UPANISHAD
Kahe Hot Adheer 09
Ninth Discourse from the series of 19 discourses – Kahe Hot Adheer by Osho. These discourses were given during SEP 11-30 1979.
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चलहु सखी वहि देस, जहवां दिवस न रजनी।।
पाप पुन्न नहिं चांद सुरज नहिं, नहीं सजन नहीं सजनी।।
धरती आग पवन नहिं पानी, नहिं सूतै नहिं जगनी।।
लोक बेद जंगल नहिं बस्ती, नहिं संग्रह नहिं त्यगनी।।
पलटूदास गुरु नहिं चेला, एक राम रम रमनी।।
चित मोरा अलसाना, अब मोसे बोलि न जाई।।
देहरी लागै परबत मोको, आंगन भया है बिदेस।
पलक उघारत जुग सम बीते, बिसरि गया संदेस।।
विष के मुए सेती मनि जागी, बिल में सांप समाना।
जरि गया छाछ भया घिव निरमल, आपुई से चुपियाना।।
अब न चलै जोर कछु मोरा, आन के हाथ बिकानी।
लोन की डरी परी जल भीतर, गलिके होई गई पानी।।
सात महल के ऊपर अठएं, सबद में सुरति समाई।
पलटूदास कहौं मैं कैसे, ज्यों गूंगे गुड़ खाई।।
वाचक ज्ञान न नीका ज्ञानी, ज्यों कारिख का टीका।।
बिन पूंजी को साहु कहावै, कौड़ी घर में नाहीं।
ज्यों चोकर कै लड्डू खावै, का सवाद तेहि माहीं।।
ज्यों सुवान कछु देखिकै भूंकै, तिसने तो कछु पाई।
वाकी भूंक सुने जो भूंकै, सो अहमक कहवाई।।
बातन सेती नहिं होय राजा, नहिं बातन गढ़ टूटै।
मुलुक मंहै तब अमल होइगा, तीर तुपक जब छूटै।।
बातन से पकवान बनावै, पेट भरै नहिं कोई।
पलटूदास करै सोई कहना, कहे सेती क्या होई।।
नीर बहाने को मन चाहे
काहे पतझड़ भाए
मन इक सागर थाह न जिसकी ध्यान लगाए डुबकी
चुन-चुन सच्चे मोती लाएं नैनन राह गंवाए
काहे पतझड़ भाए
नीर बहाने को मन चाहे
प्रेम जोत का सुंदर धोखा कोमल फूल समान
कांटा चुभ कर लहू बहाए यही प्रीति का दान
पल-पल मन में आग लगाए क्षण-क्षण जी भर आए
काहे पतझड़ भाए
नीर बहाने को मन चाहे
चंदरमा के गोरे मुख पर काली बदरी डोले
जागे दुख और बने चकोरी खाए पवन झकोले
बदले रूप हजारों विरहा क्या-क्या छवि दिखलाए
काहे पतझड़ भाए
नीर बहाने को मन चाहे
वह घड़ी धन्य है जब व्यक्ति को फूलों में भी कांटे दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं; जब वसंत में भी पतझड़ का आभास मिलता है; और जब जीवन में भी मृत्यु की छाया की स्पष्ट प्रतीति होने लगती है।
जिसने फूल ही देखे, वह भटका। जिसने फूलों में छिपे कांटे भी देख लिए, वह पहुंचा। जो वसंत में रम गया और पतझड़ को भुला बैठा, वह आज नहीं कल रोएगा, बहुत रोएगा; पछताएगा, बहुत पछताएगा। लेकिन जिसने वसंत में भी पतझड़ को याद रखा, वह दुख के पार हो जाता है, दुख से अतिक्रमण कर जाता है।
जीवन में द्वंद्व है–सुख का, दुख का; जन्म का, मृत्यु का; कांटों का, फूलों का; वसंतों का, पतझड़ों का। इस द्वंद्व में हम एक को पकड़ते हैं और दूसरे से बचना चाहते हैं। यही हमारी व्यथा है, यही हमारी पीड़ा है। जिसे हम पकड़ना चाहते हैं, पकड़ में नहीं आता, छूट-छूट जाता है; और जिससे हम बचना चाहते हैं, बच नहीं पाते, उसकी पकड़ में आ-आ जाते हैं। लेकिन जिम्मेवारी किसी और की नहीं है, हम स्वयं ही जिम्मेवार हैं। क्योंकि जो हमें विपरीत दिखाई पड़ता है वह केवल विपरीत दिखाई ही पड़ता है; है नहीं। कांटे और फूल साथ-साथ हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जीवन और मृत्यु भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू को बचाना चाहो और दूसरे को छोड़ना चाहो, यह कैसे होगा? असंभव नहीं होता है, नहीं हो सकता है। असंभव करने चलोगे तो पीड़ा पाओगे। और यही पीड़ा जन्मों-जन्मों से हम पा रहे हैं।
इसलिए कहता हूं: वह घड़ी धन्य है जब तुम्हें जीवन का द्वंद्व दिखाई पड़ जाए और यह भी दिखाई पड़ जाए कि यह द्वंद्व एक बड़ा षड्यंत्र है। जैसे ही यह बात दिखाई पड़ जाएगी, तुम द्वंद्व से ऊपर उठने लगे, अतीत होने लगे। तुम द्रष्टा हो जाओगे फिर; न जीवन, न मृत्यु–दोनों के साक्षी; न दिन, न रात–दोनों के साक्षी; न वसंत, न पतझड़–दोनों के साक्षी; न प्रेम, न घृणा–दोनों के साक्षी। और जो व्यक्ति हर द्वंद्व का साक्षी है वह समाधिस्थ है; वह निर्वाण को उपलब्ध है।
आज के सूत्र इसी द्वंद्वातीत अवस्था की तरफ इशारे हैं, मील के पत्थर हैं। समझोगे उनके इशारों को तो मंजिल बहुत दूर नहीं है। पलटू कहते हैं:
चलहु सखी वहि देस, जहवां दिवस न रजनी।
मित्र, उस देश चलें, जहां न दिन होता है न रात।
पाप पुन्न नहिं चांद सुरज नहिं, नहीं सजन नहीं सजनी।
मित्र, चलें उस देश, जहां पाप-पुण्य का द्वंद्व नहीं है, चांद-सूरज का द्वैत नहीं है, सजन-सजनी का भेद नहीं है। अभेद में चलें! निर्द्वंद्व में उठें!
