UPANISHAD
Kano Suni So Juth Sab 09
Ninth Discourse from the series of 10 discourses – Kano Suni So Juth Sab by Osho. These discourses were given during JUL 11-20 1977.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
पारस परसा जानिए, जो पलटे अंग-अंग।
अंग-अंग पलटे नहीं, तो है झूठा संग।।
पारस जाकर लाइए जाके अंग में आप।
क्या लावे पाषान को घस-घस होए संताप।।
दरिया बिल्ली गुरु किया उज्वल बगु को देख।
जैसे को तैसा मिला ऐसा जक्त अरु भेख।।
साध स्वांग अस आंतरा जेता झूठ अरु सांच।
मोती-मोती फेर बहु इक कंचन इक कांच।।
पांच-सात साखी कही पद गाया दस दोए।।
दरिया कारज ना सरै पेट-भराई होए।।
बड़ के बड़ लागे नहीं बड़ के लागे बीज।
दरिया नान्हा होएकर रामनाम गह चीज।
माया-माया सब कहे चीन्हे नाहीं कोए।
जन दरिया निज नाम बिन सब ही माया होए।
है को संत राम अनुरागी, जाकी सुरत साहब से लागी।
अरस-परस पिव के संग राती होए रही पतिबरता।
दुनिया भाव कछू नहिं समझे ज्यों समुंद समानी सरिता।।
मीना जायकर समुंद समानी जहं देखे तहं पानी।
काल-कीर का जाल न पहुंचे निर्भय ठौर लुभानी।
बावन चंदन भंवरा पहुंचा जहं बैठे तहं गंधा।
उड़ना छोड़िके थिर हो बैठा निसदिन करत अनंदा।।
जन दरिया इक रामभजन कर भरम-वासना खोई।
पारस-परस भया लोह कंचन बहुर न लोहा होई।।
पारस परसा जानिए, जो पलटे अंग-अंग।
अंग-अंग पलटे नहीं, तो है झूठा संग।।
सदगुरु की पहचान क्या? फिर सदगुरु के साथ सत्संग हुआ इसकी पहचान क्या? तुम सदशिष्य बने, इसकी पहचान क्या? किस कसौटी पर परखते चलोगे? किस तराजू पर तौलते चलोगे कि दिशा ठीक है, कि मार्ग ठीक है?
चलने से ही तो तय नहीं होता कि पहुंच जाओगे क्योंकि चलना तो गलत दिशा में भी हो सकता है। कुछ करते रहने से ही तो तय नहीं होता कि सफल होओगे, कि सुफल होओगे। क्योंकि करना असंगत हो सकता है।
राह अंधेरी है, घनी अमावस है, तुम रोशनी की तरफ यात्रा कर रहे हो इसकी कुछ न कुछ कसौटी तो होनी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं है, और अंधेरी रात में प्रवेश करते जाओ! सूरज न भी दिखाई पड़े लेकिन पूरब की तरफ चल रहे हो इतना तो पक्का हो। सूरज आज नहीं कल दिखाई पड़ेगा लेकिन यात्रा प्राची की तरफ हो रही है, आंखें पूरब की तरफ लगी हैं इतना तो साफ होना ही चाहिए। पैर पूरब की तरफ चल रहे हैं–अंधेरे में सही। तुम पश्चिम की तरफ चलते रहो तेजी से भी तो भी सूरज के पास न पहुंचोगे। सूरज से दूर निकलते जाते हो। और पूरब की तरफ तुम धीमे-धीमे भी चलो, या न भी चलो, अगर पूरब की तरफ मुंह उठाकर खड़े भी रहो तो सूरज खुद आ जाएगा।
तो दिशा ठीक है या नहीं, यह अत्यंत अनिवार्य है। तुम एक बगीचे की तरफ चलते हो, अभी बगीचे के हरे वृक्ष, अभी बगीचे की हरी झाड़ियां दिखाई नहीं पड़तीं। तुम अभी दूर हो लेकिन फिर भी कुछ प्रतीक, कुछ लक्षण मिलने शुरू हो जाते हैं। हवा ठंडी होने लगती है। वह जो ताप था बाजार का, कम होने लगता है। वह जो भीड़-भाड़ का शोरगुल था वह कम होने लगता। और हवाओं में धीरे-धीरे गंध के रेशे फैलने लगते हैं। थोड़ी-थोड़ी गंध कभी-कभी आ जाती है। फूलों की गंध, बगीचे की ठंडक, हवा में तुम्हें खबर देने लगती है। कि तुम ठीक दिशा में हो। बगीचा अभी दिखाई नहीं पड़ता लेकिन तुम पुलक से भर सकते हो कि मार्ग ठीक है तो पहुंच जाओगे; पहुंच ही रहे हो। एक -एक कदम तुम बढ़ रहे हो, एक-एक कदम मंजिल तुम्हारी तरफ बढ़ी आ रही है।
जैसे-जैसे करीब पहुंचोगे वैसे-वैसे हवा और भी शीतल हो जाएगी, और भी सुवासित हो जाएगी। जैसे-जैसे करीब पहुंचोगे, मनुष्यों की आवाज और शोरगुल और बाजार का गोरखधंधा शांत होने लगेगा, पक्षियों की कलकलाहट, झरनों का कलरव उसकी जगह लेने लगेगा। ये लक्षण होंगे। अभी शायद बगीचा दिखाई भी न पड़ा हो लेकिन तुम आनंदित हो सकते हो कि देर-अबेर पहुंच जाओगे।
आज के सूत्र कसौटी के सूत्र हैं। आज के सूत्र तुम्हारे बड़े काम के हैं। क्योंकि जीवन में ऐसा रोज देखा जाता है, बहुत लोग श्रम करते हैं, फल तो बहुत कम लोगों को मिलता है। ऐसा नहीं कि प्रार्थना लोग नहीं करते, लेकिन प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचे तब न! अक्सर तो तुम प्रार्थना करते वक्त ही कुछ ऐसी बाधाए खड़ी कर देते हो कि प्रार्थना पहुंच ही नहीं सकती।
तुम्हारी प्रार्थना में ही बुनियादी चूक है। प्रार्थना में मांग खड़ी है। प्रार्थना करते ही हो मांगने के लिए। भिखमंगे की तरह प्रार्थना करते हो। तो यह प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुंचेगी। परमात्मा तक तो उनकी आवाज पहुंचती है। जिनके भीतर का सम्राट पुकारता है, भिखमंगा नहीं। भिखमंगों का कहीं समादर नहीं है; परमात्मा की दृष्टि में तो बिलकुल नहीं। कैसे हो? क्योंकि उसने तुम्हें सम्राट बना कर भेजा है, उसने तुम्हें सम्राट होने को भेजा है। उससे कम अगर तुम हो तो तुमने परमात्मा को धोखा दिया। उससे कम अगर तुम हो तो तुमने अपना दायित्व न निभाया। उससे कम अगर तुम हो तो तुम भटके हो।
भिखमंगे की तरह प्रार्थना करते हो, प्रार्थना चूक जाती है। प्रार्थना में मांग आई कि प्रार्थना मर गई, मांग ही रह गई। मांग कोई प्रार्थना थोड़े ही है! फिर जैसे भिखमंगा स्तुति करता है, खुशामत करता है, ऐसे ही तुम अपनी मांग को पूरा कराने के लिए स्तुति करते हो।
और ध्यान रखना, जिसकी भी तुम स्तुति करते हो किसी हेतु से, वह स्तुति प्रार्थना नहीं बन सकती। परमात्मा खुशामद-पसंद नहीं है। अगर परमात्मा भी खुशामद-पसंद हो तो फिर तो इस जगत में प्रेम संभव ही न रह जाएगा। फिर तो प्रेम असंभव हो जाएगा। फिर तो प्रार्थना किस द्वार पर करोगे? फिर तो सभी जगह खुशामद-पसंद लोग बैठे हैं।
परमात्मा के साथ तो खुशामद मत करो। खुशामद का मतलब होता है, परमात्मा को खूब बढ़ा-चढ़ा कर बताओ, फुलाओ, मक्खन लगाओ। तुम जैसे यह सोच रहे हो कि परमात्मा आदमियों जैसा आदमी है। कि तुम उसके अहंकार को फुसला लोगे; कि तुम उसके अहंकार को फुसला कर कर उसको अपनी मांगों पूरा करने के लिए राजी कर लोगे। तुम्हारी चेष्टा से ही गलत हो गई। प्रार्थना शुरू ही न हुई और मर गई; गर्भपात हो गया।
प्रार्थना बहुत लोग करते हैं, किसी एकाध की हो पाती है। और तपश्चर्या भी लोग नहीं करते ऐसा भी नहीं है। लोग तपश्चर्या भी करते हैं। लेकिन तपश्चर्या से सुगंध नहीं उठती, दुर्गंध उठती है। तपश्चर्या से अहंकार उठता है–मैं तपस्वी, मैं त्यागी। यह मैं तुम्हारी गर्दन पर फांसी है। इस मैं के कारण तुम हो नहीं पाते। यह ‘मैं’ तुम्हें अटकाए हुए है। यह मैं जाना चाहिए।
तो बड़ी से बड़ी तपश्चर्या वही है जिसमें मैं गलता हो। वह कसौटी होनी चाहिए कि मैं गल रहा है तो ठीक रास्ते पर हो, मैं बढ़ रहा है तो गलत रास्ते पर हो। मैं बढ़ता जाए तो तुम संसार की तरफ उन्मुख हो। मैं घटता जाए तो तुम परमात्मा की तरफ उन्मुख हो; तो तुम राम-सन्मुख हुए। राम के सन्मुख खड़े होओगे और मैं बचेगा? जरा सी याद भी आ जाए राम की तो मैं खो जाता है। अपने घर की याद आ गई। असली घर की याद आ गई। तो जहां तुम ठहरे हो वह घर उसी क्षण धर्मशाला हो जाता है–उसी क्षण! जब तुम्हें असली घर की याद आ जाती है।
कफस में रोता हूं मैं अपने हमसफीरों को
यह कौन कहता है मुजतिर हूं मैं चमन के लिए
इसलिए थोड़े ही रोता है भक्त कि सुख चाहता है। इसलिए रोता है कि, स्वरूप चाहता है। इसलिए रोता है कि मैं जो हूं वही हो जाऊं। इसलिए रोता है कि मैं अपने मूल स्रोत से मिल जाऊं। इसलिए रोता है कि मैं जहां से आया हूं वहां वापस पहुंच जाऊं।
कफस में रोता हूं मैं अपने हमसफीरों को
वे जो मेरे साथी, मेरे संगी, वह जो मेरा स्वभाव, वह जो मेरा स्वरूप छूट गया है, वह जो मेरा घर छूट गया है वह मुझे वापस मिल जाए।
कफस में रोता हूं मैं अपने हमसफीरों को
इस संसार के पिंजड़े में बंद मैं अपने उन मित्रों के लिए रोता हूं, जो पीछे छूट गए हैं।
यह कौन कहता है मुजतिर हूं मैं चमन के लिए
स्वर्ग के लिए थोड़े ही रोते हैं, सुख के लिए थोड़े ही रोते हैं। भक्त स्वर्ग थोड़े ही मांगता है। भक्त तो इतना ही मांगता है, मुझे वापस दे दो मेरा लोक। यहां मैं अजनबी हूं। यहां मैं परदेसी हूं। यह मेरा घर नहीं है। यहां कितना ही बनाऊं, गिरेगा। यहां सब बड़े से बड़े घर, मजबूत से मजबूत, पत्थर से बनाए गए घर भी ताश के घर सिद्ध होते हैं। यहां क्षणभंगुर है। मुझे मेरा शाश्वत दे दो।
मेरे वजूद से महफिल उदास रहती थी
मेरा वजूद मुसीबत था अंजुमन के लिए
चमन में था तो कफस के लिए तड़फता था
कफस में हूं तो हूं बेताब मैं चमन के लिए
और आदमी का मन ऐसा है, तुम भगवान में थे जरूर तुम भगवान से दूर होने के लिए तड़फे होओगे; नहीं तो दूर कैसे हो जाते?
चमन में था तो कफस के लिए तड़फता था
कफस मैं हूं तो मैं बेताब मैं चमन के लिए
ऐसा आदमी का मन है। जहां हो वहीं का नहीं हो पाता। चमन में था तब चमन का न हो पाया तो कफस का तो हो कैसे सकता है? स्वतंत्र था तब स्वतंत्रता का न हो पाया और हजार ढंग से जंजीरें बना लीं। अपनी जंजीरें खुद ढाल लीं। जब स्वतंत्रता का भी न हो सका तो इस कारागृह का तो कैसे हो सकता है? जब तुम परमात्मा के भी न हो सके और वहां से भी हट आए तो संसार के तो हो ही कैसे सकोगे?
