UPANISHAD
Diya Tale Andhera (दीया तले अंधेरा) 12
Twelth Discourse from the series of 20 discourses – Diya Tale Andhera (दीया तले अंधेरा) by Osho. These discourses were given during SEP 21 – OCT 10 1974.
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भगवान,
मात्सु साधना में था। वह अपने गुरु-आश्रम के एकांत झोपड़े में, अहर्निश मन को साधने का अभ्यास करता था। जो उससे मिलने भी जाते, उनकी ओर भी वह कभी ध्यान नहीं देता था।
उसके गुरु एक दिन उसके झोपड़े पर गये। मात्सु ने उनकी ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। पर गुरु दिन भर वहीं बैठे रहे और एक ईंट को पत्थर पर घिसते रहे।
मात्सु से अंततः न रहा गया और उसने पूछा, ‘आप यह क्या कर रहे हैं?’
गुरु ने कहा, ‘इस ईंट का दर्पण बनाना है।’
मात्सु ने कहा, ‘ईंट का दर्पण? पागल हुए हैं क्या? जीवन भर घिसते रहने से भी दर्पण नहीं बनेगा।’
यह सुनकर गुरु हंसने लगे और उन्होंने मात्सु से पूछा, ‘तब तुम क्या कर रहे हो? ईंट दर्पण नहीं बनेगी तो क्या मन दर्पण बन सकता है?’
भगवान, इस झेन बोध-कथा पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
एक पुरानी कहानी है। एक अपढ़ ग्रामीण, सम्राट के दर्शन के लिए, अपने घोड़े पर सवार हो राजधानी की तरफ चला। संयोग की बात, सम्राट भी उसी मार्ग से, शिकार करने के बाद राजधानी की तरफ वापिस लौटता था। उसके संगी-साथी कहीं पीछे जंगल में भटक गये थे। वह अपने घोड़े पर अकेला था। इस ग्रामीण का उस सम्राट से मिलना हो गया।
सम्राट ने पूछा, क्यों भाई चौधरी! राजधानी किसलिए जा रहे हो? तो उस ग्रामीण ने कहा कि सम्राट के दर्शन करने; बड़े दिन की लालसा है, आज सुविधा मिल गई। सम्राट ने कहा, तुम बड़े सौभाग्यशाली हो। सम्राट के दर्शन ऐसे तो आसान नहीं, लेकिन तुम्हें आज सहज ही हो जायेंगे। ग्रामीण ने कहा, जब बात ही उठ गई, तो एक बात और बता दें। दर्शन तो सहज हो जायेंगे, लेकिन मैं पहचानूंगा कैसे कि सम्राट यही है? यही मन में एक चिंता बनी है। सम्राट ने कहा, घबड़ाओ मत; जब हम राजधानी में पहुंचें और तुम देखो, किसी घोड़े पर सवार आदमी को, जिसे सभी लोग झुक-झुक कर नमस्कार कर रहे हैं, तो समझना कि यही सम्राट है।
फिर वे बहुत तरह की बातें, गपशप करते राजधानी पहुंच गये, द्वार के भीतर प्रविष्ट हुए; लोग झुक-झुक कर नमस्कार करने लगे। ग्रामीण बहुत चौंका। थोड़ी देर बाद उसने कहा कि भाई साहब, बड़ी दुविधा हो गई, या तो सम्राट आप हैं या मैं हूं।
उसकी दुविधा, मन की ही दुविधा है। मन इतने निकट है चेतना के कि भ्रांति हो जाती है कि या तो सम्राट आप हैं या मैं हूं। जब भी कोई झुक कर नमस्कार करता है तो मन समझता है, मुझे की जा रही है; इसी भ्रांति से अहंकार निर्मित होता है। जब भी कोई प्रेम करता है, मन समझता है मुझे किया जा रहा है। मन सिर्फ निकट है जीवन के। बहुत निकट है। इतना निकट है कि जीवन उसमें प्रतिबिंबित होता है और जीवित मालूम होता है मन।
मन पदार्थ का हिस्सा है। मन चेतना का हिस्सा नहीं है। मन शरीर का ही सूक्ष्मतम अंग है। मन शरीर का ही विकास है। लेकिन चेतना के बिलकुल निकट है। और इतना सूक्ष्म है मन, और चेतना के इतने निकट है कि यह भ्रांति बड़ी स्वाभाविक है हो जाना मन को, कि मैं ही सब कुछ हूं।
यह भ्रांति संसार में तो चलती ही है, साधना में भी पीछा नहीं छोड़ती। संसारी व्यक्ति तो मन को भरने में लगा रहता है, कभी भर नहीं पाता। क्योंकि भर पायेगा ही नहीं; वह मन का स्वभाव नहीं है। चेतना भर सकती है। भरी ही हुई है, वह उसका स्वभाव है। चेतना खिल सकती है, फूल बन सकती है। बनी ही हुई है, वह उसका स्वभाव है। मन तो जड़-पदार्थ है। यंत्रवत है। न खिल सकता, न भर सकता। लेकिन मन भरने की कोशिश में लगा है। जन्मों-जन्मों तक चेष्टा करने के बाद भी मन भरता नहीं; फिर भी आशा नहीं मरती।
मन का दीया, आशा के तेल से जलता है। कहता जाता है मन: आज तक नहीं हुआ, कोई चिंता नहीं, थोड़ा श्रम और चाहिए, कल होगा। अब तक नहीं मिला, घबड़ाओ मत। धीरज रखो। कल मिलेगा। अधैर्य मत करो, संतोष रखो।
मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था कि जीवन भर के अनुभव का सार-निचोड़ तीन सिद्धांतों में मैंने निर्मित कर लिया। तो मैंने पूछा, कौन से हैं वे सिद्धांत? और उसने कहा कि तीन को भी अगर निचोड़ो तो बस एक ही बचता है। मैंने कहा, कहो।
तो उसने कहा, पहला सिद्धांत। लोग युद्ध पर जाते हैं। एक दूसरे को मारने में बड़ी झंझट उठाते हैं। बड़ा श्रम, बड़ी संपत्ति, बड़ी शक्ति का व्यय हत्या में होता है। जाने की बिलकुल जरूरत नहीं; थोड़ा सा धैर्य रखें, प्रकृति खुद ही सभी को मार डालती है। जो काम प्रकृति ही कर देगी, उसके लिए हम मेहनत क्यों उठायें? बस, जरा से धैर्य की जरूरत है, प्रकृति खुद ही मार डालेगी। हिरोशिमा पर एटम बम गिराने की जरूरत क्या है? सभी मर गये होते, जरा सी प्रतीक्षा चाहिए थी।
मैंने पूछा, ‘और दूसरा?’
उसने कहा, दूसरा: लोग, वृक्ष पर फल लगते हैं, पत्थर मारते हैं, डंडों से गिराते हैं, ऊपर चढ़ते हैं, कभी फल तोड़ने में हाथ-पैर खुद के टूट जाते हैं; जरा धीरज रखें, फल पकेगा, फल अपने आप गिर कर जमीन पर आ जायेगा।
मैंने पूछा, ‘तीसरा?’
