UPANISHAD
Dhyan-Sutra (ध्यान-सूत्र) 09
Ninth Discourse from the series of 9 discourses – Dhyan-Sutra (ध्यान-सूत्र) by Osho. These discourses were given in MAHABLESHWAR during FEB 12-15 1965.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
इन तीन दिवसों में बहुत प्रेम की, और बहुत शांति की, आनंद की वर्षा हमारे हृदयों में रही। और मैं तो उन पक्षियों में से हूं, जिनका कोई नीड़ नहीं होता। और मुझे आपने अपने हृदयों में जगह दी, मेरे विचारों को और मेरे हृदय से निकले हुए उदगारों को आपने चाहा, उन्हें मौन से सुना, उनको समझने की कोशिश की और उनके प्रति बहुत प्रेम प्रकट किया, उस सबके लिए मैं अनुगृहीत हूं। आपकी आंखों में, आपकी खुशी में, और आपकी खुशी में आ गए आंसुओं में मुझे जो दिखायी पड़ा, उसके लिए भी अनुगृहीत हूं।
मैं बहुत आनंदित हुआ, इस बात से आनंदित हुआ कि आपके भीतर आनंद के लिए एक प्यास जगाने में सफल हो जाऊं। इससे आनंदित हुआ कि आपको असंतुष्ट करने में सफल हो जाऊं। यही जीवन में दिखायी पड़ता है कि यही काम होगा कि जो चुपचाप हैं और संतुष्ट हैं, उन्हें मैं असंतुष्ट कर दूं। और जो चुपचाप चल रहे हैं, उन्हें जगा दूं और उनसे कहूं कि जो जीवन है, वह जीवन नहीं है। और जिसे वे जीवन समझे हुए हैं, वह धोखा है और मृत्यु है। जिस जीवन की परिसमाप्ति मृत्यु पर हो जाए, उसे जीवन नहीं मानना है। जो जीवन और विराट जीवन में ले जाए, वही सच्चा होता है।
तो इन तीन दिनों में हमने सच्चे जीवन को जीने की, उस तरफ आंखें उठाने की कोशिश की है। अगर संकल्प हमारा प्रगाढ़ होगा और हमारी आकांक्षा गहरी होगी, तो यह असंभव नहीं है कि जिस प्यास से हम संतृप्त हुए हैं, उसकी परितृप्ति तक हम न पहुंच जाएं।
आज के दिन इस आखिरी रात में, विदा की रात में कुछ थोड़ी सी बातें और आपको कहूं। पहली बात तो यह कि यदि परमात्मा को पाने का खयाल आपके भीतर एक लपट बन गया हो, तो उस खयाल को जल्दी कार्य में लगा देना। जो शुभ को करने में देर करता है, वह चूक जाता है। और जो अशुभ को करने में जल्दी करता है, वह भी चूक जाता है। शुभ को करने में जो देर करता है, वह चूक जाता है। और अशुभ को करने में जो जल्दी करता है, वह चूक जाता है।
जीवन का सूत्र यही है कि अशुभ को करते समय रुक जाओ और देर करो, और शुभ को करते समय देर मत करना और रुक मत जाना।
अगर कोई शुभ विचार खयाल में आ जाए, तो उसे तत्क्षण शुरू कर देना उपयोगी है। क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं है। आने वाले क्षण का कोई भरोसा नहीं है। हम होंगे या नहीं होंगे, नहीं कहा जा सकता। इसके पहले कि मृत्यु हमें पकड़ ले, हमें निर्णायक रूप से यह सिद्ध कर देना है कि हम इस योग्य नहीं थे कि मृत्यु ही हमारा भाग्य हो। इसके पूर्व कि मृत्यु हमें पकड़ ले, हमें यह सिद्ध कर देना है कि हम इस योग्य नहीं थे कि मृत्यु ही हमारा भाग्य हो। मृत्यु से ऊपर का कुछ पाने की क्षमता हमने विकसित की थी, यह मृत्यु के आने तक तय कर लेना है। और वह मृत्यु कभी भी आ सकती है, वह किसी भी क्षण आ सकती है। अभी बोल रहा हूं और इसी क्षण आ सकती है। तो मुझे उसके लिए सदा तैयार होने की जरूरत है। प्रतिक्षण मुझे तैयार होने की जरूरत है।
तो कल पर न टालना। अगर कोई बात ठीक प्रतीत हुई हो, तो उसे आज से शुरू कर देना जरूरी है। कल रात मैं वहां कहता था, झील पर हम बैठे थे और कल रात मैंने वहां कहा कि तिब्बत में एक साधु हुआ। उससे कोई व्यक्ति मिलने गया था, और सत्य के संबंध में पूछने गया था। वहां तिब्बत में रिवाज था कि साधु की तीन परिक्रमाएं करो और फिर उसके पैर छुओ और फिर जिज्ञासा करो। वह युवक गया, उसने न तो परिक्रमा की और न पैर छुए। उसने जाते से ही पूछा कि ‘मेरी कोई जिज्ञासा है, उत्तर दें।’ उस साधु ने कहा, ‘पहले जो औपचारिक नियम है, उसे तो पूरा करो!’ वह युवक बोला कि ‘तीन तो क्या, मैं तीन हजार चक्कर लगाऊं। लेकिन अगर तीन ही चक्करों में मेरे प्राण निकल गए और सत्य को मैं न जान पाया, तो जिम्मा किसका होगा? मेरा या आपका? इसलिए पहले मेरी जिज्ञासा पूरी कर दें, फिर मैं चक्कर पूरे कर दूंगा।’ उसने कहा कि ‘क्या पता कि मैं तीन चक्कर लगाऊं और समाप्त हो जाऊं!’
