UPANISHAD
Karuna Aur Kranti 04
Fourth Discourse from the series of 6 discourses – Karuna Aur Kranti by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक अजायबघर को देखने गया था। वहां बहुत से पशुओं को बंद देखा। जंगल में उन्हीं पशुओं को मुक्त भी देखा है। पशु वही थे, लेकिन जंगल में मालूम होता है, उनके पास एक आत्मा थी। अजायबघर में उनके पास वह आत्मा नहीं है। जंगल में उन्हें प्रफुल्ल देखा था। उनकी जिंदगी एक मुक्त गीत थी। अजायबघर में भी वे थे, लेकिन ऐसा लगा कि जिंदगी तो खो गई है और वे मर भी नहीं गए हैं, दोनों के बीच में अटक गए हैं। जिंदगी खो गई है और मौत नहीं आई है। उन पशुओं की आंखों में बड़ी उदासी, बेचैनी और चिंता भी दिखाई पड़ी। एक शेर को देखा अपने कटघरे में एक सींकचे से दूसरे सींकचे तक चक्कर लगाते हुए। सैकड़ों मीलों के विस्तार में दौड़ता रहा होगा। वृक्षों में, पहाड़ों में, नदियों पर छलांग लगाता रहा होगा। दूर-दूर तक कोई सीमा न रही होगी उसके चरण-चिह्नों की। वह एक छोटे से कटघरे में एक कोने से दूसरे कोने तक, सींकचों की एक कतार से दूसरी कतार तक दिन भर घूमता रहता है। अगर वह शेर विक्षिप्त हो गया हो, तो आश्र्चर्य नहीं है।
उस अजायबघर से लौटते वक्त मुझे ऐसा लगने लगा कि कुछ और खोज-बीन करूं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आदमी समाज बनाने की जगह अजायबघर बना लिया है? और जिसे हम समाज कहते हैं, वह समाज न हो, एक जू, एक अजायबघर हो। और फिर जितनी इस संबंध में खोज-बीन की, उतनी यह धारणा मेरी मजबूत और पक्की होती चली गई। जंगल में जानवर शायद ही बीमार पड़ते हों। चोट खा जाएं, बात अलग है। चोट का मतलब बीमारी बाहर से आ जाए, बात अलग, लेकिन भीतर से शायद ही बीमारी आती हो। लेकिन अजायबघर में जानवरों को वे ही बीमारियां पकड़ जाती हैं, जो उस अजायबघर को बनाने वाले मालिकों की बीमारियां हैं!
जंगलों में बंदरों की हजारों पीढ़ियों में शायद ही किसी बंदर को अल्सर हुआ हो, लेकिन अजायबघर में बंदरों को अल्सर हो जाता है! अजायबघर के जानवर को वे ही बीमारियां पकड़ जाती हैं, जो आदमी को पकड़ती हैं! फिर तो मैंने और पता लगाया, तो बहुत हैरानी में पड़ गया। जंगल के जानवर को, जिसको हम मानसिक विकृतियां कहें, वे शायद ही कभी दिखाई पड़ती हैं। लेकिन अजायबघर में आने पर वे ही मानसिक विकृतियां उसे पकड़ लेती हैं, जो आदमी को पकड़ती हैं! जंगल में जानवर को पागल होते शायद ही कभी देखा गया है, लेकिन अजायबघर में जानवर पागल हो जाते हैं!
और पागलपन जो है, बुनियादी रूप से आदमी की ईजाद है। वह आदमी के विशेष लक्षणों में से एक है। यह आपने कभी न सुना होगा कि जंगल में किसी पशु ने कभी आत्महत्या कर ली हो, सुसाइड कर ली हो। लेकिन अजायबघर में जानवरों ने सुसाइड करने की, आत्महत्या करने की भी कोशिश की है! जंगल का जानवर मॅस्टरबेशन करते हुए नहीं पकड़ा जाएगा, हस्तमैथुन करते नहीं पकड़ा जाएगा, लेकिन अजायबघर का जानवर हस्तमैथुन करने लगता है! जंगली जानवर में होमोसेक्सुअलिटी, एक ही लिंग के साथ कोई यौन-संबंध खोजे से नहीं मिलते, लेकिन अजायबघर के जानवरों में होमोसेक्सुअलिटी पैदा हो जाती है। तब तो थोड़ा विचारणीय है कि आदमी ने जो समाज बनाया है, वह समाज है या एक अजायबघर? क्योंकि अजायबघर में जानवर में जो-जो चीजें पैदा हो जाती हैं, वह आदमी के समाज में सब पैदा हो गई हैं।
मेरी प्रतीति ऐसी है कि समाज बनाने की जगह हम अजायबघर बना लिए हैं। और मनुष्य के दुख की गहराइयों में एक गहराई का दुख यह भी है कि उसकी सारी स्वतंत्रता खो गई है, उसकी सारी सहजता खो गई है, और वह कटघरों में बंद हो गया है।
आज तीसरे सूत्र पर यह थोड़ी मैं बात करना चाहूंगा।
लेकिन हम कहेंगे, हम कहां बंद हैं? हम तो मुक्त हैं। अजायबघर का पक्षी-पशु तो बंद हैं, हम कहां बंद हैं? लेकिन क्या कभी आपने अनुभव किया है कि आप मुक्त हैं और बंद नहीं हैं? निश्र्चित ही लोहे के सींकचे नहीं हैं, लेकिन लोहे के सींकचे तोड़े जा सकते हैं। ऐसे सींकचे होते हैं, जो दिखाई नहीं पड़ते, तोड़े भी नहीं जा सकते, और हैं। और लोहे के सींकचों से ज्यादा मजबूत हैं।
एक जेलखाना हम बनाते हैं। तो चारों तरफ बड़ी दीवाल लगा देते हैं और बाहर संतरी बिठा देते हैं, पहरेदार बिठा देते हैं, बंदूकें लगा देते हैं। क्या कभी आपने खयाल किया है कि राष्ट्र, नेशन एक बड़ा जेलखाना है, जिसके चारों तरफ संतरियों की कतार लगी हुई है? और आप अगर राज्य की आज्ञा के बिना देश की सीमा पार करना चाहें, तो आप नहीं कर सकते हैं। फौरन अपराधी हो जाएंगे। लेकिन राष्ट्र बड़ी चीज है, और सीमाएं बड़ी दूर हैं, इसलिए दिखाई नहीं पड़ती हैं। जेलखाना बहुत बड़ा है और हमारी आंखों की पहुंच बहुत छोटी है। लेकिन जेलखाना वहां है, वहां संतरी खड़े हुए हैं।
जब तक दुनिया में राष्ट्र हैं, तब तक आदमी का समाज नहीं बन सकता, अजायबघर ही बनेगा। लेकिन राष्ट्र तो बड़ी है बात, बड़ा जेलखाना है, फिर बड़े जेलखाने के भीतर हमने और छोटे जेलखाने बनाए हैं! राष्ट्रों के भीतर छोटे-छोटे और राष्ट्र हैं। अभी हिंदुस्तान एक जेलखाना है, और चीन एक, और पाकिस्तान एक। इस हिंदुस्तान के बड़े जेलखाने के भीतर फिर छोटे जेलखाने हैं–मुसलमान का एक जेलखाना है, हिंदू का एक है, जैन का तीसरा है, पारसी का चौथा है, सिक्ख का पांचवां है! फिर उन्होंने अपनी सीमाएं बांध रखी हैं, और उनके भी सींकचे हैं, उनको भी पार मत करना, अन्यथा मुसीबत में पड़ जाएंगे! वे दिखाई नहीं पड़ते हैं सींकचे। एक हिंदू और मुसलमान जब मिलते हैं, तो दोनों के बीच में सींकचे होते हैं या नहीं होते हैं? दिखाई तो नहीं पड़ते हैं, लेकिन होते हैं! सख्त दीवाल होती है, जिसको पार करना मुश्किल है। वह हमें घेरे हुए है। और ऐसा नहीं है कि मुसलमान या हिंदू के बीच फिर कोई और सींकचे नहीं हैं।
