UPANISHAD
Kaivalya Upanishad 01
First Discourse from the series of 19 discourses – Kaivalya Upanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during MAR 25 – APR 02 1972.
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शांति पाठ
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् घ्राणश्चक्षु श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। सर्व ब्रह्मौपनिषद् माह ब्रह्म
निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत अनिराकरणं मेऽस्तु।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तुं
ते मयि सन्तु। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
ॐ मेरे अंग वृद्धि को प्राप्त हों; वाणी, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और सब इंद्रियां बल व वृद्धि को प्राप्त हों। सब उपनिषद ब्रह्मरूप हैं। मुझसे ब्रह्म का त्याग न हो और ब्रह्म मेरा त्याग न करे। उसमें रत हुए मुझको उपनिषद-धर्म की प्राप्ति हो।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
कैवल्य उपनिषद!
कैवल्य उपनिषद एक आकांक्षा है, परम स्वतंत्रता की। कैवल्य का अर्थ है: ऐसा क्षण आ जाए चेतना में, जब मैं पूर्णतया अकेला रह जाऊं, लेकिन मुझे अकेलापन न लगे। एकाकी हो जाऊं, फिर भी मुझे दूसरे की अनुपस्थिति पता न चले। अकेला ही बचूं, तो भी ऐसा पूर्ण हो जाऊं कि दूसरा मुझे पूरा करे, इसकी पीड़ा न रहे। कैवल्य का अर्थ है: केवल मात्र मैं ही रह जाऊं। लेकिन इस भांति हो जाऊं कि मेरे होने में ही सब समा जाए। मेरा होना ही पूर्ण हो जाए। अभीप्सा है यह मनुष्य की, गहनतम प्राणों में छिपी।
सारा दुख सीमाओं का दुख है। सारा दुख बंधन का दुख है। सारा दुख–मैं पूरा नहीं हूं, अधूरा हूं। और मुझे पूरा होने के लिए न मालूम कितनी-कितनी चीजों की जरूरत है। और सब चीजें मिल जाती हैं तो भी मैं पूरा नहीं हो पाता हूं; मेरा अधूरापन कायम रहता है। सब-कुछ मिल जाए, तो भी मैं अधूरा ही रह जाता हूं।
तो एक आकांक्षा मनुष्य के भीतर जगी, जिसे हम धर्म कहते हैं, कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं जिन चीजों को पाने चलता हूं, उनको पा लेने पर भी जब पूर्णता नहीं मिलती है तो उन्हें पाने की यात्रा ही व्यर्थ और गलत हो। तो फिर कोई और मार्ग खोजा जाए, जहां मैं वस्तुओं को पाकर पूरा नहीं होता, बल्कि मैं ही पूरा हो जाता हूं। और तब किसी वस्तु की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
इसलिए जिन्होंने भी गहन खोज की है उन्हें लगा कि आदमी तब तक आनंद को न पा सकेगा, जब तक कोई भी जरूरत किसी और पर निर्भर है। जब तक दूसरा जरूरी है, तब तक दुख रहेगा। जब तक मेरा सुख दूसरे पर निर्भर है, तब तक मैं दुखी रहूंगा। जब तक मैं किसी भी कारण दूसरे पर निर्भर हूं, तब तक मैं परतंत्र हूं और परतंत्रता में आनंद नहीं हो सकता। अगर हम सारे दुखों का निचोड़ निकालें तो पाएंगे, परतंत्रता। और सारे आनंद का सारफूल जो है, वह है स्वतंत्रता।
इस परम स्वतंत्रता को हमने मोक्ष कहा है। इस परम स्वतंत्रता को हमने निर्वाण कहा है। और इसी परम स्वतंत्रता को हमने कैवल्य कहा है। तीन कारणों से।
इस परम स्वतंत्रता को मोक्ष कहा है, क्योंकि वहां कोई बंधन नहीं। इस परम स्वतंत्रता को निर्वाण कहा है, क्योंकि वहां मैं भी नहीं, मेरा होना भी मिट जाता है–बस अस्तित्व रह जाता है। जब मैं कहता हूं–‘मैं हूं’, तो मुझे दो शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है, ‘मैं’ और ‘हूं’। हमने निर्वाण कहा इसे, उस क्षण में ‘मैं’ भी मिट जाता है, केवल ‘हूं’, होना मात्र रह जाता है। ‘मैं’ का भी भाव नहीं होता, बस होता हूं। और हमने इसे कैवल्य भी कहा, क्योंकि इस क्षण में अकेला मैं ही होता हूं। अकेला मैं ही होता हूं–इसका अर्थ हुआ कि सभी कुछ मुझमें ही समा जाता है। आकाश मेरे भीतर होता है, चांद-तारे मेरे भीतर चलते हैं। सृष्टियां मेरे भीतर बनती और बिगड़ती हैं। मैं ही फैल कर इस ब्रह्मांड से एक हो गया होता हूं। मैं ब्रह्म हो गया होता हूं। इसलिए इसे कैवल्य कहा।
यह कैवल्य उपनिषद इस परम स्वतंत्रता की खोज है। उसकी जिज्ञासा, उसकी जिज्ञासा के मार्ग का अनुसंधान है।
इसका प्रारंभ होता है एक प्रार्थना से। इसे भी हम थोड़ा समझ लें। क्योंकि किसी भी यात्रा का प्रारंभ साधारणतया प्रयास से होना चाहिए, प्रार्थना से नहीं। प्रयत्न से होना चाहिए, प्रार्थना से नहीं। लेकिन उपनिषद शुरू होता है एक प्रार्थना से।
बहुत संकेत हैं उसमें।
पहली बात, जिसे हम खोजने चले हैं, वह हमारे प्रयास से मिलने वाला नहीं है। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि वह हमारे बिना प्रयास के मिल जाएगा। यहीं थोड़ी कठिनाई है। और यहीं सारे धर्म की, साधना की गांठ है, उलझन है।
जिसे हम खोजने चले हैं, वह हमारे प्रयास से ही नहीं मिल जाएगा। और हमारे बिना प्रयास के भी नहीं मिलता है। हमारे ही प्रयास से इसलिए नहीं मिल जाएगा कि हम जिसे खोजने चले हैं, वह हमसे बहुत बड़ा है। कारागृह में बंद एक आदमी स्वतंत्रता को खोजने चला है। कैदी, परतंत्र, जंजीरों में बंधा, स्वतंत्र आकाश को खोजने चला है। जिसकी खोज है, वह बहुत बड़ा है। कैदी की सामर्थ्य बड़ी सीमित है। सीमित न होती तो वह कैदी ही न होता। सीमित न होती तो वह कारागृह में न होता। सीमित न होती तो कौन उसके हाथ पर जंजीरें बांध पाता? कौन उसके पैरों में बेड़ियां डालता? कौन उसके आस-पास कारागृह बनाता? सीमित है, कमजोर है, इसीलिए तो कारागृह में है। कारागृह में है, यह उसकी कमजोरी की खबर है। इसलिए अकेले उसके प्रयास से कुछ भी न हो सकेगा। अगर उसके ही प्रयास से हो सकता, तो वह कारागृह में ही नहीं होता।
लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि उसके बिना प्रयास के ही हो सकेगा। क्योंकि वह कारागृह में पड़ा हुआ कैदी अगर अपनी जंजीरों से राजी हो जाए और सो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत उसे कारागृह से मुक्त न कर पाएगी। वह अकेला भी मुक्त नहीं हो सकता और दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत भी बिना उसके सहयोग के उसे मुक्त नहीं कर सकती। इसलिए धर्म की सबसे गहरी, जटिल समस्या को हम पहले ही समझ लें।
आदमी मुक्त हो सकता है। उसे प्रयास भी करना पड़ेगा। लेकिन प्रयास के भी पहले उसे अपने से विराट को पुकार लेना होगा। प्रयास से भी पहले उसे प्रार्थना करनी होगी। प्रार्थना से ही उसका प्रयास शुरू होगा। समझें कि प्रार्थना उसका पहला प्रयास है। लेकिन प्रार्थना प्रयास जैसी नहीं मालूम होती।
प्रार्थना का मतलब है: तू कर। प्रार्थना का अर्थ है: तू सहायता दे। प्रार्थना का अर्थ है: तू मेरे हाथ को पकड़। प्रार्थना का अर्थ है: तू मुझे बाहर निकाल। अगर प्रार्थना इतने पर ही रुक जाए, तो भी प्रार्थना काम नहीं कर पाएगी। अगर प्रार्थना करके ही कैदी सो जाए, तो भी कारागृह से मुक्त नहीं हो पाएगा। प्रार्थना केवल एक आने वाले प्रयास का सूत्रपात है।
प्रार्थना जरूरी है, काफी नहीं है। प्रयास अनिवार्य है, पर्याप्त नहीं। और जहां प्रार्थना और प्रयास संयुक्त हो जाते हैं, वहां विराट ऊर्जा का जन्म होता है, जिससे असंभव भी संभव है।
प्रार्थना का अर्थ है: मैं उस विराट की सहायता मांगता हूं। और प्रयास का अर्थ है कि मैं उस विराट के साथ चलने को राजी हूं, सहयोग करूंगा। प्रार्थना का अर्थ है: तुम मुझे उठाओ। और प्रयास का अर्थ है: मैं उठने की जितनी मेरे पास ताकत है, पूरी लगा दूंगा। लेकिन प्रार्थना का यह भी अर्थ है कि मैं अपनी ताकत से न उठ सकूंगा, तुम्हारी जरूरत है। और प्रयास का यह अर्थ है कि अगर मैं ही न उठना चाहूं, तो तुम्हारी अनुकंपा भी मुझे कैसे उठा सकेगी? इसलिए मैं उठूंगा, अपने पैरों पर खड़ा होऊंगा। इन जंजीरों को तोड़ने की कोशिश करूंगा। फिर भी मैं जानता हूं कि मैं कमजोर हूं और तुम्हारी सहायता के बिना कुछ भी नहीं हो सकता।
यह उपनिषद शुरू होता है प्रार्थना से। वह प्रार्थना भी बहुत अनूठी है। अनूठी, कठिन, थोड़ी चिंता में भी डालेगी। बहुत बार पढ़ी होगी इस तरह की प्रार्थनाएं, लेकिन विचार नहीं किया होगा। विचार हम करते ही नहीं; अन्यथा यह प्रार्थना बहुत हैरानी में डालेगी।
ऋषि ने प्रार्थना की है: ‘मेरे अंग वृद्धि को प्राप्त हों। मेरी वाणी, मेरी घ्राण, मेरी आंखें, मेरे कान बलशाली हों। मेरी इंद्रियां शक्तिशाली बनें।’
हैरानी होगी सोच कर कि जो ब्रह्म की खोज पर चला है, वह इंद्रियों को शक्तिशाली करने की बात सोचता है। शक्तिशाली करने की प्रार्थना कर रहा है! हमने तो यही सुना है कि जिसे उस तरफ जाना हो, उसे इंद्रियों को नष्ट ही कर देना है। हमने तो यही सुना है कि जिसे उसे पाना हो, उसे इंद्रियों को निर्बल करना है। हमने तो यही सुना है कि इंद्रियों का दमन ही उसे पाने का मार्ग है। लेकिन यह उपनिषद का ऋषि हमसे उलटी बात कह रहा है!
