़ों-करोड़ों बीज लग सकते थे। एक छोटे से बीज में इतनी शक्ति है कि एक पूरा जंगल उससे पैदा हो जाए। एक छोटे से बीज में इतनी शक्ति है कि सारी जमीन पर पौधे उससे पैदा हो जाएं। लेकिन यह भी हो सकता है कि इतनी विराट क्षमता, इतनी विराट शक्ति का वह बीज नष्ट हो जाए और उसमें कुछ भी पैदा न हो।
एक बीज की यह क्षमता है, एक मनुष्य की तो क्षमता और भी बहुत ज्यादा है। एक बीज से इतना बड़ा, विराट विकास हो सकता है, एक पत्थर के छोटे से टुकड़े से अगर अणु को विस्फोट कर लिया जाए, तो महान ऊर्जा का जन्म होता है, बहुत शक्ति का जन्म होता है। मनुष्य की आत्मा और मनुष्य की चेतना का जो अणु है, अगर वह विकसित हो सके, अगर उसका विस्फोट हो सके, अगर उसका विकास हो सके, तो जिस शक्ति और ऊर्जा का जन्म होता है, उसी का नाम परमात्मा है। परमात्मा को हम कहीं पाते नहीं हैं, बल्कि अपने ही विस्फोट से, अपने ही विकास से जिस ऊर्जा को हम जन्म देते हैं, जिस शक्ति को, उस शक्ति का अनुभव परमात्मा है। उसकी प्यास आपमें है, इसलिए मैं स्वागत करता हूं।
लेकिन इससे कोई यह न समझे कि आप यहां इकट्ठे हो गए हैं, तो जरूरी हो कि आप प्यासे ही हों। आप यहां इकट्ठे हो सकते हैं मात्र एक दर्शक की भांति भी। आप यहां इकट्ठे हो सकते हैं एक मात्र सामान्य जिज्ञासा की भांति भी। आप यहां इकट्ठे हो सकते हैं एक कुतूहल के कारण भी। लेकिन कुतूहल से कोई द्वार नहीं खुलते हैं। और जो ऐसे ही दर्शक की भांति खड़ा हो, उसे कोई रहस्य उपलब्ध नहीं होते हैं। इस जगत में जो भी पाया जाता है, उसके लिए बहुत कुछ चुकाना पड़ता है। इस जगत में जो भी पाया जाता है, उसके लिए बहुत कुछ चुकाना पड़ता है। कुतूहल कुछ भी नहीं चुकाता। इसलिए कुतूहल कुछ भी नहीं पा सकता है। कुतूहल से कोई साधना में प्रवेश नहीं करता। अकेली जिज्ञासा नहीं, मुमुक्षा! एक गहरी प्यास!
कल संध्या मैं किसी से कह रहा था कि अगर एक मरुस्थल में आप हों और पानी आपको न मिले, और प्यास बढ़ती चली जाए, और वह घड़ी आ जाए कि आप अब मरने को हैं और अगर पानी नहीं मिलेगा, तो आप जी नहीं सकेंगे। अगर कोई उस वक्त आपको कहे कि हम यह पानी देते हैं, लेकिन पानी देकर हम जान ले लेंगे आपकी, यानी जान के मूल्य पर हम पानी देते हैं, आप उसको भी लेने को राजी हो जाएंगे। क्योंकि मरना तो है; प्यासे मरने की बजाय, तृप्त होकर मर जाना बेहतर है।
उतनी जिज्ञासा, उतनी आकांक्षा, जब आपके भीतर पैदा होती है, तो उस जिज्ञासा और आकांक्षा के दबाव में आपके भीतर का बीज टूटता है और उसमें से अंकुर निकलता है। बीज ऐसे ही नहीं टूट जाते हैं, उनको दबाव चाहिए। उनको बहुत दबाव चाहिए, बहुत उत्ताप चाहिए, तब उनकी सख्त खोल टूटती है और उसके भीतर से कोमल पौधे का जन्म होता है। हम सबके भीतर भी बहुत सख्त खोल है। और जो भी उस खोल के बाहर आना चाहते हैं, अकेले कुतूहल से नहीं आ सकेंगे। इसलिए स्मरण रखें, जो मात्र कुतूहल से इकट्ठे हुए हैं, वे मात्र कुतूहल को लेकर वापस लौट जाएंगे। उनके लिए कुछ भी नहीं हो सकेगा। जो दर्शक की भांति इकट्ठे हुए हैं, वे दर्शक की भांति ही वापस लौट जाएंगे, उनके लिए कुछ भी नहीं हो सकेगा।
इसलिए प्रत्येक अपने भीतर पहले तो यह खयाल कर ले, उसमें प्यास है? प्रत्येक अपने भीतर यह विचार कर ले, वह प्यासा है? इसे बहुत स्पष्ट रूप से अनुभव कर ले, वह सच में परमात्मा में उत्सुक है? उसकी कोई उत्सुकता है सत्य को, शांति को, आनंद को उपलब्ध करने के लिए?