मैं अभी एक गांव में था कश्मीर के, और उस गांव में तो कोई हिंदू नहीं था, मुसलमान ही मुसलमान थे। तो मेरी सेवा-टहल के लिए जो आदमी था, उससे मैंने पूछा कि तुम मुसलमान हो? उसने कहा: मैं मुसलमान नहीं हूं। मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा: तुम कौन हो? उसने कहा: मैं सुन्नी हूं, मैं मुसलमान नहीं हूं। मुसलमान शिया हैं। उस गांव में शिया और सुन्नियों में झगड़ा है। तो सुन्नी कहता है, मैं नहीं, मुसलमान तो वे शिया हैं।
उस गांव में उतना ही तनाव है जितना हिंदू-मुसलमान में होता है, उतना ही शिया-सुन्नी में है। उनके बीच भी एक दीवाल खड़ी है। हिंदू के बीच ब्राह्मण हैं और शूद्र हैं, उनके बीच बड़ी दीवाल खड़ी है। और ऐसा नहीं है कि शूद्र के बीच आपस में दीवालें नहीं हैं; चमार और भंगी के बीच उतनी ही बड़ी दीवाल है, जितनी किसी के बीच हो सकती है! ऐसा हमने कटघरे के भीतर कटघरा, कटघरे के भीतर कटघरा है।
वे जादू के डिब्बे देखे हैं न, डिब्बे के भीतर डिब्बा, डिब्बे के भीतर डिब्बा, डिब्बे के भीतर डिब्बा! वे जो अजायबघर में जानवर बंद हैं, उसका तो एक ही कटघरा है। आदमी जिस अजायबघर में बंद है, उसमें कटघरों के भीतर कटघरे हैं। और कटघरे बढ़ते ही चले जाते हैं। अगर हम अपने सारे कटघरों की कतार देखें, तो हम पागल हो जाएंगे। अगर हमें खयाल भी आ जाए कि इतने कटघरों में मैं बंद हूं, तो सिर फूट जाएगा। और यह जो आज आदमी इतना विक्षिप्त हुआ जा रहा है, उसका कारण यही है कि उसे सब कटघरे साफ-साफ दिखाई पड़ने लगे हैं। एक-एक कटघरा साफ-साफ दिखाई पड़ता है।
इन सारे कटघरों का आधार क्या है? इस गुलामी का आधार क्या है? यह परतंत्रता जो हमें सींकचों में बंद किए हुए हैं, इसका आधार क्या है? कौन सी मजबूरी है, जो आदमी को सींकचों के भीतर खुद ही बंद होने को कहती है कि बंद हो जाओ? शायद खयाल में भी नहीं आया होगा, लेकिन खयाल में आना चाहिए।
हमारे सारे कटघरों के आधार में हमारा परिवार है, जिसको हम फैमिली कहते हैं। वह हमारा बुनियादी कटघरा है। लेकिन परिवार की बड़ी प्रशंसा की जाती है। कहा जाता है कि परिवार तो स्वर्ग है, परिवार तो बड़ा पवित्र है। परिवार तो हमारी संस्कृति का केंद्र है, सारी मनुष्य की संस्कृति का!
और मैं आपसे कहना चाहता हूं: परिवार हमारी सारी विकृति का केंद्र है, संस्कृति का नहीं। और परिवार जब तक है, तब तक संस्कृति पैदा ही नहीं होगी। क्योंकि परिवार हमारा पहला कटघरा है, जो हमें दूसरों से तोड़ता है। आपका परिवार और मेरा परिवार एक-दूसरे को तोड़ रहा है। जब तक परिवार है, तब तक मनुष्य-जाति कटघरों से मुक्त नहीं हो सकती। वह जो फैमिली है, जब तक वह है।
परिवार हमारी गुलामी की आधारशिला है!
लेकिन हम प्रत्येक बच्चे को परिवार का गौरव और अहंकार सिखाते हैं। हम उनसे कहते हैं कि तू खास परिवार का है। अपने परिवार की इज्जत रखना। अपने वंश की इज्जत रखना। अपने बापदादों की इज्जत रखना। हम उसे सारी मनुष्य-जाति से तोड़ कर अलग कर रहे हैं। हम उससे यह नहीं कह रहे हैं कि यह सारी मनुष्य-जाति, यह सब फैलाव तेरा परिवार है। हम उससे कह रहे हैं, ये इने-गिने दस-पांच लोग, ये तेर o परिवार हैं! ये तेरे पिता हैं, ये तेरी मां हैं, ये तेरे भाई हैं, ये तेरी बहिन हैं। यह तेरा परिवार है। इसके लिए तू जीना और मरना। इसकी इज्जत की फिकर करना। इसके आदर्शों का खयाल रखना। इसकी नीति, इसका इतिहास, इसकी परंपरा, इस सबके गौरव को तू बचाना! हम बचपन से उसमें यह जहर डाल रहे हैं। क्या हमें पता है कि हम उसे मनुष्य-जाति के बड़े परिवार से तोड़ रहे हैं?
छोटे परिवारों की शिक्षा बड़े परिवारों से तोड़ने वाला परिणाम लाएगी ही। हम उसे बांध रहे हैं एक बहुत छोटी इकाई से, और उस इकाई से बंध जाने की वजह से वह कभी भी मुक्ति अनुभव नहीं करेगा। फिर बड़ी इकाइयां भी आएंगी–परिवार के साथ फिर उसकी जाति है, फिर परिवार और जाति के साथ उसका समाज है, और समाज और जाति के साथ राष्ट्र है। और फिर इकाइयों पर इकाइयां बैठती चली जाएंगी, लेकिन पहली इकाई परिवार की है।
परिवार के कारण संस्कृति निर्मित नहीं हो पाई है।
लेकिन हम समझते हैं, वह हमारा यूनिट है, वह हमारी इकाई है, परिवार है तो सब है। और परिवार ने किस-किस तरह की बीमारियां पैदा की हैं, वह हमें खयाल में भी नहीं है। उन पर थोड़ी बात मैं करना चाहूंगा। क्योंकि वह कटघरा, वह इमप्रिजनमेंट पहला है। अगर वह टूट जाए, तो बाकी सब कटघरे टूट सकते हैं, क्योंकि वे उसी से पैदा होते हैं।
परिवार सिखाता है धर्म, परिवार सिखाता है जाति, परिवार सिखाता है राष्ट्र! परिवार से एक दफा आदमी बंध गया, तो उस परिवार की जाति से बंध जाता है। जाति से बंधता है, तो धर्म से बंध जाता है। धर्म से बंधता है, तो राष्ट्र से बंध जाता है। और सारी बीमारियां हजारों साल की परिवार दान में दे जाता है।
हर परिवार अपने बेटे को हजारों-लाखों साल की सारी धूल, सारी बीमारी, सारे रोग वसीयत में दे जाता है। लेकिन उसे हम शिक्षा कहते हैं। उसे हम कहते हैं कि मां-बाप अपने बेटे को शिक्षित कर रहे हैं। मां-बाप अपने बेटे पर अतीत का बोझ रख रहे हैं। शिक्षा अतीत का बोझ नहीं होगी, शिक्षा सदा भविष्य की मुक्ति होगी, शिक्षा सदा भविष्य की तरफ उन्मुख करेगी। लेकिन परिवार और उससे बंधी हुई शिक्षा अतीत की तरफ उन्मुख करती है, पीछे की तरफ। क्योंकि भविष्य–भविष्य तो परिवार का है नहीं।
भविष्य तो व्यक्ति का है, परिवार का तो अतीत है।
ध्यान रहे, परिवार का कोई फ्यूचर नहीं है, परिवार का कोई भविष्य नहीं है। परिवार की तो सब-कुछ संपदा अतीत में है, मृत अतीत में। और व्यक्ति का सब-कुछ भविष्य में है, अजन्मे भविष्य में। अजन्मे भविष्य के व्यक्ति को हम परिवार के नाम पर मर गई सारी परंपरा और रूढ़ियों को थोप देते हैं। वह व्यक्ति वहीं जकड़ जाता है, बंद हो जाता है। वह भी अतीत-उन्मुख हो जाता है। वह भी भविष्य-उन्मुख नहीं रह जाता है।