तो सबसे बड़ा महत्वपूर्ण बोध मृत्यु का बोध है साधक को। उसे प्रतिक्षण ज्ञात होना चाहिए कि कोई भी क्षण मौत हो सकती है। आज सांझ मैं सोऊंगा, हो सकता है, यह आखिरी सांझ हो और सुबह हम न उठें। तो मुझे आज रात सोते समय इस भांति सोना चाहिए कि मैंने अपने जीवन का सारा हिसाब निपटा लिया है और अब मैं निश्चिंत सो रहा हूं। अगर मौत आएगी, तो उसका स्वागत है।
तो कल पर किसी श्रेष्ठ बात को मत टाल देना। और अश्रेष्ठ बात को जितना बन सके, उतना टालना। हो सकता है, मौत बीच में आ जाए, और उस अश्रेष्ठ को करने से हम बच जाएं। अगर कोई बुराई करने का मन हो, उसे जितना बने उतना टाल देना। मौत को बहुत फासला नहीं है। अगर कोई आदमी कुछ बुराइयों को दस-बीस साल टालने भर में सफल हो जाए, तो जीवन परमात्मा हो सकता है। मौत का बहुत लंबा फासला नहीं है। थोड़े से वर्ष अगर बुराइयां टालने में कोई सफल हो जाए, तो जीवन शुद्ध हो सकता है। और मौत का कोई फासला नहीं है, जो शुभ को ठहराए रखेगा देर तक, उसके जीवन में कुछ उपलब्ध न होगा।
इसलिए शुभ को करने में जितनी शीघ्रता हो, उसका स्मरण दिलाना चाहता हूं। और अगर कोई बात शुभ मालूम हुई हो, तो उसे शुरू ही कर देना। यह मत सोचना कि कल करेंगे। जो आदमी सोचता है, कल करेंगे, वह करना नहीं चाहता है। जो आदमी सोचता है, कल करेंगे, वह करना नहीं चाहता है। ‘कल करना’ टालने का एक उपाय है। अगर न करना हो, तो उसका भी स्पष्ट बोध होना चाहिए कि मुझे नहीं करना है। वह अलग बात है। लेकिन कल पर टालना खतरनाक है। जो कल पर टालता है, वह अक्सर हमेशा के लिए टाल देता है। जो कल पर छोड़ता है, वह अक्सर हमेशा के लिए छोड़ देता है।
यदि कोई बात जीवन में ठीक लगती हो, तो जिस क्षण ठीक लगे, वही क्षण उसे करने का क्षण भी है। उसे उसी क्षण प्रारंभ कर देना है।
तो इस बात को स्मरण रखेंगे कि शुभ को करने में शीघ्रता और अशुभ को करने में रुक जाना। और यह भी स्मरण रखेंगे कि शुभ को साधने के, सत्य को साधने के जो सूत्र मैंने कहे हैं, वे सूत्र कोई बौद्धिक सिद्धांत की बातें नहीं थे। यानी मुझे कोई रस नहीं है कि मैं कोई सिद्धांत आपको समझाऊं। कोई एकेडेमिक रस मेरे मन में नहीं है। वे मैंने इसलिए कहे हैं कि अगर आप करने को राजी हो जाएं, अगर आप उन सूत्रों को करने को राजी हो जाएं, तो वे सूत्र आपके लिए कुछ करेंगे।
अगर आप उनको करने को राजी हुए, तो वे सूत्र आपके लिए कुछ करेंगे। और अगर आपने उनका उपयोग किया, तो वे सूत्र आपको परिवर्तित कर देंगे। वे सूत्र बहुत जीवित हैं। वे जीवित अग्नि की तरह हैं। अगर थोड़ा ही उसे जगाया, तो आप नये व्यक्ति का अपने भीतर जन्म अनुभव कर सकते हैं।
एक जन्म हमें मां-बाप से मिलता है। वह कोई जन्म नहीं है। वह एक और नयी मृत्यु का आगमन है। वह एक और चक्कर है, जिसमें अंत में मृत्यु आएगी। वह कोई जन्म नहीं है, वह केवल एक और नये शरीर का धारण है। एक और भी जन्म है, जो मां-बाप से नहीं मिलता, जो साधना से मिलता है, वही वास्तविक जन्म है। उसी को पाकर व्यक्ति द्विज होता है, दुबारा जन्म पाता है। वह जन्म प्रत्येक को स्वयं देना होता है, अपने को देना होता है।
तो तब तक शांति और चैन अनुभव न करें, जब तक कि आप अपने भीतर दूसरे जन्म को उपलब्ध न हो जाएं। तब तक आपके भीतर कोई भी शक्ति व्यर्थ न पड़ी रहे। सारी शक्तियों को इकट्ठा कर लें और संलग्न हो जाएं।
तो जो थोड़े से सूत्र मैंने कहे हैं, अगर श्रमपूर्वक और संकल्पपूर्वक उन पर काम किया, तो आप बहुत जल्दी पाएंगे कि आपके भीतर एक नये व्यक्ति का जन्म हो रहा है, एक बिलकुल अभिनव व्यक्ति का जन्म। और जिस मात्रा में आपके भीतर नये व्यक्ति का जन्म होगा, उसी मात्रा में यह दुनिया नयी हो जाती है, दूसरी हो जाती है।
बहुत आनंद है इस जगत में, और बहुत आलोक है, और बहुत सौंदर्य है। काश, हमारे पास देखने की आंखें हों और ग्रहण करने वाला हृदय हो। तो वह ग्रहण करने वाला हृदय और देखने वाली आंख पैदा हो सकती है। उसके लिए ही तीन दिन बहुत सी बातें आपसे कहा हूं।
एक अर्थ में वे बातें, बहुत सी नहीं भी हैं; थोड़ी ही हैं। दो ही बातें कहा हूं, जीवन शुद्ध हो और चित्त शून्य हो। दो ही बातें कहा हूं, जीवन शुद्ध हो और चित्त शून्य हो। एक ही बात कहा हूं यूं तो, चित्त शून्य हो। जीवन की शुद्धि उसकी भूमिका मात्र है।
चित्त शून्य हो, तो उस शून्य से वह आंख मिलती है, जो जगत में छिपे रहस्य को खोल देती है। और तब पत्तों में पत्ते नहीं दिखते, बल्कि पत्तों का जो प्राण है, उसका दर्शन होने लगता है। और सागर की लहरों में लहरें नहीं दिखतीं, बल्कि लहरों को जो कंपाता है, उसके दर्शन होने लगते हैं। और मनुष्यों में तब देहें नहीं दिखतीं, बल्कि देहों के भीतर जो प्राण स्पंदित है, उसका अनुभव होने लगता है। और तब कैसे आश्चर्य का और कैसे चमत्कार का अनुभव होता है, उसे कहने का कोई उपाय नहीं है।