बहुत लोग इस उपनिषद को पढ़ते हैं, लेकिन उन्हें कभी खयाल में नहीं आता कि ऋषि क्या कह रहा है? यह कह रहा है कि हमारी इंद्रियों को शक्ति दो, परमात्मा! हमारी आंखें मजबूत हों और हमारे कान बलशाली हों। हमारी वाणी शक्तिशाली बने, हमारी इंद्रियां मजबूत हों, वृद्धि को उपलब्ध हों। या तो यह ऋषि पागल है, या जो हम समझते रहे हैं, वह नासमझी है।
न मालूम कैसे हमारे मन में गहरे में यह बात बैठ गई है कि परमात्मा और संसार में विरोध है। नहीं है, जरा भी नहीं है। क्योंकि परमात्मा और संसार में विरोध हो, तो या तो फिर संसार ही हो सकता है, या फिर परमात्मा ही हो सकता है। दोनों नहीं हो सकते। अगर उन दोनों में विरोध हो तो एक कभी का टूट ही गया होता।
इसीलिए जो परमात्मा को बहुत ज्यादा मानता है, वह कहता है: संसार माया है। क्योंकि उसे कठिनाई होती है कि अगर परमात्मा को मानता हूं, तो संसार को भी कैसे मानूं? दो में से एक ही हो सकता है। इसीलिए जो संसार को मानता है, वह कहता है: परमात्मा झूठा है, हो नहीं सकता। सब कल्पना है, सब खयाल है, सब सपना है। है नहीं परमात्मा कहीं। क्योंकि उसे भी यह लगता है कि अगर संसार है, तो फिर परमात्मा नहीं हो सकता। दोनों की गहरी मान्यता यह है कि दोनों में विरोध है, तो दोनों में से एक ही हो सकता है। अन्यथा जीवन असंभव हो जाएगा।
लेकिन यह ऋषि कुछ और कह रहा है। यह ऋषि परमात्मा और संसार को विरोधी नहीं मानता है। यह ऋषि इंद्रियों और आत्मा को विरोधी नहीं मानता है। यह ऋषि परम ज्ञान की खोज के लिए भी इंद्रियों की शक्तिशाली होने की प्रार्थना से यात्रा शुरू करता है।
कोई विरोध है भी नहीं। हो भी नहीं सकता। होना संभव ही नहीं है। परमात्मा और संसार के बीच विरोध तो दूर, द्वैत भी नहीं है, द्वंद्व भी नहीं है। परमात्मा और संसार दो चीजें भी नहीं हैं।
संसार हम कहते हैं उस परमात्मा को, जो हमारी इंद्रियों से पकड़ में आ जाए। और परमात्मा कहते हैं उस संसार को, जो हमारी इंद्रियों से पकड़ में नहीं आता।
यह ऋषि अदभुत प्रार्थना कर रहा है। यह कह रहा है कि अभी मैं वह प्रार्थना दूसरी करूं तुमसे कि तुम भीतर से मुझे पकड़ में आ जाओ, तो थोड़ा छोटे मुंह बड़ी बात होगी। अभी तो मैं इतनी ही प्रार्थना करता हूं कि जिन इंद्रियों से तुम मुझे थोड़े-थोड़े पकड़ में आते हो, संसार की तरह, वे इतनी वृद्धि को प्राप्त हो जाएं कि संसार में ही तुम सब जगह मुझे दिखाई पड़ने लगो। आंख मेरी ऐसी वृद्धि को उपलब्ध हो जाए कि जब मैं वृक्ष को देखूं तो वृक्ष ही दिखाई न पड़ें, तुम भी उसके भीतर बढ़ते हुए दिखाई पड़ो। और जब कान मेरे वाणी को सुनें तो वाणी सिर्फ ओंठों से जो पैदा होती है वही सुनाई न पड़े, वह वाणी भी सुनाई पड़ जाए जो कि बिना ओंठों के ही सदा निनादित हो रही है। और जब मेरे हाथ किसी को छुएं तो शरीर तो छुआ ही जाए, मेरी अंगुलियां उस आत्मा के स्पर्श को भी पा लें जो शरीर के भीतर छिपा है। इसलिए मेरी इंद्रियों को मजबूत करो। इसलिए मेरी इंद्रियों को वृद्धि दो।
अनूठी दृष्टि है।
अब आज का मनस्विद इसका सहयोगी है। मनस्विद कहता है: जिस व्यक्ति की इंद्रियां जितनी संवेदनशील हैं, जितनी जीवंत हैं, उतना ही जीवन में जो छिपा है उसकी उसे प्रतीति और झलक मिलनी शुरू हो जाएगी। इंद्रियों को मार कर हम सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि हम संसार के दुश्मन हैं। और हम यह भी कह रहे हैं कि संसार में हम कितनी ही चेष्टा करें, तू हमें दिखाई नहीं पड़ता, तो हम आंखें ही फोड़ लेंगे, हम कान ही तोड़ देंगे। हम इंद्रियों को दीन-हीन और क्षीण कर लेंगे। सुखा डालेंगे। हम तो तुझे भीतर ही खोजेंगे।
लेकिन, समझें थोड़ा। जिसे हम बाहर भी न खोज पाए–जो कि सरल था–उसे हम भीतर खोज पाएंगे? और फिर बाहर और भीतर में जिसे हम बांटते हैं, वह क्या दो हैं? मेरे घर के बाहर जो आकाश है और मेरे घर के भीतर जो आकाश है, वह क्या दो हैं? और मेरी जो श्वास बाहर जाती है और मेरी जो श्वास भीतर आती है, वह क्या दो हैं? मेरे भीतर जो समाया है वह, और मेरे बाहर जो फैला है, क्या वे दो हैं? और बाहर इतना विराट फैला है, अगर वहां भी मैं अंधा हूं और वह मुझे दिखाई नहीं पड़ता, तो भीतर के मेरे इस बिंदु में मैं उसे खोज पाऊंगा?
