UPANISHAD
Jeevan Hi Hain Prabhu 04
Fourth Discourse from the series of 7 discourses – Jeevan Hi Hain Prabhu by Osho. These discourses were given in JUNAGADH during DEC9-12 1969.
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ध्यान विलीन होने की क्रिया है, अपने को खोने की, उसमें जो हमारा मूल-स्रोत है। जैसे कोई बीज टूट जाता है और वृक्ष हो जाता है, ऐसे ही कोई मनुष्य जब टूटने की हिम्मत जुटा लेता है तो परमात्मा हो जाता है। मनुष्य बीज है, परमात्मा वृक्ष है। हम टूटें तो ही वह हो सकता है।
जैसे कोई नदी सागर में खो जाती है तो सागर हो जाती है। लेकिन नदी सागर में खोने से इनकार कर दे, तो फिर नदी ही रह जाएगी। और सागर में खोने से इनकार कर दे, तो फिर नदी भी नहीं रह जाती, तालाब हो जाती है; बंधा हुआ डबरा हो जाती है। क्योंकि जो सागर में खोने से इनकार करेगा, उसे बहने से भी इनकार करना होगा। क्योंकि सब बहा हुआ अंततः सागर में पहुंच जाता है, सिर्फ रुका हुआ नहीं पहुंचता। तो कोई नदी अगर सागर में पहुंचने से इनकार करेगी, तो नदी भी नहीं रह जाएगी; सागर तो होगी ही नहीं, नदी भी नहीं रह जाएगी, बंधा हुआ डबरा हो जाएगी। डबरे सिर्फ सूखते और सड़ते हैं। सागर का महाजीवन उन्हें नहीं मिल पाता।
हम सब भी डबरों की तरह हो जाते हैं; क्योंकि हम सबकी भी जीवन-सरिताएं परमात्मा के सागर की तरफ नहीं बहती हैं। और बह केवल वही सकता है जो अपने से विराट में लीन होने को तैयार हो। जो डरेगा लीन होने से वह रुक जाएगा, ठहर जाएगा, जम जाएगा, बहना बंद हो जाएगा। जिंदगी बहाव है रोज और महान से महान की तरफ। जिंदगी यात्रा है और-और विराट की मंजिल की तरफ।
लेकिन हम सब रास्तों पर रुक गए हैं मील के पत्थरों की तरह। ध्यान इस बहाव को वापस पैदा कर लेने की आकांक्षा है। इसलिए मैंने कल कहा, ध्यान है समर्पण, सरेंडर। और समर्पण भी पूरा। सच तो यह है कि अधूरा समर्पण हो ही नहीं सकता। समर्पण पूरा ही होगा, टोटल ही होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि आधा तो हम परमात्मा के हाथों में छोड़ दें और आधा अपने हाथों में रखें। छोड़ेंगे तो पूरा छोड़ेंगे, नहीं छोड़ेंगे तो बिलकुल नहीं छोड़ पाएंगे।
अंग्रेजी में एक शब्द है: ‘लेट-गो।’ सब छोड़ देना है। अगर एक क्षण को भी हम सब छोड़ पाएं, तो सब हमें मिल जाए, इसकी पात्रता उपलब्ध हो जाती है। यह बड़ा उलटा है। वर्षा होती है पहाड़ों पर, तो बड़े-बड़े शिखर खाली रह जाते हैं, क्योंकि वे पहले से ही भरे हुए हैं; और खड्ढ और खाइयां भर जाती हैं, झीलें भर जाती हैं; क्योंकि वे खाली हैं। जो भरा है वह खाली रह जाएगा, जो खाली है भर जाएगा। परमात्मा की वर्षा तो प्रतिपल हो रही है। सब तरफ वही बरस रहा है। लेकिन हम अपने भीतर भरे हुए हैं, तो हम खाली रह जाते हैं। काश, हम भीतर गड्ढों की तरह खाली हो जाएं, तो परमात्मा हममें भर सकता है। हम सब उसके भराव को उपलब्ध हो सकते हैं, फुलफिलमेंट को उपलब्ध हो सकते हैं। यह बहुत उलटा है, लेकिन यही सही है। जो भरे हैं, वे खाली रह जाएंगे; और जो खाली हैं, वे भर जाते हैं।
इसलिए ध्यान का दूसरा अर्थ है: खाली हो जाना, एंप्टीनेस। बिलकुल खाली हो जाना है, कुछ भी न रह जाए। मिटने का, समर्पण का, खाली होने का सबका एक ही अर्थ है।
