UPANISHAD
Ek Omkar Satnam 15
Fifteenth Discourse from the series of 20 discourses – Ek Omkar Satnam by Osho. These discourses were given during NOV 21 – DEC 10 1974.
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पउड़ी: 30
एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।
इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीवाणु।।
जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु।
ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु।।
आदेसु तिसै आदेसु।।
आदि अनीलु अनादि अनाहतु जुग जुग एको वेसु।।
पउड़ी: 31
आसणु लोइ लोइ भंडार। जो किछु पाइआ सु एका वार।।
करि करि वेखै सिरजनहार। नानक सचे की साची कार।।
आदेसु तिसै आदेसु।।
आदि अनील अनादि अनाहतु जुग जुग एको वेसु।।
परमात्मा की खोज में, उसी मार्ग से वापस जाना होगा, जिस मार्ग से परमात्मा संसार तक आया है। परमात्मा जिस भांति सृष्टि बन गया है, ठीक उससे विपरीत यात्रा करनी होगी। मार्ग तो वही होगा, दिशा बिलकुल बदल जाएगी।
आप अपने घर से यहां तक आए हैं। लौटते समय भी उसी रास्ते से लौटेंगे। रास्ता वही होगा, आप वही होंगे, पैर वही होंगे, चलने की शक्ति वही होगी, सिर्फ दिशा भिन्न होगी। यहां आते वक्त घर की तरफ पीठ थी, जाते समय घर की तरफ मुंह होगा।
सृष्टि तक परमात्मा जिस भांति उतरा है, उसी भांति तुम्हें वापस लौटना होगा। आते समय परमात्मा की तरफ पीठ थी, जाते समय मुंह होगा। इसलिए विमुखता संसार में उतरने का मार्ग है, और परमात्मा की तरफ उन्मुखता उस तक पहुंचने का मार्ग है। सीढ़ी वही, राह वही, सभी कुछ वही है, सिर्फ दिशा बदल जाती है।
कैसे परमात्मा सृष्टि हुआ है, इस संबंध में नानक का यह सूत्र है। यह सूत्र, जिन्होंने भी उसकी खोज की है, ऐसा ही पाया है। न केवल धार्मिकों ने, बल्कि वैज्ञानिकों ने भी। इस संबंध में धर्म और विज्ञान की सहमति है। होगी भी। क्योंकि धर्म तो स्रष्टा को खोजता है, विज्ञान सृष्टि को खोजता है। एक छोर से धर्म खोजता है, दूसरी छोर से विज्ञान खोजता है। विज्ञान वहां से खोजता है जहां तुम हो, और धर्म वहां से खोजता है जहां से तुम आए हो और जहां तुम जाओगे। तुम्हारा प्रारंभ और तुम्हारा अंत धर्म खोजता है, तुम्हारा मध्य विज्ञान खोजता है।
वैज्ञानिक उपलब्धियों में सबसे कीमती उपलब्धि है कि जगत एक ही तत्व से बना है। उस तत्व को वैज्ञानिक कहते हैं, विद्युत, इलेक्ट्रिसिटी। वही ऊर्जा सारे जगत की आधारभूत शिला है। विद्युत के कणों से ही सब कुछ निर्मित हुआ है। एक से सब बना है। इस संबंध में धर्म से विज्ञान राजी है। धर्म उस एक को कहता है, परमात्मा। विज्ञान उसे कहता है, ऊर्जा, एनर्जी।
शब्द का ही भेद है। लेकिन शब्द के भेद से तुम्हारे लिए बहुत फर्क पड़ जाएगा। क्योंकि विद्युत की तो तुम कैसे पूजा करोगे? और विद्युत से तो तुम कैसे प्रेम लगाओगे? और विद्युत को तो तुम कैसे पुकारोगे? विद्युत की तो कैसे प्रार्थना होगी? कैसे अर्चना होगी? विद्युत का तो तुम कैसे मंदिर बनाओगे?
विद्युत तो मस्तिष्क में रह जाएगी। हृदय से उसका कोई नाता न जुड़ेगा। लेकिन परमात्मा उसी ऊर्जा का नाम है। नाम से ही सब फर्क पड़ जाता है। परमात्मा कहते ही बात मस्तिष्क की नहीं रह जाती, हृदय की हो जाती है। और जहां हृदय आया, वहां जुड़ने की संभावना है। मस्तिष्क तोड़ता है, हृदय जोड़ता है। मस्तिष्क से हम अलग होते हैं, क्योंकि मस्तिष्क भेद खड़े करता है। और हृदय से हम एक होते हैं, क्योंकि हृदय के पास अभेद है। वहां सीमाएं मिटती हैं, निर्मित नहीं होतीं। वहां परिभाषाएं बिखरती हैं।
जैसे ही धर्म उस एक को परमात्मा कहता है, वैसे ही हमने ऊर्जा को व्यक्तित्व दे दिया। हमने ऊर्जा को व्यक्ति बना दिया। और अब नाता-रिश्ता हो सकता है। और नाते-रिश्ते पर सब कुछ निर्भर करेगा। क्योंकि जिससे तुम जुड़ ही नहीं सकोगे, उससे तुम्हारे जीवन में रूपांतरण न होगा। विज्ञान उपयोग कर सकेगा ऊर्जा का, पूजा न कर सकेगा। और धर्म उसी ऊर्जा की पूजा कर सकता है। तो विज्ञान गांव-गांव में विद्युत पहुंचा देगा, एटामिक एनर्जी निर्माण कर लेगा, विध्वंस के बड़े उपाय खोज लेगा, लेकिन वैज्ञानिक अछूता रह जाएगा। उसके जीवन में कोई फूल न खिलेंगे।
धार्मिक न तो गांव-गांव में रोशनी कर पाएगा, न अणु-बम बना सकेगा, लेकिन हृदय-हृदय में रोशनी कर सकेगा। और वह रोशनी बड़ी है। और हृदय-हृदय में एक गीत, एक नृत्य भर सकेगा, और वह प्रकाश बड़ा है। पर एक संबंध में सहमति है कि एक से ही सब हुआ।
दूसरी बात में भी सहमति है कि जब एक विघटित होता है तो तीन में विघटित होता है। विज्ञान कहता है, इलेक्ट्रिसिटी तीन में टूटती है–इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोट्रान। फिर इन तीन कणों से सारा जगत निर्मित होता है। धर्म भी कहता है कि वह एक, त्रिमूर्ति हो जाता है। क्रिश्चियन कहते हैं, वह एक, ट्रिनिटी हो जाता है।
हिंदुओं ने त्रिमूर्ति बनायी। उसके चेहरे तीन हैं, लेकिन भीतर एक व्यक्ति है। चेहरे तीन हैं। अगर चेहरों से हम प्रवेश करें तो हम एक में पहुंच जाएंगे–ब्रह्मा, विष्णु, महेश। हिंदुओं ने तीन नाम दिए हैं। जब वह एक विघटित होता है, सृष्टि तक आता है, तो तीन हो जाता है।
और बड़ी हैरानी की बात तो यह है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को हिंदुओं ने जो अर्थ दिया है, वही अर्थ इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोट्रान को विज्ञान ने दिया है। वही अर्थ! क्योंकि सृष्टि की पूरी प्रक्रिया के लिए जन्म चाहिए, जन्म देने वाला चाहिए; फिर जिसका जन्म होगा उसकी मृत्यु होगी, तो मृत्यु चाहिए, मारने वाला चाहिए; और जन्म और मृत्यु के बीच में समय बीतेगा, तो कोई संभालने वाला चाहिए। तो ब्रह्मा जन्म का सूत्र, विष्णु संभालने का सूत्र, और शिव विनाश का सूत्र। और ये ही तीन गुण इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोट्रान के हैं। उसमें एक संभालता है; एक आधारभूत है, जिससे जन्म होता है; और एक विघटन में ले जाता है, जिससे विनाश होता है।
एक तीन में हुआ और फिर तीन अनंत में हो गया है। अब परमात्मा तक जाना हो तो अनंत को पहले तीन में लाना पड़े, और तीन को फिर एक से जोड़ना पड़े, और एक हो जाना पड़े। यह उलटी यात्रा होगी। गंगा को गंगोत्री की तरफ ले जाना पड़ेगा, मूल स्रोत की तरफ। तो अनेक से दृष्टि तीन पर रोकनी पड़ेगी। तीन बीच की मंजिल होगी। और तीन के बाद एक रह जाएगा।
साधारण सांसारिक आदमी अनेक में भटका हुआ है। कितनी वासनाएं हैं, कितनी आकांक्षाएं हैं, कोई हिसाब? हर वासना में कितनी-कितनी और वासनाएं लग जाती हैं। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। कोई अंत नहीं। कितनी चाहें हैं। पूरी होने का कोई उपाय नहीं दिखता। और कितना साधन, कितनी सामग्री, सब भी तुम पा लो, तो भी कुछ हल न होगा। क्योंकि पाने वाला अतृप्त ही रहेगा। और जितना तुम पाते जाओगे उतना तुम अनेक में भटकते जाओगे। उतना एक से दूरी होने लगेगी। जितने तुम एक से दूर होते हो उतने ही दुखी हो जाओगे। जितना फासला बढ़ेगा उतने दुखी हो जाओगे। जैसे कोई प्रकाश के स्रोत से जितना दूर होता जाए, उतना अंधेरे में पड़ता जाएगा; बहुत दूर हो जाए, तो गहन अंधकार में हो जाएगा।
अनेक में जाने का अर्थ है, एक से बहुत फासला हो गया। और हम सब अनेक में हैं। इसी को हम सांसारिक कहते हैं, जो अनेक में है। जो अनेक से तीन में आ गया, उसको हम साधक कहते हैं। वह दोनों के मध्य में है। और जो तीन से एक में आ गया, उसको हम सिद्ध कहते हैं। वह वापस वहां पहुंच गया है, जहां परमात्मा मूल में था।