इसलिए मैं कहूंगा कि वह मां सच में अपने बेटे को प्यार करती है, जो उसे परिवार से नहीं बांधती और अतीत से नहीं बांधती और भविष्य के लिए एक मुक्त मनुष्य बनाती है। वह बाप अपने बेटे को प्यार करता है, जो प्यार तो करता है, लेकिन अपनी बीमारियां, अपने विचार, अपने सिद्धांत, अपना धर्म, अपनी जाति बच्चे को दे नहीं जाता। और जो बाप अपने बेटे को अपना धर्म, अपनी जाति, अपने परिवार की सब परंपराएं दे जाता है, वह अपने बेटे का निश्र्चित दुश्मन है। उससे बड़ा कोई दुश्मन नहीं है। क्योंकि वह बेटे को पीछे से बांध जाता है।
लेकिन मुसलमान बाप अपने बेटे को मुसलमान बना जाता है, हिंदू बाप अपने बेटे को हिंदू बना जाता है सख्ती से, मजबूती से। भूल-चूक न हो जाए, इसलिए बहुत जल्दी करते हैं मां-बाप कि लड़के में बुद्धि न आ जाए, लड़की में बुद्धि न आ जाए। बुद्धि के आने के पहले उन्हें बांध दो, क्योंकि बुद्धि आ जाने पर बगावत भी हो सकती है, विद्रोह भी हो सकता है। इसलिए मां-बाप बड़े उत्सुक होते हैं कि बचपन से जल्दी बच्चों को सब सिखा दो। इसलिए हम सब बच्चों के नाम अलग रखते हैं, ताकि उनकी आइडेंटिटी, उनका तादात्म्य अलग रहे।
एक मुसलमान के बच्चे का नाम देख कर पहचाना जा सके कि वह मुसलमान है। एक हिंदू के बच्चे का नाम देख कर पहचाना जा सके कि वह हिंदू है। कपड़े देख कर पहचाना जा सके कि यह आदमी हिंदू है कि मुसलमान है। इसका रंग-ढंग सब देख कर पहचाना जा सके। बच्चे को हम ऐसा ढालते हैं कि वह इस दुनिया में एक मनुष्य की तरह नहीं, एक बंधी हुई इकाई की तरह पहचाना जाए! इसलिए हम ऐसे नाम रखते हैं।
अभी मेरे एक मित्र ने मुझसे पूछा–उनका बेटा पैदा हुआ है–कि इसका क्या नाम रखें? मैंने कहा: एक्स वाय जेड कुछ भी रख सकते हैं। लेकिन उन्होंने कहा: एक्स वाय जेड बहुत बुरा मालूम पड़ेगा। तो मैंने कहा: नंबर एक, नंबर दो, नंबर तीन ऐसा कुछ रख लें। उन्होंने कहा: यह बड़ा अजीब सा लगेगा। लोग क्या कहेंगे? आप कुछ ऐसा नाम बताएं, जो नाम जैसा लगता हो। तो मैंने कहा: इसका नाम अलबर्ट कृष्ण अली रख लें। तो उन्होंने कहा: इसमें बड़ी मुश्किल होगी। लोग समझ न पाएंगे कि यह हिंदू है, कि मुसलमान है, कि ईसाई है, कौन है? अलबर्ट कृष्ण अली! इसमें बड़ी मुश्किल होगी।
मैंने कहा: मैं चाहता हूं कि मुश्किल हो। इसे मत जोड़ें परिवार से, इसे मत जोड़ें जाति से, मत जोड़ें राष्ट्र से।
लेकिन मां-बाप बहुत उत्सुक हैं इसे जोड़ देने को। मां-बाप बहुत उत्सुक हैं कि यह बेटा उसी श्रृंखला का हिस्सा हो जाए, जिसके वे हिस्से हैं। लेकिन वे सारी श्रृंखलाएं, बीमारी और महारोग सिद्ध हुई हैं, इसके लिए मां-बाप बहुत चिंतित नहीं हैं। वे बेटे को श्रृंखला का एक हिस्सा बनाना चाहते हैं। उस श्रृंखला से मुक्त एक मनुष्य न बन जाए, अपनी हैसियत से एक इकाई न बन जाए, इसलिए वे उसे किसी परंपरा, किसी धारा का हिस्सा बनाना चाहते हैं। वह व्यक्ति न बन जाए।
परिवार किसी को व्यक्ति नहीं बनने देता है।
और जब तक इस पृथ्वी पर व्यक्ति पैदा नहीं होते, तब तक स्वतंत्रता पैदा नहीं हो सकती है।
व्यक्ति होना ही गहरी से गहरी स्वतंत्रता है।
और जो व्यक्ति व्यक्ति नहीं है, किसी बड़े परिवार, जाति, कोई कुल, किसी परंपरा का एक हिस्सा मात्र है–वह एक बड़ी मशीन का पुर्जा है, इससे ज्यादा नहीं है। और इसलिए बड़ी सुविधा होती है लेबल लगाने में।
अभी हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए, तो पड़ोस के आदमी ने, जिसने आपका कभी कुछ नहीं बिगाड़ा, आप उसकी छाती में छुरा भोंक सकते हैं, क्योंकि वह मुसलमान है! उसने आपका कभी कुछ नहीं बिगाड़ा, उसने कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, लेकिन वह मुसलमान है, यह काफी है। अब बड़ी हैरानी की बात है। अगर कलकत्ते में एक मुसलमान किसी हिंदू को छुरा भोंक दे, तो बंबई में जवाब दिया जा सकता है! उसका एक हिंदू एक मुसलमान को छुरा भोंक कर जवाब दे सकता है! लेकिन क्या यह कोई जवाब हुआ?
मेरे मित्र परसों रात मुझे एक कहानी सुना रहे थे। वह कह रहे थे कि एक पठान के घर में एक आदमी मेहमान हुआ। उस पठान के घर में मेहमान हुआ तो उस पठान ने बड़ा आतिथ्य दिखलाया। और पठान वैसे ही बहुत अतिथि-प्रेमी होते हैं। लेकिन उस गरीब के पास कुछ भी न था, तो उसने कहा कि आप रुकें, मैं अभी बाजार से सामान लेकर आता हूं। वह अपने सब बर्तन-भांडे बाजार में बेचने गया कि खाने का इंतजाम कर दें, क्योंकि अतिथि घर आया है। जब तक वह गया था, तब तक सामने के झोपड़े वाले पठान ने उस आदमी को कहा: आप वहां कहां उस गरीब के घर में ठहर गए हैं। वहां खाने को भी कुछ नहीं है। यहां आ जाएं, मेरे मेहमान हो जाएं। उसने बहुत मना किया, लेकिन वह पड़ोस वाला पठान उसे उठा कर ले गया।
उस पड़ोस वाले पठान की सामने वाले पठान से दुश्मनी थी। वह उस मेहमान को उठा कर ले गया। जब वह पठान वापस लौटा, तो उसने देखा, मेहमान तो जा चुका है और पड़ोसी के घर में भोजन कर रहा है। वह तो क्रोध से भर गया। उसने उठाई बंदूक और जाकर उस मेहमान से कहा कि गोली मार दूंगा, वापस चलिए। मैं इंतजाम किया हूं आपकी सेवा का। वह मेहमान बहुत घबड़ाया। लेकिन दूसरे पठान ने, जिसके घर वह भोजन कर रहा था, उसने कहा: बेफिकर चले जाओ, घबड़ाओ मत। अगर इसने हमारा एक मेहमान मारा, तो मैं इसके तीस मेहमान मार कर बताऊंगा। तुम बेफिकरी से जाओ। तुम बेफिकरी से जाओ, हम इसके तीस मेहमानों को गोली न मार दें, तो हमारा नाम नहीं। इसको मारने दो गोली, हम तीस से बदला लेकर दिखाएंगे। उस मेहमान ने कहा: लेकिन इससे मुझे क्या फायदा होगा? मेरा क्या संबंध उन तीस मेहमानों के मरने से?
