UPANISHAD
Jeevan Sangeet 03
Third Discourse from the series of 9 discourses – Jeevan Sangeet by Osho.
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एक अदभुत व्यक्ति हुआ, नाम था, च्वांगत्सु। रात सोया, एक स्वप्न देखा। स्वप्न देखा कि एक तितली हो गया हूं, फूल-फूल उड़ रहा हूं। सुबह उठा तो बहुत उदास था। मित्र उसके पूछने लगे: कभी उदास नहीं देखा, इतने उदास क्यों हैं? दूसरे उदास होते थे तो पूछते थे राह, च्वांगत्सु से मार्ग पाते थे। और उसे तो कभी किसी ने उदास नहीं देखा था।
च्वांगत्सु ने कहा: क्या बताऊं, क्या फायदा है। एक बहुत उलझन में पड़ गया हूं। रात एक सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं।
मित्र कहने लगे: पागल हो गए हो, इसमें चिंता की क्या बात है?
च्वांगत्सु ने कहा: सपना देखा इसमें चिंता नहीं है, लेकिन सुबह उठ कर मुझे एक खयाल ने घेर लिया है और वह यह कि रात आदमी सपना देखता है कि तितली हो गया, तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि अब तितली सो गई हो और सपना देखती हो कि आदमी हो गई है! अगर आदमी सपने में तितली हो सकता है, तो तितली भी तो सपने में आदमी हो सकती है! तो च्वांगत्सु कहने लगा: मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं कि मैं असली में आदमी हूं, जिसने तितली का सपना देखा, या तितली हूं, जो आदमी का सपना देख रही है? और कैसे तय करूं कि क्या सही है?
हम भी कैसे तय करेंगे कि जो रात हम देखते हैं वह सपना है, या जो दिन हम देखते हैं वह सपना है? हम भी कैसे तय करेंगे कि जो हम देखते हैं वह सच है या सपना है? और जब तक हम यह न तय कर लें कि जो हम जी रहे हैं वह सपना है या सत्य, तब तक हमारे जीवन से कोई अर्थ निष्पन्न नहीं हो सकता।
सत्य की खोज में–स्वप्न को स्वप्न की भांति जानना, असत्य को असत्य की भांति जानना, असार को असार की भांति जानना तो जरूरी है। जो भी सत्य को जानना चाहता है, उसे स्वप्न से तो जागना ही पड़ेगा।
लेकिन रात हम सोते हैं, तो भूल जाते हैं दिन को, भूल जाता है सब-कुछ, जो था। यह भी भूल जाता है कि हम कौन थे जाग कर–धनी हैं या गरीब, आदृत हैं या अनादृत, जवान हैं या वृद्ध, सब भूल जाता है। जो हम जागे हुए थे, स्वप्न में सब भूल जाता है।
स्वप्न से उठते हैं, तो जाग कर सब भूल जाता है, जो स्वप्न में देखा। जाग कर हम कहते हैं, सपना झूठा था। क्यों? क्योंकि जागरण ने उसे भुला दिया। तो निद्रा में भी हमें कहना चाहिए कि जो जाग कर देखा था, वह झूठा था।
बल्कि एक बहुत बड़ी मजे की बात है। जाग कर तो हमें खयाल रहता है कि सपना देखा था, सपना याद रहता है, लेकिन सपने में हमें जागने का इतना भी खयाल नहीं रहता कि हमने जो देखा था वह कभी देखा था, या हम कभी जागे हुए भी थे। जागने में तो सपने की थोड़ी स्मृति रह जाती है, सपने में जागने की इतनी भी स्मृति नहीं रह जाती। इतना भी भूल जाता है। सब तरह खो जाता है।
फिर मरने पर तो हमने जीवन में जो देखा, वह फिर सब खो जाएगा। तो जीवन में जो हमने देखा, वह मृत्यु के बाद, मृत्यु के क्षण में सपना रह जाता है कि सत्य? इस संबंध में थोड़ी बात जाननी जरूरी है, क्योंकि उसे जान कर ही हम सत्य की दिशा में गतिमान हो सकते हैं।
अगर यह साफ हो जाए कि हम अपने से जितने दूर जाते हैं, उतने ही सपनों में चले जाते हैं; तो हम सपनों से जितने पीछे लौटेंगे, उतने ही अपने में आ जाएंगे। अपने में आने के लिए सब तरह के सपने छोड़ कर आना पड़ेगा।
लेकिन जिंदगी को हम असत्य कहें, यह तो मुश्किल है। हम तो असत्यों तक को सत्य मान लेते हैं।
मैंने सुना है, और हम सब जानते हैं। चित्र देखने जाते हैं, फिल्म देखने जाते हैं। कोई दुखी है पर्दे पर–पर्दे पर कोई भी नहीं है, सिर्फ धूप और छाया का खेल है, सिर्फ प्रकाश और अंधकार का मेल है; कुछ भी नहीं है कोरे पर्दे पर, सिवाय इसके कि कुछ किरणें नाच रही हैं–और कोई दुखी है और हम दुखी हो जाते हैं! और कोई सुंदर है और हम मोहित हो जाते हैं! और कोई पीड़ित है और हमारे आंसू बहने लगते हैं! और किसी की खुशी में हम खुश भी हो जाते हैं! और तीन घंटे फिल्म में बैठ कर भूल जाते हैं कि जो था, वह सिर्फ एक पर्दा था और नाचती हुई किरणें थीं, और कुछ भी नहीं था। और उन नाचती हुई किरणों में, उन झूठे बने चित्रों में, हम रोए भी, हम हंसे भी, हम लीन भी हुए और उसके लिए हमने पैसे भी दिए! उसके लिए हमने समय भी दिया! अक्सर तो लोग गीले रूमाल लेकर बाहर निकलते हैं, इतने आंसू बह गए। चित्रों में!
हमारी भ्रमजाल में पड़ जाने की बड़ी संभावना मालूम पड़ती है। हम सपने को सत्य मान लेने के लिए इतने, इतने आदी हो गए हैं। .
एक बहुत बड़ा विचारक था बंगाल में, विद्यासागर। एक दिन एक नाटक देखने गया है। और एक पात्र है, जो एक स्त्री के पीछे बहुत बुरी तरह पड़ा हुआ है, उसे परेशान कर रहा है। एकांत एक अंधेरी रात में उस पात्र ने, उस अभिनेता ने उस स्त्री को पकड़ लिया है। विद्यासागर का होश खो गया। वे भूल गए कि सामने है जो नाटक है! निकाला जूता, कूद पड़े स्टेज पर, लगे मारने उस अभिनेता को!
लोग तो हैरान हो गए कि यह क्या हो रहा है! एक क्षण में उनको भी खयाल आ गया कि यह क्या कर रहा हूं? लेकिन उस अभिनेता ने विद्यासागर से भी ज्यादा बुद्धिमानी प्रदर्शित की। उसने वह जूता उनके हाथ से लेकर सिर से लगा लिया, और लोगों से कहा कि इससे बड़ा पुरस्कार अभिनय के लिए मुझे पहले नहीं मिला! कभी सोचा भी नहीं था कि विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी भी नाटक की एक कथा को इतना सच मान लेगा! मैं धन्य हुआ। इस जूते को सम्हाल कर रखूंगा। यह सबूत रहा, कि मैंने कोई अभिनय किया था, जो इतना सच हो गया था! विद्यासागर तो बड़े झेंपे होंगे।
नाटक को हम सच मान सकते हैं। क्यों? कभी सोचा आपने कि ऐसा क्यों हो जाता है?
ऐसा हो जाने का कारण है बहुत गहरा मनोवैज्ञानिक। और वह यह है कि हम सत्य को तो जानते ही नहीं, हम सपनों को ही सत्य मानने के आदी रहे हैं। हम किसी भी सपने को सत्य मान लेते हैं! हमारी आदत है सपने को सत्य मान लेने की। इसलिए रात आंख के पर्दे पर सपनों को हम सच मान लेते हैं। यहां तक कि सपने में कोई आपकी छाती पर चढ़ गया है.अब नींद खुल गई है, आप जानते हैं कि सपना टूट गया, लेकिन छाती है कि धड़के चली जा रही है। अब आप कहते भी हैं कि सपना था सब, लेकिन हाथ-पैर कंपे चले जा रहे हैं। सपने में जो इंपैक्ट, सपने में जो संघात हो गया था, वह अब तक अपना प्रभाव जारी रखे है।
दिन में भी, जिंदगी में भी, हम सपनों को ही सच मानते हैं। और जो-जो हम सच समझते हैं, करीब-करीब सपना है।
एक आदमी धन इकट्ठा किए चला जा रहा है। रोज गिनता है, तिजोरी बंद करता है, खातेबही, हिसाब रखता है–इतना बढ़ गया, इतना बढ़ गया, इतना बढ़ गया। कोई सपना देख रहा है–धन का सपना देख रहा है–बढ़ाता चला जा रहा है, इकट्ठा करता जा रहा है।
मैंने सुना है, एक ऐसे धनी आदमी ने बहुत धन इकट्ठा कर लिया था। न तो कभी खाया, न कभी ठीक से पीया, न कपड़े पहने। कपड़े, खाना-पीना गरीब आदमी ही कर पाते हैं। अमीर आदमी सिर्फ पैसा इकट्ठा कर पाते हैं। जिंदगी बेच देते हैं और रुपया इकट्ठा कर लेते हैं। बहुत रुपया उसने इकट्ठा कर लिया था। पत्नी बीमार पड़ी, पास-पड़ोस के लोगों ने कहा: इलाज करवा लो।
उस आदमी ने कहा: बचना होगा, तो कोई उठा नहीं सकता। भगवान की मर्जी होगी, कौन उठा सकता है? बड़ी ज्ञान की बात कही! और भगवान की मर्जी नहीं है, कितनी ही दवा खर्च करो, व्यर्थ पैसा खराब होगा, उठ जाएगी। तो हम तो उस पर विश्र्वास करते हैं।
अब लोग क्या करते हैं–कई बेईमान होते हैं, कमजोरियों को भी सिद्धांतों में छिपा लेते हैं। और अक्सर बेईमान कमजोरियों को सिद्धांतों में छिपाते हैं। अब उसने एक ऐसी बात कही कि लोग क्या कहते!