धरती आग पवन नहिं पानी, नहिं सूतै नहिं जगनी।
उस देश को तलाशें, क्योंकि वही हमारा स्वदेश है। उस घर को खोजें, जहां न जागना होता है न सोना। क्योंकि वही हमारा असली घर है। उसे पा लिया तो अमृत को पा लिया; उससे चूके तो जहर में ही डुबकी खाते रहे। और जन्मों-जन्मों से हम चूक रहे हैं। कितना ही घर बनाओ यहां, गिर-गिर जाता है। यहां बनाए सभी घर ताश के पत्तों के घर सिद्ध होते हैं। कितने ही मजबूत बनाओ, पत्थरों से बनाए हुए महल भी अंततः रेत ही सिद्ध होते हैं। क्योंकि पत्थर भी रेत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है–रेत के कणों का ही जोड़ है; जो आज जुड़ा है, कल बिखर जाएगा।
यहां कितना ही भरोसा रखो, सब भरोसे आत्मवंचनाएं हैं। यहां कितनी ही कामनाओं के घोड़े दौड़ाओ, सब सपनों की दौड़ है। कितनी ही नावें चलाओ, सब कागज की नावें हैं। और कितना ही मन फूला-फूला लगे, सब पानी के बबूले हैं–अब टूटे, तब टूटे, देर-अबेर, लेकिन सब बबूले टूट जाएंगे, फूट जाएंगे। हाथ यहां कुछ भी नहीं लगता है। खाली हाथ हम आते हैं और खाली हाथ हम जाते हैं। कुछ गंवा कर भला जाते हों, कमा कर तो कुछ भी नहीं जाते।
बच्चा पैदा होता है तो बंद मुट्ठी आता है; जाता है आदमी तो खुला हाथ जाता है। कम से कम भ्रम तो था बंद मुट्ठी का। कहते हैं: बंधी मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक की! ठीक ही कहते हैं। कम से कम बच्चा भ्रम तो लेकर आता है। लेकिन वे सारे भ्रम जीवन तोड़ देता है।
अभागे हैं वे लोग, जो जीवन से पाठ नहीं लेते; जो जीवन की सुनते ही नहीं। जीवन तोड़ता है तुम्हारे भ्रमों को, तुम नये-नये निर्मित करते हो। जीवन धूल-धूसरित करता है तुम्हारे सपनों को, तुम नये-नये निर्मित करते हो। मरते क्षण तक भी तुम सपनों में ही लगे रहते हो–उन्हीं का विस्तार, उसी प्रपंच में। और इसीलिए खुद का घर–जो मिल सकता था, जो दूर भी न था, जो तुम्हारे भीतर ही छिपा था, जो तुम्हारे प्राणों के प्राण में था, जो तुम्हारी अंतरात्मा था–उससे वंचित रह जाते हो।
चलहु सखी वहि देस…
उस देश चलें! और यह देश कहीं दूर नहीं है। यह देश कहीं परदेस में नहीं है। यह देश कहीं आकाशों में नहीं है, पातालों में नहीं है। यह देश तुम्हारे ही भीतर है।
चलहु सखी वहि देस, जहवां दिवस न रजनी।
पाप पुन्न नहिं चांद सुरज नहिं, नहीं सजन नहीं सजनी।।
धरती आग पवन नहिं पानी, नहिं सूतै नहिं जगनी।
लोक बेद जंगल नहिं बस्ती, नहिं संग्रह नहिं त्यगनी।।
न वहां त्याग है, न संग्रह है। न वहां लोक है, समाज है; न वेद है, शास्त्र है; न ही जंगल है, न ही बस्ती है।
पलटूदास गुरु नहिं चेला, एक राम रम रमनी।
वहां सब खो जाते हैं। गुरु-चेले का अंतिम भेद भी खो जाता है। और सब भेद तो खो ही जाते हैं–पति के पत्नी के, भाई के बहन के, मित्र के शत्रु के–जो अंतिम भेद है, प्यारे से प्यारा भेद है, गुरु-शिष्य का भेद भी वहां खो जाता है। वहां तो बचता है एक। अब एक को क्या नाम दें! एक तो अनाम ही होगा। दो हों तो नाम हो सकते हैं।