उसने कहा कि लोग स्त्रियों के पीछे भागते हैं, जीवन बरबाद करते हैं; जरा धीरज रखें, स्त्रियां उनके पीछे भागेंगी।
और उसने कहा कि तीनों का सार एक है; जरा धीरज रखें।
तुम शायद सोचते हो कि धार्मिक आदमी का लक्षण है ‘जरा धीरज रखें’। नहीं, ‘जरा धीरज’ मन की तरकीब है। धार्मिक आदमी में न तो धैर्य होता है, न अधैर्य होता है; वह धीरज नहीं है। वह अधैर्य के विपरीत धैर्य को नहीं साधता। वहां धैर्य भी चला गया है, अधैर्य भी चला गया है; अब वहां सन्नाटा है, वहां दोनों प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं। वहां द्वंद्व चला गया है।
लेकिन सांसारिक आदमी धीरज साधता है, और धीरज मन का तेल है; उससे ही मन का दीया जलता है। मन कहता है, थोड़ा समय और। फल पके ही जाते हैं, थोड़ा समय और। दुनिया की सफलतायें तुम्हारे पीछे भागेंगी। थोड़ी देर और टिके रहो, जल्दी मत करो।
ऐेसे ही इस आशा के सहारे तुम टिके रहे। सांसारिक आदमी तो मन से जीता ही है; धार्मिक आदमी, तथाकथित धार्मिक आदमी भी मन से ही जीता है। यात्रा भला उल्टी हो जाती हो, फर्क नहीं पड़ता। मौलिक आधार वही का वही रहता है।
सांसारिक आदमी क्या कर रहा है, इसे हम ठीक से समझ लें। वह मन को भरने की कोशिश कर रहा है। लेकिन ध्यान मन पर लगा है। ग्रामीण ने गांव के; समझ लिया कि मैं राजा हूं। और तर्क भी साफ है कि सभी लोग झुक-झुक कर नमस्कार कर रहे हैं। और नमस्कार मुझे ही की जा रही है यह मानने की सहज ही वृत्ति होती है। सांसारिक आदमी मन को भरने में लगा है।
फिर तथाकथित धार्मिक आदमी क्या कर रहा है? क्योंकि न सांसारिक के जीवन में आनंद की वर्षा दिखाई पड़ती है; उस आनंद की, जिसको कबीर कहते हैं कि आकाश से अमृत बरस रहा है। उस आनंद की, जिससे मीरा नाच उठती है कि सारा जीवन नृत्य हो जाता है। उस आनंद की, जिससे कृष्ण की बांसुरी बजती है, और आनंद का स्वर पैदा होता है। नहीं, वैसी आनंद की घड़ी न तो संसारी में दिखाई पड़ती है, और न तुम्हारे तथाकथित संन्यासी में दिखाई पड़ती है; दोनों उदास, थके और हारे मालूम पड़ते हैं।
संसारी मन को भरने में लगा है; संन्यासी क्या कर रहा है? संन्यासी मन को निखारने में लगा है, शुद्ध करने में लगा है। और ध्यान रहे, न तो मन को भरा जा सकता और न मन को निखारा जा सकता, शुद्ध किया जा सकता है; मन का स्वभाव दुष्पूर है। और ऐसे ही मन का स्वभाव, अपवित्र है। वह पवित्र तो हो नहीं सकता। जहर को तुम कैसे शुद्ध करोगे? और अगर कर लिया तो और जहरीला होगा। जहर की शुद्धि का अर्थ होगा–और जहरीला। जहर शुद्ध होकर अमृत न हो जायेगा, क्योंकि शुद्ध होने से तो उसकी प्रकृति और प्रगट होगी।
तो यह एक बहुत अनूठी बात है कि सांसारिक आदमी को मन की प्रकृति का, उसके जहर का पूरा अनुभव नहीं होता; वह पूरा अनुभव तो संन्यासी को होता है, क्योंकि वह शुद्ध करता है। और शुद्ध कर-कर के पाता है कि यह मन तो भयंकर जहरीला है। इतना जहर तो संसार में भी नहीं था। क्योंकि और हजार चीजें मिली थीं, वहां तो सब चीजें मिश्रित थीं। वहां जहर भी शुद्ध नहीं बिक रहा था, वहां सभी चीजें मिली-जुली थीं। लेकिन जैसे-जैसे साफ होता है मन, वैसे-वैसे और जहरीला हो जाता है। इसलिये अगर संन्यासियों ने मन के खिलाफ बहुत लिखा है, तो आश्चर्य नहीं है। उन्होंने मन को उसकी शुद्धता में जाना है।
पर मन कितना ही शुद्ध हो जाए उससे अहंकार बढ़ेगा, घटेगा नहीं; वही तो जहर है। मन का जहर है: अहंकार। और यह अहंकार ऐसी प्रक्रियाओं से गुजर सकता है कि विनम्रता जैसी मालूम पड़े।
मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन भागा हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा। और उसने कहा कि अब देर मत करो, जल्दी चलो मेरे साथ। मेरी पत्नी बस, मरने के करीब है। स्टेशन आफिसर भी उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा, हुआ क्या है? उसने कहा कि हम समुद्र के तट पर थे। ज्वार भर रहा है, भरती हो रही है, तूफान तेज है। और मेरी पत्नी रेत में फंस गई है, बचाओ! जरा देर हुई कि मुश्किल हो जायेगा। ऑफिसर ने पूछा कि कितनी दूर तक रेत में चली गई है? कितनी उलझ गई है रेत में? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, पंजे तक। वह आदमी खड़ा था, वह बैठ गया। उसने कहा, मुझे पहले ही शक था। अगर पंजे तक उलझी है, तो अपने आप निकल आयेगी। इतने परेशान होने की जरूरत नहीं है, और न किसी को ले जाने की जरूरत है। नसरुद्दीन ने कहा, नहीं निकलेगी; देर मत करो, मैं कहता हूं। क्योंकि वह शीर्षासन कर रही है।
अब अगर शीर्षासन करते वक्त पंजे तक उलझ गये, तो फैसला है।
धार्मिक और तथाकथित धार्मिक में यही फर्क है। तथाकथित धार्मिक संसारी से उलटा है, वह शीर्षासन कर रहा है। तुम अगर पंजे तक उलझे हो, वह भी पंजे तक उलझा है। लेकिन ध्यान रखना, तुम शायद बच भी जाओ; उसका बचना मुश्किल है, वह शीर्षासन कर रहा है।
असली धार्मिक कौन है? असली धार्मिक वह है जिसने द्वंद्व छोड़ा। जो न तो मन के पक्ष में है, न मन के विपरीत है। जो न तो मन को भरने में लगा है, न मन को तोड़ने में। जो न तो मन की अपवित्र आकांक्षाओं को पूरा करने में उत्सुक है, और न मन की पवित्र आकांक्षाओं को पूरा करने में उत्सुक है; जो न तो धन के पीछे दौड़ रहा है और न परमात्मा के पीछे। जो दौड़ ही नहीं रहा है। क्योंकि सब दौड़ मन की है।
और मन इतना कुशल है, इतना चालाक है, और उसका गणित इतना जटिल है, कि तुम एक तरफ से हटे नहीं कि वह तत्क्षण तुम्हें दूसरा जाल बता देता है। तुम दौड़ते थे, पागल थे धन के पीछे; जब तुम ऊबने लगते हो, तब तुमसे वह कहता है कि धन से मिलेगा नहीं, त्याग से मिलता है। इसके पहले कि तुम उसके पंजे के बाहर हो जाओ, वह विपरीत पंजा आगे बढ़ा देता है। और तुम्हें भी ठीक लगता है; क्योंकि तुम तर्क से ही जीये हो कि जब इस दिशा में नहीं पाया तो शायद विपरीत दिशा में मिलेगा, तो इसको भी खोज करके देख लें।
लेकिन त्याग, भोग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। भोगी तो उलझे ही हैं, त्यागी और बुरी तरह उलझे हैं। वही संसार की रेत! लेकिन वे शीर्षासन करते हुए खड़े हैं। इधर तुम स्त्रियों के पीछे भागते थे, पुरुषों के पीछे भागते थे, इसके पहले कि तुम ऊबो, मन तुम्हें नया रस दे देगा। वह कहेगा, रस तो ब्रह्मचर्य में है। आनंद तो ब्रह्मचारी पाता है, व्यभिचारी को कभी आनंद मिला है?
फिर एक नया जाल शुरू हो रहा है। मन तुम्हें छूटने न देगा, विपरीत में रस को जगा देता है; यह उसकी तरकीब है। और जब तक तुम विपरीत में भटकोगे, तब तक तुम पहले अनुभव को पुनः भूल जाओगे। क्योंकि तुम्हारी स्मृति न के बराबर है। तुम्हें स्मरण की तो क्षमता ही नहीं है, वही अगर होती, तो तुम कभी के जाग गये होते।
तुमसे अगर कहा जाये कि तुम घड़ी भर भी होश रखो, तो नहीं रख पाते। घड़ी भर भी तुमसे कहा जाये, स्मरण-पूर्वक खड़े रहो, तुम नहीं खड़े रह पाते हो; हजार बातें तुम्हें आकर्षित कर लेती हैं। तुम छोटे बच्चों की तरह हो जो हर तितली के पीछे दौड़ जाता है, हर कंकड़-पत्थर को बीनने लगता है। हर आवाज उसे उत्सुक कर लेती है। जो सब दिशाओं में बहता रहता है। इसके पहले कि तुम ऊबो, मन तुम्हें नये जाल देगा; सावधानी रखना।