आखिर पत्नी मर गई। जब मर ही गई, तो लोगों ने कहा: अरथी पर कुछ खर्च करना पड़ेगा।
उसने कहा: अब जो मर ही गई, उस पर खर्च करना तो बिलकुल फिजूल है। अब जो मर ही गया, उससे क्या मतलब है? म्युनिसिपल की बैलगाड़ी भी डाल आएगी। अब मरे को ढोना और शोरगुल मचाना और खर्च करना, इसमें सार क्या है? अरे जब जिंदा को नहीं बचा सके, तो अब मुर्दे पर हम क्या कर सकते हैं?
फिर तो उसकी खुद की मौत आई। तो लोगों ने कहा कि अब तो तुम भी बूढ़े होते हो, मरने के करीब होते हो, कमजोर होते हो, बीमारियां आती हैं, इलाज करवा लो।
उसने कहा कि मैं बेकार पैसा खराब नहीं कर सकता हूं। बीमारियां तो भाग्य से आती हैं। पिछले जन्मों के कर्म से आती हैं। पैसा क्या करेगा?
लोगों ने कहा: अब ज्यादा हद हो गई। अब खुद पर ही खर्च नहीं करोगे? मर जाओगे तो यह सारा पैसा लोग बर्बाद कर देंगे। न कोई लड़का है तुम्हारा, न कोई।
उसने कहा: मैं एक पैसा नहीं छोड़ कर जाने वाला हूं।
लोगों ने कहा: यह तो आज तक सुना नहीं!
सभी को यह खयाल है कि कुछ छोड़ कर नहीं जाएंगे। क्योंकि अगर यह साफ हो जाए कि सब छोड़ कर जाना पड़ेगा, तो पकड़ छूट जाए इसी क्षण, अभी। वह पकड़ उतनी ही मजबूत है, जितना यह खयाल है कि नहीं छोड़ कर नहीं जाएंगे। नहीं तो एक-एक इंच जमीन के लिए आदमी लड़े और खून बहाए? और एक-एक पैसे के लिए जिंदगी को कौड़ी का कर दे? पकड़ ऐसी है कि लगता है, कभी नहीं छोड़ेंगे। उस आदमी ने भी कहा, कुछ गलत नहीं कहा। कहा कि हम छोड़ कर नहीं जाएंगे। लोगों ने कहा: अब तक तो सुना नहीं, सबको छोड़ कर जाना पड़ता है!
उसने कहा कि लेकिन मैंने ऐसा इंतजाम किया है कि मैं छोड़ कर जाने वाला नहीं हूं।
मरने की रात करीब आने लगी, उसे शक हुआ। तो उसने रात अपनी सारी सोने की मोहरें एक गठरी में बांधीं। उनको कंधे पर लेकर नदी के किनारे गया। एक सोए हुए मल्लाह को जगाया। और उससे कहा कि मुझे नाव में बिठा कर ले चल, मैं बीच गंगा में डूब कर प्राण-विसर्जन करना चाहता हूं। अरे, जब मरना ही है तो तीर्थ में मरना चाहिए। उसने सोचा, मर गए तो वह रुपयों का क्या होगा, इसलिए रुपयों को साथ लेकर गंगा में कूद जाओ।
पैसे वाले इसीलिए तीर्थों में जाकर मरते हैं। जो साथ में है, उसे कुछ ले जाने का उपाय तीर्थ में खोजते हैं। मंदिर बनाते हैं, धर्मशाला बनाते हैं। ये तरकीबें हैं रुपयों को साथ ले जाने की। ये तरकीबें हैं, यह आश्र्वासन मिला है कि इस तरह खर्च करोगे, धर्म में लगाओगे, तो उधर मिल जाएगा। इधर एक लगाओ, उधर लाख मिल जाएंगे। कंजूस, लोभी आदमी लगा देता है, कि उधर लाख मिल जाएंगे!
वह सारी बांध कर गठरी. मल्लाह ने कहा कि एक सोने की मोहर लूंगा, आधी रात, सो गया, मुझे गड़बड़ मत करो।
उस आदमी ने कहा: एक सोने की मोहर, तुझे शर्म नहीं आती! एक मरते हुए आदमी पर इतनी भी दया नहीं आती। एक सोने की मोहर, बेशर्म! कभी जिंदगी में मैंने नहीं दी किसी को! और तुझे मरते हुए आदमी पर दया भी नहीं आती, इतना कठोर और दुष्ट है तू!
उस मल्लाह ने कहा: तो आप किसी और को ठहरा लें।
उसने कहा: मैं ज्यादा शोरगुल भी नहीं मचा सकता हूं, कि लोगों को पता चल जाए कि सब मोहरें लेकर कूद गया, तो मैं तो मरूं और लोग मोहरें निकाल लें। तो उसने कहा: चल भाई। लेकिन जरा ठहर जा, मैं छोटी से छोटी मोहर खोज लूं।
अब वह आदमी मरने जा रहा है, वह गंगा में कूदने जा रहा है, लेकिन उसका चित्त! जरूर वह किसी सपने में जीया है–जिंदगी भर सपने में या पागलपन में, किसी मैडनेस में! वह आदमी विक्षिप्त रहा है!
जो भी आदमी पैसे को पकड़े हुए दिखाई पड़े, समझना कि वह पागल है। हालांकि इतने पागल हैं दुनिया में–कि इतने पागलखाने भी तो नहीं बनाए जा सकते हैं? सच तो यह है कि अगर दुनिया में पागलों और गैर-पागलों को अलग करना हो, तो गैर-पागलों के लिए छोटे-छोटे घर बना देने चाहिए। क्योंकि बाकी तो सब पागल हैं, उनको बाहर रखना पड़े।
एक आदमी पैसे के लिए मरा जा रहा है! वह कोई सपना देख रहा है। कोई जिसका कुछ उसे पता नहीं कि वह क्या कर रहा है! जिंदगी से कोई वास्ता नहीं दिखाई पड़ता उसका। हां, कोई आदमी पैसे कमा रहा हो और जी रहा हो उनसे, तो भी समझ में आता है।
कोई आदमी और तरह के सपने देख रहा है! कोई आदमी पदों के सपने देख रहा है। छोटे पद से बड़े पद; बड़े पद से बड़े पद पर जाना है। पदों की यात्रा करनी है। उसके मन में कोई ड्रीम है, कोई सपना है, जिसको वह पूरा करना चाहता है कि मैं करूंगा!
सिकंदर या नेपोलियन या कोई भी–सब उसी दौड़ में लगे हुए हैं। वे एक सपना देख रहे हैं। सिकंदर सपना देख रहा है कि सारी दुनिया को जीत लूं! लेकिन क्या मतलब है सारी दुनिया को जीत लिया तो? जीत ही लिया समझो। आपने ही जीत लिया, फिर क्या है? फिर क्या होगा? फिर भी तो कुछ नहीं होगा। लेकिन एक दौड़ है, एक पागल दौड़ है! वह आदमी दौड़ रहा है।
मैंने सुना है, सिकंदर जब हिंदुस्तान आता था, तो रास्ते में एक फकीर से मिल लिया था। एक फकीर था, डायोजनीज। एक नंगा फकीर। एक गांव के किनारे पड़ा रहता था। खबर की थी किसी ने सिकंदर को, कि रास्ते में जाते हुए–एक अदभुत फकीर है, डायोजनीज–उससे मिल लेना।
सिकंदर मिलने गया है। फकीर लेटा है नंगा सुबह सर्द आकाश के नीचे। धूप पड़ रही है, सूरज की धूप ले रहा है। सिकंदर खड़ा हो गया है, सिकंदर की छाया पड़ने लगी है डायोजनीज पर। सिकंदर ने कहा कि शायद आप जानते न हों, मैं हूं महान सिकंदर, अलेक्जेंडर दि ग्रेट! आपसे मिलने आया हूं।
वह फकीर जोर से हंसा और उसने अपने कुत्ते को, जो कि अंदर मांद में बैठा हुआ था, उसको जोर से बुलाया कि इधर आ, सुन, एक आदमी आया है, जो अपने मुंह से अपने को महान कहता है! कुत्ते भी ऐसी भूल नहीं कर सकते!
सिकंदर तो चौंक गया। सिकंदर से कोई ऐसी बात कहे, एक नंगा आदमी! जिसके पास एक वस्त्र भी नहीं है। एक छुरा भोंक दो, तो कपड़ा भी नहीं है कि बीच में आड़ बन जाए। सिकंदर का हाथ तो तलवार पर चला गया।
उस डायोजनीज ने कहा: तलवार अपनी जगह रहने दे, बेकार मेहनत मत कर; क्योंकि तलवारें उनके लिए हैं जो मरने से डरते हैं। हम पार हो चुके उस जगह से, जहां मरना हो सकता है। हमने वे सपने छोड़ दिए, जिनसे मौत पैदा होती है। हम मर चुके उन सपनों के प्रति। अब हम वहां हैं, जहां मौत नहीं है। तलवार भीतर रहने दे। बेकार मेहनत मत कर।
सिकंदर से कोई ऐसा कहेगा? और सिकंदर इतना बहादुर आदमी, उसकी तलवार भी भीतर चली गई! ऐसे आदमी के सामने तलवार बेमानी है। और ऐसे आदमी के सामने तलवार रखे हुए लोग खिलौनों से खेलते हुए बच्चों से ज्यादा नहीं हैं।
सिकंदर ने कहा: फिर भी मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?