…एक राम रम रमनी।
बस एक राम बच रहता है। यहां राम से अर्थ दशरथ-पुत्र राम से नहीं है। यहां राम से अर्थ है तुम्हारे प्राणों में बसे हुए साक्षी ब्रह्म से। जहां एक राम ही रह जाता है–न कोई भक्त, न कोई भगवान; न कोई दृश्य, न कोई द्रष्टा; जहां एक शुद्ध साक्षी-भाव रह जाता है, दर्पण मात्र, जिसमें कुछ झलकता भी नहीं, इतना द्वंद्व भी नहीं–इस अवस्था को योग ने समाधि कहा है, निर्विकल्प समाधि। महावीर ने शुक्ल-ध्यान की अवस्था कहा है। इतना शुद्ध, इतना पवित्र, इतना पावन–इसलिए शुक्ल, शुभ्र, शुभ्रतम! इसे बुद्ध ने निर्वाण कहा है। जहां अहंकार का दीया बुझ गया। क्योंकि अहंकार के दीये के लिए द्वंद्व चाहिए।
तुम जब बिलकुल अकेले रह जाते हो तो तुम्हें जो अड़चन होती है, शायद तुमने सोचा भी न होगा–क्यों होती है? अकेले में तुम इतने बेचैन क्यों हो जाते हो? अगर दस-पांच दिन अकेला रहना पड़े तो इतने घबड़ा क्यों जाते हो? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तीन सप्ताह अगर व्यक्ति को बिलकुल एकांत में रहना पड़े तो पागल हो जाए। क्यों? सीधा सा कारण है। सोचा नहीं होगा, प्रयोग नहीं किया होगा, खयाल में नहीं आया होगा।
तुम्हारे अहंकार के जीवित रहने के लिए दूसरे की जरूरत है। अगर दूसरा मौजूद हो तो अहंकार जीता है। तू हो तो मैं जीता है; बिना तू के मैं का कोई अस्तित्व नहीं बचता। जहां तू ही नहीं है वहां मैं भी नहीं है। और जहां मैं नहीं है वहां घबड़ाहट लगेगी कि डूबने लगे–डूबने लगे अतल गहराइयों में! कोई पार मिल सकेगा इस अतल गहराई का, भरोसा नहीं आता। हाथ से छूटने लगे सब सहारे। अब तक अहंकार में जीए हो–मैं हूं! लेकिन जहां तू गया वहां मैं भी गया; फिर जो शेष रह जाता है–
…एक राम रम रमनी।
इसलिए तो हम भीड़ तलाशते हैं। इसलिए धर्म के नाम पर भी भीड़ में ही सम्मिलित हो जाते हैं–हिंदू की भीड़, मुसलमान की भीड़, ईसाई की भीड़, जैन की भीड़–भीड़ की तलाश करते हैं। महावीर ने ज्ञान पाया एकांत में। बुद्ध ने ज्ञान पाया एकांत में। जीसस ने ज्ञान पाया एकांत में। लेकिन हम भीड़ तलाशते हैं। हमें अकेलापन काटता है। जितनी बड़ी भीड़ हो उतना हमें आश्वासन मालूम पड़ता है। भीड़ की तलाश राजनीति है और एकांत की तलाश धर्म है। राजनेता को भीड़ चाहिए। बिना भीड़ के उसके प्राण निकलने लगते हैं।
एक भूतपूर्व एम.एल.ए.
बस स्टॉप पर
खड़ा हुआ आकर
और थोड़ी देर बाद
गिर पड़ा गश खाकर।
उसकी चेतना उड़ गई
और उसके आस-पास
अच्छी-खासी भीड़ जुड़ गई।
एक आदमी ने लोगों से
अनुरोध किया
कि आप ये भीड़ हटा लीजिए
बेचारे को हवा आने दीजिए।
तब मैंने कहा,
‘नहीं! ये भीड़ रहने दीजिए
आपको शायद मालूम नहीं है
कि यह बेहोश पड़ा व्यक्ति
एक हारा हुआ विधायक है
हाल-फिलहाल ये भीड़
इसके लिए लाभदायक है
आप भीड़ हटाने की नादानी
क्यों कर रहे हैं
अरे, भीड़ ने साथ छोड़ दिया था
इसीलिए तो ये दौरे पड़ रहे हैं!’