अब इसे हम थोड़ा सा समझें। अनेक से तीन को तुम कैसे पैदा करोगे? अनेक से तीन को पैदा करने की विधि का नाम ही साक्षी-भाव है, विटनेसिंग है। अगर तुम अपनी वासनाओं को देखो, उनके साक्षी बन जाओ, भोक्ता नहीं। भोक्ता अनेक होने की विधि है। भोक्ता और कर्ता, मैं कर रहा हूं, और मैं भोग रहा हूं; तो फिर तुम अनेक में बिखर जाओगे। इस अनेक को तीन में लाने की विधि है, साक्षीभाव। तुम जो भी कर रहे हो, उसे करने वाले की तरह नहीं, दर्शक की तरह, देखने वाले की तरह। तुम्हारे जीवन में जो भी सुख-दुख घट रहे हैं, उनको भी तुम द्रष्टा की तरह। तब तुम अचानक पाओगे कि तीन आ गए। एक है द्रष्टा, और एक वह जो अनेक का जगत है, वह पूरा का पूरा दृश्य हो गया। अब उसमें अनेकता न रही। वह सभी दृश्य हो गया। और दोनों के बीच में जो संबंध है, वह दर्शन। द्रष्टा, दर्शन और दृश्य–तुम तीन पर वापस आ गए।
जैसे ही साक्षीभाव सधता है, तुम साधक हो जाते हो। वही संन्यासी की दशा है। अनेक से तीन पर आ जाना, संन्यास। तुम जो भी करो, उसको द्रष्टा-भाव से–रास्ते पर चलो, भोजन करो, कपड़े पहनो, पैर टूट जाएं, दर्द हो, बीमारी आए, सुख हो, लाटरी मिल जाए–कुछ भी हो, तुम देखते रहना। और एक ही बात संभालने की है कि तुम अपने साक्षीभाव को मत खोना।
और उसको खोने के दो ढंग हैं। अगर तुम भोक्ता बन गए, तो खो गया। अगर तुम कर्ता बन गए, तो खो गया। अगर तुमने कहा, यह मैंने किया, तो उस क्षण में तुम साक्षी न रह सकोगे। नशा पकड़ गया। अकड़ आ गयी। और जैसे ही नशा पकड़ता है, तुम वही न रहे, जो गैर-नशे के थे।
मैंने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि रोज सुबह देखता हूं कि तुम्हारा नौकर थाली में सजा कर दो गिलास शराब के ले जाता है। कमरे में तो तुम अकेले ही हो। लगता ऐसे है, जैसे कोई और भी है। नसरुद्दीन ने कहा कि जब मैं एक गिलास पी लेता हूं तो दूसरा ही आदमी हो जाता हूं। और उस दूसरे की भी खातिर करना मेरा फर्ज है।
जैसे ही तुम नशे में गए कि तुम दूसरे आदमी हो गए। वही तो तुम नहीं हो। बस, नशे में होने का फासला ही तो संन्यासी और संसारी का फासला है।
और नशा क्या है बड़ा से बड़ा? बड़े से बड़ा नशा अहंकार का है। और सब नशे टूट जाते हैं, और सब नशे ऊपर-ऊपर हैं। घड़ी रहते हैं, चले जाते हैं। अहंकार का नशा बड़े से बड़ा है, क्योंकि जन्मों-जन्मों तक चलता है। छोड़-छोड़ कर भी तुम पाते हो कि वह खड़ा है। भाग-भाग कर भी तुम पाते हो कि छाया की तरह साथ चला आया है। हजार बचने के उपाय करते हो, फिर भी तुम पाते हो कि वह तुम्हारे साथ ही बच गया है। विनम्रता की कितनी साधना करते हो, फिर भी पाते हो, वह भीतर मौजूद है।
अहंकार सूक्ष्मतम नशा है। साक्षी जागना है और अहंकार सो जाना है। जैसे ही तुम कर्ता बने, तुम सो गए, नींद आ गयी। जैसे ही तुम भोक्ता बने, कि मैं भोग रहा हूं, तुम सो गए, नींद आ गयी। जैसे ही तुम साक्षी बने, जागरण उठा, होश आया।
होश आते ही अनेक खो जाते हैं, तीन रह जाते हैं। जिसका होश है वह, जिसको होश है वह, और दोनों के बीच जो नाता है। इसको हिंदुओं ने त्रिपुटी कहा है। और यह त्रिपुटी जिसकी लग गयी, वह संन्यासी। वह साधना में डूबने लगा।
जैसे-जैसे ये तीन में तुम रमोगे और अनेक का भटकाव कम होने लगेगा, धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति सध जाएगी कि अनेक पैदा ही न होगा, तीन ही रहेंगे। जब अनेक के पैदा होने की सभी संभावना नष्ट हो जाएगी, जब तुम सदा ही साक्षी बने रहोगे, तब अचानक एक दिन तुम पाओगे, तीन भी खो गए। क्योंकि साक्षी जिसको देख रहा है वह, और जो देख रहा है वह, और दोनों के बीच का जो नाता है, जब तुम थिर हो जाओगे, तब तुम अचानक पाओगे कि वे तीनों तो एक हैं।
इसलिए कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं, दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्व्ड। वह जो देख रहा है, वह वही है, जिसे देख रहा है।
लेकिन यह तो आखिरी क्षण में जब तीनों की स्थिति भी एक हो जाती है। सधते, सधते, सधते अनेक का उपाय बंद हो जाता है, संसार विलीन हो जाता है, तीन ही रह जाते हैं। तब धीरे-धीरे, धीरे-धीरे तुम पाते हो कि ये तीनों तो एक हैं। अचानक एक दिन जाग कर तुम्हें दिखायी पड़ता है कि ये तीन तो तीन नहीं हैं। जो देख रहा है, वह वही है, जिसको देख रहा है। और जब दृश्य और द्रष्टा एक हो गए तो बीच का संबंध खो गया। क्योंकि संबंध तो तभी तक था जब तक दो थे। जहां दो हैं, वहां तीन होंगे, क्योंकि दो के बीच संबंध होगा। और जहां एक बचा, वहां कैसे संबंध होगा? कौन किससे संबंधित होगा? इसलिए बीच का संबंध खो जाता है।
यह है यात्रा वापस लौटने की। जहां तुम एक हो गए, वहां तुम परमात्मा। जहां तुम अनेक हो गए, वहां तुम संसार। और वह त्रिमूर्ति बीच में खड़ी है। यही नानक इन सूत्रों में कह रहे हैं। इन्हें समझने की कोशिश करें।
एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।
इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीवाणु।।
जिव तिसुभावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु।
‘एक माया ने युक्तिपूर्वक तीन चेलों को जन्म दिया। उसमें एक संसारी ब्रह्मा हैं, एक भंडारी विष्णु हैं, और एक दीवान प्रलयंकर महेश हैं। लेकिन परमात्मा अपनी इच्छा के अनुसार, फरमान के मुताबिक उन्हें भी संचालित करता है।’
एक से तीन, तीन से अनेक। लेकिन कितने ही दूर तुम हो जाओ, उसके फरमान के बाहर नहीं हो पाते। कितने ही बिखर जाओ, कितने ही टूट जाओ अनेक में, वह फिर भी तुम्हारे भीतर मौजूद है। क्योंकि उसके खोते तो तुम बचोगे ही न। तुम भटक सकते हो, तुम दूर जा सकते हो, लेकिन इतने दूर नहीं जा सकते जहां कि लौटने का उपाय न रह जाए। क्योंकि ऐसी कोई जगह ही नहीं, जहां तुम जा सको, जहां से लौटना संभव न हो।
इसलिए कोई भी व्यक्ति असाध्य नहीं है। गहन से गहन पाप में पड़ा हुआ, गहन से गहन अंधकार में पड़ा हुआ भी, असाध्य नहीं है। आध्यात्मिक अर्थों में असाध्य रोग होता ही नहीं। सभी रोग साध्य हैं। आध्यात्मिक अर्थों में तुम इतने दूर जा ही नहीं सकते जहां से लौटना असंभव हो जाए।
क्योंकि जहां भी तुम जाओगे, वह मौजूद है। जितने दूर भी जाओगे, वही तुम्हें ले जाएगा। उसके सहारे ही तुम दूर भी जाओगे। पाप भी करोगे, तो उसका ही सहारा चाहिए। क्योंकि पापी में भी वही सांस ले रहा है। पापी के हृदय में भी वही धड़क रहा है। दूर हम जा सकते हैं, विस्मरण हम कर सकते हैं, लेकिन परमात्मा को खोने का कोई उपाय नहीं।
तो तुम जब पूछते हो कि परमात्मा को कैसे खोजें? तुम्हारा प्रश्न ठीक नहीं है। क्योंकि तुमने उसे खोया नहीं। तुम चाहो तो भी उसे खो नहीं सकते। क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। वह तुम ही हो, तुम उसे खोओगे कैसे? वह तुमसे भिन्न होता, तो खो देते, कहीं भूल आते, कहीं रख आते। तुम भूल कर भी उसे कहीं रख कर नहीं आ सकते हो, क्योंकि वह तुम ही हो। तुम उसे भूल नहीं सकते। तुम उसे खो नहीं सकते। फिर क्या हो जाता है? तुम सिर्फ विस्मरण कर सकते हो। अपने को भी भूलने का उपाय है। अपने को भी आदमी भूल सकता है। स्वभाव को भूल सकता है, फिर भी स्वभाव भीतर मौजूद रहेगा।
मेरे एक मित्र हैं, वकील हैं। भुलक्कड़, बहुत भुलक्कड़ स्वभाव के हैं। कुछ भी भूल जाते हैं। अदालत में किस पक्ष की तरफ से बोल रहे हैं, वह भी भूल जाते हैं। किसने उनको वकील किया है, यह भी भूल जाते हैं। पर बड़े वकील हैं। तो एक बार दूसरे गांव किसी अदालत, किसी मामले के लिए गए। वहां जा कर वे मुवक्किल का नाम भूल गए। तो स्टेशन से उन्होंने तार किया अपने मुंशी को कि नाम क्या है? तो मुंशी ने तार किया, उन्हीं का नाम लिख भेजा–लक्ष्मीनारायण। मुंशी समझा कि शायद अब अपना ही नाम भूल गए!