उस रहस्य के लिए आमंत्रित किया है और आह्वान किया है। और उस रहस्य तक पहुंचने के छोटे से सूत्र आपको कहे हैं। वे सूत्र सनातन हैं। वे सूत्र मेरे या किसी और के नहीं हैं। वे सूत्र सनातन हैं। और जब से मनुष्य है और जब से मनुष्य में दिव्य की जिज्ञासा है, तब से सक्रिय हैं। उन सूत्रों का किसी धर्म से कोई वास्ता नहीं है, किसी ग्रंथ से कोई वास्ता नहीं है, वे शाश्वत हैं। और जब कोई ग्रंथ न थे और कोई धर्म न थे, तब भी वे थे। और अगर कल सारे धर्मग्रंथ नष्ट हो जाएं और सारे मंदिर-मस्जिद गिर जाएं, तब भी वे होंगे।
धर्म शाश्वत है; संप्रदाय बनते हैं और मिट जाते हैं। धर्म शाश्वत है; शास्त्र बनते हैं और मिट जाते हैं। धर्म शाश्वत है; तीर्थंकर और पैगंबर पैदा होते हैं और विलीन हो जाते हैं।
यह हो सकता है, एक वक्त आए कि हम भूल जाएं कि कभी कृष्ण हुए, महावीर हुए, क्राइस्ट हुए, बुद्ध हुए। लेकिन धर्म नष्ट नहीं होगा। धर्म तब तक नष्ट नहीं होगा, जब तक मनुष्य के भीतर आनंद की प्यास और जिज्ञासा है, जब तक मनुष्य दुख से ऊपर उठना चाहता है।
यदि आप दुखी हैं, यदि आपको बोध होता है कि दुख है, तो उस दुख को झेलते मत चले जाइए, उस दुख को सहते मत चले जाइए। उस दुख के विरोध में खड़े होइए और उस दुख को विसर्जित करने का उपाय करिए।
साधारण मनुष्य दुख को पाकर जो काम करता है वह, और साधक जो काम करता है वह, दोनों में बहुत थोड़ा सा भेद है। जब साधारण व्यक्ति के सामने दुख खड़ा होता है, तो वह दुख को भुलाने का उपाय करता है। और जब साधक के सामने दुख खड़ा होता है, तो वह दुख को मिटाने का उपाय करता है।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे लोग, जो दुख को भुलाने का उपाय कर रहे हैं। और एक वे लोग, जो दुख को मिटाने का उपाय कर रहे हैं। परमात्मा करे, आप पहली पंक्ति में न रहें और दूसरी पंक्ति में आ जाएं।
दुख को भुलाने का उपाय एक तरह की मूर्च्छा है। आप चौबीस घंटे दुख को भुलाने का उपाय कर रहे हैं। आप लोगों से बातें कर रहे हैं, या संगीत सुन रहे हैं, या शराब पी रहे हैं, या ताश खेल रहे हैं, या जुए में लगे हुए हैं, या किसी और उपद्रव में लगे हुए हैं, जहां कि अपने को भूल जाएं, ताकि आपको स्मरण न आए कि भीतर बहुत दुख है।
हम चौबीस घंटे अपने को भुलाने के उपाय में लगे हुए हैं। हम नहीं चाहते कि दुख दिखाई पड़े। अगर हमें दुख दिखाई पड़ेगा, तो हम घबरा जाएंगे। तो हम दुख को भुलाने के और विलीन करने के उपाय में लगे हुए हैं। दुख भुलाने से मिटता नहीं है। दुख भुलाने से मिटता नहीं है, कोई घाव छिपा लेने से मिटता नहींहै। और अच्छे कपड़ों से ढांक लेने से कोई अंतर नहीं पड़ता है, वरन अच्छे कपड़ों से ढांक लेने से और घातक और विषाक्त हो जाता है।
तो घावों को छिपाएं न। उन्हें उघाड़ लें और अपने दुख का साक्षात करें। और उसे भुलाएं मत, उसे उघाड़ें और जानें और उसे मिटाने के उपाय में संलग्न हों। वे ही लोग जीवन के रहस्य को जान पाएंगे, जो दुख को मिटाने में लगते हैं, दुख को भुलाने में नहीं।
और मैंने कहा, दो ही तरह के लोग हैं। उन लोगों को मैं धार्मिक कहता हूं, जो दुख को मिटाने का उपाय खोज रहे हैं। और उन लोगों को अधार्मिक कहता हूं, जो दुख को भुलाने का उपाय खोज रहे हैं। आप स्मरण करें कि आप क्या कर रहे हैं? दुख को भुलाने का उपाय खोज रहे हैं? क्या आप सोचते हैं, अगर आपके सारे उपाय छीन लिए जाएं, तो आप बहुत दुखी नहीं हो जाएंगे?
एक राजा को ऐसा एक बार हुआ। उसके एक वजीर ने, उसके एक मंत्री ने उसको कहा कि ‘अगर किसी आदमी को हम बिलकुल अकेला बंद कर दें, तो वह तीन महीने में पागल हो जाएगा।’ राजा ने कहा, ‘कैसे हो जाएगा? हम उसे अच्छे खाने की व्यवस्था देंगे, अच्छे वस्त्र देंगे, फिर भी?’ उस वजीर ने कहा, ‘वह हो जाएगा। क्यों? क्योंकि उस अकेलेपन में अपने दुख को न भुला सकेगा।’ राजा ने कहा, ‘हम देखेंगे। और गांव में जो सबसे स्वस्थ आदमी हो और सबसे युवा और सबसे प्रसन्न, उसको पकड़ लिया जाए।’
गांव में एक युवक था, जिसके सौंदर्य की, जिसके स्वास्थ्य की चर्चा थी। उस युवक को पकड़ लिया गया और उसे एक कोठरी में बंद कर दिया गया। उसे सारी सुख-सुविधा दी गई, अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, लेकिन उसे समय को भुलाने का कोई उपाय नहीं दिया गया। वह खाली दीवारें और कमरा! और पहरे पर जो आदमी था, वह भी ऐसा रखा कि उसकी भाषा न समझे। उसे रोटी पहुंचा दी जाती। भोजन पहुंचा दिया जाता। पानी पहुंचा दिया जाता। और वह बंद था।
एक-दो दिन वह बहुत चिल्लाया कि मुझे क्यों बंद किया गया है? उसने बहुत हाथ-पैर फटकारे। एक-दो दिन उसने खाना भी नहीं खाया। लेकिन धीरे-धीरे खाना भी खाने लगा और उसने चिल्लाना भी बंद कर दिया। पांच-सात दिन के बाद देखा गया कि वह आदमी बैठा हुआ अकेले अपने से ही बातें कर रहा है।
वजीर ने उस बादशाह को खिड़की से दिखलाया, ‘देखते हैं, अब वह भुलाने का अंतिम उपाय कर रहा है, अपने से ही बातें कर रहा है!’