अगर नहीं है, तो वह समझे कि वह जो भी करेगा, उस करने में कोई प्राण नहीं हो सकते; वह निष्प्राण होगा। और तब फिर उस निष्प्राण चेष्टा का अगर कोई फल न हो, तो साधना जिम्मेवार नहीं होगी, आप स्वयं जिम्मेवार होंगे।
इसलिए पहली बात अपने भीतर अपनी प्यास को खोजना और उसे स्पष्ट कर लेना है। आप सच में कुछ पाना चाहते हैं? अगर पाना चाहते हैं, तो पाने का रास्ता है।
एक बार ऐसा हुआ, गौतम बुद्ध एक गांव में ठहरे थे। एक व्यक्ति ने उनको आकर कहा कि ‘आप रोज कहते हैं कि हर एक व्यक्ति मोक्ष पा सकता है। लेकिन हर एक व्यक्ति मोक्ष पा क्यों नहीं लेता है?’ बुद्ध ने कहा, ‘मेरे मित्र, एक काम करो। संध्या को गांव में जाना और सारे लोगों से पूछ कर आना, वे क्या पाना चाहते हैं। एक फेहरिस्त बनाओ। हर एक का नाम लिखो और उसके सामने लिख लाना, उनकी आकांक्षा क्या है।’
वह आदमी गांव में गया। उसने जाकर पूछा। उसने एक-एक आदमी को पूछा। थोड़े से लोग थे उस गांव में, उन सबने उत्तर दिए। वह सांझ को वापस लौटा। उसने बुद्ध को आकर वह फेहरिस्त दी। बुद्ध ने कहा, ‘इसमें कितने लोग मोक्ष के आकांक्षी हैं?’ वह बहुत हैरान हुआ। उसमें एक भी आदमी ने अपनी आकांक्षा में मोक्ष नहीं लिखाया था। बुद्ध ने कहा, ‘हर एक आदमी पा सकता है, यह मैं कहता हूं। लेकिन हर एक आदमी पाना चाहता है, यह मैं नहीं कहता।’
हर एक आदमी पा सकता है, यह बहुत अलग बात है। और हर एक आदमी पाना चाहता है, यह बहुत अलग बात है। अगर आप पाना चाहते हैं, तो यह आश्वासन मानें। अगर आप सच में पाना चाहते हैं, तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको रोकने में समर्थ नहीं है। और अगर आप नहीं पाना चाहते, तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको देने में भी समर्थ नहीं है।
तो सबसे पहली बात, सबसे पहला सूत्र, जो स्मरण रखना है, वह यह कि आपके भीतर एक वास्तविक प्यास है? अगर है, तो आश्वासन मानें कि रास्ता मिल जाएगा। और अगर नहीं है, तो कोई रास्ता नहीं है। आपकी प्यास आपके लिए रास्ता बनेगी।
दूसरी बात, जो मैं प्रारंभिक रूप से यहां कहना चाहूं, वह यह है कि बहुत बार हम प्यासे भी होते हैं किन्हीं बातों के लिए, लेकिन हम आशा से भरे हुए नहीं होते हैं। हम प्यासे होते हैं, लेकिन आशा नहीं होती। हम प्यासे होते हैं, लेकिन निराश होते हैं। और जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा, उसका अंतिम कदम निराशा में समाप्त होगा। इसे भी स्मरण रखें, जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा, उसका अंतिम कदम भी निराशा में समाप्त होगा। अंतिम कदम अगर सफलता और सार्थकता में जाना है, तो पहला कदम बहुत आशा में उठना चाहिए।
तो इन तीन दिनों के लिए आपसे कहूंगा–यूं तो पूरे जीवन के लिए कहूंगा–एक बहुत आशा से भरा हुआ दृष्टिकोण। क्या आपको पता है, बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है आपके चित्त का कि क्या आप आशा से भर कर किसी काम को कर रहे हैं या निराशा से? अगर आप पहले से निराश हैं, तो आप अपने ही हाथ से उस डाल को काट रहे हैं, जिस पर आप बैठे हुए हैं।
तो मैं आपको यह कहूं, साधना के संबंध में बहुत आशा से भरा हुआ होना बड़ा महत्वपूर्ण है। आशा से भरे हुए होने का मतलब यह है कि अगर इस जमीन पर किसी भी मनुष्य ने सत्य को कभी पाया है, अगर इस जमीन पर मनुष्य के इतिहास में कभी भी कोई मनुष्य आनंद को और चरम शांति को उपलब्ध हुआ है, तो कोई भी कारण नहीं है कि मैं उपलब्ध क्यों नहीं हो सकूंगा।
उन लाखों लोगों की तरफ मत देखें, जिनका जीवन अंधकार से भरा हुआ है और जिन्हें कोई आशा और कोई किरण और कोई प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। उन थोड़े से लोगों को इतिहास में देखें, जिन्हें सत्य उपलब्ध हुआ है। उन बीजों को मत देखें, जो वृक्ष नहीं बन पाए और सड़ गए और नष्ट हो गए। उन थोड़े से बीजों को देखें, जिन्होंने विकास को उपलब्ध किया और जो परमात्मा तक पहुंचे। और स्मरण रखें कि उन बीजों को जो संभव हो सका, वह प्रत्येक बीज को संभव है। एक मनुष्य को जो संभव हुआ है, वह प्रत्येक दूसरे मनुष्य को संभव है।
मैं आपको यह कहना चाहता हूं कि बीज रूप से आपकी शक्ति उतनी ही है जितनी बुद्ध की, महावीर की, कृष्ण की या क्राइस्ट की है। परमात्मा के जगत में इस अर्थों में कोई अन्याय नहीं है कि वहां कम और ज्यादा संभावनाएं दी गई हों। संभावनाएं सबकी बराबर हैं, लेकिन वास्तविकताएं सबकी बराबर नहीं हैं। क्योंकि हममें से बहुत लोग अपनी संभावनाओं को वास्तविकता में परिणत करने का प्रयास ही कभी नहीं करते।
तो एक आधारभूत खयाल, आशा से भरा हुआ होना है। यह विश्वास रखें कि अगर कभी भी किसी को शांति उपलब्ध हुई है, आनंद उपलब्ध हुआ है, तो मुझे भी उपलब्ध हो सकेगा। अपना अपमान न करें निराश होकर। निराशा स्वयं का सबसे बड़ा अपमान है। उसका अर्थ है कि मैं इस योग्य नहीं हूं कि मैं भी पा सकूंगा। मैं आपको कहूं, इस योग्य आप हैं, निश्चित पा सकेंगे।