इस ध्यान की मिटने की स्थिति को समझने के लिए पहले हम तीन छोटे प्रयोग करेंगे, जैसे कल हमने किए। पांच-पांच मिनट उन तीन प्रयोगों को करेंगे। और फिर दस मिनट ध्यान का प्रयोग करेंगे। वे तीन प्रयोग ध्यान की सीढ़ियां हैं। और अगर वे तीन हमें ठीक से समझ में आ जाएं, तो ध्यान बहुत आसान है। लेकिन अगर वे तीन हमारी समझ में न आएं, तो फिर ध्यान बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए पहले इन तीन प्रयोगों को ठीक से करें।
सबसे पहला काम तो यह करें कि थोड़े फासले पर हट जाएं, आवाज दूर तक सुनाई पड़ेगी। घने मत बैठें। कोई गिर जाए, या किसी को डर लगा रहे कि किसी के ऊपर न गिर जाऊं, ऐसी जगह हट जाएं। अपने आगे-पीछे इतनी जगह बना लें कि आप अगर लेट भी जाएं तो किसी को कोई बाधा नहीं होगी। और शीघ्र हट जाएं, उसमें प्रतीक्षा मत करें, क्योंकि छोटी सी बात से बहुत कुछ खोया जा सकता है। न, न, वहां ऐसे हिलने से कुछ भी नहीं होगा। वहां ऐसे हिलने से क्या फर्क पड़ेगा? कोई आपके हिलने से जगह थोड़े ही बन जाएगी? वहां से हट जाएं। इतनी चारों तरफ जगह पड़ी हुई है, मौका है, उसका उपयोग करें पूरा। ऐसे बैठें कि आप बिलकुल बेफिकर होकर बैठ सकें कि गिर गए तो गिर गए, कोई बात नहीं।
आंख बंद कर लें। पहला प्रयोग करें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। पहला प्रयोग है: बहने का अनुभव। आंख बंद कर ली हैं, शरीर ढीला छोड़ दिया है। अब भीतर एक चित्र को देखना शुरू करें–दो पहाड़ों के बीच में, सूरज की धूप में चमकते हुए पहाड़, उन दो पहाड़ों के बीच में बहती हुई एक नदी। तेज धार, बड़ी गति, गहरा नीला पानी, नदी बही जा रही है, भागी जा रही है सागर की खोज में। दूर कहीं अज्ञात में सागर है, नदी भागी जाती है खोज में। इस नदी को ठीक से देख लें, इसके भागने को पहचान लें। क्योंकि थोड़ी ही देर में हम इसमें उतरेंगे और हमको भी बह जाना है। देखें, नदी भाग रही तेजी से सागर की तरफ। साफ दिखाई पड़ने लगेगा, दोनों ओर पहाड़ के शिखर धूप में चमकते हुए, बीच में नीली सरिता भागती हुई, तेज गति है, दूर की यात्रा पूरी करनी है, नदी भागी जा रही है। इस नदी में उतरना है। और उतर कर तैरना नहीं, बह जाना है। जैसे हमारे पास हाथ-पांव ही न हों, ऐसे नदी में पड़ जाना है, ताकि नदी हमें ले जाए अपने साथ। हमें कुछ भी नहीं करना है, सिर्फ बहना है। और बहने के, फ्लोटिंग के इस अनुभव को ठीक से समझ लेना, यह ध्यान का पहला चरण होगा। बहने का अनुभव, तैरने का नहीं, यह ध्यान रहे। यह फर्क ठीक से समझ लेना। नदी में उतर कर तैरना नहीं है। क्योंकि तैरेंगे तो हमें कुछ करना पड़ेगा, वह समर्पण न होगा। और बहेंगे तो नदी कुछ करेगी, वह समर्पण होगा। ध्यान में परमात्मा की नदी में हम अपने को छोड़ देंगे और बह जाएंगे। हम कुछ भी न करेंगे, उसके हाथों में छोड़ देंगे, जो उसे करना हो करे, न करना हो, न करे।
देखें, नदी बह रही है, भाग रही है। अब आप भी उतर जाएं और उसी नदी में बह जाएं। जैसे कोई सूखा पत्ता बहती नदी में गिर गया हो, ऐसे ही नदी में गिर जाएं और बह जाएं। तैरें नहीं। नदी भागी जा रही है, आप भी उसमें बहे जा रहे हैं। अब पांच मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं, आप अनुभव करें बहने का। नदी में गिर गए हैं और बह रहे हैं। तैर नहीं रहे हैं, हाथ-पैर नहीं हिला रहे हैं, कोई प्रयत्न नहीं, कोई प्रयास नहीं, बस बहे जा रहे हैं। नदी भागी जा रही है, वह आपको भी ले जाएगी। नदी के लिए आप बोझ नहीं हैं। नदी को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ रही है, वह भाग रही है। आप भी उसमें बहे जा रहे हैं। अब मैं चुप होता हूं, आप पांच मिनट तक बहने का अनुभव करें। और इस अनुभव को ठीक से पकड़ लें। इसको ठीक से पहचान लें, क्योंकि यह ध्यान का पहला चरण है।