अपने को भी भूलने की संभावना है। तुम सभी उसके सबूत हो। सारा संसार इसका प्रमाण है कि अपने को भूलने की संभावना है। और भूलने का उपाय क्या है? जो भूलने का उपाय है वही याददाश्त का उपाय होगा। जिस ढंग से भूले हो, उसी ढंग से याद आएगी।
भूलने का उपाय क्या है? भूलने का उपाय है, तुम्हारा ध्यान, वस्तुओं पर बहुत ज्यादा अटक जाए, तो तुम अपने को भूल जाओगे। क्योंकि ध्यान से ही स्मरण आता है, ध्यान से ही विस्मरण होता है। जिस तरफ तुम ध्यान देते हो, उसकी याद आ जाती है। जिस तरफ से ध्यान हट जाता है, उसकी याद खो जाती है। जब तुम किसी वस्तु के पीछे लग जाते हो, तब तुम्हारा ध्यान वस्तु की तरफ जाता है, और ध्यान के पीछे अंधेरा हो जाता है–दीया तले अंधेरा। तुम देखने लगते हो संसार को और अपने को भूल जाते हो। देखने में इतने लीन हो जाते हो, इसलिए अपने को भूल जाते हो। जागने का एक ही उपाय है कि देखने की लीनता को तोड़ो। देखते वक्त भी याद रखो कि मैं देख रहा हूं। देखते वक्त भी देखने वाले को मत भूलो। दृश्य कितना ही सुंदर हो, तुम झकझोर कर अपने को याद रखो। दृश्य कितना ही मनमोहक हो, दृश्य कितना ही पकड़ लेने को हो, तो भी तुम झकझोर कर अपने को याद रखो।
लेकिन असली में तो तुम भूलोगे ही। तुम तो एक फिल्म भी देखते हो, वहां भी अपने को भूल जाते हो। तुम भूल ही जाते हो कि यह पर्दा है। तुम भूल ही जाते हो कि धूप-छांव का खेल है। वहां भी लोग रोते हैं, आंसू बहते हैं। वहां भी लोग हंसते हैं। वहां भी लोग उदास हो जाते हैं। उदास चित्र हो, कोई ट्रेजेडी हो, तो तुम हाल के बाहर निकलते लोगों को देखो। जैसे कोई मर गया है, बड़ा मातम है। फिल्म अगर बहुत सनसनीखेज हो, तो तुम देखो हाल में बैठे लोगों को; लोग उठ-उठ कर सजग हो जाते हैं, रीढ़ सीधी कर लेते हैं। फिर विश्राम करने लगते हैं। भूल ही जाते हैं कि सामने सिर्फ खाली पर्दा है, और धूप-छांव का खेल है। और ऐसा नहीं कि छोटे-छोटे लोग भूल जाते हैं कि नासमझ भूल जाते हैं, बड़े समझदार भी भूल जाते हैं।
ईश्वरचंद्र के जीवन में एक उल्लेख है। बड़े विद्वान थे, विद्यासागर की उन्हें उपाधि थी, वे एक नाटक देखने गए थे। और उस नाटक में एक आदमी है, जो व्यभिचारी है, पापी है, चोर है, गुंडा है, लफंगा है। वह हर तरह से सता रहा है लोगों को। और अंततः उसने एक स्त्री को, रात के अंधकार में, एक जंगल में पकड़ लिया है। ईश्वरचंद्र सामने ही बैठे थे। ख्यातिनाम विद्वान थे, समादृत अतिथि की तरह वहां आए थे। उनको इतना गुस्सा चढ़ गया कि वे यह भूल ही गए कि यह नाटक है। छलांग लगा कर मंच पर चढ़ गए, जूता निकाल कर उस आदमी की पिटाई कर दी।
वह आदमी विद्यासागर से ज्यादा समझदार साबित हुआ। उसने जूते को ले लिया और कहा कि यह जूता न लौटाऊंगा। क्योंकि यह मेरा सब से बड़ा पुरस्कार है। मेरे अभिनय से कोई इतना अभिभूत कभी भी नहीं हुआ था। यह जूता मैं आपको न दूंगा। जूता उसने लौटाया नहीं। विद्यासागर बहुत पछताए कि कैसी यह भूल हो गयी।
लेकिन अगर ध्यान बहुत लग जाए, तो रोज यह भूल हो रही है। देखते-देखते द्रष्टा भूल ही जाता है। दृश्य सब कुछ हो जाता है। और जब दृश्य सब हो जाता है, तब तुम मृगमरीचिका में चले। अब तुम भटके। और यह आदत अगर मजबूत हो जाए, तो जो भी तुम देखोगे, वही सच हो जाएगा।
इसलिए तो रात में सपना भी सच मालूम पड़ता है। क्योंकि यह आदत बहुत मजबूत हो गयी है। जो भी दिखायी पड़ता है, वही सच है। तो रात तुम सपना देखते हो, रोज तुम देखते हो और सुबह उठ कर तुम जानते हो कि झूठ था, फिर तुम देखोगे और फिर भूल जाओगे। और जब रात सपना देखते हो तो बिलकुल सच हो जाता है। अगर सपने में कोई तुम्हें मार ही डाल रहा है, तो तुम चीखते हो। सपना भी टूट जाता है, तब भी थोड़ी देर तक छाती धड़कती रहती है। सपने में कोई मर गया है तो तुम रोते हो। सुबह उठ कर देखते हो कि आंसू बहे होंगे, क्योंकि तकिया गीला है। और तुमने कितनी बार सपना देखा! और हर बार सुबह तुमने पाया है कि सपना झूठा है। सपना सपना है। लेकिन दस-बारह घंटे बाद फिर भूल हो जाती है।
क्या कारण होगा कि सपना सच मालूम होता है? इतनी बार देखने के बाद भी सपना सच मालूम होता है। क्या कारण है? क्योंकि तुम जो भी देखते हो, उसको तुमने सच मानने की आदत बना ली है। जब तक यह आदत न टूटे तब तक बड़ी कठिनाई होगी।
तंत्र में एक बहुत पुरानी प्रक्रिया है। और वह प्रक्रिया यह है कि तुम जब तक सपने में यह न जान लो कि यह झूठा है, तब तक तुम संसार को झूठा न जान सकोगे।
यह उलटा हुआ। अभी तुमने संसार को सच माना है, इसलिए सपना तक सच मालूम होता है। तंत्र कहता है, सपने में जब तक तुम न जान लो कि सपना झूठा है, तब तक तुम संसार को माया न समझ सकोगे। और बड़ी सूक्ष्म विधियां तंत्र ने विकसित की हैं–सपने में कैसे जानना?
तुम थोड़े प्रयोग करना। कुछ भी एक बात तय कर लो। रात सोते समय उसको तय किए जाओ। यह तय कर लो कि जब भी मुझे सपना आएगा, तभी मैं अपना बायां हाथ जोर से ऊपर उठा दूंगा। या अपनी हथेली को अपनी आंख के सामने ले आऊंगा–सपने में। इसको रोज याद करते हुए सोओ। इसकी गूंज तुम्हारे भीतर बनी रहे। कोई तीन महीने लगेंगे। अगर तुम इसको रोज दोहराते रहे, तो तीन महीने के भीतर, या तीन महीने के करीब, एक दिन अचानक तुम सपने में पाओगे, वह याददाश्त इतनी गहरी हो गयी है, अचेतन में उतर गयी कि जैसे ही सपना शुरू होता है, तुम्हारी हथेली सामने आ जाती है। और जैसे ही तुम्हारी हथेली सामने आयी, तुम्हें समझ में आ जाएगा, यह सपना है। क्योंकि वे दोनों संयुक्त हैं। सपने में हथेली सामने आ जाए।
तंत्र में एक प्रक्रिया है कि सपने में तुम जो भी देखो–अगर तुम एक रास्ते से गुजर रहे हो, बाजार भरा है, दूकानें लगी हैं–तो तुम किसी भी एक चीज को ध्यान से देखो, दूकान को ध्यान से देखो। और तुम हैरान होगे कि जैसे ही तुम ध्यान देते हो, दूकान खो जाती है। क्योंकि है तो है नहीं; सपना है। फिर तुम और चीजें ध्यान से देखो। रास्ते से लोग गुजर रहे हैं। जो भी दिखायी पड़े, उसको गौर से देखते रहो, एकटक। तुम पाओगे, वह खो गया। अगर तुम सपने को पूरा गौर से देख लो, तुम पाओगे, पूरा सपना खो गया। जैसे ही सपना खोता है, नींद में भी ध्यान लग गया। समाधि आ गयी।
सपने से शुरू करे कोई जागना, तो यह सारा संसार सपना मालूम होगा। यह खुली आंख का सपना है। लेकिन हमारी आदत गहन है। दृश्य में हम खो जाते हैं। और जब दृश्य में खो जाते हैं, तो द्रष्टा विस्मरण हो जाता है। हमारी चेतना का तीर एकतरफा है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था कि जिस दिन तुम्हारी चेतना का तीर दुतरफा हो जाएगा, तीर में दोनों तरफ फल लग जाएंगे, उसी दिन तुम सिद्ध हो जाओगे। तो सारी चेष्टा गुरजिएफ करवाता था कि जब तुम किसी को देखो, तब उसको भी देखो और अपने को भी देखने की कोशिश जारी रखो कि मैं देख रहा हूं। मैं द्रष्टा हूं। तो तुम तीर में एक नया फल पैदा कर रहे हो, तीर तुम्हारी तरफ भी और दूसरे की तरफ भी।
मुझे तुम सुन रहे हो, सुनते वक्त तुम मुझ में खो जाओगे। तुम सुनने वाले को भूल ही जाओगे। तुम सुनने वाले को भूल गए, तो भूल हो गयी। सुनते समय सुनने वाला भी याद रहे। तो मैं यहां बोल रहा हूं, तुम वहां सुन रहे हो, और तुम यह भी साथ जान रहे हो कि मैं सुन रहा हूं। तब तुम सुनने वाले से पार हो गए। एक ट्रांसनडेन्स, एक अतिक्रमण हो गया, साक्षी का जन्म हुआ।
और जैसे ही साक्षी पैदा होता है, वैसे ही मनुष्य अनेक से तीन में आ गया। त्रिवेणी आ गयी। त्रिवेणी के बाद एक तक पहुंचना बहुत आसान है। क्योंकि एक कदम और! और जैसे-जैसे त्रिवेणी सघन होती जाती है, वैसे-वैसे एक ही रह जाता है। क्योंकि त्रिवेणी, तीनों नदियां एक में खो जाती हैं।
हम प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं। और तीर्थराज इसीलिए कहते हैं कि वह त्रिवेणी है। और त्रिवेणी भी बड़ी अदभुत है। उसमें दो तो दिखायी पड़ती हैं और एक दिखायी नहीं पड़ती। सरस्वती दिखायी नहीं पड़ती। वह अदृश्य है। गंगा और यमुना दिखायी पड़ती हैं।
तुम जब भी किसी चीज पर ध्यान दोगे, तो ध्यान देने वाला और जिस पर तुमने ध्यान दिया– सब्जेक्ट और आब्जेक्ट–दो तो दिखायी पड़ने लगेंगे। उन दोनों के बीच का जो संबंध है, वह सरस्वती है, वह दिखायी नहीं पड़ता। लेकिन तीनों वहां मिल रहे हैं। दो दृश्य नदियां, और एक अदृश्य नदी। और जब तीनों मिल जाते हैं, एक अपने आप घटित हो जाता है।
नानक कहते हैं, एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।
एक मां से, एक माया से, तीन प्रामाणिक चेलों का जन्म हुआ। उसमें एक संसारी ब्रह्मा है, एक भंडारी विष्णु है, एक दीवान प्रलयंकर महेश है।
तुमने कभी ब्रह्मा का कोई मंदिर देखा? सिर्फ एक मंदिर है भारत में। लोगों ने ब्रह्मा के मंदिर बनाए नहीं। क्योंकि ब्रह्मा संसारी है।
उनसे संसार का जन्म होता है, उनकी क्या पूजा करनी है!