और सावधानी एक ही रखनी है। और वह यह सूत्र मैं कह देता हूं। यह सूत्र शाश्वत है; यह समस्त धर्म का सार है। सूत्र है: कि अगर तुमने भोग से न पाया हो, तो तुम उसके विपरीत से कभी न पा सकोगे। अगर तुमने कामवासना से न पाया हो, तो तुम ब्रह्मचर्य से कभी न पा सकोगे। अगर तुमने धन में न पाया हो, तो तुम निर्धनता से कभी न पा सकोगे। अगर तुमने दौड़-दौड़ कर संसार में नहीं पाया, तो तुम दौड़-दौड़ कर परमात्मा में भी न पा सकोगे।
विपरीत से नहीं, अभाव से वह मिलेगा।
इसे थोड़ा समझ लें। न तो भोग की दौड़, न त्याग की दौड़; दोनों का अभाव। न यह दौड़, न वह दौड़; दोनों के मध्य में ठहर जाना। न तो मन को भरने से और न मन को शुद्ध करने से। नहीं; दोनों से नहीं मिलेगा।
अब हम इस छोटी सी घटना को समझने की कोशिश करें। यह तथाकथित धार्मिक आदमी के संबंध में है, कि वह कितनी मेहनत करता है, कितना योग साधता है, कितना ध्यान, जप, पूजा, प्रार्थना, अर्चना करता है, फिर भी फल कुछ नहीं है। खड़ा रहता है वहीं, जहां तुम खड़े हो। वैसा ही उदास, वैसा ही निर्वीर्य, वैसा ही निस्तेज, जैसे जीवन की धार सूख गई; जैसी तुम्हारी, वैसी उसकी।
बड़ा मजा तो यह है कि संसारी में थोड़ी-बहुत झलक भी दिखाई पड़ती है जीवन की। जिसको तुम संन्यासी कहते हो, उसमें बिलकुल नहीं दिखाई पड़ती। तुम मरे हुए हो, वह तुमसे ज्यादा मरा हुआ है। लेकिन तुम उसके मरेपन को ही शायद समझते हो कि यह उपलब्धि है, तो बात अलग है। इधर मैं देखता हूं कि आदमी अपने मन को समझा लेता है। तुम्हारा संन्यासी मुर्दा है, उसके जीवन में प्राण नहीं है, कहीं कोई पुलक नहीं है; इसको तुम समझ लेते हो कि शायद वह सिद्ध हो गया है।
सिद्धि मृत्यु जैसी नहीं, महाजीवन जैसी है। सिद्धि कोई रुग्ण दशा नहीं है, परम-स्वास्थ्य है। सिद्धि कोई थकावट नहीं है। सिद्धि कोई टूट जाना नहीं है। सिद्धि कोई खंडहर नहीं है, सिद्धि परम-भोग है। सिद्धि तो महा-उत्सव है। वहां तो जीवन का रोआं-रोआं पुलकित, जीवन का कण-कण आनंदित और जीवन का हर क्षण महा-उत्सव है। सिद्धि एक परम-नृत्य है। उससे बड़ा कोई संगीत नहीं, उससे बड़ी कोई समाधि नहीं।
तो नाचता हुआ जब तक न मिले संन्यासी, गीत गाता न मिले, तब तक तुम सावधान रहना। उसके उठने-बैठने में नृत्य न हो और उसके भीतर अहर्निश बांसुरी न बज रही हो–‘अनहद बाजे बांसुरी’–वही उसका लक्षण है। लेकिन जिन्हें हम संन्यासी कहते हैं, वे मुर्झाए, धूल जमे हुए लोग हैं; उनकी जड़ें कभी की टूट गई हैं। मगर एक बात है कि वे तुमसे विपरीत हैं। इसलिए तुम सोचते हो, हमें नहीं मिला, इन्हें जरूर मिल गया होगा।
विपरीत प्रभावित करता है क्योंकि मन विपरीत में उत्सुक है। विपरीत से मन मरता नहीं। विपरीत मन की नई यात्रा है। मन से मुक्ति होती है, द्वंद्व के अभाव से।
अब इस कहानी को समझें।
मात्सु साधना में था…।
झेन की बड़ी गहरी समझ है। समझ यह है कि साधना ही तुम्हें इसलिए करनी पड़ती है, क्योंकि तुममें समझ नहीं है। यह बड़ा उल्टा लगेगा। हम सोचते हैं, समझदार लोग साधना में लगते हैं।
साधना का मतलब क्या है? वह भी श्रम है, वह भी दौड़ है, वह भी यत्न है। समझ की कमी तुम साधना से पूरी करते हो। अगर समझ ही हो तो साधना की क्या जरूरत है? तुम हाथ में जहर का प्याला लिए बैठे हो, और तुम्हें समझ आ गया कि यह जहर है, अब साधना करनी पड़ेगी इसे फेंकने के लिए? बड़े यम-नियम पालन करने पड़ेंगे, आसन लगाने पड़ेंगे, ध्यान करना पड़ेगा? क्या करना पड़ेगा? तुम्हें समझ आ गया कि यह जहर है, बात खत्म हो गई। इसको फेंकने के लिए यत्न करना पड़ेगा? यत्न बतायेगा कि समझ नहीं आई। यत्न का मतलब है: समझ की कमी तुम यत्न से पूरी कर रहे हो। लेकिन कोई भी यत्न समझ नहीं बन सकता। तुम्हें चेष्टा करनी पड़ती है।
क्यों? क्योंकि भीतर तुम्हें अब भी लगता है कि यह जहर नहीं है; उसी से लड़ने में तुम्हें चेष्टा करनी पड़ती है। कोई कहता है कि जहर है, तुम्हें अभी भी अमृत मालूम पड़ता है। और जो कहता है वह इतना तर्कनिष्ठ मालूम होता है और उसकी बात अपील करती है। तुम्हारी बुद्धि को समझ में आता है, ‘तुम को’ समझ में नहीं आया है; तुम्हारी बुद्धि को समझ में आता है कि होगा तो जहर, क्योंकि तुम कष्ट पा रहे हो। तुम कहते हो साधना करेंगे, छोड़ेंगे, समय लगायेंगे।
साधना का अर्थ है, समय लगेगा, मेहनत करनी पड़गी। और जितनी देर तुम समय लगाओगे, उतने दिन तो जहर का प्याला हाथ में रहेगा, और उतने दिन प्यास भी तुम उसी से बुझाओगे। जितनी देर बीतेगी, जितनी साधना चलेगी, उतनी देर तुम तो पुराने ही रहोगे। और उतनी देर तुम पुराने रहोगे तो पुराने में और जड़ें प्रविष्ट कर जायेंगी।
इसलिए झेन कहता है, समझ तत्क्षण-क्रांति है, युगपत-क्रांति है। जैसे ही समझ आया कि बात खत्म हो गई। फिर तुम साधना करोगे? फिर तुम कहोगे कि अब जाऊं, अब मैं साधना करूं?
बुद्ध ने कहा है–और उसी सूत्र से झेन की पूरी परंपरा बंधी है–बुद्ध ने कहा है, घर में आग लगी हो और तुम्हें दिखाई पड़ जाये कि घर में आग लगी है, तो क्या तुम समय मांगोगे? कि मैं थोड़ा विचार करूं, थोड़ा ध्यान करूं, थोड़ी साधना करूं, शास्त्र अध्ययन करूं, गुरुओं से पूछूं, कि बाहर जाने का मार्ग क्या है? या कि तुम तत्क्षण छलांग लगा कर बाहर हो जाओगे? अगर घर में आग लगी है ऐसा तुम्हें दिखाई पड़ गया…।
मुझे दिखाई पड़ता हो तो फर्क की बात है। तुम्हें दिखाई न पड़ता हो, मैं कहूं कि आग लगी है, तुम चारों तरफ देखो और तुम्हें कहीं आग न दिखाई पड़े, तो तुम कहोगे कि सोचूंगा, विचार करूंगा, समझूंगा, जब समझ आ जायेगा तो बराबर निकलूंगा। लेकिन तुम्हें आग नहीं दिखाई पड़ रही है। आग दिखाई पड़ जाना ही क्रांति है। ज्ञान क्रांति है। समझ, अंडरस्टैंडिंग पर्याप्त है, और क्या साधना है?
लोग मुझसे कहते हैं, आप बोले चले जाते हैं, क्या होगा? अगर तुम ठीक से सुन रहे हो तो कुछ और करने को बचता नहीं। अगर तुम ठीक से सुन रहे हो और तारतम्य जम गया है सुनने का, तो समझ फलित होगी; रत्ती भर भी करने को बाकी नहीं है। समझ का प्रकाश भीतर हो जाये, यह बोध आ जाये, तथ्य ख्याल में आ जाये कि मन की भूल कहां है! बात खत्म हो गई। घर में आग लगी हो तो छलांग लगाकर भी निकलना पड़ता है; यहां तो इतनी बात भी करने की जरूरत नहीं है कि छलांग लगा कर निकलना पड़े; समझ में आ गई, बात गिर गई।
समझ कम है, इसलिए मुझे तुम्हें साधना करवानी पड़ती है। वह साधना, समझ को परिपूरित करने का एक उपाय है। उस साधना में उलझे-उलझे शायद धीरे-धीरे समझ आ जाये।
और तुम्हारी कठिनाई है; अगर मैं तुमसे कहूं, कुछ भी करने को नहीं है, तो तुम भाग खड़े होओगे। क्योंकि तुम कहोगे, सुन-सुन कर क्या होगा? कुछ करने को चाहिए। तुम्हारा मन कुछ करना चाहता है, बिना किए मन मर जाता है। तुम्हारा मन चाहता है कुछ करने को विधि दो। बस! कुछ उल्टा-सीधा करने को हो, तो भी मन लगा रहेगा। कुछ करने को न हो तो मुश्किल होती है।
मेरे पास लोग आते हैं; उनसे मैं कहता हूं, तुम सिर्फ चुपचाप बैठ जाओ। कुछ न करो। कर करके तो इतनी मुसीबत कर ली है। अब न करो। वे कहते हैं, कुछ तो आलंबन चाहिए। आप नाम ही दे दें, परमात्मा का स्मरण करते रहेंगे। माला दे दें, वही फेरते रहेंगे। मंत्र दे दें। मगर बिना आलंबन कैसे बैठे रहेंगे?