बहें, छोड़ दें, बिलकुल बह जाएं। छोड़ दें अपने को नदी में और बह जाएं। बहे जा रहे हैं, नदी भागी जा रही है, बहे जा रहे हैं। हम उस नदी में बहे जा रहे हैं। तैरते नहीं हैं, प्रयत्न नहीं करते, नदी खुद बही जा रही है और हमें भी बहाए ले जा रही है। छोड़ दें बिलकुल अपने को और बह जाएं। बहुत हलकापन लगेगा, बहुत ताजगी लगेगी। मन भी बिलकुल शांत हो जाएगा। बहें, सब बोझ उतर जाएगा, मन का तनाव उतर जाएगा। बहें। छोड़ दें बिलकुल, नदी बहा ले जाएगी। छोड़ दें। बिलकुल ऐसा छोड़ दें जैसे मां की गोदी में बच्चा छोड़ देता है। ऐसा नदी की गोदी में अपने को छोड़ दें, नदी ले जाएगी। बहें, बिलकुल बह जाएं। और बहते-बहते ही मन बिलकुल हलका और शांत हो जाएगा। और एक गहरी ताजगी भीतर भर जाएगी। और भीतर सब शीतल हो जाएगा।
बह रहे हैं, बह रहे हैं, बहे जा रहे हैं। तैरना नहीं है, प्रयत्न नहीं करना, हाथ भी नहीं हिलाना, नदी बहाए ले जा रही है, हम बहे चले जा रहे हैं। कुछ करना नहीं है, सिर्फ बह जाना है। पहाड़ चमक रहे धूप में, नीली गहरी नदी भागी चली जा रही है, हम भी उसमें बहे चले जा रहे हैं। देखें, सब शीतल हो जाएगा, हलका और शांत, मन का सब तनाव गिर जाएगा। बहने के इस अनुभव को ठीक से समझ लें, पहचान लें। ध्यान का पहला चरण यही है।
फिर धीरे-धीरे नदी के बाहर निकल आएं। देखें, बाहर किनारे पर खड़े होकर फिर से देखें, नदी भागी जा रही है, और किनारे पर खड़े होकर अनुभव करें, बहने के पहले और बहने के बाद में भीतर कुछ फर्क पड़ा। मन कुछ हलका हुआ। शांत हुआ। ताजा हुआ। नया हुआ। किनारे पर एक क्षण खड़े होकर पहचानें, कैसा सब ताजा हो गया। कैसा सब शांत हो गया। मन बिलकुल हलका हो गया।
फिर धीरे-धीरे आंख खोल लें, दूसरे प्रयोग को समझें, फिर दूसरा प्रयोग करें।
पहला प्रयोग है: बहने का अनुभव। बहने का अनुभव तैरने के अनुभव के ठीक उलटा है। तैरने में हमें कुछ करना पड़ता है। बहने में नदी कुछ करती है। ध्यान तैरने जैसा नहीं है, बहने जैसा है। दुकान हम चलाते हैं तो हमें कुछ करना पड़ता है, ध्यान हम करते हैं तो परमात्मा कुछ करता है। हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता। हमें इतना ही करना पड़ता है कि हम उसे बाधा न दें और वह जो करना चाहता है उसे करने दें। ध्यान का अर्थ है, हम बाधा न देंगे और परमात्मा जो भी हमारे साथ करना चाहता है हम उसे करने के लिए सुविधा देंगे। हम उसे करने देंगे, हम अपने को खुला छोड़ देंगे। वह आ जाए और जो उसे करना हो कर ले।
सूरज निकला हो घर के बाहर और घर में अंधेरा है। हमने द्वार बंद किए हैं और हम किसी से पूछें कि हमें सूरज की किरणों को भीतर लाना है, हम क्या करें? तो वह कहेगा, तुम कुछ न करो, सिर्फ द्वार खुले छोड़ दो, ताकि सूरज भीतर आ सके। तुम रोको भर मत, सूरज भीतर आ जाएगा। तुम रोको भर मत। तुम छोड़ दो द्वार खुला, सूरज भीतर आ जाता है। सूरज को गठरियों में बांध कर तो भीतर नहीं लाया जा सकता। उसकी किरणों को मुट्ठियों में बांध कर तो हम घर के भीतर नहीं ला सकते। डब्बों में बंद करके तो हम भीतर नहीं ला सकते। हम सिर्फ एक काम कर सकते हैं–निगेटिवली, नकारात्मक–और वह यह कि हम दरवाजा खुला छोड़ सकते हैं। फिर सूरज आ जाएगा।
बहने का अनुभव अपने को छोड़ देने का अनुभव है ताकि परमात्मा कुछ करना चाहे तो वह कर सके। और परमात्मा की अनंत शक्तियां इतना कर सकती हैं जिसका हिसाब नहीं। हम सिर्फ बाधा न दें। हम बीच में खड़े न हों, हम छोड़ दें और कहें कि जो होना है वह हो।