लेकिन ‘मेहमान’ शब्द से काम चलाया जा सकता है, और ‘मेहमान’ शब्द के नीचे आदमी रखे जा सकते हैं, जिनका कोई भी संबंध नहीं है। ‘मुसलमान’ शब्द काम दे देता है। फिर मुसलमान से काम चलाया जा सकता है। अगर दुनिया में मुसलमान, हिंदू और ईसाई न हों, तो अगर कलकत्ते में एक आदमी किसी को गोली मारे या छुरा भोंके तो कहीं भी दंगा नहीं हो सकता। क्योंकि अ ने ब को छुरा भोंक दिया, इससे झगड़ा नहीं हो सकता। झगड़ा हो सकता है कि हिंदू ने मुसलमान को छुरा भोंक दिया, तब झगड़ा हो सकता है। अ ब को छुरा भोंके तो अदालत में निपटारा हो जाएगा। इससे किसी को कोई झंझट नहीं है। लेकिन हिंदू मुसलमान को छुरा भोंके, तो फिर झगड़ा पूरी दुनिया में भी फैल सकता है। क्योंकि वह हिंदू के नाम के नीचे हमने बहुत लोगों को इकट्ठा कर रखा है।
परिवार हमारा पहला व्यक्तित्व छीनने का उपक्रम है, जहां हम व्यक्ति का व्यक्तित्व छीन लेते हैं और उसे एक समूह के भीतर जबरदस्ती ढांचे में ढालने की कोशिश करते हैं। वह पहला कटघरा है, जो पैदा हो जाता है। वह जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ता।
अजीब ढंग से पीछा पकड़ती हैं बचपन में सीखी बातें। उनकी हमें याद नहीं रहती, लेकिन वे पीछा करती हैं। अब एक बच्चा अपनी मां को प्रेम करता है और मां बहुत खुश होगी कि बच्चा मां को प्रेम करता है, और मां बच्चे को कितना प्रेम करती है, करेगी; लेकिन बच्चे के मन में वह मां के प्रेम की जो तस्वीर बनती चली जाएगी; मां भी नहीं सोच सकती, बच्चा भी नहीं सोच सकता कि अंततः यही प्रेम उसकी जिंदगी भर को उपद्रव में भी डाल सकता है। अगर बच्चे के मन में अपनी मां की तस्वीर पूरी तरह बैठ गई, तो वह जिंदगी भर पत्नी में अपनी मां को खोजेगा। जो नहीं मिल सकती है। और वह जिंदगी भर फ्रस्ट्रेशन में जीएगा। जिंदगी भर तनाव और परेशानी रहेगी, क्योंकि वह खोज रहा है मां को। उसको मां जैसी पत्नी चाहिए।
और मां जैसी पत्नी कहां मिल सकती है। वह एक ही औरत थी। और मां को पत्नी बनाया नहीं जा सकता। उसका कोई उपाय नहीं है। अब वह अपनी मां को खोज रहा है। वह मां के गुण खोज रहा है। मां की तस्वीर खोज रहा है। और वह तस्वीर उसको कहीं भी नहीं मिलेगी। उसको कोई पत्नी कभी सुख नहीं दे पाएगी। हर पत्नी के साथ मुसीबत खड़ी हो जाएगी। क्योंकि वह मां की एक इमैज, एक धारणा उसके मन में बैठ गई है। अब बचपन में सीखी गई एक धारणा जीवन भर उसका पीछा करेगी। वह कभी शांत नहीं हो सकेगा।
इसलिए हर आदमी जानता है कि मुझे कैसी स्त्री चाहिए, और हर स्त्री जानती है कि मुझे कैसा पति चाहिए। एक धुंधली धारणा है भीतर, और हम उसकी तलाश में रहते हैं। लेकिन वह कभी मिलने वाला नहीं है। क्योंकि लड़की के मन में अपने पिता की तस्वीर है और लड़के के मन में अपनी मां की तस्वीर है। और वे कहीं भी मिलने वाले नहीं हैं। एक से व्यक्ति दुबारा पैदा ही नहीं होते!
अब वह बचपन में बैठ गई तस्वीर जिंदगी भर पीछा करेगी और सारी जिंदगी को खराब कर देगी। बचपन में जो भी बैठ जाता है, वह जिंदगी भर पीछा करता है। और बचपन में अगर गलत सीमाएं बिठा दी जाएं तो जिंदगी भर उनको भूलना मुश्किल है। एक अादमी बाद में बुद्धिमानीपूर्वक सोच-विचार करके यह भी समझ ले कि मैं सिर्फ आदमी हूं–न हिंदू हूं, न मुसलमान हूं; न इस परिवार का हूं, न उस देश का हूं, तो भी बहुत गहरे में वह वही रहेगा।
मेरे एक मित्र बीस साल से जर्मनी में थे। अब बीस साल में उन्होंने… जर्मन भाषा को वे ऐसा बोलने लगे थे, जैसे उनकी मातृभाषा हो। बल्कि वे यहां लौट कर आते थे तो हिंदी बोलने में उन्हें कठिनाई होती थी। हिंदी वे ऐसे ही बोलते थे, जैसे कोई जर्मन हिंदी सीख कर बोल रहा हो। वे हिंदी बोलना ही करीब-करीब भूल गए थे। फिर वे बीमार पड़े और उनके दूसरे भाई उन्हें देखने गए। तो उनके दूसरे भाई ने मुझे कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए। जब वे बीमार थे और बेहोश हो जाते थे, तब वे जर्मन भूल जाते थे और हिंदी बोलने लगते थे। और रात को डॉक्टर उनसे कहते थे उनके भाई को कि आप रात रुक जाइए, अगर आपका भाई बेहोश हो जाता है, तो फिर हमारी समझ के बाहर हो जाता है कि वह क्या बोलता है। जब वे बेहोश होते थे, तो वे हिंदी बोलते थे। और जब वे होश में होते थे, तो वे हिंदी ठीक से समझ भी नहीं पाते थे।
वह जो बचपन में सीखा था, वह बहुत गहरे बैठ जाता है।
मैंने सुना है कि भोज के दरबार में एक बहुत बड़ा पंडित आया और उसने भोज के पंडितों को चुनौती दी कि तुम मेरी मातृभाषा पहचान कर बता सको, तो मैं एक लाख स्वर्णमुद्राएं भेंट करूंगा। और जो आदमी हार जाएगा, उसे फिर एक लाख स्वर्णमुद्राएं मुझे देनी पड़ेंगी। अगर जीत गया तो एक लाख स्वर्णमुद्राएं मैं दे दूंगा। भोज के दरबार में बड़े-बड़े विद्वान लोग थे। एक-एक विद्वान ने चुनौती स्वीकार की और रोज एक-एक पंडित हारने लगा। उसकी मातृभाषा पहचाननी मुश्किल थी। वह कोई तीस भाषाएं इस भांति बोलता था कि सभी उसकी मातृभाषाएं हैं! रोज पंडित हारने लगे। आठवां दिन आ गया। भोज ने कालिदास को कहा: मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। कैसी बदनामी होगी मेरी? एक पंडित यह भी नहीं पहचान पाता है कि मातृभाषा कौन सी है। बोलना तो दूर, समझना दूर, मातृभाषा कौन सी है, यह भी नहीं बता पाता है। लोग क्या कहेंगे? कालिदास से कहा कि तुम कुछ करो।
कालिदास ने कहा: मैं कुछ सोच रहा हूं। कुछ करने की कोशिश करूंगा। उस दिन जब पंडित जीत कर जा रहा था एक लाख रुपया, आठवें दिन लेकर फिर जा रहा था, बड़ी सीढ़ियों पर दरवाजे के सामने कालिदास से बातें कर रहा था। जब वह सीढ़ियां उतरने लगा, कालिदास ने उसे जोर से धक्का दे दिया, वह सीढ़ियों से नीचे गिरा–पच्चीस-तीस सीढ़ियों से नीचे–और उठ कर उसने जो गाली दी, वह मातृभाषा में थी। कालिदास ने कहा: माफ करिए, यह तकलीफ देनी पड़ी, और कोई उपाय न था। यह आपकी मातृभाषा होनी चाहिए। रुपये नहीं जीतने हैं, लेकिन हम खोज करना चाहते थे कि मातृभाषा क्या है?
