UPANISHAD
Ka Sovai Din Rain 05
Fifth Discourse from the series of 11 discourses – Ka Sovai Din Rain by Osho. These discourses were given during MAR 31 – APR 10 1978.
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हीरा जन्म न बारम्बार, समुझि मन चेत हो।।
जैसे कीट पतंग पषान, भये पसु पच्छी।
जल तरंग जल माहिं रहे, कच्छा औ मच्छी।।
अंग उघारे रहे सदा, कबहुं न पावै सुक्ख।
सत्य नाम जाने बिना, जनम जनम बड़ दुक्ख।।
सीतल पासा ढारि, दाव खेलो संम्हारी।
जीतौ पक्की सार, आव जनि जैहौ हारी।।
रामै राम पुकारिके, लीनो नरक निवास।
मुड़ गड़ाय रहे जिव, गर्भ माहिं दस मास।।
नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रगट भे मानुष-देही।
मन बच कर्म सुभाव, नाम सों कर ले नेही।।
लख चौरासी भर्मिके, पायो मानुष-देह।
सो मिथ्या कस खोवते, झूठी प्रीति-सनेह।।
बालक बुद्धि अजान, कछु मन में नहिं जाने।
खेलै सहज सुभाव, जहीं आपन मन माने।।
अधर कलोले होय रह्यो, ना काहू का मान।
भली बुरी न चित धरै, बारह बरस समान।।
जोवन रूप अनूप, मसी ऊपर मुख छाई।
अंग सुगंध लगाय, सीस पगिया लटकाई।।
अंध भयो सूझै नहीं, फूटि गई हैं चार।
झटकै पड़ै पतंग ज्यों, देखि बिरानी नार।।
जोवन जोर झकोर, नदी उर अंतर बाढ़ी।
संतो हो हुसियार, कियो ना बाहूं गाढ़ी।।
दे गजगीरी प्रेम की, मूंदो दसो दुआर।
वा साईं के मिलन में, तुम जनि लावो बार।।
वृद्ध भये पछिताय, जबै तीनों पन हारे।
भई पुरानी प्रीति, बोल अब लागत प्यारे।।
लचपच दुनिया ह्वै रही, केस भये सब सेत।
बोलत बोल न आवई, लूटि लिये जम खेत।।
तारों से सोना बरसा था, चश्मों से चांदी बहती थी
फूलों पर मोती बिखरे थे, जर्रों की किस्मत चमकी थी
कलियों के लब पर नग्मे थे, शाखों पै वज्द-सा तारी था
खुशबू के खजाने लुटते थे, और दुनिया बहकी-बहकी थी
ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं
सूरज की नरम सुआओं से कलियों के रूप निखरते हों
सरसों की नाजुक शाखों पर सोने के फूल लचकते हों
जब ऊदे-ऊदे बादल से अमृत की धारें बहती थीं
और हल्की-हल्की खुनकी में दिल धीरे-धीरे तपते थे
ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं
फूलों के सागर अपने थे, शबनम की सहबा अपनी थी
जर्रों के हीरे अपने थे, तारों की माला अपनी थी
दरिया की लहरें अपनी थीं, लहरों का तरन्नुम अपना था
जर्रों से लेकर तारों तक यह सारी दुनिया अपनी थी
ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं
आदमी जीता है स्वप्नों में।
आदमी के जीवन का ताना-बाना दो चीजों से बना है–एक है स्मृति, और एक है आशा। स्मृति है अतीत की और आशा है भविष्य की। और दोनों झूठ हैं। क्योंकि न स्मृति का कोई अस्तित्व है और न आशा का। अस्तित्व है वर्तमान का। अतीत–वह जो जा चुका, और अब नहीं है। और भविष्य–वह जो आया नहीं, अभी नहीं है। दोनों के मध्य में, यह जो क्षण है वर्तमान का, यही क्षण परमात्मा का द्वार है। और आदमी इस क्षण से चूकता रहता है। या तो सोचता है अतीत की, जो बीत गया। अतीत के दुखों के लिए पछताता है, सुखों के लिए फिर-फिर तड़पता है। और या सोचता है भविष्य की। नई आशाएं, नये सपने संजोता है। नई कल्पनाएं।
अतीत और भविष्य, इनमें आदमी डोलता और जीता है और ऐसे ही जीवन से चूकता चला जाता है। जो वर्तमान में ठहर गया, वही जीवन को उपलब्ध होता है।
आज के सूत्र प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कथा, जीवन की व्यथा के सूत्र हैं। इन्हें ठीक से समझना।
हीरा जन्म न बारम्बार, समुझि मन चेत हो।
धनी धरमदास कह रहे हैं: यह जो जीवन तुम्हें मिला है, हीरे जैसा है और तुम कंकड़ों-पत्थरों में गंवाए दे रहे हो।
हीरा जन्म न बारम्बार,…
और फिर मिलेगा या नहीं, कुछ निश्चित नहीं। जो अवसर खो जाता है, बड़ी मुश्किल से मिलता है। बड़ी मुश्किल से यह जीवन भी मिला है। तुम्हें याद भी नहीं कि कितनी पीड़ाएं, कितने संघर्षों, कितनी लंबी यात्राओं के, अनंत यात्राओं के बाद यह जीवन मिला है।
चार्ल्स डार्विन ने तो अभी-अभी कुछ वर्षों पहले पश्चिम को यह विचार दिया कि मनुष्य विकसित होता रहा है; विकास का सिद्धांत दिया। लेकिन पूरब में विकास की दृष्टि बड़ी पुरानी है, बड़ी प्राचीन है। डार्विन ने तो जो विकास की दृष्टि दी, बड़ी छिछली और उथली है। उसमें केवल देह का हिसाब है कि आदमी की देह कैसे विकसित हुई है। पूरब ने जो विकास की दृष्टि दी है, वह बड़ी गहरी है: आत्मा कैसे विकसित हुई है, मनुष्य का चैतन्य कैसे विकसित हुआ है?
वह जो चौरासी कोटियों की बात है, वह काल्पनिक नहीं है। धीरे-धीरे, रत्ती-रत्ती लड़ कर हम आदमी हो पाए हैं। इंच-इंच लड़ कर हम आदमी हो पाए हैं। लंबी थी यात्रा। और धन्यभागी हो कि तुम आदमी हो पाए हो। अब इसे ऐसे ही मत गंवा देना। इसलिए कहते हैं: ‘हीरा जन्म!’
इस जगत में मनुष्य के जीवन से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं। और जिस बुरी तरह मनुष्य अपने इन बहुमूल्य क्षणों को गंवाता है, उसे देख कर आश्चर्य होता है। इतनी कठिनाई से पाई गई संपदा कीचड़ में गंवा दी जाती है। इस अवसर का यदि तुम उपयोग कर लो तो तुम्हारे जीवन में परम प्रकाश हो जाएगा। इस हीरे को अगर तुम ठीक से दांव पर लगा दो तो परमात्मा तुम्हारा है। चूके तो फिर पूरा चक्कर है। चूके तो फिर पूरा चाक घूमेगा। तब दुबारा, न मालूम कब, करीब-करीब असंभव सा मालूम होता है कि फिर दुबारा कब आदमी मनुष्य हो पाए, यह चैतन्य की घड़ी फिर कब आएगी! और जब चैतन्य होने का क्षण इतनी आसानी से तुम गंवा देते हो तो इसे कैसे पाओगे दुबारा, कैसे खोजोगे, कैसे तलाशोगे?
आदमी जिस तरह अपने जीवन का दुरुपयोग करते हैं, उसे देख कर ऐसे लगता है, वे आदमी हो कैसे गए! चमत्कार मालूम होता है। कैसे पहुंच गए! कैसे उन्होंने इतनी यात्रा पूरी कर ली!
लेकिन अक्सर ऐसा हो जाता है, पाने के लिए तुम तड़फते हो किसी चीज को और जब उसे पा लेते हो, बस तभी तुम्हारा रस समाप्त हो जाता है। जिंदगी के सामान्य हिसाब में भी यह देखने में आता है। तुम धन पाना चाहते हो, फिर धन पा लेते हो, और फिर तुम्हारा रस धन में समाप्त हो जाता है।
मनस्विद कहते हैं: चित्रकार को चित्र बनाते देखो। जब वह चित्र बनाता है तो इतने श्रम से बनाता है, भूख भूल जाता है, प्यास भूल जाता है, सब भूल जाता है। धूप है कि गरमी है कि शीत है, उसे कुछ पता नहीं चलता। वह अपने चित्र बनाने में तल्लीन है। वह इतने रसविमुग्ध होकर बनाता है कि लगता है जब चित्र बन जाएगा तो नाचेगा, लेकिन जब चित्र बन जाता है तो वह चित्र को सरका कर रख देता है। कोई नाच पैदा नहीं होता। वह दूसरे चित्र में उत्सुक हो जाता है, दूसरा चित्र बनाने में लग जाता है।
रवींद्रनाथ ने छह हजार गीत लिखे हैं। जब वे एक गीत बनाते थे, जब गीत बनता था, उतरता था, तो वे द्वार-दरवाजे बंद कर लेते थे, ताकि कोई बाधा न दे। कभी दिन बीत जाता, दो दिन बीत जाते, तीन दिन बीत जाते, भोजन भी न लेते, स्नान भी न करते; कब सोते, कब उठते, कुछ हिसाब न रह जाता; बिलकुल दीवाने जैसे उनकी दशा हो जाती थी; करीब-करीब विक्षिप्त हो जाते थे। और जब गीत पूरा हो जाता तो उसे सरका कर रख देते। शायद ही अपना गीत दुबारा उन्होंने फिर पढ़ा हो।
लेकिन यह कथा सारे कलाकारों की है, सारे चित्रकारों, सारे मूर्तिकारों की है। और यही कथा प्रत्येक मनुष्य की भी है। मनुष्य होने के लिए हमने कितनी कठिनाई से यात्रा की है, कितने लड़े हैं! और जब मनुष्य हो गए हैं तो बस बात ही सरका कर रख दी। अब तो लोग यही पूछते हैं कि समय नहीं कटता, ताश खेलें कि फिल्म देखने चले जाएं, कि किसी से झगड़ें कि गाली-गलौच कर लें, किस तरह समय काटें? और इस समय को पाने के लिए तुमने कितनी लंबी यात्रा की थी, कितना दांव पर लगाया था!
यह आदमी के मन का अनिवार्य अंग है कि जब वह पाने के लिए चलता है तब तो सब दांव पर लगा देता है, लेकिन जब मिल जाता है तो बस तत्क्षण मिलते ही सारी उत्सुकता समाप्त हो जाती है। एक स्त्री के पीछे तुम दीवाने थे, फिर उसे पा लिया और पाते से ही तुम्हारा सारा उत्साह क्षीण हो जाता है। एक मकान तुम बनाना चाहते थे और कितना सोचते थे, रात सोए नहीं, सपने देखते थे, धन इकट्ठा करते थे; फिर मकान बन गया और बस फिर मकान भूल गया। फिर उस मकान को तुम दुबारा देखते भी नहीं। रहते भी हो उसमें तो तुम कुछ रसविमुग्ध नहीं हो, तुम कुछ आनंदित नहीं हो।
ऐसा ही जीवन के संबंध में भी हुआ है। और चित्र बना कर न देखो तो चलेगा। कविता लिख कर फिर न गुनगुनाओ, चलेगा। मूर्ति बना कर एक तरफ सरका दो, कूड़े-कचरे में डाल दो, चलेगा। क्योंकि ये सब छोटी बातें हैं। लेकिन जीवन बहुत बहुमूल्य है। इसकी कोई कीमत नहीं। यह बेशकीमती है, अमूल्य है, मूल्य के पार है, मूल्यातीत है।
हीरा जन्म न बारम्बार,…
इसलिए धनी धरमदास कहते हैं: इस हीरे को जरा समझ लो। खो दोगे, फिर बहुत पछताओगे। और कुछ चीजें ऐसी हैं कि टूट जाएं तो फिर नहीं जुड़तीं, फिर जोड़े नहीं जुड़तीं। फिर पूरी लंबी यात्रा करनी होती है–उतनी ही, जितनी पाने के लिए की थी। फिर वही पहाड़, फिर वही कंटकाकीर्ण मार्ग, फिर वही चढ़ाइयां। फिर जब तक पहुंचोगे तब तक फिर भूल जाओगे कि पहले एक बार जीवन मिला था, उसको मैं गंवा चुका हूं, अब न गंवाऊं।
तुम क्या सोचते हो, तुम पहली बार मनुष्य हुए हो? इस अनंतकाल में तुम अनेक बार मनुष्य हुए होओगे। इतना लंबा समय बीता है कि तुम बहुत बार इस घड़ी पर आ गए होओगे और बहुत बार तुमने यह घड़ी गंवा दी है। और गंवा कर पछताए भी होओेगे, मरते वक्त रोए भी होओगे। खून टपका होगा तुम्हारी आंखों से आंसू बनकर। और तुमने निर्णय किया होगा: अब दुबारा ऐसी भूल न होगी। अगर फिर अवसर मिल जाए तो अब दुबारा ऐसी भूल न होगी। लेकिन जब तक दुबारा अवसर मिलेगा तब तक इतना समय बीत जाता है कि तुम फिर भूल जाते हो।
उपनिषदों में ययाति की कथा है, मुझे बहुत प्रिय है। प्यारी कथा है। कथा ही है, ऐतिहासिक नहीं हो सकती। लेकिन बड़ी मनोवैज्ञानिक है। और पुराण इतिहास है भी नहीं। पुराण मनोविज्ञान है। मनोविज्ञान की गहराई इतिहास से बहुत ज्यादा है। इतिहास तो कूड़ा-करकट बटोरता है। इसलिए इतिहास में तुम्हें औरंगजेबों और अकबरों और शाहजहां और जहांगीरों की कहानियां मिलती हैं। तैमूरलंग और नादिरशाह, इनकी कहानियां… कूड़ा-करकट! इतिहास में बुद्धों का पता नहीं चलता। इतिहास पर बुद्धों की लकीर बनती नहीं। क्योंकि जब तक कोई उपद्रव न करें तब तक इतिहास पर उसकी लकीर नहीं बनती। तुम हत्या करो तो अखबार में नाम आता है। तुम चोरी करो तो अखबार में नाम आता है। तुम किसी की छाती में छुरा भोंक दो तो तस्वीर छपती हैं। तुम किसी गिरते आदमी को सड़क पर सम्हाल लो, कोई खबर नहीं आती। और तुम अपने घर में बैठ कर ध्यान करो, तब तो खबर आएगी ही कैसे। और तुम प्रभु को स्मरण करो तो किसको पता चलेगा? कौन जान पाएगा?