लेकिन परमात्मा को खोना पड़ता है; पाने के पहले खोना पड़ता है। कोई और उपाय नहीं है। जब तक तुम खोओ न, तब तक उसका मूल्य ही पता नहीं चलता। मछली जब तक सागर में होती है तब तक सागर का पता ही नहीं चलता। एक बार मछली को सागर के तट पर जाना ही होता, तड़फना ही होता है पानी के बाहर; तभी उसे समझ आती है, तभी बोध आता है, तभी सागर की स्मृति आती है और सागर के प्रति कृतज्ञता का भाव आता है। फिर जब लौटकर वह सागर में गिरती है तो जानती है कि यह सागर है। यह मेरा घर।
यह तुम्हें बेबूझ लगेगा, लेकिन अपना घर पाने के लिए खोना पड़ता है। स्वयं को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है। संसार का कुछ और अर्थ नहीं है। संसार का इतना ही अर्थ है, मछली सागर में रहते-रहते सागर को न पहचान पाई, तट पर तड़फ रही है।
चमन में बायस-ए-राहत था, आशियां न रहा
चमन न मेरे लिए, अब न मैं चमन के लिए
यह मुख्तसर सी है यह अश्क दास्ताने-फिराक
रही है वख्व मेरी जां गमो-मिहन के लिए
यह छोटी सी कहानी है हमारी जिंदगी की।
यह मुख्तसर सी है यह अश्क दास्ताने-फिराक
रही है वख्व मेरी जां गमो-मिहन के लिए
हम न मालूम किन-किन अनजान रास्तों से दुख दर्द को खोजते रहे।
रही है वख्व मेरी जां गमो-मिहन के लिए
हमारे प्राण दुख के लिए तड़फते रहे हैं। क्यों? क्यों ऐसा होगा कि हम दुख के लिए तड़फते रहे हैं? हमने क्यों दुख निर्माण किया है? कारण है। जब दुख निर्मित होता है तो तुम निर्मित होते हो। सुख में खो जाते हो, दुख में हो जाते हो। दुख में अहंकार मजबूत खड़ा हो जाता है। इसीलिए तो लोग दुख को पकड़ते हैं।
मेरे पास हजारों लोग आते हैं, मगर शायद ही कभी कोई आदमी मुझे दिखाई पड़ता है जो सच में सुखी होना चाहता है। इससे तुम हैरान होओगे क्योंकि वे सभी यही कहते आते हैं कि हम सुख की तलाश में हैं। वे सभी यही कहते आते हैं कि हमें दुख से कैसे छुटकारा मिले? हम दुख के बाहर कैसे हों? लेकिन मैं उनकी आंखों में झांकता हूं, उनके हृदय में टटोलता हूं और दुख से वे छूटना नहीं चाहते। कहते जरूर हैं। शायद यह कहना भी एक नये दुख को पैदा करने की तरकीब है। इस दुख पैदा करने की तरकीब कि मुझे सुख नहीं है। मुझे सुख चाहिए। यह सुख चाहने की बात सुख चाहने की नहीं मालूम होती, यह एक और नया दुख पैदा करने की होती है कि मुझे सुख नहीं है।
खयाल करो इस बात पर। इस पर ठीक से नजर दो। तुम सच में सुख चाहते हो? अगर सुख चाहते हो तो तुम्हें कौन रोक सकता है? एक क्षण को भी तुम कैसे रोके जा सकते हो? सुख तुम्हारा स्वभाव है। इधर चाहा, उधर हुआ।
मैं तुमसे एक अजीब सी बात कहना चाहता हूं। सुख पाना तो बहुत सरल है, दुख पाना बहुत कठिन है। क्योंकि दुख स्वभाव के विपरीत है। दुख स्वाभाविक नहीं है इसलिए कठिन है। कठिन को तो तुमने कर लिया है और सरल की तुम पूछते हो, कैसे हो? तुमने अति कठिन को करके दिखला दिया है। आत्मा को दुख हो ही नही सकता। वह भी तुमने बना कर दिखला दिया है। उसका भी तुमने आत्मा को धोखा दे दिया है। और सुख का झरना तो बह ही रहा है भीतर। सुख को पाना नहीं होता, सिर्फ दुख को पकड़ना छोड़ते ही सुख हो जाता है। यह जो कफस है, यह पिंजड़ा है संसार का, इसने तुम्हें बंद किया है इस खयाल में मत पड़ना। हालत उलटी ही है, तुम इसमें खुद ही अपने हाथ से बंद हो गए हो।
मैंने सुना है, एक पहाड़ी घाटी में ऐसी घटना घटी, एक छोटी सी सराय थी। उस सराय के मालिक के पास एक तोता था। सराय कामालिक ने उसे एक बात सिखा रखी थी। सराय के मालिक स्वतंत्रता का बड़ा प्रेमी था। प्रेम झूठ-मूठ का ही रहा होगा नहीं तो तोते को कैसे बंद करता? लोग मोक्ष की आकांक्षा रखते हैं और तोते को बंद कर देते हैं। और तोते को मोक्ष की बातें सिखा देते हैं, राम-राम जपना सिखा देते हैं। कम से कम तोते को तो छोड़ो। तुम जब छूटोगे तब छूटोगे। इस गरीब को क्यों बांधा? तुम बंधे हो, इसको भी बांध लिया।
मालिक जो था, स्वतंत्रता का बड़ा प्रेमी था। कहते हैं बड़ा क्रांतिकारी था। तो उसने अपने तोते को सिखा रखा था, वह एक ही शब्द जानता था तोता: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! दिन में हजारों बार चिल्लाता था। उसकी आवाज घाटी में गूंजती थी–स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
एक रात एक आदमी मेहमान हुआ। सूरज के ढलते समय जब घाटी बड़ी सुंदर थी, वह तोता चिल्लाया: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! उस आदमी को दया आ गई। उसने कहा: बेचारा तोता! कितनी स्वतंत्रता की मांग कर रहा है। दिन भर चिल्लाता रहा है, कोई इस पर ध्यान भी नहीं देता। उठा वह। कोई था भी नहीं, एकांत में तोता लटका था। मालिक अपने काम में सराय के भीतर लगा था। उसने धीरे से जाकर तोते का दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खोल कर अपने कमरे में चल गया कि तोता उड़ जाएगा, लेकिन घड़ी दो घड़ी बाद उसने फिर आवाज सुनी, स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
तो वह बाहर आया, उसने कहा यह जरा अजीब स्वतंत्रता है। दरवाजा खुला है, यह तोता उड़ क्यों नहीं जाता? वह तोता अभी भी पकड़े हुए है सींखचों को भीतर और चिल्ला रहा है, स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! उसे बड़ी दया आई। अब तो रात हो गई थी, लोग सोने के करीब हो गए थे, मालिक भी जा चुका था, सो गया होगा। वह बाहर आया यात्री, उसने तोते को निकालने की कोशिश की। तोता उसके हाथ पर चोंचें मारने लगा। उसे लहूलुहान कर दिया। और चिल्लाता है, स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
सभी सदगुरुओं के साथ तुमने ऐसा ही किया है। तुम्हें तुम्हारे पिंजड़े से बाहर निकालना आसान बात नहीं है। तुम चिल्लाते हो, मोक्ष! आनंद! स्वतंत्रता! मगर कोई निकाले तो तुम लहूलुहान कर दोगे। नहीं तो तुमने जीसस को सूली क्यों दी? और तुमने सुकरात को जहर क्यों पिलाया? ये तुम्हारी आवाज के धोखे में आ गए। तुम चिल्लाते थे स्वतंत्रता, इन्होंने सोचा कि बेचारा…।
फिर भी वह आदमी जिद्दी था; जैसे कि सदगुरु जिद्दी होते ही हैं। तुम लाख लहूलुहान करो, तुम फांसी लगाओ, वे फिर लौट-लौट कर आ जाते हैं। फिर-फिर अवतार हो जाता। तुम उन्हें मार-मार कर भी मार नहीं पाते। उस आदमी ने कोई फिकर न की तोते की, उसने तो उसे निकाल कर फेंक ही दिया बाहर। हाथ तो लहूलुहान हो गया था लेकिन फिर भी वह प्रसन्न था कि चलो, एक जीवन तो मुक्त हुआ। एक को तो स्वतंत्रता मिली।
वह आकर निश्चिंतता से सो गया। जब सुबह उसकी आंख खुली, वह बड़ा हैरान हुआ। तोता पिंजड़ें में बैठा था और चिल्ला रहा था: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! और अभी पिंजड़ा खुला ही पड़ा था। क्योंकि रात से किसी ने उसे बंद नहीं किया था।
ऐसी दशा है आदमी की। तुम कहते हो सुख, तुम कहते हो स्वतंत्रता, तुम कहते हो स्वरूपानंद, बाकी तुम…तुम्हें देख कर बात कुछ और ही लगती है। तुम दुख से जकड़ते हो, तुम दुख को पकड़ते हो। तुम दुख को सब तरफ से सुरक्षित करते हो।
यह मुख्तसर सी है यह अश्क दास्ताने फिराक
रही है वख्व मेरी जां गमो मिहन के लिए
जैसे तुम्हारे प्राण दुख के लिए ही सुरक्षित हैं।
बिछाए जाल जो बैठे थे बन गए गुलचीं
यह उनकी फिक्र बड़ी फिक्र है चमन के लिए
और इसीलिए यह घटना घटती है कि जो जालसाज हैं, जो धोखेबाज हैं, जो धूर्त हैं वे समझ लेते हैं कि तुम्हारी असली आकांक्षा तो कारागृह में रहने की है। इसलिए वे तुमसे कहते हैं कि चलो, ये उपाय रहे स्वतंत्र होने के। और तुम्हें ऐसे उपाय देते हैं कि तुम्हारा कारागृह और बड़ा होता चला जाता है। और तुम उनसे बड़े राजी होते हो। तुम्हारी जंजीरों को वे और मजबूत कर देते हैं। तुम्हारे भय को और प्रगाढ़ कर देते हैं। तुम्हारे लोभ को और जलता हुआ बना देते हैं।
और तुम उनसे बड़े प्रसन्न होते हो। तुमने पंडितों-पुरोहितों की पूजा की है। और सदगुरुओं को तुमने सदा गाली दी है। पंडित-पुरोहितों का तुम्हारे मन में इतना सम्मान क्यों है? और तुम भी भलीभांति जानते हो कि उनके पास कुछ भी नहीं है। न जानोगे कैसे? आंखें तुम्हारे पास भी हैं। कितना ही झुठलाओ। तुम्हारे घर जो आदमी सत्यनारायण की कथा करने आ जाता है उसका सत्यनारायण से मिलना हुआ है? और सत्यनारायण से मिलना होता तो तुम्हारे घर आकर सत्यनारायण की कथा करता? उस सत्यनारायण की कथा में न तो सत्य है, न नारायण है, कुछ भी नहीं है।
तुम जिससे यज्ञ करवा लेते हो, हवन करवा लेते हो इससे जीवन में यज्ञ हुआ है? इसके जीवन में कहीं भी तो अग्नि का रंग दिखाई नहीं पड़ता। कहीं वह क्रांति दिखाई नहीं पड़ती। तुम मंदिर-मस्जिदों में जिनके द्वारा प्रार्थना में ले जाए जाते हो, तुमने कभी पूछा, इनकी प्रार्थना फली है? इनकी प्रार्थना हुई है? इन्होंने कभी प्रार्थना की है? तुम्हारा मौलवी कि तुम्हारा पंडित कि तुम्हारा पुरोहित नौकर-चाकर हैं तुम्हारे; परमात्मा से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है।