डायोजनीज ने कहा: क्या कर सकते हो! तुम क्या कर सकोगे? इतना ही कर सकते हो कि थोड़ा जगह छोड़ कर खड़े हो जाओ। धूप पड़ती थी मेरे ऊपर, आड़ बन गए हो। और ध्यान रखना, किसी की धूप में कभी आड़ मत बनना।
सिकंदर ने कहा कि जाता हूं, लेकिन एक ऐसे आदमी से मिल कर जा रहा हूं, जिसके सामने छोटा पड़ गया और लगा कि जैसे पहली दफा ऊंट पहाड़ के पास आ गया हो। अब तक बहुत आदमी देखे थे, बड़ी से बड़ी शान के आदमी देखे थे, झुका दिए थे, लेकिन इस आदमी के सामने. अगर भगवान ने फिर जिंदगी दी, तो अब की बार कहूंगा कि डायोजनीज बना दो।
डायोजनीज ने कहा: और यह भी सुन ले कि अगर भगवान हाथ-पैर जोड़े मेरे और मेरे पैरों पर सिर रख दे और कहे कि सिकंदर बन जा, तो मैं कहूंगा, इससे तो न बनना अच्छा है। पागल हूं कोई कि सिकंदर बनूं!
पूछता हूं जाने के पहले कि इतनी दौड़-धूप, इतना शोरगुल, इतना फौज-फाटा लेकर कहां जा रहे हो?
सिकंदर ने कहा–आंख पर रौनक छा गई, चेहरा खुश हो गया–कहा: पूछते हैं? एशिया माइनर को जीतने जा रहा हूं।
डायोजनीज बोला: फिर, फिर क्या करेंगे?
फिर हिंदुस्तान जीतूंगा।
और फिर?
कहा: फिर चीन जीतूंगा।
और फिर?
फिर सारी दुनिया जीतूंगा।
डायोजनीज ने पूछा: आखिरी सवाल और। फिर क्या करने के इरादे हैं?
सिकंदर ने कहा: उतनी दूर तक नहीं सोचा है, लेकिन आप पूछते हैं, तो मैं सोचता हूं कि फिर आराम करूंगा।
डायोजनीज कहने लगा: ओ कुत्ते, फिर वापस आ! यह कैसा पागल आदमी है, हम बिना दुनिया को जीते आराम कर रहे हैं, यह कहता है हम दुनिया जीतेंगे फिर आराम करेंगे! हमारा कुत्ता भी आराम कर रहा है, हम भी आराम कर रहे हैं। तुम्हारा दिमाग खराब है! आराम करना है न आखिर में?
सिकंदर ने कहा: आराम ही करना चाहते हैं।
तो उसने कहा: दुनिया कहां तुम्हारे आराम को खराब कर रही है! आओ, हमारे झोपड़े में काफी जगह है। दो भी समा सकते हैं। गरीब का झोपड़ा हमेशा अमीर के महल से बड़ा है। अमीर के महल में एक ही मुश्किल से समा पाता है। और बड़ा महल चाहिए, और बड़ा महल चाहिए! एक ही नहीं समा पाता, वही नहीं समा पाता! गरीब के झोपड़े में बहुत समा सकते हैं। गरीब का झोपड़ा बहुत बड़ा है। वह फकीर कहने लगा: बहुत बड़ा है, दो बन जाएंगे, आराम से बन जाएंगे। तुम आ जाओ, कहां परेशान होते हो?
सिकंदर ने कहा: तुम्हारा निमंत्रण मन को आकर्षित करता है। तुम्हारी हिम्मत, तुम्हारी शान, तुम्हारी बात छिदती है मन को। लेकिन आधी यात्रा पर निकल चुका, आधे से कैसे वापस लौट आऊं? जल्दी, जल्दी वापस आ जाऊंगा।
डायोजनीज ने कहा: तुम्हारी मर्जी! लेकिन मैंने बहुत लोगों को यात्राओं पर जाते देखा है, कोई वापस नहीं लौटता है।
और गलत यात्राओं से कभी कोई वापस लौटता है? और जब होश आ जाए, तभी अगर वापस नहीं लौट सकते, तो फिर.मतलब यह हुआ कि होश नहीं आया। एक आदमी कुएं में गिरने जा रहा हो। रास्ता गलत हो और आगे कुआं हो। उसे पता भी न हो। कोई कहे कि अब मत जाओ, आगे कुआं है। वह कहे, अब तो हम आधे आ चुके हैं, अब कैसे रुक सकते हैं! नहीं, लौट आएगा तत्क्षण। एक आदमी सांप के पास जा रहा हो और कोई कहे कि मत जाओ, अंधेरे में सांप बैठा है। वह आदमी कहे, लेकिन हम दस कदम चल चुके हैं, अब हम पीछे कैसे वापस लौट सकते हैं!
और फिर वह डायोजनीज कहने लगा कि सिकंदर, सपने बड़े होते हैं, आदमी की जिंदगी छोटी होती है। जिंदगी चुक जाती है, सपने पूरे नहीं होते हैं। फिर तुम्हारी मर्जी। खैर, कभी भी तुम आओ, हमारा घर खुला रहेगा। इसमें कोई दरवाजा वगैरह नहीं है। अगर हम सोए भी हों, तो तुम आ जाना और विश्राम करना। या अगर हमें न भी पाओ, क्योंकि कोई भरोसा नहीं कल का, आज सुबह सूरज उगा है, कल न भी उगे, हम न हों, तो भी झोपड़े पर हमारी कोई मालकियत नहीं है। तुम आ जाओ, तो तुम ठहरना। झोपड़ा रहेगा।
सिकंदर को ऐसा कभी न लगा होगा। असल में जो लोग सपने देखते हैं, अगर वे सच देखने वाले आदमी के पास पहुंच जाएं, तो बहुत कठिनाई होती है। क्योंकि दोनों की भाषाएं अलग हैं। और सिकंदर लेकिन बेचैन हो गया होगा। वापस लौटता था हिंदुस्तान से, तो बीच में मर गया, लौट नहीं पाया।
असल में, अंधी यात्राएं कभी पूरी नहीं होती हैं, आदमी पूरा हो जाता है। और सच तो यह है कि न मालूम कितने-कितने जन्मों से हमने अंधी यात्राएं की हैं, हम पूरे होते गए हैं बार-बार और फिर उन्हीं अधूरे सपनों को फिर से शुरू कर देते हैं! अगर एक आदमी को एक बार पता चल जाए कि उसने पिछली जिंदगी में क्या किया था, तो यह जिंदगी उसकी आज ही ठप हो जाए; क्योंकि यही सब उसने पहले भी किया था। यही नासमझियां, यही दुश्मनियां, यही दोस्तियां, यही धन, यही यश, यही पद, यही दौड़! न मालूम कितनी बार एक-एक आदमी कर चुका है! इसलिए प्रकृति ने व्यवस्था की है कि पिछले जन्म को भुला देती है, ताकि आप फिर उसी चक्कर में सम्मिलित हो सकें, जिसमें आप कई बार हो चुके हैं। अगर पता चल जाए कि यह चक्कर तो बहुत बार हुआ है, यह सब तो मैंने बहुत बार किया है, तो फिर एकदम सब व्यर्थ हो जाएगा।
वह सिकंदर मर गया। संयोग की बात कि उसी दिन डायोजनीज भी मर गया। और बड़ी अदभुत घटना घटी। यूनान में एक कहानी चल पड़ी, मरने के बाद। मरने के पहले पहली कहानी चल पड़ी थी कि सिकंदर से एक आदमी ने ऐसा कह दिया, एक फकीर ने। फिर दोनों एक दिन मरे। किसी होशियार आदमी ने एक कहानी चला दी कि वैतरणी पर फिर दोनों का मिलना हो गया। आगे सिकंदर है, पीछे डायोजनीज है। सिकंदर घंटे भर पहले मरा है, डायोजनीज घंटे भर बाद मरा है। सिकंदर ने पीछे खड़बड़ की आवाज सुनी पानी में, और किसी का जोर का कहकहा सुना। प्राण कंप गए। यह हंसी पहचानी हुई मालूम पड़ी। यह उसी आदमी की हंसी थी, डायोजनीज की!
डायोजनीज जैसा कोई दूसरा आदमी हंस भी तो नहीं सकता था। असल में हम जो हंसते हैं, वह हंसना कभी हंसना नहीं होता। क्योंकि जिनकी रोने की आदत पड़ी है, उनका हंसना भी झूठा ही होता है। ऊपर हंसी होती है, भीतर रोना होता है। हंसी में भी आंसू ही होते हैं। हंसी सदा झूठी होती है। हंस तो वही सकता है, जिसके प्राणों तक हंसी प्रवेश कर गई हो। और जिसके प्राणों में तो रोना चल रहा हो और ऊपर से हंसता हो, वह सब मन का बहलाव है। वह सिर्फ रोने को भुलाए रखने की कोशिश है।
हंसी है डायोजनीज की! सिकंदर तो कंप गया। और सिकंदर ने देखा, आज तो बड़ी मुसीबत हो गई। पिछली बार जब मिले थे, तो सिकंदर तो बादशाह के लिबास में था, डायोजनीज नंगा था। आज बड़ी मुश्किल हो गई, सिकंदर भी नंगा था। और डायोजनीज तो पहले से ही नंगा था, उसको तो शर्म की कोई बात न थी। पीछे लौट कर देखा, हिम्मत बढ़ाने के लिए, जरा आत्मविश्र्वास बढ़ाने के लिए, वह भी हंसा। लेकिन डायोजनीज ने कहा: बंद कर हंसी! झूठी हंसियां! जिंदगी भर झूठे काम किए, मरने के बाद भी झूठी हंसी हंस रहा है! बंद कर यह हंसी!