ऋषि कहता है: पहले तू मेरी इंद्रियों को मजबूत कर। मेरी इंद्रियों को शक्ति दे, ताकि इंद्रियों से मैं उसको भी अनुभव कर पाऊं जो मेरी कमजोर इंद्रियों की पकड़ में नहीं आता।
हिम्मत की प्रार्थना है। कमजोर क्षणों में यह उपनिषद नहीं लिखा गया है।
भारत के मानसिक इतिहास में एक शक्तिशाली समय भी था। जब कोई कौम अपनी पूरी मेधा में जलती है, जब कोई कौम अपनी पूरी आत्मा में प्रकट होती है, तब कमजोर नहीं होती; तब उसके वक्तव्य बड़े बलशाली होते हैं। और जब भी कोई कौम युवा होती है, ताजी होती है, बढ़ती होती है, शिखर की तरफ उठती होती है; जब किसी कौम के प्राणों में सूर्योदय का क्षण होता है, तब कोई भी चीज अस्वीकार नहीं होती। सभी स्वीकार होता है। और तब, इतनी सामर्थ्य होती है उस कौम की आत्मा में कि वह जहर को भी स्वीकार करे तो अमृत हो जाता है। वह जिसको भी छाती से लगा ले, वही कांटा भी हो तो फूल हो जाता है। और जिस रास्ते पर पैर रखे, वहीं स्वर्ण बिछ जाता है।
लेकिन फिर कमजोर क्षण भी होते हैं कौमों के।
तो भारत कोई ढाई हजार वर्षों से बहुत कमजोर और दीन क्षण में जी रहा है, उधार में जी रहा है। जैसे सूर्यास्त हो गया हो। सिर्फ याद रह गई है सूर्योदय की। अंधेरा छा गया हो। दीन-हीन मन हो गया है। पैर रखते डर होता है। नये मार्ग पर चलने में भय होता है। पुरानी लीक पर ही घूमते रहना अच्छा मालूम पड़ता है। नये सोचने में, नये विचार में, नई उड़ान में, कहीं भी हिम्मत नहीं जुटती। ऐसे कमजोर क्षण में अमृत भी पीने में डर लगता है। पता नहीं जहर हो, अपरिचित, अनजान! फिर पता क्या कि इससे मैं बचूंगा कि मरूंगा? तब सब चीजों से आत्मा सिकुड़ने लगती है। एक सिकुड़ाव शुरू होता है। सब चीजों से भय हो जाता है। सब छोड़ो। सबसे बचो। इस बचाव और छोड़ने में सब सिकुड़ जाता है।
जिसे हम तथाकथित त्याग कहते हैं, उस त्याग की भी दो अवस्थाएं होती हैं। एक तो शक्तिशालियों का त्याग होता है–वे उन चीजों को छोड़ देते हैं, जिन्हें अनुभव से व्यर्थ पाते हैं। एक कमजोरों का भी त्याग होता है–वे उन सभी चीजों को छोड़ देते हैं, जिन्हें भी अपने से ज्यादा शक्तिशाली पाते हैं।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना।
शक्तिशालियों का भी त्याग होता है। वह उन चीजों को छोड़ देते हैं, जिन्हें व्यर्थ पाते हैं। कमजोर भी त्याग करते हैं। वे उन चीजों को छोड़ देते हैं, जिन्हें भी अपने से शक्तिशाली पाते हैं। जहां भी शक्ति है, वहीं उन्हें डर लगता है। शक्तिशालियों ने भी इंद्रियों को छोड़ा है, लेकिन इसलिए नहीं कि भय था। इसलिए कि उन्होंने और भी गहन अनुभव के द्वार खोल लिए, उन्होंने देखने की वे भीतरी आंखें पा लीं कि बाहरी आंखें बंद करने में भी वे समर्थ हो गए। उन्होंने भीतर की उस अनुभूति का द्वार खोल लिया कि अब उन्हें साधारण इंद्रियों की और उनके उपयोग की जरूरत न रही।
कमजोरों ने भी इंद्रियों का त्याग किया है, लेकिन भय के कारण। आंख बंद कर ली है कि डर है कहीं रूप दिख जाए, तो आत्मा बह जाए। कि कहीं स्पर्श हो जाए, तो संयम नष्ट हो जाए। कि कहीं मधुर वाणी कान में पड़ जाए, तो भीतर चित्त डांवाडोल हो जाए। कमजोरों ने भी इंद्रियों को छोड़ा है, शक्तिशालियों ने भी छोड़ा है। शक्तिशाली इसलिए छोड़ते हैं कि जब भी श्रेष्ठतर उपलब्ध हो जाता है तो निकृष्ट की जरूरत नहीं नह जाती।
यह ऋषि उन दिनों की बात कर रहा है, जब इस कौम की प्रतिभा जीवंत, जाग्रत, स्वस्थ, युवा थी। तब ऋषि हिम्मत से कह सकता था: हे परमात्मा, मेरी इंद्रियों को मजबूत कर!
समझें इसका मतलब यह हुआ कि आत्मा इतनी मजबूत है कि इंद्रियों से डरने का कोई कारण भी तो नहीं है। हम उनका उपयोग कर सकेंगे। हम उनके मालिक हो सकेंगे। हम उनका साधन की तरह–साध्य की तरह नहीं–साधन की तरह हम उनका उपयोग करने में समर्थ हैं।
इंद्रियों की वृद्धि की इस प्रार्थना में जीवन और आत्मा की एकता का सूत्र छिपा है। जीवन एक वर्तुल है। चाहे हम बाहर से और चाहे हम भीतर से, जिसे भी हम पा लेंगे वह एक ही है। यह वर्तुल–चाहे हम बाहर से खोज करते हुए आएं तो भी हम भीतर पहुंच जाएंगे; चाहे हम भीतर से खोज करते हुए आएं तो भी हम बाहर पहुंच जाएंगे। क्योंकि जिसे हम बाहर और भीतर में बांट रहे हैं, वह अपने आप में अनबंटा है, अविभाज्य है, अखंड है। हम कहीं से भी शुरू करें।
लेकिन यह उपनिषद का ऋषि बाहर से शुरू कर रहा है। इस बाहर से शुरू करने में और भी कारण हैं। पहला तो यह कि मनुष्य सहज ही बहिर्मुखी है। तो जहां मनुष्य है, वहीं से शुरू करना उचित है। और जो सहज ही हो रहा है, उसको ही हम साधना क्यों न बना लें? सहज ही साधना क्यों न हो? असहज की तरफ हम क्यों झुकें? तो इंद्रियां देख ही रही हैं, इन इंद्रियों के लिए हम क्यों न प्रार्थना करें और क्यों न प्रयास करें कि ये इतना देख पाएं कि अदृश्य भी दृश्य हो जाए? कान सुन ही रहे हैं, तो हम इन कानों की और शक्ति को क्यों न बढ़ाएं कि ये उसे भी सुन लें, जो सदा ही अनसुना है! छिपा है, अप्रकट है, परोक्ष है, वह भी क्यों न इनके सामने आ जाए! इनकी देखने की तीक्ष्णता ऐसी क्यों न हो, संवेदना इनकी इतनी प्रगाढ़ क्यों न हो, कि जो नहीं दिखता है, उसकी भी झलक मिले! क्यों न हम वहीं से शुरू करें जहां आदमी सहज ही खड़ा है! क्यों न हम आदमी के स्वभाव से शुरू करें!
उपनिषद अति स्वाभाविक हैं, अति सहज। उपनिषद अस्वाभाविक नहीं हैं, असहज नहीं हैं। वे किसी ऐसी चर्चा में नहीं पड़ने में उनका रस है, जहां आदमी को व्यर्थ ही उलटा-सीधा होना पड़े। सीधा ही, आदमी जैसा है, उपनिषद को स्वीकार है। उस आदमी को ही हम निखार सकते हैं। उपनिषद नहीं कहते कि पत्थर को फेंक दो, क्योंकि यह हीरा नहीं है। उपनिषद कहते हैं: इसे निखारो, साफ करो, तराशो, यह हीरा है। इसमें हीरा छिपा है। वह प्रकट हो सकता है। जो आज पत्थर दिखाई पड़ रहा है, वह तराशने पर हीरा बन सकता है। फेंको मत–बदलो, रूपांतरित करो।
आदमी इंद्रियों का जोड़ है, जैसा आदमी है। और जिसे हम मन कहते हैं, वह भी हमारी इंद्रियों से इंद्रियों का संग्रह है। जैसा मन हमारे पास है, अगर हम अपने भीतर खोजने जाएं, तो हम इंद्रियों के सिवाय और क्या हैं? और हमारी सारी इंद्रियों के अनुभव का जोड़ ही तो हमारा ज्ञान है। यह हमारी स्थिति है। यह हमारा अंत नहीं है। यह हमारी परम अवस्था नहीं है। यह हमारी आज की अवस्था है। क्यों न इसे हम निखारें?