देखें! निराशा में भी जीवन भर चल कर देखा है। आशा में इन तीन दिन चल कर देखें। इतनी आशा से भर कर चलें कि होगी घटना, जरूर घटना घटेगी। क्यूं! यह हो सकता है आप आशा से भरे हों, लेकिन बाहर की दुनिया में हो सकता है कोई काम आप आशा से भरे हों, तो भी न कर पाएं। लेकिन भीतर की दुनिया में आशा बहुत बड़ा रास्ता है। जब आप आशा से भरते हैं, तो आपका कण-कण आशा से भर जाता है, आपका रोआं-रोआं आशा से भर जाता है, आपकी श्वास-श्वास आशा से भर जाती है। आपके विचारों पर आशा का प्रकाश भर जाता है और आपके प्राण के स्पंदन में, आपके हृदय की धड़कन में आशा व्याप्त हो जाती है।
आपका पूरा व्यक्तित्व जब आशा से भर जाता है, तो भूमिका बनती है कि आप कुछ कर सकेंगे। और निराशा का भी व्यक्तित्व होता है–कण-कण रो रहा है, उदास है, थका है, डूबा हुआ है, कोई प्राण नहीं हैं। सब–जैसे कि आदमी जिंदा नाममात्र को हो और मरा हुआ है। ऐसा आदमी किसी प्रयास पर निकलेगा, किसी अभियान पर, तो क्या पा सकेगा? और आत्मिक जीवन का अभियान सबसे बड़ा अभियान है। इससे बड़ी कोई चोटी नहीं है, जिसको कोई मनुष्य कभी चढ़ा हो। इससे बड़ी कोई गहराई नहीं है समुद्रों की, जिसमें मनुष्य ने कभी डुबकी लगाई हो। स्वयं की गहराई सबसे बड़ी गहराई है और स्वयं की ऊंचाई सबसे बड़ी ऊंचाई है।
इस अभियान पर जो निकला हो, उसे बड़ी आशाओं से भरा हुआ होना चाहिए।
तो मैं आपको कहूंगा, तीन दिन आशा की एक भाव-स्थिति को कायम रखें। आज रात ही जब सोएं, तो बहुत आशा से भरे हुए सोएं। और यह विश्वास लेकर सोएं कि कल सुबह जब आप उठेंगे, तो कुछ होगा, कुछ हो सकेगा, कुछ किया जा सकेगा।
दूसरी बात मैंने कही, आशा का एक दृष्टिकोण। आशा के इस दृष्टिकोण के साथ ही यह भी आपको स्मरण दिला दूं, इन पीछे कुछ वर्षों के अनुभव से इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हमारी निराशा इतनी गहरी है कि जब हमें कुछ मिलना भी शुरू होता है, तो निराशा के कारण दिखाई नहीं पड़ता।
अभी मेरे पास एक व्यक्ति आते थे। वे अपनी पत्नी को मेरे पास लाए। उन्होंने पहले दिन, जब वे आए थे, तो मुझे कहा कि मेरी पत्नी को नींद नहीं आती। बिलकुल नींद नहीं आती बिना दवा के। और दवा से भी तीन-चार घंटे से ज्यादा नींद नहीं आती। और मेरी पत्नी भयभीत है। अनजाने भय उसे परेशान किए रहते हैं। घर के बाहर निकलती है, तो डरती है। घर के भीतर होती है, तो डरती है कि मकान न गिर जाए। अगर पास में कोई न हो, तो घबड़ाती है कि अकेले में कहीं मृत्यु न हो जाए, इसलिए पास में कोई होना ही चाहिए। रात को सब दवाइयां अपने पास में रख कर सोती है कि बीच रात में कोई खतरा न हो जाए। उन्होंने मुझे अपनी पत्नी की यह भय की और निराशा की हालत बतायी।
मैंने उनको कहा कि ध्यान का यह छोटा सा प्रयोग शुरू करिए, लाभ होगा। उन्होंने प्रयोग शुरू किया। सात दिन बाद वे मुझे मिले। मैंने उनसे पूछा, ‘क्या हुआ? कैसा है?’ वे बोले, ‘अभी कुछ खास नहीं हुआ। बस नींद भर आने लगी है।’ उन्होंने मुझसे कहा, ‘अभी कुछ खास नहीं हुआ, बस नींद भर आने लगी है।’
सात दिन बाद वे मुझे फिर मिले, मैंने उनसे पूछा, ‘क्या हुआ?’ बोले, ‘अभी कुछ खास नहीं हुआ, थोड़ा सा भय दूर हो गया है।’ वे सात दिन बाद मुझे फिर मिले। मैंने उनसे पूछा, ‘कुछ हुआ?’ वे बोले, ‘अभी कुछ विशेष तो नहीं हुआ, यही है कि थोड़ी नींद आ जाती है, भय कम हो गया है, दवाइयां-ववाइयां अपने पास नहीं रखती। और कुछ खास नहीं हुआ।’
इसको मैं निराशा की दृष्टि कहता हूं। और ऐसे आदमी को कुछ हो भी जाए, तो उसे पता नहीं चलेगा। यह दृष्टि तो बुनियाद से गलत है। इसका तो मतलब है, इस आदमी को कुछ हो नहीं सकता, अगर हो भी जाए, तो भी–तो भी उसे कभी पता नहीं चलेगा कि कुछ हुआ। और बहुत कुछ हो सकता था, जो कि रुक जाएगा।
तो आशा के इस दृष्टिकोण के साथ-साथ प्रसंगवशात मैं आपसे यह कहूं, इन तीन दिनों में जो घटित हो, उसको स्मरण रखें; और जो घटित न हो, उसको बिलकुल स्मरण न रखें।
इन तीन दिनों में जो घटित हो, उसको स्मरण रखें। और जो घटित न हो, जो न हो पाए, उसे बिलकुल स्मरण न रखें। स्मरणीय वह है जो घटित हुआ हो। थोड़ा सा कण भी अगर लगे शांति का, उसको पकड़ें। वह आपको आशा देगा और गतिमान करेगा। और अगर आप उसको पकड़ते हैं जो नहीं हुआ, तो आपकी गति अवरुद्ध हो जाएगी और जो हुआ है, वह भी मिट जाएगा।
तो इन तीन दिनों में यह भी स्मरण रखें कि इन ध्यान के प्रयोगों में जो थोड़ा सा आपको अनुभव हो, उसको स्मरण रखें, उसको आधार बनाएं आगे के लिए। जो न हो, उसको आधार न बनाएं। मनुष्य जीवन भर इसी दुख में रहता है। जो उसे मिलता है, उसे भूल जाता है। और जो उसे नहीं मिलता, उसका स्मरण रखता है। ऐसा आदमी गलत आधार पर खड़ा है। वैसा आदमी बनें, जिसे जो मिला है, उसे स्मरण रखे और उस आधार पर खड़ा हो।