मगर उनसे तुम राजी हो। राजी तुम उनसे इसीलिए हो कि वे तुम्हारे करागृह को बढ़ाते हैं, घटाते नहीं। वे तुम्हें छेड़ते नहीं। तुम स्वतंत्रता की बातें करते रहते हो, वे भी तुम्हें स्वतंत्रता की बातें सुनाते रहते हैं। तुम भी अपना कारागृह बनाते रहते हो, वे भी तुम्हारे कारागृह में और चार ईंटें जोड़ते रहते हैं।
दरिया कहते हैं: पारस परसा जानिए।
पारस के पास आए, इसकी परख क्या? जो पलटे अंग-अंग। समग्ररूपेण क्रांति घटित हो। स्वतंत्रता तुम्हारे जीवन की चर्या बन जाए। जो पलटे अंग-अंग। बुद्धि ही न पलटे, कि खोपड़ी में विचार भर जाएं। अंग-अंग! तुम्हारा समग्र रूप बदल जाए। तुम्हारा आमूल व्यक्तित्व बदल जाए–पैर से लेकर सिर तक। शरीर से लेकर आत्मा तक एक ही धुन बजने लगे। एक ही इकतारा। एक ही गीत उमगे और एक ही नृत्य फैल जाए। तुम प्रभु के रंग में रंग जाओ–आमूल, अखंड।
पारस परसा जानिए,…
क्या परख कि पारस के पास आए? लोहा सोना हो जाए। अगर लोहा सोना न होता हो तो दो ही कारण हो सकते हैं। या तो जिसको तुमने पारस समझा वह पारस नहीं है या तुम पारस से दूर-दूर हो; पास नहीं आते। पारस भी हो तो तुम पास नहीं आते। दो ही कारण हो सकते हैं।
या तो तुमने जो खोजा लिया, सदगुरु नहीं है; तुम्हारे जैसा ही है। तुमसे कुछ भी भिन्न नहीं है। तुम जैसे गर्त में पड़े हो वैसे ही गर्त में पड़ा है। तुम जैसे मोह-माया में पड़े हो वैसा ही मोह-माया में पड़ा है। तुम्हारे जीवन में जितने जंजाल हैं वैसे ही उसके जीवन में जंजाल हैं।
तो या तो तुम जिसके पास आ गए हो वह सदगुरु नहीं है; तो तुम कितने ही पास आ जाओ, कुछ फर्क न पड़ेगा। या फिर हो सकता है सदगुरु हो लेकिन तुम पास आने में डर रहे हो। पास आने में डर लगता है। पास आने में बड़ा भय लगता है। पंडित-पुरोहित के पास आने में कोई भय का कारण नहीं है। तुम जैसे ही लोग हैं। तुम उन्हें खरीद सकते हो। लेकिन सदगुरु के पास आने में खतरा है। सदगुरु तो मृत्यु है। तुम मरोगे। सदगुरु के पास आए तो तुम मरोगे।
गोरख ने कहा है:
मरौ हे जोगी मरौ, मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी मर गोरख दिठा।।
ऐसे मरो जैसे गोरख मर गया। ऐसे मर जाओ जैसे मर कर गोरख को दिखाई पड़ा। मरौ, मरन है मीठा। मरने से बड़ी और कोई मीठी बात नहीं। यह तो गुरु का पूरा संदेश है कि आओ, मृत्यु में समा जाओ, कि आओ, डूबो, मिटो, गलो, खो जाओ।
मरौ हे जोगी मरौ, मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी मर गोरख दिठा।।
और ऐसे मरने की कला गुरु सिखाता है जैसे मर कर उसने देखा है। जैसे वह मिटा और पाया, ऐसे वह तुम्हें कहता है, तुम भी मिट जाओ और पा लो।
जीसस ने कहा है: जो बचाएगा वह खो देगा और जो खोने को राजी है उसने बचा लिया।
जीवन को पकड़े मत रहो। पकड़ने के कारण ही मौत पास आती है। मौत के साथ रास रचा लो। मौत को आलिंगन कर लो, फिर मौत नहीं आती, फिर अमृत ही आता है। फिर अमृत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचता है।
पारस परसा जानिए, जो पलटे अंग-अंग।
मगर अंग-अंग तो तभी पलटेगा जब तुम पूरे मर जाओ। तुम कुछ भी बचे तो उतना हिस्सा पुराना रहा। तुम जरा भी बचे तो उतना हिस्सा तो सड़ा-गला रहा, अतीत का रहा। तो पूरे न बदले।
तुम धीरे-धीरे…बड़ी मुश्किल से राजी होते हो। कहते हो, धीरे-धीरे, एक -एक कदम, थोड़ा-थोड़ा बदलेंगे। मगर थोड़ा-थोड़ा बदलना ऐसा ही है, जैसे कोई सागर में चम्मच-चम्मच रंग डालता रहे। ऐसे कुछ होगा नहीं। हिम्मत करो। यह साहसियों का काम है। बात जंच गई हो तो फिर ठहरना क्या; फिर रुकना क्या? बात समझ में पड़ रही हो तो अवसर चूको मत।
पारस परसा जानिए जो पलटे अंग-अंग।
अंग-अंग पलटे नहीं, तो है झूठा संग।।
तो संग दो तरह से झूठा हो सकता है। एक तो जिसका संग किया वह झूठा हो तो झूठा हो जाएगा। और दूसरा जिसका संग किया वह तो सच्चा हो लेकिन संग ही नहीं किया। दूर खड़े रहे, दीवाल बना कर खड़े रहे। अपनी सुरक्षा कायम रखी। बीच में फासला रखा।
मेरे पास जो आते हैं और बिना संन्यस्त हुए चले जाते हैं उन्होंने फासला बचा लिया। आए भी और नहीं भी आए। आए भी और चूक भी गए। आए भी और दूर के दूर रहे। तो उन्हें मौका नहीं मिलेगा।
लोग मुझे लिखते हैं पत्र, मुझसे पूछते भी हैं आकर कि आप जो कहते हैं, हम अगर वही करें और संन्यास न ले तो लाभ नहीं होगा? लाभ होगा मगर परम लाभ नहीं होगा। लाभ तो होगा। कुछ तो करोगे तो कुछ लाभ होगा। मगर अंग-अंग न पलटेगा। ऐसे थोड़े बहुत यहां-वहां पलस्तर ठीक हो जाएगा। दीवाल कहीं से गिरती थी तो थोड़ा उसमें टेका लगा देना। मगर नया भवन न बनेगा। मंदिर न उठेगा।
इधर नये मंदिर को बनाने की बात चल रही है। हां, तुम्हारे पुराने ही भवन में तुम थोड़ा सा सहारा लगा लोगे। मेरी बातों से कुछ चुन लोगे जो तुम्हारे मकान में सजावट के काम आ जाएंगे। दीवाल दरवाजों पर लिख दोगे वचन। और क्या करोगे? रंग-रोगन कर लोगे घर में। इससे नहीं होगा।
संन्यास का और कुछ अर्थ नहीं है, संन्यास का इतना ही अर्थ है कि तुमने अपनी तरफ से कहा कि मैं तो राजी हूं। जितने पास बुलाओ उतना राजी हूं। मुझे मारना हो तो मार डालो। यह रही गर्दन। यह झुकी गर्दन। उठा लो तलवार और मुझे काट दो। संन्यास का इतना ही अर्थ है कि मैं बेशर्त अपने को छोड़ता हूं।
पारस परसा जानिए, जो पलटे अंग-अंग।
अंग-अंग पलटे नहीं, तो है झूठा संग।।
पारस जाकर लाइए जाके अंग में आप।
क्या लावे पाषान को घस-घस होए संताप।।
पारस जाकर लाइए…
खोजो पारस को। पारस मिल जाए तो खोजो पारस के सत्संग को। पारस मिल जाए तो भागो मत। तो करीब आओ, निकट आओ।
उपनिषद शब्द का यही अर्थ होता है: गुरु के पास बैठना। गुरु के पास बैठना। उपासना शब्द का भी यही अर्थ होता है: उप आसन। पास बैठ जाना। पास ही आसन जमा देता। उपासना, उपवास, उपनिषद तीनों का एक ही अर्थ होता है। इतना ही अर्थ होता है कि कहीं कोई दिख जाए पारस तो फिर दांव पर लगा देना।
पारस जाकर लाइए…
अगर खोजना ही है, अगर जिंदगी में कुछ सार ही पाना है तो पत्थरों से मत अपनी खोपड़ी घिसते रहो। पारस जाकर लाइए। खोजो पारस। और मिल जाए पारस तो छूने से डरो मत। स्पर्श हो जाने दो। मिटाएगा स्पर्श। उतनी सावधानी तो पहले से ही खयाल में ले लेना।
पारस तुम्हें तो बिलकुल मिटा देगा निश्चित ही। अगर लोहा डरता हो कि कहीं मैं मिट न जाऊं तो सोना नहीं बन सकेगा। पारस के पास आकर डरे कि कहीं मेरा लोहा होना न मिट जाए। और चाहे कि मैं सोना भी हो जाऊं और लोहा होना भी न मिटे तो फिर अड़चन है। फिर गणित तुमने बड़ा उलटा पकड़ लिया। लोहे को एक बात तो तय करनी ही होगी कि मैं तो मिटूंगा। लोहे की तरह तो मैं नहीं बचूंगा। अंग-अंग पलट जाएगा। एक कण भी लोहे का नहीं बचेगा। एक अणु भी लोहे का नहीं बचेगा।
तो तुम्हें लोहे से तो मोह छोड़ ही देना होगा। और तुम अब तक जो हो, लोहे हो। मगर लोहे की भी तकलीफ तो समझो। तकलीफ उसकी भी बड़ी तार्किक है। लोहा कहता है, मैं इतना ही जानता हूं कि मैं लोहा हूं। इसको भी गंवा दूं! क्या पता सोने का, हो न हो! अब तक तो मुझे तो ऐसा घटा नहीं है। और-और लोग कहते हैं, सच कहते हों, झूठ कहते हों, क्या पता? भ्रम में पड़े हों क्या पता? मुझे तो घटा नहीं है अभी तक। मुझे तो पता नहीं। तो जो मुझे पता नहीं उसके लिए उसे छोड़ दूं जिसका मुझे पता है? तो समझदारी तो कुछ उलटी है। कहावतें कहती हैं कि समझदारी कहती है, हाथ की आधी रोटी बेहतर। आकाश की पूरी रोटी से हाथ की आधी रोटी बेहतर। अठन्नी हाथ की बेहतर, रुपया दूर दिखता है आकाश में उससे तो। क्योंकि जो हाथ में है उसका उपयोग हो सकता है। वह रुपया पता नहीं हो न हो। पता नहीं, तुम पहुंच सको, न पहुंच सको। पता नहीं, पहुंचकर पता चले कि रुपया था नहीं, केवल चमक मात्र थी, धोखा था। या टीन का ठीकरा चमक रहा था।
समझदारी की कहावतें सारी दुनिया में हैं। वे कहती हैं, हाथ का मत गंवा देना। जो हाथ का है उसको तो सम्हाले रखना। उसको सम्हाल कर और जो दूर है उसको पाने की कोशिश करना। इस समझदारी से जो चला वह धार्मिक नहीं हो पाता। यह समझदारी बड़ी नासमझी भरी है। यह संसार में तो बड़े काम की है लेकिन सत्य के जगत के जरा भी काम की नहीं है, बड़ी बाधा है। वहां तो बड़ी नासमझी चाहिए। वहां तो बावलापन चाहिए, मस्ती चाहिए।
एक बात देख लो कि तुम्हारे हाथ में है जो, इसका मूल्य क्या है? इसको बचा कर भी क्या बचेगा? लोहा अगर बच भी रहा तो लोहा ही रहना है। बचकर भी तो कुछ न बचेगा। तो लो जोखम। लोहे से तो और बदतर क्या हो सकोगे? अगर पारस झूठा रहा तो तुम लोहा तो बचोगे ही, कोई हर्जा नहीं है। अगर पारस सच्चा हुआ तो सोना हो जाओगे। इसमें कठिनाई क्या है? पास जाने में भय क्या है?