इतिहास अखबारों की कतरन है। पुराने अखबार इतिहास बन जाते हैं। पुराण इतिहास नहीं है। पुराण मनोविज्ञान है। ऐसा हुआ है, ऐसा नहीं; ऐसा होता है सदा। ऐसी ययाति की कथा है।
ययाति मरने के करीब आया। बड़ा सम्राट था। उसके सौ बेटे थे। अनेक रानियां थीं। सौ वर्ष जीया। पूरी उम्र लेकर मर रहा था। लेकिन जब मौत ने दरवाजे पर दस्तक दी और मौत ने कहा: ययाति, तैयार हो जाओ… भले दिनों की कहानी है। अब तो मौत दस्तक भी नहीं देती। तैयारी का अवसर भी नहीं देती। मौत ने कहा: ययाति तैयार हो जाओ, मैं आ गई। ययाति चौंका। तुम भी चौंको, अगर मौत आकर एक दिन दरवाजे पर दस्तक दे। इसलिए मैं कहता हूं, यह मनोवैज्ञानिक है।
ययाति चौंका। ययाति ने हाथ जोड़ कर कहा कि क्षमा करो, मैं तो जीवन गंवाता रहा। सौ वर्ष ऐसे ही बीत गए, पता न चला। मैंने तो व्यर्थ में गंवा दिए दिन। नहीं-नहीं, मुझे ले मत जाओ। एक अवसर मुझे और दो। यह भूल दुबारा न होगी। करने योग्य कुछ कर लूं। किस मुंह से परमात्मा के सामने खड़ा होऊंगा? क्या जवाब दूंगा?
पुरानी कहानी है, मौत को दया आ गई। मौत ने कहा: ठीक है। लेकिन किसी को मुझे ले जाना ही होगा। तुम्हारा कोई बेटा जाने को राजी हो?
सौ बेटे थे। ययाति ने अपने बेटों की तरफ देखा। ययाति सौ साल का था, उसका कोई बेटा अस्सी साल का था, कोई सत्तर साल का था। वे भी बूढ़े होने के करीब थे, लेकिन अस्सी साल का बेटा भी नीची नजर कर लिया। सबसे छोटा बेटा उठ कर खड़ा हो गया। वह अभी जवान ही था, अभी सत्रह-अठारह का होगा। उसने मौत से कहा: मुझे ले चलो। मौत को उस पर और दया आई। मौत ने कहा कि तेरे और बड़े भाई हैं, वे कोई राजी नहीं होते, तू क्यों जाता है? अपने बड़े भाइयों से क्यों नहीं पूछता, तुम राजी क्यों नहीं होते?
उसने पूछा अपने बड़े भाइयों से, कहा: आप जाने को राजी क्यों नहीं हैं? पिता के लिए जीवन नहीं दे सकते?
बड़े भाइयों ने कहा कि जब पिता सौ साल का होकर जाने को राजी नहीं है, तो हम अभी केवल अस्सी साल के हैं कि सत्तर साल के हैं। अभी तो हमें जीने को और दिन पड़े हैं। और जिस तरह पिता नहीं कर पाया जो करना था, हम भी कहां कर पाए हैं! पिता को तो सौ वर्ष मिले थे, नहीं कर पाया; हमें तो अभी अस्सी वर्ष ही हुए हैं, अभी बीस वर्ष और कायम हैं। अभी हम कुछ कर लेंगे।
फिर भी जवान बेटा तैयार था। उसने कहा: मुझे ले चलो। मौत ने पूछा कि तू मुझे पागल मालूम होता है। तू तो अभी जवान है, अभी तूने कुछ भी नहीं देखा।
उसने कहा: जब सौ वर्ष में मेरे पिता कुछ न देख पाए, तो मैं भी क्या देख पाऊंगा? अस्सी वर्ष में मेरे भाई नहीं देख पाए, सत्तर वर्ष में मेरे भाई नहीं देख पाए, तो मैं भी क्या देख पाऊंगा? मेरे निन्यानबे भाई कुछ नहीं देख पाए, मेरे पिता कुछ नहीं देख पाए। पिता सौ वर्ष में भी मांग कर रहे हैं कि जीवन और चाहिए। इतना ही पर्याप्त है मुझे दिखाने को कि यहां दिन सोए-सोए बीत जाते हैं। तुम मुझे ले ही चलो। मेरा जीवन इतने भी काम आ जाए, मेरे पिता के काम आ जाए, तो भी सार्थक उपयोग हुआ। मैं निरर्थक नहीं गंवाना चाहता। यह कम से कम कुछ सार्थक उपयोग है कि मैं पिता के काम आ गया। इतनी तो सांत्वना रहेगी, संतोष रहेगा।
सौ वर्ष बीत गए, फिर मौत आई और वही की वही बात थी। ययाति फिर रोने लगा। उसने कहा कि क्षमा करो, मैं तो सोचा कि अब सौ वर्ष पड़े हैं, अभी क्या जल्दी है? जी लेंगे। फिर मैं पुराने ही धंधों में लग गया। अभी तो सौ वर्ष थे, बहुत लंबा समय था, वे भी गुजर गए। कब गुजर गए, पता न चला। कैसे गुजर गए, पता न चला। मुझे क्षमा करो। एक अवसर और।
और कहते हैं, कहानी बार-बार अवसर देती है। ऐसा एक हजार साल ययाति जीया और जब हजारवें साल में मरा, तब भी रोता हुआ ही मरा।
तुम भी मरते क्षण में जब मौत तुम्हारे द्वार पर आकर खड़ी हो जाएगी, रोओगे कि मैं कुछ कर न पाया; राम का स्मरण न कर पाया; कोई पुण्य का अनुभव न कर पाया; कोई ध्यान का झरोखा न खोल पाया; समाधि की मुझे गंध न मिली। मैंने जाना ही नहीं कि मैं कौन था। मैंने जाना ही नहीं कि अस्तित्व क्या था। मेरा कोई तारतम्य न बैठा। अस्तित्व से मेरा कोई मेल न हुआ। मेरा कोई मिलन न हुआ परमात्मा से। मुझे छोड़ो।
मगर जितनी आसानी से ययाति की कहानी में मौत छोड़ देती है, वैसा नहीं होता। वह तो कहानी है, प्रतीक है। मौत तो ले जाएगी। और दुबारा अवसर कब मिलेगा? ययाति तो भूल जाता था हर अवसर के बाद; दुबारा अवसर तुम्हें मिलेगा, इस बीच न मालूम कितने कल्प बीत गए होंगे, न मालूम कितना समय बह गया होगा, न मालूम गंगा का कितना पानी बह जाएगा! गंगा बचेगी कि नहीं दुबारा जब तुम आओगे! तब तक स्वभावतः तुम फिर भूल गए होओगे।
तुम्हें एक जन्म की स्मृति दूसरे जन्म में नहीं रह जाती। तुम फिर अ ब स से शुरू कर देते हो। शायद इस बार जैसा गंवा रहे हो वैसा पहले भी गंवाया, आगे भी गंवाओगे।
जागना हो तो अभी जागो, कल पर मत टालो। टालने में ही आदमी भूला है, भटका है। स्थगित किया कि तुमने टाला, टाला कि तुम चूके। कल का कोई भरोसा है? कल कभी आया है? कल कभी आता है? कल उसका नाम है जो कभी नहीं आता।
हीरा जन्म न बारम्बार, समुझि मन चेत हो।
तो धनी धरमदास कहते हैं: समझ लो ठीक से। यह हीरे जैसा अवसर फिर-फिर मिले न मिले। और चेत जाओ, जाग्रत हो जाओ। चैतन्य को पैदा कर लो। यह अवसर इसीलिए है कि चैतन्य पैदा हो सके। अगर जीवन में ध्यान पैदा हो जाए तो जीवन सार्थक हो गया। ध्यान मिला तो धन मिला। ध्यान मिला तो तुम भी धनी हुए, जैसे धनी धरमदास।
जीवन एक सीढ़ी है–ध्यान के मंदिर की। सीढ़ी पर मत बैठे रहो। सीढ़ी का अपने में कोई अर्थ नहीं है। सीढ़ी का प्रयोजन इतना ही है कि तुम मंदिर में पहुंच जाओ। द्वार को मत जकड़ कर बैठ जाओ, द्वार व्यर्थ है। मंदिर में प्रवेश करो। मंदिर का देवता भीतर विराजमान है। जीवन को सीढ़ी बनाओ। जीवन को मार्ग समझो। जीवन मंजिल नहीं है। जीवन गंतव्य नहीं है। जीवन मिल गया तो सब मिल गया, ऐसा मत समझो।
जीवन का उतना ही मूल्य होगा जितना तुम उसमें पैदा कर लोगे। जीवन केवल एक संभावना है। जीवन एक तरह का धन है।
ऐसा समझो, मैंने सुना है, एक कृपण आदमी था। उसके पास सोने की ईंटें थीं। वे उसने अपनी तिजोरी में रख छोड़ी थीं। भूखा-प्यासा, रूखा-सूखा खाता था। बस रोज तिजोरी खोल कर अपनी सोने की ईंटों को देख लेता था। उसका बेटा जवान हुआ। उसने देखा, यह भी क्या पागलपन है! हमें खाने को नहीं, पीने को नहीं, ओढ़ने को ठीक वस्त्र नहीं, घर-द्वार ढंग का नहीं, और हमारे पास इतना धन है, और बाप कुल इतना करता है कि तिजोरी खोल कर जैसे लोग मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन करते हैं, ऐसे सोने की ईंटों का दर्शन कर लेता है, प्रसन्न होकर, फिर तिजोरी बंद कर देता है! ये जो सोने की ईंटें हैं, इनका मूल्य केवल संभावना में है, पोटेंशियल है। अगर इनका उपयोग करो तो ही मूल्य है। अगर उपयोग न करो तो सोने की ईंटें रखी हैं तुमने तिजोरी में कि पत्थर की ईंटें रखी हैं, क्या फर्क पड़ता है?