सिकंदर घबड़ा गया! और सिकंदर ने कहा: बड़ी खुशी हुई फिर से मिल कर आपसे। कितना अदभुत है यह। शायद ही कभी वैतरणी पर एक फकीर का–एक नंगे फकीर का और एक सम्राट का मिलना हुआ हो। यह पहला ही मौका होगा।
डायोजनीज ने कहा: ठीक कहता है तू। लेकिन थोड़ी सी गलती करता है समझने में कि कौन है सम्राट और कौन है फकीर। सम्राट पीछे है, फकीर आगे है! क्योंकि तू सब खोकर लौट रहा है। क्योंकि तूने जो भी पाना चाहा, वह सपने का पाना था। और मैं सब पाकर लौट रहा हूं। क्योंकि मैंने सपने तो तोड़ दिए। फिर जो बचा, उसी को पा लिया।
सारी दौड़ हमारी सपने की दौड़ है। क्या मिलेगा इससे कि एक आदमी बड़ा यश पा ले कि बड़ा पद पा ले? क्या होगा? क्या होगा इससे कि सारे लोग पूजें और आदर दें, सम्मान दें? कुछ भी तो नहीं हो सकता है। और कुछ जो हो सकता है भीतर की खोज से–इस पागलपन की दौड़ के कारण वह खोज के लिए समय नहीं मिलेगा।
लोग मुझे मिलते हैं, वे कहते हैं, आप जो कहते हैं, ठीक है, लेकिन फुर्सत कहां है?–कब ध्यान करें? कब भगवान को खोजें? समय कहां है? सपना सब समय ले लेता है। आदमी कहता है, सत्य के लिए समय कहां है!
अजीब अदभुत बात है! सपने इतने जोर से मन को पकड़े हैं कि वे कहते हैं, इंच भर समय मत छोड़ो। और क्यों ऐसा करते हैं सपने? निश्र्चित इसलिए कि अगर सत्य की एक किरण भी आ जाए, तो एक सपना नहीं, सारा सपने का चित्त विसर्जित हो
जाता है। इसलिए जरा सा भी मौका मत दो। दौड़ाए रखो, दौड़ाए रखो! एक दौड़ चुके न कि दूसरी लगा दो! मन कहता है, यह इच्छा चुके न कि दूसरी पकड़ा दो! एक इच्छा चुक भी नहीं पाती कि दूसरी इच्छा के अंकुर फूटने शुरू हो जाते हैं। मन कहता है, एक खोज बंद न हो पाए कि दूसरी खोज लगा दो! मन कहता है, एक सपना टूटे इसके पहले नये सपने जगा दो। क्योंकि एक किरण भी सत्य की–अगर मौका मिल गया दो सपनों के बीच में सत्य की एक किरण के प्रवेश का, तो सब गड़बड़ हो जाएगा। सब गड़बड़ हो जाएगा!
सपने कितने ही गहरे हों, जागरण की जरा सी चोट भी तो उन्हें नहीं बचा सकती।
तो आज इस तीसरी बैठक में यह कहना चाहता हूं कि अगर जाना है स्वयं की तरफ, सत्य की तरफ, तो पहले तो यह पहचानना होगा कि क्या-क्या है जो सपना है? और यह पहचानना होगा कि मैं सपनों को पानी तो नहीं सींचता हूं? यह खोज करनी होगी कि मैं सपनों की जड़ें तो नहीं बढ़ाता हूं? मैं सपनों को पुष्ट तो नहीं करता हूं? मैं कहीं सपनों के ही लिए सपनों में ही तो नहीं जीता हूं? यह खोज करनी पड़ेगी। और अगर यह खोज ठीक चले, तो चित्त खुद जानेगा, चेतना जानेगी कि यह सपना है। और जैसे ही पता चल जाए कि सपना है, हाथ ढीले हो जाते हैं।
सपने को भी पकड़ रखने के लिए यह भ्रांति रहनी चाहिए कि वह सत्य है! असल में सपना इतना कमजोर है कि सत्य का धोखा दिए बिना वह आप पर हावी भी नहीं हो सकता। अगर झूठ को भी चलना हो, तो सच के कपड़े पहनने पड़ते हैं! अगर बेईमानी को भी बाजार में गति करनी हो, तो तख्ती लगानी पड़ती है कि ईमानदारी ही हमारा नियम है! अगर झूठे घी को बिकना हो, तो सच्चे घी की दुकान खोलनी पड़ती है!
सपने, और असत्य, और असार इतना कमजोर है, इतना इंपोटेंट, इतना नपुंसक है कि उसे हमेशा सत्य से उधार लेना पड़ते हैं पैर!
मैंने सुना है कि पहली दफा पृथ्वी बनी और सब चीजें आकाश से उतरीं। एक कहानी है। भगवान ने सौंदर्य की देवी भी बनाई और कुरूपता की भी। वे दोनों भी उतरीं। और वे दोनों आकाश से जमीन तक आईं। तो आकाश की देवियां थीं–रास्ते की धूल-धवांस, आकाश से जमीन तक आना, और फिर जमीन की धूल और जमीन की दुनिया। वे दोनों के सब कपड़े, सब शरीर धूल से भर गया है, स्वेद से भर गया है।
उन्होंने कपड़े रखे एक झील के किनारे, स्नान करने को उतरीं। सुंदरता की देवी तो तैरती हुई दूर चली गई। कुरूपता की देवी किनारे पर वापस निकली, सुंदरता की देवी के कपड़े पहने और चलती बनी!
लौट कर सुंदरता की देवी ने देखा, बड़ी मुश्किल है, सुबह होने के करीब आ गई है, गांव के लोग जगने लगे हैं। भागी, बाहर आई, नंगी है, क्या करे? उसके कपड़े तो ले गई है कुरूपता की देवी। अब कुरूपता के कपड़े भर मौजूद हैं। मजबूरी है, उन्हीं को पहन कर भागी कि कहीं मिल जाएगी रास्ते में कुरूपता की देवी तो कपड़े बदल लेगी।
तब से सुना है कि सौंदर्य की देवी तो कुरूपता के कपड़े पहने घूम रही है और कुरूपता की देवी सौंदर्य के कपड़े पहने हुए है। और दोनों का मिलना नहीं हो पा रहा है। क्योंकि कुरूपता की देवी कहीं ठहरती ही नहीं, भागती ही रहती है, भागती ही रहती है। और अब तो बहुत दिन बीत गए, अब खयाल भी छोड़ दिया है सौंदर्य ने।
असत्य भी यही कर रहा है, सपने भी यही कर रहे हैं। चलना हो, तो सत्य के पैर चाहिए, वस्त्र चाहिए। सपने भी तभी तक चल सकते हैं, जब तक यह खयाल हो कि वे सत्य हैं। अगर यह दिखाई पड़ जाए कि वे सपने हैं, तो तत्काल टूट जाते हैं।
आपने कभी खयाल किया रात में, जब सपना चलता है, कभी पता नहीं चलता कि यह सपना है। और अगर पता चल जाए, तो समझना कि सपना टूट गया। अगर पता चल जाए सपने में कि यह सपना है, आप फौरन पाएंगे कि जागरण हो चुका, सपना टूट चुका है। आप जाग गए हैं, तभी पता चल रहा है कि यह सपना है।
साधक को, जो खोज में निकला हो परम सत्य की, उसे सपनों की खोज-बीन करनी पड़ती है कि क्या-क्या सपना है? कौन-कौन सी बात सपने की है? जितना ही होशपूर्वक यह मनन होगा, यह विश्लेषण होगा कि यह रहा सपना, वही सपना विलीन हो जाएगा। और जैसे-जैसे समझ बढ़ेगी, अंडरस्टैंडिंग बढ़ेगी, साफ होगी बात, वैसे-वैसे सपने घनीभूत होने बंद हो जाते हैं और चेतना अपने पर विश्राम करती हुई वापस आने लगती है, वहां, जहां सत्य है। सपनों से लौटती हुई चेतना सत्य पर पहुंच जाती है।
और हमारी सारी चेतना सपनों की तरफ भाग रही है! सपनों की तरफ हम भागे चले जा रहे हैं! और बचपन से लेकर मरने तक पूरा समाज जोर देता है सपनों के लिए! एक छोटा सा बच्चा स्कूल में गया है, मां-बाप कहते हैं, पहले नंबर आना! सपना पैदा करना शुरू हुआ। स्कूल में शिक्षक कहता है, नंबर एक! जो नंबर एक आएगा वही धन्य है। बाकी जो पिछड़ जाते हैं, सब अभागे हैं।
दौड़ शुरू हो गई है। एक छोटे से बच्चे के मन में जहर डाल दिया गया। अब वह बच्चा जिंदगी भर इसी कोशिश में रहेगा कि नंबर एक, नंबर एक! जहां भी जाएगा, नंबर एक! मुझे नंबर एक खड़े होना है! और एक दौड़ शुरू हो गई।
लेकिन कोई पूछे कि नंबर एक किसलिए खड़ा होना है? यह तो समझ में आ सकता है कि कोई कहे कि जहां भी तुम खड़े रहो वहां आनंदित होना। लेकिन समझाया यह जा रहा है कि नंबर एक खड़े होओगे तो ही आनंदित हो सकते हो। हालांकि अदभुत बात है कि नंबर एक खड़ा आदमी आज तक आनंदित नहीं देखा गया है। लेकिन अजीब अंधे हैं हम!
कौन नंबर एक आदमी कब आनंदित रहा है? और सच तो यह है कि कौन आदमी कभी नंबर एक हो पाया है? कहीं भी चले जाओ, आगे फिर कोई मौजूद है! हमेशा कोई आगे है, हमेशा कोई पीछे है। जैसे एक वर्तुल में, एक सर्किल में मनुष्यता भाग रही है। जैसे एक गोल घेरे में हम दौड़ रहे हों। कितना ही दौड़ो, फिर भी कोई आगे है, फिर भी कोई पीछे है। और आगे जाना है, नंबर एक जाना है!