तो ऋषि परमात्मा से पहली प्रार्थना करता है कि जो भी मेरे पास ज्ञान के साधन हैं–मेरी इंद्रियां–तू उन्हें प्रखर कर।
‘उपनिषद ब्रह्मरूप हैं, मुझसे ब्रह्म का त्याग न हो, ब्रह्म मेरा त्याग न करे, उसमें रत हुए मुझको उपनिषद-धर्म की प्राप्ति हो।’
इतनी सी ही प्रार्थना है। ‘सब उपनिषद ब्रह्मरूप हैं।’ दो बातें कही हैं इन थोड़े से शब्दों में–‘सब उपनिषद ब्रह्मरूप हैं।’ भारतीय मनीषा को सदा से ही एक दृष्टि रही है, वह दृष्टि है अनेकांत की। वह दृष्टि है, एकांत विरोध की। वह दृष्टि है, एक ही ठीक है इसे नासमझी समझ लेना। उचित होता, इस ऋषि को कहना चाहिए था–कैवल्य उपनिषद ब्रह्मरूप है। कहना चाहिए था–यह उपनिषद ब्रह्मरूप है। लेकिन ऋषि कहता है: सब उपनिषद ब्रह्मरूप हैं। बेशर्त। सब उपनिषद ब्रह्मरूप हैं।
और उपनिषद का मतलब सिर्फ उन किताबों से नहीं है, जिन्हें हम उपनिषद कहते हैं। उपनिषद शब्द का अर्थ है: रहस्य। उपनिषद शब्द का अर्थ है: वे रहस्यपूर्ण कुंजियां जो उस परमात्म के द्वार को खोलती हैं। तो जब ऋषि ने कहा: ‘सब उपनिषद ब्रह्मरूप हैं’–तो उसने कहा है: वे सभी रहस्य-पथ, वे सभी मार्ग, वे सभी शब्द, वे सभी शास्त्र, जो परमात्म का द्वार खोलते हैं, वे ब्रह्मरूप हैं। यह मजेदार है बात। क्योंकि शास्त्र को, शब्द को, रहस्य को, पथ को ब्रह्मरूप कहना!
दो बातें खयाल में लेने जैसी हैं। ब्रह्म तो अरूप है, ब्रह्म का तो कोई रूप नहीं है। ब्रह्म का तो कोई आकार नहीं है। ब्रह्म की तो हम कोई, कोई धारणा भी न कर पाएंगे। कोई रेखा भी न खींच पाएंगे उसके आस-पास। कोई परिभाषा भी न कर पाएंगे। ब्रह्म तो निराकार है। अस्तित्व तो निराकार है। लेकिन जिन रहस्यवादियों ने उस निराकार के आस-पास भी रेखाएं खींची हैं, रेखाएं उसके आस-पास खिंच नहीं पातीं। और रेखाएं खींचने से कोई ब्रह्म के रहस्य का हल भी नहीं होता–लेकिन वे रेखाएं खींच कर ही हम उन लोगों को जो केवल रेखाओं को ही समझ सकते हैं, उस रेखा-शून्य की तरफ ले जाने का उपयोग कर सकते हैं। जो उस निराकार को सीधा नहीं समझ सकते हैं, उनके हाथ में हम आकार दे सकते हैं और आकार से धीरे-धीरे निराकार की यात्रा पर ले जा सकते हैं। आकार देकर धीरे-धीरे आकार छीने जा सकते हैं।
एक छोटे बच्चे को हम खेलने के लिए एक खिलौना दे देते हैं। खिलौने से प्रेम हो जाता है सघन। वह बच्चा उस खिलौने के बिना रात सो भी नहीं सकता। रात नींद भी खुल जाए और खिलौना न मिले तो वैसी हो बेचैनी होती है जैसा किसी भी प्रेमी को प्रेमी के बिछुड़ जाने पर हो। लेकिन शीघ्र ही वह दिन आ जाएगा, जब यह खिलौना किसी कोने में पड़ा रह जाएगा।
लेकिन एक मजे की बात है। खिलौना तो कोने में पड़ा रह जाएगा, लेकिन खिलौने से जो प्रेम का अनुभव हुआ, वह साथ चल पड़ेगा। खिलौने से जो प्रेम का नाता बना, जो संबंध बना, जो प्रतीति हुई, जो अनुभव हुआ, प्रेम का जो द्वार खुला, वह साथ रह जाएगा। खिलौना तो कल पड़ा रह जाएगा किसी कोने में। यह खिलौना फिर कभी इसे याद भी न आएगा। लेकिन जब भी यह किसी और को भी प्रेम करेगा, तो ध्यान रखें, उस खिलौने का भी दान उस प्रेम में रहेगा।
लेकिन हो सकता है यह बच्चा बच्चा तो न रह जाए शरीर से, लेकिन मन से फिर भी बच्चा रह जाए। फिर किसी व्यक्ति से प्रेम करने लगे और तब फिर उस व्यक्ति के लिए भी वैसा ही रोने लगे जैसे खिलौने के लिए कभी रोया था। और बिलकुल भूल जाए कि जिसके लिए इतना रोया था, उसे भी एक दिन छोड़ दिया, और फिर याद भी नहीं आई उसकी कि वह खिलौना कहां है! अब उसका कोई पता भी नही है।
लेकिन अगर यह बच्चा भीतर से भी बड़ा हो जाए, शरीर से ही नहीं, मन से भी बड़ा हो जाए, एक भीतरी प्रौढ़ता भी इसकी आए, तो एक दिन यह बाहर का खिलौना भी ऐसा ही भूल जाएगा। लेकिन तब भी इस बाहर के व्यक्ति से भी जो प्रेम का नाता बना था, जो संबंध बना था, जो रस पाया था, वह और सघन होकर भीतर भर जाएगा। यह प्रेम किसी दिन भक्ति भी बन सकता है और जिस दिन यह प्रेम भक्ति बनेगा और भगवान की तरफ बहेगा, उस दिन याद भी न आएगी उन प्रेमियों की, उन खिलौनों की–चाहे बचपन के, और चाहे बड़ेपन के–लेकिन उनका भी दान होगा। लेकिन भक्ति भी तब तक पूरी नहीं होती, जब तक भक्त भगवान ही न हो जाए।
और एक दिन आखिरी खिलौना भगवान का भी छूट जाता है। और तब वही शेष रह जाता है, जो बचा इन सब अनुभवों में–प्रेम! सब खिलौने छूट जाते हैं। लेकिन खिलौनों से जिसको पाने में सहायता मिली थी वह बच जाता है। सब रूप छूट जाते हैं, लेकिन वह जो अरूप प्रेम है वह धीरे-धीरे संगृहीत होता जाता है, संगृहीत होता जाता है। एक दिन ऐसा आता है कि भक्त सिर्फ प्रेम ही रह जाता है। प्रेमी सब खो जाते हैं। उस दिन वह भगवान हो जाता है।
ऐसे ही इस ऋषि ने कहा है: ‘सब उपनिषद ब्रह्मरूप हैं।’ वे ब्रह्म नहीं हैं–ब्रह्मरूप हैं। वे रेखाएं हैं, जिनके अनुभव से गुजर कर किसी दिन रेखा-मुक्त में प्रवेश हो जाएगा। वे सीमाएं हैं शब्दों की, सिद्धांतों की, शास्त्रों की। लेकिन उन सीमाओं में असीम की तरफ इशारा है। और इसलिए जैसे एक दिन सब खिलौने छूट जाते हैं, ऐसे ही एक दिन सब उपनिषद भी छूट जाते हैं। ऐसे ही एक दिन सब शास्त्र भी छूट जाते हैं। जो शास्त्र पकड़ जाए, समझ लेना कि आप भूल में पड़ गए। शास्त्र है ही इसलिए कि छूट जाए। वह सिर्फ इशारा है। वह सिर्फ संकेत है। पकड़ना उपयोगी है, उससे भी ज्यादा उपयोगी छोड़ देना है।
लेकिन दो तरह के नासमझ हैं दुनिया में। एक वे, जो कहते हैं: जब छोड़ना ही है तो हम पक़ड़ें ही क्यों? एक वे, जो कहते हैं: जब हमने पकड़ ही लिया तो हम छोड़ें क्यों? वे एक ही तरह के हैं। उनमें जो फर्क है वह शीर्षासन का है। उनमें कोई मौलिक फर्क नहीं है। एक हैं, वे कहते हैं: हम पकड़ें ही क्यों? हम पकड़ेंगे ही नहीं। तो ध्यान रखो उस बच्चे का जिसको खिलौने न दिए गए हों, जिसे कभी कोई प्रेम ही न मिला हो, जिसे कभी कोई भगवान की धारणा न मिली हो। तो आशा मत करना कि उसके जीवन में वह घड़ी आ जाए जहां वह भगवान की स्थिति को पा ले, भगवत्ता को पा ले। यह असंभव है। क्योंकि यह रूप के सारे अनुभव… अनुभव तो अरूप है। अनुभव के जो माध्यम हैं, वे रूपायित होते हैं। सत्य तो अरूप है, लेकिन सत्य की तरफ जो इशारे हैं, वे शब्द हैं, वे रूप हैं।
ऋषि ने कहा है: ‘सब उपनिषद ब्रह्मरूप हैं।’
सब मार्ग, सब शास्त्र, सब रहस्य। जो भी आज तक मनुष्य ने इशारे किए हैं, वे सभी ब्रह्मरूप हैं। वे सभी ब्रह्म को रूपायित करते हैं… उसको, जो रूपायित नहीं हो सकता है। उसके लिए नहीं, उनके लिए जो रूप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझ सकते।