अब दूसरा अनुभव है: मृत्यु का। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। और पांच मिनट के लिए मृत्यु के अनुभव में उतरें। आंख बंद करें, शरीर को ढीला छोड़ दें। और कोई किसी दूसरे की फिकर में न रहे, क्योंकि दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है कि आप बीच-बीच में किसी को देखें कि किसको क्या हो रहा है। किसी से कोई मतलब नहीं है। आपको क्या हो रहा है, यह सवाल है। किसी को कुछ हो रहा है या नहीं हो रहा है, यह मूल्य ही नहीं है कुछ। तो किसी को, किसी दूसरे को देखने की फिकर छोड़ देनी चाहिए, अन्यथा वह दूसरे को देखने में अपने को देखने से वंचित रह जाएगा। आंख बंद करें। और आंख बंद करने को इसीलिए कहता हूं ताकि आप दूसरे की फिकर छोड़ दें, भीतर अकेले ही रह जाएं।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। अब दूसरा चित्र आंख के सामने लाएं। मरघट पर खड़े हैं, चिता जल रही है, आकाश की तरफ लपटें दौड़ रही हैं। बहुत बार मरघट पर गए होंगे, लेकिन किसी और को जलाने। आज अपने को ही जलाने पहुंच गए हैं। मित्र, प्रियजन सब चारों तरफ इकट्ठे हैं। चिता की लपटों में अंधेरे में भी उनके चेहरे दिखाई पड़ रहे हैं। गौर से देखें, चारों तरफ मित्र, प्रियजन सब इकट्ठे हैं। चिता जल गई है, और चिता पर कोई और नहीं चढ़ा है, हम ही चढ़े हैं, हम ही पड़े हैं–वह भी देख लें ठीक से कि चिता पर हम ही हैं, कोई और नहीं है। किसी और को बहुत बार चिता पर चढ़ाया, किसी दिन हमको बहुत और लोग चढ़ाएंगे। ध्यान में हम खुद ही अपने को चढ़ा कर देख लें कि क्या होगा! चढ़ा दें चिता पर। आग में अपने को ही रख दिया है। यह हमारा ही चेहरा है जो चिता पर जल रहा है। ये हमारे ही हाथ, यह हमारा ही शरीर। चिता ही नहीं जल रही, हम भी जल रहे हैं। लपटें भागी जा रही हैं आकाश की तरफ। थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा। पांच मिनट के लिए अपने को चिता पर जलता हुआ देखते रहें।
देखें.चिता जल रही है, लपटें आकाश की तरफ दौड़ी चली जा रही हैं। हवाएं हैं तेज, लपटों को उभारती हैं, भपकाती हैं। हम ही जल रहे हैं, हाथ-पैर जल रहे हैं, चेहरा जल रहा है, शरीर जल रहा है। सब जला जा रहा है। सब जला जा रहा है.देखते रहें पांच मिनट तक। सब जला जा रहा है। ताकि वही शेष रह जाए जो नहीं जल सकता और वह जल जाए जो जल सकता है।
जल रहे हैं.स्वयं ही जले जा रहे हैं.लपटें बढ़ती जा रही हैं.सब जलता जा रहा है। थोड़ी देर में राख ही शेष रह जाएगी। लपटें बढ़ती जाती हैं और राख भी बढ़ती जाती है। लपटें बढ़ती जाती हैं और हम जलते जा रहे हैं। सब समाप्त हुआ जा रहा है.
देखें.चेहरे धीरे-धीरे वापस लौटने लगे, मरघट पर जो इकट्ठे थे वे वापस जा रहे हैं, वे लौट रहे हैं, उनकी पीठ दिखाई पड़ने लगी है, वे वापस चल पड़े हैं, उनके पैरों के पदचाप सुनाई पड़ने लगे हैं। वे जा चुके हैं। मरघट अकेला रह गया, चिता ही रह गई। और राख का ढेर इकट्ठा हुआ चला जा रहा है। मिट जाएं, जल जाएं, समाप्त हो जाएं, ताकि वही शेष रह जाए जो न जलता है, न मिटता है, न समाप्त होता है। तो आग की लपटें भी छोटी होने लगी हैं। राख का ढेर ही पड़ा रह जाएगा। थोड़ी देर में लपटें भी नहीं होंगी, अंगारे भी बुझ जाएंगे, मरघट एकांत अकेला अंधेरे में डूबा और राख का एक ढेर पड़ा रह जाएगा।