जीसस ने कहा है: धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। गलत कहा होगा, क्योंकि हमारे सब शिक्षक, हमारी सब सभ्यता, हमारा समाज तो कहता है: नंबर एक! चाहे धन में, चाहे पद में, चाहे ज्ञान में, चाहे मोक्ष में; कहीं भी–नंबर एक!
संन्यासी भी कोशिश करता है कब जगतगुरु हो जाएं, किस शंकराचार्य की पीठ पर बैठ जाएं! और बैठ कर ऐसे अकड़ जाता है जैसे कोई मिनिस्टर अकड़ जाता है! वैसे वह भी अकड़ जाता है! उसकी अकड़ भी अपनी है। वह भी ऐसे देखने लगता है कि बाकी सब कीड़े-मकोड़े हैं, वह जगतगुरु है! और मजा यह है कि जगत से बिना पूछे लोग जगतगुरु हो कैसे जाते हैं? कोई जगत से पूछता ही नहीं, जगतगुरु हो जाते हैं!
दंभ है पीछे, सपने हैं पीछे। जगत के सम्राट होने की कामनाएं हैं, गुरु होने की भी कामनाएं हैं। बात वही है। सबकी छाती पर चढ़ने की चेष्टा है। लेकिन मिलेगा क्या? लेकिन दौड़ यह है महत्वाकांक्षा की! महत्वाकांक्षा यानी सपना, एंबीशन यानी सपना।
हम सब महत्वाकांक्षी हैं। और जो जितना महत्वाकांक्षी है, उतना ही स्वयं से दूर चला जाएगा। सत्य से दूर चला जाएगा। सत्य उन्हें मिलता है, जो महत्वाकांक्षी नहीं हैं। नॉन-एंबीशस माइंड। ऐसा मन जिसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। जो न कुछ होना चाहता है, न कहीं जाना चाहता है, न कुछ पाना चाहता है, न किसी के ऊपर बैठना चाहता है, न किसी का मालिक होना चाहता है, न किसी का गुरु होना चाहता है। जो कुछ होना ही नहीं चाहता। जो, जो है उसे जानना, उसमें जीना, उसमें खड़ा होना; उसमें ही होना चाहता है, जो है। जिसकी कोई बिकमिंग आगे, अपने से अलग कोई दौड़ नहीं है। लेकिन सब दौड़ रहे हैं।
देखो, एक संन्यासी भागा चला जा रहा है, और उससे पूछो, कहां जा रहे हो? वह कह रहा है कि जब तक हम मोक्ष न पहुंच जाएं, तब तक चैन नहीं है! कहां है मोक्ष? वह कहता है, जितनी जोर से दौड़ेंगे उतने जल्दी पहुंचेंगे। लेकिन उससे पूछो, दौड़ोगे कहां, जाओगे कहां, कहां है मोक्ष? वह कहता है, समय खराब मत करवाओ, मुझे तेजी से दौड़ने दो, जितनी तेज दौड़ होगी उतनी जल्दी मैं पहुंच जाऊंगा। लेकिन यह उसे पता नहीं कि कहां है! कहां दौड़ रहे हो? कहीं मोक्ष बाहर है कि तुम दौड़ोगे और पहुंच जाओगे?
कोई आदमी कहता है कि मुझे धनी होना है–और दौड़ रहा है, दौड़ रहा है। लेकिन कभी पूछता नहीं कि धन बाहर है? हां, एक धन है, रुपये-पैसे का। लेकिन कोई आदमी कितना ही धन इकट्ठा करके कभी धनी हुआ है? भीतर की निर्धनता तो शेष रह जाती है। धन बाहर इकट्ठा हो जाता है, भीतर की गरीबी भीतर रह जाती है।
अकबर का एक मित्र था, फरीद। एक दिन फरीद के गांव के लोगों ने कहा: जाओ, अकबर तुम्हें इतना मानता है, उससे प्रार्थना करो कि गांव में एक मदरसा खोल दे, एक स्कूल खोल दे।
फरीद तो कभी कहीं गया नहीं था। फरीद ने कहा: मैं कभी कहीं गया नहीं। मैंने कभी किसी से कुछ मांगा नहीं। लेकिन तुमने मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया। अगर मैं न जाऊं तो तुम सोचोगे कि गांव के लिए इतना सा काम न किया; और अगर मैं जाऊं तो पता नहीं अकबर क्या सोचे; क्योंकि अकबर मेरे पास ही मांगने आता है, तो मैं उसके पास मांगने जाऊं? लेकिन ठीक है, तुम कहते हो, मैं जाऊंगा।
फरीद गया। सुबह-सुबह जल्दी पहुंच गया, ताकि दरबार के पहले मिल ले। गया। अकबर? भीतर लोगों ने कहा, मस्जिद में वह नमाज पढ़ते हैं। फकीर अंदर गया। अकबर नमाज पढ़ कर उठा है, हाथ जोड़े परमात्मा से कह रहा है, हे प्रभु, मेरे धन को और बढ़ा! मेरी दौलत को बढ़ा! मेरे साम्राज्य को बड़ा कर!
फरीद उलटे पांव वापस लौट पड़ा। अकबर उठा तो देखा–फरीद सीढ़ियां उतर रहा है। आवाज दी, कैसे आए, कैसे चले? कुछ गलती हो गई?
उसने कहा: नहीं, कोई गलती नहीं। तुमसे नहीं, गलती मुझसे हो गई है।
अकबर ने कहा: क्या गलती? आपसे और गलती!
उसने कहा: मैं बड़ी गलत जगह आ गया। गांव के लोगों ने कहा कि अकबर सम्राट है और यहां आकर हमने देखा कि अकबर भी भिखारी है! वह भी मांग ही रहा है! तेरी मैं कुछ कमी नहीं करूंगा, मुझे माफ करना, गलत जगह आ गया। और फिर तू जिससे मांग रहा है, अगर मांगना होगा, उसी से हम मांग लेंगे। तेरी मैं कमी नहीं करूंगा। मदरसा बनाने में बड़ा मुश्किल हो जाएगा।
अकबर कुछ समझा नहीं। कहा: कैसा मदरसा? क्या बात है?
उसने कहा: नहीं, अब कुछ बात ही नहीं है। और फकीर कहने लगा, नहीं, अब नहीं बनाना मदरसा। मदरसे से बड़ी कमी हो जाएगी। तेरे पास वैसे ही कमी है, भगवान से मांगना पड़ रहा है। हम तुझे गड़बड़ नहीं करते। हम फकीर, भिखारी के पास आ गए, यह पता नहीं था।
अकबर भी अमीर नहीं है। असल में अमीर तो अमीर कभी हो ही नहीं पाता है। धन बाहर इकट्ठा हो जाता है, भीतर का निर्धन बैठा हुआ है। वह मांग करता है, और लाओ! इससे कुछ नहीं होता, हमारी गरीबी इससे नहीं मिटती!
एक धन और भी है। वह धन, वह धन शायद बाहर के सिक्कों में नहीं है। पद है–एक पद बाहर है। कितने ही बड़े पद पर चढ़ जाओ, कुछ फर्क नहीं पड़ता। बच्चों का खेल है, इससे ज्यादा नहीं। छोटे बच्चे होते हैं घर में, कुर्सी पर चढ़ जाते हैं; अपने बाप से कहते हैं, देखो, आपसे बड़े हो गए। बाप हंसता है कि जरूर, बिलकुल बड़े हो गए। कंधे पर बिठाल लेता है कि बड़े हो गए। और बच्चा खुश होता है, अकड़ कर देखता है कि देखो हम बड़े हो गए।
कुर्सी पर खड़े होकर बच्चा बड़ा हो जाता है, तो पद की कुर्सी पर खड़े होकर कोई बड़ा अगर हो जाए, तो चाइल्डिश और बचक
ाना ही जानना चाहिए। और तो कुछ बात नहीं होगी। आप कुर्सी पर हो गए तो बड़े कैसे हो गए?