ब्रह्मरूप का अर्थ हुआ: जितनी मेरी सीमा है, जहां तक मेरी बुद्धि और मेरी इंद्रियां समझ पाती हैं, वहां तक समझाने के प्रयत्न।
बंद है एक आदमी कारागृह में। आकाश दूर है, उड़ नहीं सकता। खिड़की से ही देख सकता है। खिड़की में भी सींकचे लगे हैं। जो आकाश दिखता है, वह सींकचों में बंटा हुआ दिखता है। जो आकाश दिखता है खिड़की के चौखटे में बंधा हुआ दिखता है। आकाश में कोई बंधन नहीं है, आकाश पर कोई चौखटा नहीं है, आकाश पर कोई सींकचे नहीं हैं, लेकिन कारागृह में बंद जो कैदी बैठा है, उसे तो खिड़की से ही आकाश दिखता है।
अगर उसने कभी बाहर का आकाश न देखा हो, तो वह कहेगा कि आकाश दो फीट चौड़ा, चार फीट लंबा, इतने सींकचों से बंद, इस तरह के चौखटे में घिरा है। अगर उसने कभी आकाश न देखा हो, तो इस सींकचों में बंद आकाश में भी सूर्योदय होगा। जब ये सींकचे के ऊपर सूर्य आएगा और इस चौखटे में सूर्य दिखाई पड़ेगा, तो वह कहेगा: सूर्योदय हुआ। फिर इस सींकचे में ही, इसी चौखटे में सूर्यास्त भी हो जाएगा। उस सूर्यास्त का पृथ्वी पर होने वाले सूर्यास्त से कोई संबंध नहीं होगा। इस खिड़की से संबंध होगा। तो यह कहेगा कि सूर्योदय होता है, फिर पांच मिनट बाद सूर्यास्त हो जाता है। और यह कहेगा कि सूर्योदय के पहले भी बहुत देर तक प्रकाश रहता है, सूर्यास्त के बाद भी बहुत देर तक प्रकाश रहता है। कभी कोई पक्षी भी इस खिड़की के बाहर से उड़ेगा तो उतना ही इसे दिखाई पड़ेगा, जितना इसका आकाश है। यह कहेगा: पक्षी जन्मते हैं और फिर लीन हो जाते हैं।
इसका जानना क्या बिलकुल गलत है? इसका जानना गलत तो है, लेकिन बिलकुल गलत नहीं है। क्या इसका जानना सही है? इसका जानना सही तो है, लेकिन बिलकुल सही नहीं है। इसका जानना सीमित है। इसकी गलती भी सीमित है। इसकी गलती है, आकाश पर चौखटे को बिठा लेना। इसका जानना तो ठीक ही है, जितना आकाश जान रहा है उतना तो ठीक ही जान रहा है, लेकिन उतना ही आकाश है, तो भूल हो जाती है।
उपनिषद ब्रह्मरूप हैं, लेकिन जो उपनिषद को ही ब्रह्म मान लेता है, तो फिर भूल हो जाती है। चौखटे को उसने ब्रह्म मान लिया। ब्रह्मरूप मानें तो भूल की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि उसका अर्थ हुआ कि हम स्मरण रखे हुए हैं कि रूप तो उसका है नहीं, रूप हमें दिखाई पड़ रहा है, वह हमारी आंखों से दिया गया है। वह हमारी सीमाओं से स्थापित हुआ है। वह उसका नहीं है, हमारा दिया हुआ है।
ऋषि कहता है: ‘मुझसे ब्रह्म का त्याग न हो।’
बड़ी पीड़ा की बात है। जानता है ऋषि कि त्याग हो-हो जाता है। जानता है भलीभांति कि चाहता हूं बहुत उसका त्याग न हो, वह मेरे स्मरण से न छूटे, मैं उसे भूलूं नहीं, उससे मेरा हाथ अलग न हो, लेकिन क्षण भी नहीं होता और भूल जाते हैं। स्मरण टूट-टूट जाता है। खयाल ही भूल जाता है कि ब्रह्म भी है। ऋषि कहता है: ‘मुझसे ब्रह्म का त्याग न हो।’
मैं उसे भूलूं न, उसे छोडूं न, यह प्रार्थना है।
और फिर कहता है: ‘और ब्रह्म भी मेरा त्याग न करे।’
यह भी प्रार्थना है। क्योंकि मैं भी उसे स्मरण रखता रहूं, और अगर उस विराट में मेरे तरफ कोई भी संवेदन न होता हो, मैं चिल्लाता रहूं और उस विराट तक मेरी कोई खबर ही न पहुंचती हो; मैं पुकारता रहूं लेकिन मेरी पुकार को सुनने का वहां कोई उपाय ही न हो। मैं उसका त्याग भी न करूं लेकिन उसे ही मेरी याद न रह गई हो–ऐसा नहीं है कि ऋषि सोचता है कि ब्रह्म उसका त्याग कर सकता है; नहीं यह सिर्फ उसकी आकांक्षा है।
इसे समझ लेना ठीक से।
यह अर्थ नहीं है कि ऋषि सोचता है कि ब्रह्म उसका त्याग कर सकता है। नहीं, यह उसकी प्रार्थना है। यह कातर प्रार्थना है कि मेरा त्याग मत कर देना–भलीभांति जानते हुए कि उससे कोई त्याग नहीं होता; भलीभांति जानते हुए कि मैं उसका त्याग कर सकता हूं, वह मेरा त्याग नहीं कर सकता है, क्योंकि उसके बिना तो मैं हो ही नहीं सकता हूं। मैं उसका त्याग कर सकता हूं, क्योंकि वह मेरे बिना भी हो सकता है।
इसे थोड़ा समझ लेना।
मैं उसका त्याग कर सकता हूं, मैं उसे भूल सकता हूं, क्योंकि उसके होने के लिए मेरे स्मरण की, या मेरी याददाश्त की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं उसके होने में अनिवार्य नहीं हूं। मेरे बिना वह हो सकता है। मेरे बिना वह था, मेरे बिना वह रहेगा। मैं उसे भूल सकता हूं। लेकिन वह मुझे अगर भूल जाए तो मैं इसी क्षण शून्य हो जाऊं। उसके भूलने का अर्थ होगा–मैं गया! मेरे होने का उपाय ही न रह जाएगा। सागर अगर लहर को भूल जाए तो लहर होगी कैसे? लहर सागर को भूली रहे तो भी सागर होता है। और लहर के भूलने से सागर को कहीं भी कोई पीड़ा नहीं होती, इसलिए लहर को मिटाने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन अगर सागर लहर को भूल जाए, तो लहर बचेगी ही नहीं। हो ही नहीं सकती। सागर की स्मृति है, इसीलिए लहर है। सागर के प्राणों में उसकी जगह है, इसीलिए लहर है।
ऋषि भलीभांति जानता है कि ब्रह्म मेरा त्याग नहीं कर सकता, लेकिन यह प्रार्थना है। यह आकांक्षा है। यह आकांक्षा में वह यह कह रहा है कि मैं तो भूल भी जाऊं एक बार, लेकिन तू मुझे मत भूल जाना। मैं तो भूल ही जाता हूं। मैं न भूलूं, इसकी तुझसे प्रार्थना करता हूं। फिर भी मुझे पक्का नहीं है कि मैं तुझे याद रख ही सकूंगा। मैं अपने को भलीभांति जानता हूं, मैं तुझे भूलता ही रहूंगा, भूलता ही रहूंगा; लेकिन तू मुझे मत भूल जाना। मेरे भूलने में भी मेरा कुछ मिटने वाला नहीं। मैं तुझे भूलूं, तो भी मैं रहूंगा; लेकिन तू मुझे भूले, तो फिर मेरा कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। यह बहुत आंसू भरी कातर प्रार्थना है। यह सूचना नहीं है ब्रह्म के स्वरूप की, यह केवल ऋषि के हृदय की सूचना है।
‘उसमें रत हुए मुझको उपनिषद-धर्म की प्राप्ति हो।’
मैं तुझमें डूबा हुआ, मैं तेरी याद में खोया हुआ, मैं तुझमें लीन हुआ उस धर्म को पा लूं, जिसके लिए सब उपनिषद इशारा करते हैं। नहीं, हिंदुओं ने कहा, ऋषि ने नहीं कहा कि हिंदू धर्म की उपलब्धि हो, कि मुसलमान धर्म की उपलब्धि हो, कि जैन धर्म की उपलब्धि हो; इतना ही कहा कि सब रहस्यों ने जिस तरफ इशारा किया है, उस धर्म की मुझे उपलब्धि हो; उपनिषद जिस तरफ इंगित करते हैं, उस धर्म की मुझे उपलब्धि हो।
यह जो समस्त संकेतों द्वारा, समस्त इशारों से, जिस धर्म की बात कही गई है, वह धर्म क्या है? और उसकी उपलब्धि की क्यों आकांक्षा है?