अभी मैं पढ़ता था, एक व्यक्ति ने किसी को कहा कि ‘मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं बहुत दरिद्र हूं।’ उस दूसरे व्यक्ति ने कहा कि ‘अगर तुम दरिद्र हो, तो एक काम करो। मैं तुम्हारी बायीं आंख चाहता हूं। इसके मैं पांच हजार रुपये देता हूं। तुम पांच हजार रुपये ले लो और बायीं आंख दे दो।’ उस आदमी ने कहा, ‘यह मुश्किल है, मैं बायीं आंख नहीं दे सकता।’ उसने कहा, ‘मैं दस हजार रुपये देता हूं, दोनों आंखें दे दो।’ उसने कहा, ‘दस हजार! फिर भी मैं नहीं दे सकता।’ उसने कहा, ‘मैं तुम्हें पचास हजार रुपये देता हूं, तुम अपनी जान मुझे दे दो।’ उसने कहा, ‘यह असंभव है। मैं नहीं दे सकता।’ तो उस आदमी ने कहा, ‘तब तो तुम्हारे पास बहुत कुछ है, जिसका बहुत दाम है। तुम्हारे पास दो आंखें हैं, जिनको तुम दस हजार में देने को राजी नहीं हो। लेकिन तुम कह रहे थे, मेरे पास कुछ भी नहीं है।’
मैं उस आदमी और उस विचार की बात आपसे कह रहा हूं। जो आपके पास है, उसको स्मरण रखें। और जो साधना में मिले थोड़ा सा, रत्ती भर भी मिले, उसे स्मरण रखें। उसका विचार करें, उसकी चर्चा करें। उसके आधार से और मिलने का रास्ता बनेगा, क्योंकि आशा बढ़ेगी। और जो नहीं मिला…।
एक महिला मेरे पास आती थीं। पढ़ी-लिखी हैं, एक कालेज में प्रोफेसर हैं, संस्कृत की विद्वान हैं। वे मेरे पास आती थीं। एक सात दिन का प्रयोग चलता था ध्यान का, उसमें आती थीं। पहले दिन वे प्रयोग करने के बाद उठीं और बाहर जाकर मुझसे कहीं, ‘क्षमा करें, अभी मुझे आज कोई ईश्वर के दर्शन नहीं हुए!’ पहले दिन वे प्रयोग कीं और बाहर जाकर मुझसे कहीं, ‘क्षमा करें, अभी मुझे कोई ईश्वर के दर्शन नहीं हुए।’
मैंने कहा, ‘अगर ईश्वर के दर्शन हो जाते, तो ही खतरे की बात होती। क्योंकि इतना सस्ता जो ईश्वर मिल जाए, उसे फिर शायद आप किसी मतलब का भी न समझतीं।’ और मैंने उनसे कहा कि ‘जो यह आकांक्षा करे कि वह दस मिनट आंख बंद करके बैठ गया है, इसलिए ईश्वर को पाने का हकदार हो गया है, उससे ज्यादा मूढ़तापूर्ण और कोई वृत्ति और विचार नहीं हो सकता।’
तो मैं आपसे यह कहता हूं कि जो थोड़ी सी भी शांति की किरण आपको मिले, उसे आप सूरज समझें। इसलिए सूरज समझें कि उसी किरण का सहारा पकड़ कर आप सूरज तक पहुंच जाएंगे। इस अंधकार से भरे कमरे में अगर मैं बैठा हूं और एक मुझे थोड़ी सी किरण दिखाई पड़ती हो, तो मेरे पास दो रास्ते हैं। एक तो मैं यह कहूं कि यह किरण क्या है, अंधकार इतना घना है। इस किरण से क्या होगा! अंधकार इतना ज्यादा है। एक रास्ता यह भी है कि मैं यह कहूं कि अंधकार कितना ही हो, लेकिन एक किरण मुझे उपलब्ध है। और अगर मैं इसकी दिशा में इसका अनुगमन करूं, तो मैं वहां तक पहुंच जाऊंगा, जहां से किरण पैदा हुई और जहां सूरज होगा।
तो मैं आपको अंधकार ज्यादा हो, तो भी उसे विचार करने को नहीं कहता। किरण छोटी हो, तो भी उस पर ही विचार को खड़ा करने को कहता हूं। इससे आशा की दृष्टि खड़ी होगी।
अन्यथा हमारे जीवन बड़े उलटे हैं। अगर मैं आपको एक गुलाब के फूल के पौधे के पास ले जाऊं और आपको पौधा दिखाऊं, तो शायद आप मुझसे कहें कि ‘इसमें क्या है! भगवान कैसा अन्यायी है! दो-चार तो फूल हैं, हजारों कांटे हैं।’ एक दृष्टि यह भी है कि गुलाब के पास जाकर हम यह कहें कि ‘भगवान कैसा अन्यायी है! हजारों कांटे हैं, कहीं एकाध फूल है।’
इसको कहने का एक ढंग और भी हो सकता है, एक दृष्टि और भी हो सकती है, एक और एप्रोच हो सकती है कि कोई आदमी उसी पौधे के पास जाकर यह कहे कि ‘भगवान कैसा अदभुत है कि जहां लाखों कांटे हैं, उनमें भी एक फूल खिल जाता है!’ कोई इसे यूं भी देख सकता है कि कहे कि ‘जहां लाखों कांटे हैं, उनमें भी एक फूल खिल जाता है। दुनिया अदभुत है! कांटों के बीच भी फूल के खिलने की संभावना कितनी आश्चर्यजनक है!’
तो मैं आपको दूसरी दृष्टि रखने को कहूंगा इन तीन दिनों में। छोटी सी भी आशा की जो भी झलक आपको मिले साधना में, उसको आधार बनाएं, उसको संबल बनाएं।
तीसरी बात, साधना के इन तीन दिनों में आपको ठीक वैसे ही नहीं जीना है, जैसे आप आज सांझ तक जीते रहे हैं। मनुष्य बहुत कुछ आदतों का यंत्र है। और अगर मनुष्य अपनी पुरानी आदतों के घेरे में ही चले, तो साधना की नई दृष्टि खोलने में उसे बड़ी कठिनाई हो जाती है। तो थोड़े से परिवर्तन करने को मैं आपसे कहूंगा।
एक परिवर्तन तो मैं आपसे यह कहूंगा कि इन तीन दिनों में आप ज्यादा बातचीत न करें। बातचीत इस सदी की सबसे बड़ी बीमारी है। और आपको पता नहीं कि आप कितनी बातें कर रहे हैं। सुबह से सांझ तक, जब तक आप जाग रहे हैं, बातें कर रहे हैं। या तो किसी से कर रहे हैं, अगर फिर कोई मौजूद नहीं है, तो अपने भीतर खुद से ही कर रहे हैं।
इन तीन दिनों में, इसका बहुत सजग प्रयास करें कि आपकी बातचीत की जो बहुत यांत्रिक आदत है, वह न चले। आदत है हमारी। यह साधक के जीवन में बहुत संघातक है।
इन तीन दिनों में मैं चाहूंगा, आप कम से कम बात करें। और जो बात भी करें, वह बात भी अच्छा हो कि आपकी वही सामान्य न हो, जो आप रोज करते हैं। आप क्या रोज बातें कर रहे हैं, उसका कोई बहुत मूल्य है? आप उसे नहीं करेंगे, तो कोई नुकसान है? जिसको आप कर रहे हैं, उसका, अगर नहीं उसे बताएंगे, कोई अहित है?