बेटे ने एक होशियारी की। उसने पीतल की ईंटें बनवाईं, सोने की पॉलिश चढ़वाई और तिजोरी में बदल दीं। बाप वही करता रहा। रोज खोले तिजोरी–अब तो पीतल की ईंटें थीं–नमस्कार कर ले। बड़ा प्रसन्न हो जाए। बाप को तो कोई फर्क ही नहीं पड़ा।
धन तभी पता चलता है कि धन है जब तुम उसका उपयोग करो, अन्यथा निर्धन और धनी में क्या फर्क है? तुम अगर करोड़ों रुपये भी अपनी जमीन में गड़ा कर बैठे हो और भीख मांग रहे हो, तो तुम में और उस भिखमंगे में क्या फर्क है जिसके पास एक पैसा नहीं है? धन का मूल्य उपयोग में है। धन का मूल्य धन में नहीं है, उपयोग में है, उसके विनिमय में, एक्सचेंज में है। धन जितना चले उतना उपयोगी हो जाता है। जितना तुम उसका रूपांतरण करो उतनी ही उपयोगिता बढ़ती जाती है।
इसलिए कंजूस के पास धन होता ही नहीं, क्योंकि धन गति में है। इसलिए तो अंग्रेजी में धन के लिए जो शब्द है, वह करेंसी है। करेंसी का मतलब: जो चलता रहे, बहता रहे। बहाव, जैसे नदी की धारा बहती है। चलने में। अगर अमरीका बहुत धनी है तो उसका कुल कारण इतना है कि अमरीका एकमात्र देश है जो धन का करेंसी होने का अर्थ समझता है; चलता रहे, बहता रहे। अगर यह हमारा देश गरीब है तो उसका कारण यही है कि हम धन को पकड़ना जानते हैं। और पकड़ते ही धन व्यर्थ हो जाता है। फिर सोने की ईंट में और पीतल की ईंट में कोई फर्क नहीं होता। बचाओ कि धन मर गया, तुमने गर्दन घोंट दी। फैलाओ, उपयोग कर लो। जितना उपयोग कर लेते हो उतना उसका अर्थ है।
और यही जीवन-धन के संबंध में भी सच है। जीवन को पकड़ कर मत बैठे रहो। कंजूस बन कर मत बैठे रहो। इसका उपयोग करो। फिर उपयोग जितना विराट करना चाहो, कर सकते हो। इससे चाहो तो कचरा खरीद सकते हो, उतना मूल्य होगा तुम्हारे जीवन का। इससे चाहो तो परमात्मा खरीद सकते हो, उतना मूल्य होगा तुम्हारे जीवन का। जीवन तो कोरी किताब है, तुम उस पर जो लिखोगे वही मूल्य हो जाएगा। गालियां लिख सकते हो, गीत लिख सकते हो। सब तुम पर निर्भर है।
लोग मुझसे आकर पूछते हैं: जीवन का अर्थ क्या है? मैं उनसे कहता हूं: जीवन का अपने में कोई अर्थ नहीं होता, अर्थ डालना होता है। जीवन कुछ ऐसा थोड़े ही है कि रेडीमेड अर्थ, कि गए बाजार से और खरीद लाए। जीवन में अर्थ डालना होता है। इसलिए बुद्ध के जीवन में कुछ अर्थ होता है, कृष्ण के जीवन में, क्राइस्ट के जीवन में कुछ अर्थ होता है। तैमूरलंग के जीवन में क्या अर्थ होगा? नादिरशाह के जीवन में क्या अर्थ होगा? खून-खराबा है, अर्थ कहां? मार-काट है, अर्थ कहां? आपा-धापी है, अर्थ कहां? अर्थ होता नहीं जीवन में। रखा-रखाया नहीं है कि तुम गए और दरवाजा खोला और अर्थ मिल गया। अर्थ निर्मित करना होता है। अर्थ का सृजन करना होता है। अर्थ के लिए प्रयास करना होता है, प्रार्थना करनी होती है, प्रतीक्षा करनी होती है।
हर आदमी अपने जीवन को अर्थ देता है। अगर तुम्हारे जीवन में अर्थ न हो तो एक बात खयाल में ले लेना: तुमने अर्थ दिया नहीं। अगर तुम्हारी किताब कोरी हो तो उसका अर्थ है: तुमने गीत लिखा नहीं। अगर तुम एक अनगढ़ पत्थर लिए बैठे हो तो कैसे अर्थ होगा?
माइकलएंजलो एक रास्ते से गुजरता था। और उसने संगमरमर के पत्थर की दुकान के पास एक बड़ा संगमरमर का पत्थर पड़ा देखा–अनगढ़। राह के किनारे। उसने दुकानदार से पूछा कि और सब पत्थर सम्हाल कर रखे गए हैं, भीतर रखे गए हैं, यह पत्थर बाहर क्यों पड़ा है?
उसने कहा: यह पत्थर बेकार है। इसे कोई मूर्तिकार खरीदने को राजी नहीं है। आपकी इसमें उत्सुकता है?
माइकलएंजलो ने कहा: मेरी उत्सुकता है। उसने कहा: आप इसको मुफ्त ले जाएं। यह टले यहां से तो जगह खाली हो। बस इतना ही काफी है कि यह टल जाए यहां से। यह आज दस वर्ष से यहां पड़ा है, कोई खरीददार नहीं मिलता। आप ले जाओ। कुछ पैसे देने की जरूरत नहीं है। अगर आप कहो तो आपके घर तक पहुंचवाने का काम भी मैं कर देता हूं।
दो वर्ष बाद माइकलएंजलो ने उस पत्थर के दुकानदार को अपने घर आमंत्रित किया कि मैंने एक मूर्ति बनाई है, तुम्हें दिखाना चाहूंगा। वह तो उस पत्थर की बात भूल ही गया था। मूर्ति देख कर तो दंग रह गया, ऐसी मूर्ति शायद कभी बनाई नहीं गई थी! मरियम जब जीसस को सूली से उतार रही है, उसकी मूर्ति है। मरियम के हाथों में जीसस की लाश है। इतनी जीवंत है कि उसे भरोसा नहीं आया। उसने कहा: लेकिन यह पत्थर तुम कहां से लाए? इतना अदभुत पत्थर तुम्हें कहां मिला?
माइकलएंजलो हंसने लगा। उसने कहा: यह वही पत्थर है, जो तुमने व्यर्थ समझ कर दुकान के बाहर फेंक दिया था और मुझे मुफ्त में दे दिया था। इतना ही नहीं, मेरे घर तक पहुंचवा दिया था।
वही पत्थर है! उस दुकानदार को तो भरोसा ही नहीं आया। उसने कहा: तुम मजाक करते होओगे। उसको तो कोई लेने को भी तैयार नहीं था, दो पैसा देने को कोई तैयार नहीं था। तुमने उस पत्थर को इतना महिमा, इतना रूप, इतना लावण्य दे दिया! तुम्हें पता कैसे चला कि यह पत्थर इतनी सुंदर प्रतिमा बन सकता है।
माइकलएंजलो ने कहा: आंखें चाहिए। पत्थरों के भीतर देखने वाली आंख चाहिए।
अधिकतर लोगों के जीवन अनगढ़ रह जाते हैं, दो कौड़ी उनका मूल्य होता है। मगर वह तुम्हारे ही कारण। तुमने कभी तराशा नहीं। तुमने कभी छैनी नहीं उठाई। तुमने कभी अपने को गढ़ा नहीं। तुमने कभी इसकी फिकर न की कि यह मेरा जीवन जो अभी अनगढ़ पत्थर है, एक सुंदर मूर्ति बन सकती है। इसके भीतर छिपा हुआ क्राइस्ट प्रकट हो सकता है। इसके भीतर छिपा हुआ बुद्ध प्रकट हो सकता है।
वस्तुतः माइकलएंजलो के जो शब्द थे, वे ये थे कि मैंने कुछ किया नहीं है; मैं जब रास्ते से निकलता था, इस पत्थर के भीतर पड़े हुए जीसस ने मुझे पुकारा कि माइकलएंजलो, मुझे मुक्त करो। उनकी आवाज सुन कर ही मैं इस पत्थर को ले आया। मैंने कुछ किया नहीं है, सिर्फ जीसस के आस-पास जो व्यर्थ के पत्थर थे वे छांट दिए हैं, जीसस प्रकट हो गए हैं।
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा को अपने भीतर लिए बैठा है। थोड़े से पत्थर छांटने हैं, थोड़ी छैनी उठानी है। उस छैनी उठाने का नाम ही साधना है।
और ध्यान रखना, अगर तुम्हें अनगढ़ हीरा भी मिल जाए तो पहचान न सकोगे। जब पहली दफा कोहिनूर जिसको मिला था, वह पहचाना ही नहीं था कि कोहिनूर है। उसने तो अपने बच्चों को खेलने को दे दिया था। रंगीन पत्थर! सोच भी नहीं सकता था कि इतनी बहूमूल्य चीज है। बच्चे खेलते रहे थे, कई दिनों तक खेलते रहे थे। आज कोहिनूर जगत का सबसे बड़ा हीरा है। और तुम्हें पता है जिस आदमी को मिला था उससे अब वजन कोहिनूर का घट कर एक तिहाई रह गया है। इतना तराशा गया है! वजन घट गया है, कीमत बढ़ गई है। वजन रोज घटता गया है और कीमत रोज बढ़ती गई है।
जब कोई आदमी अपने भीतर के हीरे को तराशता है तो एक दिन वजन बिलकुल समाप्त हो जाता है, भार-हीन हो जाता है। और मूल्य ही मूल्य रह जाता है। पंख लग जाते हैं। आकाश में उड़ने की क्षमता आ जाती है।
हीरा जन्म न बारम्बार, समुझि मन चेत हो।।
जैसे कीट पतंग पषान, भये पसु पच्छी।
जल तरंग जल मांहि रहे, कच्छा औ मच्छी।।
अंग उघारे रहे सदा, कबहुं न पावै सुक्ख।
सत्य नाम जाने बिना, जनम जनम बड़ दुक्ख।।
कहते हैं: जरा देखो, अपने चारों तरफ देखो, कीट-पतंगों को देखो, मगर-मछलियों को देखो। ये जीवन की जो अलग-अलग योनियां हैं, इनको गौर से देखो, ये सब तुम्हारी योनियां हैं। इनसे तुम होकर आए हो। इनसे बड़ी मुश्किल से तुम मुक्त हो सके हो। बड़ी चेष्टा से, बड़े श्रम से, तुम किसी तरह इन कारागृहों के बाहर आए हो। तुम्हें मनुष्य की स्वतंत्रता और गरिमा मिली है। ऐसा न हो कि बस सोच लो कि घर आ गया। घर अभी आया नहीं। अभी घर आ सकता है। यह पहला मौका है। मनुष्य होने के बाद घर आने का मौका है, क्योंकि अब तुम चेत सकते हो। चेत जाओ तो परमात्मा का पता चल जाए। जितनी तुम्हारी चेतना ऊंची उठेगी उतनी ऊंचाइयों का तुम्हें पता चलेगा।
और मनुष्य की चेतना अंतिम सीमा तक उठ सकती है। यही तो बुद्धों की कथा है। यही तो नानक की, यही तो कबीर की, यही तो मोहम्मद की, मंसूर की। यही तो कथा है उनकी–जो जागे, जो चेते, जिन्होंने अपने जीवन को और बड़े जीवन को पाने के लिए समर्पित किया।
है आखिरत का खौफ गमे-दीनवी के बाद
एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद।
एक और जिंदगी भी है, इसे याद करो और तुम बिलकुल आखिरी किनारे पर आकर खड़े हो, जहां से छलांग लग सकती है। इसलिए ‘हीरा जन्म’ कहा है।
है आखिरत का खौफ गमे-दीनवी के बाद
एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद
वाइज! यह बंदगी कहीं बेकार हो न जाए
तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद
लोग अहंकार में जिंदगी गंवा रहे हैं। और कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि धर्म में भी उत्सुक हो जाते हैं, मगर अहंकार पीछा नहीं छोड़ता, तो अहंकार धर्म को भी नष्ट कर देता है। तब लोग प्रार्थना की अकड़ से भर जाते हैं, साधना की अकड़ से भर जाते हैं।
तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद
अगर नाज किया, अगर अकड़ आ गई, अगर अस्मिता आ गई, अहंकार आ गया, तो बंदगी व्यर्थ हो गई। मनुष्य को इतना चेतना है कि अहंकार के बाहर हो जाए। तुम और बहुत सी चीजों के बाहर होते आए हो। पत्थर में थे किसी दिन, बाहर हुए; पौधे हुए। पौधे में थे किसी दिन, जमे थे जड़-जमीन में, मुक्त न थे। पशु हुए, चलने की क्षमता आई।
अगर तुम जीवन को गौर से देखो तो जीवन के विकास की कथा स्वातंत्र्य की कथा है। इसलिए तो हम परम अवस्था को मोक्ष कहते हैं, अंतिम अवस्था को स्वतंत्रता कहते हैं। क्यों? पत्थर से परमात्मा तक की यात्रा को अगर गौर से देखागे तो उसी योनि को हम ऊंची योनि कहते हैं जो पिछली योनि से ज्यादा स्वतंत्र है। चट्टान की स्वतंत्रता पौधों से कम है। पौधे कम से कम हवा में नाच तो सकते हैं, चट्टान उतना भी नहीं कर सकती। पौधे कम से कम ऊपर की तरफ बढ़ तो सकते हैं, चल नहीं सकते, मगर आकाश की तरफ थोड़ी यात्रा तो कर सकते हैं। चट्टान वह भी नहीं कर सकती।