धर्म क्या है? धर्म का अर्थ है: इस जगत का सारभूत नियम, इस जगत का आधारभूत नियम, इस जगत का स्वभाव। इस अस्तित्व का जो प्राण है, वही। इस समस्त अस्तित्व की जो आत्मा है, वही। धर्म का अर्थ होता है: जिसने सबको धारण किया हुआ है, जिसने सबको सम्हाला हुआ है। जिसमें सब है, और जिसमें ही सब विकसित होता है और लीन हो जाता है। धर्म का अर्थ है: परम आधार। वह परम आधार मुझे उपलब्ध हो–तुझमें रत हुए, तुझमें लीन हुए।
एक बहुत मजे की बात है इस सूत्र में। ऋषि कहता है कि अगर तुझमें बिना लीन हुए मुझे वह परम आधार भी उपलब्ध होता हो, तो मेरी आकांक्षा नहीं है। वह परम नियम भी मुझे मिल जाए, वह सत्य भी मैं पा लूं जिस पर सब टिका है, लेकिन तुझमें मेरी लीनता न हो, तो उसे पाने की कोई मेरी आकांक्षा नहीं हैं। क्यों?
यहीं धर्म और विज्ञान का भेद है। विज्ञान भी उस परम नियम की खोज में लगा है, उस धर्म की खोज में लगा है, जिस पर सारा अस्तित्व टिका है, लेकिन उसमें लीन होने की आकांक्षा से नहीं–उस पर कब्जा करने की, उसका मालिक होने की, उसके ऊपर विजेता होने की आंकांक्षा से। विज्ञान भी धर्म की ही खोज है। धर्म का अर्थ: नियम; आत्यंतिक सत्य, जिस पर अस्तित्व टिका है। विज्ञान भी उसी की खोज में रत है, लेकिन वैज्ञानिक की जो दृष्टि है, वह उसे जान कर, खोज कर उसके मालिक हो जाने की, उसको कब्जे में ले लेने की, उससे काम करवाने की, उसका उपयोग करने की है।
धर्म भी, धार्मिक व्यक्ति भी, ऋषि भी उसी धर्म की खोज में है, लेकिन आकांक्षा दूसरी है। उसे मालिक बना देने की। उसमें लीन हो जाने की। उसके उपयोग में आ सकूं, इसकी। विजित हो जाने की, हार जाने की, समर्पित हो जाने की। सत्य को अगर हम ऐसे जीतने चले हों कि उसे पाकर हम उपयोग करेंगे उसका, तो इस खोज का नाम विज्ञान है। और सत्य को हम ऐसे खोजने चले हैं कि मिल जाए तो उसके चरणों में लीन कर देंगे अपने को, तो ऐसी खोज का नाम धर्म है।
उपनिषद के इस सूत्र के संबंध में इतना ही।
कल के ध्यान के संबंध में थोड़ी बातें आपसे कह दूं। सुबह के ध्यान के संबंध में।
सुबह का ध्यान चार चरणों में है। पहले दस मिनट तीव्र श्वास लेनी है। श्वास के द्वारा ही अस्तित्व में प्रवेश करना है। श्वास को ही शक्ति और ऊर्जा देनी है। श्वास में ही सारा प्राण डाल देना है–कि श्वास बाहर जाए तो आपकी पूरी आत्मा श्वास के साथ बाहर चली जाए, कि श्वास भीतर आए तो सारा अस्तित्व आपकी श्वास के साथ भीतर आ जाए। इतनी तीव्रता से श्वास लेनी है कि सब भूल जाना है, सिर्फ श्वास ही रह जाए। आप जैसे श्वास ही हो गए।
दस मिनट की यह तीव्र श्वास आपके भीतर उन शक्तियों को जगा देगी, जो सोई पड़ी हैं। उन ऊर्जाओं को उठा देगी, सक्रिय कर देगी, जिन्हें आपने कभी स्पर्श ही नहीं किया। लेकिन कंजूसी, कृपणता नहीं चलेगी। ऐसा मत सोचना कि धीरे-धीरे लेंगे, तो न जगेंगी बहुत तो थोड़ी तो जगेंगी। नहीं, बिलकुल नहीं जगेंगी। क्योंकि जागने की प्रक्रिया एक सीमा के बाद शुरू होती है। जैसे पानी गरम करते हैं तो सौ डिग्री तक गरम होता है, फिर भाप बनता है। ऐसा मत सोचना आप कि तीस डिग्री पर थोड़ा तो भाप बनेगा, कि पचास डिग्री पर नहीं पूरा बनेगा तो आधा तो भाप बनेगा। गणित यहां काम नहीं करेगा। सौ डिग्री पर भाप बनता है, तो ऐसा मत सोचना कि पचास डिग्री पर आधा तो भाप बन जाएगा। बिलकुल नहीं बनेगा। सौ डिग्री पर ही भाप बनना शुरू होगा।
और सौ डिग्री क्या है?
पानी के लिए तो बिलकुल एक है। कहीं दुनिया के किसी कोने में पानी को गरम करो, वह सौ डिग्री पर भाप बनता है। और तालाब का पानी हो, कि नदी का, कि कुएं का, कि नल का, कि कहां का; कि आकाश से वर्षा का आया हो, पानी जिद नहीं करता कि मैं कुएं का हूं, कि नल का–सब पानी सौ डिग्री पर भाप बन जाता है, क्योंकि पानी के पास कोई व्यक्तित्व नहीं है।
आदमी के साथ एक और कठिनाई है। उसके पास व्यक्तित्व है। और एक-एक आदमी अलग-अलग डिग्री पर भाप बनता है। या ऐसा समझो कि हर आदमी की सौ डिग्री अलग-अलग होती है। सौ डिग्री पर ही भाप बनता है, लेकिन हर आदमी की सौ डिग्री अलग-अलग होती है तो बड़ी कठिनाई है कि मैं आपको कैसे कहूं कि किस डिग्री पर आपका भाप बनेगा। एक बात पक्की है, आप अपनी सौ डिग्री क्या है, उसकी जांच रख सकते हैं। वह यह है कि अगर आपने अपने को बिलकुल नहीं बचाया, तो आप सौ डिग्री पर हैं। आपने प्रयास में अपने को पूरा डाल दिया, आप भलीभांति आश्वस्त हो गए कि मैं पीछे अपने को जरा भी रोक नहीं रहा हूं। और इसमें दूसरे का कोई लेना-देना नहीं है, आपका ही सवाल है। इसलिए दूसरा जाने या न जाने, यह सवाल नहीं, आपको ही जानना है कि मैं अपने को रोक तो नहीं रहा हूं? मैं अपने को पूरा डाल रहा हूं? अगर पूरा डाल रहा हूं, तो आप सौ डिग्री पर हैं। फिर कोई चिंता नहीं है।
यह भी हो सकता है कि आपका पड़ोसी आपसे ज्यादा श्रम उठा रहा हो और सौ डिग्री पर न हो। क्योंकि उसने अपने को अभी बचा रखा हो। और यह भी हो सकता है कि एक आदमी आपसे कम मेहनत उठा रहा हो और सौ डिग्री पर हो, अगर उसने अपने को पूरा लगा दिया हो। इसलिए आप दूसरे की चिंता न करें, अपने भीतर ही समझ लें कि मैं अपने को पूरा लगा रहा हूं दांव पर।
ध्यान एक जुआ है। और सब जुओं में हम कुछ और दांव पर लगाते हैं, ध्यान में खुद को लगाते हैं। तो जुआरी का ही काम है, व्यापारी का बिलकुल नहीं। क्योंकि व्यापारी इस फिकर में रहता है कि खतरा कम हो, चाहे लाभ भी कम हो। जुआरी इस फिकर में रहता है कि लाभ पूरा हो, चाहे हानि पूरी हो जाए। यह जुआरी और व्यापारी का फर्क है।
ध्यान व्यापारी का काम बिलकुल नहीं है। ध्यान बिलकुल जुआरी का काम है। वह अपने को पूरा लगाता है। जो हो। एक फर्क जरूर है, कि बाहर के जुए में लाभ शायद ही कभी होता है। शायद इसलिए कहता हूं कि भ्रम बना रहता है कि होगा; कभी होता तो नहीं। कभी नहीं होता। बाहर के जुए में जीत भी हो, तो किसी बड़ी हार की शुरुआत होती है। और जीत भी हो तो किसी बड़ी हार का प्रलोभन होती है। इसलिए जुआरी कभी नहीं जीतता, कितनी ही बार जीतता है तो भी कभी नहीं जीतता, आखिर में हारता ही है।
भीतर का जुआ बिलकुल उलटा है। इसमें हार भी हो, तो किसी आने वाली जीत का प्रारंभ है। और ध्यानी कभी नहीं हारता है। बहुत बार हारता है, अंततः जीत जाता है। ऐसा मत सोचना कि महावीर पहले दिन जीत जाते हैं, कि बुद्ध पहले दिन जीत जाते हैं, कि मोहम्मद या क्राइस्ट, कोई पहले दिन जीत जाता है। कोई नहीं जीतता। सब बुरे हारते हैं। लेकिन अंततः जीत जाते हैं।
तो पूरी शक्ति, दस मिनट तीव्र श्वास।
फिर दस मिनट तीव्र श्वास के बाद जब ऊर्जा जग जाती है, तो सारी ऊर्जा को बाहर फेंक देना है, जिस मार्ग से भी जाना चाहे। शरीर उछले, कूदे, नाचे, रोए, चिल्लाए, आवाज करे, बिलकुल विक्षिप्त मालूम होने लगे, तो उस वक्त भी रोकना नहीं है। पूरी ढील छोड़ देनी है और सहयोगी बन जाना है। शरीर को बिलकुल पागल होना हो, तो बिलकुल पागल हो जाने देना।
क्यों?