जब कोई नहीं होता आपके पास, तो आप अपने से ही बातें करने लगते हैं। और जैसे-जैसे लोग वृद्ध होने लगते हैं, वे बहुत अपने से बातें करने लगते हैं। युवा होते हैं, तब तक तो उनके ओंठ भी बंद होते हैं। जब वे वृद्ध होने लगते हैं, तो उनके ओंठ भी फड़कने लगते हैं। वे अपने से बातें करते हैं। रास्ते पर चलते हुए लोग आपने देखे होंगे। वे क्या कर रहे हैं? वे अपने को भुलाने का उपाय कर रहे हैं।
तीन माह तक वह युवक बंद था। तीन महीने के बाद जब उसे निकाला गया; वह पागल हो चुका था। पागल का मतलब क्या है? पागल का मतलब है, उसने अपने को भुलाने के लिए एक बिलकुल काल्पनिक दुनिया खड़ी कर ली थी। मित्र थे, दुश्मन थे, उनसे लड़ता था, बातें करता था। पागल का मतलब क्या है? असली दुनिया उपलब्ध न थी वहां, किससे लड़े, किससे बोले, किसके साथ बातें करे, तो उसने एक काल्पनिक दुनिया खड़ी कर ली थी। अब उसे इस दुनिया से कोई मतलब न था। अब उसकी अपनी एक दुनिया थी, उसमें वह अपने को भूल गया।
वह युवक पागल हो गया। आपमें से कोई भी पागल हो जाएगा। अगर आपको सुबह से दुकान पर और काम पर न जाना पड़े; और सुबह से उठ कर लोगों से लड़ना-झगड़ना न पड़े; और सुबह से उठ कर आपको व्यर्थ की बकवास में पलायन न मिले और व्यर्थ के कामों में आप अपने को न उलझा पाएं; अगर चौबीस घंटे आपको उलझाव न हो और आप खाली छोड़ दिए जाएं, आप पागल हो जाएंगे। क्योंकि उलझाव की वजह से, जो दुख आपके भीतर है, वह आपको दिखाई नहीं पड़ता। अगर वह पूरा दुख दिखाई पड़ेगा, तो आप आत्मघात कर लेंगे और या फिर आप उपाय खोज लेंगे काल्पनिक पागल हो जाने के, जिसमें अपने दुख को भूल जाएं।
धार्मिक व्यक्ति वह है, जिसे अगर बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाए, बिलकुल अकेला, तो भी उसे कोई दुख नहीं होगा; वह कोई उपाय नहीं खोजेगा।
जर्मनी में एक साधु था, इकहार्ट। वह एक दिन वन में गया हुआ था और एक दरख्त के नीचे अकेले में बैठा हुआ था। उसके कुछ मित्र भी वन-विहार को गए थे। उन्होंने देखा, इकहार्ट अकेला है। वे उसके पास गए और उन्होंने उससे कहा कि ‘मित्र! हमने देखा तुम अकेले बैठे हो, सोचा चलो तुम्हें कंपनी दें, तुम्हें साथ दें।’
इकहार्ट ने उनकी तरफ देखा और कहा कि ‘मित्रो! इतनी देर तक मैं परमात्मा के साथ था। तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया।’ इकहार्ट ने कहा, ‘इतनी देर मैं परमात्मा के साथ था, क्योंकि अपने साथ था। तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया।’ अदभुत उसने बात कही।
हम उसके विपरीत हैं। हम चौबीस घंटे किसी के साथ हैं कि कहीं अपना साथ न हो जाए। हम चौबीस घंटे किसी न किसी के साथ हैं कि कहीं अपना साथ न हो जाए। अपने से हम डरे हुए हैं। इस जगत में सब लोग अपने से डरे हुए हैं। यह अपने से डरा हुआ होना खतरनाक है।
मैंने जो सूत्र कहे, वे आपको अपने से परिचित कराएंगे और अपने भय को मिटाएंगे। और आप उस स्थिति में खड़े होंगे कि अगर आप इस जमीन पर बिलकुल अकेले हों, बिलकुल अकेले कि इस जमीन पर कोई भी न हो, तो भी आप उतने ही आनंद में होंगे, जितने कि तब, जब कि यह जमीन भरी हुई है। आप अकेले में उतने ही आनंद में होंगे, जितने कि तब, जब कि आप भीड़ में हैं। वही आदमी केवल मृत्यु से नहीं डरेगा, जिसने अकेले होने का आनंद लिया है। क्योंकि मृत्यु अकेला कर देती है; और क्या करती है! आप मृत्यु से इतने डरते हैं, उसका कुल कारण इतना है कि आप तो थे ही नहीं, भीड़ थी। और मौत भीड़ छीन लेगी, सारे संबंध छीन लेगी और आप अकेले हो जाएंगे। अकेलापन भय देता है।
इन तीन दिनों में हमने जो ध्यान की बात की है, वह मूलतः बिलकुल अकेले में, टोटल लोनलीनेस में जाने के प्रयोग हैं, एकदम अकेले में अपने भीतर जाने के प्रयोग हैं। उस केंद्र पर जाना है, जहां आप ही हो और कोई भी नहीं है।
और वह केंद्र अदभुत है। उस केंद्र को जो अनुभव कर लेता है, वह अनुभव करता है उन गहराइयों को जो समुद्र के नीचे होती हैं। हम केवल समुद्र की लहरों पर तैर रहे हैं। और हमें पता नहीं कि इन लहरों के नीचे अनंत गहराइयां छिपी हुई हैं, जहां कभी कोई लहर नहीं गई, जहां कभी किसी लहर ने कोई प्रवेश नहीं किया है।
अपने ही भीतर बहुत गहराइयां हैं। अकेलेपन में, जितने आप दूसरे लोगों से दूर होकर अकेले में चलेंगे, अपने में चलेंगे, दूसरों को छोड़ेंगे और स्वयं में चलेंगे, उतनी ही ज्यादा गहराई में, उतनी ही ज्यादा गहराई में आप पहुंचेंगे। और यह बड़ा रहस्य है कि आपके भीतर आप जितनी गहराई में पहुंचेंगे, आपका बाहर जीवन उतनी ही ऊंचाई को उपलब्ध हो जाएगा।