ठीक से देख लें इस ढेर को, इस मिटने को। ध्यान का यह दूसरा चरण है: स्वयं का मिट जाना। मिटा जा रहा है, जला जा रहा है, सब समाप्त हुआ जा रहा है। अंगारे भी बुझे-बुझे जा रहे हैं, राख का ढेर पड़ा रह गया है। ये हम ही हैं जो राख का ढेर पड़ा रह गया है, ये हम ही हैं। मिट्टी मिट्टी में वापस लौट गई है। इसे ठीक से देख लें, ठीक से पहचान लें। मरघट निर्जन हो गया, अंधेरा घिर गया, लपटें बुझ गईं, अंगारे बुझ गए। राख का ढेर पड़ा रह गया है। सब मिट गया। इस भाव के आते ही कि सब मिट गया है, गहरी शांति उतर जाएगी। प्राण के भीतरी कोनों तक सन्नाटा छा जाएगा। इस भाव के आते ही कि मैं ही मिट गया हूं, सब तनाव बिखर जाएंगे, सब अशांति बिखर जाएगी, सब चिंता खो जाएगी। वे सब तो मेरे साथ थीं, मेरी चिता में जल गईं–चिंताएं भी, तनाव भी, अशांति भी। अब तो एक सन्नाटा, एक शून्य भीतर रह गया है। सब जल गया, राख का ही ढेर पड़ा रह गया है। और जब हम ही मिट गए तो कैसी चिंता! कैसी अशांति! कैसा दुख! कैसी पीड़ा! सब समाप्त हो गया। इस मिटे होने की स्थिति को ठीक से समझ लें। ध्यान का यह दूसरा चरण है।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें, धीरे-धीरे आंख खोल लें और ध्यान के तीसरे चरण को समझें और प्रयोग करें।
पहली बात है: बह जाना। दूसरी बात है: मिट जाना। और तीसरी बात है: तथाता। तथाता ध्यान का केंद्र है। तथाता का अर्थ है: जो है, हम उसके साथ राजी हैं, हमारा कोई विरोध नहीं है। तथाता का अर्थ है: नो रेसिस्टेंस, अविरोध, हमारा किसी चीज से कोई विरोध नहीं है। जो है, हम उसके वैसे होने से पूरी तरह राजी हैं। हम उससे अन्यथा की न तो मांग करते हैं, न आकांक्षा करते हैं। पक्षी चिल्ला रहे हैं, तो हम पक्षियों के चिल्लाने से राजी हैं। पक्षी हैं, चिल्लाएंगे ही। हवाएं चलेंगी, वृक्षों के पत्ते हिलेंगे, शोरगुल होगा; पत्ते हैं, हिलेंगे ही, आवाज करेंगे ही। हम स्वीकार करते हैं। रास्ते पर कोई गुजरेगा, कोई गाड़ी निकलेगी, कोई ट्रेन निकलेगी, आवाज होगी, शोर होगा, हम स्वीकार करते हैं। जीवन जैसा है, हम उसे उसकी पूर्णता में स्वीकार करते हैं।
तथाता का अर्थ है: हमें सब स्वीकार है, कोई विरोध नहीं है। और जब कोई विरोध न हो तो अशांति कहां? और जब कोई विरोध न हो तो विघ्न कहां? बाधा कहां? और जब कोई विरोध न हो तो चित्त भीतर में एकदम विलीन हो जाता है, शून्य हो जाता है। विरोध में ही हम खड़े होते हैं और मजबूत होते हैं। विरोध में ही अहंकार निर्मित होता है। जितना हम विरोध करते हैं, उतना ही अहंकार मजबूत होता चला जाता है। जितना मैं कहता हूं, ऐसा नहीं, ऐसा नहीं, ऐसा नहीं, उतना ही मैं मजबूत होता चला जाता हूं। जब मैं कहता हूं, जैसा है, है, ऐसा ही सही, ऐसा ही सही, ऐसा ही सही, तो ‘मैं’ के खड़े होने का उपाय कहां!
जीवन जैसा है, अगर स्वीकृत है, तो अहंकार के बनने का उपाय नहीं। अस्वीकार से आता है अहंकार, निर्मित होता है, घना होता है, मजबूत होता है। जब मैं कहता हूं, पत्ते ऐसे न हों, हवाएं ऐसी न हों, चांद ऐसा न हो, पक्षी आवाज न करें, रास्ते पर सन्नाटा हो, तब मैं यह कह रहा हूं कि मैं अपने को सब पर थोप दूं, मेरी आज्ञा से सब चले, मैं सबके ऊपर बैठ जाऊं, मैं मालिक हो जाऊं। लेकिन जब मैं कह रहा हूं, जो जैसा है चले, धन्यभाग। जो जैसा है चले, स्वीकार। जो जैसा है चले, आभार। जो जैसा है, कृतज्ञ हूं। जो जैसा चल रहा है, ठीक है। तब मैं अपने को थोपता नहीं, तब मैं विदा हो जाता हूं। तब मैं सबके साथ एक हो जाता हूं।