पौधे उदास होते हैं। अब इसके वैज्ञानिक प्रमाण हैं। और आनंदित होते हैं, इसके भी वैज्ञानिक प्रमाण हैं। चट्टान को उतनी भी सुविधा नहीं, उतनी भी स्वतंत्रता नहीं। चट्टान बड़ा कारागृह है–एक कैद। जंजीरें ही जंजीरें हैं। लेकिन पौधे की तकलीफ यह है कि उसके पैर जमीन में गड़े हैं, वह चल नहीं सकता। थोड़ा-थोड़ा सरक सकता है। कुछ पौधे हैं जो थोड़ा-थोड़ा सरकते हैं। अगर जल-स्रोत खत्म हो जाएं तो कुछ पौधे हैं, थोड़ा-बहुत, ज्यादा नहीं, लंबी यात्रा नहीं कर सकते, मगर कुछ फीट सरक सकते हैं। धीरे-धीरे जिस तरफ जल-स्रोत हो उस तरफ की जड़ें बड़ी हो जाती हैं; जिस तरफ जल-स्रोत न हों, उस तरफ की जड़ें सिकुड़ जाती हैं, टूट जाती हैं। और धीरे-धीरे पौधा सरक पाता है। दल-दल में पौधे थोड़ा सरक जाते हैं, क्योंकि जमीन पोली होती है तरल होती है। मगर स्वतंत्रता ज्यादा नहीं है।
पशुओं की स्वतंत्रता ज्यादा है। चल सकते हैं। अगर यहां जल नहीं मिलेगा, तो दस मील दूर जाकर जल पी सकते हैं। अगर यहां भोजन नहीं मिलेगा तो कहीं और भोजन की तलाश कर लेंगे। स्वतंत्रता बढ़ गई। मगर बहुत ज्यादा नहीं। इसलिए तो बहुत से पशु पृथ्वी पर रहे और मर गए, उनकी सिर्फ अब लाशें मिलती हैं। क्योंकि हालतें इतनी बदलीं कि वे पशु नई हालतों के लिए अपने को राजी न कर पाए। हालतें रोज बदलती हैं।
समझो कि अचानक सर्दी आ जाए, तो पशु कोट नहीं बना सकता। इतनी स्वतंत्रता उसकी नहीं है। वह मर जाएगा। या बहुत धूप हो जाए तो वह एयर-कंडीशनिंग पैदा नहीं कर सकता। वह उतनी स्वतंत्रता उसकी नहीं है। वह बंधा है। उसकी भी एक सीमा है। थोड़ा-बहुत हो तो इंतजाम कर लेता है। धूप हो जाए तो वृक्ष के नीचे बैठ जाता है जाकर। सर्दी हो जाए तो धूप में खड़ा हो जाता है आकर। बस सीमा है।
मनुष्य और आगे बढ़ा। उसने बड़े अर्थों में स्वतत्रंता पैदा कर ली। वह कई अर्थों में अपना मालिक हो गया। वह प्रकृति से बहुत अर्थों में मुक्त हो गया है। निर्भर नहीं है।
इसलिए मनुष्यों में तुम खयाल रखना, जो जाति जितनी ज्यादा मुक्त होती है उतनी विकासमान होती है। जो जाति अतीत से बहुत दबी होती है और परंपरावादी होती है, विकासमान नहीं होती। क्योंकि उसकी स्वतंत्रता उतनी ही कम हो जाती है। अतीत से दबी हुई जातियां देर-अबेर मर जाती हैं, बच नहीं सकतीं। अतीत से दबे होने का अर्थ यह होता है कि उनके पास ऐसे प्रश्नों के उत्तर हैं, जो प्रश्न ही अब नहीं रहे और वे उन्हीं उत्तरों को पकड़े बैठे हैं।
अब जैसे वर्षा नहीं होती तो हिंदू यज्ञ करता है। अब यह उत्तर ही फिजूल हो गया है। अब वर्षा के बेहतर उपाय हैं, मगर तुम यज्ञ कर रहे हो, उसमें लाखों-करोड़ों रुपये जला रहे हो! और मूढ़ता का तो कोई अंत नहीं है। तुम्हारे मिनिस्टर्स भी वहां पहुंच जाते हैं यज्ञों में आशीर्वाद लेने।
अगर यह देश मर रहा है, सड़ रहा है, तो उसका कुल कारण इतना है कि जो बातें हमें कभी की छोड़ देनी चाहिए थीं, उनको हम नहीं छोड़ पाते। हम उनको पकड़े हैं। हमारी छोड़ने की स्वतंत्रता बड़ी कम है।
तुम जान कर चकित होओगे, ऐसे उल्लेख हैं इतिहास में कि कोई जाति चावल ही खाती थी। चावल खत्म हो गया तो वह मर गई, मगर वह गेहूं खाने के लिए राजी नहीं हुई। बड़े सिद्धांतवादी लोग रहे होंगे कि हम तो बस चावल ही खाएंगे, हम गेहूं नहीं खा सकते; कभी हमारे बापदादों ने नहीं खाया, तो हम कैसे खा सकते हैं! हमारे बापदादे जो करते रहे, वही हम करेंगे; हालांकि समय बदल गया, स्थिति बदल गई, ढंग बदल गए।
जीवन नये उत्तर मांगता है, लेकिन तुम अपने बापदादों में जड़ें जमाए बैठे हो। तुम्हारे बापदादे यज्ञ करते थे जब पानी नहीं गिरता था। अब ज्यादा बेहतर उपाय हैं। पिपरमिंट का छिड़काव कर दो बादलों में और पानी गिरेगा, थोड़ा बर्फ का छिड़काव कर दो बादलों में और पानी गिरेगा। रूस में पानी गिराया जा रहा है। रेगिस्तान लहलहाते बगीचे हो गए हैं और हिंदुस्तान में लहलहाते बगीचे धीरे-धीरे रेगिस्तान होते जा रहे हैं, और तुम यज्ञ कर रहे हो। करोड़ों रुपये यज्ञ में जलाते हो! मजा यह है कि वर्षा होकर और गेहूं तो पैदा नहीं होता; जो तुम्हारे पास थे वे यज्ञ में जल जाते हैं। वर्षा होकर या यज्ञ से गऊ का दूध तो नहीं बढ़ता, लेकिन गऊ के पास जो दूध था, घी था, वह भी यज्ञ में चला जाता है। मूढ़ता है।
जितनी मूढ़ता होती है उतनी परतंत्रता होती है।
मेरे एक मित्र हैं। संस्कृत के बड़े विद्वान हैं। एक प्रोफेसर हैं किसी विश्वविद्यालय में। पंडित हैं, ब्राह्मण हैं और बड़े रूढ़िवादी हैं। वे कुछ शास्त्रों की खोज करते हुए तिब्बत गए। तिब्बत रहना उनको मुश्किल हो गया, क्योंकि तिब्बत में तुम पांच बजे ठंडे पानी से स्नान करोगे तो मरोगे। मगर उनके बापदादे सदा से करते रहे। तो वह तो पांच बजे ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करना ही है। अब उनको पता नहीं कि बापदादे कभी तिब्बत गए नहीं। हिंदुस्तान में जो नहीं करता है सुबह ठंडे पानी से स्नान, वह पागल है और तिब्बत में जो करता है वह पागल है। बस वह जल्दी ही भाग आए। उनकी जो शोध करने गए थे, वह पूरी नहीं कर सके, क्योंकि पांच बजे तो नहाना ही पड़ेगा और पांच बजे नहा लेते तो दिन भर के लिए मुर्दा हो जाते, सब हाथ-पैर ठंडे हो जाते। फिर मसाज करो मालिश करो, गर्मी दो, तब कहीं वे थोड़े-बहुत गरम होते।
तिब्बत के धर्मशास्त्र कहते हैं: साल में एक बार जरूर नहाना चाहिए। मगर मूढ़ताएं कुछ अलग-अलग नहीं हैं। मेरे पास कुछ तिब्बती लामा आकर एक बार रुके। सारा घर बदबू से भर गया, क्योंकि वे वर्ष में एक बार नहाने का विश्वास रखते हैं। तिब्बत में बिलकुल ठीक है, वहां धूल भी नहीं जमती, पसीना भी नहीं पैदा होता। भारत में भी आ गए हैं वे, मगर वे अपने लबादे वही पहने हुए हैं–तिब्बती लबादे! यहां आग जल रही है चारों तरफ, वे तिब्बती लबादे पहने हुए हैं। उनके भीतर पसीना ही पसीना इकट्ठा हो रहा है और नहाने का उन्हें खयाल ही नहीं है। मैंने उनसे कहा कि भाई या तो तुम रहो इस घर में या मैं रहूं, दोनों साथ नहीं रह सकते। या तो मैं चला, या…
वे कहने लगे: क्यों? हम तो आपके ही सत्संग के लिए आए हैं। मैंने कहा: सत्संग यह बहुत महंगा पड़ रहा है। यह इतनी बदबू मैं नहीं सह सकता। तुम नहाओ।
उन्होंने कहा: नहाओ! लेकिन हमारे शास्त्र कहते हैं कि साल में एक दफे जरूर नहाना चाहिए, तो हम एक दफे नहाते हैं। मैंने कहा: यहां तुम्हें दिन में दो बार नहाना पड़ेगा। मगर उनको भी अखरता है। ठंडे मुल्कों में, जैसे रूस में या साइबेरिया में, शराब पीना जीवन का अनिवार्य अंग है, जैसे पानी पीना। लेकिन तुम अगर वहां जाओगे और अपना सिद्धांत लगाओगे कि शराब मैं नहीं पी सकता, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे।
स्वतंत्रता का अर्थ होता है: चैतन्य, बोध, समझ। मनुष्य सर्वाधिक स्वतंत्र है, लेकिन मनुष्यों में कुछ जातियों ने ज्यादा स्वतंत्रता अनुभव की है बजाय और जातियों के। जिन जातियों ने ज्यादा स्वतंत्रता अनुभव की है वे विकास के शिखर पर चढ़ गईं। इस देश ने तो सैकड़ों वर्ष ऐसे गंवाए कि हम समुद्र-यात्रा पर नहीं जा सकते थे, क्योंकि समुद्र-यात्रा का उल्लेख शास्त्रों में नहीं है। समुद्र-यात्रा पर जो गया वह मलेच्छ हो गया। स्वाभाविक था कि जो समुद्र-यात्रा कर सकते थे, वे हमारे मालिक हो गए। होना ही था।
मनुष्य सर्वाधिक स्वतंत्र है और मनुष्य और भी स्वतंत्र हो जाता है अगर उसमें समझ हो। अगर वह समझपूर्वक जीए, रूढ़ि से न जीए। रूढ़ि से जीने वाला मनुष्य ठीक अर्थों में मनुष्य नहीं है। उसमें कुछ कमी है। उसमें कुछ पशुता शेष है।
परंपरावादी में थोड़ी पशुता शेष रहती है। इसलिए ठीक धार्मिक व्यक्ति परंपरावादी नहीं हो सकता। ठीक धार्मिक व्यक्ति विद्रोही होता है, बगावती होता है। वह अपनी समझ से जीता है, शास्त्र से नहीं। अगर समझ और शास्त्र में विरोध हो तो वह समझ के पीछे जाता है, शास्त्र के पीछे नहीं। परंपरावादी समझ को एक तरफ रख देता है, शास्त्र के पीछे जाता है।
मेरी देशना यही है कि तुम अपनी समझ से जीओ। तुम्हारा शास्त्र हो सकता है दस हजार साल पहले लिखा गया था और जब लिखा गया था, तो परिस्थितियां बहुत भिन्न थीं, लोग बहुत भिन्न थे, मान्यताएं बहुत भिन्न थीं। दस हजार साल में आदमी बहुत यात्रा कर आया है। अब तुम्हारे पास दस हजार साल की समझ संगृहीत हो गई है। तुम शास्त्र से ज्यादा समझदार हो। अगर तुम उपयोग करना अपनी समझ का सीख लो, तो अब शास्त्र में देख-देख कर लौट कर जाने की कोई जरूरत नहीं है। शास्त्र को दस हजार साल में कोई अनुभव नहीं हुआ, वहीं का वहीं पड़ा है। शास्त्र कोई अनुभव कर भी नहीं सकता है–जड़ है। लेकिन दस हजार साल में आदमी की चेतना विकसित होती रही, अनुभव करती रही। अनुभव का अंबार बढ़ता चला गया है।
धनी धरमदास कहते हैं: यह अवसर अवसर है, अंत नहीं। और अभी परम स्वतंत्रता घटनी है।
एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद
है आखिरत का खौफ गमे-दीनवी के बाद
एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद
वाइज! यह बंदगी कहीं बेकार हो न जाए
तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद
पिन्हा हजार गम हैं मसर्रत की ओट में
आंसू कहीं तड़प के न निकलें हंसी के बाद
इंसा को है जरूरते-अम्नो-अमां मगर
पैगामे अम्न दीजे न इंशां-कशी के बाद
क्या उनसे रहबरी की तवक्कअ रखे कोई
जो आ सके न राह पै बे-रहरवी के बाद।
बहुत भटकने का एक ही अर्थ है कि भटक-भटक कर कोई सीखे, समझे, जीवन के कड़वे अनुभव से सार निचोड़े। भटकाव का भी मूल्य है। भटकनेवाले भी पहुंचते हैं। इसलिए भटकाव को मैं पाप नहीं कहता, लेकिन भटकाव तुम्हारी आदत न हो जाए। खूब भटक लिए हो! कितने-कितने जीवन के ढंग देख लिए, कितने-कितने रूप देख लिए, कितने-कितने वासना के प्रकार देख लिए, कितनी शैलियों में जी लिए! काफी भटक चुके हो! अब समझ आनी चाहिए।
और समझ के दो सूत्र हैं। एक, कि यह जीवन अपना गंतव्य अपने आप में नहीं है। यह जीवन सीढ़ी है–एक और बड़े जीवन के लिए। और दूसरा, कि स्वतंत्रता ही विकास की यात्रा है। स्वतंत्रता ही विकास का आधार है। और स्वतंत्रता ही मापदंड है विकास का। तो अंतिम मुक्ति, अंतिम स्वतंत्रता तो परमात्मा में मिल सकती है, परमात्मा होकर मिल सकती है। उसके पहले तो कुछ न कुछ कमी रह जाएगी, कुछ न कुछ सीमा रह जाएगी, कुछ न कुछ दीवालें घेरे रहेंगी।