शिव के मंदिर संसार में सर्वाधिक हैं। गांव-गांव, गली-गली, कहीं भी पत्थर रख दिया, और झाड़ के नीचे शिव का मंदिर हो गया। क्योंकि शिव के साथ संसार का अंत होता है। वे मृत्यु के देवता हैं। वे पूजा-योग्य हैं। ब्रह्मा संसार को जन्म देते हैं, शिव मिटाते हैं। और भारत की बड़ी आकांक्षा, किस भांति संसार मिट जाए, वही है। कैसे मुक्ति हो जाए। इसलिए शिव के मंदिर जगह-जगह हैं।
विष्णु के भी मंदिर हैं। क्योंकि हममें से बहुत से लोग हैं, जो मिटने से भयभीत हैं, डरे हुए हैं। वे विष्णु के पूजक हैं। इसलिए दूकानदार विष्णु के पूजक हैं। वे भयभीत हैं, वे संसार को पकड़ना चाहते हैं। विष्णु भंडारी हैं। वे मध्य हैं, वे सम्हाले हुए हैं। इसलिए वे लक्ष्मी-पति हैं। इसलिए उनकी पत्नी का नाम लक्ष्मी है। वे धन के देवता हैं। तो जिनको धन की पकड़ है, वे लक्ष्मी की पूजा कर रहे हैं।
यह भी बड़ा सोचने जैसा है। क्योंकि अगर पति को पकड़ना हो, तो पत्नी की तरफ से पकड़ने के सिवाय और कोई उपाय नहीं। छोटी-मोटी रिश्वत में भी वही करना पड़ता है, बड़ी से बड़ी रिश्वत में भी वही करना पड़ता है। अगर पत्नी को प्रसन्न कर लिया तो साहब प्रसन्न हैं। अगर पत्नी को प्रसन्न कर लिया तो मंत्री राजी है। अगर लक्ष्मी को प्रसन्न कर लिया तो विष्णु राजी हैं। आदमी के मन का विस्तार तो एक ही जैसा है।
विष्णु संसार को सम्हाले हुए हैं। इसलिए जिनको संसार में रहने की आकांक्षा है, वे विष्णु की पूजा कर रहे हैं। शिव अंत हैं। वह महामृत्यु हैं। संन्यासी के देवता शिव हैं। इसलिए शिव के बड़े मंदिर हैं, गांव-गांव, कूचे-कूचे। और सस्ते में बनने चाहिए, क्योंकि संन्यासी के देवता हैं। तो विष्णु के मंदिर तो बिड़ला बना देंगे। शिव का मंदिर कौन बनाएगा? इसलिए शिव का मंदिर बड़ा सस्ता है। उसमें कुछ खर्च होता ही नहीं। एक पत्थर तुमने रख दिया गोल ढूंढ कर कहीं से, वह शिव-लिंग हो गया। दो पत्ते चढ़ा दिए–फूल तक की भी जरूरत नहीं है। बेलपत्र चढ़ा दिए, पूजा हो गयी।
ये तीन देवता, जीवन के तीन सूत्र हैं। जन्म, जीवन, मृत्यु। और ध्यान रखना, जन्म तो हो चुका है, इसलिए ब्रह्मा की क्या पूजा? जो हो ही चुका है, उसकी बात खत्म हो गयी। जीवन अभी है, इसलिए कुछ विष्णु की पूजा में लीन हैं। लेकिन वे बहुत समझदार नहीं हैं, क्योंकि जीवन हाथ से जा रहा है। और जब तक तुम्हारे जीवन में मृत्यु का बोध न आए, तब तक तुम संन्यस्त न हो सकोगे। तुम संसारी बने रहोगे।
संसारी और संन्यस्त का फर्क क्या है? संन्यस्त को यह समझ में आ गया कि सब जीवन मृत्यु में समाप्त होगा। सब होना अंततः न होना हो जाएगा। जो बना है, वह मिटेगा। जो सजाया है, संवारा है, वह उजड़ेगा। जो भवन निर्मित हुआ है, वह गिरेगा। जिसको मृत्यु दिखायी पड़ गयी। जिसको मृत्यु का स्मरण आ गया। और जिसे लगने लगा कि यह तो खंडहर है जिसमें हम थोड़ी देर रुके हैं। यह ज्यादा से ज्यादा पड़ाव है, मंजिल नहीं है। जिसको मृत्यु का बोध आ गया, उसके जीवन में क्रांति घट जाती है।
देखो, मनुष्य को छोड़ कर, पशु हैं, पौधे हैं, पक्षी हैं, उनमें कोई धर्म नहीं है। क्योंकि उनको मृत्यु का कोई बोध नहीं है। मरेंगे वे भी, लेकिन उन्हें कुछ पता नहीं कि मृत्यु आ रही है। क्योंकि मृत्यु को देखने के लिए जो चेतना चाहिए, वह उनके पास नहीं है।
मनुष्यों में भी तुम तब तक पशु ही हो, जब तक तुम्हें मृत्यु साफ-साफ न दिखायी पड़ने लगे। जब तुम्हें साफ दिखायी पड़ने लगे कि यह अंत आ रहा है, जैसे ही तुम्हें अंत दिखायी पड़ेगा, तुम्हारे जीवन-मूल्य बदल जाएंगे। कल तक जो महत्वपूर्ण मालूम पड़ता था, वह व्यर्थ मालूम पड़ने लगेगा। कल तक जो बड़ा सार्थक लगता था, मृत्यु के दिखायी पड़ते ही व्यर्थ हो जाएगा। कल तक बड़े सपने संजोए थे, बड़े इंद्रधनुष बांधे थे वासनाओं के, और मृत्यु ने द्वार पर दस्तक दी, सब गिर जाएंगे।
दस्तक तो मृत्यु ने उसी दिन दे दी जिस दिन तुम पैदा हुए। जिस दिन ब्रह्मा ने काम शुरू किया, शिव का काम उसी दिन हो गया। लेकिन तुम्हें होश नहीं है। होश आ जाए मृत्यु का, तो मृत्यु के होश के साथ ही परावर्तन होता है, कनवर्शन होता है। जैसे ही मृत्यु का होश आता है, तुम लौटते हो स्रोत की तरफ। तुम्हारा मुख बदलता है। तुम फिर संसार की तरफ नहीं जाते। क्योंकि वहां सिवाय मृत्यु के कुछ भी नहीं है। तब तुम अपनी तरफ आते हो। और अपनी तरफ आना परमात्मा की तरफ आना है। जिसने जान लिया मृत्यु को, मृत्यु की चोट तुम्हें ईश्वर का स्मरण दिलाएगी। इससे कम में कुछ भी न होगा। और जिसने भुला दिया मृत्यु को, वह ईश्वर को विस्मरण रखे रहेगा। बहुत बार तुम मरे हो, बहुत बार तुम जन्मे हो, लेकिन अब तक तुम मृत्यु को भुलाए हुए रहे हो।
मृत्यु को याद करो। मृत्यु को जीवन का केंद्रीय तथ्य बना लो। क्योंकि जीवन में और कुछ भी निश्चित नहीं है, एक मृत्यु ही सिर्फ निश्चित है। और सब तो अनिश्चित है। होगा, न होगा। लेकिन मृत्यु तो निश्चित ही होगी। उस निश्चित को तुम केंद्रीय तत्व बना लो। और उस निश्चित के आधार पर तुम जीवन की यात्रा करो। तो तुम पाओगे कि तुम अनेक से तीन की तरफ आने लगे। और जो तीन के पास आ गया, उसका एक की तरफ का द्वार खुल जाता है।
नानक कहते हैं, ‘लेकिन परमात्मा अपनी इच्छा के अनुसार, अपने फरमान के मुताबिक ही, उन्हें भी संचालित करता है।’
इसे तुम ध्यान में रखना। कुछ भी तुम करो, पाप या पुण्य, अच्छा या बुरा, पास जाओ, दूर भटको, या मार्ग पकड़ो; एक बात याद रखना, तुम उसकी सीमा के बाहर नहीं जा सकते हो। और अगर यह याद बनी रहे, तो पाप से भी बाहर आने का उपाय है। क्योंकि इसी याद के सहारे तुम वापस बाहर आ जाओगे। यह याद बनी रहे तो पुण्य से भी बाहर आ जाओगे। क्योंकि इस याद का अर्थ है, कर्ता मैं नहीं हूं। कर्ता वह है। मैं सिर्फ उपकरण हूं। एक निमित्त हूं, एक माध्यम हूं। वह जो करवा रहा है, मैं कर रहा हूं। मेरा किया कुछ भी नहीं। तो फिर मैं की अकड़ कैसी? तो फिर अहंकार का उपाय क्या? वही जन्म देता, वही जीवन देता, वही ले लेता है। तो मैं क्यों अकडूं? मैं बीच में व्यर्थ ही क्यों परेशान हो जाऊं?