इन तीन दिनों में स्मरण रखें कि हमें किसी से कोई विशेष बात नहीं करनी है। बहुत अदभुत लाभ होगा। अगर कोई थोड़ी-बहुत बात आप करें भी, अच्छा हो कि वह साधना से ही संबंधित हो, और कुछ न हो। अच्छा तो यह है कि न ही करें। ज्यादा से ज्यादा समय मौन को रखें। वह भी जबरदस्ती मौन रखने को नहीं कहता हूं कि आप बिलकुल बोलें ही न, या लिख कर बोलें। आप बोलने के लिए मुक्त हैं, बातचीत करने को मुक्त नहीं हैं। और स्मरणपूर्वक, जितना सार्थक हो उतना बोलें, बाकी चुप रहें।
दो लाभ होंगे। एक तो बड़ा लाभ होगा कि व्यर्थ जो शक्ति व्यय होती है बोलने में, वह संचित होगी। और उस शक्ति का हम उपयोग साधना में कर सकेंगे। दूसरा लाभ यह होगा कि आप दूसरे लोगों से टूट जाएंगे और आप थोड़े एकांत में हो जाएंगे। हम यहां पहाड़ पर आए हैं। पहाड़ पर आने का कोई प्रयोजन पूरा न होगा, अगर यहां हम दो सौ लोग इकट्ठे हुए हैं और आपस में बातचीत करते रहे और बैठ कर गपशप करते रहे। तो हम भीड़ के भीड़ में रहे, हम एकांत में नहीं आ पाए।
एकांत में आने के लिए पहाड़ पर जाना ही जरूरी नहीं है, यह भी जरूरी है कि आप दूसरे लोगों से अपना संबंध थोड़ा शिथिल कर लें और अकेले हो जाएं। बहुत नाममात्र को संबंध रखें। समझें कि आप अकेले हैं इस पहाड़ पर और दूसरा कोई नहीं है। और आपको इस तरह जीना है, जैसे आप अकेले आए होते–अकेले रहते, अकेले घूमने जाते, अकेले किसी दरख्त के नीचे बैठते–वैसे ही। झुंड में आप न जाएं। चार-छह मित्र बन कर न जाएं। अलग-अलग, एक-एक, इन तीन दिनों में हम इस तरह जीएं।
यह मैं आपको कहूं कि भीड़ में जीवन का कोई श्रेष्ठ सत्य न कभी पैदा होता है और न कभी अनुभव होता है। भीड़ में कोई महत्वपूर्ण बात कभी नहीं हुई है। जो भी सत्य के अनुभव हुए हैं, वे अत्यंत एकांत में और अकेलेपन में हुए हैं।
जब हम किसी मनुष्य से नहीं बोलते और जब हम सारी बातचीत बाहर और भीतर बंद कर देते हैं, तो प्रकृति किसी बहुत रहस्यमय ढंग से हमसे बोलना शुरू कर देती है। वह शायद हमसे निरंतर बोल रही है। लेकिन हम अपनी बातचीत में इतने व्यस्त हैं कि वह धीमी सी आवाज हमें सुनाई नहीं पड़ती। हमें अपनी सारी आवाज बंद कर देनी होगी, ताकि हम उस अंतस-चेतन की आवाज को सुन सकें, जो प्रत्येक के भीतर चल रही है।
तो इन तीन दिनों में बिलकुल बातचीत को क्षीण कर दें स्मरणपूर्वक। अगर आदतवश बातचीत शुरू हो जाए और खयाल आ जाए, तो बीच में वहीं तोड़ दें और क्षमा मांग लें कि भूल हो गई। अकेले में जाएं। यहां जो हम प्रयोग करेंगे, वे तो करेंगे ही, लेकिन आप अकेले में प्रयोग करें। कहीं भी चले जाएं। किसी दरख्त के नीचे बैठें।
हम यह भी भूल गए हैं कि हमारा प्रकृति से कोई संबंध है और कोई नाता है। और हमको यह भी पता नहीं है कि प्रकृति के सान्निध्य में व्यक्ति जितनी शीघ्रता से परमात्मा की निकटता में पहुंचता है, उतना और कहीं नहीं पहुंचता।
तो इस अदभुत तीन दिन के मौके का, अवसर का, लाभ उठाएं। अकेले में चले जाएं और व्यर्थ की बातचीत न करें। वह तीन दिन के बाद फिर करने को आपको काफी समय रहेगा; उसे बाद में कर ले सकते हैं।
इस तीसरी बात को स्मरण रखें कि अधिकतर तीन दिन मौन में, एकांत में और अकेले में बिताने हैं। सब साथ हों, तो भी अकेले में ही हम बिता रहे हैं। साधना का जीवन अकेले का जीवन है। हम यहां इतने लोग हैं, हम ध्यान करने बैठेंगे, तो लगेगा कि समूह में ध्यान कर रहे हैं। लेकिन सब ध्यान वैयक्तिक हैं। समूह का कोई ध्यान नहीं होता। बैठे जरूर हम यहां इतने लोग हैं। लेकिन हर एक भीतर जब अपने जाएगा, तो अकेला रह जाएगा। जब वह आंख बंद करेगा, अकेला हो जाएगा। और जब शांति में प्रवेश करेगा, उसके साथ कोई भी नहीं होगा। हम यहां दो सौ लोग होंगे, लेकिन हर एक आदमी केवल अपने साथ होगा। बाकी एक सौ निन्यानबे के साथ नहीं होगा।
सामूहिक कोई ध्यान नहीं होता, न कोई प्रार्थना होती है। सब ध्यान, सब प्रार्थनाएं वैयक्तिक होती हैं, अकेले होती हैं। यहां भी हम अकेले रहेंगे, बाहर भी हम अकेले रहेंगे। और अधिकतर मौन में समय को व्यतीत करेंगे। नहीं बोलेंगे। इतना ही काफी नहीं है कि नहीं बोलेंगे। अंतस में भी स्मरण रखेंगे कि व्यर्थ की जो निरंतर बकवास चल रही है भीतर आपके–आप खुद ही बोल रहे हैं, खुद ही उत्तर दे रहे हैं–उसे भी शिथिल रखेंगे, उसे भी छोड़ेंगे। अगर भीतर वह शिथिल न होती हो, तो बहुत स्पष्ट भीतर आदेश दें कि बकवास बंद कर दो। बकवास मुझे पसंद नहीं है। अपने भीतर स्वयं से कहें।
यह भी मैं आपको कहूं कि साधना के जीवन में अपने से कुछ आदेश देना बहुत महत्वपूर्ण है। कभी आदेश देकर देखें। अकेले में बैठ जाएं और अपने मन को कह दें कि ‘बकवास बंद। मुझे यह पसंद नहीं है।’ और आप हैरान होंगे कि एक झटके से बातचीत भीतर टूटेगी।
तीन दिन स्मरणपूर्वक भीतर आदेश दे दें कि बातचीत मुझे नहीं करनी है। आप तीन दिन में पाएंगे कि अंतर पड़ा है और क्रमशः भीतर की बातचीत बंद हुई है।
पांचवीं बात, कुछ शिकायतें हो सकती हैं, कोई तकलीफ हो सकती है। तीन दिन उसका कोई खयाल नहीं करेगा। कोई छोटी-मोटी तकलीफ हो, अड़चन हो, उसका कोई खयाल नहीं करेगा। हम किन्हीं सुविधाओं के लिए यहां इकट्ठे नहीं हुए हैं।