आदमी उस जगह है जहां से चाहे तो सारी सीमाएं तोड़ सकता है, एक छलांग में परमात्मा में लीन हो सकता है। आदमी उस जगह है, जहां गंगा पहुंच कर होती है सागर के किनारे। बस एक कदम और कि सागर में उतर जाए।
लेकिन बहुत से लोग जीवन के अवसर को गंवा देते हैं। वे समझ लेते हैं: बस जीवन मिल गया, सब मिल गया। कुछ धन कमा लें, कुछ पद कमा लें, कुछ प्रतिष्ठा कमा लें, कुछ नाम छोड़ जाएं। लेकिन तब तुम्हारा चाक फिर घूम जाएगा, फिर अ ब स से यात्रा शुरू होगी।
हीरा जन्म न बारम्बार, समुझि मन चेत हो।।
सत्य नाम जाने बिना, जनम जनम बड़ दुक्ख।
एक परमात्मा को ही जान कर सुख का अनुभव शुरू होता है। उसके जाने बिना सिर्फ दुख है।
दुख की परिभाषा समझ लेना। दुख की परिभाषा का अर्थ होता है: हमें अपने परम स्वभाव का पता नहीं है, इसलिए दुख है। हम जो हैं, हमें उसका पता नहीं है, इसलिए दुख है, दुख आत्म-अज्ञान है। इसलिए हम जो भी करते हैं, गलत हो जाता है। हमें पता ही नहीं है कि हमारे साथ किस चीज का तालमेल बैठेगा। इसलिए हम जो भी करते हैं, वह गलत हो जाता है। हमें अपने स्वभाव का पता चल जाए, हमारा परमात्मा से संबंध जुड़ जाए, फिर जो भी हमसे होगा, ठीक होगा। फिर गलत होता ही नहीं। और जब गलत होता ही नहीं, दुख कैसे होगा? दुख गलती का फल है। दुख गलती का परिणाम है।
सत्य नाम जाने बिना, जनम जनम बड़ दुक्ख।
और बहुत दुख उठा लिए। और अब घड़ी आ गई कि सत्य को जाना जा सकता है। इसे चूक मत जाना।
सीतल पासा ढारि, दाव खेलो संम्हारी।
धरमदास कहते हैं: अब मौका मत चूको। यह जुआ खेल ही लो। यह जुआ है, क्योंकि यह हिम्मतवरों का काम है, जुआरियों का काम है। इसे दांव पर लगाना होगा। और जुआ क्यों कहते हैं इसे? मैं भी इसे जुआ कहता हूं।
धर्म जुआरी का काम है, दुकानदारों का नहीं। दुकानदार हमेशा इस फिकर में रहता है: कम दांव पर लगाना पड़े और ज्यादा लाभ हो। वही दुकानदारी का अर्थ होता है। लगाना कम पड़े, लाभ ज्यादा हो। जितना कम लगाना पड़े उतना अच्छा। और जितना ज्यादा लाभ हो जाए उतना अच्छा। हानि की संभावना कम से कम रहे, यही दुकानदार की पूरी चित्त-दशा है। इसलिए जितना कम लगेगा उतनी कम हानि की संभावना है। दो पैसे लगाए हैं और लाख मिल जाएं, यह उसकी चेष्टा है। अगर खोएंगे तो दो पैसे खोएंगे, कुछ खास नहीं खोएगा; मिलेंगे तो काफी मिल जाने वाले हैं।
दुकानदार का मन पूरे समय लाभ की भाषा में सोचता है, हिसाब-किताब और गणित। जुआरी का एक और ढंग है वह सब लगा देता है। वह कहता है: सब इकट्ठा लगा दिया। सब लगाने में खतरा है। मिले तो सब मिल जाएगा और गया तो सब चला जाएगा। खतरा यही है। फिर मिलने का क्या पक्का है? किसी को कभी मिला है, इसका भी क्या पक्का है? पता है बुद्ध को मिला कि नहीं मिला? कौन जाने न मिला हो, झूठ ही कहते हों मिल गया! कैसे तुम भरोसा करो? क्योंकि यह बात तो भीतरी है। यह रस तो भीतरी है। बुद्ध के पास भी कोई प्रमाण तो नहीं है कि हाथ पर रख कर बता दें। मान लो तो मान लो। मगर मानना तो फिर जुआरी का ही काम है।
दुकानदार कहता है: प्रमाण क्या है? आपको ईश्वर मिला, मुझे दिखा दें। आप को समाधि लगी, प्रमाण क्या है? आपको आत्मा का अनुभव हुआ, प्रमाण क्या है? प्रमाण चाहिए, वस्तुगत प्रमाण चाहिए। विज्ञान की प्रयोगशाला में प्रमाण चाहिए।
कोई प्रमाण नहीं है। प्रेम का कोई प्रमाण नहीं है। प्रार्थना का कोई प्रमाण नहीं है। समाधि का कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। प्रमाण क्षुद्र के होते हैं, विराट के नहीं होते। प्रमाण बाहर की बातों के होते हैं, भीतर की बातों के नहीं होते। भीतर की बातें तो भीतर तुम अपने जाओगे तो जानोगे। यह तो बड़ी कठिन बात है। बुद्ध होओगे तब तुम जानोगे कि बुद्ध को जो मिला, वह सच मिला था। मगर इसके पहले तुम नहीं जान सकोगे। फिर मिलने के बाद जाना, तो जानने से सार क्या है? सार तो तब था कि जब दांव पर लगाना था तब पक्का प्रमाण हो जाता कि हां मिलता है, तो दांव लगाने में आसानी हो जाती है। फिर तुम दुकानदार होते तो भी दांव लगा देते।
जुआरी का मतलब है: ज्ञात को अज्ञात के लिए दांव पर लगाना; जो हाथ में है उसको उसके लिए दांव पर लगा देना, जो हाथ में नहीं है। समझदार तो कहते हैं: हाथ की आधी रोटी अच्छी। हाथ में तो है! पूरी रोटी दूर की, उससे तो आधी हाथ की रोटी अच्छी। जुआरी कहते हैं कि आधे से मन तो कभी भरेगा नहीं, एक बार लगा देना चाहिए। मिले तो पूरी मिले या पूरी जाए। इधर पूर्ण या उधर पूर्ण, किसी तरह पूर्ण हो जाए। या तो बिलकुल पूरे नंगे हो जाएंगे, कुछ न बचेगा; या पूरे भर जाएंगे, सब कुछ मिल जाएगा।
जुआरी का मतलब होता है: या तो सब या कुछ भी नहीं। या तो शून्य या पूर्ण।
सीतल पासा ढारि, दाव खेलो संम्हारी।
धनी धरमदास कहते हैं, जुआ तो खेलना होगा। सम्हाल कर खेलना। सम्हालने का मतलब यह होता है कि तैयारी से खेलना। दांव लगाने के पहले दांव लगाने योग्य अपने को बना लेना। दांव क्या लगाना है–अपने को ही दांव पर लगाना है। अपनी जरा कीमत बना लेना, तभी तो दांव पर लगाने का कुछ मजा होगा।
सारी साधनाएं तुम्हें मूल्य देती हैं कि एक दिन तुम अपने को दांव पर लगा सको। एक दिन तुम परमात्मा को कह सको: अब मैं आने को राजी हूं तुम्हारे चरणों में, मुझे स्वीकार कर लो! लेकिन स्वीकार होने के योग्य तो बनना होगा न! बिना स्वीकार होने के योग्य बने तुम्हें परमात्मा नहीं मिल सकेगा। पात्रता तो चाहिए न! तुम उसके चरण के पास पहुंच सको, इसकी पात्रता अर्जित करनी होगी। इसलिए कहते हैं: सम्हाल कर!
सीतल पासा ढारि,…
और पांसा भी शील और संतोष का बना लो, तो ही दांव में जीतोगे। यह जुआ कोई साधारण जुआ नहीं है। यह पांसा भी कोई साधारण पांसा नहीं है। शील और संतोष, दो शब्दों का उपयोग किया है।
संतोष का अर्थ होता है: जो है, उससे मैं तृप्त हूं। जैसा है, उससे वैसा ही तृप्त हूं। इसमें मुझे कोई ज्यादा परेशानी नहीं है। मकान बड़ा हो कि धन ज्यादा हो कि पत्नी और सुंदर हो, कि पति और स्वस्थ हो, कि बेटा और बुद्धिमान हो–इन सबमें मुझे ज्यादा रस नहीं है, जैसा है ठीक है। क्योंकि इसमें रस हो तो ऊर्जा इसी में लग जाती है। या तो बड़ा मकान बना लो, या बड़ी आत्मा बना लो। या तो बहुत धन इकट्ठा कर लो, या बहुत ध्यान कमा लो। दोनों एक साथ नहीं हो सकेंगे। तुम दोनों हाथ लड्डू नहीं कमा सकोगे; क्योंकि वही ऊर्जा है, चाहे धन कमाने में लग जाए, चाहे ध्यान जमाने में लग जाए।
तो बाहर की तरफ संतोष–ताकि सारी ऊर्जा भीतर की यात्रा पर लग जाए।
संतोष और शील।
शील का अर्थ होता है: जीवन को ऐसे जीओ कि जीवन एक कला हो, एक प्रसाद हो। लोग जीवन को ऐसे जी रहे हैं जिसमें न कोई कला है, न कोई प्रसाद है, न कोई सौंदर्य-बोध है। लोग जीवन को बड़े आदिम ढंग से जी रहे हैं–अविकसित, असंस्कृत। अपने जीवन को संस्कार दो।
अब तुम देखो, संस्कार का क्या अर्थ होता है? और जैसे ही संस्कार में अंतर पड़ना शुरू होता है, चीजें बदलने लगती हैं। एक आदमी है जिसको फिल्मी-संगीत ही संगीत मालूम होता है, जो कि संगीत है ही नहीं, सिर्फ शोरगुल है। और बेहूदा शोरगुल है! जिसके पास थोड़े भी संगीतपूर्ण कान हैं उसको लगेगा: यह कौन उपद्रव कर रहा है? यह क्या पागलपन हो रहा है? हुड़दंग है, जिसको तुम फिल्मी-संगीत कहते हो और जिसके लिए लोग बैठ कर बड़े दीवाने होकर सिर हिलाते हैं। इससे पता चलता है कि इन सिरों के भीतर कुछ भी नहीं है, भूसा भरा है। नहीं तो यह संगीत है? और इनको अगर तुम शास्त्रीय संगीत में बिठा दो तो ये इधर-उधर देखते हैं कि यह हो क्या रहा है!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक शास्त्रीय-संगीत सभा में गया। एकदम सुनते ही रोने लगा। आंख से आंसू झर-झर होने लगे। पास के आदमी ने पूछा कि नसरुद्दीन, तुम शास्त्रीय संगीत के इतने प्रेमी हो, इसका हमें पता नहीं था। उसने कहा कि प्रेमी! भाड़ में जाए शास्त्रीय संगीत! मैं तो इस संगीतज्ञ को देख कर रो रहा हूं।
उसने पूछा: मतलब?
उसने कहा: मतलब! यह जो कर रहा है आऽऽ आऽऽ आऽऽआऽऽ… ऐसे ही मेरा बकरा कर-कर के मर गया था। यह मरेगा। यह बच नहीं सकता। इसका इलाज होना मुश्किल है। मेरे बकरे का भी नहीं हो सका था।
एक परिष्कार चाहिए। शास्त्रीय संगीत के लिए एक परिष्कार चाहिए। मगर तुम समझते हो? अगर शास्त्रीय संगीत को समझने की तुम में कला आ जाए तो तुम परमात्मा के ज्यादा निकट हो जाओगे, तुम ध्यान के ज्यादा निकट हो जाओगे। तुम्हारे भीतर शील का जन्म होगा, क्योंकि जो उतने स्वरपूर्ण संगीत को रसमुग्ध होकर सुनेगा, वह स्वयं भी स्वरपूर्ण हो जाएगा। हम वही हो जाते हैं जो हम अपने भीतर आत्मसात करते हैं।
अब फिल्मी हुड़दंग को तुम संगीत समझ रहे हो? तो स्वभावतः तुम्हारे भीतर भी वही हुड़दंग हो जाएगी। शोरगुल को संगीत समझोगे, तो तुम्हारे भीतर कामुकता जगेगी, प्रार्थना नहीं जगेगी। वासना उभार लेगी, साधना नहीं।
इस देश में शास्त्रीय संगीत का जन्म हुआ था; वह अंग था शील का। वह संस्कार का अंग था। तुम क्या देखते हो, तुम क्या सुनते हो, तुम क्या बोलते हो, तुम क्या पढ़ते हो–उस सबका परिणाम होने वाला है। तुम्हारी उत्सुकताएं क्या हैं? सुबह से उठ कर तुम अखबार मांगते हो, या कि कृष्ण के अदभुत वचन–भगवद्गीता पर नजर डालते हो, कि कुरान की प्यारी आयतें दोहराते हो कि अखबार मांगते हो। अखबार मांगोगे तो दो कौड़ी की आत्मा हो जाएगी, दो कौड़ी का अखबार है। अखबार में पढ़ोगे क्या? यही कि कहां चोरी हुई, कि कहां डाका डाला गया, कि कहां हत्या हुई, कि कौन राजनेता बेईमान सिद्ध हो गया और कौन अभी सिद्ध होने को है आगे। क्या इकट्ठा करोगे? इसको लेकर दिन भर का पाथेय मिल गया! अब तुम चले दिन भर! और न केवल इतना कि तुमने यह कचरा सुबह से अपनी खोपड़ी में भर लिया, अब दिन भर तुम दफ्तर में, बाजार में, दूसरों के दिमाग में यही कचरा डालोगे।
तुम आदमी की बातें सुन कर समझ सकते हो, यह कौन सा अखबार पढ़ता होगा। वही कचरा दोहराता है वह। कुरान की आयत की बात और है। जीसस के वचनों का सौंदर्य और है, कि गीता के वचन, कि उपनिषद के सूत्र!