तुमने उस मक्खी की कहानी सुनी होगी, जो एक रथ के पहिए पर बैठी थी। बड़ी धूल उड़ रही थी रथ की। क्योंकि अनेक घोड़े जुते थे। उस मक्खी ने चारों तरफ देख कर कहा कि आज मैं बड़ी धूल उड़ा रही हूं! मक्खी भी रथ के पहिए पर बैठ कर सोचती है कि आज मैं बड़ी धूल उड़ा रही हूं।
तुम भी रथ के पहिए पर हो। यह विराट रथ है। और जो धूल उड़ रही है, वह तुम्हारे कारण नहीं उड़ रही है। जिस दिन तुम समझ लोगे, उस समझ के साथ ही परमशांति अनुभव होगी। क्योंकि सब अशांति अहंकार की है। और अहंकार व्यर्थ ही बीच में चीजों को ले लेता है। जिन्हें तुम कर ही नहीं रहे हो, उन्हें भी अपने कंधे पर ले लेता है।
जैसे ही तुम्हारी समझ साफ हो जाएगी कि तुम मक्खी से ज्यादा नहीं हो रथ के पहिए पर। और विराट रथ है, धूल तुम नहीं उड़ा रहे हो, धूल रथ से ही उड़ रही है, उसी दिन तुम शांत हो जाओगे। उसी दिन तुम्हें लगेगा, जब मैं ही नहीं हूं तो अशांत क्या होना? अशांत होने को कौन बचा? जब तक तुम हो, तुम अशांत रहोगे।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, हम कैसे शांत हो जाएं? मैं उनसे कहता हूं, जब तक ‘हम’ हैं, तब तक कैसे शांत होओगे? लोग पूछते हैं कि मुझे कोई शांति नहीं मिल रही, मुझे शांति दें। मैं उनको कहता हूं, तुम जब तक हो, तब तक शांति दी भी नहीं जा सकती। तुम्हारे न होने का नाम ही शांति है। तुम अपने को हटाओ। तुम एक झूठ हो। तुम एक सपना हो। अगर ठीक से समझो, तो तुम सपने में देखे गए सपने हो।
तुम सपने भी नहीं हो। तुम्हें कभी खयाल है कि कभी-कभी सपने में भी सपना आता है; कि तुम सपने में देखते हो कि तुम सोने जा रहे हो, कि तुम बिस्तर पर सो गए, और फिर तुम देखते हो कि अब तुम सपना देख रहे हो। सपने में सपना आ सकता है। सपने में सपना और उसमें भी सपना आ सकता है।
चीन में एक बहुत प्राचीन कथा है कि एक लकड़हारा जंगल में लकड़ी काट रहा था। थक गया था। तो नीचे उतर कर लेट गया। उसे एक सपना आया। सपना आया कि पास ही एक खजाना गड़ा है। और वह गया और उसने उघाड़ कर देखा तो निश्चित हंडे गड़े थे। और जरा सी ही धूल ऊपर पड़ी थी। हंडों में हीरे-जवाहरात थे। तो उसने सोचा कि रात आ कर, चुपचाप निकाल कर ले जाऊंगा। अभी निकालूंगा तो फंस जाऊंगा। लकड़हारा, गरीब आदमी! और वह तो करोड़ों की संपदा थी। तो उसने वहां एक लकड़ी गड़ा दी, निशान के लिए। घर लौट आया। रात जब हो गयी, तो वह गया। तो देखा लकड़ी तो गड़ी है, लेकिन हंडे कोई निकाल चुका है। तो वह बड़ा हैरान हुआ। वह लौट आया। और उसने अपनी पत्नी से कहा कि मेरी समझ में नहीं आ रहा है, मैंने सपना देखा या सच है! क्योंकि लकड़ी गड़ी है। इससे सबूत मिलता है कि मैंने सपना नहीं देखा। मैं सच में ही…और हंडे भी थे, क्योंकि अब खड्डे खाली पड़े हैं। वह भी प्रमाण है कि मैंने सपना नहीं देखा। लेकिन हंडे कोई निकाल कर ले गया है।
उसकी पत्नी ने कहा कि तुमने सपना ही देखा होगा। तुमने यह भी सपना देखा होगा कि तुम रात गए, और तुमने लकड़ी गड़ी देखी, और लोग हंडे ले गए। शांति से सो जाओ।
लेकिन एक दूसरे आदमी ने उसी रात सपना देखा था। सपने में उसने भी इन हंडों को गड़े देखा, और एक लकड़हारा लकड़ी गड़ा रहा है। जब उसकी नींद खुली–उस आदमी की–तो वह भागा हुआ जंगल की तरफ गया। सच में वहां लकड़ी गड़ी थी। उसने हंडे निकाल लिए। और वह घर आ गया। घर आ कर उसने भी अपनी पत्नी से कहा, मेरी समझ में नहीं आता कि मैंने सपना देखा या सच में मुझे ऐसा अंतर-दर्शन हुआ। कुछ भी हो, हंडे मैं ले आया हूं। हंडे ये रहे। इसलिए ऐसा लगता है कि मैंने सपना नहीं देखा, सच में ही मैंने इस लकड़हारे को लकड़ी गड़ाते देखा, तभी तो मैं हंडे ले आया।
पत्नी ने कहा कि हंडे तो साफ हैं। और अगर तुमने लकड़हारे को लकड़ी गड़ाते देखा, तो यह उचित नहीं है कि हम इन हंडों को रखें। ये सम्राट को पहुंचा दो। वह जो निर्णय करे।
आदमी भला था, हंडे सम्राट को पहुंचा दिए। तब तक शिकायत लकड़हारे की भी आ गयी थी। सम्राट बड़ा परेशान हुआ। उसने कहा, कुछ भी हो, तुमने दोनों ने सपना देखा है या असलियत में देखा, अब इसका निर्णय कौन करे? एक बात पक्की है कि हंडे हैं। तब इस झंझट में तुम न पड़ो, हंडे मैं आधे-आधे कर देता हूं। उसने हंडे आधे-आधे करके बांट दिए।
रात अपनी पत्नी से कहा कि आज एक बड़ी अदभुत बात हुई। इस तरह के दो आदमियों ने सपने देखे। अब सपने देखे, कि सच, कि झूठ? मगर हंडे थे, तो मैंने बांट दिए। पत्नी ने कहा, तुम चुपचाप सो जाओ। तुमने सपना देखा होगा।
चीन में हजारों साल से इस पर विचार चलता है कि सच में सपना किसने देखा? पर जिंदगी के आखिर में ऐसा ही होता है। जो भी हुआ, सब सपने जैसा हो जाता है। पक्का करना मुश्किल हो जाता है कि असलियत में हंडे थे? कि असलियत में लकड़ी गाड़ी थी? कि असलियत में पति-पत्नी थे, बच्चे थे, मित्र थे, परिवार थे, सुख-संपदा थी, दुख थे, अपने थे, पराए थे, संघर्ष हुआ, प्रतियोगिताएं हुईं? जीते-हारे, सफल-असफल हुए? मरते वक्त हर आदमी के सामने ये सब सपने दोहरते हैं। और उसे तय करना मुश्किल हो जाता है कि ये मैंने सपने देखे, या सच में ऐसा हुआ?
जिन्होंने जाना है, वे कहते हैं, यह खुली आंख का सपना है। आंख खुली है जरूर, लेकिन है सपना। सपना इसलिए है कि इसका उससे कोई भी संबंध नहीं, जो सदा रहता
है। यह बीच की भावदशा है। यह बीच का खयाल है। और तुमने जाग कर देखा है या सो कर देखा है, इसमें क्या फर्क पड़ता है? सपने का लक्षण यह है कि अभी है और अभी नहीं है। तो यह जिंदगी भी अभी है और अभी नहीं है। मरते वक्त यह सब खो जाता है।
और इस सपने के भीतर एक और सपना तुम देख रहे हो, जिसका नाम अहंकार है। इन सब सपनों के भीतर तुम अपने को कर्ता मान रहे हो। और तुम बड़े अकड़े हुए हो। और सारी दुनिया को तुम्हारा अहंकार दिखायी पड़ता है, सिर्फ तुम को दिखायी नहीं पड़ता। और उस सारी दुनिया को भी अपने-अपने अहंकार नहीं दिखायी पड़ते। तुम्हारा अहंकार सभी को दिखायी पड़ता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, फलां आदमी बड़ा अहंकारी है। वह आदमी भी आता है। वह भी दूसरों को अहंकारी देखता है।
मुल्ला नसरुद्दीन हमेशा कहा करता था कि मैं एक सौ निन्यानबे कचौड़ी खा सकता हूं। तो मैंने उससे कहा, बड़े मियां, एक खा कर दो सौ पूरी क्यों नहीं कर लेते? एक और खा लो! उसने कहा, क्या समझा है आपने मुझे? पेट है मेरा कि मालगोदाम?