अभी-अभी मैं एक चीनी साध्वी का जीवन पढ़ता था। वह एक गांव में गई थी। उस गांव में थोड़े से मकान थे। उसने उन मकानों के सामने जाकर–सांझ हो रही थी, रात पड़ने को थी, वह अकेली साध्वी थी–उसने लोगों से कहा कि ‘मुझे घर में ठहर जाने दें।’ अपरिचित स्त्री। फिर उस गांव में जो लोग रहते थे, वह उनके धर्म के मानने वाली नहीं थी। लोगों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए। दूसरा गांव बहुत दूर था। और रात, और अकेली। उसे उस रात एक खेत में जाकर सोना पड़ा। वह एक चेरी के दरख्त के नीचे जाकर चुपचाप सो गई।
रात दो बजे उसकी नींद खुली। सर्दी थी, और सर्दी की वजह से उसकी नींद खुल गई। उसने देखा, फूल सब खिल गए हैं और दरख्त पूरा फूलों से लदा है और चांद ऊपर आ गया है। और बहुत अदभुत चांदनी है। और उसने उस आनंद के क्षण को अनुभव किया।
सुबह वह उस गांव में गई और उन-उन को धन्यवाद दिया, जिन्होंने रात्रि द्वार बंद कर लिए थे। और उन्होंने पूछा, ‘काहे का धन्यवाद!’ उसने कहा, ‘तुमने अपने प्रेमवश, तुमने मुझ पर करुणा और दया करके रात अपने द्वार बंद कर लिए, उसका धन्यवाद। मैं एक बहुत अदभुत क्षण को उपलब्ध कर सकी। मैंने चेरी के फूल खिले देखे और मैंने पूरा चांद देखा। और मैंने कुछ ऐसा देखा जो मैंने जीवन में नहीं देखा था। और अगर आपने मुझे जगह दे दी होती, तो मैं वंचित रह जाती। तब मैं समझी कि उनकी करुणा कि उन्होंने क्यों मेरे लिए द्वार बंद कर रखे हैं।’
यह एक दृष्टि है, एक कोण है। आप भी हो सकता था उस रात द्वार से लौटा दिए गए होते। तो शायद आप इतने गुस्से में होते रात भर और उन लोगों के प्रति इतनी आपके मन में घृणा और इतना क्रोध होता कि शायद आपको जब चेरी में फूल खिलते, तो दिखाई नहीं पड़ते। और जब चांद ऊपर आता, तो आपको पता नहीं चलता। धन्यवाद तो बहुत दूर था, आप यह सब अनुभव भी नहीं कर पाते।
जीवन में एक और स्थिति भी है, जब हम प्रत्येक चीज के प्रति धन्यवाद से भर जाते हैं। साधक स्मरण रखें कि उन्हें इन तीन दिनों में प्रत्येक चीज के प्रति धन्यवाद से भर जाना है। जो मिलता है, उसके लिए धन्यवाद। जो नहीं मिलता, उससे कोई प्रयोजन नहीं है। उस भूमिका में अर्थ पैदा होता है। उस भूमिका में भीतर एक निश्चिंतता पैदा होती है और एक सरलता पैदा होती है।
और अंतिम रूप से एक बात और। इन तीन दिनों में हम निरंतर प्रयास करेंगे अंतस प्रवेश का, ध्यान का, समाधि का। उस प्रवेश के लिए एक बहुत प्रगाढ़ संकल्प की जरूरत है। प्रगाढ़ संकल्प का यह अर्थ है, हमारा जो मन है, उसका एक बहुत छोटा सा हिस्सा, जिसको हम चेतन मन कहते हैं, उसी में सब विचार चलते रहते हैं। उससे बहुत ज्यादा गहराइयों में हमारा नौ हिस्सा मन और है। अगर हम मन के दस खंड करें, तो एक खंड हमारा कांशस है, चेतन है। नौ खंड हमारे अचेतन और अनकांशस हैं। इस एक खंड में ही हम सब सोचते-विचारते हैं। नौ खंडों में उसकी कोई खबर नहीं होती, नौ खंडों में उसकी कोई सूचना नहीं पहुंचती।
हम यहां सोच लेते हैं कि ध्यान करना है, समाधि में उतरना है, लेकिन हमारे मन का बहुत सा हिस्सा अपरिचित रह जाता है। वह अपरिचित हिस्सा हमारा साथ नहीं देगा। और अगर उसका साथ हमें नहीं मिला, तो सफलता बहुत मुश्किल है। उसका साथ मिल सके, इसके लिए संकल्प करने की जरूरत है। और संकल्प मैं आपको समझा दूं, कैसा हम करेंगे। अभी यहां संकल्प करके उठेंगे। और फिर जब रात्रि में आप अपने बिस्तरों पर जाएं, तो पांच मिनट के लिए उस संकल्प को पुनः दोहराएं और उस संकल्प को दोहराते-दोहराते ही नींद में सो जाएं।
संकल्प को पैदा करने का जो प्रयोग है, वह मैं आपको समझा दूं, उसे हम यहां भी करेंगे और रोज नियमित करेंगे। संकल्प से मैंने आपको समझाया कि आपका पूरा मन चेतन और अचेतन, इकट्ठे रूप से यह भाव कर ले कि मुझे शांत होना है, मुझे ध्यान को उपलब्ध होना है।
जिस रात्रि गौतम बुद्ध को समाधि उपलब्ध हुई, उस रात वे अपने बोधिवृक्ष के नीचे बैठे और उन्होंने कहा, ‘अब जब तक मैं परम सत्य को उपलब्ध न हो जाऊं, तब तक यहां से उठूंगा नहीं।’ हमें लगेगा, इससे क्या मतलब है? आपके नहीं उठने से परम सत्य कैसे उपलब्ध हो जाएगा? लेकिन यह खयाल कि जब तक मुझे परम सत्य उपलब्ध न हो जाए, मैं यहां से उठूंगा नहीं, यह सारे प्राण में गूंज गया। वे नहीं उठे, जब तक परम सत्य उपलब्ध नहीं हुआ। और आश्चर्य है कि परम सत्य उसी रात्रि उन्हें उपलब्ध हुआ। वे छह वर्ष से चेष्टा कर रहे थे, लेकिन इतना प्रगाढ़ संकल्प किसी दिन नहीं हुआ था।
संकल्प की प्रगाढ़ता कैसे पैदा हो, वह मैं छोटा सा प्रयोग आपको कहता हूं। वह हम अभी यहां करेंगे और फिर उसे हम रात्रि में नियमित करके सोएंगे।
अगर आप अपनी सारी श्वास को बाहर फेंक दें और फिर श्वास को अंदर ले जाने से रुक जाएं, क्या होगा? अगर मैं अपनी सारी श्वास बाहर फेंक दूं और फिर नाक को बंद कर लूं और श्वास को भीतर न जाने दूं, तो क्या होगा? क्या थोड़ी देर में मेरे सारे प्राण उस श्वास को लेने को तड़फने नहीं लगेंगे? क्या मेरा रोआं-रोआं और मेरे शरीर के जो लाखों कोष्ठ हैं, वे मांग नहीं करने लगेंगे कि हवा चाहिए, हवा चाहिए! जितनी देर मैं रोकूंगा, उतना ही मेरे गहरे अचेतन का हिस्सा पुकारने लगेगा, हवा चाहिए! जितनी देर मैं रोके रहूंगा, उतने ही मेरे प्राण के नीचे के हिस्से भी चिल्लाने लगेंगे, हवा चाहिए! अगर मैं आखिरी क्षण तक रोके रहूं, तो मेरा पूरा प्राण मांग करने लगेगा, हवा चाहिए! यह सवाल आसान नहीं है कि ऊपर का हिस्सा ही कहे। अब यह जीवन और मृत्यु का सवाल है, तो नीचे के हिस्से भी पुकारेंगे कि हवा चाहिए!