वह जो बचपन में बैठी हो, वह बहुत गहरे में बैठी है। वह जिंदगी भर पीछा करती है। हम कितना ही सीख लें फिर, असल में बचपन में पकड़ी गई मानसिक बीमारियों से छुटकारा करीब-करीब असंभव है। हो सकता है, लेकिन बड़ा मुश्किल है। और यह जो सारी मनुष्य-जाति इतनी बीमार दिखाई पड़ रही है, यह बचपन में पकड़ी गई मानसिक बीमारियों का परिणाम है।
बचपन में हम सीमाएं सिखा रहे हैं, असीम नहीं। बचपन में हम अतीत से बांध रहे हैं, भविष्य की तरफ मुक्त नहीं कर रहे हैं। बचपन में हम धर्म सिखा रहे हैं, आदर्श सिखा रहे हैं, बचपन में हम सब सिखाए दे रहे हैं। और बचपन एक कारागृह बन जाएगा और यह कारागृह जिंदगी भर साथ रहेगा।
आप कहीं भी जाओ, घर के बाहर निकलना आसान है, लेकिन हिंदू के बाहर निकलना बड़ा मुश्किल है। हिंदू आपके चारों तरफ जुड़ा ही रहेगा। आप कहीं भी जाओ, आपके आस-पास मुसलमान की दीवाल साथ में चलेगी। वह आपके शरीर के चारों तरफ चिपका हुआ जाल है, जिससे छूटना बहुत मुश्किल है। और परिवार इस जाल की शुरुआत है, वह प्राथमिक चरण है।
क्या मनुष्य को परिवार से मुक्त किया जा सकता है?
निश्चित ही किया जा सकता है। और अगर मां-बाप बच्चे को प्रेम करते हैं, तो उन्हें उसे परिवार से नहीं बांधना चाहिए। उन्हें निरंतर कोशिश करनी चाहिए कि वह कितना मुक्त जी सके। उसकी किसी से कोई आइडेंटिटी, उसका किसी से कोई तादात्म्य न हो पाए। वह एक व्यक्ति की हैसियत से खड़ा हो सके। एक श्रृंखला की कड़ी की हैसियत से नहीं, एक व्यक्ति की हैसियत से खड़ा हो सके। अपनी हैसियत से खड़ा हो सके।
अरविंद के पिता एक बहुत अदभुत आदमी थे। शायद आपको पता हो या न हो। अरविंद को उन्होंने पांच-छह साल की उम्र में हिंदुस्तान के बाहर भेज दिया। और जिस स्कूल में रखा था इंग्लैंड में, वहां के शिक्षकों को और वहां के प्रिंसिपल को कहा कि मेरे लड़के को किसी धर्म की कोई शिक्षा न दी जाए।
वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा: किसी धर्म की तो शिक्षा मिलनी ही चाहिए।
अरविंद के पिता ने कहा: मैं किसी धर्म की शिक्षा नहीं देना चाहता। क्योंकि कितने लोगों को धर्म की शिक्षा दी गई है और वे जो कर रहे हैं, उससे ज्यादा अधर्म और कुछ भी नहीं हो सकता है। मैं अपने बच्चे को किसी धर्म की शिक्षा नहीं देना चाहता। अगर उसकी जिंदगी में उसे खोज करनी होगी, वह खोज करेगा। और मेरे बच्चे को कभी हिंदू न समझा जाए और कभी भारतीय न समझा जाए।
पर उस प्रिंसिपल ने कहा: यह कैसे हो सकता है?
उनके पिता ने कहा कि मैं यही चाहता हूं कि मेरा बच्चा एक मुक्त व्यक्ति की तरह बढ़े। वह किसी जाति की स्मृतियों को लेकर बड़ा न हो और किसी परंपरा की कड़ी की तरह एक हिस्सा न बने। वह अपनी हैसियत से अपने पैरों पर खड़ा हो सके। वह दूसरों के कंधों पर खड़ा न हो। मैं यही चाहता हूं।
बाप बीमार पड़ गए, लेकिन बेटे को उन्होंने बुलाया नहीं। बहुत हिम्मत के आदमी रहे होंगे। अरविंद जैसा बेटा पैदा करने के लिए वैसे भी हिम्मतवर आदमी चाहिए। बाप बीमार थे, लेकिन उन्होंने बेटे को नहीं बुलाया। घर के लोगों ने कहा कि बेटे को बुला लें, आप बीमार हैं? तो उनके पिता ने कहा कि अच्छा है कि वह मुझसे न बंधे। उसे याद भी न रहे कि उसका कोई पिता है। ताकि अतीत से उसका सारा संबंध टूट जाए।
बहुत अदभुत हिम्मत के आदमी रहे होंगे कि उससे मेरा कोई संबंध भी न हो, ताकि वह अतीत से–मैं उसकी कड़ी हूं–जिससे वह अतीत से, दि पास्ट से जुड़ा हुआ है, वह कोई कड़ी उसे याद भी न रह जाए। वह भविष्य का नागरिक हो, अतीत का बोझ लेकर खड़ा न हो। भविष्य का मुक्त नागरिक हो।
अरविंद के पिता मर गए, अरविंद को पता भी नहीं चला! अरविंद जब वापस हिंदुस्तान आए, तब उन्हें पता चला कि उनके पिता चल बसे। और इसलिए खबर नहीं की कि मुझसे कोई स्मृति भी न जुड़े, वह भविष्य का नागरिक होना चाहिए।
हम सब अतीत के नागरिक हैं।
और अरविंद में जो प्रतिभा प्रकट हुई, उसमें उनके पिता का नब्बे प्रतिशत हाथ है। और अरविंद में जो भविष्य की एक प्रेरणा उदय हुई, और भविष्य का जो एक दर्शन अरविंद को हो सका, और मनुष्य के भावी विकास के लिए वे जो सोच सके, उस सबमें उनके पिता का हाथ है। क्योंकि अतीत के बोझ को उन्होंने काट दिया, अतीत से श्रृंखला तोड़ दी।
क्या हम एक ऐसा समाज कभी बना सकेंगे, जहां मां-बाप बेटे को अतीत से जोड़ने वाले नहीं, तोड़ने वाले बनते हों? तो ही हम मनुष्य के दुख और मनुष्य की सूली पर लटकी हुई इस हालत को नीचे उतार सकते हैं, अन्यथा यह उतारना बहुत मुश्किल है।
आज मैं तीसरा सूत्र यह कहना चाहता हूं कि बच्चों को अतीत से मुक्त करना है, ताकि वे भविष्य के मुक्त नागरिक बन सकें। लेकिन हम सब पीछे से बंधे हैं! और कुछ क्षण हैं व्यक्ति के जीवन में, जिनको मैं मोमेंट्स ऑफ एक्सपोजर कहता हूं। जैसे कि कैमरे का एक्सपोजर होता है, एक क्लिक दबाया और कैमरा खुला और एक क्षण में जो उसके भीतर चला गया, वह भीतर बैठ गया और फिल्म ने पकड़ लिया। ऐसे ही मनुष्य के मन में भी एक्सपोजर के क्षण होते हैं, जब उसका मन खुलता है और कुछ चीजों को पकड़ लेता है।