और जो लोहे की अड़चन है वही तुम्हारी भी अड़चन है। वही सबकी अड़चन है। तुम चाहते हो, मैं जैसा हूं वैसा ही बचा रहूं और सदगुरु से मिलना भी हो जाए। यह नहीं हो सकता। यह नहीं हुआ कभी। यह नहीं होगा कभी। यह जीवन का नियम नहीं है।
पारस जाकर लाइए जाके अंग में आप।
जिसके अंग-अंग में आब है, जौहर है; जिसके अंग-अंग में ज्योति है, जिसका दीया जल गया है, जहां परम ज्योति ने निवास किया है, ऐेसे जलते दीये को खोजो।
पारस जाकर लाइए जाके अंग में आप।
क्या लावे पाषान को घस-घस होए संताप।।
पत्थर को लेकर आ भी गए और खूब घिसा भी अपने लोहे पर तो भी कुछ न होगा, सिर्फ संताप होगा। यह बात भी बड़ी मीठी है। और बड़ी अर्थपूर्ण है।
तुम्हारे पंडित-पुरोहितों के कारण तुम्हारे जीवन में संताप बढ़ा है। घटा नहीं। तुम्हारी जिंदगी इनके बिना ज्यादा सुखद हो सकती है। इनके कारण तुम्हारी जिंदगी बड़ी उलझन से भर गई है, बड़े विषाद से भर गई है। ये किसी चीज में तुम्हें रस भी नहीं लेने देते। परम रस की तरफ तो जाने नहीं देते और यहां की किसी चीज में रस नहीं लेने देते। संसार की ये खिलाफत करते हैं और परमात्मा की तरफ जाने का न इनको कुछ रास्ता पता है, न ये गए हैं, न तुम्हें ले जा सकते हैं। ये तुम्हें बड़ी विडंबना में डाल जाते हैं। ये तुम्हें त्रिशंकु बना देते हैं।
ये संसार में तो तुम्हें खराब कर देते हैं। ये कहते हैं, पत्नी? इसमें क्या रखा है? मांस-मज्जा-हड्डी, कफ-वात-पित्त! पत्नी में कुछ रखा नहीं। परमात्मा का कुछ पता देते नहीं, पत्नी में कुछ रखा नहीं। पति में क्या रखा? मल-मूत्र की थैली है। पति मल-मूत्र की थैली हो गई और परमात्मा का कुछ पता नहीं। बेटे-बच्चे, इनमें क्या रखा है? यह तो दो दिन का खेल है। ये तो अभी हैं, अभी नहीं हैं। इनमें मोह मत लगाना।
मोह कहां लगाना? मोह को कोई दिशा चाहिए। मोह के लिए कोई मार्ग चाहिए। उसे कहां ले जाएं? परमात्मा की पूछो तो इनको भी पता नहीं है। ये सारे संसार की निंदा तो कर देते हैं। निषेध से तो भर देते हैं मन को, नकार से तो भर देते हैं और अकार का कुछ हिसाब नहीं है। तुम जो भी करते हो, सब गलत है इनके हिसाब से। सही क्या है? तो गलत…गलत…गलत। सब गलत कर दिया।
तो तुम्हें सब जगह से मुश्किल में डाल दिया। भोजन करो तो दिक्कत क्योंकि स्वाद पाप है। गांधी जी के आश्रम में अस्वाद का व्रत दिलवाते थे कि भोजन तो करना लेकिन स्वाद नहीं लेना। आदमी को क्यों सताते हो? घस-घस होए संताप। अब महात्मा गांधी का पत्थर लेकर घिसते रहो अपनी खोपड़ी पर तो संताप पैदा होगा। मैंने तो एक गांधीवादी को आनंदमग्न नहीं देखा। घिसते रहो, संताप पैदा होगा। स्वाद में स्वाद मत लेना। अस्वाद का व्रत लो।
जो जानते हैं वे कहेंगे, स्वाद में इतना स्वाद लो कि परमात्मा का स्वाद बन जाए। अन्नम् ब्रह्म–यह जानने वालों ने कहा है। यह ज्ञानियों ने कहा है। अन्न में ब्रह्म छिपा है। स्वाद मत लो…ये पत्थर मिल गए तुम्हें। अब इनसे घस-घस बहुत संताप होगा। ये हर चीज के खिलाफ हैं। ये किस चीज के पक्ष में हैं यह तो कुछ पता नहीं, मगर हर चीज के खिलाफ जरूर हैं। ये तुम्हें बड़ी दुविधा में छोड़ जाते हैं। जो जीवन के सामान्य सुख हैं उनके प्रति तुम्हें बड़ी तिक्तता से भर देते हैं। और जो जीवन का परम सुख है उसकी तरफ इशारा नहीं हो पाता। तो तुम हो गए धोबी के गधे–घर के न घाट के। अटक गए बीच में। ऐसी अटकी स्थिति तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी और महात्माओं की हैं।
एक जैन मुनि ने मुझे कहा कि मैं पचास साल से मुनि हूं–सत्तर साल के करीब उनकी उम्र है–और मुझे कोई आनंद वगैरह, आत्मानंद वगैरह तो मिला नहीं। अब मैं क्या करूं? और जो भी मुझे कहा गया…वे आदमी भले हैं। भले न होते तो वे इतनी ईमानदारी की बात नहीं कह सकते थे। प्रमाणिक हैं। सच में ही खोजी हैं, धोखेबाज नहीं हैं। धोखेबाज तो यह बात कहेंगे ही नहीं कि हमको नहीं मिला। यह कह कर और अपनी दुकान खराब करवानी है कि हमको नहीं मिला? ईमानदार आदमी हैं। सच्ची बात तो स्वीकार की।
पचास वर्ष से में जो भी उन्होंने किया उसे बड़ी निष्ठा से किया है इसलिए यह कोई भी नहीं कह सकता कि तुम्हारे करने में भूल है, इसलिए नहीं मिला आनंद। बड़ी निष्ठा से किया है। जिस संप्रदाय के वे माननेवाले हैं उस संप्रदाय की एक-एक बात नियम से पूरी की है, रत्ती-रत्ती पूरी की है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं है। अब सत्तर साल की उम्र होते हुए जब मौत करीब आने लगी तो उनको भी तो अड़चन शुरू होती है। पचास साल गंवा दिए। सारी जिंदगी हाथ से बहा दी और सुख तो अभी तक जाना नहीं। और अब यह मौत करीब आ रही है।
तो एक संदेह भी मन में उठता है। उन्होंने मुझसे कहा कि और किसी से तो कह नहीं सकता, आपसे कह सकता हूं। एक संदेह भी मन में उठता है कि कहीं मैंने भूल तो नहीं की? यह संन्यास लेकर मैंने भूल तो नहीं की? कभी-कभी मेरे मन में यह विचार उठने लगता है, रात पड़े पड़े एकांत में यह खयाल आने लगता है कि कौन जाने, संसार में ही रहता तो ठीक होता। बीस साल का था तब घर छोड़ दिया था। तब जिंदगी बहुत कुछ जानी न थी। मां मर गई, पिता मुनि हो गए। अक्सर लोग ऐसे ही मुनि होते हैं। अब कुछ उपाय न रहा। एक ही बेटा थी बीस साल का। जब पिता मुनि हो गए और मां मर गई तो मां के मरने का दुख और पिता का तत्क्षण मुनि हो जाना…बेटे ने सोचा, अब मैं भी क्या करूं? वे भी दीक्षा ले लिए।
निष्ठा से पचास साल बिताए। जो भी कहा उसे किया। मैं उन्हें भलीभांति जानता हूं। उनकी निष्ठा पर मुझे भी जरा संदेह नहीं है। उन्होंने नियम में कोई उल्लंघन किया हो ऐसा मुझे भी नहीं लगता। इसलिए बात और मुद्दे की हो जाती है और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उनका गुरु भी उनसे नहीं कह सकता कि तुमने कुछ गलती की। गलती तो बता ही नहीं सकते। एक -एक बात को गणित के पूरे नियम को उन्होंने पालन किया है।
फिर कहां चूक हो गई? और अब पचास साल बीत जाने के बाद मन में यह शंका उठती है। तुम उनका कष्ट समझोगे? उनका संताप तुम्हें समझ में आता? घस-घस होए संताप। पचास साल घसे, अब संताप बहुत गहन हो रहा है। घाव ही घाव रह गए हैं मन पर। संसार तो गया, इसे भोगा नहीं। कौन जाने उसी भोग में असली बात थी। कौन जाने! कौन जाने दूसरे ही ज्यादा मजे में हैं, मैं ही नासमझ बन गया।
और अक्सर तुम पाओगे कि कभी-कभी संसारी तुम्हें मुस्कुराता मिल जाए। कभी-कभी संसारी के चेहरे पर तुम्हें थोड़ा ओज भी मिल जाए–कभी-कभी! लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्मा तो बिलकुल मुर्दा हैं। संसारी के चेहरे पर भी कभी-कभी जो चमक आती है और कभी जो मुस्कुराहट के फूल खिलते हैं वे तुम्हारे महात्माओं के चेहरों पर कभी नहीं खिलते। वे कभी तुम्हारे महात्माओं के चेहरों पर नहीं दिखाई पड़ते। उनकी आंखें बिलकुल बुझी हुई हैं। उनमें कोई भीतर ज्योति जलती नहीं दिखाई पड़ती। ये मंदिर बिलकुल खाली पड़े हैं।
तो इनको भी तो दिखाई पड़ता होगा कि संसारी भी कभी-कभी प्रसन्न होते हैं। मान लिया उनकी प्रसन्नता क्षणभंगुर है; क्षणभंगुर ही सही, मगर कभी तो होती है। यहां तो कुछ भी नहीं हुआ। शाश्वत के पीछे क्षणभंगुर भी गया और शाश्वत हुआ नहीं; यह है संताप।
दरिया ठीक कहते हैं:
पारस जाकर लाइए जाके अंग में आप।
क्या लावे पाषान को घस-घस होए संताप।।
तो ऐसे व्यक्तियों से बचना, जो तुम्हारे जीवन को नकार से भरते हों, निषेध से भरते हों। जो कहते हों, यह गलत, यह गलत, यह गलत। ऐसे व्यक्तियों से बचना, ये सदगुरु नहीं हैं। सदगुरु गलत की तो बात ही नहीं करता। सदगुरु तो कहता है, यह सही। इसे कर। सदगुरु कहता है, अंधेरे से मत लड़ दीया जला। दीया जल गया, अंधेरा गया। सदगुरु कहता है, विधायक को पकड़। क्षणभंगुर को मत छोड़, शाश्वत को खोज। जैसे-जैसे शाश्वत हाथ में आने लगेगा, क्षणभंगुर अपने से छूटता जाता है। जिसे असली हीरे-जवाहरात मिल गए वह कंकड़-पत्थर लिए चलेगा अपनी झोली में? कौन वजन ढोता फिर? उतना ही वजन ढोना है तो उतने वजन में तो हीरे-जवाहरात का वजन ढो लेंगे। जब वजन ही ढोना है तो हीरे-जवाहरात का ढोएंगे। कंकड़-पत्थर का कौन ढोएगा?
छोड़ना नहीं पड़ता संसार। सदगुरु के साथ संसार छोड़ना नहीं पड़ता। सदगुरु के साथ संसार छूटता है। असदगुरु के साथ संसार छोड़ना पड़ता है और परमात्मा कभी मिलता नहीं। अंधेरे से लड़ाई बहुत होती है और आखिर में चारों खाने चित्त पड़े पाए जाते हो। घस-घस होए संताप। दीया कभी जलता नहीं। यह दीया जलाने का कोई ढंग ही नहीं।
दरिया बिल्ली गुरु किया उज्जल बगु को देख।
जैसे को तैसा मिला ऐसा जक्त अरु भेख।।
कहते हैं, बिल्ली ने गुरु किया। अब बिल्ली गुरु करे! कहते हैं न कि सौ-सौ चूहे खाए बिल्ली हज को चली! मगर सौ चूहे खाकर जो बिल्ली हज को जाएगी उसकी हज भी चूहों की ही तलाश होगी। शायद वहां हजी चूहे मिल जाएं, बड़े चूहे मिल जाएं, धार्मिक चूहे मिल जाएं।
मैंने सुना है, एक बिल्ली…अभी-अभी इंग्लैंड की महारानी का जलसा हुआ न! तो एक बिल्ली भी हिंदुस्तान से गई जलसा देखने। बिल्लियों ने भेजा। आदमी भी भेज रहे हैं अपने प्रतिनिधि, मोरार जी देसाई गए, बिल्लियों ने कहा कि हम भी अपना प्रतिनिधि भेजेंगी। तो उन्होंने अपने प्रधानमंत्री को भेज दिया होगा।
स्वागत-समारंभ में सम्मिलित हुई। जब लौट कर आई और लोगों ने पूछा क्या देखा? उसने कहा: गजब की बात देखी। रानी की कुर्सी के ठीक नीचे बड़ा चूहा बैठा था। बिल्ली को और दिखाई भी क्या पड़े? रानी में क्या रस बिल्ली को! रानी में क्या रखा! सिंहासन के ठीक नीचे एक चूहा बैठा है। बड़ा चूहा। शाही चूहा! दिल प्रसन्न हो गया। हज को भी जाएगी बिल्ली तो हजी चूहों को खोजने जाएगी। और क्या करेगी?
कहते हैं दरिया: दरिया बिल्ली गुरु किया।
तो उसने अपनी ही बुद्धि से तो करेगी न! और तो बुद्धि लाए भी कहां से? समझना थोड़ा क्योंकि तुम्हारे जिंदगी का ही यह सवाल है। यह बिल्ली का सवाल नहीं है। यह तुम्हारी बुद्धि का ही सवाल है। तुम्हारी बुद्धि जब गुरु करेगी तो तुम भूल में पड़ोगे। क्यों भूल में पड़ोगे? क्योंकि तुम्हारी बुद्धि ही तुम्हें भटकाती रही है अब तक। उसी बुद्धि से गुरु करोगे; और कहां से लाओगे?