तथाता का अर्थ है: सर्व-स्वीकृति, टोटल एक्सेप्टेंस, जो है, वैसा ही स्वीकार है। और अगर पांच मिनट भी सब स्वीकार किया, तो हैरान हो जाएंगे कि मन कैसी शांति के नये लोकों में प्रवेश कर जाता है। पांच मिनट के लिए तथाता का प्रयोग करें। और ठीक से समझ लें। फिर इन तीन प्रयोगों को इकट्ठा हम ध्यान में करेंगे।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर ली है, शरीर को ढीला छोड़ दिया है। हमारा कोई विरोध नहीं, जगत जैसा है, जीवन जैसा है, हमें स्वीकृत है। देखें, रास्ते पर आवाज हो रही है, वह हमें स्वीकार है, हमारे मन में कोई विरोध नहीं है। भीतर ठीक से देख लें, हमारा कोई विरोध नहीं। पक्षी शोर कर रहे हैं, हमें स्वीकार है। हमारा कोई विरोध नहीं। धूप पड़ रही है, हमें स्वीकार है। हमारा कोई विरोध नहीं है। जो है, हमें स्वीकार है। हमारा कोई विरोध नहीं है। बाहर ही नहीं, भीतर भी। अगर पैर दुखने लगा है, अगर पैर शून्य हो गया है, अगर पैर पर झनझनाहट चल रही है, हमें स्वीकार है। हमारा कोई विरोध नहीं है। अगर मन में कोई विचार चल रहा है, चल रहा है, हमें स्वीकार है। हमारा कोई विरोध नहीं है। अविरोध के भाव में पांच मिनट के लिए लीन हो जाएं। जो है, है, हम राजी हैं, हम तैयार हैं, वैसा ही हो, अन्यथा की मांग नहीं, अन्यथा की आकांक्षा नहीं। पांच मिनट के लिए, जो है, हम उसके साथ पूरी तरह राजी हैं। और देखें कि राजी होते-होते, होते-होते सब बिखर जाता है और भीतर एक गहरी शांति, एक शून्य, एक खालीपन आ जाता है।
अब पांच मिनट के लिए चुपचाप तथाता के इस भाव में डूब जाएं। छोड़ दें, अपने को छोड़ दें, जो जैसा है, है। सबके लिए राजी हैं। और सबके लिए राजी होते ही सबके प्रति प्रेम का बहना शुरू हो जाता है। तब पक्षियों की आवाजें और ही सुनाई पड़ती हैं, रास्ते का शोरगुल और ही तरह का मालूम होता है, अपना ही। सब तरफ प्रेम बहने लगता है। जिससे हम राजी हो जाते हैं उसी की तरफ प्रेम बहने लगता है। और मन बिलकुल शांत हो जाएगा। राजी हैं, राजी हैं, स्वीकृत है, स्वीकृत है। जो भी है, जैसा भी है, स्वीकृत है। यह भी स्वीकृत है, वह भी स्वीकृत है, जो भी है स्वीकृत है। एक स्वीकार के भाव में डूब जाएं। सब स्वीकार है। धूप गर्म है, यह भी स्वीकार है। छाया ठंडी है, यह भी स्वीकार है। छोड़ दें.बिलकुल छोड़ दें. सब स्वीकार है। सर्व के साथ एक हो जाते हैं–जैसे ही हम स्वीकार करते हैं, सर्व के साथ एक हो जाते हैं। फिर हवाएं अलग नहीं, धूप अलग नहीं, पक्षियों की आवाजें अलग नहीं, वृक्षों की हलचल अलग नहीं, हम भी एक हैं इस सबके साथ।
छोड़ दें.बिलकुल छोड़ दें और स्वीकार कर लें। डूब जाएं और स्वीकार कर लें। सब स्वीकार है। छोड़ दें और स्वीकार कर लें। एक पांच मिनट के लिए सब स्वीकार है। छोड़ दें.छोड़ दें.सब स्वीकार है। सब स्वीकार है। और लीन हो जाएं। यह जो विराट का सागर है चारों ओर, उसमें लीन हो जाएं। छोड़ दें.सब स्वीकार है। और स्वीकार करते ही मन गहरी शांति और आनंद से भर जाता है। स्वीकार करते ही मन शांति से भर जाता है। इस तरफ स्वीकार का द्वार खुलता है, उस तरफ शांति का सागर भीतर आ जाता है।
तथाता के इस अनुभव को ठीक से पहचान लें, यह ध्यान की आत्मा है, ध्यान का प्राण है। ध्यान के गहरे से गहरे भाव में तथाता है। ठीक से पहचान लें। सर्व स्वीकार की इस भाव-दशा को ठीक से पकड़ लें। इसे ठीक से पहचान लें, ध्यान का यह केंद्र है, ध्यान की यह आत्मा है। सब स्वीकार है और मन शांत हो गया और मन शून्य हो गया। जगत से कोई विरोध नहीं, जगत जैसा है हम उसके लिए राजी हैं। क्योंकि हम जगत के ही हिस्से हैं, विरोध कैसा! दुश्मनी कैसी! शत्रुता कैसी! और तब प्राणों का बाहर के प्राणों से मिलन हो जाता है।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें। फिर ध्यान के प्रयोग को समझें और अंतिम प्रयोग ध्यान का करें। धीरे-धीरे आंख खोल लें।