आदमी की जिंदगी में ऐसे दस-पांच क्षण होते हैं, जो मोमेंट्स ऑफ एक्सपोजर हैं। अगर उन क्षणों में भूल हो जाए, तो जिंदगी भर के लिए भूल हो जाती है। बचपन में ऐसे क्षण सर्वाधिक होते हैं, जब बच्चे का मन खुला होता है और जो भी उसमें प्रवेश कर जाता है, वह प्रवेश कर जाता है, और उसकी आत्मा में उसकी छवि अंकित हो जाती है।
मैं एक बहुत हैरानी की घटना पढ़ रहा था। मैं पढ़ रहा था कि एक वैज्ञानिक मुर्गियों पर कुछ प्रयोग करता था। अब मुर्गी का बच्चा जैसे ही अंडे के बाहर निकलता है, अपनी मां के पीछे भागना शुरू कर देता है। अंडे से बाहर निकला और मां भाग रही है, वह उसके पीछे भागने लगेगा। और जब तक वह बड़ा नहीं हो जाएगा, वह मां के पीछे भागता रहेगा, भागता रहेगा। एक वैज्ञानिक ने एक अदभुत प्रयोग किया। जब मुर्गी का चूजा बड़ा हो गया, और अंडा टूटने के करीब आया, तो उसने उसकी मां को तो हटा दिया और मां की जगह एक गैस का भरा हुआ गुब्बारा रख दिया उसी रंग का, लाल रंग का एक गुब्बारा रख दिया। और जब अंडा टूटा और उसमें से बच्चा बाहर निकला, तो उसे मां तो नहीं दिखाई पड़ी, उसे दिखाई पड़ा गुब्बारा। वह मोमेंट ऑफ एक्सपोजर है!
जब बच्चा पहली दफा जगत में आता है, तो उसका मन खुलता है पूरा। और वह जो भी भीतर ले जाता है, वह सदा के लिए भीतर हो जाता है। वह गुब्बारे के पीछे भागने लगा। फिर उसकी मां को भी ले आया गया, लेकिन मां की तरफ उसने ध्यान भी नहीं दिया। फिर लाख कोशिश की गई कि वह अपनी मां के पीछे भागे, लेकिन वह मां को पहचान नहीं सका। गुब्बारा उसकी मां हो गया। वह गुब्बारे के पास आकर सिर टिका कर सो जाता था। वह गुब्बारे के नीचे घुस कर बैठ जाता था। वह गुब्बारे के पीछे भागता था। वह गुब्बारे की तरफ चोंच फैलाता था कि गुब्बारा उसकी चोंच में कुछ दे दे, लेकिन वह मां को नहीं पहचान सका! वह मर गया बच्चा। फिर तो बहुत मुर्गी के बच्चों पर प्रयोग किया गया और पाया गया कि उस क्षण में, पहले क्षण में उनका मन जो पकड़ लेता है, वही उनकी मां बन जाती है।
सबके साथ वैसे क्षण हैं। आदमी के साथ भी वैसे क्षण हैं। एक बच्चा पैदा होता है और मां के प्रति जो इतना बड़ा प्रेम है, उसका पहला कारण यह है कि वह मोमेंट ऑफ एक्सपोजर में पहले मां ही उसको उपलब्ध होती है। तब उसका मन खुला होता है और मां की तस्वीर भीतर चली जाती है। लेकिन यह खतरनाक भी है एक अर्थ में, क्योंकि लड़के के मन में भी मां की तस्वीर चली जाती है और लड़की के मन में भी मां की तस्वीर चली जाती है! और मनुष्य की जिंदगी में–मनुष्य के प्रेम और दांपत्य में बाधा डालने वाला एक कारण यह भी है।
क्योंकि जो तस्वीर भीतर चली गई है लड़के के मन में, अब जिंदगी भर वह इसी तस्वीर को खोजता रहेगा। पहले मां के प्रेम में इसको पाएगा और परिपक्व कर लेगा, तस्वीर मजबूत हो जाएगी। फिर जब सेक्सुअल मैच्योरिटी आती है, पहली दफे यौन की दृष्टि से व्यक्ति परिपक्व होता है, तब फिर मोमेंट ऑफ एक्सपोजर आता है। जिसको लोग कहते हैं, लव एट फर्स्ट साइट। वह कुछ भी नहीं है, वह वही मोमेंट ऑफ एकस्पोजर है। वह वही का वह मामला है, जैसे उस मुर्गी को प्रेम हो गया गुब्बारे से। वह मुर्गी का बच्चा गुब्बारे के पीछे घूमने लगा। वह लव एट फर्स्ट साइट, वह पहली नजर है प्रेम की, खुल गया मन और वह गुब्बारा भीतर बैठ गया।
जब यौन की दृष्टि से व्यक्ति पहली दफे परिपक्व होता है, तब फिर उसका मन खुलता है और जो पहली तस्वीर भीतर बैठ जाती है, वह भीतर प्रवेश कर जाती है और गहरे प्रवेश कर जाती है। लेकिन अगर इन दोनों तस्वीरों में भीतर संघर्ष हो जाए, तो वह व्यक्ति कभी भी शांति से जी न पाएगा। और इन दोनों तस्वीरों में संघर्ष हो जाता है।
अभी इजराइल में वह एक प्रयोग करते हैं, किबुत्ज। और उस प्रयोग ने बड़ी सफलता पाई है। वह इस मोमेंट ऑफ एक्सपोजर को ध्यान में रख कर किया गया प्रयोग है। और आज नहीं कल, सारी दुनिया को करना पड़ेगा। वे छोटे बच्चे को मां के पास ज्यादा देर नहीं पालते हैं। बल्कि हर तीन महीने में उसकी नर्स बदलते रहते हैं, ताकि उसके मन में किसी एक स्त्री का कोई फिक्सेशन, कोई एक चित्र न बन पाए। वह बड़ा होते-होते बीस-पच्चीस नर्सों को मां जैसा प्रेम करे और मां बदलती चली जाए। बीस-पच्चीस चित्र बने तो धुंधला हो जाएगा। कोई एक चित्र भीतर न रह जाएगा। और यह अनुभव किया गया है कि वैसा बच्चा फिर किसी भी स्त्री को ज्यादा सरलता से प्रेम कर सकता है, बजाय उस बच्चे के जो अपनी मां के ही चित्र को पूरी तरह निश्र्चितता से भीतर पकड़ लेता है और जिसका चित्र बहुत साफ होता है, जिसका चित्र धुंधला नहीं होता।
अब सारा दांपत्य सड़ गया है। सारा दांपत्य दुख की सूली से भरा हुआ है। सब सूली पर लटके हुए हैं। लेकिन कोई भीतर उतर कर देखने की फिकर में नहीं है कि कारण कहां हैं और क्या हैं? लड़के के मन में मां का चित्र बैठ जाए, यह तो ठीक है; लेकिन लड़की के मन में भी मां का चित्र बैठ जाए, तो बहुत कठिनाई हो जाती है। जरूरी है कि लड़की के मन में बाप का चित्र बैठे। लेकिन हमारी जो व्यवस्था है, उसमें सब बच्चों को मां पालती है, बाप तो किन्हीं को पालता नहीं है। आने वाले भविष्य में लड़कियां बाप के निकट ज्यादा पाली जानी चाहिए, लड़के मां के निकट ज्यादा पाले जाने चाहिए। तभी हम दांपत्य जीवन से दुख और पीड़ा और कलह को हटा पाएंगे। अन्यथा नहीं हटा पाएंगे।