इस क्षण की स्थिति में, जब कि पूरे प्राण हवा को मांगते हों, तब आप अपने मन में यह संकल्प सतत दोहराएं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। उन क्षणों में, जब आपके पूरे प्राण श्वास मांगते हों, तब आप अपने मन में यह भाव दोहराते रहें कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। यह मेरा संकल्प है कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। उस वक्त आपका मन यह दोहराता रहे। उस वक्त आपके प्राण श्वास मांग रहे होंगे और आपका मन यह दोहराएगा। जितनी गहराई तक प्राण कंपित होंगे, उतनी गहराई तक आपका यह संकल्प प्रविष्ट हो जाएगा। और अगर आपने पूरे प्राण-कंपित हालत में इस वाक्य को दोहराया, तो यह संकल्प प्रगाढ़ हो जाएगा। प्रगाढ़ का मतलब यह है कि वह आपके अचेतन, अनकांशस माइंड तक प्रविष्ट हो जाएगा।
इसे हम रोज ध्यान के पहले भी करेंगे। रात्रि में सोते समय भी आप इसे करके सोएंगे। इसे करेंगे, फिर सो जाएंगे। जब आप सोने लगेंगे, तब भी आपके मन में यह सतत ध्वनि बनी रहे कि मैं ध्यान में प्रविष्ट होकर रहूंगा। यह मेरा संकल्प है कि मुझे ध्यान में प्रवेश करना है। यह वचन आपके मन में गूंजता रहे और गूंजता रहे, और आप कब सो जाएं, आपको पता न पड़े।
सोते समय चेतन मन तो बेहोश हो जाता है और अचेतन मन के द्वार खुलते हैं। अगर उस वक्त आपके मन में यह बात गूंजती रही, गूंजती रही, तो यह अचेतन पर्तों में प्रविष्ट हो जाएगी। और आप इसका परिणाम देखेंगे। इन तीन दिनों में ही परिणाम देखेंगे।
संकल्प को प्रगाढ़ करने का उपाय आप समझें। उपाय है, सबसे पहले धीमे-धीमे पूरी श्वास भर लेना, पूरे प्राणों में, पूरे फेफड़ों में श्वास भर जाए, जितनी भर सकें। जब श्वास पूरी भर जाए, तब भी मन में यह भाव गूंजता रहे कि मैं संकल्प करता हूं कि ध्यान में प्रविष्ट होकर रहूंगा। यह वाक्य गूंजता ही रहे।
फिर श्वास बाहर फेंकी जाए, तब भी यह वाक्य गूंजता रहे कि मैं संकल्प करता हूं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। यह वाक्य दोहरता रहे। फिर श्वास फेंकते जाएं बाहर। एक घड़ी आएगी, आपको लगेगा, अब श्वास भीतर बिलकुल नहीं है, तब भी थोड़ी है, उसे भी फेंकें और वाक्य को दोहराते रहें। आपको लगेगा, अब बिलकुल नहीं है, तब भी है, आप उसे भी फेंकें।
आप घबराएं न। आप पूरी श्वास कभी नहीं फेंक सकते हैं। यानी इसमें घबराने का कोई कारण नहीं है। आप पूरी श्वास कभी फेंक ही नहीं सकते हैं। इसलिए जितना आपको लगे कि अब बिलकुल नहीं है, उस वक्त भी थोड़ी है, उसको भी फेंकें। जब तक आपसे बने, उसे फेंकते जाएं और मन में यह गूंजता रहे कि मैं संकल्प करता हूं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा।
यह अदभुत प्रक्रिया है। इसके माध्यम से आपके अचेतन पर्तों में विचार प्रविष्ट होगा, संकल्प प्रविष्ट होगा और उसके परिणाम आप कल सुबह से ही देखेंगे।
तो एक तो संकल्प को प्रगाढ़ करना है। उसको अभी हम जब अलग होंगे यहां से, तो उस प्रयोग को करेंगे। उसको पांच बार करना है। यानी पांच बार श्वास को फेंकना और रोकना है, और पांच बार निरंतर उस भाव को अपने भीतर दोहराना है। जिनको कोई हृदय की बीमारी हो या कोई तकलीफ हो, वे उसे बहुत ज्यादा तेजी से नहीं करेंगे, उसे बहुत आहिस्ता करेंगे; जितना उनको सरल मालूम पड़े और तकलीफ न मालूम पड़े।
यह जो संकल्प की बात है, इसको मैंने कहा कि रोज रात्रि को इन तीन दिनों में सोते समय करके सोना है। सोते वक्त जब बिस्तर पर आप लेट जाएं, इसी भाव को करते-करते क्रमशः नींद में विलीन हो जाना है।
यह संकल्प की स्थिति अगर हमने ठीक से पकड़ी और अपने प्राणों में उस आवाज को पहुंचाया, तो परिणाम होना बहुत सरल है और बहुत-बहुत आसान है।
ये थोड़ी सी बातें आपको आज कहनी थीं। इनमें जो प्रासांगिक जरूरतें हैं, वह मैं समझता हूं, आप समझ गए होंगे। जैसा मैंने कहा कि बातचीत नहीं करनी है। स्वाभाविक है कि आपको अखबार, रेडियो, इनका उपयोग नहीं करना है। क्योंकि वह भी बातचीत है। मैंने आपसे कहा, मौन में और एकांत में होना है। इसका स्वाभाविक मतलब हुआ कि जहां तक बने साथियों से दूर रहना है। जितनी देर हम यहां मिलेंगे, वह अलग। भोजन के लिए जाएंगे, वह अलग। वहां भी आप बड़े मौन से और बड़ी शांति से भोजन करें। वहां भी सन्नाटा हो, जैसे पता न चले कि आप वहां हैं। यहां भी आएं, तो सन्नाटे में और शांति में आएं।
देखें, तीन दिन शांत रहने का प्रयोग क्या परिणाम लाता है! रास्ते पर चलें, तो बिलकुल शांत। उठें-बैठें, तो बिलकुल शांत। और अधिकतर एकांत में चले जाएं। सुंदर कोई जगह चुनें, वहां चुपचाप बैठ जाएं। अगर कोई साथ है, तो वह भी चुपचाप बैठे, बातचीत न करे। अन्यथा पहाड़ियां व्यर्थ हो जाती हैं। सौंदर्य व्यर्थ हो जाता है। जो सामने है, वह दिखाई नहीं पड़ता। आप बातचीत में सब समाप्त कर देते हैं। अकेले में जाएं।