थोड़ा परिष्कार दो अपने को, शील दो! धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अपने को निखारो–श्रेष्ठ के लिए, सुंदर के लिए। थोड़े मूल्यों में ऊंचे चढ़ो।
लोग बिलकुल भौंडे हो गए हैं। उनके कपड़े भौंडे हो गए हैं। उनका उठना-बैठना भौंडा हो गया है। उनके साज-श्रृंगार भौंडे हो गए हैं। शील खो गया है। आज तय करना मुश्किल ही है कि कौन स्त्री वेश्या है और कौन स्त्री वेश्या नहीं है, सभी वेश्याओं जैसी हो गई हैं। सभी वैसा ही भौंडा श्रृंगार करके चल रही हैं, सभी बाजार में प्रदर्शन कर रही हैं।
एक शील चाहिए। क्यों? क्योंकि इसी पात्रता से तुम परमात्मा के करीब पहुंचोगे। दांव पर तो लगाओगे, लेकिन दांव पर लगाने को तो कुछ होना चाहिए। कुछ मूल्य तो पैदा करो! कुछ अर्थ तो पैदा करो! कुछ संगीत जन्मने दो। कुछ छंद बंधने दो। तुम्हारा जीवन कुछ सार्थकता ले।
सीतल पासा ढारि, दाव खेलो संम्हारी।
जीतौ पक्की सार, आव जनि जैहौ हारी।।
जीत पक्की है, होनी ही है। तैयारी करके पूरे जाओ। और समय मत गंवाओ।
आव जनि जैहौ हारी…
अगर आयु ऐसे ही गंवा दी तो फिर हार निश्चित है। फिर हार ही जाओगे। कल पर मत टालो। समय को मत गंवाओ। एक-एक क्षण बहुमूल्य है, क्योंकि कौन जाने कल हो न हो, दूसरा क्षण आए न आए! प्रत्येक क्षण को ऐसा जीओ कि जैसे यह आखिरी क्षण है। प्रत्येक क्षण को ऐसे जीओ कि जैसे अब दूसरा क्षण नहीं होगा। हर रात जब सोओ तो आखिरी प्रार्थना करके सोओ। सब तरफ से अपने को समेट लो, संवार लो। इस तरह सोओ कि अगर आज की रात परमात्मा से साक्षात्कार हो और जिंदगी छूट जाए तो तुम उसकी आंखों में आंखें डाल कर देख सकोगे। तुम्हें अपराधी की तरह आंख झुका कर खड़ा नहीं हो जाना पड़ेगा। और अगर कल फिर सुबह हो तो फिर सुबह को ऐसा मान कर जीओ, धन्यवाद उसका! फिर एक दिन और मिला! थोड़ा और निखार लूं! ऐसा निखारते-निखारते, ऐसा धीरे-धीरे पखारते-पखारते, तुम्हारे भीतर वह सौंदर्य पैदा हो जाता है। अनगढ़ पत्थर मूर्ति बन जाता है। तब चढ़ाने की योग्यता आ जाती है।
रामै राम पुकारिके, लीनो नरक निवास।
लेकिन लोग राम को पुकारने में भी भौंडे हो गए हैं। वे समझते हैं कि बस राम-नाम की चदरिया ओढ़ ली, कि हो गया, अब और क्या करना है? भीतर वही के वही। सब कूड़ा-करकट वही का वही, उसी में बीच में राम-राम भी दोहरा रहे हैं, एक माला जपने लगे। तुम देखते हो, दुकानों पर लोग बैठ कर माला जपते रहते हैं। देखते रहते हैं, ग्राहक तो नहीं आया!
मैं एक गांव में रहता था। मेरे सामने ही एक मिठाई वाला था। वह सुबह से ही माला जपता रहता था। और बड़े भक्त! ‘भगतजी’ ही वे गांव में कहलाते थे। वे एक झोली में हाथ में दिन भर ही माला लिए रहते थे, उनकी माला सरकती ही रहती थी। मगर मैं उनकी भक्ति देख कर बड़ा हैरान होता था। कुत्ता आ गया, वह अपने नौकर को इशारा करेगा–भगा! माला चल रही है, राम-राम चल रहा है, हाथ से इशारा करेगा–हटा! क्योंकि मिठाई की दुकान, कुत्ता भीतर आ जाए तो माला-वाला सब…। ग्राहक आ गया तो वह इशारा कर देगा आदमी को। दाम तक का हाथ से इशारा कर देगा, और माला चल रही है, और राम-राम चल रहा है। उसके ओंठ निष्णात हो गए थे राम-राम दोहराने में। और छोटी-मोटी बात पर उसका लोगों से झगड़ा हो जाता था, तब वह गालियां देने में भी इतना ही कुशल था। उस गांव में ‘भगतजी’ से बड़ा गाली देने वाला नहीं था। गालियां भी बड़ी छांट कर देते थे। राम-राम भी जपते थे।
जिस मन में गालियां भरी हैं, उसमें राम-राम का वास कैसे होगा? तुम नरक में राम को पुकार रहे हो! तुम जहर से भरे हुए पात्र में अमृत की आशा लगाए बैठे हो!
सुनो यह वचन, कठोर है, लेकिन समझना।
रामै राम पुकारिके, लीनो नरक निवास।
कितने ही लोग राम-राम पुकारते रहे और नरक में पड़े हैं। नरक में निवास ले लिया है–राम पुकार-पुकार कर! कठिन लगता है वचन, लेकिन सच है। ऐसा ही है। यह धोखा नहीं दिया जा सकता परमात्मा को। तुम क्या पुकारते हो, इससे परमात्मा नहीं मिलता; तुम क्या हो, इससे परमात्मा मिलता है। तुम क्या कहते हो, इसका कोई मूल्य नहीं है–तुम क्या हो? तुम्हारी अंतर-ध्वनि होनी चाहिए राम की। तुम्हारी जीवनचर्या होनी चाहिए राम की। तुम्हारा व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि जगत राम से भरा है, फिर तुम जिससे मिलो उसके प्रति भी तुम्हारा वही सम्मान होना चाहिए जैसा राम के प्रति होता है। जब सबमें राम ही व्याप्त है तो बात बदल गई। तुम राम से ही घिरे हो, कैसे दुर्व्यवहार करोगे? कैसे दुष्वचन बोलोगे? कैसे कठोर होओगे? कैसे गालियां बकोगे? कैसे निंदा करोगे?
रामै राम पुकारिके, लीनो नरक निवास।
मुड़ गड़ाय रहे जिव, गर्भ माहिं दस मास।।
और बार-बार गर्भ में पड़ना पड़ता है। गर्भ यानी गंदगी, मल-मूत्र। उसमें सिर को गड़ा कर पड़े रहना पड़ता है दस महीने तक। और फिर निकल कर तुम फिर वही करने लगते हो जो तुमने पहले किया था।
कब बदलोगे? कब जीवन को नई धुन दोगे?
हीरा जन्म न बारम्बार, समुझि मन चेत हो।
नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रगट भे मानुष-देही।
मनुष्य की देह मिली और पुण्य का तुम्हें स्वाद ही नहीं है। तुमने जाना ही नहीं कि पुण्य क्या है। पाप ही जाना, बुराई ही जानी; भलाई का तुम्हें कोई अनुभव नहीं। तुम कहोगे: नहीं, ऐसा नहीं। कुछ-कुछ, कभी-कभी भला भी करते हैं। राह पर भिखमंगे को कभी कुछ दो पैसे भी दे देते हैं। और कभी मंदिर में दान भी करते हैं। और कभी व्रत-उपवास भी करते हैं।
लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि धनी धरमदास ठीक कह रहे हैं: तुमने पुण्य नहीं जाना। राह पर तुम जब भिखारी को दो पैसे भी देते हो तब भी तुम्हें देने में आनंद नहीं है। तुम भिखारी को सम्मान से भी नहीं देते हो। तुम भिखारी को राम मान कर भी नहीं देते हो। तुम्हारे देने के कारण कुछ और हैं, हेतु कुछ और हैं। देखते हो, अगर भिखारी रास्ते पर अकेला मिल जाए और कोई न हो रास्ते पर, तो तुम नहीं देते। बीच बाजार में भिखारी पकड़ लेता है। इसलिए भिखारियों को बाजार में खड़े रहना पड़ता है। एकांत में तो तुम उनको दुत्कार देते हो कि चल आगे बढ़! भाग यहां से! भला-चंगा शरीर, तुझे क्या करना है मांग कर? हजार उपदेश दे देते हो। लेकिन भीड़ में, बाजार में, दुकानदार जहां सब देख रहे हैं, जहां तुम्हारी प्रतिष्ठा का सवाल है, एक भिखारी आकर तुम्हारा पैर पकड़ लेता है, वहां तुम्हें दो पैसे देने पड़ते हैं, तुम देते नहीं। देने पड़ते हैं, क्योंकि दो पैसे में यह प्रतिष्ठा मिल रही है बाजार में कि आदमी बड़ा दानी है, धार्मिक है, भला आदमी है। इसके लाभ हैं। यह तुम सच पूछो तो धंधा ही कर रहे हो। कुछ फर्क नहीं है इसमें। लोग देख रहे हैं कि आदमी देने वाला है, दयालु है। ये दो पैसे की जगह तुम चार पैसे किसी की जेब से जल्दी काट लोगे, क्योंकि लोग तुम पर ज्यादा भरोसा करेंगे। लोग तुम्हें भला समझेंगे तो भरोसा करेंगे। ये तुमने दो पैसे दिए नहीं, धंधे में लगाए हैं। यह इनवेस्टमेंट है। अकेले में तो तुम उसे हटाते हो, भिखमंगे को। ये तुमने भिखमंगे को दिए ही नहीं। ये तुमने दुकान में ही लगाए। यह दुकान का ही फैलाव है। यह अच्छा विज्ञापन हुआ–दो पैसे में धार्मिक, दयालु, पुण्यात्मा होने की खबर पहुंच गई गांव में। या अगर तुम कभी भिखारी को देते भी हो तो इस आशा में कि स्वर्ग मिलेगा।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा। अकड़ से स्वर्ग में प्रवेश किया। द्वारपाल ने पूछा कि भाई, बड़े अकड़ से आ रहे हो, मामला क्या है? क्या पुण्य इत्यादि किए हैं? क्योंकि पुण्य इत्यादि करने वाले अकड़ से जाते हैं।
उसने कहा कि तीन पैसे मैंने दान दिए हैं। खाते-बही खोले गए। तीन ही पैसे का मामला था कुल। हेड क्लर्क ने सब देखा-दाखा। उसने अपने असिस्टेंट क्लर्क से पूछा कि भाई क्या करें, तीन पैसे इसने दिए जरूर हैं, लिखे हैं। उसके असिस्टेंट ने कहा: इसको तीन पैसे के चार पैसे ब्याज सहित वापस कर दो और भेजो नरक। है यह नरक के योग्य। तीन ही पैसे दिए और ऐसे अकड़ कर आ रहा है जैसे तीन लोक दे दिए हों।
हम दे ही क्या सकते हैं? जो भी हम दे सकते हैं वह तीन ही पैसे का है। खयाल रखना। कहानी को ऐसे ही मत समझ लेना कि तीन ही पैसे दिए तो क्या अकड़ना था! कोई तीन लाख देता, तीन लाख भी तीन ही पैसे हैं। परमात्मा के समक्ष तुम तीन लाख दो कि तीन करोड़ दो, इससे क्या फर्क पड़ता है? इस जगत की संपदा ही दो कौड़ी की है। सारी संपदा दो कौड़ी की है। इसमें अकड़। लेकिन, लोग सोचते हैं कि स्वर्ग मिल जाएगा। वह भी धंधा है। इस दुनिया में भी दुकान चलाते हैं, वे उस दुनिया में भी दुकान चलाना चाह रहे हैं। पुण्य का तुम्हें पता ही नहीं।
पुण्य का क्या अर्थ होता है? अकारण, आनंद-भाव से किया गया कृत्य। प्रेम से किया गया कृत्य। जिसके पीछे लेने की कोई आकांक्षा ही नहीं है। धन्यवाद की भी आकांक्षा नहीं है। कोई पानी में डूबता था, तुम दौड़ कर उसे निकाल लिए, फिर खड़े होकर यह मत राह देखना कि वह धन्यवाद दे कि कहे कि आपने मेरा जीवन बचाया, आप मेरे जीवन-दाता हो! इतनी भी आकांक्षा रही तो पुण्य खो गया।
तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद
तुमने अपने आनंद से बचाया, बात समाप्त हो गई। तुमने किसी को अपने आनंद से दिया। इसलिए जब तुम किसी को कुछ दो तो देने के बाद धन्यवाद भी देना कि तूने स्वीकार किया। तू इनकार भी कर सकता था।
देखते हो, इस देश में एक परंपरा है–दान के बाद दक्षिणा देने की! वह बड़ी अदभुत परंपरा है। वह बड़ी प्यारी परंपरा है। ‘दक्षिणा’ का मतलब क्या होता है? दक्षिणा का मतलब होता है: तुमने हमारा दान स्वीकार किया, इसका धन्यवाद। जिसको दिया है वह धन्यवाद दे, इसकी तो आकांक्षा है ही नहीं; जिसने दिया है वह धन्यवाद दे कि तुमने स्वीकार कर लिया हमारे प्रेम को; दो कौड़ी थी हमारे पास, तुमने स्वीकार कर लिया, इतने प्रेम से, इतने आनंद से–तुमने हमें धन्यभागी किया, तुमने हमें पुण्य का थोड़ा स्वाद दिया।
पुण्य का कोई भविष्य, फलाकांक्षा से संबंध नहीं है। पुण्य का तो स्वाद अभी मिल जाता है, यहां मिल जाता है।
नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रगट भे मानुष-देही।