क्योंकि हमारे भीतर न मालूम कितने-कितने पागलपन संगृहीत हैं। अभी मत करिए, यह सुबह के लिए कह रहा हूं–सुबह, हूं…, पूरा पागल हो जाने देना है। पूरे पागल का अर्थ है कि आप कोई भी भय न रखें कि यह मैं क्या कर रहा हूं। यह मैं चिल्ला रहा हूं? कॉलेज का प्रोफेसर हूं, यह मैं क्या कर रहा हूं? कि डॉक्टर हूं; यह मैं उछल-कूद कर रहा हूं! यह मैं क्या कर रहा हूं? कहीं कोई मरीज यहां आस-पास देख ले! डॉक्टर मरीज से डरा रहता है; अध्यापक विद्यार्थी से डरा रहता है; दुकानदार ग्राहक से डरा रहता है। जिन-जिन से आपका डर हो, पागल होने का मतलब है, उन-उन का डर छोड़ देना। किसी का भी डर हो। पति पत्नी से डरा रहता है, पत्नी पति से डरी रहती है। बाप बेटे से डरा रहता है, बेटा बाप से डरा रहता है। जिनका भी आपको डर हो, पागल होने का मतलब है कि अब मैं डर छोड़ता हूं। और निडर होकर जो होना हो उसे होने देना है, पूरी तरह।
क्यों?
क्योंकि हमारे भीतर न मालूम कितना पागलपन इकट्ठा है। हम उसे इकट्ठा करते हैं। अभी हमारी जो दुनिया में व्यवस्था है, वह पागलपन को डिस्पोज करने की नहीं है, फेंक देने की नहीं है। इकट्ठा करने की है। जैसे घर में कचरा हो तो उसको कोने में छिपा कर इकट्ठा करते चले जाएं। तो घर पूरा गंदा हो जाएगा। एक दिन घर में बदबू आने लगेगी। एक दिन हालत ऐसी हो जाएगी कि घर में कचरे के सिवाय कोई जगह ही नहीं रह जाएगी। अभी हम इसी तरह अपने साथ करते हैं। जो-जो कचरा होता है मन में, उसको इकट्ठा करते जाते हैं। क्रोध हो तो क्रोध; बेईमानी हो तो बेईमानी; घृणा हो तो घृणा; हंसी, रोना, कुछ भी इकट्ठा करते जाते हैं।
धीरे-धीरे यह इतना इकट्ठा हो जाता है कि फिर हमें इसे सम्हालने में हमारी जिंदगी व्यतीत होती है। कहीं यह बाहर न निकल जाए, कहीं गिर न जाए, कहीं फिंक न जाए, कोई देख न ले। फिर इतना डर इससे हमें पैदा हो जाता है कि हम अपने भीतर खुद भी देखना बंद कर देते हैं। क्योंकि इतना डरने लगता है कि इतना कचरा है कि कहीं यह दिखाई न पड़ जाए। ध्यान में तो केवल वे ही लोग प्रवेश कर सकेंगे, जो इस कचरे को बाहर फेंकने को तैयार हैं। बाहर फेंकते से ही सब-कुछ हल्का हो जाएगा।
दूसरा चरण रेचन का है। सब बाहर फेंक देना है। एक स्वच्छता भीतर आ जाए। और आप जब तक साहस न करेंगे, फेंक न पाएंगे। और एक बार आप फेंक पाए, तो आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। दूसरा चरण पूरी तरह पागल हो जाने का है।
और तीसरा चरण ‘हू’ की आवाज करने का है। सतत दस मिनट तक नाचते-कूदते ‘हू’ की आवाज करनी है। यह ‘हू’ की आवाज एक हथौड़ी की तरह है। इसकी चोट करनी है। आपके शरीर में, आपके ठीक काम-केंद्र के निकट जिस शक्ति का वास है, जिसे योग कुंडलिनी कहता है–या फिर और नाम कोई देना चाहे तो दे सकता है–अब वैज्ञानिक उसको बॉडी इलेक्ट्रिसिटी कहते हैं, कि वह वहां छिपी है। ‘हू’ की अगर जोर से आवाज की जाए तो उस पर चोट पड़ती है और वह छिपी हुई शक्ति, सोई हुई शक्ति सक्रिय हो जाती है।
पुराने ऋषियों ने उसके लिए कहा है कि जैसे सांप कुंडली मार कर बैठा हो, उस पर चोट की जाए तो वह फन उठा कर ऊपर उठ आता है। उसकी कुंडली टूटने लगती है–और सांप अगर पूरे जोश में आ जाए तो वह सिर्फ पूंछ के बल पर पूरा खड़ा हो जाता है–ठीक वैसे ही हमारे भीतर भी यह शक्ति दबी हुई पड़ी है। इसको अगर चोट की जाए तो यह उठनी शुरू हो जाती है। लेकिन चोट तभी करनी चाहिए जब आपके भीतर से पागलपन बाहर फेंकने की क्षमता हो। अन्यथा यह शक्ति अगर पागलपन के बीच में उठ आए, तो आप बिलकुल पागल हो सकते हैं। इसलिए बहुत दफा साधक पागल हो जाते हैं। और उनके पागल होने का कारण यह है कि कुंडलिनी जगाना वे शुरू कर देते हैं, बिना गहरी स्वच्छता के। इसलिए अक्सर पागल हो जाते हैं। वह पागलपन का कारण है, वैज्ञानिक खयाल न होना।
इस स्वच्छता को पहले कर लेना जरूरी है। इसलिए दो चरण आपको गहरे रूप से स्वच्छ करने के लिए हैं। पहला चरण आपके भीतर सारी शक्तियों को जगाने के लिए, दूसरा चरण जगी हुई शक्तियों के साथ जिन-जिन चीजों का विरोध पड़ रहा है, उनको बाहर फेंक देने के लिए। फिर तीसरा चरण नीचे छिपी हुई कुंडलिनी को जगाने के लिए।
तो ‘हू’ का दस मिनट तक तीव्रतम प्रयोग करना है। और फिर चौथे चरण में मुर्दे की भांति पड़ जाना है। जैसे आप हैं ही नहीं। शांत। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ देना है ऐसा मान कर कि मैं बिलकुल मर गया हूं। और आंख बंद करके चुपचाप भीतर प्रतीक्षा करनी है। बहुत कुछ होगा। उस भीतर की प्रतीक्षा में बहुत कुछ होगा। अगर यह तीन चरण पूरे किए गए, तो अनूठे परिणाम आने शुरू हो जाएंगे।
यह सुबह के ध्यान का खयाल रखें।
सात दिन के लिए, आठ दिन के लिए, जितनी देर यह हमारा शिविर चलेगा, इसमें दिन में ज्यादा से ज्यादा मौन–ज्यादा से ज्यादा। बिलकुल मौन रख सकें आठ दिन तो बहुत ही अच्छा। ज्यादा से ज्यादा मौन रखें। ज्यादा से ज्यादा शांत रहें। पट्टियां दी जाएंगी, आंख पर ज्यादा से ज्यादा पट्टियां बांधे रहें। एकांत में कहीं भी बैठ जाएं, जंगल में चले जाएं, जितनी बार आपको मौज आए उतनी बार जोर से श्वास लें; जितनी बार आपको मौज आए उतनी बार कैंपस के भीतर कहीं भी खड़े होकर, भीतर से कुछ भी फेंकना हो तो फेंकें। सुबह के ध्यान के बाद भी अगर किसी को लगता है कि उतने में उसका कुछ नहीं फिंक पाया, कुछ अटका रह गया है, उसे दोपहर में खयाल आता है, किसी वृक्ष के नीचे चला जाए, फेंके।
कोई शिविरार्थी किसी को बाधा न दे, और न कोई शिविरार्थी किसी के संबंध में चर्चा करे कि कौन क्या कर रहा है। जिसको जो करना हो वह करने दें। आप जरा भी बाधा न दें। अच्छा तो हो कि जितनी शक्ति आप बाधा देने में लगा रहे हैं, उतनी अपना ही कुछ निकालने में लगाएं, तो ज्यादा उचित होगा। दूसरे पर बिलकुल ध्यान न दें। सारा ध्यान अपने पर देना है। दूसरे पर बिलकुल ध्यान को मत बांटें।