आदमी भीड़ में जीता है। राजनेता ही नहीं, सभी भीड़ की तलाश करते हैं। परिवार हम बसाते हैं, किसलिए? अकेलापन न अनुभव हो। विवाह करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं–अकेलापन अनुभव न हो, संग-साथ रहे। सबसे बड़ा डर अकेले होने का डर है कि कहीं मैं अकेला न पड़ जाऊं! इसके लिए हम कितने आयोजन करते हैं! अगर हम जीवन को छान कर देखें तो हमारे सारे आयोजन एक बात के हैं कि किसी तरह मुझे यह याद न आए कि मैं नहीं हूं। और बुद्ध कहते हैं कि जो जान ले मैं नहीं हूं, उसने पा लिया सब, उसे मिल गया वह देश–जहां न तू है, न मैं है।
चूंकि हम भीड़ पर निर्भर होते हैं, इसलिए भीड़ से डरते भी हैं, भीड़ से भयभीत भी रहते हैं। भीड़ हमसे जो करवाए हम करते हैं। भीड़ की आज्ञा माननी पड़ती है। भीड़ जो चरित्र दे दे, उसे थोप लेना पड़ता है; चाहे अंतरात्मा गवाही दे या न दे। भीड़ को खुश रखना होता है, क्योंकि बिना भीड़ के हम मुश्किल में पड़ जाते हैं। इसलिए भीड़ अगर युद्ध को जा रही हो तो हम भी चले युद्ध को। अगर भीड़ मंदिर को जला रही हो तो हम भी जलाते हैं मंदिर को। अगर भीड़ मस्जिद को गिराती हो तो हम मस्जिद गिराते हैं। अगर भीड़ हत्याएं करती हो तो हम हत्याएं करते हैं। हिंदू-मुस्लिम दंगे सिर्फ भीड़ों के कारण हैं। कुछ लोग एक भीड़ के हिस्से बन गए हैं, कुछ लोग दूसरी भीड़ के हिस्से बन गए हैं।
इस दुनिया से हिंदू-मुस्लिमों के दंगे, ईसाइयों-मुसलमानों के दंगे नहीं मिटेंगे तब तक, जब तक आदमी अकेला होने की सामर्थ्य नहीं जुटाता। जब तक भीड़ें हैं तब तक दंगे रहेंगे, क्योंकि भीड़ को भी बचने के लिए दंगों की जरूरत है। जैसे तुम्हें बचने के लिए भीड़ की जरूरत है, भीड़ को बचने के लिए दंगों की जरूरत है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अगर तुम्हारे देश का कोई शत्रु न हो तो झूठा शत्रु पैदा रखो, लेकिन बनाए रखो। जब तक शत्रु है तब तक देश इकट्ठा रहता है, मजबूत रहता है। जैसे ही शत्रु न हुआ वैसे ही देश ढीला पड़ जाता है, सुस्त हो जाता है। अगर सच्चा शत्रु हो तो सौभाग्य; अगर सच्चा शत्रु न हो तो झूठी ही अफवाहें उड़ाए रखो, डराए रखो लोगों को। इस्लाम खतरे में है–तो मुसलमान इकट्ठा रहता है। हिंदू धर्म खतरे में है, हिंदू राष्ट्र खतरे में है–तो लोग चले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में चड्डियां पहन कर कवायद करने। खतरा पैदा रखो, खतरे को जगाए रखो। जब तक खतरा है तब तक तुम इकट्ठे हो; जैसे ही खतरा गया कि तुम बिखरे।
तुम देखते हो, देश में, इस देश में अभी तीस साल पहले अंग्रेजों का राज्य था तो सारा देश इकट्ठा था, क्योंकि दुश्मन एक था, उससे लड़ना था। उससे लड़ना था तो लोग इकट्ठे थे। कोई झगड़ा न था गुजराती और मराठी का, हिंदी बोलने वाले का और तमिल बोलने वाले का–कोई झगड़ा न था। सारा देश इकट्ठा था। अंग्रेज उस इकट्ठेपन से डरा हुआ था। इसलिए उसने एक झगड़ा खड़ा करवा दिया था हिंदू-मुसलमानों का। हिंदुओं को अंग्रेज भड़काते रहे कि तुम्हारा धर्म खतरे में है और मुसलमानों को भड़काते रहे कि तुम्हारा धर्म खतरे में है। इस झगड़े में उलझाए रखे। इस झगड़े में उन्होंने इस देश को दो हिस्सों में तुड़वा दिया। हिंदू-मुसलमान लड़ते रहे।
लोग सोचते थे कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान बंट जाएंगे तो फिर दंगा-फसाद खतम हो जाएगा। मगर नहीं खतम हुआ। हिंदू-मुसलमान अगर बंट गए तो क्या होता है! तो अब और छोटी-छोटी चीजों पर झगड़े शुरू हो गए। तो उत्तर भारत का और दक्षिण भारत का झगड़ा है। तुम अगर रावण की प्रतिमा जलाते हो तो दक्षिण में राम की प्रतिमा जलाई जाएगी। क्योंकि राम उत्तर के थे। उत्तर छाती पर चढ़ा हुआ है। दक्षिण को उत्तर से मुक्त होना है। उत्तर-दक्षिण का झगड़ा होगा, यह कभी सोचा भी न था।
और छोटी-छोटी बातों के झगड़े हैं। नर्मदा का जल किसका है–मध्यप्रदेश का कि गुजरात का? एक छोटी-मोटी तहसील, कि जिला किसका है–कर्नाटक का कि महाराष्ट्र का? छुरेबाजी होगी। बंबई किसकी है–गुजरातियों की कि महाराष्ट्रियनों की? छुरेबाजी हो जाएगी।
आदमी भीड़ में रहता है तो उसे लगता है मैं हूं। और भीड़ दूसरी भीड़ों से लड़ती रहती है तो उसे लगता है कि मैं हूं। अगर कोई लड़ने को न बचे, भीड़ बिखर जाए। तुम्हें मित्रता नहीं बांधती, तुम्हें शत्रुता बांधती है। तुम्हें प्रेम नहीं बांधता, तुम्हें घृणा बांधती है।
इसलिए तुमने देखा, अगर पाकिस्तान से झगड़ा हो रहा हो तो भारतीयों के आपसी झगड़े एकदम शांत हो जाते हैं। अभी पाकिस्तान से पहले निपटें, फिर ये आपसी झगड़े तो पीछे काम में आ जाएंगे; जब कोई और झगड़ा न रहेगा तब इन झगड़ों में समय बिता लेंगे। चीन का हमला हो जाए तो तुम एकदम इकट्ठे हो जाते हो। फिर तुम अपने झगड़े भूल जाते हो। और नहीं तो छोटे-छोटे झगड़े खड़े हो जाते हैं–सिक्खिस्तान चाहिए! बंगालियों को अखंड बंगाल चाहिए!