जिस दिन तुम बिना आलंबन बैठ जाओगे, उसी दिन मन के बाहर हो जाओगे क्योंकि मन बिना आलंबन के नहीं जी सकता। मन को चौबीस घंटे सहारा चाहिए। मन बेसहारा नहीं जी सकता। मन को कुछ न कुछ चाहिए, जिसकी वह जुगाली करता रहे। मन मंत्र मांगता है।
शिव के सूत्र में, शिव ने बड़ी ही अनूठी बात कही है कि ‘मन ही मंत्र है’। इसलिए सब मंत्र मन को ही भरेंगे, कोई मंत्र मन के तुम्हें बाहर न ले जाएगा। शब्द तो मन का स्वभाव है, इसलिए सब शब्द मन को भरेंगे। समझ शब्द नहीं है, समझ सिद्धांत नहीं है, समझ एक बोध है–एक होश, एक जागृति। ऐसा बहुत बार हुआ है कि सिर्फ शांति से सुनते-सुनते लोग परम-ज्ञान को उपलब्ध हो गये हैं।
महावीर ने कहा है कि मोक्ष चार तरह के लोग पहुंचते हैं। तो उन्होंने, चार को तीर्थ कहा है, जहां से आदमी मोक्ष जाता है। उसमें दो तीर्थ बड़े हैरान करने वाले हैं। जैन-साधु बिलकुल भूल ही गया है कि उनको भी महावीर ने तीर्थ कहा है। महावीर ने कहा है, मेरे तीर्थ चार हैं; श्रोता–जिसको महावीर श्रावक कहते हैं–सुनने वाला, और श्राविका: सुननेवाली–ये दो तीर्थ। साधु और साध्वी, ये दो तीर्थ।
ये शब्द समझ लेने जैसे हैं। महावीर कहते हैं श्रावक और श्राविका, साधु और साध्वी–ये चार तीर्थ हैं। कुछ लोग हैं जो सुनकर पहुंच गये हैं मोक्ष। कुछ लोग हैं, जो साधना करके पहुंचे हैं, वे साधु और साध्वी। और साधु और साध्वी निरंतर सोचते रहे हैं कि वे श्रावक से ऊपर हैं–वहां भूल है।
यह मैं तुमसे आज कहता हूं कि वहां बुनियादी भूल है। जो सुनकर नहीं पहुंच सकता, उसको साधना करनी पड़ती है; वह ऊपर नहीं है। उसकी समझ कमजोर है। जो सुनकर ही पहुंच सकता है, वही ऊपर है, उसकी समझ पर्याप्त है। समझ उसकी काफी है, उसमें कुछ और नहीं जोड़ना पड़ता–कोई यत्न, उपवास, यम-नियम कुछ भी नहीं। समझा–और बात खत्म हो गई। जो सुनकर पहुंच जाये वह तो परम है। जिसको कुछ और करना पड़े, वह नंबर दो है, वह दोयम। वह प्रथम नहीं है।
लेकिन बड़ा मजा है। श्रावक-श्राविकायें, साधु-साध्वियों के पैर छूते हैं। क्योंकि न तो श्रावक-श्राविकायें, श्रावक-श्राविकायें हैं; और न साधु-साध्वी, साधु साध्वी। जो सुनकर ही पहुंच गया, उसे तुम ऊपर कहोगे या उसे जो कुछ करके पहुंचा? करने का मतलब होता है, शरीर का सहारा लेना पड़ा। करने का मतलब होता है, मन का सहारा लेना पड़ा। सुनकर समझ का मतलब होता है, कोई सहारा न लिया, सिर्फ बोध पर्याप्त हुआ।
बुद्ध ने कहा है कि श्रेष्ठ घोड़े को कोड़े की छाया काफी होती है, कोड़ा नहीं। कोड़ा मारने का तो सवाल ही नहीं है; वह तो खच्चरों के लिए है, घोड़ों के लिए नहीं। श्रेष्ठ घोड़े को, कोड़े की छाया भर दिख जाये कि वह चल पड़ता है। समझ कोड़े की छाया है, और साधना कोड़ा है।
मात्सु साधना में रत था…।
गुरु को सुन कर काफी नहीं हुआ, गुरु के पास रहना काफी नहीं हुआ। जलती हुई ज्योति के पास, दीया न जल सका कुछ और करने की आवश्यकता पड़ी। वह दोयम व्यक्तित्व था उसके पास। सिर्फ बोध से वह न चल सका, उसे कुछ यांत्रिक सहारे की जरूरत थी। वह साधना में रत था।
वह अपने गुरु-आश्रम के एक एकांत झोपड़े में अहर्निश मन को साधने का अभ्यास करता था।
इसीलिए साधु हमें ऊपर दिखाई पड़ता है। क्योंकि वह चौबीस घंटे श्रम में लगा है। श्रम को हम जांच सकते हैं। श्रावक हमें दिखाई भी नहीं पड़ सकता, क्योंकि उसकी घटना तो भीतरी है; बाहर से पहचानने का कोई उपाय नहीं। वह कुछ भी कर नहीं रहा है जिसको हम नाप सकें। मात्सु की बड़ी प्रतिष्ठा रही होगी। आश्रम में लोग उसकी तरफ आदर-भाव से देखते रहे होंगे, सम्मान की दृष्टि से कि वह मात्सु का झोपड़ा है। वह चौबीस घंटे साधना में रत है, मन को साध रहा है।
लेकिन मन को साधना? और साधना कुछ और कर भी नहीं सकती। क्योंकि जब भी तुम कुछ करोगे, मन का सहारा लेना पड़ेगा। क्योंकि कृत्य मन से पैदा होता है। तुम्हारी आत्मा से कोई कृत्य पैदा नहीं होता। तुम्हारी आत्मा तो शुद्ध चैतन्य है, वहां कृत्य है ही नहीं; वहां तो सिर्फ होना मात्र है, होश मात्र है, चित मात्र है–वहां कृत्य कहां?
कृत्य तो मन से होता है। और कृत्य तभी होता है, उसके पहले वासना प्रवेश कर गई होती है। क्योंकि तुम करोगे ही क्यों कुछ, जब वासना न होगी? भला यह वासना मोक्ष जाने की हो! तब तुम ध्यान करोगे, आसन लगाओगे, आंख बंद करके बैठोगे, क्योंकि परमात्मा को पाना है, लेकिन कुछ पाना है। पाने में वासना का बीज है। वासना के बीज में संसार छिपा है; वहीं से तो हम भटकते हैं। मन का सहारा लेना पड़ता है कृत्य के लिए। और कृत्य का सहारा लिया कि बीज आ जाता है वासना का। फिर परमात्मा में ही भटकाने का रास्ता बन जायेगा।
मात्सु गुरु-आश्रम के एकांत झोपड़े में, अहर्निश मन को साधने का अभ्यास करता था।
न दिन, न रात; न देखता दिन, न रात, चौबीस घंटे लगा था, एक ही धुन थी–साधना। सत्य को पाना है।
जो उससे मिलने जाते, उनकी ओर भी वह ध्यान नहीं देता था।
क्योंकि साधक ऐसा समय खराब नहीं कर सकता। और साधक ऐेसा हर किसी पर ध्यान नहीं दे सकता। इसे थोड़ा समझ लेना; यह थोड़ा बारीक है। और ये सारी कहानियां बड़ी बारीक हैं। और अगर इनकी नाजुकता को तुमने न समझा, तो तुम वंचित रह जाओगे अर्थ से। अर्थ इतना ऊपर नहीं है, अर्थ नीचे है। ऊपर तो छोटी सी घटना मालूम पड़ती है, जिसमें कुछ सार दिखाई नहीं पड़ता।
एक बात: अहंकार चाहता है, दूसरे मुझ पर ध्यान दें और मैं किसी पर ध्यान न दूं। फिर अहंकार हजार-हजार रास्ते बनाता है, जिससे दूसरे मुझ पर ध्यान दें और मैं ध्यान दूसरों पर न दूं। धन इकट्ठा करता है, एक बड़ा महल बनाता है, ताकि दूसरे मुझ पर ध्यान दें; राह से गुजरूं तो लोग झुक-झुक कर नमस्कार करें। और मजा तो तब है, जब तुम्हें नमस्कार का उत्तर भी न देना पड़े। जो तुम्हें नमस्कार करे, उसे तुम्हें पहचानने की भी जरूरत न पड़े; मजा तो तब है। अहंकार चाहता है सारा संसार मेरे चरणों में झुके और मैं ऐसा बैठा रहूं कि मुझे किसी की कोई फिक्र भी नहीं। जब तुम्हें दूसरे पर ध्यान देना पड़ता है तो पीड़ा होती है; जब तुम्हें दूसरे ध्यान देते हैं तो सुख आता है। फिर तुम साधु बनकर बैठ जाओ, तब भी तुम आंख बंद किये बैठे रहोगे कि दूसरे ध्यान दें।
मात्सु ने एकांत में झोपड़ा चुना था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम जंगल चले जाओ, तो भी तुम वहां आंख बंद किए बैठे रहोगे और इसी प्रतीक्षा में कि संसार को खबर मिल जाये कि मैं बिलकुल एकांत में हूं। यहां कोई भी नहीं। मैंने सब संसार छोड़ दिया है। तुम वहां भी बैठे रहोगे, लेकिन नजर तुम्हारी संसार पर लगी रहेगी कि दूसरे ध्यान दें। तुम कहां बैठे हो इससे फर्क नहीं पड़ता।
रामकृष्ण कहते थे: चील ऊंचे आकाश में उड़ती है, लेकिन नजर नीचे पड़ी हुई लाश पर लगी रहती है। कोई मरा हुआ चूहा पड़ा हो, नजर उस पर लगी रहती है; उड़ती है आकाश में। तो रामकृष्ण कहते थे, उड़ते हुए आकाश में देखकर यह मत सोचना कि बड़ी ऊंचाई पर है। नजर तो नीचे लगी है, मरे हुए चूहे पर लगी है। वह प्रतीक्षा में ऊपर चक्कर काट रही है कि जब मौका मिले, झपट्टा मार दें।
तो तुम एकांत में बैठे हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, नजर भीड़ पर है। और यह भी हो सकता है कि जब भीड़ आये तो तुम नजर भी न उठाओ; फिर भी नजर भीड़ पर है। यह भी हो सकता है कि जब लोग आयें, तो तुम देखो भी न, लेकिन तब भी नजर उन्हीं पर है। क्योंकि तब तुम भीतर रस पा रहे हो। तुम यह रस पा रहे हो कि मैं इतना लीन हूं ध्यान में कि तुम्हारी तरफ ध्यान नहीं दे सकता। लेकिन यह भी अस्मिता है, यह भी अहंकार है।