तुम्हें बड़ी अड़चन मालूम होगी कि यह तो बड़ी झंझट की बात है। इसी बुद्धि ने भटकाया जन्मों-जन्मों तक। इसी बुद्धि ने संसार में भटकाया। इसी बुद्धि ने धन में भटकाया, पद में भटकाया, लोभ, मोह, तृष्णा सबमें भटकाया। अब यही बुद्धि तुम्हारे पास है। और तो तुम्हारे पास कोई बुद्धि है नहीं। इसी बुद्धि से तुम गुरु करोगे। इसी बुद्धि से तो परखोगे न! और यह बुद्धि ही तुम्हारा सारा जाल है। यही तुम्हारा उपद्रव है। इसी बुद्धि ने तो तुम्हें सारे भ्रम खड़े करवाए। तो अब यह तुम्हें आखिरी भ्रम भी करवाएगी। तुम गलत गुरु को ही चुनोगे।
समझो, कैसे घटना घटती है। तुम धन के पीछे दीवाने हो। तुमने धन के पीछे सब कुछ जिंदगी लगा दी। अब तुम धन से ऊब गए हो, धन से परेशान हो गए हो। तो तुम कैसा गुरु चुनोगे? अब तुम ऐसा गुरु चुनोगे जो पैसा भी न छूता हो। जिसके पास पैसा ले जाओ तो सांप-बिच्छू की तरह उचक कर खड़ा हो जाए कि यह तुमने क्या किया? कामिनी-कांचन! पैसा मेरे पास ले आए?
तुम स्त्री के पीछे दीवाने रहे हो। अब तुम ऐसा गुरु चुनोगे जो स्त्री को देखता ही न हो। तुम स्वामी नारायण संप्रदाय के गुरु के शिष्य हो जाओेगे। चालीस साल से स्त्री नहीं देखी उन्होंने। ये जंचते हैं। यह बात जंचती है। अभी वे भी इंग्लैंड गए तो हवाई जहाज पर विशेष इंतजाम करना पड़ा। पर्दे लगाए गए उनकी कुर्सी के चारों तरफ। एअर होस्टेसेस, अप्सराएं, कोई दिखाई पड़ जाए तो झंझट खड़ी हो जाए। चालीस साल से उन्होंने स्त्री नहीं देखी। लंदन एअरपोर्ट पर बंद गाड़ी में उनको निकाला गया। एअरपोर्ट पर थोड़ी देर रुकना पड़ा सामान इत्यादि की जांच-परख के लिए तो वहां भी पर्दा लगा कर एक कुर्सी पर उनको बिठाया गया।
इस मूढ़ता पर सारी दुनिया हंसती है। जुबली समारोह चल रहा था महारानी का–जिसमें बिल्ली भाग लेने गई थी–मगर वे तो देख नहीं सकते क्योंकि रानी स्त्री है। टी.वी. पर भी नहीं देख सके। मगर मन तो आदमी का ही, बिल्ली का मन, देखने को मन तो था ही। मगर रानी है स्त्री इसलिए देख तो सकते नहीं टी.वी. पर। तो क्या किया उन्होंने? एक कमरे में बैठ गए, दूसरे कमरे में टी.वी. लगा और वहां से एक आदमी जोर-जोर से बोलता जाए–क्धया-क्या हो रहा है। वे दूसरे कमरे में बैठे सुन रहे हैं। मन तो बिल्ली का ही है। मगर देख भी नहीं सकते। तस्वीर भी नहीं देख सकते।
यह कैसा भय? यह कोई मुक्ति हुई? यह तो महाबंधन हो गया। यह तो रुग्णता हो गई। यह तो चित्त विषाक्त हो गया। स्त्री में परमात्मा दिखाई पड़ने लगे यह तो समझ में आने वाली बात है। लेकिन स्त्री में ऐसा भय समा जाए तो इसका एक ही अर्थ होता है कि काम-विकार बहुत बढ़ गया। इन सज्जन को मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। इनका इलाज होना चाहिए। इन पर कोई दया करे। इनकी खोपड़ी अत्यंत विकार से भरी है।
मगर तुम जिंदगी भर अगर स्त्री के पीछे दीवाने रह हो और स्त्री से परेशान हुए हो–कौन नहीं परेशान होता स्त्री से? परेशान तुम होते हो यह सच है। स्त्री की झंझट उठाई वह भी सच है। स्त्री तुमसे परेशान हो चुकी है; उसने भी झंझट उठा ली है। तो ऐसे गुरु को तुम जल्दी चुन लोगे कि हां, यह रहा गुरु। यह तुम्हारे जिंदगी भर की जिस बुद्धि ने तुमको भटकाया है वही बुद्धि चुनने का रास्ता बता रही है। वह कह रही है, यह है गुरु। इसको चुन लो। अब तुम एक बड़ी भूल में पड़ रहे हो। तुम्हारा संसार भी भ्रांति से भर गया, अब यह गुरु भी तुम्हारी भ्रांति का ही हिस्सा है। उलटा, मगर है तुम्हारी भ्रांति का ही हिस्सा।
दरिया बिल्ली गुरु किया तो स्वभावतः बिल्ली ने सोचा, बिल्ली रही होगी काली। तो उसने सोचा कि उज्जवल बगु को देख…देखा बगुले को शुभ्र, उसने कहा यह है गुरु के योग्य। काली बिल्ली, कालेपन से थक गई और अब जानने लगी कि कालापन तो सिर्फ चूहों को पकड़ता है और कुछ करता नहीं। सफेद! यह शुभ्र बगुला खड़ा था, यह जंचा। मगर उसको पता नहीं कि यह बगला भी वहां जो खड़ा हुआ है ध्यानस्थ, ये मछलियों को पकड़ने खड़े हुए है। ये बिल्ली से भी पहुंचे हुए पुरुष हैं। इनका जो ध्यान इत्यादि लगाए खड़े हैं, यह कोई ध्यान वगैरह नहीं है। ये जो एक पैर पर खड़े हुए हैं यह कोई योगासन वगैरह नहीं है। ये जो बिलकुल बिना हिले-हुले खड़े हैं कि इनकी तस्वीर भी पानी में नहीं हिलती। यह जो खड़ेश्री महाराज, यह बिल्ली से ज्यादा पहुंचे हुए हैं। यह मछली की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह निष्कंप खड़े हैं सिर्फ इसीलिए कि पानी की मछली जरा भी हलन-चलन हो जाए तो भाग जाती है। नजर मछली पर गड़ी है। मगर इनको देखकर बिल्ली को धोखा आ जाए तो कुछ आश्चर्य नहीं है।
तुम्हारे मन की बिल्ली भी ऐसे ही बगुलों के धोखे में आ जाती है।
दरिया बिल्ली गुरु किया उज्जल बगु को देख।
जैसे को तैसा मिला ऐसा जक्त अरु भेख।।
फिर जैसे को तैसा ही मिल जाता है। जैसा भक्त वैसा गुरु। फिर तो बड़ी अड़चन की बात उठी। फिर तो बड़ा सवाल उठेगा तो फिर चुनना कैसे? चुनने को तो एक ही उपाय है तुम्हारे पास तुम्हारी बुद्धि। और वह काम की नहीं है। फिर चुनना कैसे?
इसलिए समस्त जगत के जो गहरे शास्त्र हैं वे कहते हैं, शिष्य गुरु को नहीं चुनता, गुरु शिष्य को चुनता है। गुरु ही चुन सकता है। शिष्य कैसे चुनेगा। शिष्य तो अपने को सिर्फ समर्पण कर सकता है, कह सकता है, मैं मौजूद हूं। अगर आपकी मर्जी हो तो मुझे चुन लें। अगर मुझे योग्य पाएं तो मुझे चुन लें। अगर मुझमें कुछ दिखाई पड़ता हो तो मुझे कुछ रास्ता सुझा दें। अगर मुझमें कोई भी कहीं फीकी सी भी संभावना हो तो उसे जगा दें। यह रहा मैं मौजूद। मेरा जो करना हो, कर लें। मैं तो यह भी नहीं कह सकता कि मुझे चुन लें। मैं तो आपको चुनूं यह बात भी कैसे कर सकता हूं? यह भी दंभ की बात होगी।
इसलिए मेरे पास दो तरह के लोग संन्यास लेते हैं एक संन्यास लेने वाला वह होता है, जो कहता है मैं सोचूंगा। सोच-विचार कर कि आपसे संन्यास लेना, दीक्षा लेनी की नहीं? फिर निर्णय करूंगा। यह आदमी जिस दिन निर्णय करेगा वह निर्णय इसी का होगा। और इसके निर्णय में बुनियादी भूल रह जाने वाली है। अगर यह तय करेगा कि संन्यास लेना तो किसी गलत कारण से तय करेगा। अगर यह तय करेगा कि संन्यास नहीं लेना तो भी गलत कारण से तय करेगा। यह गलत कारण से ही तय कर सकता है। इसके सभी निश्चय और निष्पत्तियां गलत होंगे। इसकी बुद्धि से सही तो उमगता ही नहीं। उमग ही नहीं सकता। नहीं तो कभी का यह परमात्मा को उपलब्ध हो जाता। इसी बुद्धि पर इसका अभी भी भरोसा है। यह कहता हैं मैं तो इसी बुद्धि…यही है मेरे पास। मैं सोचूंगा, विचारूंगा।
जब तुम कहते हो, मैं सोचूंगा, विचारूंगा, क्या कहते हो तुम? किससे सोचोगे? किससे विचारोगे? तुम्हारे पास क्या है? जो परम संन्यासी है वह दूसरे ढंग से…। वह आकर कहता है कि मैं यह रहा। अगर आप स्वीकार कर लें तो स्वीकार कर लें। आप इनकार कर दें तो रोता हुआ लौट जाऊंगा। मुझे दे दें अगर लगता हो कि मैं योग्य हूं। लगता हो कि कभी योग्य बन सकता हूं तो मुझे दे दें। यह परम संन्यासी है।
तुम गुरु को चुन नहीं सकते। तुम सिर्फ गुरु को मौका दे सकते हो कि तुम्हें चुन ले। इस भेद को खूब समझ लेना। यह भेद बड़े अर्थ का है। सदा सदगुरु चुनता है। जब शिष्य तैयार होता तो सदगुरु मौजूद हो जाता है।
और तुम यह दंभ करना मत कि मैं चुनूंगा। मैंने चुना तो मैं बना रहा। तुमने अगर यह भी कहा कि मैं समर्पण करता हूं तो समर्पण नहीं है यह। क्योंकि मैं कैसे समर्पण करेगा? समर्पण का तो अर्थ होता है, मैं नहीं रहा। यह रहा मेरा होना, आप कुछ कर लें। कुछ उपाय हो सके तो लगा दें। आप जहां जाएं, जहां ले जाए, चलूंगा। आपकी मर्जी अब से मेरी मर्जी होगी। अब तक मैंने अपनी बुद्धि पर भरोसा किया, आज से आपके विवेक पर भरोसा करता हूं; आज से आपकी जागरूकता पर भरोसा करता हूं। इसका नाम श्रद्धा।
श्रद्धा तुम्हारी बुद्धि की निष्पत्ति नहीं है। श्रद्धा का अर्थ है, तुम अपनी बुद्धि से थक गए। और तुमने कहा, हाथ जोड़े, नमस्कार। अपनी बुद्धि को नमस्कार कर लिया, उस दिन श्रद्धा का जन्म होता है। और श्रद्धा ही सदगुरु को चुन पाती है।
जैसे को तैसा मिला ऐसा जक्त अरु भेख।
साध स्वांग अस आंतरा जेता झूठ अरु सांच।।
मोती-मोती फेर बहु इक कंचन इक कांच।
कहते हैं दरिया: साध स्वांग अस आंतरा।
असली साधु में और स्वांगी साधु में बड़ा अंतर है। साध स्वांग अस आंतरा। बहुत अंतर है। ऐसा अंतर है–जेता झूठ अरु सांच। जितना झूठ और सच में अंतर है, इतना ही अंतर है।
असली साधु कौन है? असली साधु वह, जिसने जाना, जिसने अनुभव किया, जो प्रभु में डूबा और पगा, जो अपने भीतर शून्य हुआ और शून्य होकर जिसने पूर्ण को अपने भीतर विराजमान होने के लिए जगह दी। सत्य जिसके भीतर आ गया वही साधु। सत्य जिसके भीतर जीवंत हो उठा वही संत। इसलिए तो संत कहते हैं उसको। उसके भीतर सत प्राणवान हो उठा।