भीड़ जिंदा नहीं रह सकती बिना भीड़ों से टकराए। ये तुम्हारे राष्ट्र–भारत, पाकिस्तान, चीन, जापान–और क्या हैं सिवाय भीड़ों के नाम? और इनके बचने का राज क्या है? इनके बचने का राज वही है। अगर मूल सूत्र से समझो: तुम नहीं बचोगे अगर अकेले रह जाओ; भीड़ नहीं बचेगी अगर और भीड़ें न रह जाएं।
हम द्वंद्व में जीते हैं। न केवल जीते हैं, बल्कि द्वंद्व को पोषण करते हैं। फिर जिस भीड़ के आधार पर तुम जीते हो, स्वभावतः उससे डरना होगा। अगर वह कहे कि ऐसा भोजन करो, तो वैसा भोजन करना होगा। वह कहे इस ढंग से उठो, इस ढंग से बैठो–तो इस ढंग से उठना होगा, इस ढंग से बैठना होगा। क्योंकि भीड़ बरदाश्त नहीं करती है बगावतियों को, विद्रोहियों को; क्योंकि विद्रोही भीड़ के लिए खतरा हैं, भीड़ को वे तोड़ देंगे, भीड़ को खंड-खंड कर देंगे। भीड़ चाहती है आज्ञाकारी व्यक्ति। आज्ञा का उल्लंघन भीड़ की दृष्टि में सबसे बड़ा पाप है। तो तुम डरते हो। और जब तक तुम एकांत में जी न पाओगे, जब तक तुम अपने भीतर के एकांत में डूब न पाओगे, जब तक तुम ध्यान में रसमग्न न हो पाओगे–तब तक भीड़ तुम्हारी मालिक रहेगी, तुम गुलाम रहोगे।
बीमार नेताजी से डाक्टर ने पूछा, क्या आप पार्टियों में बहुत आते-जाते हैं? आपका पेट खराब है, हाजमा बिगड़ा हुआ है।
हां, मैं पार्टियों में बहुत आता-जाता हूं, नेताजी ने कहा। पहले मैं जनसंघी था, फिर समाजवादी, फिर साम्यवादी, फिर स्वतंत्र पार्टी में, फिर जनता पार्टी में। वहां से स्वर्ण-कांग्रेस में आया और आजकल इंदिरा-कांग्रेस में हूं, क्योंकि अब आसार उसी के नजर आते हैं।
नेता पार्टी का मतलब भी एक ही जानता है–हाजमा भी खराब हो तो भी! उसकी अपनी बंधी भाषा है।
भीड़ से डरोगे, वेद से भी डरोगे। वेद प्रतीक है। मुसलमान हो तो कुरान समझ ले और ईसाई हो तो बाइबिल समझ ले और बौद्ध हो तो धम्मपद समझ ले। तुमने जिस किताब को मान रखा हो, वही वेद है। तुम जिस किताब को मान कर चल रहे हो, वही वेद है।
लोक बेद…
अगर तुम भीड़ से डरोगे तो भीड़ की किताब को भी मान कर चलना पड़ेगा। और भीड़ की किताबों ने क्या-क्या पाप तुमसे नहीं करवा लिए हैं! मनुस्मृति ने क्या-क्या पाप नहीं करवा लिए हैं! लेकिन अगर हिंदू हो तो मनुस्मृति को मान कर चलना ही पड़ेगा। क्योंकि हिंदुओं की भीड़ को बांध कर कौन रखेगा? कोई किताब चाहिए, कोई नियम चाहिए, कोई व्यवस्था चाहिए–वह कौन देगा?
इसलिए किताबें इतनी मूल्यवान हो गई हैं। अपनी बुद्धि मूल्यहीन हो गई है, परायी बुद्धियां मूल्यवान हो गई हैं। मनु महाराज को मरे पांच हजार वर्ष हो गए, लेकिन उनसे छुटकारा नहीं होता। अब भी जब तुम कभी किसी हरिजन को जलाते हो तो उसमें मनु महाराज की किताब का हाथ होता है।
तुम्हें शायद ज्ञात हो या न हो, लेकिन मनुस्मृति ने ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय की अखंड धारा चलाई है, भेद बिलकुल सुनिश्चित कर दिए। इतने सुनिश्चित कि जिनको तुम महापुरुष कहते हो वे भी महापुरुष नहीं मालूम होते।
स्वयं राम ने एक शूद्र के कानों में गरम सीसा पिघलवा कर भरवा दिया था, क्योंकि उसने वेद को सुनने की हिम्मत की थी। सुनने की हिम्मत, क्योंकि वेद वर्जित है शूद्र के लिए! और राम को तुम मर्यादा-पुरुषोत्तम कहते हो! शायद इसीलिए कहते हो, क्योंकि तुम्हारी मर्यादा से बाहर नहीं गए। तुम्हारी मर्यादा यही थी कि शूद्र वेद को न सुने; पढ़ना तो दूर, सुने भी नहीं। और एक शूद्र ने वेद को सुन लिया, उसके कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया। मर ही गया होगा बेचारा।
और अगर राम ऐसे कृत्य कर सकते हैं तो फिर छोटे-मोटे राम जो करते हैं गांव-गांव में, वह सब मर्यादा है! ये छोटे मर्यादा-पुरुषोत्तम!