मनुष्य का जीवन मिला और पुण्य का पता न चला, तो सार क्या है? जो तुम कर रहे हो, वह तो पशु भी कर लेते हैं, पशु भी कर रहे हैं। इसमें तुम्हें भेद क्या है? तुम अपनी जिंदगी को कभी बैठ कर जांचना, तुम जो कर रहे हो, इसमें और पशु के करने में भेद क्या है? तुम रोटी-रोजी कमा लेते हो, तो तुम सोचते हो कि पशु नहीं कर रहे हैं? तुम से ज्यादा बेहतर ढंग से कर रहे हैं, मजे से कर रहे हैं। तुम बच्चे पैदा कर लेते हो, तुम सोचते हो कि कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो। इस देश में ऐसे ही समझते हैं लोग। बड़े अकड़ कर कहते हैं कि मेरे बारह लड़के हैं। जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो! अरे, मच्छरों से पूछो! हिसाब ही नहीं संख्या का। कीड़े-मकोड़े कर रहे हैं। तुम इसमें क्या अकड़ ले रहे हो? बारह बेटे कौन सा मामला है बड़ा? और मुसीबत बढ़ा दी दुनिया की। बारह उपद्रवी और पैदा कर दिए। ये घेराव करेंगे, हड़ताल करेंगे और झंझट खड़ी करेंगे। लेकिन लोग सोचते हैं कि बच्चे पैदा कर दिए तो बड़ा काम कर दिया; मकान बना लिया तो बड़ा काम कर दिया। पशु-पक्षी कितने प्यारे घोसले बना रहे हैं! उनके लायक पर्याप्त हैं।
तुम जरा सोचना। क्रोध है, काम है, लोभ है, मद, मोह, मत्सर, सब पशुओं में है! फिर तुममें मनुष्य होने से भेद क्या है? तो एक ही बात की बात कह रहे हैं धरमदास कि पुण्य का स्वाद हो, तो तुम मनुष्य हो, तो मनुष्य होने में कुछ भेद पड़ा। इसे खयाल रखना।
अरस्तू ने कहा है: आदमी का भेद यह है कि आदमी में बुद्धि है, विचार है।
हम यह नहीं कहते, क्योंकि विचार तो पशुओं में भी है; थोड़ा कम होगा, मात्रा कम होगी, मगर विचार है। तुम्हारा कुत्ता भी विचार करता है। जब तुम आते हो तो पूंछ हिलाता है। तुम उसे मार भी दो तो भी पूंछ हिलाता है। बड़ा राजनीतिज्ञ है, होशियार है। कूटनीति जानता है कि पूंछ तो हिलानी ही चाहिए।
और कभी-कभी तुमने कुत्ते को देखा! वह संदिग्ध भी होता है कभी-कभी, तो भौंकता भी है और पूंछ भी हिलाता है। दुविधा में है कि मतलब करना क्या है? इस वक्त ठीक करना क्या? तो दोनों ही काम कर रहा है कि फिर जो ठीक होगा, वह चलने देंगे; जो ठीक नहीं होगा, वह बंद कर देंगे। अजनबी आदमी आता है तो भौंकता भी है। देखता है, मालिक की तरफ कि मालिक क्या कहता है। पूंछ भी हिलाता है। अगर मालिक प्रेम से बुलाता है अजनबी को, हाथ हिलाता है, भौंकना बंद कर देता है, पूंछ हिलाता रहता है। अगर मालिक हाथ नहीं जोड़ता, नमस्कार नहीं करता, पूंछ हिलना बंद हो जाती है, भौंकना शुरू हो जाता है। कुत्ता भी सोच रहा है, हिसाब लगा रहा है।
चमचागीरी कुत्तों से ही नेताओं ने और नेताओं के चमचों ने सीखी है। कहां से सीखेंगे और?
पशु-पक्षी भी हिसाब कर रहे हैं, सोच रहे हैं। और कभी-कभी तो बड़ा लंबा हिसाब करते हैं। साइबेरिया में पक्षी रहते हैं। जब वहां सर्दी हो जाती है, तब वे हजारों मील की यात्रा करके उन्हीं तटों पर फिर आ जाते हैं जिन पर पिछले वर्ष आए थे, उनके बापदादे आते रहे थे। और हजारों मील की यात्रा फिर पूरी करते हैं, जब बर्फ पिघल जाती है। और बड़ा मजे का मामला है। वे इतने फासले पर होते हैं कि उनको पता भी नहीं हो सकता कि बर्फ कब पिघलेगी, और कभी-कभी बर्फ एक महीने बाद पिघलती है तो वे एक महीने बाद लौटते हैं। और कभी-कभी बर्फ जल्दी जमने लगती है तो वे जल्दी लौट आते हैं। हजारों मील दूर से! वैज्ञानिक कहते हैं कि उनके पास जानने का कोई संवेदनशील साधन है। कोई भीतर करीब-करीब जैसे रेडियो-यंत्र जैसी उनके पास कोई सुविधा है कि वे जानते हैं। हिसाब से चलते हैं। अब इतने बड़े आकाश में हजारों मील की यात्रा करनी, दिशा का खयाल रखना, उनके पास दिशा-सूचक यंत्र नहीं है। हवाई जहाज के पायलट को, हजारों यंत्र हैं उसके पास, सुविधा के लिए। उनके पास कोई यंत्र नहीं है, मगर कभी भूल-चूक नहीं होती। उन्हीं तटों पर लौट आते हैं। उन्हीं स्थानों पर वापस लौट जाते हैं।
मछलियां हजारों मील की यात्रा करती हैं, उन्हीं तटों पर आ जाती हैं। फिर लौट जाती हैं, अपनी जगह वापस लौट जाती हैं। इस पर प्रयोग किए गए हैं और बड़ी हैरानी हुई। एक मछली की जाति है, जो अंडा देने इंग्लैंड आती है, क्योंकि बापदादों से वही चलता रहा, परंपरावादी है। इसलिए तो मैं रूढ़िवादी को आदमी नहीं मानता। अब वह अंडे वहीं दे सकती है। केनेडा के पास रहने लगी है अब। वहां का वातावरण अनुकूल पड़ा है उसे। मगर सदियों से उसके मां-बाप रहे थे… प्राचीन रूप से वह इंग्लैंड के किनारे की मछली है। अब वहां नहीं रहती, मगर अंडे तो बापदादे वहीं देते रहे थे। तो अब भी आती है। अंडा रखने के पहले, कई दिनों पहले उसे यात्रा शुरू कर देनी पड़ती है कि अब अंडा रखने का वक्त आ गया। और अंडे रख कर वापस चली जाती है। और तुम चकित होओगे जान कर कि अंडे तो मां रख कर चली जाती है; अंडों से जो बच्चे होते हैं वे केनेडा की तरफ यात्रा शुरू कर देते हैं। उनको तो कोई बताने वाला भी नहीं था। मां जा ही चुकी थी। मगर वे कैसे चले केनेडा की तरफ? इनको कौन कह रहा है? इतनी बड़ी दुनिया में यह हिसाब कैसे चल रहा है?
नहीं, अरस्तू का कहना ठीक नहीं कि मनुष्य की यह विशिष्टता है–विचार करना। विचार तो सारे जगत में छाया हुआ है। मनुष्य की अगर कोई विशिष्टता होती है तो निर्विचार हो सकती है, विचार नहीं हो सकता। ध्यान हो सकता है, पुण्य हो सकता है। पुण्य का भाव सिर्फ मनुष्य में है।
नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रगट भे मानुष-देही।
मन बच कर्म सुभाव, नाम सों कर ले नेही।।
कहते हैं: मन से, वचन से, कर्म से स्वाभाविक हो जाओ, यही पुण्य है। सरल हो जाओ और फिर तुम्हारा प्रभु के नाम से अपने आप नेह बन जाएगा।
लख चौरासी भर्मिके, पायो मानुष-देह।
सो मिथ्या कस खोवते, झूठी प्रीति-सनेह।।
इतनी कठिनाइयों से पाई है यह परम-देह, यह पुण्य-देह, और इसे व्यर्थ की बातों में खो रहे हो!
सो मिथ्या कस खोवते, झूठी प्रीति-सनेह।
और व्यर्थ के प्रेम में लगे हो! और लोगों के प्रेम भी खूब अजीब हैं! कोई कहता है, मुझे मेरी कार से बहुत प्रेम है। कोई कहता है, आइस्क्रीम से बहुत प्रेम है। किसी को कपड़ों से बहुत प्रेम है।
अभी एक महिला आई। उसके पति ने तो संन्यास लिया। मैंने उससे पूछा कि तू क्यों बैठी है, जब पति संन्यास में जा रहे हैं? उसने कहा: अब आपसे क्या झूठ बोलना, मुझे साड़ियों से बहुत प्रेम है। अभी मेरा मन नहीं भरा।
कैसे-कैसे प्रेम लोग लगा कर बैठे हैं! प्रेम लगाना हो, परमात्मा से लगाओ।
…झूठी प्रीति-सनेह।
बालक बुद्धि अजान,…
जीवन की पूरी कथा को बांटते हैं धरमदास।
बालक बुद्धि अजान, कछु मन में नहिं जाने।
बचपन होता है। अज्ञान के क्षण होते हैं। सरलता के भी, निर्दोषता के भी। कुछ भी मन में विकार नहीं होते।
खेलै सहज सुभाव, जहीं आपन मन माने।
सहजता से बच्चा जीता है।
अधर कलोले होय रह्यो, ना काहू का मान।
न कोई अहंकार है।
भली बुरी न चित धरै, बारह बरस समान।
और भले-बुरे में भी कुछ भेद नहीं होता बच्चे को। अभी द्वंद्व पैदा नहीं हुआ। और सबको समान देखता है। अभी गरीब-अमीर में भेद नहीं है। अभी अपने-पराए में भेद नहीं है। यह पहली दशा है बचपन। और यही अंतिम दशा होनी चाहिए, तो मनुष्य ने अपने जीवन का वर्तुल पूरा कर लिया। तो उसने हीरा-जन्म व्यर्थ नहीं खोया। चक्र पूरा हो गया। जैसे पैदा हुए थे सरलचित्त, स्वाभाविक, सहज, वैसे ही मरते वक्त पुनः हो जाओ–बस यही धर्म है।
जीसस ने कहा है: जब तक तुम छोटे बच्चों की भांति न हो जाओ, मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश न कर सकोगे।
जोवन रूप अनूप, मसी ऊपर मुख छाई।
फिर आती है जवानी, मसें भींग जाती हैं, मूछों की रेख निकलने लगती है।
अंग सुगंध लगाय, सीस पगिया लटकाई।
फिर आदमी अपने को संवारता है, सजाता है।
अंध भयो सूझै नहीं,…
और बच्चे के पास जो आंखें थीं, वे खो जाती हैं। वह निर्दोष सरलता विदा हो जाती है।
अंध भयो सूझै नहीं, फूटि गई हैं चार।
और बाहर की दो फूटती हैं, वह तो ठीक ही है; भीतर की भी दो फूट जाती हैं। चारों आंखें फूट जाती हैं।
झटकै पड़ै पतंग ज्यों,…
जैसे पतंगा हर दीये की लौ पर झपट पड़ता है।
…देखि बिरानी नार।
ऐसे हर स्त्री को देख कर जवान आदमी दीवाना होने लगता है; या स्त्री जवान आदमी को देख कर दीवानी होने लगती है। एक नशे की दुनिया शुरू होती है। एक मादकता की दुनिया शुरू होती है। एक शराब शरीर में, मन में फैलने लगती है।
जोवन जोर झकोर, नदी उर अंतर बाढ़ी।
संतो हो हुसियार, कियो ना बाहूं गाढ़ी।।
धरमदास कहते हैं: यह मौका है होशियार होने का। क्यों? क्योंकि इस समय ऊर्जा का बड़ा प्रवाह है। इस समय शक्ति जागी है। यही शक्ति मोह बन सकती है। यही शक्ति महत्वाकांक्षा बन सकती है। यही शक्ति आसक्ति बन सकती है। यही शक्ति ध्यान बन सकती है, वीतरागता बन सकती है।
जवानी बड़ा अदभुत क्षण है! चाहो तो लगा दो संसार की व्यर्थ बातों में और भटक जाओ। और चाहो तो परमात्मा की यात्रा पर निकल जाओ। इस ऊर्जा पर सवार होकर बड़ी यात्रा हो सकती है।
जोवन जोर झकोर, नदी उर अंतर बाढ़ी।
यह जो उफान उठ रहा है, यह जो प्रेम का तूफान उठ रहा है, इसे अगर क्षुद्र पर बिखरा दिया तो व्यर्थ हो जाएगा। इसे अगर विराट पर लगा दिया… अगर प्रेम ही करना हो तो परमात्मा को। अगर प्रेयसी ही खोजना हो तो परमात्मा में।
संतो हो हुसियार, कियो ना बाहूं गाढ़ी।।
दे गजगीरी प्रेम की, मूंदो दसो दुआर।
प्रेम का तूफान उठ रहा है, दसों द्वार मूंद दो। सारी इंद्रियों के, कर्मेंद्रियों के, ज्ञानेंद्रियों के, दसों इंद्रियों के द्वार मूंद दो, ताकि यह प्रेम की ऊर्जा इकट्ठी होकर ऊपर उठने लगे; फैले न, बिखरे न, यहां-वहां न पड़े, रेगिस्तान में न खो जाए संसार के। यह ऊर्जा भीतर इकट्ठी हो, इसकी बाढ़ भीतर बांध की तरह बढ़ने लगे, तो ऊपर उठेगी।
तुमने देखा, एक नदी पर बांध बांध देते हैं, तो फिर गहराई बहुत बढ़ जाती है। जो नदी पहले आगे की तरफ भाग रही थी दसों दिशाओं में, यहां-वहां जा रही थी, वह इकट्ठी हो जाती है। और नदी का जल ऊपर की तरफ उठने लगता है। जल ऊपर की तरफ उठने लगता है, यही परमात्मा से मिलने का उपाय है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर की जीवन-ऊर्जा भी ऊपर की तरफ उठ सकती है, ऊर्ध्वगमन हो सकता है। छेद रोक दो।
हम ऐसे हैं जैसे फूटी बाल्टी से कोई पानी भरता हो कुएं से। भर तो जाता है हर बार, मगर जब तक खींचते हैं ऊपर, घाट तक आता है, तब तक सब गिर जाता है। छेद ही छेद हैं। हमारी सारी इंद्रियां छिद्र हैं।
दे गजगीरी प्रेम की, मूंदो दसो दुआर।
वा साईं के मिलन में, तुम जनि लावो बार।।
देरी मत करो। उस साईं से मिलने का कोई अवसर मत खोओ। सारा प्रेम उसी पर समर्पित कर दो।
वृद्ध भये पछिताय, जबै तीनों पन हारे।
भई पुरानी प्रीति, बोल अब लागत प्यारे।।
लचपच दुनिया ह्वै रही, केस भये सब सेत।
बोलत बोल न आवई, लूटि लिये जम खेत।।
नहीं तो पीछे पछताओगे। और फिर पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत! और जब जीवन की सारी ऊर्जा नष्ट हो गई और जीवन के सारे अवसर खो गए और जब तुम गिरने लगे कब्र में अपनी, फिर पछताने से भी क्या होगा? समय रहते जाग जाओ!