इसलिए आज तक पांच हजार वर्षों में जितने विवाह के प्रयोग हुए हैं, सभी असफल हो गए हैं। क्योंकि प्रयोग ऊपर से होते हैं। भीतर कुछ और गहरी जड़ें हैं, जो हमारे खयाल में भी नहीं हैं।
लड़की के मन में भी अगर मां का ही चित्र बैठ जाए, तो बहुत खतरा है। खतरा यह है कि हो सकता है, वह किसी पुरुष को कभी ठीक से पूरा प्रेम न कर पाए। वह पहले क्षण में जो तस्वीर बैठ गई है, वह तस्वीर खतरनाक हो सकती है। पहली तस्वीर लड़की के मन में पुरुष की ही बैठनी चाहिए, और वह भी एक ही पुरुष की नहीं बैठनी चाहिए, वह भी उचित है कि और ज्यादा पुरुषों की बैठे। ताकि कोई निश्र्चित तस्वीर न हो। और वह निश्र्चित तस्वीर की खोज जिंदगी में शुरू न हो जाए।
अगर यह हो सके तो हम दांपत्य के दंश को, कलह को, दुख को, सफरिंग को अलग कर सकते हैं। अन्यथा नहीं कर सकते हैं। लेकिन इस सब पर कोई ध्यान नहीं है। और एक-एक आदमी अशांत हो गया है, एक-एक आदमी पीड़ित हो गया है, और एक-एक आदमी अपनी अशांति और पीड़ा के लिए तरकीबें खोजता फिरता है। वह पूछता है, मैं शांत कैसे हो जाऊं? जब कि अशांति के कारण इतने गहरे हैं और इतने सामूहिक हैं और इतने अतीत से जुड़े हुए हैं कि उस एक व्यक्ति की सामर्थ्य के बाहर हो जाता है कि वह कुछ कर पाए। वह करीब-करीब विवश, भाग्य के हाथों में बंधा हुआ अनुभव करता है। कुछ भी नहीं कर पाता, तड़फता है, परेशान होता है और मर जाता है।
क्या हम कभी एक ऐसे समाज का चिंतन करेंगे?
करना पड़ेगा। करना अत्यंत जरूरी है। अन्यथा मनुष्य का भविष्य नहीं है कोई। अब हम उस जगह आ गए हैं, जहां मनुष्य ने जो बीमारियां अतीत में पाली थीं, वह अपनी पूर्णाहुति पर पहुंच रही हैं। और हो सकता है कि यह पर्दा गिरने के करीब हो। यह पूरा आदमी का समाज नष्ट हो जाए। ऐसा होता है, पानी को गर्म करते हैं, तो एक डिग्री पर पानी भाप नहीं बनता, दस डिग्री पर भी नहीं बनता, नब्बे डिग्री पर भी नहीं बनता, निन्यानबे डिग्री पर भी पानी भाप नहीं बनता, भाप तो सौ डिग्री पर बनता है। लेकिन जब सौ डिग्री पर बनता है, तो कोई कह सकता है कि यह गलती इस आखिरी डिग्री की है, जिसकी वजह से यह पानी भाप बन रहा है। और वह निन्यानबे डिग्रियां जो अतीत ने इकट्ठी कीं, उनका खयाल भी न आए।
आज आदमी की जिंदगी में जो सब तरफ से रोग प्रकट हो गए हैं–हिंसा है, क्रोध है, वैमनस्य है, युद्ध हैं, ये सारे के सारे आज पैदा नहीं हो गए हैं। कोई यह न समझे कि रामराज्य का इसमें कोई हाथ नहीं है। कोई यह न समझे कि बुद्ध के जमाने का कोई हाथ नहीं है। कोई यह न समझे कि क्राइस्ट के जमाने का कोई हाथ नहीं है। यह उन सब जमानों का हाथ है। हम तो आखिरी डिग्री भर जोड़ रहे हैं पानी के भाप बनने में, और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। यह जो हमने पिछले पांच हजार वर्षों में जैसा आदमी बनाया है, वह आखिरी जगह पहुंच गया है, जहां आखिरी डिग्री जुड़ जाए तो सब भाप बन जाए। और हम भाप बनने के करीब खड़े हो गए हैं। इसलिए बहुत चिंता की बात भी है, चिंतन की भी, विचार की भी, सोचने की भी और खोज करने की भी।
मैं कुछ दो-तीन और छोटी बातें इस संबंध में कहूं और अपनी बात पूरी करूं।
एक-एक व्यक्ति को अब तक निरंतर हमने अतीत का सदस्य बनाया है। भविष्य का सदस्य नहीं बनाया है। इसे बनाने के लिए हम बहुत तरकीबें उपयोग में लाए हैं। सबसे बड़ी तरकीब तो हम यह उपयोग में लाए हैं कि अतीत के आदर्श पुरुषों को हमने एक-एक बच्चे के ऊपर थोप दिया है। हम उससे कहते हैं: राम जैसा बनो, बुद्ध जैसे बनो, महावीर जैसे बनो। जैसे खुद जैसे होना कोई कसूर हो, कोई अपराध हो। और हर आदमी अपने जैसा होने को पैदा हुआ है। कोई आदमी दूसरे जैसा हो नहीं सकता है। कोई राम नहीं बन सकता। और बने, तो बनने की जरूरत भी नहीं है। और बन भी सकता हो, तो बड़ी कृपा होगी कि न बने।
क्योंकि जब कोई दूसरे की नकल बनता है तो उसकी आत्मा खो जाती है। वह सिर्फ अभिनय रह जाता है, उसकी आत्मा नहीं रह जाती। आत्मा तो तभी होती है, जब कोई व्यक्ति होता है, स्वयं होता है। ऑथेंटिकली इंडिविजुअल जब कोई होता है, तभी आत्मा होती है। अन्यथा आत्मा नहीं होती है। राम के पास आत्मा रही होगी, लेकिन रामलीला के रामों के पास कोई आत्मा नहीं होती। लेकिन रामलीला के राम बनने के लिए निरंतर उपदेश दिए जा रहे हैं।
अतीत के महापुरुषों को हम भविष्य के बच्चों पर थोप रहे हैं, जब कि भविष्य के बच्चे भविष्य के नागरिक होंगे। अतीत को हम उनके ऊपर न थोपें। काफी है कि हम राम से परिचित करा दें, लेकिन कभी भूल कर यह न कहें कि राम जैसे बन जाओ। बल्कि हम निरंतर कहें कि राम पांच हजार साल पहले के आदमी हैं, और तुम्हें भविष्य के आदमी बनना है। राम तुम्हारे लिए जरा भी सहयोगी नहीं हो सकते। तुम राम को समझ लो, और इसीलिए समझ लो कि कहीं भूल-चूक से भी राम जैसे मत बन जाना। क्योंकि राम पांच हजार साल पुराने आदमी हैं। राम तुम्हें नहीं बनना है। और बनोगे तो तुम बहुत मुसीबत में पड़ जाओगे।