मात्सु से लोग मिलने भी जाते, तो भी वह उनकी ओर कोई ध्यान नहीं देता था।
उसकी बड़ी ख्याति हो गई होगी। लोग कहते होंगे, परम-साधक है; सिद्ध ही हो गया। जाओ; तो भी नजर नहीं उठाता, देखता भी नहीं है किसी की तरफ, लेकिन वह भीतर ही अकड़ा होगा।
उसके गुरु एक दिन उसके झोपड़े पर गये।
जब गुरु को ये सब बातें पता चली होंगी और गुरु निरीक्षण करते रहे होंगे, तो जाना जरूरी हो गया। क्योंकि मात्सु बीमार था। यही तो रोग है। दूसरे पर ध्यान न देना ही तो रोग है; अपने लिए ध्यान मांगना ही तो रोग है। और यह मात्सु, चौबीस घंटे जो कर रहा है, वह कर क्या रहा है? कर रहा है: मन को साधने की कोशिश।
मन को साध कर तुम सिद्ध हो जाओगे? मन को साध कर निश्चित ही तुम्हें कई तरह की शक्तियां मिल जायेंगी, जिनको परामनोवैज्ञानिक-शक्तियां कहते हैं; तुम दूसरे का मन पढ़ लोगे। हो सकता है, अदृश्य ताबीज निकाल दो, हाथ से राख गिरा दो, बीमार को छू दो और ठीक कर दो; यह सब संभव है। इसमें कुछ बहुत अड़चन नहीं है। अगर मन को ही किसी ने साधा, तो जैसे संसार में दौड़ने वाला, अहर्निश साधक…।
संसारी भी साधक है क्योंकि वह भी दौड़ रहा है। एक पैसा जो आदमी कमा रहा है, वह चौबीस घंटे पैसे के संबंध में सोचता है, उसकी साधना भी किसी से कम नहीं है। राम को सोचने वाला शायद कभी-कभी भूल जाता हो; पैसे को सोचने वाला कभी नहीं भूलता। राम की माला जपने वाले की माला कभी-कभी रुक भी जाती हो, पैसे को जपने वाले की माला कभी नहीं रुकती; सोते-जागते, उठते-बैठते वह पैसे के संबंध में ही सोचता रहता है–अहर्निश चल रही है साधना। फिर निश्चित ही अहर्निश जब कोई धन की साधना करता है, तो धन कमा लेता है। अहर्निश जो पद की साधना करता है, वह पद कमा लेता है। तुम जिसके पीछे दौड़ोगे, आज नहीं कल तुम्हें मिल ही जायेगा।
यही तो दुर्भाग्य है, यहां दौड़ने वाले को चीजें मिल जाती हैं; उससे दौड़ने को और बल मिलता है। फिर जो लोग मन को ही साधने जाते हैं आंख बंद करके, उनको भी शक्तियां मिलती हैं; वे और सूक्ष्म सिद्धियों के मालिक हो जाते हैं। संसार की सिद्धियां स्थूल हैं; मन की सिद्धियां सूक्ष्म हैं; पर दोनों ही सिद्धियां हैं। और दोनों ही सिद्धियां बाहर हैं, उनसे तुम सिद्ध न हो जाओगे।
सिद्ध तो तुम तब होओगे, जब न संसार की सिद्धियां, न मन की सिद्धियां, बल्कि तुम अपने स्वभाव में रत हो गये, लीन हो गये। तुम अपने स्वभाव में एक हो गये। तुमने उस परम सत्य को पा लिया जो तुम्हारे भीतर छिपा है, वह कोई सिद्धि नहीं है।
यह बड़ा अजीब लगेगा। जब तक तुम सिद्धियों के पीछे पागल हो, तब तक सिद्ध न हो पाओगे; तब तक जानना, अभी पहुंचे नहीं। जिस दिन तुम किसी चीज के लिए पागल नहीं, जिस दिन तुम कुछ भी चाह से नहीं भरे हो, बस ‘हो’…ऐसा क्षण–जहां तुम्हारा होना पर्याप्त है, जहां अब कोई मांग नहीं उठती, जहां कोई कल की आकांक्षा नहीं है, जहां बीते की स्मृति नहीं है, अनहुए की कामना नहीं है, जहां क्षण पूरा है, आप्तकाम हो; उस क्षण में तुम सिद्ध हो।
सिद्ध का मतलब, बहुत सिद्धियों वाला पुरुष नहीं है। सिद्ध का मतलब, जिसे सिद्धि की सब दौड़ क्षीण हो गई, जिसके लिए सब सिद्धियां बचकानी हो गईं; बच्चों का खिलौना हो गईं।
गुरु को पता लगा, मात्सु बीमार है। और बीमार साधारण नहीं है, क्रानिक है। चौबीस घंटे बीमार है। अहर्निश मन को साध रहा है, आज नहीं कल मन सिद्ध हो जायेगा, तब बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि जब सिद्धि हाथ में आ जाती है, तो छोड़ना और मुश्किल हो जाता है। इसलिए गुरु का जाना जरूरी हो गया।
आश्रम इसीलिए उपयोगी थे। तुम अकेले में क्या कर रहे हो, बड़ा कठिन है। कोई ऊपर से देखने वाला नहीं है। कोई तुमसे ज्यादा देखने वाला तुम्हारे पास नहीं है। तुमसे दूर देखने वाला तुम्हारे पास नहीं है। तुम्हारी नजर छोटी है, संकीर्ण है। तुम जो भी करोगे, उससे खतरा मोल ले सकते हो। और यह भी हो सकता है कि जिस स्थिति से परम-सत्य का द्वार खुल जाता, उसे तुम सस्ते में बेच दो, और छोटी सी सिद्धि लेकर घर आ जाओ।
उसके गुरु एक दिन उसके झोपड़े पर गये; मात्सु ने उनकी ओर भी ध्यान नहीं दिया।
मात्सु कोई छोटा-मोटा साधक नहीं था; कौन आया, कौन गया, इससे मतलब ही नहीं है। गुरु भी आया, तो मतलब नहीं है। अहंकार भारी रहा होगा। बल्कि गुरु के आने से मात्सु ने समझा होगा, अब स्थिति मेरी बन गई। साधारण लोग ही नहीं आ रहे हैं, खुद गुरु को आना पड़ा है। इसी की तो प्रतीक्षा की होगी न मालूम कितने दिन तक कि अब गुरु को भी आना पड़ेगा। आज नहीं कल, आना ही पड़ेगा सारे संसार को। जब सिद्धि मेरे हाथ में होगी, तो गुरु भी आयेगा और झुकेगा। मात्सु प्रसन्न हुआ होगा।
बीमारियां बड़े जोर से पकड़ती हैं और गहरे में पकड़ती हैं। उनकी बड़ी गहरी जड़ें हैं। शिष्य प्रतीक्षा करता है गुरु भी आये। समझता वह ऐसे ही है कि यह गुरु के आदर के लिए है। लेकिन भीतर अपने अहंकार को ही पोसता है। उसने गुरु की ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। वह गुरु को भी बता देना चाहता है, मैं कोई छोटा-मोटा साधक नहीं हूं, अब मैंने बाहर से सब ध्यान ही तोड़ लिया। मैं तो सिर्फ भीतर ही रहता हूं। अहर्निश मेरी साधना चल रही है।
जो आदमी सच में भीतर है, वह तो एक पक्षी भी गीत गायेगा, उस पर भी ध्यान देगा। पानी का झरना बहेगा, उसकी कल-कल आवाज होगी, उस पर भी ध्यान देगा। हवायें निकलेंगी, वृक्षों से सरसराहट होगी, उस पर भी ध्यान देगा, क्योंकि सभी पगध्वनियां परमात्मा की हैं।
इसे तुम समझ लो। ध्यान का मतलब, किसी एक चीज पर ध्यान का लगा देना नहीं है; कि और सब चीजों से तुम्हारा ध्यान वंचित हो जाये। ध्यान का मतलब जागरण है। ताकि तुम जागे रहो और सब जो चारों तरफ घट रहा है, जो विराट लीला हो रही है, उसमें से कुछ भी तुमसे चूक न जाये।
यही मेडीटेशन और कंसन्ट्रेशन, एकाग्रता और ध्यान का अंतर है। एकाग्रता में तुम एक चीज पर रुक जाते हो और सब चीजों के प्रति बंद हो जाते हो; ध्यान में सभी चीजों के प्रति खुल जाते हो। एकाग्रता ऐसी है, अगर तुमने अपने घर के सब द्वार-दरवाजे बंद कर लिए और सिर्फ दीवाल में एक छेद कर लिया। बस, उसी में से तुम देखते हो। और ध्यान ऐसा है कि तुमने सब द्वार-दरवाजे ही नहीं खोल दिए, तुमने सब दीवालें हटा दीं। तुम खुले आकाश के नीचे खड़े हो गये। ध्यान तुम्हारा जागा हुआ भाव है।
फिर जो भी घटता है, चारों ओर! एक पक्षी गीत गाता है, एक कुत्ता भौंकता है, एक बच्चा रोता है, कोई हंसता है, हवा की आवाज होती है, आकाश में बादल गड़गड़ाते हैं, वर्षा होती है, सब तुम्हें सुनाई पड़ता है। और इस सबके सुनने में तुम्हें कोई विघ्न नहीं होता, कोई बाधा नहीं होती।
विघ्न, बाधा तो उसको होती है, जो एकाग्रता साध रहा है। उसको वही तकलीफ होती है। एकाग्रता साधने वाले की बड़ी मुसीबत है। सारा संसार उसका दुश्मन मालूम होता है। घर में एकाध आदमी एकाग्रता साधने लगे, बड़ी मुसीबत। बच्चा रो नहीं सकता, बच्चा खेल नहीं सकता, पत्नी जोर से बात नहीं कर सकती, आवाज बर्तन की नहीं हो सकती; लेकिन तुम संसार को मुर्दा करने में लगे हो। तुम्हारी एकाग्रता क्या संसार बिलकुल मर जाये तब होगी? तुम्हारी एकाग्रता परिस्थिति पर निर्भर है? जरा सी अड़चन होती है और ध्यानी कहता है कि बस, बाधा पड़ गई।