मद्रास में एक मजिस्ट्रेट था, अंग्रेज था। और बड़ी फिकर रखता था कि आदमी को पद के अनुसार कुर्सी होनी चाहिए। खयाल तो हम सब रखते हैं, लेकिन इतने पागल नहीं। वह बिलकुल कंसिस्टेंटली मैड, बिलकुल व्यवस्थित रूप से पागल था।
फिकर तो हम भी रखते हैं। नौकर घर में आता है, कितना ही बूढ़ा है, तो भी कोई नहीं कहता कि बैठिए। बूढ़ा आदमी खड़ा है और जवान आदमी बैठा है! वह ऐ-तू करके बोल रहा है कि जाओ यह करो, वह करो। बूढ़े आदमी से कोई नहीं कहता कि बैठिए! बूढ़ा आदमी दिखाई ही नहीं पड़ता! वह भी किसी का बाप है। लेकिन गरीब का बाप भी किसी का बाप होता है? फिर एक पैसे वाला आ जाता है। दो कौड़ी का आदमी है, लेकिन पैसा उसके पास बहुत है। और आप उठ कर खड़े हो गए हैं, और जी-हजूरी कर रहे हैं, और बैठिए, और बैठिए! है तो दिमाग हमारा भी वही।
वही उसका था। लेकिन वह बड़ा व्यवस्थित था। उसने सात नंबर की सात कुर्सियां बना रखी थीं। आदमी देख कर नंबर की कुर्सी बुलवाता था। सबसे कमजोर आदमी को तो ऐसे ही खड़ा रखता था, बैठने ही नहीं देता। अदालत थी उसकी। अपनी कुर्सी पर बैठा रहता था। फिर आदमी कोई अंदर आता, तो वह चपरासी से कहता, जाओ, नंबर एक ले आओ, या नंबर दो ले आओ, या तीन ले आओ, या सात ले आओ। सात नंबर की कुर्सियां थीं।
सात नंबर की कुर्सी सबसे छोटे आदमी के लिए थी। और आठ नंबर के लिए तो कोई कुर्सी नहीं थी। उसको ऐसे ही खड़ा रहना पड़ता था। और सातवें नंबर की भी कुर्सी क्या थी, एक मुढा था।
एक आदमी आया एक दिन सुबह। और यह घटना कहानी नहीं है, यह घटना असलियत है। और डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैया ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि वे उस मजिस्ट्रेट से परिचित थे। और उस अदालत की पूरे गांव में चर्चा थी।
एक आदमी अंदर आया; बूढ़ा आदमी है, लकड़ी टेक रहा है, कपड़े पुराने हैं। देखा कि खड़े-खड़े काम चल जाएगा, तो खड़े ही रहने दिया। लेकिन उस बूढ़े ने ऐसे हाथ उठा कर अपनी घड़ी देखी। घड़ी कीमती मालूम पड़ी। मजिस्ट्रेट ने फौरन कहा अपने चपरासी को, जा नंबर तीन ले आ। वह तीन लेकर आ रहा था, तब तक उस बूढ़े ने कहा: आप शायद पहचाने नहीं, मैं फलां-फलां गांव का जमींदार, रायबहादुर, फलां.। अरे, रायबहादुर! नौकर तीन नंबर की कुर्सी लेकर आ रहा था, मजिस्ट्रेट ने कहा: रख, भीतर रख, वापस भीतर रख; नंबर दो की लेकर आ। नौकर नंबर दो की ला रहा है, तब उस रायबहादुर ने कहा: नहीं, आप पहचाने नहीं, पिछले महायुद्ध में दस लाख रुपये सरकार को दिए थे। नौकर तब तक नंबर दो की ला रहा था, उस मजिस्ट्रेट ने कहा: अंदर रख, अंदर रख; नंबर एक की लेकर आ।
उस बूढ़े आदमी ने कहा: मैं खड़े-खड़े थक गया, आखिरी नंबर की बुला लो, क्योंकि मैं दस लाख रुपये और देने के खयाल से आया हूं।
आदमी ऐसे नापा जाता है। यही आदमी रहता, अगर इसके पास रुपये न होते तो आदमी दूसरा होता? अगर इसके पास अच्छी घड़ी न होती तो आत्मा दूसरी होती? अगर इसने दस लाख रुपये न दिए होते तो? तो बस यह कुछ न था, फिर ना-कुछ था, फिर कुछ मतलब का न था।
यह हमारा मूल्यांकन है! हम सपने तौल रहे हैं कि सत्य तौल रहे हैं? सत्य तो आदमी है, उसके भीतर की आत्मा है, वह जो है। ये सपने हैं कि उसके पास कैसी घड़ी है, कैसा मकान है, कैसी पदवी है। ये सपने हैं जो चारों तरफ से जुड़े हैं। लेकिन हम सब सपने ही पहचानते हैं, क्योंकि हम खुद उन्हीं सपनों में जीते हैं, उन्हीं का आग्रह रखते हैं, वही हम होना चाहते हैं!
सपनों की दुनिया कपड़ों की दुनिया है। सपनों की दुनिया बाहर की आंखों की दुनिया है। भीतर कोई सपना नहीं है, सब सपने बाहर हैं। लेकिन जो तोड़ेगा इनको, जागेगा इनसे, लौटेगा भीतर की तरफ।
तो हमें देखना यह है कि दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है। एक-एक को यह जानना चाहिए कि मैं भी तो एक ड्रीमर, एक सपना देखने वाला नहीं हूं स्वप्न-द्रष्टा? एक स्वप्न-निर्माता–मैं भी तो सपने नहीं बना रहा हूं?
सब बना रहे हैं हम, कितने-कितने सपने हैं हमारे! क्या-क्या हो जाने की इच्छा है! क्या-क्या बन जाने का खयाल है! क्या-क्या.! कभी-कभी हम बन ही जाते हैं! कौन नहीं है जो कभी रास्ते पर चलते-चलते एकदम राष्ट्रपति नहीं हो जाता? कई दफे मन होने लगता है कि पड़ोस के लोग कुछ सोचेंगे नहीं मेरे बाबत? कोई संसद में कहेगा नहीं कि फलां आदमी को बना दो अब? खयाल आ ही जाता है। कौन नहीं बन जाता? मन ही मन में क्या नहीं बन जाता? किसको लॉटरी नहीं मिल जाती सड़क पर चलते-चलते कि लाख रुपये मिल ही गए?
मेरे एक मित्र थे डॉक्टर। दिन-रात क्रॉसवर्ड प़जल भरते थे। दिन-रात। और लाखों से नीचे नहीं उतरते थे। दवाखाना तो चलता नहीं था। क्योंकि वैसे आदमी का क्या दवाखाना चले। जब भी मरीज पहुंचे, तब वे अपनी पहेली भर रहे हैं! मरीज से कह रहे हैं कि रुको, क्योंकि वहां लाखों का मामला है। दो रुपये की फीस के लिए कौन पंचायत में पड़े!
मैं भी कभी-कभी वहां जाता था। हर महीने उनको लाखों मिलते थे। मिले तो कभी नहीं थे। फिर तारीख खो जाती थी। फिर मामला वही, दूसरी भरने लगते थे। एक दिन मुझसे बोले कि इस बार तो बिलकुल पक्का है, ये एक लाख रुपये निश्र्चित रहे।
मैंने कहा कि अगर एक लाख मिल जाएं, तो एक काम करना, गांव की लाइब्रेरी के लिए कुछ चंदे की जरूरत है। कुछ उसमें दोगे?
सोचने लगे कि कितना दें? बड़ी मुश्किल से बोले कि पांच हजार दे दूंगा! एक लाख मिलने को थे। पांच हजार! ऐसा कष्ट मालूम पड़ा।
मैंने कहा: नहीं, ज्यादा हो जाएंगे पांच हजार। आपका मन बहुत भारी है।
आप कहते तो ठीक हैं, गरीब आदमी हूं, पांच हजार भी बहुत मुश्किल है। ढाई हजार पक्का रहा। बिलकुल ढाई हजार दे दूंगा।
मैंने कहा: लिख कर दे दो, बदल जाओ।
लिखते वक्त कहने लगे कि ढाई हजार! और किसने क्या दिया है? गांव में और कौन कितना दे रहा है? बड़े सेठ गांव के जो हैं, वे कितना दे रहे हैं?
मैंने कहा: वे तो केवल दो सौ एक रुपया दे रहे हैं।
तो कहा: मुझ गरीब डॉक्टर को आप ढाई हजार! दो सौ एक वे देते हैं, तो दो सौ एक मुझसे ले लें।
अभी वह मिलने वाली है, पहेली अभी मिल नहीं गई है। और मिलने वाले हैं लाख उसमें, और मामला बिलकुल पक्का है।
मैंने कहा: जैसी मर्जी लिख दो।
उन्होंने कहा: लिखने की क्या बात है, आपसे बात हो गई, दे ही देंगे।
मैं तो गपशप करके वापस लौट आया, हंसता हुआ, सोचता हुआ कि आदमी भी कैसा है! आदमी कैसा है, कैसा दिमाग है!
रात को कोई ग्यारह बजे–मैं अपनी छत पर सोया था, गर्मी के दिन थे–नीचे से उन्होंने आवाज दी कि सुनिए!
मैंने कहा: क्या मामला है?
उन्होंने कहा कि देखिए, इस बार रहने दीजिए, अगली बार जब मिलेगा, तब दे देंगे।
वे ग्यारह बजे रात तक सोच कर फिर आए वापस। आधा मील फासला था मेरे और उनके घर का।
मैंने कहा: आप सुबह बता देते।
उन्होंने कहा: नींद ही नहीं आई। कि अगली बार पक्का मानिए।
वह मिली तो है ही नहीं, अगली बार का तो सवाल नहीं उठा।
लेकिन आदमी कैसे जीता है! और हम सब ऐसे जीते हैं! उन पर हंसना मत। क्योंकि वह आदमी कोई खास नहीं है, बिलकुल हमारे ही, हम ही जैसे आदमी हैं। हम सब ऐसे ही जीते हैं। बिलकुल ऐसे ही जीते हैं!
यह जो चित्त है, ऐसा जीने वाला चित्त सत्य को जान सकता है? और कौन आदमी है जो सपने खड़े नहीं किए हुए हैं? कितने दूर तक खड़े किए हुए हैं? कौन आदमी है जिसने सपनों की नावें नहीं चला दी हैं सागरों में?
अब कागज की नाव भी कमजोर होती है, लेकिन सपने की नाव तो और भी कमजोर होती है। कागज की नाव तक डूब जाती है। सपने की नाव तो चलती ही नहीं। लेकिन सब चला रहे हैं! फिर जब नावें डूबती हैं, तो दुख होता है, तब हम जल्दी दूसरी नावें बना लेते हैं! एक डूबी कि हमने दूसरी बनाई!