तुम्हारे महापुरुष भी तुम्हारी मानें तो महापुरुष, तुम्हारी न मानें तो महापुरुष नहीं। यह चमत्कार है कि छोटे-छोटे लोग भी अपने महापुरुषों को अपने पीछे चलवाते हैं। इस जगत का नियम है कि नेता को नेता होना हो तो अनुयायियों के पीछे चलना पड़ता है। यह बड़ा उलटा नियम है। असली नेता वही है, समझदार नेता वही है जो देख ले कि भीड़ कहां जा रही है और सदा भीड़ को देख कर हमेशा भीड़ के आगे हो जाए। पीछे से तो भीड़ के पीछे होता है, वस्तुतः तो भीड़ के पीछे होता है, देख लेता है भीड़ कहां जा रही है। अगर बाएं मुड़ती है भीड़ तो होशियार नेता बाएं मुड़ जाता है; दाएं मुड़ती है भीड़ तो होशियार नेता दाएं मुड़ जाता है! नेता तो ऐसे है जैसे हवा का रुख बताने वाला पंखा होता है, जो हवा का रुख बताता रहता है–बाएं, दाएं, कहां हवा बह रही है, पंखी उसी तरफ उड़ने लगती है।
तुम्हारे महापुरुष भी बिलकुल थोथे हैं। नहीं तो तुम उन्हें महापुरुष मानोगे भी नहीं; तुम उन्हें पत्थर मारोगे, गालियां दोगे। तुम उन्हें जिंदा जला दोगे। और तुमने वही किया है–असली महापुरुषों के साथ तुमने वही किया है। राम को तो मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा है, लेकिन महावीर का उल्लेख भी नहीं किया। हिंदू शास्त्रों में महावीर का कोई उल्लेख नहीं है। क्यों? क्योंकि इसने वेद की मर्यादा नहीं मानी, इसने मनुस्मृति की मर्यादा नहीं मानी। इसने चार वर्णों का नियम नहीं माना और न ही चार आश्रमों का नियम माना। और इतना ही नहीं, यह व्यक्ति वस्त्र छोड़ कर नग्न खड़ा हो गया। इसने सब मर्यादाएं तोड़ दीं। यह बगावती है। इस बगावती को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसलिए महावीर को पत्थर मारे गए, गांव-गांव से खदेड़ा गया, कानों में सींकचे ठोंक दिए गए। भयानक खूंखार कुत्ते महावीर के पीछे छोड़े गए। महावीर को जितना सताया जा सकता था, सताया गया।
वही तुमने बुद्ध के साथ किया। चट्टानें सरकाईं पहाड़ों से–कि बुद्ध नीचे ध्यान कर रहे हैं, उनके ऊपर चट्टान गिर जाए। कहानियां कहती हैं कि चट्टानें बच कर निकल गईं, बुद्ध को छोड़ दिया उन्होंने। ऐसा लगता है कि चट्टानों के पास भी तुमसे ज्यादा समझ है। पागल हाथी बुद्ध के ऊपर छोड़ा गया। लेकिन बुद्ध के चरणों में आकर झुक गया। ऐसा मालूम होता है, तुम पागल हाथियों से भी ज्यादा पागल हो।
मीरा को तुमने जहर पिलाया, मंसूर के हाथ-पैर काट डाले, जीसस को सूली पर लटकाया, सुकरात को मौत की सजा दी।
और राम को तुम कहते हो मर्यादा-पुरुषोत्तम! उनकी मर्यादा क्या है?
पहली मर्यादा कि बूढ़े बाप की गलत आज्ञा मानी। बूढ़े बाप ने बुढ़ापे में विवाह किया है जवान लड़की से, उस जवान लड़की को वचन दे दिया है। इस बूढ़े बाप की आज्ञा मानी; आज्ञाकारी हैं–यह उनकी मर्यादा है! फिर तथाकथित ऋषियों-मुनियों की रक्षा की, पंडित-पुजारियों की–यह उनकी मर्यादा है! शूद्र के कान में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया ताकि फिर दुबारा ऐसी भूल कोई शूद्र न करे–यह उनकी मर्यादा है! इसलिए राम का गुणगान चल रहा है सदियों से, रामलीला चल रही है गांव-गांव। तुलसीदास की चौपाइयां लोगों ने रट ली हैं और सोचते हैं इन चौपाइयों को दोहरा कर वे धार्मिक हो रहे हैं। भीड़ ने राम को इतना सम्मान दिया है, उससे साफ है कि राम भीड़ की मान कर चलते रहे; जैसा भीड़ चाहती थी वैसा ही करते रहे। कुशल राजनीतिज्ञ रहे होंगे, होशियार नेता रहे होंगे!