लेकिन बाहर से साधु बनना भी बड़ा आसान है; सच में तो वही आसान है। महावीर नग्न खड़े हैं, इसलिए नहीं कि नग्न होने से कोई साधु होता है। नहीं तो सभी साधु नग्न होते। फिर राम भी नग्न होते, कृष्ण भी नग्न होते और क्राइस्ट भी और मोहम्मद भी और बुद्ध और कपिल भी और कणाद भी। मगर ये कोई नग्न नहीं हैं, महावीर नग्न खड़े हैं।
तो नग्न होने से कोई साधु नहीं होता। जब महावीर साधु हुए तो उन्हें सहज ही नग्नता उत्पन्न हुई। वे निर्दोष हो गए बच्चे की भांति। जिन्होंने महावीर को माना उन्होंने बड़ी भूल कर ली। भूल कहां कर ली? अगर उन्होंने महावीर को अपनी बुद्धि से माना तो वे यह निष्पत्ति लेंगे कि नग्न होने से महावीर को ज्ञान उत्पन्न हुआ, हम भी नंगे ही जाएं।
यह तो बुद्धि की बात हुई। सीधा गणित हो गया। देखा, जांचा, परखा कि महावीर नग्न हो गए हैं, ज्ञान को उपलब्ध हो गए; मौन रहते हैं, ज्ञान को उपलब्ध हो गए; मुश्किल से कभी-कभी भोजन लेने जाते हैं, ज्ञान को उपलब्ध हो गए। गणित बिठा लिया पूरा। तो अब हम भी कभी-कभी भोजन लेंगे, ज्यादा उपवास करेंगे, चुप रहेंगे, बोलेंगे नहीं, नंगे रहेंगे, धूप-ताप सहेंगे। खड़े रहेंगे जंगलों में।
खड़े हो जाओ। भूखे रहो, उपवास करो, नंगे रहो, कुछ भी न होगा। सिर्फ घस-घस होए संताप। और महावीर सदगुरु थे। मगर तुम चूक गए। तुमने अपनी बुद्धि से निष्कर्ष लिया। तुमने समर्पण न किया। तुमने अगर समर्पण किया होता तो तुम्हें एक बात दिखाई पड़ती, महावीर का बहिरंग न दिखाई पड़ता, महावीर के अंतरंग से जोड़ हो जाता।
तुम अपनी बुद्धि से जैसे ही टूटे कि तुम्हारे भीतर एक और छिपी हुई गहन बुद्धि, प्रज्ञा जिसको कहते हैं, उसका आविर्भाव होता है। तुम्हारे भीतर एक अंतर्दृष्टि का जन्म होता है। तब तुम देखते कि महावीर के भीतर कुछ घटा है। समाधि घटी है, सत्य घटा है। उस घटने के कारण बाहर की घटनाएं आई हैं? बाहर की घटनाओं के कारण भीतर की घटना नहीं घटी है, भीतर की घटना के कारण बाहर की घटना घटी है।
और प्रत्येक को बाहर की घटना अलग-अलग घटती है। भीतर की घटना तो एक है। भीतर का तो प्राण एक है। भीतर का सत्य तो एक है लेकिन बाहर अलग-अलग होगा। मीरा गाई और नाची। अब महावीर न नाचे और न गाए। वह उनके व्यक्तित्व का अंग न था। घटना तो एक ही घटी। भीतर तो एक ही सत्य उमगा, एक ही कमल खिला। लेकिन जब मीरा के भीतर खिला तो मीरा स्त्री थी। नाच उसे सुगम था। जब भीतर का कमल खिला तो अब कैसे प्रकट करें? उसने नाच कर प्रकट किया। वह मदमस्त होकर नाची। लोकलाज छोड़ी। दीवानी हो गई।
सत्य तो वही महावीर को भी घटा लेकिन महावीर पुरुष हैं, क्षत्रिय हैं। एक अलग ढंग की व्यवस्था में उनका व्यक्तित्व निर्मित हुआ है। उसमें नाच-गान की कोई सुविधा नहीं है। उनके व्यक्तित्व में नाच-गान का अंग नहीं है। महावीर के लिए नाच-गान नहीं घटा। जीसस एक ढंग से, मोहम्मद और ढंग से, कृष्ण और तीसरे ढंग से।
जब भी कोई व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होता है, इसे स्मरण रखना, दो सत्य को उपलब्ध व्यक्तियों का बहिरंग एक सा नहीं होता; सिर्फ असत्यवादियों का बहिरंग एक सा होता है। तुम पांच सौ जैन मुनि एक से पा सकते हो, मगर पांच सौ महावीर एक से पाओगे? तुम हजार हिंदू संन्यासी एक से पा सकते हो लेकिन हजार शंकराचार्य एक से पाओगे? दो तो पा लो। इन शंकराचार्यों की बात नहीं कर रहा हूं–पुरी के और द्वारका के, इनकी बात नहीं कर रहा हूं। इनको तो तुम हजार पा सकते हो। मैं आदि शंकराचार्य की बात कर रहा हूं। वे शंकर तो एक ही बार होते हैं। वह घटना तो एक ही बार घटती है।
और फिर भी स्मरण रखना कि जो शंकर के भीतर घटता, बुद्ध के, महावीर के, वह एक ही है। घटना एक ही है। ऐसा ही समझो कि तुमने बहुत ढंग के पात्र फैला कर बगीचे में रख दिए और वर्षा हुए। पानी सब पात्रों में गिरा, एक ही गिरा लेकिन कोई पात्र एक ढंग था तो पानी ने वही ढंग उसमें ले लिया। गिलास का था तो गिलास के रूप का हो गया। घड़ा था तो घड़े के रूप का हो गया। थाली थी तो पानी थाली के रूप का हो गया। पानी तो एक बरसा लेकिन जिसमें बरसा वे व्यक्तित्व के पात्र अलग-अलग थे।
महावीर के पास एक पात्र था, कृष्ण के पास दूसरा पात्र था। और परमात्मा एक जैसे पात्र दो बार बनाता नहीं। परमात्मा कोई फोर्ड कंपनी थोड़े ही है कि एक सी कारें बनाता ही चला जाए। परमात्मा प्रत्येक बार नया अनूठा निर्मित करता है। परमात्मा अद्वितीय है, मौलिक है, सदा मौलिक है। तुम जैसा व्यक्ति न तो पहले उसने बनाया न फिर कभी बनाएगा। सांचे उसके पास हैं ही नहीं। बिना सांचे के बनाता है। इसलिए हर व्यक्ति अनूठा है।
लेकिन जब तुम बाहर से निर्णय लोगे तो अड़चन में पड़ जाओगे क्योंकि बहिरंग तो अलग-अलग है। तुमने महावीर को बाहर से देखा तो नंगे खड़े हो जाओगे। बुद्ध को देखा तो एक चादर लपेट कर बैठ जाओगे। कृष्ण को देखा तो बांसुरी लगाकर मोरमुकुट बांध कर खड़े हो जाओगे। वह नाटक होगा–रासलीला। कुछ अर्थ नहीं होने वाला उससे। झूठा होगा सब। राम को देखा, लेकर धनुषबाण खड़े हो गए। तो रामलीला शुरू होगी, राम का असली जीवन नहीं। यह नाटकीय होगा। इससे सावधान रहना।
जब तुम गुरु के पास जाओ तो अपनी बुद्धि से निर्णय मत करना। अपनी बुद्धि को उससे चरणों में रख देना। उस पर छोड़ देना निर्णय कि अब तू कह; अब तू चला। और बेशर्त छोड़ देना। ऐसा नहीं कि फिर हम सोचेंगे कि करना कि नहीं। तुम कहोगे वह तो ठीक, सुन लेंगे, फिर हम सोचेंगे कि करना कि नहीं। अगर सोचना तुम्हीं को है तो निणार्यक तुम्हीं रहोगे।
साध स्वांग अस आंतरा जेता झूठ अरु सांच।
मोती-मोती फेर बहु इक कंचन इक कांच।।
मोती-मोती एक जैसे ऊपर से दिखाई भी पड़ें तो भी धोखे में मत पड़ना। उसमें कोई कांच का टुकड़ा होता है, कोई असली होता है।
पांच-सात साखी कही पद गाया दस दोए।
दरिया कारज ना सरै पेट-भराई होए।।
और यह मत समझ लेना कि पांच-सात साखी कह दी तो संत हो गए; कि पांच-सात पद बना लिए तो संत हो गए। पद गाया दस दोए–कि भजन बना लिए दो-चार और समझे कि संत हो गए।
दरिया कारज ना सरै…
ऐसे तो कुछ होगा नहीं। ऐसे ऊपर-ऊपर की बातों से कुछ न होगा। पेट-भराई हो सकती है। तुम्हारे तथाकथित महात्मा पेट-भराई ही करते हैं और कुछ भी नहीं करते। तुम एक ढंग से करते हो पेट-भराई, वे दूसरे ढंग से करते हैं, बस।
बड़ के बड़ लागे नहीं बड़ के लागे बीज।
दरिया नान्हा होयकर रामनाम गह चीज।।
प्यारा वचन है। बड़ा मधुसिक्त। कंठ अमृत से भर जाए ऐसा वचन है।
बड़ के बड़ लागे नहीं…
तुमने कभी बड़ में बड़ को लगते देखा? बड़ में तो बीज लगता है, फिर बीज से बड़ होता।
तो तुम अगर गुरु के पास गुरु होकर गए तो संग-साथ नहीं हो पाएगा। गुरु के पास तो बीज होकर गए तो लगोगे। बड़ी अदभुत बात है; बड़ के बड़ लागे नहीं बड़ के लागे बीज। गुरु के पास तो छोटे होकर जाना। निर-अहंकार शून्य भाव से जाना। बीज जैसे होकर जाना तो गुरु सब तुममें उंड़ेल देगा। लेकिन अगर तुम अकड़ कर गए, बड़े होकर गए, गुरु होकर गए, अपना ज्ञान लेकर गए, अपनी संपदा दिखाते हुए गए, अपनी अकड़ खोई नहीं तो चूक जाओगे।
बड़ के बड़ लागे नहीं बड़ के लागे बीज।
दरिया नान्हा होयकर रामनाम गह चीज।।
यह जो रामनाम की चीज है, यह जो बहुमूल्य सत्व है, यह जो रामनाम की सुरति है, अगर गुरु से लेनी हो तो बीज बन जाओ, छोटे हो जाओ; तुममें पोर देगा। फिर तुमसे भी वृक्ष उठेगा तुम भी बड़वृक्ष बनोगे। जो एक बार ठीक से सदशिष्य बन गया वह किसी दिन सदगुरु बनेगा। लेकिन जो सदशिष्य नहीं बना, जो शिष्य होते समय भी गुरुता का बोझ लिए रहा वह तो शिष्य ही नहीं बना; गुरु तो कैसे बन पाएगा?
माया-माया सब कहै चीन्हे नाहीं कोए।
जन दरिया निज नाम बिन सब ही माया होए।।
दरिया कहते हैं: बहुत लोग माया-माया कहते हैं। यह भी माया, वह भी माया, सब माया।
मगर दरिया कहते हैं: जन दरिया निज नाम बिन सब ही माया होए।
सिर्फ राम के नाम को छोड़ कर बाकी सब माया है।
इसलिए अलग-अलग गिनाने की कोई जरूरत नहीं है कि धन माया कि पद माया कि ईर्ष्या कि लोभ कि मोह, कुछ गिनाने की जरूरत नहीं। सिर्फ परमात्मा के अतिरिक्त सब माया है। तो अगर परमात्मा को पा लिया तो कुछ पाया। नहीं तो माया के जादू में भटके रहे।
प्रभो, तुम्हारा नाम बाती है
शरीर दीया है, वेदना तेल है
तीनों का कितना अच्छा मेल है!
शीतलता बढ़ती है, आंखें जब नम होती हैं
नाम जितना ही उजलता है
वेदना उतनी ही कम होती है
प्रभु तुम्हारा नाम बाती है
शरीर दीया है, वेदना तेल है
तीनों का कितना अच्छा मेल है!