एक-एक क्षण में व्यक्ति को सजग होकर जांच करनी पड़ती है भीतर कि कहां-कहां सपना है? और दिखाई भर पड़ जाए कि यह सपना रहा, सपना तत्क्षण गिर जाएगा। यह पता भर चल जाए कि यह रहा सपना मेरा, मैं सपने में चला, सपना फौरन गिर जाएगा। बैठे हैं, कुर्सी पर बैठे हैं और दिमाग सपने देखने लगा–दिवास्वप्न चल रहे हैं।
यह जो चित्त की दशा है, यह ध्यान में सबसे बड़ी बाधा है। ड्रीमिंग माइंड जो है, सपने देखने वाला चित्त जो है, वह ध्यान में सबसे बड़ी बाधा है।
ध्यान में वह जाता है, जो स्वप्न तोड़ देता है।
लेकिन पहचान हमें नहीं है। दूसरे की बात तो हमें पहचान में आ जाएगी कि हां, यह आदमी सपना देख रहा है। लेकिन हम, अपनी तरफ जब जांचने जाएंगे तो हमें पता ही नहीं चलता कि हम सपने देख रहे हैं।
हर आदमी जब निकलता है अपने घर से, तो देखें कैसा आईने में सजता है, संवरता है, बनता है। इसी खयाल में है कि सारा गांव उसको देखेगा! हालांकि किसी को फुर्सत है गांव में देखने की किसी को? इतना तैयार होकर जा रहा है! इतनी तैयारी! जब मैं देखता हूं कि इतनी तैयारी हो रही है, तब मेरे मन में बड़ा दुख होता है कि गांव के लोग तो बड़े कठोर हैं, कोई देखेगा ही नहीं। यह बेचारा कितनी मेहनत कर रहा है। यह निकल जाएगा। और गांव के लोगों को फुर्सत कहां है, वे खुद अपनी तैयारी करके आए हैं! वे चाहते हैं कि कोई दूसरा देखे। अब बड़ी मुश्किल है। कौन किसको देखे?
एक बाप अपने बेटे से कह रहा था कि भगवान ने तुम्हें बनाया है इसलिए कि तुम दूसरों की सेवा करो। पुराना जमाना होता तो बेटा मान लेता। अब बेटे काफी समझदार हैं। उस बेटे ने कहा: मैं समझ गया, कि भगवान ने मुझे इसलिए बनाया है कि मैं दूसरों की सेवा करूं। मैं यह पूछता हूं कि भगवान ने दूसरों को किसलिए बनाया है? यह भी तो पता हो जाना चाहिए न कि उनको दूसरों को किसलिए बनाया हुआ है? अगर उनको भी दूसरों की सेवा के लिए बनाया है, तो बड़ा ही जाल पैदा कर दिया–कि हम उनकी सेवा करें, वे हमारी सेवा करें। इससे तो बेहतर यह है कि हम अपनी-अपनी सेवा कर लें।
हर आदमी निकल रहा है घर से कि दूसरे उसे देखें–हर आदमी! दूसरा भी इसलिए निकला है कि दूसरे उसे देखें। इससे तो अच्छा है कि हम अपना-अपना आईना अपने साथ रखें और जब तबीयत हो देख लें। कुछ होशियार स्त्रियों ने रखना शुरू कर दिया है। यह जो पुरुष है, यह उतना होशियार नहीं है, या उतना हिम्मतवर नहीं है।
कौन किसको देखे? किसको फुर्सत है? लेकिन क्या सपना देख रहे हैं फिजूल? अगर दस लोगों ने सड़क पर झांक कर भी देख लिया तो मतलब क्या है? क्या होगा उससे? लेकिन एक सपना है कि सारी दुनिया मुझे देखे। लेकिन किसलिए? और जरूरत क्या है? और मतलब क्या है? प्रयोजन क्या है? और फायदा क्या है? और होगा क्या? पर हमें खयाल में नहीं है कि जब हम जूते का बंध भी लगा रहे हैं, जब टाई कस रहे हैं, तब पता नहीं किस काल्पनिक दुनिया में जी रहे हैं कि कौन देख लेगा!
कपड़े को भी हम कोई तन ढंकने के लिए नहीं पहन रहे हैं। कपड़े भी–कुछ और मतलब भी रखते हैं। तन ढंकने के लिए तो कोई भी कपड़ा काम दे सकता है। लेकिन तन ढंकने का सवाल नहीं है इतना। सवाल कुछ और है। तन ढंकना बिलकुल गौण हो गया है। मामला कुछ और है। सच तो यह है कि बहुत कम लोग शरीर को ढंकने के लिए कपड़ा पहन रहे हैं; शरीर को प्रकट करने के लिए कपड़ा पहना जा रहा है। तो जो कपड़ा शरीर को जितना प्रकट करता हो, उतना बढ़िया कपड़ा समझा जा रहा है।
इसलिए तो कपड़े एकदम चुस्त होते चले जा रहे हैं। आदमी की जान निकल रही है भीतर और कपड़े कसते चले जा रहे हैं। क्योंकि कसे हुए कपड़े में से शरीर दिखाई पड़ता है, नहीं तो दिखेगा नहीं। तो जान निकली जा रही है। अगर आदमी को देखें, उसकी हालतें देखें, जितना कपड़ा कसता चलेगा, भीतर जान निकल रही है। लेकिन संयम साधे हुए हैं। संयम साधे हुए चले जा रहे हैं! तपश्र्चर्या कर रहे हैं! गर्म मुल्क है, आदमी टाई कसे हुए है! फांसी नहीं लगा लेते? गर्म मुल्क है, आदमी जूता और मोजा पहने हुए है! सच्चाई में जी रहे हो, कहां जी रहे हो? पूरे वक्त न मालूम कोई दूसरा मूल्य काम कर रहा है।
गालिब को एक दफा बहादुरशाह जफर ने बुलाया निमंत्रण के लिए, सम्राट ने। और गालिब तो गरीब आदमी हैं। तो पुराने कपड़े हैं, कवि हैं। और कवि अब तक अमीर तो नहीं हो सका। कवि अमीर हो सके, इसके अभी बहुत जमाने में देर है। कवि तो अमीर नहीं हो सकता; सिर्फ चोर अमीर हो सकते हैं। कवि कैसे अमीर होगा? हां, अगर कवि भी चोर हो, यानी दूसरों की कविताएं चुराता हो, तो हो सकता है।
लेकिन वह गालिब तो गरीब आदमी है। और कविताओं के लिए कुछ मिलता है! अब सम्राट ने बुलाया है, तो वह चल पड़ा। मित्रों ने कहा: पागल हो गए हो, ये कपड़े पहन कर जा रहे हो? दरवाजे के भीतर दरबान घुसने नहीं देगा।
गालिब ने कहा: मुझे बुलाया है कि मेरे कपड़ों को? नहीं माना। कुछ नासमझ नहीं मानते। तो नासमझ ही रहा होगा गालिब। समझदार तो. समझदार यानी चालाक, यानी कनिंग। वे जितने चालाक थे, वे तो ठीक कह रहे थे। वे कह रहे थे, कोई पहचानेगा नहीं, तुम कहां जा रहे ये कपड़े पहन कर? सम्राट ने तुम्हारी कविताएं सुन ली हैं, कविताओं की खबर पहुंच गई है, लेकिन दरबान को क्या पता?
नहीं माना गालिब। चला गया। द्वार पर जाकर बोला कि मुझे भीतर जाने दें, मैं सम्राट का मित्र हूं। उन्होंने भोजन के लिए निमंत्रण भेजा है।
पहरेदार ने जवाब तो नहीं दिया, एक धक्का दिया। और कहा कि जितने भी गांव के भिखमंगे हैं सभी सम्राट के दोस्त! दिन भर यही परेशानी! फिर कोई आ गया! जो देखो वही महल में जाने को आए! रास्ते पर लगो अपने!
गालिब की तो समझ के बाहर हो गया। सोचा कि मित्र ही ठीक कहते थे। वापस लौट पड़ा। मित्रों से कहा: तुम ठीक कहते थे। उधार कपड़े ले आओ।
पड़ोस-पास से उधार कपड़े मांग लाए गए। अच्छा कमीज है, कोट है, कुर्ता है, पगड़ी है, जूते हैं, सब उधार। उधार कपड़े पहन कर चल पड़ा गालिब। अब बड़ा जंच रहा है। उधार आदमी बहुत जंचते हैं! अब जो भी देखो वही झांक कर देख रहा है उसी सड़क पर, कौन जा रहा है? दरबान झुक-झुक कर नमस्कार करने लगा कि आइए, अंदर आइए। आप कौन हैं? गालिब ने कहा: ये! वह कुछ समझा नहीं कि क्या मतलब है। डर के मारे कि कोई बड़ा आदमी है, भीतर जाने दिया। गालिब ने कहा: ये! वह दरबान समझा नहीं कि क्या मतलब है, कहा, अच्छी बात है, भीतर जाइए। इतना बड़ा आदमी है, सोने की जंजीर लटकी हुई है। अब यह थोड़े ही पता लगाना पड़ता है कि जंजीर किसकी है। किसी की हो, लटकी होनी चाहिए। और जिस पर लटकी है, उसी की है–और क्या, इससे ज्यादा और क्या सबूत हो सकता है?
भीतर गया गालिब। सम्राट.बड़ी देर.परेशान हो गए हैं। समय गुजर गया। कहा कि बड़ी देर लगा दी?
गालिब ने कहा कि नहीं, देर नहीं लगाई। कुछ जरा अड़चन में फंस गया। कुछ नासमझी में फंस गया। कुछ भूल-चूक में पड़ गया। समझदारों की न मानी, इससे देर हो गई।
सम्राट कुछ समझा नहीं कि वह क्या बातें कर रहा है। फिर कहा: अच्छा बैठिए, बहुत देर हो गई। खाना सामने रखा है। खाना उठाया है गालिब ने और पगड़ी से बोला, कि ले पगड़ी खा! कोट से बोला, कि ले कोट खा! सम्राट ने कहा: क्या करते हैं आप? आपके खाने की बड़ी अजीब आदतें मालूम होती हैं! यह क्या कर रहे हैं?