और इसी भांति ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं आपके लिए जो-जो जरूरी है और हर एक के लिए। अगर आपके भीतर प्यास नहीं मालूम होती बिलकुल, तो उस प्यास को कैसे पैदा किया जाए, उसके संबंध में कल मुझसे प्रश्न पूछ लें। अगर आपको ऐसा नहीं लगता है, कि मुझे कोई आशा नहीं मालूम होती है; तो आशा कैसे पैदा हो, उसके संबंध में कल सुबह मुझसे प्रश्न पूछ लें। अगर आपको लगता है कि मुझे कोई संकल्प करने में कठिनाई है, या नहीं बन पाता, या नहीं होता, तो सारी कठिनाइयां मुझसे सुबह पूछ लें।
कल सुबह ही तीन दिन के लिए जो भी कठिनाइयां आ सकती हैं, वह आप मुझसे पूछ लें, ताकि तीन दिन में कोई भी समय व्यय न हो। अगर प्रत्येक व्यक्ति की कोई अपनी वैयक्तिक तकलीफ और दुख और पीड़ा है, जिससे वह मुक्त होना चाहता है, या जिसकी वजह से वह ध्यान में नहीं जा सकता, या जिसकी वजह से उसे ध्यान में प्रवेश करना मुश्किल होता है, समझ लें। अगर आपको कोई एक विशेष चिंता है, जो आपको प्रविष्ट नहीं होने देती शांति में, तो आप उसके लिए अलग से पूछ लें। अगर आपको कोई ऐसी पीड़ा है, जो आपको नहीं प्रविष्ट होने देती, उसको आप अलग से पूछ लें। वह सबके लिए नहीं होगी सामूहिक। वह आपकी वैयक्तिक होगी, उसके लिए आप अलग प्रयोग करेंगे। और जो भी तकलीफ हो, वह स्पष्ट सुबह रख दें, ताकि हम तीन दिन के लिए व्यवस्थित हो जाएं।
ये थोड़ी सी बातें मुझे आपसे कहनी थीं। आपकी एक भाव-दृष्टि बने। और फिर जो हमें करना है, वह हम कल से शुरू करेंगे और कल से समझेंगे।
अभी हम सब थोड़े-थोड़े फासले पर बैठ जाएंगे। हॉल तो बड़ा है, सब फासले पर बैठ जाएंगे, ताकि हम संकल्प का प्रयोग करें और फिर हम यहां से विदा हों।
…ऐसे झटके से नहीं, बहुत आहिस्ता-आहिस्ता, पूरा फेफड़ा भर लेना है। जब आप फेफड़े को भरेंगे, तब आप स्वयं अपने मन में दोहराते रहेंगे कि मैं संकल्प करता हूं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। इस वाक्य को आप दोहराते रहेंगे। फिर जब श्वास पूरी भर जाए आखिरी सीमा तक, तब उसे थोड़ी देर रोकें और अपने मन में यह दोहराते रहें। घबड़ाहट बढ़ेगी। मन होगा, बाहर फेंक दें। तब भी थोड़ी देर रोकें। और इस वाक्य को दोहराते रहें। फिर श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालें। तब भी वाक्य दोहरता रहे। फिर सारी श्वास बाहर निकालते जाएं, आखिरी सीमा तक लगे, तब भी निकाल दें, तब भी वाक्य दोहरता रहे। फिर अंदर जब खाली हो जाए, उस खालीपन को रोकें। श्वास को अंदर न लें। फिर दोहरता रहे वाक्य, अंतिम समय तक। फिर धीरे-धीरे श्वास को अंदर लें। ऐसा पांच बार। यानी एक बार का मतलब हुआ, एक दफा अंदर लेना और बाहर छोड़ना। एक बार। इस तरह पांच बार। क्रमशः धीरे-धीरे सब करें।
जब पांच बार कर चुकें, तब बहुत आहिस्ता से रीढ़ को सीधा रख कर ही फिर धीमे-धीमे श्वास लेते रहें और पांच मिनट विश्राम से बैठे रहें। ऐसा कोई दस मिनट हम यहां प्रयोग करें। फिर चुपचाप सारे लोग चले जाएंगे। बातचीत न करने का स्मरण रखेंगे। अभी से उसको शुरू कर देना है। शिविर शुरू हो गया है इस अर्थों में। सोते समय फिर इस प्रयोग को पांच-सात दफा करें, जितनी देर आपको अच्छा लगे। फिर सो जाएं। सोते समय सोचते हुए सोएं उसी भाव को कि मैं शांत होकर रहूंगा, यह मेरा संकल्प है। और नींद आपको पकड़ ले और आप उसको सोचते रहें।
तो लाइट बुझा दें। जब आपका पांच बार हो जाए, तो आप चुपचाप अपना-अपना बैठ कर थोड़ी धीमी श्वास लेते हुए बैठे रहेंगे। रीढ़ सीधी कर लें। सारे शरीर को आराम से छोड़ दें। रीढ़ सीधी हो और शरीर आराम से छोड़ दें। आंख बंद कर लें। बहुत शांति से श्वास को अंदर लें। और जैसा मैंने कहा, वैसा प्रयोग पांच बार करें।
मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। मेरा संकल्प है कि ध्यान में प्रवेश होगा। मेरा संकल्प है कि ध्यान में प्रवेश होगा। पूरे प्राणों को संकल्प करने दें कि ध्यान में प्रवेश होगा। पूरे प्राण में यह बात गूंज जाए। यह अंतस-चेतन तक उतर जाए।
पांच बार आपका हो जाए, तो फिर बहुत आहिस्ता से बैठ कर शांति से रीढ़ को सीधा रखे हुए ही धीमे-धीमे श्वास को लें, धीमे छोड़ें और श्वास को ही देखते रहें। पांच मिनट विश्राम करें। उस विश्राम के समय में, जो संकल्प हमने किया है, वह और गहरे अपने आप डूब जाएगा। पांच बार संकल्प कर लें, फिर चुपचाप बैठ कर श्वास को देखते रहें पांच मिनट तक। और बहुत धीमी श्वास लें फिर।