वह जो प्रभु का स्मरण है, जैसे-जैसे बढ़ने लगेगा, वैसे-वैसे तुम्हारे जीवन का दुख कम होने लगेगा। इधर प्रभु की याद बढ़ी, उधर जीवन का दुख कम हुआ। इधर प्रभु की याद आई, उधर जीवन का दुख गया। इधर से प्रभु आया द्वार, प्रविष्ट हुआ, दूसरे द्वार से कब अंधेरा निकल जाता है–वैसा ही दुख, वेदना, संताप निकल जाता है।
शीतलता बढ़ती है, आंखें जब नम होती हैं
नाम जितना ही उजलता है
वेदना उतनी ही कम होती है
जिस दिन नाम पूरा उज्जवल होकर भीतर बैठ जाता है, जिस दिन सुरति पूरी हो जाती है, उसकी स्मृति पूरी हो जाती है, उसी दिन सब हो गया। उसी दिन सत्य हुआ। उसके पहले सब माया है।
है को संत राम अनुरागी जाकी सुरत साहब से लागी।
कहते हैं दरिया: वही है प्रभु का असली प्रेमी, जिसने अपनी सुरत को साहब से लगा दिया है। जिसने अपनी याद, जिसने अपनी स्मृति प्रभु से जोड़ दी।
कल मैं एक किताब देखता था। अमरीका के एक मनोवैज्ञानिक ने मनुष्यों के मन में कितने काम-विचार चलते हैं, उसकी बड़ी खोज-बीन की है बड़ा विश्लेषण किया है। और चकित करने वाली बात है। उसने लिखा है कि अठारह साल की उम्र में–हजारों युवकों का उसने अध्ययन किया, उनसे। पूछा, सब जांच-पड़ताल की। हर दो मिनट में एक बार आदमी कामवासना की याद करता है। हर दो मिनट में अठारह साल की उम्र में। छत्तीस साल की उम्र में हर चार मिनट में। इसी तरह पचास के करीब पहुंचते-पहुंचते हर छह मिनट में। सत्तर साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते हर आठ मिनट में, दस मिनट में कामवासना की याद करता है।
जरा जांचना अपने भीतर तो अभी तुम्हारी सुरति काम से लगी है। जब ऐसी ही याद राम की आने लगती है तो सुरति राम से लगी। काम में लगी सुरति राम में लग जाए तो क्रांति घट जाती है।
सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि वह राम की सुरति में जी रहा है। सुरति साहब से लागी। उसके पास बैठे-बैठे उसकी सुरति की तरंगें तुम्हारे हृदय को भी आंदोलित करेंगी। उसकी सुरति धीरे-धीरे तुम्हें भी संक्रामक हो जाएगी। यह संक्रामक बात है। यह छूत की बीमारी है। इसलिए सत्संग का पूरब में इतना मूल्य है। इसलिए सदियों से हमने सत्संग की इतनी महिमा गाई है और सदगुरु की इतनी महिमा गाई है। इस महिमा का कारण है, बड़ा कारण है।
तुमने देखा? एक स्त्री राह से निकली, एक सुंदर स्त्री राह से निकली, तत्क्षण तुम्हारी सुरति काम में लग जाती है। देखा तुमने यह। मगर इससे तुमने कुछ सीखा? खाक कुछ नहीं सीखा। एक सुंदर स्त्री राह से निकली, तत्क्षण तुम्हारी सुरति सौंदर्य में लग गई।
ऐसे ही तुम जब सदगुरु के पास बैठोगे, सदगुरु को निहारोगे तो बार-बार…बार-बार तुम्हारी सुरति राम में लगने लगेगी। और धीरे-धीरे जब राम में लगने लगेगी और रसमग्न होने लगोगे राम में डूब कर तो अपने आप काम में न लगेगी।
फिर तुम्हें स्वामी नारायण-संप्रदाय के गुरु की भांति चालीस साल एक स्त्रियों से बचने की जरूरत न रहेगी। स्त्री निकले कि पुरुष निकले, एक दफा सदगुरु का साथ हो गया और सदगुरु की तरंग तुम्हारे भीतर राम की स्मृति को जगा दी, जलने लगा वह दिया, फिर तो तुम जिसको देखोगे उसी के देख कर राम की स्मृति आएगी। स्त्री को देखोगे तो स्त्री का सौंदर्य तुम्हें परमात्मा के सौंदर्य की याद दिलाएगा। पुरुष को देखोगे तो पुरुष का बलिष्ठ शरीर, बल, शौर्य तुम्हें परमात्मा के बल की याद दिलाएगा। फूल देखोगे तो परमात्मा को खिला हुआ पाओगे। पक्षी गुनगुनाएंगे गीत तो तुम परमात्मा को गीत गाता पाओगे। झरनों में और सागर में और पहाड़ों में और रेत में, हर जगह तुम पाओगे। अनेक-अनेक रूपों में परमात्मा की याद छिपी पड़ी है। एक बार तुम्हारे भीतर सूत्र बैठ जाए, सब तरफ उसी के दर्शन होने शुरू हो जाते हैं। सारा संसार परमात्मा से भरा पड़ा है, ब्रह्म से भरपूर पड़ा है।
है को संत राम अनुरागी जाकी सुरत साहिब से लागी।
अरस-परस पिव के संग राती होए रही पतिबरता।।
और एक दफा यह बात लग जाए, एक बार यह सुरति जगने लगे, यह याद जगने लगे भीतर, जैसे अभी काम की याद जगती है, ऐसी राम की जगने लगे–अरस-परस पिव के संग राती। फिर तो बार-बार प्रभु सामने आने लगे स्मरण के, बार-बार पर्दे पर झलक मारने लगे। अरस-परस! फिर तो आमने-सामने मिलन होने लगता है, अरस-परस होने लगता है।
अरस-परस पिव में संग राती…
फिर तो उस प्यारे का रंग तुम्हें रंगने लगता है; फिर तो तुम डोलने लगते हो।
अरस-परस पिव के संग राती होए रही पतिबरता।
और तब वह घटना घटती है भक्ति की कि प्रभु के अतिरिक्त कोई याद नहीं आता, तब पतिव्रता। तब तुम पतिव्रत्य को उपलब्ध हो गए। अब एक ही मालिक रहा, एक ही पति रहा। अब परमात्मा ही पति रहा।
सुरति घनी होते-होते…घनी होते-होते एक दिन तुम्हारे भीतर उस एक में ही, बस एक में ही लौ लग जाती है। उठते-बैठते उसी की याद आती है, सोते-जागते उसी की याद आती है, सुख-दुख में उसी की याद आती है, हर पल उसी की याद आती है।
यह जिस मनोवैज्ञानिक ने खोज की है कि हर दो मिनट में अठारह साल का युवक एक बार कामवासना की बात को सोच लेता है, यह तो दो मिनट में सोचता है; जब राम की याद बैठनी शुरू होती है तो एक पल बिना उसकी याद के नहीं बीतता। उसकी धुन बजती ही रहती है। वह तो श्वास-प्रश्वास जैसा हो जाता है।
अरस-परस पिव के संग राती होए रही पतिबरता।
पैहम मुसीबतों से मिले तो करार लें
यादों के बुतकदों को जरा फिर सम्हाल लें
जरा फुरसत मिले संसार की झंझटों से, जरा बेचैनी कम हो।
पैहम मुसीबतों से मिले तो करार लें
तो जरा चैन हो।
यादों के बुतकदों को जरा फिर सम्हाल लें
तो फिर यादों के जो मंदिर हैं उनकी थोड़ी देखभाल कर ली जाए।
दिन थे फलक सिगाफ थे जब अपने कहकहे
फिर मिल सकें तो दिन वे कहीं से उधार लें
कभी तो तुम परमात्मा में थे। कभी! हरेक वहीं से आया है।
दिन थे फलक सिगाफ थे जब अपने कहकहे
कभी ऐसे भी दिन थे जब हमारे आनंद की गूंज आकाश तक उठती थी। ऐसे कहकहे उठते थे।
दिन थे फलक सिगाफ थे जब अपने कहकहे
फिर मिल सकें तो दिन वे कहीं से उधार लें
अब तो किसी सदगुरु के चरणों में बैठो तो वे दिन उधार मिल जाएं। तुम्हारे थे कभी, लेकिन चूक गए हो। चूकना पड़ा है। चूकना पड़ता ही है। अब तो फिर कोई उस याद को जगाए, उस सो गई याद को, उन खंडहरों को कोई फिर से सम्हाले।
यादों के बुतकदों को जरा फिर से सम्हाल लें
पैहम मुसीबतों से मिले तो करार लें
सदगुरु के पास बैठ कर तुम थोड़ी देर को संसार की झंझटों से मुक्त हो जाते हो। थोड़ी देर को संसार मिट जाता है। थोड़ी देर को सदगुरु की छाया में संसार विस्मरण हो जाता है। वही विस्मरण प्रभु का स्मरण बन जाता है।
हमने बसाईं बस्तियां तुमने उजाड़ दीं
कुछ पल तो इन खराबगाहों में गुजार लें
तुमने जो-जो बनाया है वह सब तो परमात्मा उजाड़ता जाता है। तुम्हारा बना हुआ बचता नहीं। मगर फिर भी मन है कि मन कहता है, कुछ पल तो इन खराबगाहो में गुजार लें। ये खंडहर अपने बनाए हुए ही हैं, कुछ पल तो इनमें गुजार लें। तुम्हारा मन यही कहे जाता है। इस मन से जरा सावधान रहना। पहले बनाने में लगा रहता है फिर जब बन गए भवन तो उनमें रहने लगता है। फिर जब भवन खंडहर हो गए तो भी मोह नहीं छूटता। खंडहरों से भी मोह नहीं छूटता। लौट-लौट कर…।
हमने बसाईं बस्तियां तुमने उजाड़ दीं
कुछ पल तो इन खराबगाहों में गुजार लें
साकी से गर नजर न मिले हम न जाम लें
और जब मिले तो दौड़ कर दीवाना वार लें
प्यारा वचन है।
साकी से गर नजर न मिले हम न जाम लें
यही दरिया का मतलब है: अरस-परस पिव के संग राती। परमात्मा आमने-सामने खड़ा हो तभी कुछ होगा। अरस-परस हो।
अरत-परत पिव के संग राती…
मूर्तियों से नहीं चलेगा काम। मूर्तियों से चलता तो मंदिरों में जाने से बात हो जाती। शास्त्रों से नहीं चलेगा काम। शब्द भी कागज पर खींची गई स्याही से बनाई गई मूर्तियां हैं। इनसे भी नहीं काम चलेगा। अरस-परस पिव के संग राती। यह तो जीता-जागता परमात्मा सामने खड़ा हो।
कहां खोजे जीते-जागते परमात्मा को? कहीं अगर किसी में उतरा हो तो उससे थोड़े से क्षण उधार ले लो। उसके पास थोड़े डूबो। पिव के संग राती।
साकी से गर नजर न मिले हम न जाम लें
परमात्मा से आंख से आंख मिले तभी जाम लेने का मजा है, नहीं तो सब जाम पानी ही समझना। वहां शराब नहीं। वहां मस्ती नहीं।
मंदिरों में जाओगे और खाली लौट आओगे। शास्त्रों में जाओगे और खाली लौट आओगे। वहां मस्ती नहीं पाओगे। वहां डूब नहीं सकोगे। कोई शास्त्रों में डूबा? किताबों में कोई डूबा?
साकी से गर नजर न मिले हम न जाम लें
और जब मिले तो दौड़ कर दीवाना वार लें
और जैसे ही परमात्मा से नजर मिल गई–अरस-परस पिव के संग राती। वैसे ही डूब गए उसके रंग में। और जब उससे आंख मिल जाती है। तो दौड़ कर आदमी जाम ले लेता है।
एक आग है कि दिल में सुलगती है हर घड़ी
चाहो तो उसको गीत-गजल में उतार लें
यह जो आग है अभी, तब गीत-गजल बनने लगती है। ऐसी ही गीत-गजल तो ये दरिया के शब्द हैं।
एक आग है कि दिल में सुलगती है हर घड़ी
चाहो तो उसको गीत-गजल में उतार लें
गम के लिए लिए पड़ी है अभी एक उम्र अश्क
आओ ये चंद लमहे तो हंस कर गुजार लें
गम को इतना मत पकड़ो। दुख को इतना मत जकड़ो। सींखचों को इस तरह मत अपना बनाओ। सदगुरु के पास चलो, कुछ लमहे ही सही! कुछ क्षण ही सही!