एक सौ निन्यानबे तक मालगोदाम नहीं है! अपना तो दिखायी ही नहीं पड़ता। लेकिन दूसरा एक भी जोड़ दे तो फौरन दिखायी पड़ जाता है। हम अपने तरफ बिलकुल अंधे हैं। अगर दूसरा न हो, तो हमें पता ही न चले। इसलिए दूसरों की बड़ी कृपा है। और साधक समझ लेता है कि दूसरे न हों, तो तुम्हें न अपने अहंकार का पता चलेगा, न अपने रोग का पता चलेगा। इसलिए साधक आखिरी क्षणों में सभी को धन्यवाद देता है, जिन-जिन ने याद दिलायी। जिन-जिन ने सपना तोड़ा।
इसलिए तो कबीर कहते हैं, निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय। वह जो तुम्हारी निंदा करता हो, उसको तो अपने घर ही ले आना। आंगन-कुटी बना कर, छवा कर उसको तो अपने पास ही रखना। क्योंकि वह तो देख लेगा, तुम न देख पाओगे।
जब तक कि तुम्हारा अपना साक्षी न जग जाए तब तक तुम बिलकुल अंधे हो। सपने के भीतर एक सपना है कि मैं हूं। संसार माया है और माया के भीतर एक कर्ता का भाव है कि मैं हूं। सपने का भी सपना है। और वही अड़चन है। और जिस दिन तुम मृत्यु को देखोगे, सब से पहले मैं गिरता है।
क्या करोगे मृत्यु के मुकाबले तुम? कैसे बचाओगे अपने को? नहीं आएगी श्वास तो तुम क्या करोगे? मृत्यु के मुकाबले तुम्हारी सामर्थ्य टूट जाती है। और इसीलिए तो हम मृत्यु को भूले रखते हैं। क्योंकि अगर मृत्यु को याद रखेंगे तो अकड़ टूटती है। क्योंकि मृत्यु के सामने हम बिलकुल असहाय हैं। और अकड़ हमारी कहती है कि हम और असहाय? मैं और असहाय? मुझ जैसा बली, शक्तिशाली, मैं और असहाय? तो बेहतर यह है कि मृत्यु के तथ्य को ही भुला दो। न रहेगी याद मृत्यु की, न अपने अहंकार को चोट लगेगी।
ज्ञानी मृत्यु को याद रखता है। क्योंकि मृत्यु अहंकार को काटती है। जिस दिन तुम मृत्यु को पूरा समझ पाओगे, कैसे अहंकार को बचाओगे? क्या है बचाने योग्य फिर? मृत्यु के सामने तो पराजय है। वहां तो कभी कोई विजेता नहीं हुआ। न कोई सिकंदर, न कोई नेपोलियन, न कोई हिटलर। वहां तो सभी पराजित हैं। मृत्यु के सामने सभी हारे हुए हैं, सर्वहारा हैं। इसलिए हम छुपाते हैं। हम अहंकार को तो पकड़ते हैं, जो झूठ है। और मृत्यु को भूलते हैं, जो सच है। अगर तुम्हें निश्चित ही एक की तरफ जाना हो, तो मृत्यु को याद रखो। क्योंकि वह बड़ा सत्य है। और उस सत्य का सबसे बड़ा परिणाम यह है कि अहंकार गिर जाता है।
च्वांगत्सू लौट रहा था एक रात अपने घर। एक मरघट से निकलता था, एक खोपड़ी पर उसकी लात लग गयी। रात का अंधेरा था। और वह मरघट भी कोई छोटा मरघट न था। बड़े लोगों का मरघट था। रायल फैमिली! और बड़े से बड़े धनी और बड़े से बड़े संपन्न लोग ही सिर्फ वहां गड़ाए जाते थे। तो खोपड़ी कोई छोटी-मोटी न थी। उसने खोपड़ी को उठा लिया और कहा, माफ करना। वह तो जरा समय की देर हो गयी, अगर आज तुम जिंदा होते तो मेरी क्या गति होती! खोपड़ी को साथ ले आया। शिष्यों ने बहुत कहा, इसको फेंकिए। खोपड़ी को कोई घर में थोड़े ही रखता है।
क्यों नहीं रखते घर में खोपड़ी को? रखनी चाहिए सजा कर। उससे ज्यादा एंटीक, कीमती और क्या होगा? और उससे ज्यादा स्मरण दिलाने वाला और क्या होगा? ठीक अपने ड्रेसिंग-टेबल पर रखनी चाहिए कि अपनी शक्ल भी देख ली आइने में, और अपनी खोपड़ी भी देख ली बगल में रखी।
च्वांगत्सू ने रख ली थी। वह अपने बगल में ही रखता उसको। सब भूल जाता लेकिन खोपड़ी अपनी साथ ले कर चलता। लोग उससे पूछते कि इसको हटाइए। यह क्या कर रहे हैं आप?
च्वांगत्सू कहता, आप इतने नाराज क्यों हैं? इस खोपड़ी ने आपका क्या बिगाड़ा? और मैं इसे अपने साथ रखता हूं कि यह मेरी याददाश्त है, कि आज नहीं कल इसी खोपड़ी की तरह मेरी खोपड़ी कहीं पड़ी होगी। भिखारियों के पैर लगेंगे। कोई क्षमा भी नहीं मांगेगा। और मैं कुछ भी न कर सकूंगा। यह खोपड़ी वही रही, अभी भी वही है। च्वांगत्सू कहता, यह खोपड़ी मेरे पास रखी है तो तुम मेरे सिर पर जूता मार जाओ तो मैं तुम्हारी तरफ न देखूंगा, मैं इस खोपड़ी की तरफ देखूंगा। और तब मैं मुस्कुराऊंगा कि यह तो होना ही है। यह तो सदा होगा। कितनी देर बचाऊंगा?
जब मौत बिलकुल तथ्य की तरह दिखायी पड़ने लगती है तो अहंकार विसर्जित हो जाता है। मौत का स्मरण अहंकार के लिए जहर है। इसलिए हम मौत को भूले हुए हैं। और जब तक अहंकार है, तब तक तुम जाग न सकोगे। जैसे ही मौत दिखाई पड़ी, अहंकार टूटा, कि तुम समझोगे कि सब परमात्मा की आज्ञा से हो रहा है। मैं करने वाला नहीं हूं।
‘वह प्रभु तो उन्हें देखता रहता है, परंतु वह उनकी नजर में नहीं आता।’
यह बहुत आश्चर्य की बात है। इसे थोड़ा समझो।
ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु।।
यह बड़े आश्चर्य की बात है। नानक कहते हैं कि वह प्रभु तो यह सब देखता रहता है। इन तीनों ब्रह्मा, विष्णु, महेश को देखता है। लेकिन ये तीनों उसे नहीं देख पाते।
इसे थोड़ा समझें। यह बड़ी कीमती और बड़ी बहुमूल्य बात है। और साधक इसे याद रखे। तुम अपनी आंख से सारे संसार को देखते हो, और तुम्हारे भीतर छिपा हुआ द्रष्टा तुम्हारी आंख को भी देखता है, लेकिन तुम्हारी आंख उसे नहीं देख सकती। तुम अपने हाथ से सारे जगत को छू सकते हो, और तुम्हारे भीतर बैठा हुआ द्रष्टा तुम्हारे हाथ को भी देखता है, लेकिन तुम्हारा हाथ उस द्रष्टा को नहीं छू सकता।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश परमात्मा की तीन आंखें हैं, या तीन चेहरे हैं। ये चेहरे संसार को तो देखते हैं, लेकिन लौट कर परमात्मा को नहीं देख सकते। क्योंकि जो भीतर छुपा है, वह इनकी पहुंच के बाहर है। इसलिए तो तुम तभी उसे देख पाओगे जब तुम्हारी बाहर की आंख बिलकुल बंद हो जाए। इस आंख से तुम उसे न देख सकोगे। इस चेहरे से तुम उसे न पहचान सकोगे। यह चेहरा तो बिलकुल भूल जाए, तभी तुम उसे पहचान सकोगे। क्योंकि भीतर जाना हो तो बाहर जाने के जो-जो उपाय हैं, वे सब छोड़ देने होंगे। वे कोई काम के नहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तो बाहर जाने के उपाय हैं। वह त्रिमूर्ति तो बाहर की तरफ है। उन तीनों के भीतर जो छिपा है, उस तक उन तीनों की कोई पहुंच नहीं है।
बड़ी मीठी कथाएं हैं, भारत में। अनेक कथाएं हैं, जिनमें यह कहा गया है कि जब भी कोई बुद्ध-पुरुष होता है, जैसे गौतम हुए, तो ब्रह्मा स्वयं उनके चरणों में आया। और ब्रह्मा ने उनके चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे ज्ञान दें।
यह बड़ी मीठी कहानी है। नानक उसी की तरफ इशारा कर रहे हैं। क्योंकि बुद्ध-पुरुष ब्रह्मा से ऊंचा हो गया। बुद्ध-पुरुष समस्त देवताओं के पार हो गया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश पीछे छूट गए। क्योंकि वे तो चेहरे थे तीन के। इसने एक को जान लिया। और जिसने एक को जान लिया, वह तीन को जानने वालों से ऊपर हो गया। तीन के बनाने वालों से ऊपर हो गया। खुद ब्रह्मा भी उसकी शरण आते हैं और कहते हैं कि मुझे बताएं, कैसे मैं अपने को जानूं और कैसे उसको पहचानूं?
यह बात मूल्यवान है। क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन हैं अभी भी। और तीन से एक को नहीं जाना जा सकता। तीन छोड़ कर एक को जाना जाता है। हिंदुओं ने बड़ी अदभुत कथाएं लिखी हैं। और सारे जगत में वैसी कथाएं नहीं हैं। और जगत में उन कथाओं को समझना भी बड़ा कठिन है।
कथा है कि ब्रह्मा ने पृथ्वी को पैदा किया। तो पृथ्वी तो उनकी बेटी है। और जैसे यह पृथ्वी पैदा हुई कि ब्रह्मा उस पर आसक्त हो गए। और उसके पीछे भागने लगे। अपने को बचाने के लिए बेटी ने बहुत रूप रखे। और जो-जो रूप बेटी ने रखे, बाप ने भी वही रूप ले कर उसका पीछा किया। बेटी गाय हो गयी, तो बाप सांड हो गया।
पश्चिम में जब पहली दफा पूरब की ये कथाएं पहुंचीं तो उन्होंने कहा, ये किस तरह के देवता! ये तो देवता जैसे मालूम भी नहीं होते। लेकिन भारत की कथाएं मूल्यवान हैं। क्योंकि भारत यह कहता है कि देवता भी सांसारिक है। उनका मुख भी बाहर की तरफ है। और ब्रह्मा भी अपनी बेटी के प्रति आसक्त हो सकता है। बेटी से मतलब यह है कि जो उससे पैदा हुआ है, उसी के प्रति आसक्त हो जाता है।
हम भी तो वही कर रहे हैं। जो हमसे पैदा हुआ है, जो हमारा ही सृजन है, जो हमारा ही सपना है, उसी में हम आसक्त हो जाते हैं। उसी के पीछे हम भागते फिरते हैं। जो वासना हमसे पैदा हुई उसी का हम पीछा करते हैं। यही उस कथा का अर्थ है। जो वासना हमारे ही चित्त का खेल है, जिसे हमने ही जन्माया, जो हमारी पुत्री है, हम उसके पीछे जीवन लगा देते हैं। और अनेक-अनेक रूपों में उसी का पीछा करते हैं, कि किसी तरह वह पूरी हो जाए। देवता उतने ही बंधे हैं, जैसा आदमी बंधा है। तो ब्रह्मा को भी आना पड़ता है बुद्ध-पुरुषों के चरणों में पूछने राज–एक का।
नानक कहते हैं, यह आश्चर्यों का आश्चर्य है कि वह प्रभु तो उन्हें देखता है, उन तीनों को, परंतु वह उनकी नजर में नहीं आता। यह बहुत आश्चर्य की बात है। आश्चर्य की है भी, और नहीं भी। आश्चर्य की इसलिए कि उनमें से एक तो देख रहा है। लेकिन ये तीन क्यों नहीं देख पाते? और आश्चर्य की इसलिए नहीं भी है कि ये तीन देख कैसे पाएंगे? क्योंकि ये पीछे अगर लौटे तो एक हो जाते हैं, तीन नहीं रहते।
इसको तुम ऐसा समझो, आसान हो जाएगा। मैं निरंतर कहता हूं कि तुम कभी परमात्मा से न मिल सकोगे। क्योंकि जिस दिन तुम मिलोगे, तुम न रह जाओगे। मिलने के पहले तुम्हें खो जाना होगा। और जब तक तुम हो तब तक मिलन न होगा। तो तुम्हारा मिलन तो कभी भी न होगा। तुम जब तक हो तब तक परमात्मा नहीं है। और तुम जब न रहे तब परमात्मा है। मिलना कैसे होगा?