यह गणित का नियम है। यह जीवन के गणित का नियम है, आप अपने भीतर जितनी गहराई पा लेंगे, उतने ही आपके जीवन में बाहर ऊंचाई उपलब्ध हो जाएगी। जो अपने भीतर जितना कम गहरा होगा, वह बाहर उतना ही नीचा होगा। जो अपने भीतर बिलकुल गहरा नहीं होगा, बाहर उसकी कोई ऊंचाई नहीं होगी। हम उनको महापुरुष कहते हैं, हम उनको महापुरुष कहते हैं, जिनके भीतर गहराई होती है और उस गहराई के परिमाण में उनके बाहर ऊंचाई हो जाती है।
तो अगर जीवन में ऊंचाई चाहिए, तो स्वयं में गहराई चाहनी होगी। स्वयं में गहराई का उपाय समाधि है। समाधि अंतिम गहराई है। उस समाधि के लिए कैसे हम चरण रखें और कैसे अपने को साधें और सम्हालें और कैसे वे बीज बोएं, जो कि परमात्मा के फूलों में परिणत हो सकते हैं, उनकी बहुत थोड़ी सी बातें आपसे कही हैं। पर यदि उन थोड़ी सी बातों में से भी कुछ आपकी स्मृति को पकड़ लें और कोई बीज आपके हृदय की भूमि में पड़ जाए, तो कोई कारण नहीं है कि उसमें अंकुर न आ जाएं और आप एक नये जीवन को अनुभव न कर सकें।
जिस जीवन को आप जीते रहे हैं, उसे वैसा ही जीए जाने की आकांक्षा को छोड़ दें। उसमें कोई अर्थ नहीं है। उसमें कुछ नये को जगह दें, कुछ नवीन को जगह दें। जैसे आप जीते रहे हैं, अगर वैसे ही जीते जाएंगे, तो सिवाय मृत्यु के और कोई परिणाम नहीं होगा।
यह आकांक्षा और यह अतृप्ति पैदा हो सके, उसके सिवाय और मेरा कोई मन नहीं है। साधारणतः लोग कहते हैं, धर्म संतोष है। और मैं कहता हूं, धार्मिक लोग बड़े असंतुष्ट लोग होते हैं। समस्त जीवन से उनके मन में असंतोष होता है और तभी वे धर्म की तरफ उत्सुक होते हैं।
तो मैं आपको संतोष करने को नहीं कहता हूं। नहीं कहता हूं कि आप संतोष करें। मैं आपसे कहूंगा कि असंतुष्ट हो जाएं, परिपूर्ण आत्मा से असंतुष्ट हो जाएं, आपके प्राण और मन का कण-कण असंतुष्ट हो जाए। असंतुष्ट हो जाए दिव्य के लिए, असंतुष्ट हो जाए सत्य के लिए। उस असंतोष की अग्नि में आपका नया जन्म होगा।
इस नये जन्म के लिए एक क्षण भी न खोएं। और इस नये जन्म के लिए समय का कोई व्यवधान न डालें। और इस नये जन्म के लिए यह भी स्मरण रखें…।
कल कोई मुझसे पूछता था कि क्या इस तरह की साधना करके हमें संसार से दूर चला जाना होगा? क्या हमें संन्यासी हो जाना होगा? क्या हम यह शून्य साधेंगे, तो हमारे संसार का क्या होगा? हमारे परिवार का क्या होगा?
इस संबंध में भी जरूरी है कि इस अंतिम दिन मैं आपसे कुछ कहूं। मैं आपको यह कहूं कि धर्म परिवार का और संसार का विरोधी नहीं है। धर्म परिवार और संसार का विरोधी नहीं है। और यह जो बात हमारे दिमाग में पैदा हो गई है पिछले वर्षों में, पिछली सदियों में, उसने हमें और हमारे धर्म को बहुत नुकसान पहुंचाया है।
धर्म संसार का विरोधी नहीं है। धर्म परिवार का विरोधी नहीं है। धर्म का संबंध सब छोड़ कर भाग जाने से नहीं है। धर्म तो आत्मिक परिवर्तन है। परिस्थिति से उसका कोई वास्ता नहीं है; मनःस्थिति से उसका वास्ता है। वह मन को बदलने की बात है, परिस्थिति को बदलने की बात नहीं है। आप अपने को बदलें।
बाहर जो दुनिया है, उसे छोड़ कर भागने से थोड़े ही कोई बदलता है। अगर मैं घृणा से भरा हुआ हूं, तो मैं जंगल में जाकर क्या करूंगा? मैं वहां भी घृणा से भरा रहूंगा। अगर मैं अहंकार से भरा हुआ हूं, तो मैं पर्वतों पर जाकर क्या करूंगा? मैं वहां भी अहंकार से भरा रहूंगा। एक खतरा हो सकता है। समाज में था, भीड़ में था, तो अहंकार का रोज-रोज पता चल जाता था। हिमालय की ठंडक में, पहाड़ पर बैठ कर, वहां लोग मौजूद न होंगे, अहंकार का पता न चलेगा। अहंकार का पता न चलना एक बात है और अहंकार का मिट जाना बिलकुल दूसरी बात है।
एक साधु के संबंध में मैंने सुना है, वे तीस वर्ष तक हिमालय पर थे। और उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ उन तीस वर्षों में कि वे परिपूर्ण शांत हो गए हैं; अहंकार विलीन हो गया है। फिर उनके कुछ शिष्यों ने एक बार उनसे कहा कि ‘नीचे मेला है और आप मेले में चलें।’
वे नीचे मेले में आए। और जब वे भीड़ में मेले की प्रविष्ट हुए और किसी अनजान आदमी का पैर उनके पैर पर पड़ गया, तो उन्हें तत्क्षण पता चला कि उनका अहंकार और क्रोध वापस जाग गया है। वे तो हैरान हुए। तीस साल हिमालय जिसे न दिखा सका, एक आदमी के पैर पर पैर रखने से उसके दर्शन हो गए!