मौन से रहें। मौन उसी समय तोड़ें, जब आपको भीतर से कुछ फेंकना हो। अन्यथा मौन। बंद रखें बातचीत। बातचीत मत करें। ज्यादा से ज्यादा ये आठ दिन आपके ध्यान में लगें, इसकी चिंता लें।
यहां जो हम कहेंगे, वह इसीलिए है कि आप कुछ करें। तीन बार तो हम यहां मिलेंगे ध्यान के लिए, लेकिन बाकी समय में भी जो समय आपको मिल जाए उसे ध्यान में लगाएं।
अगर आपको ऐसा लगता हो कि तीन बार के गहरे प्रयोग से आप थक गए हैं, तो झाड़ों के नीच मौन लेट जाएं; शांत पड़े रह कर प्रतीक्षा करें। किन्हीं मित्र को अगर इतना गहरा प्रयोग वृद्धावस्था के कारण, बीमारी के कारण असंभव हो, तो उन मित्रों से मेरा कहना है, वे–अगर असंभव हो, उन्हें ऐसा लगता हो कि कोई ऐसी बीमारी है कि वे नहीं कर पाएंगे; शरीर इतना कमजोर है कि संभव नहीं है–तो उनके लिए मैं एक प्रयोग बताता हूं।
जब भी यहां सक्रिय प्रयोग चलता हो, तो वे ग्राउंड के आस-पास–यहां बीच में तो लोग सक्रिय प्रयोग करते होंगे–किनारों पर बैठ जाएं। उनके लिए एक अलग प्रयोग देता हूं, वे अपना यह प्रयोग करें। लेकिन ध्यान रखें, उनके लिए सिर्फ कह रहा हूं, जो बीमार हैं, वृद्ध हैं। उनके लिए नहीं कह रहा हूं जो आध्यात्मिक रूप से बीमार हैं। जिनको ऐसा लगता है कि चलो झंझट से बचे, एक कोने में बैठ जाएं, चुपचाप बैठे रहें–उनके लिए नहीं कह रहा हूं। क्योंकि जो सक्रिय प्रयोग का परिणाम होगा, वह तो बहुत अनूठा है। यह तो सिर्फ मजबूरी में उनको बता रहा हूं–नंबर दो का है प्रयोग–सिर्फ मजबूरी में; क्योंकि कुछ न कर पाएं, उससे कुछ करें।
वे लोग एकांत में कहीं भी बैठ जाएं, जब यहां ध्यान का प्रयोग चलता हो सक्रिय, और यहां पर इतने जोर से शोरगुल, चिल्लाहट, विक्षिप्तता प्रकट होगी कि वे शांत बैठ कर सिर्फ इस पूरी विक्षिप्तता को अपने चारों तरफ सुनते रहें। सिर्फ सुनने का काम करें। तीस मिनट तक उन्हें अपना सारा ध्यान चारों तरफ जो हो रहा है, इस पर रखना है। ध्यान रखना, इस पर विचार नहीं करना है कि कौन आदमी चिल्लाया, चिल्लाना था कि नहीं चिल्लाना था, इस पर नहीं ध्यान करना है। कि यह आदमी ठीक नहीं कर रहे हैं, यह नहीं करना चाहिए–विचार नहीं करना है आपको। आपको सिर्फ सुनना है। यह आपके बस के बाहर है, यह हो रहा है, इसको आपको सिर्फ सुनना है। शांत बैठ कर या लेट कर सिर्फ सुनते रहना है।
आप हैरान होंगे जान कर कि अगर आप तीस मिनट इसको ठीक से सुनने में भी समर्थ हो जाएं, तो भी आपका रेचन होगा। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक आदमी अगर फिल्म देखता है, जिसमें हत्या की बहुत-बहुत चर्चा होती है।…
(यह कौन मित्र बात किए जा रहे हैं? इनको वहां से हटाइए। पूरे समय से आप बात किए जा रहे हैं। वहां से हटिए, अलग-अलग होइए जरा। कौन? पुजारी हैं ये? हटाओ वहां से इन्हें!)
…मनस्विद कहते हैं कि अगर फिल्म को भी कोई देख रहा हो, हत्या के दृश्य हों, खून हो, मार-पीट हो, युद्ध हो तो देखने वाला, इसको देख कर भी उसके भीतर की हिंसा, हत्या के भाव विसर्जित होते हैं। उसे लाभ होता है।
तो आप अगर खुद न कर पाएं, तो तीस मिनट आप शांत बैठ जाएं, सारी स्थिति को मौनपूर्वक, साक्षीभाव से सुनते और देखते रहें। तीस मिनट बाद जब सब लोग शांत हो जाएं, तब आप भी शांत हो जाएं। लेकिन सब लोगों को शांत होना तो आसान होगा, क्योंकि वे काफी अशांत हो लिए हैं, आपको शांत होना इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि आप अशांत ज्यादा नहीं हुए। तो आप, जब लेटें सारे लोग तो आप भी लेट जाएं और आप सिर्फ एक काम करें कि अपनी नाभि पर ध्यान रखें। गहरी श्वास लें, पेट ऊपर उठे; श्वास बाहर छोड़ें, पेट नीचे गिरे। आप पेट के उठने और गिरने को आंख बंद करके भीतर से नाभि पर ध्यान रखें। तो दस मिनट में जो शांति का उन्हें परिणाम होगा, करीब-करीब उस जैसा कुछ परिणाम आपको भी हो सकेगा। दोपहर, रात्रि, जिनको भी ऐसा लगे कि कठिन है करना, वह इस भांति चारों तरफ बैठ सकते हैं।
आंख की पट्टियां जो मित्र ले आए हों, वह ठीक है, अन्यथा यहां मित्रों से प्राप्त कर लेंगे सुबह, ताकि आप आंख पर पट्टियां बांध लेंगे।
रात की बैठक हमारी पूरी हो उससे पहले मैं चाहूंगा, हम पांच मिनट आंख बंद करके प्रार्थना करके उठें। ऋषि ने प्रार्थना की है, हम भी प्रार्थना कर लें।
आंख बंद कर लेनी हैं, दोनों हाथ जोड़ लेने हैं। आंख बंद कर लें। नाव क्लोज योर आइज एंड पुट योर बोथ हैंडस इन नमस्कार पोस्चर टु प्रे। आंख बंद कर लें। दोनों हाथ जोड़ लें। सिर झुका दें परमात्मा के चरणों में। और हृदय में एक भाव ही गूंजने दें। क्लोज योर आईज, बाउ डाउन योर हेड इन ए सरेंडर। नाउ बिगिन टु प्रे इन योर हार्ट। हृदय में प्रार्थना करें कि मनुष्य बहुत कमजोर है। मैं बहुत कमजोर हूं, मुझ अकेले से क्या होगा! प्रभु की सहायता चाहिए। उसकी अनुकंपा चाहिए। तेरी अनुकंपा चाहिए। तेरा अनुग्रह चाहिए। मैन अलोन इ़ज हेल्पलेस। आई एम हेल्पलेस। वॉट आई कैन डू विदाउट दि डिवाइन हेल्प! विदाउट यू वॉट कैन आई डू! हेल्प मी, हेल्प मी, हेल्प मी! खोल दें अपने हृदय को उसकी तरफ कि उसकी अनुकंपा से भर जाए। ओपन योर हार्ट्स टुवर्डस दि डिवाइन टू बी फिल्ड बाय हिज ग्रेस। उसके प्रसाद से भर जाएं। इस प्रार्थना को हम हृदय से… हमारा यह शिविर शुरू हो रहा है, इस आशा में कि अंतिम दिन हम इसी तरह हाथ जोड़ कर परमात्मा को धन्यवाद भी दे सकेंगे। विद दिस कैंप वी रिज्यूम दिस प्रेयरफुल थ्रिल दैट ऑन दि लास्ट डे वी विल बी एबल नॉट ओनली टु प्रे, बट आलसो टु थैंक हिम।
आज की रात की हमारी बैठक पूरी हुई।