ये तीन बातें हमने समझीं। बहने की भावना; मरने की, मिट जाने की भावना और सर्व-स्वीकार की, तथाता की भावना। अब इन तीनों भावनाओं का इकट्ठा हम ध्यान में प्रयोग करेंगे। इस इकट्ठे प्रयोग में बहने के, मिटने के, जो है, है, इसके स्वीकार के गहरे परिणाम होंगे। शरीर गिर सकता है, शरीर झुक सकता है। उसे फिर सम्हाल कर बैठेंगे तो वहीं अटक जाएंगे। उसे सम्हाल नहीं लेना है, गिरता हो गिर जाए। और घबड़ाएंगे नहीं कि चोट लग जाएगी। चोट कभी भी न लगेगी, जब शरीर अपने आप गिरता है तो चोट नहीं लेता। चोट का सवाल ही नहीं है। उसे सम्हाल कर अगर बैठें तो वहीं अटक जाएंगे। फिर उतना रेसिस्टेंस, उतना विरोध शुरू हो जाएगा। फिर उतनी स्वीकृति न रही। आंख से आंसू बह सकते हैं। मन एकदम हलका होगा, आंख से आंसू गिर जाएंगे। उनको भी रोक लिया, तकलीफ हो जाएगी। किसी को रोना भी आ सकता है, तो उसे भी रोकने की जरूरत नहीं। जो भी होता हो, इन पंद्रह मिनटों के लिए जो भी हो, हो, हमें उससे कोई बाधा नहीं है। और कुछ भी निकल जाएगा तो अच्छा है। भीतर बहुत शांति और हलकापन छूट जाएगा।
अब हम चौथे अंतिम प्रयोग के लिए ध्यान के लिए बैठें।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। और थोड़ी देर मैं सुझाव दूंगा, मेरे साथ अनुभव करें। अनुभव करेंगे तो वैसा ही परिणाम फौरन होना शुरू हो जाएगा।
आंखें बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। अब मैं सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है। ऐसा भाव करें कि शरीर बिलकुल शिथिल, रिलैक्स होता चला जा रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.छोड़ते जाएं ढीला.ढीला. ढीला.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.धीरे-धीरे शरीर बिलकुल शिथिल हो जाएगा। पता होगा जैसे है ही नहीं। धीरे-धीरे शरीर का पता ही बंद हो जाएगा। शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.छोड़ दें.बिलकुल छोड़ दें.शरीर शिथिल हो रहा है.झुकता हो झुक जाए, गिरता हो गिर जाए। शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है। और शरीर के शिथिल होते-होते भीतर एक गहरी शांति छाती जाएगी। शरीर शिथिल हो रहा है.छोड़ दें शिथिलता में जैसा नदी में छोड़ा था बह जाने को। छोड़ दें, बह जाएं। शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.
छोड़ दें.छोड़ दें.छोड़ दें.शरीर शिथिल हो गया है.श्वास शांत हो रही है. अनुभव करें श्वास शांत होती जा रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है. श्वास शांत हो रही है.श्वास धीमी और शांत होती जा रही है। धीरे-धीरे श्वास बिलकुल शांत होती मालूम पड़ेगी। श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत होती जा रही है.और जब श्वास मालूम पड़ेगी शांत हो रही है तो ऐसा ही लगेगा कि हम मिटे जा रहे हैं, मिटे जा रहे हैं, मिटे जा रहे हैं। जैसा चिता पर लगा था कि मिट्टी का एक ढेर रह गया है। श्वास के शांत होते-होते लगेगा शरीर मिट्टी का एक ढेर रह गया है, राख का एक ढेर। श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत होती जा रही है.श्वास बिलकुल शांत होती जा रही है.श्वास शांत होती जा रही है.