तो भागने से कोई भेद नहीं पड़ता है। भागना नहीं है, बदलना है। तो भागने को सूत्र न समझें जीवन का, बदलने को सूत्र समझें। धर्म जब से भागने पर निर्भर हो गया है, तभी से धर्म निष्प्राण हो गया है। जब धर्म वापस बदलने पर निर्भर होगा, तब उसमें फिर पुनः प्राण आएंगे।
इसको स्मरण रखें, आपको अपने को बदलना है, अपनी जगह को नहीं बदलना है। जगह को बदलने का कोई मतलब नहीं है। जगह को बदलने में धोखा है, क्योंकि जगह को बदलने से यह हो सकता है कि आपको कुछ बातें पता न चलें। नये वातावरण में, शांत वातावरण में आपको धोखा हो कि आप शांत हो गए हैं।
जो शांति प्रतिकूल परिस्थितियों में न टिके, वह कोई शांति नहीं है। इसलिए जो समझदार हैं, वे प्रतिकूल परिस्थितियों में ही शांति को साधते हैं। क्योंकि जो प्रतिकूल में साध लेते हैं, अनुकूल में तो उसे हमेशा उपलब्ध कर ही लेते हैं।
इसलिए जीवन से भागने की बात नहीं है। जीवन को परीक्षा समझें। और इसे स्मरण रखें कि आपके आस-पास जो लोग हैं, वे सब सहयोगी हैं। वह आदमी भी आपका सहयोगी है, जो सुबह आपको गाली दे जाए। उसने एक मौका दिया है आपको। चाहें तो अपने भीतर प्रेम को साध सकते हैं। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आप पर क्रोध को प्रकट करे। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आपकी निंदा कर जाए। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आप पर कीचड़ उछालता हो। वह आदमी भी आपका सहयोगी है, जो आपके रास्ते पर कांटे बिछा दे। क्योंकि वह भी एक मौका है और परीक्षा है। और चाहें और उसे पार हो जाएं, तो आपके मन में उसके प्रति इतना ऋण होगा, जिसका हिसाब नहीं है। साधु जो नहीं सिखा सकते हैं इस जगत में, शत्रु सिखा सकते हैं।
मैं पुनः कहूं, साधु जो नहीं सिखा सकते हैं इस जगत में, शत्रु सिखा सकते हैं। अगर आप सजग हैं और सीखने की समझ है, तो आप जिंदगी के हर पत्थर को सीढ़ी बना सकते हैं। और नहीं तो नासमझ, सीढ़ियों को भी पत्थर समझ लेते हैं और उनसे ही रुक जाते हैं। अन्यथा हर पत्थर सीढ़ी हो सकता है, अगर समझ हो। अगर समझ हो, तो हर पत्थर सीढ़ी हो सकता है।
इसे थोड़ा विचार करें। आपको अपने घर में, परिवार में जो-जो बातें पत्थर मालूम होती हों कि इनकी वजह से मैं शांत नहीं हो पाता, उन्हीं को साधना का केंद्र बनाएं और देखें कि वे ही आपको शांत होने में सहयोगी हो जाएंगी। कौन सी बात आपको नहीं बनाती? परिवार में क्या अड़चन है? कौन सी बात आपको रोकती है? जो बात आपको रोकती हो, जरा विचार करें, क्या कोई रास्ता उसे सीढ़ी बनाने का हो सकता है? बराबर रास्ते हो सकते हैं। और अगर विचार करेंगे और विवेक करेंगे, तो रास्ता दिखाई पड़ेगा।
कौन सा कारण है, जो आपको कहता है कि परिवार छोड़ें, तब आप शांत होंगे और सत्य को उपलब्ध होंगे? कोई भी वास्तविक कारण नहीं है। अपने जीवन को, अपने चित्त को ठीक से समझें और अपने आस-पास की पूरी परिस्थितियों का उपयोग करें।
हम क्या करते हैं! परिस्थितियों का उपयोग नहीं करते, बल्कि परिस्थितियां ही हमारा उपयोग कर लेती हैं। हम पूरे जीवन इसलिए घाटे में रह जाते हैं कि हम परिस्थितियों का उपयोग नहीं करते, परिस्थितियां हमारा उपयोग कर लेती हैं। और हम घाटे में इसलिए रह जाते हैं कि हम केवल प्रतिकर्म करते रहते हैं, रिएक्शंस करते रहते हैं, हम कोई कर्म कभी नहीं करते।
आपने मुझे गाली दी, तो मैं तत्क्षण उससे वजनी गाली आपको देकर रहूंगा। आपने मुझे एक गाली दी, मैं उससे वजनी गाली या दो गालियां आपको दूंगा। और मैं यह न सोचूंगा कि यह मैंने केवल एक प्रतिकर्म किया, एक रिएक्शन किया। एक गाली दी गई थी, मैंने दो लौटा दी हैं। यह कोई कर्म नहीं है।
आप अगर अपने चौबीस घंटे के जीवन को देखें, तो आप पाएंगे, उसमें सब प्रतिकर्म हो रहे हैं। कोई कुछ कर रहा है, आप उसके उत्तर में कुछ कर रहे हैं। मैं आपसे पूछूं, आप ऐसा भी कुछ कर रहे हैं क्या जो किसी का उत्तर नहीं है? कोई काम आप ऐसा भी कर रहे हैं क्या जो किसी का उत्तर नहीं है? जो किसी का उत्तर न हो, जो किसी के कारण रिएक्शन में पैदा न हुआ हो, जो प्रतिक्रिया न हो, वह कर्म है। और वह कर्म ही साधना है।
इसको जरा विचार करेंगे, तो आप देखेंगे कि आप चौबीस घंटे प्रतिकर्म कर रहे हैं। दूसरे कुछ कर रहे हैं, उनके उत्तर में आप कुछ कर रहे हैं। आपने कुछ किया है अभी तक, जो सिर्फ आपने किया हो? जो आपसे पैदा हुआ और आपसे आया हो? उसे थोड़ा देखें। और उसे साधें, तो ठीक परिवार में और घर में और संसार के बीच संन्यास फलित हो जाए।