वही घटना ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ घटेगी। अगर वे पीछे मुड़ें तो एक हो जाएं। एक होते ही वे नहीं रहे। और जब तक वे हैं, तब तक वे पीछे नहीं मुड़े हैं। इसलिए आश्चर्य भी, और आश्चर्य नहीं भी। और ध्यान रखना, यह कोई ब्रह्मा, विष्णु, महेश की बात नहीं है। तुम्हारी ही बात हो रही है, ये तो सिर्फ प्रतीक हैं।
‘यदि प्रणाम करना हो तो उसको ही प्रणाम करो।’
तो नानक कहते हैं, क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश को तुम प्रणाम कर रहे हो? ये तो उसे देख भी नहीं पाते। वही इन्हें देख रहा है। इसलिए अगर प्रणाम ही करना हो तो उसको ही प्रणाम करो।
‘वह आदि, शुद्ध, अनादि, अनाहद, और युग-युग से एक ही वेश वाला है।’
आदेसु तिसै आदेसु।।
आदि अनीलु अनादि अनाहतु जुग जुग एको वेसु।।
जो सदा एक है, उसको ही प्रणाम करो। उसको ही खोजो, जो आदि भी है, अनादि भी है। जो प्रारंभ भी सबका है और जिसका कोई प्रारंभ नहीं। जो सबके पहले है और जिसके पहले कोई और नहीं। और जो सबके अंत में होगा और जिसके अंत में और कोई नहीं। उस एक को ही प्रणाम करो। उस एक से कम को प्रणाम किए, तो तुम भटकोगे।
लेकिन उस एक को प्रणाम करने की हमारी हिम्मत नहीं जुटती। क्योंकि हम तो प्रणाम भी मतलब से करते हैं। और उस एक को प्रणाम करना हो तो सब मतलब छोड़ना पड़े। हम तो मतलब से प्रणाम करते हैं।
अगर मतलब से प्रणाम करते हो तो देवताओं के पास जाओ। क्योंकि वे तुम्हीं जैसे हैं। तुम्हारी भी वासनाएं हैं, उनकी भी वासनाएं हैं। उनसे तुम मांग करो, तो वे तुम्हारी मांग पूरी कर देंगे। क्योंकि तुम्हारे और उनके बीच एक तारतम्य है। वे तुमसे ज्यादा शक्तिशाली होंगे, लेकिन तुमसे भिन्न नहीं हैं। और जैसी तुम्हारी आकांक्षाएं हैं वैसी उनकी आकांक्षाएं हैं। तो उनकी तुम स्तुति करो, उनकी तुम प्रार्थना-पूजा करो, लेकिन तुम मांगोगे संसार ही। इसलिए विष्णु की पूजा करो, संसार चाहिए तो।
उस एक को तो तभी मांग सकोगे जब संसार को छोड़ने की तैयारी हो। और ध्यान रखना, उस एक को पा कर ही कुछ पाया। जिन्होंने भी पाया, उस एक को पा कर ही पाया है, बाकी तो सब भटकाव है। इस संसार में कितने लोग श्रम करते हैं, कुछ भी तो मिलता नहीं। फिर भी तुम आंख खोल कर नहीं देखते। फिर भी तुम में बुद्धिमत्ता का जरा-सा भी जागरण नहीं होता। इतने लोग खोजते हैं, पा भी लेते हैं, कुछ भी तो नहीं मिलता। यहां हारे हुए भी हारे हुए हैं, यहां जीते हुए भी हारे हुए हैं।
दो मित्र एक होटल में बैठे थे। एक थोड़ा प्रौढ़ और एक जवान। और एक सुंदर स्त्री द्वार से प्रविष्ट हुई। तो जवान ने कहा–एक गहरी सांस उसके भीतर से निकल गयी और कहा–कि यह स्त्री जब तक मुझे न मिल जाए मैं सुखी न हो सकूंगा। और इसके पीछे मैं पागल हूं। और मेरी नींद खो गयी है इसके लिए। और मेरी शांति खो गयी है। मेरा सारा चैन खो गया है। और कोई रास्ता नहीं सूझता, मैं क्या करूं? और जब तक यह मुझे न मिलेगी, मेरे लिए न कोई शांति है, न कोई आनंद है।
उस दूसरे प्रौढ़ आदमी ने कहा कि जब तुम इस स्त्री को फुसलाने में राजी हो जाओ, तो मुझे खबर कर देना। उसने कहा, क्या मतलब! आपको किसलिए खबर? उसने कहा, यह मेरी पत्नी है। और मेरा जबसे इससे सत्संग हुआ, मेरी सब शांति खो गयी है। मेरा आनंद वापस मिल जाएगा, अगर तुम इसे राजी करके किसी तरह…।
यहां जिनको मिल जाता है वे रो रहे हैं, यहां जिनको नहीं मिला है वे रो रहे हैं। यहां होने का ढंग ही रोना है। यहां तुम सबको रोते पाओगे, गरीब को और अमीर को, सफल को और असफल को, पराजित को, विजेता को, सबको रोते पाओगे। यहां एक संबंध में बड़ी समानता है कि सभी दुखी हैं।
उस एक को पा कर ही कुछ पाया जा सकता है। उस एक का कोई मंदिर नहीं है। ब्रह्मा का भी एक मंदिर है, विष्णु के बहुत हैं, शिव के अनंत हैं। उसका एक भी मंदिर नहीं है। उसका मंदिर हो भी नहीं सकता।
इसलिए नानक ने अपने मंदिर को जो नाम दिया वह बड़ा प्यारा है–गुरुद्वारा। वह परमात्मा का मंदिर नहीं, वह सिर्फ गुरु का द्वार है। उससे उस एक की तरफ पहुंचोगे, लेकिन वह सिर्फ दरवाजा है। वहां कुछ अंदर है नहीं। नाम बड़ा प्यारा है। तो वह सिर्फ द्वार है, जिससे तुम गुजरोगे। वह कोई रुकने की जगह नहीं है। जो गुरुद्वारे में रुक गया वह नासमझ है। वह दरवाजे में बैठा है। दरवाजे में बैठने में कोई सार है! वहां से गुजरना है, वहां से पार जाना है। गुरु द्वार है। उस पर रुक नहीं जाना है। उससे गुजर जाना है। उसके पार हो जाना है। उसके पार वह एक है। उस एक का कोई मंदिर नहीं हो सकता।
और नानक कहते हैं, अगर प्रणाम ही करने का भाव उठा है, अगर सच में ही प्रणाम करने की भावना जग गयी है, हृदय राजी है प्रणाम करने को–आदेसु तिसै आदेसु–तो उस एक को ही प्रणाम करो।
‘लोक-लोक उसका आसन है।’
इसलिए उसका कोई मंदिर हो नहीं सकता।
‘लोक-लोक उसका भंडार है। उसने एक बार ही सदा के लिए पाने लायक सब कुछ उसमें धर दिया है। वह सर्जनहार रचना करके उसे देखता रहता है। नानक कहते हैं, सच्चे का काम सच्चा है। प्रणाम करना हो तो उसे ही प्रणाम करो। वह आदि, शुद्ध, अनादि, अनाहद और युग-युग से एक वेश वाला है।’
नानक कहते हैं, ‘सच्चे का काम सच्चा है।’
नानक सचे की साची कार।।
उस परमात्मा का जो कुछ भी है, वह सत्य है। तुम्हारा जो कुछ भी है, वह असत्य है। क्योंकि तुम्हारा होना ही असत्य है। असत्य से सत्य का कोई जन्म नहीं हो सकता। तुम जो भी बनाओगे वे ताश के पत्तों के घर होंगे। हवा का जरा सा झोंका भी उन्हें गिरा देगा। तुम जो भी बनाओगे वह कागज की नाव होगी। छूटते ही डूबने लगेगी। उसमें यात्रा नहीं हो सकती। अहंकार से निर्मित सभी कुछ असत्य होगा, क्योंकि अहंकार असत्य है। उस परमात्मा का जो भी है वह सत्य है। तुम्हारा जो भी है वह असत्य है।
यह जिस दिन तुम्हें समझ में आ जाएगा, उस दिन तुम असत्य को पैदा करने में श्रम न लगाओगे। उस दिन तुम असत्य को जानने में श्रम लगाओगे। संसारी का अर्थ है, जो असत्य को पैदा करने में लगा है। तुम्हारे संसार की असत्यता का तुम्हें खयाल नहीं आता, क्योंकि उसमें तुम इतने लीन हो। तुम कभी जरा दूर खड़े हो कर नहीं देखे कि असत्यता कितनी भयंकर है।
एक आदमी नोट इकट्ठे करते जा रहा है। वह कभी नहीं सोचता कि नोट सिर्फ एक मान्यता है। कल सरकार बदल जाए, कानून बदल जाए, सरकार तय कर ले कि ये नोट रद्द हुए, काम के न रहे, तो कागज हो गए। एक मान्यता को इकट्ठा कर रहा है यह आदमी। और मान्यता ऐसी कि जिसका कोई भरोसा नहीं।
अमरीका में एक होटल है। उन्नीस सौ तीस के जमाने में, जब कि अमरीका में बहुत बड़ी आर्थिक गिरावट आयी, जिस आदमी का यह होटल है, उसके करोड़ों रुपए के बांड व्यर्थ हो गए। तो उसने सारी दीवाल पर बांड चिपका दिए। वे जो करोड़ों रुपए के बांड थे, पूरी दीवालें उस होटल की उसने बांड से बना दीं। वे किसी काम के न रहे, वे दीवाल पर चिपकाने लायक हो गए। उनका कोई उपयोग न रहा।