गम के लिए पड़ी है अभी एक उम्र अश्क
आओ ये चंद लमहे तो हंस कर गुजार लें
अगर कहीं कोई मिल जाए जीवन का स्रोत तो उसके पास बैठ कर कुछ लमहे, कुछ क्षण हंस कर गुजार लेना। अगर एक बार हंसी का राज सीख गए तो हंसी फिर जाती नहीं। फिर तुम जहां भी रहोगे, हंसते रहोगे। फिर तुम जहां भी रहोगे, वहां आनंद का झरना बहता रहता है।
यही अर्थ है: अरस-परस पिव के संग राती। डूब गए उसी के रंग में। हो गए उसी के रंग। पतंगा डूब गया अग्नि के रंग में। हो गया अग्नि का रंग। ये गैरिक वस्त्र उसी अग्नि के रंग हैं।
…होए रही पतिबरता।
दुनिया भाव कछू नहीं समझे…
अब कुछ समझ में नहीं आता कि दुनिया क्या कहती है। अब दुनिया से कुछ प्रयोजन भी नहीं है।
…ज्यों समुंद समानी सरिता।
जैसे सागर में उतर गई नदी को अब क्या फिकर किनारों की और घाटों की? चाहे घाट बनारस के हों कि प्रयाग के। फिर क्या मतलब उन सब लोगों से, जो राह में मिले थे और जिन्होंने तरह-तरह की बातें कहीं थीं? किसी ने अच्छा कहा, किसी ने बुरा कहा, किसी ने दुर्जन, सज्जन कहा।
दुनिया भाव कछू नहिं समझें समुंद समानी सरिता।
मीन जायकर समुंद समानी जहं देखे तहं पानी।
और जैसे मछली तड़फ-तड़फ कर किनारे से वापस कूद गई सागर में, अब तो जहां देखती है वहीं सागर है। ऐसी ही दशा भक्त की है। ऐसी ही दशा पतिव्रता की है। अब एक ही दिखाई पड़ता है। अब उस एक के अतिरिक्त कोई भी नहीं दिखाई पड़ता।
कहते हैं, मीरा जब वृंदावन गई तो वहां वृंदावन में जो कृष्ण का बड़ा मंदिर था, उसका पुजारी किसी स्त्री को भीतर प्रवेश नहीं करने देता था। रहा होगा स्वामी नारायण संप्रदाय के गुरु जैसा। वर्षों से कोई स्त्री प्रविष्ट न हुई थी। मीरा को तो कौन रोके? मीरा तो नाचती हुई मंदिर में प्रविष्ट हो गई। उसके नाच की मस्ती ऐसी थी कि द्वारपाल भी अवाक खड़े रह गए। रोकना भी चाहा तो न रोक सके। यह बात ही कुछ और थी। यह कोई स्त्री थोड़े ही थी। यहां कहां स्त्री और पुरुष! वे ऐसे मस्त हो गए उसकी मस्ती में। उसके वीणा के स्वर उन्हें डुबा लिए।
भीड़ खड़ी थी। अनेकों के मन में खयाल उठा कि यह झंझट हुई जा रही है। वह जो पुरोहित है, बहुत नाराज हो जाएगा। मगर मीरा तो चली ही गई। मीरा तो भीतर पहुंच गई जहां कोई स्त्री वर्षों से नहीं गई थी। वहां जाकर वह नाचने लगी कृष्ण की मूर्ति के सामने। प्रधान परोहित बहुत नाराज हुआ। आया। उसने कहा: तुझे मालूम नहीं है स्त्री, कि इस कृष्ण के मंदिर में किसी स्त्री के लिए कोई प्रवेश नहीं है? यह तूने जघन्य पाप किया है।
पता है मीरा ने क्या कहा? मीरा खूब हंसी और उसने कहा: मैं तो सोचती थी कृष्ण के अतिरिक्त कोई पुरुष ही नहीं है। तो एक आप भी पुरुष हैं? जो अभी तक पतिव्रता नहीं हुए!
पानी पड़ गया होगा उस पुरोहित पर। खूब बात कही। जो कहनी थी वही बात कही। और फिर मीरा नाचने लगी। फिर किसी की हिम्मत न पड़ी उससे कुछ कहने की। उसने यह कहा: कृष्ण के अतिरिक्त और कौन पुरुष है, जरा मैं भी देखूं। आप भी पुरुष हैं? तुम्हारा यह भ्रम अभी मिटा नहीं? हम सब उसी एक प्यारे के प्रेमी हैं।
मीन जायकर समुंद समानी जहं देखे तहं पानी।
अब तो एक ही दिखाई पड़ता है सब तरफ। एक ही पुरुष दिखाई पड़ता है। एक ही अविनाशी।
काल-कीर का जाल न पहुंचे निर्भय ठौर लुभानी।
और अब समय का और मृत्यु का जाल इस मछली को पकड़ नहीं सकता।
काल-कीर का जाल न पहुंचे निर्भय ठौर लुभानी।
अब तो आ गई अभय पद में। अब कहां, अब कैसी मृत्यु! परम से मिलन हो गया। अमृत में डुबकी लग गई।
बावन चंदन भंवरा पहुंचा जहं बैठे तहं गंधा।
खोद लेना सोने के अक्षरों में अपने हृदय पर ये शब्द बावन चंदन भंवरा पहुंचा…चंदन के बगीचे में आ गया। चंदन के वन में आ गया भंवरा।
बावन चंदन भंवरा पहुंचा जहं बैठे तहं गंधा।
अब तो जहां बैठ जाता है वहीं गंध है। इधर बैठे इधर, उधर बैठे उधर, इस वृक्ष पर तो, उस वृक्ष पर तो। यह चंदन का वन है। भंवरा बड़ा चकराया होगा। क्योंकि भंवरा तो बेचारा खोजता-फिरता है। जहां गंध होती है वहां जाता है। इधर बैठा, गंध पी ली। गंध समाप्त हो गई, दूसरे फूल पर गया। कई फूलों में गंध होती ही नहीं, सिर्फ धोखा होता है। साध स्वांग अस आंतरा। कई फूल तो सिर्फ कागजी होते हैं। स्वांग भर होता है। फूल में कोई गंध नहीं होती। मौसमी फूल होते हैं। नाम मात्र को फूल होते हैं। कहने भर को फूल होते हैं।
तो भंवरे को खोजना पड़ता है। इस फूल जाता, उस फूल जाता। कभी लाख में खोजते को एक मिलता है, जिसकी गंध में डूबता है। मगर वह भी चुक जाती है। थोड़ी बहुत देर में वह गंध भी उड़ जाती है। फिर खोज शुरू हो जाती है।
संसार में आदमी ऐसा ही खोजता है भंवरे की तरह। एक स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है। मगर कितनी देर सुंदर रहेगी? अगर मिल गई तो जल्दी ही साधारण हो जाएगी। दो-चार दिन सौंदर्य चलता है। चमड़ी कितने दिन आकर्षण में रखती है? सुंदर कार दिखाई पड़ गई, खरीद लिया। कितनी देर सुंदर रहेगी? दस-पांच दिन। खड़ी-खड़ी पोर्च में साधारण हो जाती है। तुमने कितनी ही चीजों पर तो बैठ कर देख लिया। गंध कितनी देर टिकती है? तुम बैठे नहीं कि गंध गई नहीं।
इस संसार में तो हम भंवरे की तरह हैं। और यहां हजार फूलों में कभी कोई एकाध फूल है जिसमें थोड़ी-बहुत गंध होती है। वह भी क्षणभंगुर होती है। वह भी टिकती नहीं। वह भी दूर से बड़ी लुभावनी, पास आने पर बिलकुल समाप्त हो जाती है। बड़ी मृग-तृष्णा जैसी।
बावन चंदन भंवरा पहुंचा…
दरिया कहते हैं: जब गुरु के द्वार से प्रवेश करके कोई परमात्मा के सागर में उतर जाता है तो ऐसी घटना घटती है जैसे भंवरा चंदन के वन में पहुंच गया।
बावन चंदन भंवरा पहुंचा जहं बैठे तहं गंधा।
बड़ी बेबूझ बात। गंध ही गंध है। गंध का सागर है। जहां बैठो तहां है। अब कहीं चुनने की जरूरत नहीं है। जहां हो वहीं। यहां बैठो तो, वहां बैठो तो। और एक ही गंध है। और एकरस। जहं बैठे तहं गंधा।
उड़ना छोड़िके थिर हो बैठा…
अब क्या फायदा उड़ने से? उड़ता था संसार में क्योंकि गंध क्षणभंगुर थी। मिली-मिली, गई। सुख क्षणभंगुर था। आया नहीं कि गया। और हर सुख के पीछे दुख छिपा था। और हर फूल के पीछे कांटे छिपे थे।
उड़ना छोड़िके थिर हो बैठा…
अब क्या चलना, अब क्या फिरना! अब कहां जाना, अब कहां आना!
इस स्थिरता का नाम समाधि है। इसके कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा। जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई, स्थिरधी कहा, जिसकी धी स्थिर हो गई, निष्कंप हो गई। मगर यह निष्कंप होती तभी है–बावन चंदन भंवरा पहुंचा…जब भंवरा चंदन के वन में पहुंच जाता है। उसके पहले नहीं होती।
उड़ना छोड़िके थिर हो बैठा निस दिन करत अनंदा।
अब तो दिन हो कि रात, आनंद ही आनंद है। जागे कि सोए, गंध ही गंध में डूबा रहता है।
जन दरिया इक रामभजन कर भरम-वासना खोई।
ऐसी ही घटना घट जाती है राम-भजन में डूबने वाले को। धीरे-धीर-धीरे द्वार खुलता है। चंदन का वन प्रकट हो जाता है।
जन दरिया इक रामभजन कर भरम-वासना खोई।
समझना इस सूत्र को। जिसने जाना है वह सदा यही कहेगा, राम को पहले बुला लो, भरम-वासना खो जाएगी। जिसने नहीं जाना है वह कहेगा, भरम-वासना पहले खोओ तब राम आएगा। इसे कसौटी समझो। कसौटी: साध स्वांग अस आंतरा जेता झूठ अरु सांच। यह अंतर इतना है जितना झूठ और सच का; जितना पृथ्वी और आकाश का।
जो तुमसे कहे, पहले गलत को छोड़ दो फिर ठीक मिलेगा; गलत को छोड़ोगे तो ही ठीक मिलेगा, समझ लेना कि उसे अभी कुछ भी पता नहीं है। जो तुमसे कहे, ठीक की तरफ लगो, गलत से क्या उलझते हो? गलत से उलझ कर क्या मिलेगा? गलत को पाकर भी कुछ नहीं मिलता, गलत से उलझ कर भी कुछ नहीं मिलता। गलत में कुछ है ही नहीं तो मिलेगा कैसे?
धन को इकट्ठा कर लो तो कुछ नहीं मिलता। यह तो तुमसे कहा, तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने। तुम धन को छोड़ भी दो तो भी कुछ नहीं मिलता। धन में कुछ है ही नहीं। मिलेगा कैसे? अब यह बड़े मजे की बात है कि जो लोग कहते हैं धन में कुछ नहीं मिलता, वे भी कहते हैं कि धन छोड़ो तो कुछ मिलता है। तब तो फिर धन में कुछ मिलता है। तब तो बात…धन छोड़ने से मिलता है तो भी मिलता तो धन से ही है। तो जिनके पास धन नहीं है। उनको मिलेगा या नहीं? उनके पास तो छोड़ने को कुछ नहीं है।
कबीर को मिला कि नहीं? महावीर को मिल गया धन छोड़ने से। और बुद्ध को मिल गया राज्य छोड़ने से। कबीर को कैसे मिला? दरिया को कैसे मिला? इस गरीब दरिया को कैसे मिला? ये दरिया तो धुनिया थे। लेकिन दरिया ने कहा है: जो मैं धुनिया तो भी राम तुम्हारा। माना कि धुनिया हूं, इससे क्या फर्क पड़ता है? हूं तो तुम्हारा ही। इसमें तो कोई कमी नहीं। बुद्ध होंगे राजा के बेटे होंगे, रहे होंगे। मैं धुनिया का बेटा हूं। जो मैं धुनिया तो भी राम तुम्हारा। इससे क्या फर्क पड़ता है? हूं तो तुम्हारा ही। गरीब धुनिया सही!
धन के होने से भी नहीं मिलता, धन के छोड़ने से भी नहीं मिलता। हां, जब मिल जाता है तो धन पर पकड़ छूट जाती है। और जब धन पर पकड़ छूट जाती है तो दोनों पकड़ छूट जाती हैं–भोग की भी और त्याग की भी। दोनों पकड़ हैं। और तब यह भी अकड़ नहीं रह जाती कि मेरे पास धन है और यह भी अकड़ नहीं रह जाती कि मैंने लाखों पर लात मार दी। ये दोनों अकड़ धन की ही अकड़ हैं।
जन दरिया इक रामभजन कर भरम-वासना खोई।
सब खो गया। एक राम की सुरति…सुरति गहरी होती गई, भजन बन गया। राम ही श्वास-श्वास में समा गया। अपने आप भ्रम-वासना का जगत शांत होता गया, शून्य हो गया।
पारस-परस भया लोह कंचन बहुर न लोहा होई।
और एक बार पारस के परस से सोना हो जाए लोहा, तो फिर कोई उपाय नहीं उसे लोहा बनाने का। जो पाया जाता है वह कभी फिर खोता नहीं। ज्ञान के इस अभियान में तुम जहां पहुंच जाते हो वहां से नीचे नहीं गिर सकते।
पारस-परस भया लोह कंचन बहुर न लोहा होई।
बस एक बार यह क्रांति घट जाए, तुम किसी अग्नि के पास आ जाओ, तुम किसी गुरु नाम की महामृत्यु के पास आ जाओ। एक बार तुम अपने लोहे होने का मोह छोड़ दो और एक बार तुम मिटने को तैयार हो जाओ–
पारस-परस भया लोह कंचन बहुर न लोहा होइ।
पारस परसा जानिए जो पलटे अंग-अंग।
अंग-अंग पलटे नहीं, तो है झूठा संग।
आज इतना ही।