संसार का विरोध संन्यास नहीं है, संसार की शुद्धि संन्यास है। अगर संसार में आप शुद्ध होते चले जाएं, एक दिन आप पाएंगे कि आप संन्यासी हो गए हैं। संन्यासी होना कोई वेश-परिवर्तन नहीं है कि हमने कपड़े बदल लिए और हम संन्यासी हो गए। संन्यास तो पूरे अंतस का परिवर्तन है, एक विकास है। संन्यास एक ग्रोथ है। बड़े आहिस्ता, बहुत आहिस्ता एक विकास है।
अगर कोई व्यक्ति ठीक से अपने जीवन का उपयोग करे, जैसी भी परिस्थितियां हों, उनका उपयोग करे, तो क्रमिक रूप से धीरे-धीरे पाएगा, उसके भीतर संन्यासी का जन्म हो रहा है। वृत्तियों पर विचार करने की और वृत्तियों को शुद्ध और शून्य करने की बात है।
देखें अपने भीतर, आपकी कौन सी वृत्तियां हैं, जो आपको संसारी बनाए हुए हैं? स्मरण रखें, कोई दूसरे लोग आपको संसारी नहीं बनाए हुए हैं। मैं जिस घर में हूं, उस घर में मेरे पिता मुझे संसारी नहीं बनाए हुए हैं। मेरे पिता मुझे कैसे बनाएंगे? मेरा पिता के प्रति जो मोह होगा, वह बना सकता है। आप जिस घर में हैं, आपकी पत्नी आपको संसारी कैसे बनाएगी? पत्नी के प्रति आपके जो भाव होंगे, वे आपको संसारी बनाए हुए हैं।
पत्नी को छोड़ कर भागने से क्या होगा? वे भाव तो आपके साथ चले जाएंगे। कोई भावों को छोड़ कर नहीं भाग सकता कहीं। अगर भावों को छोड़ कर हम भाग सकते, दुनिया बड़ी आसान हो जाती। आप भागते हैं; जैसे छाया आपके पीछे जाती है, वैसे आपके सारे भाव आपके साथ चले जाते हैं। वे दूसरी जगह नया आरोपण कर लेंगे और आप दूसरी जगह नयी गृहस्थी बना लेंगे।
बड़े से बड़े संन्यासी बड़ी-बड़ी गृहस्थियां बना लेते हैं। उनकी गृहस्थियां बन जाती हैं, और उनके मोह पैदा हो जाते हैं, और उनकी आसक्तियां बन जाती हैं, और उनके सुख-दुख हो जाते हैं। क्योंकि वे उन भावों को साथ ले आए थे, वे नयी जगह खड़े हो जाएंगे। इससे कोई भेद नहीं पड़ता! आदमी बदल जाएंगे, चीजें वही रहेंगी।
तो मैं आपको यह नहीं कहता कि आप चीजों को छोड़ कर भाग जाएं। मैं आपको कहता हूं, आप भावों को छोड़ दें। चीजें जहां हैं, वे वहीं होंगी; भाव बीच से गिर जाएंगे और आप मुक्त हो जाएंगे।
जापान में एक राजा हुआ। उस राजा के गांव के बाहर ही एक संन्यासी बहुत दिन तक रहता था। वह एक झाड़ के नीचे पड़ा रहता। अदभुत संन्यासी था। बड़ी उसकी गौरव-गरिमा थी। बड़ी उसकी ज्योति थी। बड़ा उसका प्रकाश था। बड़ी उसके जीवन में सुगंध थी। वह राजा भी उस आकर्षण से खिंचा हुआ धीरे-धीरे उसके पास पहुंचा। उसने उसे अनेक दिन वहां पड़े देखा। अनेक बार उसके चरणों में जाकर बैठा। उसका प्रभाव उस पर घना होता गया। और एक दिन उसने उससे कहा, ‘क्या अच्छा न हो कि इस झाड़ को छोड़ दें और मेरे साथ महल में चलें!’ उस संन्यासी ने कहा, ‘जैसा मन, चाहें वहीं चल सकते हैं।’
राजा थोड़ा हैरान हुआ। इतने दिन के आदर को थोड़ा धक्का लगा। उसने सोचा था, संन्यासी कहेगा, ‘महल! हम संन्यासी, हम महल में क्या करेंगे!’ संन्यासी की बंधी भाषा यही है। अगर संन्यास सीखा हुआ हो, तो यही उत्तर आएगा कि हम संन्यासी, हमको महल से क्या मतलब! हम लात मार चुके। लेकिन उस संन्यासी ने कहा, ‘जैसा मन, वहीं चल सकते हैं।’
राजा को धक्का लगा। सोचा, संन्यासी कैसे हैं! लेकिन खुद आमंत्रण दिया था, इसलिए वापस भी न ले सके। संन्यासी को ले जाना पड़ा। संन्यासी गया। राजा ने उसके लिए सारी व्यवस्था की, अपने ही जैसी। संन्यासी मौज से उसमें रहने भी लगा। उसके लिए बड़े तख्त बिछाए गए, उन पर वह सोया। बड़े कालीन बिछाए गए, उन पर वह चला। बड़े सुस्वादु भोजन दिए गए, उनको उसने किया। राजा का तो संदेह संदेह न रहा, निश्चित हो गया। राजा को लगा, यह कैसा संन्यासी है! एक बार भी इसने न कहा कि इन गद्दों पर हम न सो सकेंगे; हम तो फट्टों पर ही सोते हैं। एक बार भी इसने न कहा कि इतनी ऊंची चीजें हम न खा सकेंगे; हम तो रूखा-सूखा खाते हैं। राजा को बड़ा मुश्किल पड़ने लगा उसका रहना।
दो-चार-दस दिन ही बीते कि उसने उससे कहा कि ‘क्षमा करें, मन में मेरे एक संदेह होता है।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘अब क्या होता है, वह उसी दिन हो गया था।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘अब क्या होता है, वह उसी दिन हो गया था। फिर भी कहें, क्या संदेह है?’ राजा ने कहा, ‘संदेह यह होता है कि आप कैसे संन्यासी हैं? और मुझ संसारी में और आप संन्यासी में फर्क क्या है?’