और तुम वेदों की मानते हो, चाहे वेद कुछ भी कहें।
कोई किताब शाश्वत नहीं है, सब किताबें सामयिक होती हैं, अपने समय के अनुकूल होती हैं। अपने समय के लिए जरूरी भी होती हैं, उपयोगी भी होती हैं, उपादेय भी होती हैं। लेकिन कोई किताब शाश्वत नहीं है।
बाइबिल में लिखा है कि पृथ्वी चपटी है। अब वैज्ञानिकों ने खोज लिया कि पृथ्वी गोल है। अब मुश्किल खड़ी हो गई। वह जो वेद को मान कर चलता है, उसके लिए अड़चन खड़ी हो गई। आज से तीन सौ साल पहले, इस पृथ्वी पर पैदा हुए बड़े से बड़े वैज्ञानिकों में से एक, गैलीलियो को पोप ने बुलवाया अपनी अदालत में माफी मंगवाने को–कि माफी मांगो और कहो कि पृथ्वी चपटी है, गोल नहीं! और सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है, पृथ्वी सूरज का चक्कर नहीं लगाती।
विज्ञान ने दोनों बातें खोज ली थीं। गैलीलियो की दोनों बातों के लिए काफी प्रमाण थे गैलीलियो के पास कि पृथ्वी गोल है और पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है, सूरज नहीं। मगर गैलीलियो भी बहुत अलमस्त आदमी रहा होगा। बूढ़ा था, लेकिन बड़ा समझदार रहा होगा। उसने कहा कि ठीक, आप सबको इससे प्रसन्नता होती है कि पृथ्वी चपटी रहे, आपकी मौज! मैं कहे देता हूं–पृथ्वी चपटी है, गोल नहीं। और आपको आनंद मिलता है यह बात जान कर कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाए, पृथ्वी सूरज का न लगाए। मैं बिलकुल राजी हूं। मुझे क्या अड़चन है? मेरा क्या बनता-बिगड़ता है? मैं कहे देता हूं कि सूरज ही चक्कर लगाता है, पृथ्वी चक्कर नहीं लगाती। लेकिन एक बात ध्यान रहे, मेरे कहने से कुछ भी नहीं होता। पृथ्वी गोल है और गोल ही रहेगी। और पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है तो चक्कर लगाएगी ही। गैलीलियो की आज्ञा का कुछ भी अर्थ नहीं, मैं कितना ही चिल्लाऊं। मगर मैं कहे देता हूं, मैं क्षमा मांगे लेता हूं, मैं घुटने टेके देता हूं। मैं इस झंझट में नहीं पड़ता, मैं इस तरह की क्षुद्र बातों को व्यर्थ का विवाद नहीं बनाना चाहता। लेकिन मैं क्या करूं?
उसने बार-बार दोहरा कर कहा कि मैं क्या करूं? उसने पोप को अच्छा लथाड़ा। माफी तो मैं मांग रहा हूं, मेरी तरफ से मांग सकता हूं, पृथ्वी के लिए मैं क्या कर सकता हूं! पृथ्वी…आप पृथ्वी को अदालत में बुलाइए।
लेकिन क्या पोप को अड़चन थी? अगर विज्ञान ने यह तथ्य खोज लिया है तो इसे स्वीकार करने में अड़चन क्या थी? एक अड़चन आती है। और वह अड़चन यह है कि अगर बाइबिल की एक बात गलत हो सकती है तो फिर शक पैदा होता है, और बातें भी गलत हो सकती हैं। इस शक से तो बड़ी असुविधा हो जाएगी। एक ईंट खिसक जाए बुनियाद की, तो और ईंटें भी लोग खिसकाने लगेंगे। लोग कहेंगे कि जब तुम्हारे धर्मग्रंथ में ऐसी बुनियादी भूल है, तो क्या पता कि बाकी भी सब भूलें हों! तो वह जो विश्वास का एक गढ़ खड़ा कर रखा है, वह गिरना शुरू हो जाएगा।
इसलिए कोई धर्म अपनी धार्मिक किताब में किसी तरह का विचार स्वीकार नहीं करना चाहता। जैसा लिखा है, बस वैसा; उससे इंच भर इधर-उधर नहीं होना। और कोई धर्मग्रंथ सदा के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। अपने समय की प्रतिछाया होती है उसमें; अपने समय की भाषा होती है; अपने समय के नियम प्रतिबिंबित होते हैं। और ठीक अपने समय के लिए वह उपयोगी भी रहा है। लेकिन उसे सदा के लिए उपयोगी बनाना और सदा के लिए लोगों की छाती पर थोप देना खतरनाक है, महंगा सौदा है। लेकिन हम खुद ही कर लेते हैं। हम लोगों से डरते हैं और हम शास्त्रों से डरते हैं। और ये दोनों भय हमें अपने अंतरतम में नहीं जाने देते।
स्वयं की प्रज्ञा को निखारो। स्वयं की बुद्धि को धार धरो। शास्त्र में नहीं, स्वयं में छिपा है सत्य। और भीड़ में नहीं; पाओगे अगर परमात्मा को तो अपने में, स्वयं में।
लोक बेद जंगल नहिं बस्ती, नहिं संग्रह नहिं त्यगनी।
एक ऐसी भी चैतन्य की दशा है, जहां न संग्रह है, न परिग्रह है, न त्याग है। इस बात को समझना। क्योंकि दुनिया में दो तरह के लोग हैं। होने चाहिए तीसरे तरह के लोग, लेकिन तीसरे तरह के लोग तो कभी-कभी होते हैं–बहुत विरल। दुनिया में दो तरह के लोगों की भीड़ है। एक वे जो संग्रह में जीते हैं–इकट्ठा किए जाओ, भरे जाओ–कुछ भी हो, कूड़ा-करकट, लेकिन भरे जाओ, इकट्ठा किए चले जाओ!
मैं एक मित्र के साथ घूमने निकलता था। एक साइकिल का हैंडल पड़ा था रास्ते के किनारे। उन्हें संकोच तो बहुत लगा, लेकिन मुझसे कहा, माफ करिए! और उन्होंने तो हैंडल उठा लिया।
मैंने कहा, इस जंग लगे हैंडल का, टूटे-फूटे हैंडल का क्या करोगे?