जिनको हम इस तरह के ध्यानी कहते हैं, वे अक्सर क्रोधी हो जाते हैं। क्योंकि उनको हर बात में क्रोध आता है। हर चीज से बाधा पड़ती है। क्यों हंसे? क्यों रोये? क्यों आवाज की?…ध्यानी क्रोधी होगा? हमने दुर्वासा पैदा किए हैं इसी तरह के ध्यानियों से। उनके क्रोध का अंत नहीं है। जैसे उनका सारा ध्यान क्रोध है। जब भी तुम एकाग्रता साधोगे, तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर क्रोध उठना शुरू हुआ। क्योंकि एकाग्रता एक तरह का संघर्ष है। संघर्ष से क्रोध पैदा होता है। एकाग्रता एक तरह की जबरदस्ती है। मन तो मुक्त रहना चाहता है, तुम बांधते हो, एक तरफ लगाते हो।
तो तीन तरह की स्थितियां है। एक तो मन की चंचल स्थिति है; इधर से उधर भागता रहता है। यह सामान्य सांसारिक आदमी है–चंचल। इसके विपरीत एकाग्रता है, वह तथाकथित धार्मिक आदमी है। वह कहता है, चंचल न होने देंगे, बिलकुल जमा देंगे। मन को एक ही जगह रखेंगे टिका कर, चाहे कुछ भी हो जाये। और इन दोनों से भिन्न, वास्तविक धार्मिक व्यक्ति है। वह कहता है, मन ही चंचल होता है, मन ही एकाग्र होता है और मन मैं नहीं। इसलिए न चंचलता की चिंता है मुझे, न एकाग्रता की। दोनों को छोड़ देता है। दोनों का अभाव है।
उस अभाव में एक जागरूकता है, जिसमें चंचलता जैसी गति है और एकाग्रता जैसा ठहराव है, पर वह बड़ी अनूठी स्थिति है। जिसमें एकाग्रता जैसी शांति है और चंचलता जैसी गत्यात्मकता है; वह शांति मुर्दा नहीं है, जीवंत है। भीतर कोई प्रतिरोध नहीं है, इसलिए कोई विघ्न नहीं होता। बच्चा रोता है, आवाज सुनाई पड़ती है, जैसे सूने घर में आवाज गूंजे फिर विलीन हो जाये, ऐसा ही तुम एक सूने घर हो जाते हो।
कबीर ने कहा है, ‘सूने घर का पाहुना।’ तब यह जगत तुम्हारे घर में आता है, लेकिन सूने घर का पाहुना। जैसे घर में कोई मेहमान आता है; तुम बिलकुल सूने हो, जो भी आये, आये; जाये। न प्रतिरोध है, न निमंत्रण है; न निषेध है, न बुलावा है। सांसारिक आदमी निमंत्रण देता है, तथाकथित धार्मिक आदमी द्वार पर निषेध लगाता है, कि भीतर प्रवेश मना है। वास्तविक धार्मिक आदमी–सूने घर का पाहुना–वह सूना घर हो जाता है। जिसको आना हो आये, जिसको जाना हो जाये; न वह किसी को बुलाने जाता है, न वह किसी का निषेध करता है। और तभी तो सब ठहर जाता है और फिर भी जीवित होता है। तभी तो इस जगत का सबसे बड़ा विरोधाभास घटित होता है। इस जगत की परम-क्रांति घटती है, कि तुम इतने जीवंत होते हो जैसे छोटा बच्चा। तुम इतने जीवंत होते हो, जैसे परम-जीवन। और तुम इतने शांत होते हो, जैसे गहन-मृत्यु; यहां जीवन और मृत्यु का मिलन होता है। एकाग्रता जैसी थिरता होती है और चंचलता जैसा कलकल प्रवाह होता है। और प्रवाह और थिरता जहां दोनों एक साथ होती हैं, वहां तुम मन के पार हो गये। क्योंकि मन द्वंद्व है, जहां तुम दोनों से हट गये वहीं मन समाप्त हो जाता है।
मात्सु ने गुरु की ओर भी ध्यान नहीं दिया। पर गुरु दिन भर वहीं बैठे रहे।
किसलिए वहां बैठे रहे होंगे? और न केवल बैठे रहे, बल्कि एक ईंट को पत्थर पर घिसते रहे।
अब कोई आदमी अगर जरा भी कंकड़ पत्थर घिसे, तो तुम्हें बेचैनी हो जायेगी, परेशानी हो जायेगी, ईंट पूरी लेकर पत्थर पर उसके सामने घिसते रहे।
कई कारण हैं। पहला तो यह, वे देखना चाहते थे, कितनी देर तक तू अहंकार को साधता है? कितनी देर तक तेरा प्रतिरोध टिकता है? रेसिस्टेंस! क्योंकि एक बात समझ लें, प्रतिरोध थकाएगा। जब भी तुम जबरदस्ती कुछ करोगे, तो ज्यादा देर न कर पाओगे, एक सीमा होगी। सिर्फ स्वभाव सदा हो सकता है। जबरदस्ती थोड़ी-बहुत देर हो सकती है, क्योंकि तुम थक जाओगे।
इसलिए ध्यान रखना, जिस चीज से भी तुम थक जाते हो तो समझ लेना कि उसे तुम जबरदस्ती कर रहे हो। अगर प्रेम से थक जाते हो, तो तुम जबरदस्ती कर रहे हो। अगर पत्नी से ऊब जाते हो, तो तुम जबरदस्ती कुछ कर रहे हो, दिखावा कर रहे हो। अन्यथा प्रेम से कोई कैसे थकेगा? प्रेम से तो और प्रसन्न होगा, प्रेम से तो और ताजा होगा, प्रेम से तो और निर्भार होगा, थकान मिटेगी। लेकिन पति-पत्नी एक दूसरे के पास बैठकर थकते हैं, ऊबते हैं, परेशान होते हैं। मित्र एक दूसरे से थोड़ी देर बातचीत करके फिर परेशान होना शुरू हो जाते हैं। तुम्हें हर चीज परेशान करती है। इस जगत में तुम्हें सब तरफ ऊब दिखाई पड़ती है, क्या कारण है?
क्योंकि हर चीज को तुम जबरदस्ती कर रहे हो। तुम हर चीज को तनाव बना रहे हो। तुम उसे सहजता से नहीं कर रहे हो। तुम उतना ही नहीं कर रहे हो, जितना भीतर से आ रहा है। तुम अतिरेक कर रहे हो। जब तुम प्रेम बताते हो तो तुम जरूरत से ज्यादा बताते हो, जितना तुम्हारे भीतर से नहीं आ रहा; अब तुम मुसीबत में पड़ोगे। जब तुम मित्रता बताते हो, तो तुम जरूरत से ज्यादा बताते हो, जितनी भीतर से नहीं आ रही। कितनी देर करोगे? प्रतिरोध थकायेगा। जबरदस्ती हैरान करेगी, बेचैन करेगी।
यह गुरु भी बड़ा अदभुत आदमी रहा। वह ईंट को पत्थर पर घिसता रहा। वह इस आदमी को थका रहा है, क्योंकि ध्यानी को तुम थका नहीं सकते। एकाग्र-चित्त वाले को तुम थका दोगे। वह आदमी भीतर-भीतर उबल रहा होगा कि हद्द हो गई! अब वह और कोई आदमी होता तो सिर खोल देता, मगर यह गुरु है। पहले सोचता होगा, शायद मेरी परीक्षा ली जा रही है, फिर धीरे-धीरे उसका क्रोध बढ़ता गया होगा। फिर वह उबलने लगा होगा। उसे लगा होगा: हद्द हो गई, एक सीमा होती है किसी बात की। यह आदमी पागल हो गया है।
दिन भर गुरु वहीं बैठे रहे और ईंट को पत्थर पर घिसते रहे।
यही तो हालत सभी गुरुओं की है; शिष्यों के सामने ईंट पर पत्थर को, या पत्थर पर ईंट को घिसते रहते हैं।
मात्सु से अंततः न रहा गया। और उसने गुरु से पूछा कि आप यह क्या कर रहे हैं?
‘अंततः न रहा गया?’ पहले ही क्षण रहना मुश्किल पड़ा था। लेकिन अहंकार खींचता है, खींचता है, खींचता है। जब तक बने, तब तक खींचता जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अदालत में दरखास्त दी थी तलाक के लिए। हैरान हुआ मैजिस्ट्रेट। उसने पूछा कि तुम्हारी उम्र कितनी है नसरुद्दीन? नसरुद्दीन ने कहा, नब्बे वर्ष। और शादी हुए कितना समय हुआ? उसने कहा, सत्तर वर्ष। उस मैजिस्ट्रेट ने कहा, ‘अब किसलिए तलाक?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘इनफ इज इनफ। अब बहुत हो गया। और अब नहीं सहा जाता। अब पर्याप्त झेल लिया। अब एक और रत्ती भर खींचने की हिम्मत नहीं है।’
अंततः उससे न रहा गया और उसने गुरु से पूछा, ‘आप यह क्या कर रहे हो?’ गुरु ने कहा, ‘ईंट का दर्पण बनाना चाहता हूं।’ मात्सु ने कहा, ‘ईंट का दर्पण? पागल हुए हैं क्या? जीवन भर घिसते रहने से भी दर्पण नहीं बनेगा।’ यह सुनकर गुरु हंसने लगे और उन्होंने कहा, ‘मात्सु तब तुम क्या कर रहे हो? ईंट दर्पण नहीं बनेगी तो क्या मन दर्पण बन सकता है?’
और मन का घिसना ही तो साधना है। तुम करते क्या हो साधना में? राम-राम जपो, माला फेरो, क्या करते हो? मन को घिस रहे हो। ईंट को पत्थर पर घिस रहे हो। शोरगुल बहुत होगा। शायद दूसरे समझेंगे कि अहर्निश साधना चल रही है। अहंकार को भी रस आयेगा कि मैं कुछ कर रहा हूं। लेकिन कर क्या रहे हो तुम?