गालिब ने कहा: मैं तो बहुत देर पहले भी आया था, मैं तो लौट गया। अब तो कपड़े आए हैं, अब कपड़े ही भोजन करेंगे। माफ करिए, आदत का सवाल नहीं है। मैं हूं ही नहीं, मैं तो जा चुका वापस। इस बार कपड़े ही आ गए हैं, कपड़े खाएंगे, कपड़ों से मिलिए, बातचीत करिए, गले लगिए।
ठीक कहा उसने। कपड़े ही हैं। और उन्हीं कपड़ों में हम सब जी रहे हैं! और सब झूठे कपड़े हैं। वह जो भीतर जो सच है, वह तो दब गया है। सपनों के बहुत कपड़े हैं–पद के, प्रतिष्ठा के, मान-मर्यादा के, ज्ञान के, पांडित्य के। त्याग तक के कपड़े हैं।
एक आदमी को देखो जरा त्याग कर दे तो कैसा अकड़ कर चलता है! क्या अकड़ रहे हैं आप कि उन्होंने सात दिन का उपवास किया है! तुम्हारी किस्मत खराब है, भूखे मरो, जो तुम्हें करना हो करो। लेकिन अकड़े किसलिए जा रहे हो? तुम सात दिन उपवास करो तो इसमें किसी का क्या कसूर है? बैंड-बाजा बजा कर गांव के बच्चों की परीक्षा क्यों खराब कर रहे हो? यह अकड़ किसलिए? तुम्हारी मौज है कि तुम सात बार खाओ दिन में या सात दिन बिलकुल मत खाओ।
नहीं, लेकिन वह सारी दुनिया को खबर करके बता रहा है कि मैंने सात दिन उपवास किए हैं। मैं कोई खास आदमी हो गया। खूब सपने में जी रहे हो! भूखे मरने से कोई खास हो जाएगा?
सब तरह के, न मालूम किस-किस तरह के हम–इस तरह की बातें जिनका, जिनका जीवन के सत्य तक जाने से कोई संबंध नहीं है, लेकिन जीवन को झुठलाने और असत्य करने से बहुत संबंध है, उनसे हम बंधे हैं। अगर इनसे हम बंधे हैं, तो हमारी यात्रा ध्यान की तरफ नहीं हो सकती है।
तो इसलिए दूसरी बात, अभी जब हम ध्यान के लिए बैठेंगे, तो मैं आपसे कहना चाहता हूं कि थोड़ा जागें कि हमने क्या-क्या सपने देखे हैं। और उनको क्षमा करें, जाने दें।
बड़ा बुरा लगेगा मन को। क्योंकि सपने उखड़ते हैं, तो बड़ी चोट पड़ती है। क्योंकि सपने ही सब-कुछ रहे हैं। वही हमारी संपत्ति, वही हमारा प्राण, वही हम! सपने उखड़ते हैं तो जान निकलती है। वही तो सब-कुछ हैं। उखड़ गए तो हम तो कुछ न रह जाएंगे। नंगे, ना-कुछ–कुछ हमारे पास बचेगा नहीं। कपड़ों के सिवाय और क्या है? खयालों के सिवाय और क्या है? चारों तरफ बंधी हुई बातचीत के सिवाय और क्या है हमारे पास? वही संपदा है, वही प्राण हैं! वही हमारी आत्मा हो गई है! उसको ही कहते हैं छोड़ दें! तो गए, फिर हम खो जाएंगे।
लेकिन जो खोने को राजी है, वह पाने का हकदार हो जाता है। जो अपने को मिटाने को राजी है, वह स्वयं होने का अधिकारी हो जाता है।
और अपने को मिटाना क्या है? मिटता केवल वही है, जो मिट सकता है। सपना ही मिट सकता है। वह तो मिट ही नहीं सकता, जो है! सत्य तो मिट नहीं सकता।
इसलिए उखाड़-उखाड़ कर भीतर से जहां-जहां मालूम पड़े कि यहां-यहां मैंने देखा स्वप्न और बांध लिया भवन कल्पना का, वहां-वहां गिरा देना, वहां-वहां मिटा देना, सब तरफ साफ कर देना।
जैसे बच्चे नदी की रेत पर इकट्ठे हो जाते हैं, रेत के घर बनाते हैं। और लड़ते हैं कि मेरे घर से दूर रहना। अपनी टांग दूर रखो, अपना पैर दूर रखो, मेरा घर न गिर जाए। एक तो रेत का घर बनाते हैं, फिर दूसरों से कहते हैं, दूर रहो। कोई पास मत आ जाना, मेरा रेत का घर, मेरा घर गिर न जाए!
एक तो रेत का घर बनाते हो, फिर गिरने से डरते हो? फिर दूसरा कोई पास न आ जाए। फिर अगर एक बच्चे का पैर दूसरे बच्चे के घर पर पड़ जाए तो झगड़ा हो जाता है, मार-पीट भी हो जाती है, कपड़े भी फाड़ दिए जाते हैं, खून भी निकल जाता है, सिर भी फोड़ दिए जाते हैं।
कोई पूछे कि क्या कर रहे हो? रेत के घरों के लिए सिर फोड़ रहे हो! कपड़े फाड़ रहे हो, मार रहे हो!
और फिर सांझ हो गई है और सूरज ढलने लगा है और मां की घर से आवाज आती है कि लौट आओ, खाने का वक्त हो गया है। और लड़के अपने घरों में खुद ही पैर मार कर भाग जाते हैं! और रेत पर सब पड़ा रह जाता है! जिसके लिए लड़े थे, वह सब वहीं छूट जाता है!
लेकिन लड़कों की जो बात है वही बूढ़ों की भी है। जिंदगी की रेत पर बहुत घर बनाते हैं सपनों के, फिर लड़ते हैं पड़ोसी से, इससे-उससे। अदालतें हैं, मुकदमे हैं और न मालूम क्या-क्या जाल है! और काहे का जाल है–कि कुछ रेत के घर मैंने बनाए, कुछ रेत के घर आपने बनाए, एनक्रोचमेंट हो गया है! मेरा घर आपके घर पर चढ़ गया है, आपका घर थोड़ा मेरे घर के इधर आ गया, आपका छप्पर थोड़े मेरे घर के भीतर आ रहा है–एनक्रोचमेंट। एक-दूसरे के सपने में घुस गया है सपना। जान निकल रही है। अदालतें खड़ी हैं वहां। देखें, ढोंग कैसा अदभुत है। नासमझ लड़ रहे हैं, और अदालतों में और नासमझ बड़े मोरमुकुट बांधे हुए बैठे फैसले दे रहे हैं!
और मजा यह है कि किस बात पर लड़ रहे हो? क्यों लड़ रहे हो? यह अगर बोध थोड़ा जगे. कोई दूसरा नहीं जगा सकता। यह तो आपको ही इंच-इंच अपनी जिंदगी देखनी पड़ेगी कि किस बात के लिए जी रहा हूं, किस बात के लिए लड़ रहा हूं, क्या बना रहा हूं, क्या खोज रहा हूं, क्या होने की आकांक्षा कर रहा हूं? और अगर इसकी खोज जारी हो, तो अचानक ऐसी शांति भीतर आनी शुरू हो जाएगी, ऐसा दिखने लगेगा साफ कि यह रहा सपना, यह गया।
सपने गिर जाएं और सत्य प्रकट हो जाता है। सत्य सदा से है। सपनों में दबा है, जैसा कल मैंने कहा। और सत्य कहीं सपनों में दब सकता है? वह ऐसे ढंग से दबता है, जैसे चांद कुएं में उलझ जाता है। सच तो नहीं दब सकता–सत्य कैसे सपने में दब सकता है? हां, सपने के कुएं में चांद का प्रतिबिंब फंस सकता है। और चांद ऊपर भागा चला जा रहा है!
वह जो हम हैं असली में भीतर, वह तो सदा बाहर है। लेकिन हमारे चारों तरफ सपने का जाल गूंथा है, सपने की जाल में परछाईं बन रही है। परछाईं फंस गई है। अब परेशान हैं!
ध्यान का अर्थ है: इस परछाईं को तोड़ देना, परछाईं से हट जाना; उसको जान लेना, जिसकी परछाईं है।
अब हम रात के प्रयोग के लिए बैठेंगे। दो मिनट समझ लें, क्या करेंगे।
सच तो यह है कि करना कुछ नहीं है। न करने की हालत में सब छोड़ देना है। एक दस मिनट के लिए सब छोड़ कर हम बैठेंगे।
शरीर को शिथिल छोड़ देंगे, आंख बंद कर लेंगे। और एक ही बात देखने की कोशिश करेंगे कि सब मुझसे बाहर है। और जो भी मुझसे बाहर है, वह सपना है। मैं जो भीतर हूं, अकेला मैं, यह चेतना, कांशसनेस, मेरी आत्मा, मेरा जो साक्षी होना है, वही सत्य है। और धीरे-धीरे उस साक्षी में थिर हो जाना है। थिर हो जाना हो जाता है, एक बार साफ खयाल में आना शुरू हो। वह खयाल में आ जाएगा। फिर दस मिनट के लिए मैं छोड़ दूंगा। फिर आप सिर्फ साक्षी होकर रह जाएंगे।
थोड़े-थोड़े फासले पर बैठें, कोई किसी को छूता न हो। एनक्रोचमेंट बिलकुल नहीं। कोई किसी के भीतर नहीं घुस जाना चाहिए, न किसी को छूना चाहिए। थोड़े-थोड़े हट जाएं। और कोई बातचीत न करें। कोई बातचीत न करें। किसी को जाना भी हो, तो भी दस मिनट बैठ कर जाए, ताकि दूसरों को कोई डिस्टरबेंस न हो। आपको न भी करना हो, तो बाहर चुपचाप बैठ जाएं, लेकिन आप जाने की फिकर न करें कोई भी, क्योंकि दूसरों को बाधा पड़ेगी। आप जितनी देर तक जाएंगे, उतनी देर तक गड़बड़ जारी रहेगी। दूसरों को खयाल रख कर भी बैठ जाएं। अगर किसी को जल्दी भी जाना हो, तो भी दस मिनट चुपचाप बाहर बैठ जाए। और अलग-अलग फैल जाएं। कहीं भी बैठ जाएं.।