श्वास शांत हो गई है, शरीर शिथिल हो गया है, श्वास शांत हो गई है–अपने को बिलकुल छोड़ दें और अब तीसरे तथाता में ठहर जाएं। सब स्वीकार है। शरीर ढीला हो गया, श्वास शांत हो गई। और हम सारे जगत से एक होने के करीब पहुंच गए। अब हमें सब स्वीकार है, जो हो रहा है, हो रहा है। पक्षी आवाज कर रहे हैं, वृक्ष हवाओं में कंप रहे हैं, सूरज की रोशनी बरस रही है, रास्ते पर आवाजें हैं, सब स्वीकार है। जो भी चारों तरफ है वह हमें स्वीकार है। इसे जानते रहें, स्वीकार कर लें, जानते रहें, साक्षी बन जाएं। हम सिर्फ साक्षी हैं, दृष्टा हैं, जान रहे हैं, जान रहे हैं और सब हमें स्वीकार है। और धीरे-धीरे भीतर के पर्दे उठ जाएंगे। और धीरे-धीरे भीतर के द्वार खुल जाएंगे। और ऐसी शांति बरस पड़ेगी जैसी कभी न जानी हो। और ऐसा प्रकाश भीतर छा जाएगा जो अनजाना है, कभी पहचाना नहीं। और ऐसे आनंद के झरने भीतर फूट पड़ेंगे जो रोएं-रोएं को पुलकित कर जाएंगे, नया कर जाएंगे। छोड़ दें।
अब दस मिनट के लिए तथाता के साक्षी के भाव में ठहरे रह जाएं। शरीर शिथिल हुआ, श्वास शांत हो गई और हमने सारे जगत को स्वीकार कर लिया। जान रहे हैं, सिर्फ पहचान रहे हैं, देख रहे हैं, समझ रहे हैं–ज्ञातामात्र हैं, द्रष्टामात्र हैं, साक्षीमात्र हैं। कुछ कर नहीं रहे। पक्षी आवाज कर रहे हैं, हम सुन रहे हैं। हवाएं स्पर्श कर रही हैं, हम जान रहे हैं। सूरज की किरणें बरस रही हैं, हम पहचान रहे हैं। हम सिर्फ द्रष्टा हैं, मात्र द्रष्टा हैं और सब हमें स्वीकार है। दस मिनट के लिए स्वीकृति में खो जाएं।
साक्षीमात्र रह गए हैं, सर्व स्वीकार है और हम साक्षी रह गए हैं, सिर्फ एक गवाह, सिर्फ जान रहे हैं, पहचान रहे हैं, सिर्फ साक्षीमात्र। और मन एकदम गहरी शांति में उतर जाएगा। गहरी से गहरी शांति भीतर प्रकट हो जाएगी और मन गहरे आनंद में डूब जाएगा, रोआं-रोआं आनंद से पुलकित हो जाएगा। और एक प्रकाश भीतर भर जाएगा, भीतर का सब अंधेरा टूट जाएगा। इसी शांति में, इसी आनंद में, इसी प्रकाश में प्रभु का अनुभव उपलब्ध होता है। चारों तरफ उसकी मौजूदगी प्रतीत होती है। तब पक्षी पक्षी नहीं रह जाते; तब पौधे पौधे नहीं रह जाते; तब हवाएं हवाएं नहीं रह जातीं; तब सूरज की गर्मी सूरज की गर्मी नहीं रह जाती। तब सब उसी परमात्मा का नृत्य हो जाता है। सब तरफ उसी का नृत्य, उसी के पदचाप सुनाई पड़ने लगते हैं।
देखें और साक्षीमात्र रहें। सर्व स्वीकार है और साक्षीमात्र रह गए हैं। रास्ते पर आवाजें हैं और हम राजी हैं। जो भी हो रहा है, हम राजी हैं। जो भी है उससे हमारा कोई विरोध नहीं है। जैसे एक बूंद सागर में खो जाती है, ऐसे हम सर्वस्व में खो जाने को राजी हैं। यह जो सर्व है उसमें हम खो जाने को राजी हैं। जैसे कोई नदी सागर में लीन हो जाती है, ऐसा हम उस विराट के सागर में खोने को राजी हैं।
छोड़ दें.छोड़ दें.बिलकुल छोड़ दें अपने को, खो जाएं, बह जाएं, मिट जाएं। सब स्वीकार कर लें। और फिर देखें भीतर कैसी शांति के फूल खिलने लगते हैं। और फिर देखें भीतर कैसी आनंद की वीणा बजने लगती है। और फिर देखें कैसे हजार-हजार दीये जल जाते हैं परमात्मा के प्रकाश के। सर्व स्वीकार है और हम साक्षी हैं। खो गए हैं, मिट गए हैं, लीन हो गए हैं, एक हो गए हैं सर्व के साथ। देखें, भीतर कैसी शांति, कैसा आनंद, कैसा आलोक फैल गया है।
फिर धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। और प्रत्येक श्वास में बहुत आनंद, बहुत शांति मालूम होगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, प्रत्येक श्वास में बहुत आनंद, बहुत शांति मालूम होगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। जो भीतर जाना है उसे बाहर भी अनुभव करें। धीरे-धीरे आंख खोलें। आंख किसी की न खुले, तो दोनों आंखों पर हाथ लगा लें, फिर धीरे से आंख खोलें। धीरे-धीरे आंख खोलें। जो गिर गए हैं, वे धीरे-धीरे गहरी श्वास लें फिर बहुत आहिस्ता से उठें। जल्दी उठने की न करें। झटके से न उठें, बहुत आहिस्ता से उठें।
इस प्रयोग को रात सोते समय बिस्तर पर करेंगे और फिर करते-करते ही सो जाएंगे। ताकि पूरी रात मन के भीतर गहरे में ध्यान की धारा बहती रहे। फिर सुबह कल यहां आकर प्रयोग को करें। यहां आने के पहले स्नान करके आएं, ताजे कपड़े पहन कर आएं। और घर से ही बोलना-चालना बंद करके आएं, चुप, मौन। नीचे देखते हुए आएं। आंखें भी नीची रखें। चुप आएं, चुपचाप यहां आकर बैठ जाएं। यहां भी बात न करें।
सुबह की हमारी बात पूरी हुई।