और मैं तुमसे कहता हूं कि ईंट को ठीक से घिसने पर शायद दर्पण बन भी जाये। क्योंकि जिनको तुम दर्पण कहते हो वे हैं क्या, वह रेत का ही रूपांतरण हैं। मैं मात्सु के गुरु से आगे एक बात तुमसे कहता हूं कि यह हो भी सकता है कि ईंट को ठीक से घिसने पर दर्पण बन भी जाये; लेकिन मन को कितना ही घिसो, दर्पण नहीं बन सकता।
और जब तक तुम दर्पण न बन जाओ, तब तक सत्य का प्रतिफलन कैसे होगा? मन को घिसते-घिसते मन सूक्ष्म होता जायेगा और जितना सूक्ष्म होता है, उतना सिद्धिपूर्ण होता जायेगा; उतनी अनंत शक्तियां तुम्हारे भीतर जागने लगेंगी। और हर शक्ति तुम्हारे अहंकार को भरेगी।
इसलिए संन्यासियों जैसा अहंकार, संसारी में नहीं होता। महात्माओं जैसी अकड़ पापियों में नहीं होती। क्योंकि पापी अकड़े भी क्या! उसके पास है भी क्या अकड़ने को? महात्मा के पास कुछ है। अकड़ने का कारण है। उसकी अकड़ अकारण नहीं है। और जब कारण होता है अकड़ने का, तो अकड़ को मिटाना मुश्किल हो जाता है।
पतंजलि ने एक पूरा अध्याय लिखा है, ‘विभूतिपाद’–अपने योगसूत्र में। कि कैसी-कैसी सिद्धियां पैदा हो सकती हैं, अगर आदमी मन को घिसता ही रहे। और इसलिए नहीं लिखा है वह विभूतिपाद कि तुम मन को घिस-घिस कर उन सिद्धियों को पा लो। वह सिर्फ चेतावनी, वार्निंग के लिए लिखा है कि ये-ये सिद्धियां पैदा हो सकती हैं, मगर इनसे बचना। क्योंकि इनमें अगर तुम भटके, तो परमात्मा से बच जाओगे।
यह आखिरी प्रलोभन है। यह अंतिम पड़ाव है, जहां से भटकन हो सकती है; इसके बाद फिर कोई भटकन नहीं हो सकती। और जैसे-जैसे तुम सूक्ष्म होते जाते हो, वैसे-वैसे बुलावा तीव्र होता जाता है। और तुम्हारा मन और तुम्हारा अहंकार कहेगा, जरा प्रयोग करके देख लो। और हर्ज क्या है? मन कई बातें समझायेगा कि बीमारों की बीमारियां ठीक हो सकती हैं, यह तो सेवा है। इससे जरा सावधान रहना। क्योंकि मन के तर्क बड़े अदभुत हैं। वह कहेगा, यह तो सेवा है, इसमें कोई हर्ज नहीं, यह तो धर्म है। और अगर तुम्हारे हाथ से ताबीज और राख प्रगट हो जायें, तो सैकड़ों लोगों की आस्था जगेगी और लोगों की आस्था जगाना तो अच्छा कार्य है, कल्याणकारी है, मंगलदायी है। लेकिन इन सब बातों में मत पड़ना, भीतर गौर से देखना कि मन यह जो कारण बता रहा है, ये बहाने हैं। लेकिन मन अहंकार को निर्मित करेगा भीतर से।
मेरे पास लोग आते हैं। जैसे ही ध्यान में उनकी थोड़ी गति होती है, उपद्रव शुरू होता है। वे कहते हैं, ऐसा करने से ऐसा हो गया…।
एक युवक मेरे पास आया। सच में हिम्मतवर युवक है। और बड़े साहस से उसने ध्यान के प्रयोग किए हैं। वह मेरे पास आया। वह एक यात्रा पर गया था और बस में बैठा था। कुछ करने को नहीं था, तो वह जो मंत्र की साधना कर रहा था, वह मंत्र का रटन करता रहा। वह चौबीस घंटे, जब भी उसे याद आता, तो रटन करता था। सामने एक आदमी बैठा था। अचानक रटन करते-करते उसे ऐसा लगा कि कहीं यह आदमी गिर न जाये। गाड़ी पहाड़ चढ़ रही थी और बस को धक्के लग रहे थे। उसे ऐसा खयाल आया, कहीं यह आदमी गिर न जाये। जैसे ही उसे खयाल आया, वह आदमी धड़ाम से गिर गया नीचे। वह थोड़ा चौंका और उसे लगा, कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे सोचने से गिर गया हो! या सिर्फ संयोग है?
तो उसने दूसरे आदमी पर प्रयोग करके देखा। जैसे ही उसने सोचा कि यह गिर न जाये, वह दूसरा आदमी लुढ़क गया, तब वह बहुत घबड़ा गया। तब उसकी घबड़ाहट स्वाभाविक हो गई। और उसने कहा कि अब संयोग नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिर भी उसे लगा कि यह भी हो सकता है कि संयोग हो, एक प्रयोग और करके देख लूं। तो उसने एक तीसरे आदमी पर, जो बिलकुल सधा-बधा बैठा था, जिसके गिरने की कोई संभावना नहीं थी, उसको सोचा। और वह आदमी भी गिर गया।
वह यात्रा में बीच से उतर कर भागा हुआ मेरे पास आया और उसने कहा कि यह तो बड़ा–अब मैं क्या करूं? अगर आदमी गिर सकता है तो बात साफ है कि कुछ और भी हो सकता है। कोई बीमार हो और मैं कह दूं कि ठीक हो जाये। तो वह आदमी, वह युवक मुझसे कहने लगा, यह तो जनता की बड़ी सेवा होगी। और इसमें कोई हर्ज तो नहीं। इससे तो दूसरों को लाभ होगा।
मैंने उससे पूछा कि जब ये तीन आदमी गिरे, तब तेरे भीतर क्या हुआ, वह तू मुझे कह। तुझे भीतर कैसा रस आया? उसने कहा कि लगा कि अब मैं कोई सिद्धि को उपलब्ध हो रहा हूं और अब दूर नहीं है रास्ता। रास्ता करीब आ गया मंजिल का। बस मैंने कहा, असली बात यह है। सेवा, और दूसरे को ठीक करने की तू चिंता मत कर। जब तक तू है, तब तक तू जो भी करेगा वह सेवा नहीं हो सकती; जिस दिन तू मिट जाये, उस दिन सेवा।
‘मैं’ के रहते कैसे सेवा होगी? ‘मैं’ तो सिर्फ शोषण कर सकता है सेवा नहीं कर सकता। ‘मैं’ सिर्फ चूस सकता है दूसरे को, दूसरे को सहारा नहीं दे सकता। सहारे के नाम पर भी चूसेगा।
तो जैसे-जैसे व्यक्ति साधना में लगता है, आखिरी घड़ियों में मन की सूक्ष्म-शक्तियां जागनी शुरू होती हैं, विभूति पैदा होती है। लेकिन वह विभूति सिद्धि नहीं है, वह मंजिल नहीं है। वह पड़ाव भी नहीं है। उसकी तरफ उपेक्षा से देखते हुए गुजर जाना। इसलिए पतंजलि ने विभूतिपाद लिखा–पूरा एक अध्याय, सिर्फ सावधानी के लिए।
यह मात्सु भी सिद्धि के करीब पहुंच रहा था, इसलिए गुरु को जाना पड़ा। यह करीब आ गया था, जहां से इसके हाथ में कुंजियां आ जायेंगी और उन कुंजियों को छोड़ना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए गुरु ने कहा कि न तो ईंट दर्पण बनेगी घिसने से और न मन दर्पण बन सकता है; तू यह घिसना बंद कर।
यह बड़ा कठिन मामला है। पहले गुरु कहता है साधना कर, और फिर एक घड़ी आती है जहां वह कहता है, अब साधना छोड़। समय रहते साधना न छोड़ दी गई तो तुम साधना से जकड़ जाओगे।
पहले तो चिकित्सक दवा देता है बीमारी को हटाने की। और फिर समय रहते तुमसे कहता है, अब बीमारी हट गई, अब दवा छोड़ो। नहीं तो बीमारी की जगह दवा ले सकती है। और अगर बीमारी की जगह दवा बैठ गई, तो वह नई बीमारी हो गई जो पुरानी से भी खतरताक सिद्ध हो सकती है। तुम्हें बीमारियों ने ही थोड़े पकड़ा है! बहुत सी दवाइयों ने भी पकड़ा है।
तुम्हें वे ही कांटे थोड़े ही चुभ रहे हैं, जो रास्ते पर चलते लग गये हैं; तुम्हें वे कांटे भी चुभ रहे हैं, जिनसे तुमने इन कांटों को निकालने की कोशिश की। और जिस कांटे से तुम कांटे को निकालते हो, उस कांटे को अगर तुम उसी घाव में रख लेते हो–कहो कि यह बड़ा अच्छा कांटा है, इसने सहायता दी–तो यह कांटा भी उतना ही खतरनाक है। क्योंकि कांटे सब समान हैं।
तो गुरु को ध्यान रखना पड़ता है, कि तुम्हारा पहला कांटा निकल आया और दूसरा कांटा उस जगह न बैठ जाये, उसके पहले तुम्हें चौंका देना जरूरी है। मात्सु खतरनाक जगह के करीब था। थोड़ी देर और! फिर मात्सु को लौटाना मुश्किल हो जाता। इसलिए गुरु की जरूरत तो पड़ती है साधना की शुरुआत में, और गुरु की जरूरत पड़ती है साधना के ठीक पूरा होने के थोड़ी देर पहले। इसके पहले कि बीमारी हटे और औषधि पकड़े, गुरु को औषधि भी छुड़वा देने की कोशिश करनी पड़ती है। वह तुम से सभी छीन लेगा, तुम्हारा संसार भी और तुम्हारी साधना भी! वह तुम्हें बिलकुल अकेला छोड़ देगा, जहां पकड़ने को कुछ भी नहीं है।
इसलिए मात्सु के गुरु ने कहा कि देख, न ईंट घिसने से दर्पण बनेगी और न मन घिसने से दर्पण बनेगा; तू यह घिसाई बंद कर। अब तू रुक जा। संसार तू छोड़ चुका है; अब यह साधना भी छोड़ दे।
कहानी यहां पूरी हो जाती है। मात्सु ने क्या किया? मात्सु ने जरूर गुरु की बात सुन ली होगी। क्योंकि मात्सु खुद अपनी हैसियत से महागुरु हो गया था। मात्सु खुद बहुत बड़ा, ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति हुआ; उसने गुरु की बात सुन ली होगी।