उन्होंने कहा, आप देखिए! ऐसे ही मैंने दो चाक भी इकट्ठे कर लिए हैं। पैडिल भी एक है मेरे पास। जरा देखते जाइए–बनत बनत बनि जाई! एक न एक दिन साइकिल बना कर बता दूंगा।
और जब मैं उनके घर गया, तब तो मैं चकित रह गया, उन्होंने तो कई तरह की चीजें इकट्ठी कर रखी थीं; जिन चीजों का कोई उपयोग नहीं रहा, वे भी सब इकट्ठी कर रखी थीं। उनके घर में रहने की ही जगह नहीं बची थी–टूटा-फूटा फर्नीचर, बर्तन-भांडे, सब…। उनके घर में जो भीतर आता वह बाहर जाता ही नहीं। जो चीज भीतर आ गई वह इकट्ठी होती चली जाती।
कोई धन इकट्ठा करता है, कोई ज्ञान इकट्ठा करता है। कुछ हैं जो त्याग इकट्ठा करने लगते हैं, मगर इकट्ठा करना जारी रहता है। यह क्यों ऐसा होता है? इकट्ठा करने की यह इतनी दौड़ क्यों है? यह परिग्रह का इतना पागलपन क्यों है?
हम बहुत खाली मालूम होते हैं। आत्मज्ञान के बिना व्यक्ति खाली है ही। और खालीपन काटता है; इसे किसी तरह भर लो! लोग ज्यादा भोजन करके भर लेते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि लोग ज्यादा भोजन इसीलिए कर लेते हैं कि खालीपन लगता है। ज्यादा कपड़े इकट्ठे कर लेते हैं, क्योंकि खालीपन लगता है। कुछ भी इकट्ठा करो, इकट्ठा करने का यह जो रोग है, यह तुम्हारे भीतर की रिक्तता का सूचक है। पश्चिम में बहुत रिक्तता का बोध है, इसलिए पश्चिम में इकट्ठा करे जाओ चीजों को। और यहां भी, चीजें उतनी नहीं हैं, सुविधा उतनी नहीं है इकट्ठी करने की, इसलिए लोग कूड़ा-करकट ही इकट्ठा करते हैं–मगर कुछ न कुछ इकट्ठा करते जाओ। इकट्ठा करने में एक तरह की भ्रांति होती है कि हम भरे-पूरे हैं।
भरा-पूरा तो आदमी सिर्फ तभी होता है जब राम से भरता है। फिर याद दिला दूं: दशरथ के बेटे राम से मतलब नहीं है। दशरथ के बेटे राम से तो मुझे कुछ लेना-देना ही नहीं है। राम से मेरा अर्थ है–परमात्मा से, आत्मा की परम अवस्था से। जब आत्मा प्रकाशित होती है, जब आत्मा का राज्य उपलब्ध होता है, तब तुम लगोगे भरे-पूरे। अन्यथा खाली लगोगे। और कितना ही भरो, कितनी ही चीजों से भर लो–पद से, प्रतिष्ठा से, नाम से–कुछ भी न होगा।
एक अंतर्राष्ट्रीय भोज-सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें दूर-दूर देशों से आए हुए महारथी सम्मिलित हुए थे। सम्मेलन में सबसे ज्यादा भोजन करने वाले व्यक्ति को सम्मानित किया जाने वाला था तथा उसे अनेक उपहार दिए जाने वाले थे। प्रतियोगिता आरंभ हुई और अंततः चंदूलाल ने दो सौ पूरियां, चार सौ रसगुल्ले, दो सौ प्लेट दही-बड़े, चार सौ कचौड़ियां और अस्सी गिलास शरबत पीकर अंत तक मैदान में अपने को जमाए रखा। निर्णायकों ने घबड़ा कर उसे विजयी घोषित किया कि कहीं मर-मरा न जाए। वह तो अभी तत्पर था और। वह तो कहता था, और थोड़ा चल जाने दो। रिकार्ड ही कायम कर देना है! मगर निर्णायक घबड़ा गए, उन्होंने कहा कि रिकार्ड कायम हो गया। मगर हम पर भी दया करो, नहीं तो हम पकड़े जाएंगे। अगर तुम मर गए तो पुलिस हमें सताएगी।
उन्होंने उसे विजयी घोषित किया और पुरस्कार लेने के लिए स्टेज पर आमंत्रित किया। बामुश्किल उठ सका चंदूलाल। तुम खुद ही सोच लो कैसे उठा होगा। मगर उठ गया।
अहंकार की तृप्ति जो न करवा ले थोड़ा है। मुर्दा उठ आते हैं। कोई मर जाए, उसके कान में अगर जाकर कह दो कि अरे, यह भी कोई वक्त है मरने का! अभी चुनाव पास, जीतने का मौका! और तुम हैरान मत होना अगर वह उठ कर बैठ जाए।
किसी तरह चंदूलाल उठ कर खड़ा हो गया, स्टेज पर पहुंचा। पुरस्कार लेने के बाद लोगों को संबोधित करते हुए बोला, दोस्तो! मैं आज यहां इस प्रतियोगिता में सम्मिलित हुआ हूं, कृपया इस बात को मेरी पत्नी तक न पहुंचने दें, अन्यथा वह मुझे आज का खाना नहीं देगी और मैं भूखा रह जाऊंगा।
लोग भरे जाते हैं, भरे जाते हैं। फिर भी भरता नहीं कुछ; फिर भी खाली के खाली रह जाते हैं।
मुझे एक कहानी बहुत प्रीतिकर है–सूफियों की कहानी है। एक फकीर ने एक सम्राट के द्वार पर अपना भिक्षापात्र रखा। सुबह-सुबह थी और सम्राट अपने बगीचे से घूम कर महल में प्रवेश कर रहा था। सम्राट ने कहा, क्या चाहते हो?