उस संन्यासी ने कहा, ‘अगर फर्क देखना है, तो मेरे साथ गांव के बाहर चलें।’
राजा ने कहा, ‘मैं तो जानना ही चाहता हूं। संदेह से मन बड़ा व्यथित है, मेरी नींद तक खराब हो गई है। आप झाड़ के नीचे थे, तो अच्छा था, मेरे मन में आदर था। और आप यहां महल में हैं, तो मेरा तो आदर चला गया।’
वह संन्यासी राजा को लेकर गांव के बाहर गया। जब नदी पार हुई, जो कि सीमा थी गांव की, वे उस तरफ हुए, तो उस राजा ने कहा, ‘अब बोलें।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘और थोड़ा आगे चलें।’ धूप बढ़ने लगी। दोपहर हो गई। सूरज ऊपर आ गया। उस राजा ने कहा, ‘अब तो बता दें! अब तो बहुत आगे निकल आए।’ संन्यासी ने कहा, ‘यही बताना है कि अब हम पीछे लौटने को नहीं, आगे ही जाते हैं। तुम साथ चलते हो?’ उस राजा ने कहा, ‘मैं कैसे जा सकता हूं! पीछे मेरा परिवार है, मेरी पत्नी है, मेरा राज्य है!’ संन्यासी ने कहा, ‘अगर फर्क दिखे, तो देख लेना। हम आगे जाते हैं और पीछे हमारा कुछ भी नहीं है। और जब हम उस तुम्हारे महल में थे, तब भी हम तुम्हारे महल में थे, लेकिन तुम्हारा महल हमारे भीतर नहीं था। हम तुम्हारे महल के भीतर थे, लेकिन तुम्हारा महल हमारे भीतर नहीं था। इसलिए हम अब जाते हैं।’
उस राजा ने पैर पकड़ लिए। उसका भ्रम टूटा। उसका संदेह मिटा। उसने कहा, ‘क्षमा करें, मुझे बहुत पश्चात्ताप होगा जीवनभर, लौट चलें।’ संन्यासी ने कहा, ‘अब भी लौट चलूं, लेकिन संदेह फिर आ जाएगा।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘हमको क्या है, इधर न गए, इधर लौट चले। फिर लौट चलूं, लेकिन तुम्हारा संदेह फिर लौट आएगा। तुम पर कृपा करके अब मैं सीधा ही जाता हूं।’ उसने जो वचन कहा, स्मरणीय है। उसने कहा, ‘तुम पर कृपा करके अब मैं सीधा ही जाता हूं। मेरी करुणा कहती है कि अब मुझे सीधा जाने दें।’
और मैं आपको स्मरण दिलाता हूं कि महावीर के नग्न होने में उनके नग्न होने का आग्रह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। और संन्यासी का जंगल में पड़े रहने में, जो सच में संन्यासी है, उसका जंगल से मोह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। और नग्न द्वार-द्वार भिक्षा मांगने में भिक्षा मांगने का आग्रह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। अन्यथा वह बिना भिक्षा मांगे आपके घर भी ले सकता है। और बाहर सड़क पर पड़े रहने की बजाय महल में भी सो सकता है। संन्यासी को कोई भेद नहीं पड़ता है। हां, झूठे संन्यासी को पड़ता होगा।
संन्यासी को कोई भेद नहीं पड़ता है। भेद इसलिए नहीं पड़ता है कि उसके चित्त में कुछ प्रविष्ट नहीं होता है। चीजें अपनी जगह हैं, महल की दीवारें अपनी जगह हैं, गद्दियां जिन पर हम बैठे हैं, वे अपनी जगह हैं। वे अगर मेरे चित्त में प्रवेश न करें, तो मैं उनसे अछूता हूं और दूर हूं।
तो आप जहां हैं, उसे छोड़ने को मैं नहीं कहता हूं। आप जो हैं, उसको बदलने को कहता हूं। आप जहां हैं, वहां से भागने को नहीं कहता हूं। कमजोर भागते होंगे, आपको तो मैं बदलने को कहता हूं। और बदलना असली बात है।
सजग हों अपनी चित्त-स्थिति के प्रति और उसे बदलने में लग जाएं। कोई एक बिंदु पकड़ लें और उसे बदलने में लग जाएं। बूंद-बूंद करके, बूंद-बूंद करके सागर भर सकता है। बूंद-बूंद चल कर परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। एक-एक बूंद चलें, ज्यादा चलने को नहीं कहता। एक-एक बूंद चलें। और बूंद-बूंद चल कर परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। बहुत मत सोचें कि मेरी सामर्थ्य ज्यादा नहीं है, मैं कैसे पहुंचूंगा!
कोई मुझसे कहता था, कमजोर हैं हम, सामर्थ्य हमारी कम है, हम कैसे पहुंचेंगे?
कितने ही कमजोर हों, एक कदम चलने योग्य सबकी सामर्थ्य है। और क्या मैं आपको पूछूं कि बड़े से बड़े समर्थ भी एक कदम से ज्यादा कभी एक बार में चले हैं? बड़े से बड़े समर्थ भी एक कदम से ज्यादा एक बार में कभी नहीं चले हैं। और एक कदम चलने योग्य सामर्थ्य सबकी है और सदा है।
तो एक कदम चलें। और फिर एक कदम चलें। और फिर एक कदम चलें। एक ही कदम चलना है सदा। पर एक ही कदम जो चलता चला जाता है, वह अनंत फासले पूरे कर लेता है। और जो यह सोच कर कि ‘एक कदम चलने वाले हम कहां पहुंचेंगे’ रुक जाता है, वह कहीं भी नहीं पहुंच पाता है।
तो उस एक कदम चलने के लिए मैं आमंत्रण देता हूं। और इन दिनों इतने प्रेम से मेरी बातों को सुना है, इतनी शांति से उनको सुना है, उससे कितने आनंद को, कितने अनुग्रह को मैंने अनुभव किया है। बहुत अनुगृहीत हुआ हूं। हृदय में जो जगह दी है, उससे बहुत अनुगृहीत हुआ हूं। उसके लिए बहुत-बहुत, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और मेरे प्रेम को स्वीकार करें।
अब हम आज के अंतिम ध्यान के प्रयोग के लिए बैठेंगे। और उसके बाद विदा होंगे। इस आशा से विदा करता हूं कि जब हम दुबारा मिलेंगे, तो मैं पाऊंगा, आपकी शांति बढ़ी है और आपका आनंद बढ़ा है। और मैं पाऊंगा कि जिस कदम को उठाने के लिए मैंने कहा था, वह आपने उठाया है। और मैं पाऊंगा कि कुछ अमृत की बूंदें आपके करीब आयी हैं और आप कुछ अमृत के करीब पहुंचे हैं।
परमात्मा करे, एक कदम, कम से कम एक कदम उठाने की सामर्थ्य आपको दे। शेष कदम उसके बाद अपने आप उठ जाते हैं।
रात्रि के ध्यान के बाद हम चुपचाप चलेंगे, सुबह शायद मैं आपको नहीं मिल सकूंगा, पांच बजे चला जाऊंगा। इसलिए मेरी अंतिम विदा इसे मान लें। और हर एक व्यक्ति अपने भीतर बैठे हुए परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार कर ले। मेरे प्रणाम स्वीकार करें!