गुरु कभी-कभी दुश्मन जैसा लगेगा। अच्छा लगेगा जब तुम्हारे रोग छीन रहा है; बुरा लगेगा, जब तुम्हारी औषधि छीनेगा। अच्छा लगेगा, जब तुम्हारी चिंतायें छीन रहा है, बुरा लगेगा, जब तुम्हारी शांति छीनेगा। यह जरा समझ लेना। क्योंकि चिंताओं की जगह अगर तुमने शांति को पकड़ लिया, तो कितनी देर तुम शांत रहोगे? जल्दी ही शांति एक नई चिंता बन जायेगी। तब तुम उसी को सम्हाले फिरोगे। वह एक कांच का बर्तन हो जायेगी, जिसको कि सम्हाल-सम्हाल कर चलना है कि कहीं टूट न जाये। वह एक बोझ होगी।
पहले तुम्हारे दुख छीनेगा, फिर तुम्हारा सुख भी छीनेगा। क्योंकि दुख अकेले छीन लेने से काम न चलेगा। अगर सुख रह गये, तो उन्हीं में दुख के बीज छिपे हैं, देर-अबेर फिर अंकुर फूट आयेंगे। गुरु तुमसे सभी कुछ छीन लेगा। तुम्हारा सुख भी, तुम्हारा दुख भी। वह तुम्हें भर छोड़ेगा। तुम्हें बिलकुल अकेला छोड़ देगा। और एक बार भी तुम अकेले छूट जाओ और उस भीतर की तुम महिमा को जान लो, जहां न सुख है न दुख; न शांति न अशांति; न संसार न मोक्ष; न पदार्थ न परमात्मा; जहां तुम अपनी निजता में अकेले हो।
एक क्षण को भी वह झलक आ जाये, बस! फिर गुरु की कोई जरूरत न रही। तुम स्वयं गुरु हो गये हो। सारी चेष्टा गुरु की तुमसे छीनते चले जाने की है। और तुम्हारी कठिनाई यह है कि तुम बहुत हैरान होओगे। क्योंकि कल गुरु ने ही तो तुम्हें दिया था यह–कि चलो, यह साधना करो। तुम उससे झगड़ने को खड़े हो जाओगे। जब तुम यही छीनने की बात करते हो, तो दी क्यों थी?–जरूरत थी। कुछ और छीनना था। तुम्हारे हाथ खाली रखने का तुम्हारा अभ्यास न था। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, सूक्ष्म से सूक्ष्म तुम्हें दिया जायेगा और स्थूल छीन लिया जायेगा; आखिर में सूक्ष्म भी छीन लिया जायेगा।
ऐसा हुआ; रिंझाई अपने गुरु के पास था। उसने बड़ी गहरी साधना की; वह शून्य को उपलब्ध हो गया। शून्य को तो शास्त्रों में परम-उपलब्धि कहा है, उसके आगे कुछ और नहीं। उसके आगे कुछ और हो भी क्या सकता है! सभी कुछ खो गया। वह नाचता, आनंद-मग्न गुरु के घर गया, उसने चरणों पर सिर रखा और उसने कहा कि शून्य घटित हो गया है। गुरु ने कहा, शून्य को भी छोड़ कर आ। नहीं तो यह शून्य भी काफी बीज है, फिर पूरा संसार निकल आयेगा। शून्य को छोड़ कर आ।
क्या मतलब है? तुम हाथ में धन को पकड़े थे, मुट्ठी बंद थी, धन छोड़ दिया, ध्यान को पकड़ लिया, मुट्ठी अब भी बंद है। ध्यान छोड़ दिया, शून्य आ गया; मुट्ठी अब भी बंद है–शून्य को पकड़ लिया। और सारी चेष्टा इस बात की है कि मुट्ठी खुल जाये, पकड़ न रहे। क्या पकड़े हो, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है, पकड़े हो, यही उलझन है। न पकड़ो–अनक्लिगिंग, कुछ भी न पकड़ो। मुट्ठी बिलकुल खाली हो जाये। तो रिंझाई के गुरु ने कहा कि जा, अब तू यह शून्य भी छोड़ आ। जिस दिन शून्य छूट जाये, उस दिन आना। फिर शून्य छूटा; वर्षों लग गये शून्य के छूटने में। फिर आया रिंझाई, गुरु के द्वार पर खड़ा हुआ। लेकिन अब बात बिलकुल बदल गई थी। पहली दफा आया था तब आनंदमग्न था। अब न दुख था, न सुख। न उदासी थी, न मग्नता। न इस तरफ, न उस तरफ। अब कोई भावदशा न थी। अब रिंझाई बिलकुल अकेला था। अब रिंझाई कुछ भी लेकर नहीं आया था। खाली हाथ था, वह बाहर दरवाजे पर खड़ा था।
कहते हैं, गुरु खुद उठकर बाहर आया और उसने कहा, रिंझाई अब ठीक है, अब बात बनी। आज कुछ लेकर आये? रिंझाई ने कहा, अब कुछ लाने को नहीं बचा। अब मैं खुद हूं। अब कुछ लेकर नहीं आया हूं, इसलिए बाहर खड़ा हूं, कि भीतर अब क्या जाऊं? कुछ लेकर नहीं आया हूं, क्या कहूंगा आप पूछेंगे तो? कि क्या लेकर आया? कुछ लेकर नहीं आया, बिलकुल अकेला होकर आया हूं। रिंझाई के गुरु ने कहा, बस! यही लाने योग्य है।
धीरे-धीरे जैसे प्याज के छिलकों को हम निकालते जाते हैं, ऐसा गुरु निकालता जाता है। एक दिन शून्य बचता है। पुरानी आदत के अनुसार हम शून्य को पकड़ लेते हैं। क्योंकि बिना पकड़े हमसे नहीं रहा जाता। फिर गुरु शून्य भी छीन लेता है। तुम अकेले हो जाओ बस! यही परम-धन्यता है।
और मन तुम्हें अकेले न होने देगा। क्योंकि मन कुछ भी पकड़ने की आदत है। इसलिए मन को घिसने से मुक्ति नहीं मिलती। मन से मुक्त होना ही मुक्ति है। मन को शुद्ध नहीं करना है। मन कितना ही शुद्ध हो जाये, मन ही रहेगा। जहर को शुद्ध नहीं करना है; जहर कितना ही शुद्ध हो जाए, जहर ही रहेगा; और खतरनाक हो जाएगा।
मन के पार जाना है, अतिक्रमण करना है। अगर समझ से हो सके, तो परम-सुख। अगर यह बात दिखाई पड़ जाये कि कुछ करने को नहीं है। लेकिन धोखा मत देना, कि दिखाई पड़ गई कि अब कुछ करने को नहीं है और जो तुम करते हो, वह करते चले जाओ। वैसे लोग भी हैं, जो धोखा दे लेते हैं। जो सोचेंगे, जब कुछ करने को नहीं, तो ठीक। फिर हम जो कर रहे थे, शराब पी रहे थे, जुआ खेल रहे थे–फिर वही करते जायेंगे। वह तो बहाना है। क्योंकि अगर ‘कुछ करने को नहीं’–दिखाई पड़ जाए, तो तुम बिलकुल रूपांतरित हो जाओगे। आविर्भाव होगा तुम्हारा, नये का। तुम वही नहीं रहोगे, जो तुम थे; यह बोध तुम्हें बिलकुल बदल देगा। पुराना मरेगा, नया जन्मेगा।
लेकिन अगर तुम्हें लगे कि नहीं, समझ इतनी गहरी नहीं, तो ईमानदारी रखना। तो थोड़ी साधना करनी जरूरी होगी। उस साधना से तुम्हें समझ मिलेगी ऐेसा नहीं है, साधना से केवल तुम्हारी पुरानी आदतें टूटेंगी। जिस दिन पुरानी आदत टूट जायेगी, उस दिन समझ आसान हो जायेगी। ध्यान की विधियां परमात्मा तक नहीं ले जाती हैं, ध्यान की विधियां केवल तुम्हारी बाधाओं को नष्ट करती हैं। परमात्मा तक तो तुम पहुंचे ही हुए हो। सिर्फ तुम्हारी बाधाओं को तोड़ देती हैं। अगर तुम देख सको, तो आज भी बाधाओं के पार, तुम परमात्मा हो; न देख सको, तो थोड़ी बाधाओं को तोड़ना जरूरी है।
कांच पर धूल जम गई, उसको अलग करना जरूरी है। लेकिन यह धूल को अलग करना कहीं तुम्हारे जीवन की चर्या न बन जाये! और, ध्यान करना कहीं तुम्हारे जीवन की चर्या न बन जाये! ध्यान वहां तक करना, जहां तक बाधाएं न हट जाएं। जिस दिन बाधाएं हट जाएं, उस दिन ध्यान भी बाधा है। उस दिन ध्यान को भी ऐसे ही छोड़ देना, जैसा और सब बाधाओं को छोड़ दिया।
वही घड़ी आ गई थी मात्सु के जीवन में, जहां अब ध्यान के अतिरिक्त कोई और बाधा न थी; इसलिए गुरु को जाना पड़ा ताकि वह ध्यान भी छोड़ दे।
और गुरु का यह कहना कि ईंट घिसने से दर्पण न बनेगी, न मन घिसने से दर्पण बनेगा; पर्याप्त हुआ होगा। जैसे गुरु ईंट छोड़ कर चला गया होगा; मात्सु मन छोड़ कर चला गया होगा। इसलिए कहानी आगे कुछ नहीं कहती। क्योंकि आगे जो है वह कहने योग्य नहीं है, कहा नहीं जा सकता। पर इतिहास कहता है कि मात्सु बड़ा ज्ञानी हुआ। अनेक लोग उसके शिष्य हुए, अनेक लोगों ने उसके द्वार से भी परमात्मा को पाया और समाधि उपलब्ध की। इसलिए मात्सु ने सुन लिया होगा।
काश! तुम ठीक से सुन सको, तो कुछ करना जरूरी नहीं है। अगर तुम्हारे कान ठीक से सुनने में समर्थ नहीं हैं, तो कुछ करना जरूरी है। उससे सिर्फ कान ठीक हो जायेंगे। तब तुम सुन पाओगे।
एक बात इस कथा से स्मरण रखना। सब साधन, अंततः बाधक हो जाते हैं। जिन सीढ़ियों से आदमी चढ़ते हैं, अक्सर उन्हीं में उलझ जाते हैं। और जो रास्ता मंजिल तक ले जाता है, अगर तुम उसी रास्ते में उलझ गये तो वही तुम को मंजिल तक जाने से रोकने का कारण हो जायेगा। रास्ते को भी छोड़ने की तैयारी रखना। विधि को भी फेंक देने के लिए हिम्मत रखना। अभी संसार छोड़ने की चेष्टा करते हो, कल ध्यान, योग को भी छोड़ना पड़ेगा…इसको स्मरण रखना। उनसे राग मत बना लेना। अन्यथा वे ही तुम्हारे संसार हो जायेंगे। और जहां राग है, वहां मन है; जहां मन है, वहां संसार है।
मन का अतिक्रमण मोक्ष है।
आज इतना ही।