वृद्ध भये पछिताय,…
बूढ़ा होकर हर आदमी पछताता है। सिर्फ वे ही नहीं पछताते, जिन्होंने जीवन का सम्यक उपयोग कर लिया है। वे तो बड़े धन्यभाव से भरे होते हैं। और जब भी कोई व्यक्ति अपनी वृद्धावस्था में धन्यभाव से भरा होता है, तब जानना उसने बाल धूप में नहीं पकाए; नहीं तो शेष सबने धूप में ही पकाए हैं। जब कोई वृद्ध आंतरिक गरिमा से भरा होता है; जीवन को जान लिया, जी लिया, पहचान लिया, बुरा-भला सब देख लिया, समझ लिया, सबसे गुजर कर देख लिया, कांटे और फूल सब अनुभव कर लिए, सुख-दुख, रात-दिन, शीत-ताप–सब द्वंद्वों से गुजर चुका और इन द्वंद्वों से गुजर कर धीरे-धीरे एक बात साफ हो गई कि मैं केवल साक्षी हूं, मैं केवल द्रष्टा हूं, मैं सिर्फ देखने वाला हूं, न मैं कर्ता हूं, न भोक्ता हूं–बस, ऐसी घड़ी में वृद्धावस्था का जैसा सौंदर्य है वैसा किसी अवस्था का नहीं होता।
यह अकारण नहीं है कि इस देश में हमने वृद्धों को बड़ी पूजा दी और सम्मान दिया। उसका कारण यही था। हमने ऐसे वृद्ध देखे हैं, जो जवानी से ज्यादा बड़े सौंदर्य को उपलब्ध हुए थे। हमने ऐसे वृद्ध जाने हैं जिनका वार्द्धक्य मृत्यु का सूचक नहीं था–परम जीवन का प्रतीक था। नहीं तो वृद्ध को कोई कैसे सम्मान देगा? वृद्ध तो मर रहा है, सड़ रहा है, गल रहा है। वृद्ध से तो हम छुटकारा चाहते हैं, पूजा की बात कहां! मौत की कोई पूजा करता है? नहीं; लेकिन हमने ऐसे वृद्ध देखे, जो मर नहीं रहे थे–जो मृत्यु के पार चले गए थे; जो मरने के पहले अमृत का अनुभव कर लिए थे। और तब एक सौंदर्य, एक प्रसाद उतरता है। उसके सामने बच्चे का निर्दोषपन सिर्फ अज्ञान है; जवानी का सौंदर्य सिर्फ देह का है। वृद्ध के पास आत्मा का सौंदर्य पैदा हो जाता है और, सच, वास्तविक निर्दोषता उत्पन्न होती है।
बच्चे की निर्दोषता तो ऐसी है, जो आज नहीं कल खोएगी ही। अज्ञानवश है। वृद्ध की निर्दोषता ज्ञान के आधार पर खड़ी होती है, फिर खो नहीं सकती। बच्चे ने कमाई नहीं है सरलता, जन्म से मिली है। जल्दी ही समाप्त हो जाएगी। बच्चे को भटकना ही होगा। बच्चे को अपनी निर्दोषता छोड़नी ही होगी। उसके बचाने का कोई उपाय नहीं है। वृद्ध पुनः लौट आया अपने बचपन में, दूसरा जन्म हुआ। वृद्ध द्विज हुआ। और जब कोई वृद्ध द्विज हो जाता है, दुबारा जन्म ले लेता है–तभी ब्राह्मण।
सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सभी को ब्राह्मण की तरह मरना चाहिए। कोई जन्म से ब्राह्मण नहीं होता। हो ही नहीं सकता। उन दस महीनों की याद करो: ‘मुड़ गड़ाय रहे जिव, गर्भ माहिं दस मास।’
शूद्र का अर्थ होता है: अज्ञानी। देह को ही समझता है–यह मैं हूं। जिसे अपने चैतन्य का कोई पता नहीं। जिसे अभी सुधि नहीं आई है। जो अभी जागा नहीं है।
ब्राह्मण का अर्थ होता है: जिसने जागा, देखा, पहचाना और पाया कि मैं ब्रह्म हूं। अहं-ब्रह्मास्मि!
सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं और दुर्भाग्य की बात है कि अधिकतर लोग शूद्र की तरह ही मरते हैं। कभी-कभार कोई ब्राह्मण की तरह मरता है कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कबीर। लेकिन हर एक का अधिकार है, जन्म-सिद्ध अधिकार है। तुम चाहो तो यह तुम्हारी मालकियत है। तुम चाहो तो यह तुम्हारा स्वरूप में ही निर्धारित, स्वरूप से ही निर्धारित अधिकार है। इसको कोई छीन नहीं सकता। लेकिन फिर तुम्हें बुढ़ापे को वैसा ही बना लेना होगा जैसा बचपन था।
और बुढ़ापे को अगर बचपन जैसा बनाना हो तो जवानी में ही क्रांति करनी पड़ती है। तुम बुढ़ापे के लिए बैठे मत रह जाना, क्योंकि तब ऊर्जा खो जाएगी। जिस ऊर्जा को तुमने संसार में लगाया है वही तो ऊर्जा है तुम्हारे पास। उसी से परमात्मा को खोज सकते थे। उस ऊर्जा की तो नाव बना ली नरक जाने के लिए, फिर तुम्हारे पास बचेगा क्या?
वृद्ध भये पछिताय,…
और जब कुछ नहीं बचता, सब ऊर्जा गई, सब जीवन गया, अवसर गया, तो पछतावा हाथ लगता है।
…जबै तीनों पन हारे।
बचपन भी खो गया, जवानी भी खो गई। अब बुढ़ापा भी जा रहा है। अब सिर्फ मौत बची। अब सिर्फ अंधकार बचा। पछतावा न घेरेगा तो क्या होगा?
भई पुरानी प्रीति, बोल अब लागत प्यारे।
अब तो आदमी लौट-लौट कर पुराना सोचने लगता है। बूढ़े हमेशा पीछे की सोचने लगते हैं, जवानी की याद करते हैं, बचपन की याद करते हैं। वे प्यारे दिन! अब उनके पास कुछ भविष्य नहीं बचा। अब थोथी संपदा रह गई है स्मृति की। अब उसी को उलट-पलट करते रहते हैं।
जिस दिन से तुम पुराने की याद करने लगो, समझना कि बूढ़े होने लगे। जिस दिन से तुम कहने लगो–‘आह! वे प्यारे दिन! वे दिन जब दही-दूध की नदियां बहती थीं! वे दिन, जब घी ऐसा बिकता था और गेहूं ऐसा बिकता…! वे दिन’–जब तुम पुराने दिनों की बात करने लगो रसपूर्ण ढंग से, समझ लेना तुम बूढ़े हो गए।
जवान भविष्य की बातें करता है, बूढ़ा अतीत की बातें करता है। बच्चा वर्तमान में जीता है। अगर बुढ़ापे में तुम अतीत की बातें करो तो सांसारिक बूढ़े; और अगर भविष्य की बातें करने लगो कि स्वर्ग मिलेगा, क्योंकि मैंने इतना पुण्य किया, मंदिर बनवाया, धर्मशाला भी चलवा दी, प्याऊ खुलवा दी–तो तुम आध्यात्मिक किस्म के जवान, मगर अभी तुम्हारा लोभ नहीं गया। अभी तुम स्वर्ग में आशा कर रहे हो कि अप्सराएं मिलेंगी और शराब के चश्में मिलेंगे। और वहां कोई मद्य-निषेध थोड़े ही है। वहां तो अभी भी चश्में बह रहे हैं शराब के, मजे से पीएंगे। और फिर यहां हमने इतनी कम पी है और इतने कम बुरे काम किए और अच्छे काम किए, इनका फल तो मिलना ही चाहिए! बैठेंगे कल्पवृक्षों के नीचे और मजा ही मजा करेंगे। यह आध्यात्मिक किस्म का बूढ़ा। मगर ये दोनों ही बातें गलत हैं।
वास्तविक जीवन की संपदा तब मिलती है, जब वृद्ध फिर बच्चा हो गया और वर्तमान में जीने लगा। अब न कोई अतीत है, न कोई भविष्य है। अब न कोई स्मृति है और न कोई कल्पना है। ऐसी घड़ी में ही व्यक्ति वर्तमान के द्वार से प्रवेश करता है और कालातीत को उपलब्ध हो जाता है। उस कालातीत का नाम ही परमात्मा है, मोक्ष है।
साक्षी बनो! अन्यथा यह जीवन–‘हीरा जन्म’–ऐसे ही चला जाएगा।
झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख-दुख दोनों की सीमा पर।
ललक गया मैं सुख की बांहों में
जब-जब उसने चुमकारा।
औ ललकारा जब-जब दुख ने
कब मैं अपना पौरुष हारा;
आलिंगन में प्राण निकलते।
खड़ग तले जीवन मिलता है;
झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख-दुख दोनों की सीमा पर।
सब सुख का बलिदान, तुम्हारे
पांवों की आहट अब आती
सब दुख का अवसान, तुम्हारी
मूर्ति नयन में ढलती जाती,
जहां न सुख है जहां न दुख है,
तुम हो एक–दूसरा मैं हूं,
जीभ तीसरी जो गाती है ऐसे क्षण को गीत बना कर!
झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख-दुख दोनों की सीमा पर।
सुख-दुख की सीमा पर साक्षी का जन्म है। सुख-दुख के ठीक मध्य में! न मैं सुख हूं, न मैं दुख हूं। न मैं देह हूं, न मैं मन हूं। न मैं यह हूं, न मैं वह हूं। नेति-नेति। वहीं साक्षी का आविर्भाव है। और जो साक्षी हो जाता है, केवल वही पछताता नहीं, शेष सब पछताते हैं।
हीरा जन्म न बारम्बार, समुझि मन चेत हो।
आज इतना ही।