और एक आदमी नोट पर जिंदगी लगा रहा है। बस, उसका काम ही इतना है कि कितने नोट बढ़ते जाते हैं, उनकी वह गिनती कर रहा है। तिजोड़ी में भरता जाता है नोट। उसे पता नहीं कि हर नोट के बदले में जिंदगी बेच रहा है। क्योंकि एक-एक पल कीमती है। और जिस ऊर्जा से परमात्मा से मिलन होता है, उस ऊर्जा को वह नोटों में लगा रहा है। और नोट सिर्फ मान्यता है। हजारों तरह की मान्यताएं रहीं दुनिया में, हजारों तरह के सिक्के रहे।
मैक्सिको में लोग, इस सदी के प्रारंभ तक, कंकड़-पत्थरों को सिक्के की तरह उपयोग करते थे। कंकड़-पत्थर ही से काम हो जाता था, क्योंकि मान्यता की बात है। तुम कागज का उपयोग कर रहे हो। कंकड़-पत्थर कागज से तो ज्यादा कीमती हैं। सोना मान्यता के कारण सोना है। अगर दुनिया की हवा बदल जाए–कभी भी बदल सकती है–लोग सोने को कीमत न दें, लोहे को कीमत देने लगें, तो तुम लोहे के श्रृगार कर लोगे।
कौमें हैं अफ्रीका में, जो हड्डियों की कीमत करती हैं, सोने की कीमत नहीं करतीं, तो हड्डियों को गले में लटकाए हुए हैं। सोना फिजूल है। तुम उनसे कहो कि सोने को लटका लो, वे राजी नहीं हैं।
मान्यता का खेल है। और उस मान्यता के लिए तुम जीवन गंवा देते हो। लोग प्रतिष्ठा दें, इसके लिए तुम जीवन गंवा देते हो। लोगों की प्रतिष्ठा का क्या अर्थ है? कौन हैं ये लोग जिनकी प्रतिष्ठा के लिए तुम दीवाने हो? ये वे ही लोग हैं जो तुम्हारी प्रतिष्ठा के लिए दीवाने हैं। इनकी कीमत क्या है? नासमझों से अगर प्रतिष्ठा मिल जाए तो इससे तुम्हें क्या मिलेगा? और नासमझ भीड़ का कोई हिसाब है!
विंसटन चर्चिल अमरीका गया। एक सभा में बोला। बड़ी भीड़ थी, हाल खचाखच भरा था। सभा के बाद एक महिला ने उससे कहा कि आप जरूर प्रसन्न होते होंगे। जब भी आप बोलते हैं, हाल खचाखच भरा होता है।
विंसटन चर्चिल ने कहा, जब भी मैं हाल को खचाखच भरा देखता हूं, तब मैं सोचता हूं कि अगर मुझे फांसी लग रही होती तो कम से कम पचास गुना ज्यादा लोग मुझे देखने आए होते। इन लोगों का क्या भरोसा? ये मुझे ताली बजाने आए हैं, ये मेरी फांसी देखते, वहां भी ताली बजाते। तो जब भी मैं देखता हूं कि हाल खचाखच भरा है, तो पहले मैं सोच लेता हूं कि ये वे ही लोग हैं कि अगर मुझे फांसी लग रही हो, तो भी देखने आएंगे और मजा लूटेंगे। और अपने बच्चों को भी लाएंगे कि चलो, देख आओ। ऐसा अवसर फिर आए, न आए। इनका कोई भरोसा नहीं।
वे ही चेहरे, जब तुम गिर रहे होओगे तब भी ताली बजाएंगे। वे ही चेहरे, जब तुम उठ रहे होओगे तब भी ताली बजाएंगे। इन चेहरों को देख कर, इनकी गिनती करके, इनका मत मान कर, तुम कहां पहुंच जाओगे? ये तुम्हारे साथ हैं, इससे क्या साथ मिलता है? ये तुम्हें सिर पर भी उठा लें, तो इनका मूल्य क्या? इनकी ऊंचाई कितनी है? इनके कंधे पर बैठ कर तुम कितने ऊंचे हो जाओगे? लेकिन आदमी जीवन लगा देता है, कैसे प्रतिष्ठा मिले! कैसे पद मिले! कैसे लोगों का आदर मिले!
नानक कहते हैं कि अहंकार से तो जो भी पैदा होगा वह झूठ ही होगा। यह सब अहंकार की ही खोज है। और यह पारस्परिक है।
नेता तुम्हारे दरवाजे पर आता है। सिर झुका कर प्रणाम करता है, कि मत देना। तुम उसे मत देते हो, वह पद पर पहुंच जाता है। एक म्युचुअल, एक पारस्परिक अहंकार की तृप्ति कर रहे हो।
मैंने सुना है कि एक गांव में ऐसा हुआ कि एक आदमी, जो गांव का घंटाघर था, वह उसमें घंटे बजाता था। और गांव में छोटा एक टेलीफोन एक्सचेंज था। रोज टेलीफोन एक्सचेंज नौ बजे सुबह, किसी का फोन आता था कि कितना समय है? तो टेलीफोन एक्सचेंज उसको समय बता देता था। वह नौ के घंटे बजा देता था। और नौ बजे टेलीफोन एक्सचेंज जब घंटे बजते घंटाघर के तो अपनी घड़ी ठीक कर लेता था। यह सालों तक चला। यह तो अचानक एक दिन उस टेलीफोन एक्सचेंज वाले ने पूछा कि भाई, तुम हो कौन? रोज ही पूछते हो ठीक नौ बजे! उसने कहा कि मैं घंटाघर का रख वाला हूं। घंटे बजाने के लिए पूछता हूं कि कितना समय? उन्होंने कहा कि हद हो गयी! अब पता ही नहीं कि क्या हालत होगी समय की। क्योंकि हम तुम पर भरोसा कर रहे हैं, तुम हम पर भरोसा कर रहे हो।
एक पारस्परिक स्थिति है। मैं आपकी तरफ देखता हूं, आप मेरी तरफ देखते हैं। मैं आपका सम्मान करता हूं, आप मेरा सम्मान करते हैं। मैं आपके अहंकार को सहारा देता हूं, आप मेरे अहंकार को सहारा देते हैं। ऐसे यह सारा का सारा झूठ का बड़ा जाल है।
नानक कहते हैं, ‘उस मालिक का काम सच्चा। सच्चे का काम सच्चा।’
तुम पहले सत्य को खोजो। उसके पहले कुछ भी मत करो। क्योंकि उसके पहले तुम जो भी करोगे वह असत्य हो जाएगा। एक ही बात करने योग्य है कि सत्य को पहचानो। और फिर तुम कुछ करना। क्योंकि फिर सत्य तुम्हारे भीतर से कुछ करेगा।
‘प्रणाम करना हो तो उसे ही प्रणाम करो। वह आदि, शुद्ध, अनादि, अनाहद है। और युग-युग से एक ही वेश वाला है।’
यह ‘एक ही वेश वाला है’, इसे याद रखना। जो चीज भी बदलती हो, वह माया है, वह संसार है, वह असत्य है, सपना है। और जो चीज सदा शाश्वत रहती हो और कभी न बदलती हो, वही परमात्मा है। तो तुम इस सूत्र को अगर ठीक से पकड़ लो, तो तुम्हारे भीतर तुम आज नहीं कल, उसको खोज लोगे जो कभी नहीं बदलता है।
शायद निरीक्षण किया हो, न किया हो, तुम्हारे भीतर कोई ऐसा तत्व है जो कभी नहीं बदलता है। कभी क्रोध आता है, लेकिन चौबीस घंटे नहीं रहता। इसलिए क्रोध माया है। कभी प्रेम आता है, लेकिन प्रेम चौबीस घंटे नहीं रहता, प्रेम माया है। कभी तुम प्रसन्न होते हो, लेकिन प्रसन्नता टिकती नहीं, माया है। कभी तुम उदास होते हो, उदासी चौबीस घंटे नहीं रहती, सदा नहीं रहती, इसलिए माया है।
फिर क्या है तुम्हारे भीतर कुछ, जो चौबीस घंटे टिकता है? वह साक्षी का भाव है जो चौबीस घंटे टिकता है। जो चौबीस घंटे है। चाहे तुम जानो, चाहे न जानो। कौन देखता है क्रोध को? कौन देखता है लोभ को? कौन देखता है प्रेम को, घृणा को? कौन पहचानता है कि मैं उदास हूं? कौन कहता है कि प्रसन्न हूं? कौन कहता है बीमार हूं, स्वस्थ हूं? कौन कहता है कि रात नींद अच्छी हुई? कौन कहता है कि रात सपने बहुत आए? कि नींद हो ही न सकी?
चौबीस घंटे तुम्हारे भीतर एक जानने वाला है। जाग रहा है। वही चौबीस घंटे है। बाकी सब आता है, जाता है। तुम उसी को पकड़ो। क्योंकि उसी में थोड़ी परमात्मा की झलक है।
इसलिए नानक कहते हैं कि प्रणाम करना हो तो उसे ही। क्योंकि वह अनाहद है। युग-युग से एक ही वेश वाला है।
आदेसु तिसै आदेसु।।
आदि अनीलु अनादि अनाहतु जुग जुग एको वेसु।।
आज इतना ही।