आज अगर कोई आदमी कृष्ण बन जाए बंबई की सड़कों पर, तो आप समझते हैं क्या होगा? सिवाय पुलिसथाने के वह और कहीं नहीं पहुंचाया जाएगा। फौरन पुलिसथाने पहुंचा दिया जाएगा। कृष्ण बड़े प्यारे आदमी हैं, बहुत अदभुत आदमी हैं। लेकिन पांच हजार साल पहले का अदभुत आदमी आज बिलकुल बेमानी है। आज कोई मतलब नहीं है। आज कृष्ण जैसा बन कर खड़ा हो जाना बहुत नाटकीय मालूम पड़ेगा, बहुत ड्रामेटिक मालूम पड़ेगा। तो रंगमंच पर, रामलीला में, कृष्ण लीला में कहीं रासलीला चलती हो तो ठीक है, लोग बरदाश्त कर लेंगे, लेकिन सड़क पर अगर पा लिया तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।
अतीत को हम थोपते हैं बच्चों पर! और पहले थोपने का ढंग यह है कि अतीत के महापुरुषों की तस्वीर उनके मन में बिठाते हैं, जो कि बिलकुल गलत है। जो कि वह कभी नहीं हो सकते। और वह तस्वीर अगर उनके मन में बैठ गई तो निरंतर सेल्फ कंडेमनेशन वे अनुभव करेंगे। वे जिंदगी भर अनुभव करेंगे कि मैं अभी राम जैसा नहीं हो पाया। एक स्त्री अनुभव करेगी कि मैं सीता जैसी नहीं हो पाई। सीता जैसी होनी चाहिए थी, मैं सीता जैसी नहीं हो पाई। अब उसकी सारी जिंदगी एक मुसीबत और एक कष्ट बन जाएगी, एक दुख बन जाएगी।
जब हम कहते हैं किसी आदमी से, तुम किसी और जैसे हो जाओ, तो हम उसको आत्म-निंदा का पाठ सिखा रहे हैं। और जो आदमी आत्म-निंदा का पाठ सीख लेता है, उस आदमी के आनंद की कोई संभावना शेष नहीं रह जाती।
आनंद तो आएगा आत्म-प्रफुल्लता से, आनंद तो आएगा आत्म-स्वीकृति से। आनंद तो आएगा कि मैं जैसा हूं, उसमें मैं आनंदित हो सकूं। लेकिन हमारी शिक्षा कहती है, उसमें कभी आनंद मत लेना जैसे तुम हो! आनंदित तुम तब हो सकते हो जब तुम बनो राम, जब तुम बनो कृष्ण, जब तुम बनो क्राइस्ट, तब तुम आनंदित हो सकते हो।
तो हम ढांचे थोपते हैं बच्चों के ऊपर। वे ढांचे उनको निंदित कर देते हैं सदा के लिए। वे जिंदगी भर जीते हैं, लेकिन उन्हें ऐसा लगता है कि वे ठीक जीवन नहीं जी रहे हैं। वे कुछ गलत जीवन जी रहे हैं, क्योंकि स्त्री सीता नहीं बन पाई, क्योंकि आदमी राम नहीं बन पाया, क्योंकि आदमी कृष्ण नहीं बन पाया। जरूर कुछ गलती हो गई, मैं गलत जीवन जी रहा हूं।
हममें से हर आदमी ऐसा अनुभव कर रहा है कि मैं गलत जीवन जी रहा हूं! और अगर सारी दुनिया ऐसा अनुभव करती हो कि हम गलत जीवन जी रहे हैं, तो ठीक जीवन कैसे पैदा हो सकता है! ठीक जीवन की बुनियादी आधारशिला यह होगी कि हम प्रत्येक व्यक्ति को उस जैसा बनने की क्षमता, स्वतंत्रता, मुक्ति और सहयोग दें। जो आदमी जो बन सकता हो, उसके लिए हम सहयोगी हों। अभी हम सब बाधक हैं, वह जो बन सकता है उसमें।
रवींद्रनाथ के घर में एक पुरानी किताब रखी हुई है। उस किताब में घर के लोग, घर में जो छोटे बच्चों के जन्म-दिन होते हों, उन जन्म-दिनों पर घर के बच्चों के संबंध में अपने रिमार्क्स लिखते थे, अपनी टिप्पणियां लिखते थे। रवींद्रनाथ के तो दस-ग्यारह भाई-बहिन थे, बड़ा परिवार था। लेकिन उस घर की किताब में सब बच्चों के संबंध में अच्छे रिमार्क्स हैं, रवींद्रनाथ के बाबत कोई अच्छा रिमार्क नहीं है। रवींद्रनाथ के बाबत रवींद्रनाथ की मां ने ही लिखा है कि रवींद्र से हमें कोई भविष्य में आशा नहीं है। यह लड़का न मालूम कैसे हमारे घर में पैदा हो गया।
क्योंकि बाकी सब बच्चे कोई फर्स्ट क्लास आता है, कोई गोल्ड मेडल लाता है। इस लड़के के पास होने की उम्मीद ही बहुत मुश्किल है। रवींद्रनाथ को बहुत थोपने की कोशिश की उन्होंने कि तुम ऐसे बन जाओ, वैसे बन जाओ, लेकिन वह लड़का नहीं बना। और बड़ी कृपा की उस लड़के ने कि मां-बाप की नहीं मानी और नहीं बना। अगर बन जाता तो दुनिया एक बहुत अच्छे आदमी से वंचित रह जाती। लेकिन बहुत से लोग बन गए हैं और दुनिया बहुत अच्छे लोगों से वंचित हो गई है।
हम सब थोप रहे हैं, ऐसे बन जाओ। रवींद्रनाथ का रवींद्रनाथ होना ही आनंदपूर्ण है, किसी और जैसे बनने की कोई जरूरत नहीं है। और यह रवींद्रनाथ के लिए सही ही नहीं है, एक साधारण से साधारण आदमी का अपने जैसा होना ही काफी है। वह अपनी ही खुशबू से जी सकता है और अपनी ही जिंदगी और अपने ही रास्ते पर चल सकता है। उसका अपना गीत होगा, अपने चरण होंगे, अपना नृत्य होगा। कोई हर्ज नहीं कि बहुत बड़े मंचों पर उसका नाम न लिया जाए, और कोई हर्ज नहीं कि बड़ी राजधानियों में उसका शोरगुल न हो, और कोई हर्ज नहीं कि अखबारों के पहले पृष्ठ पर उसका नाम न हो। कोई हर्ज नहीं, क्योंकि जिंदगी अखबारों से संबंधित नहीं है।
बल्कि सच तो यह है कि अखबारों की तलाश में केवल वे ही लोग घूमते हैं, जो जिंदगी से वंचित रह गए हैं, जो जिंदगी का आनंद नहीं भोग पाए हैं। असल में राजधानियों से जिंदगी का कोई संबंध नहीं है। राजधानियों की तलाश और खोज सिर्फ उन्हीं मनों में है, जो जिंदगी की राजधानी में नहीं पहुंच पाए हैं। असल में दूसरा मेरी प्रशंसा करे, इससे जिंदगी का क्या संबंध है?
जिंदगी का संबंध है कि मैं आनंदित हो जाऊं। जिंदगी जीने में है, किसी की प्रशंसा में नहीं है, और किसी के आदर में नहीं है, और किसी के सम्मान में नहीं है। लेकिन हम एक-एक बच्चे को यह कह रहे हैं कि तू सम्मानित जीवन जीना! दूसरे लोगों की तरफ ध्यान रखना कि दूसरे लोग क्या कहते हैं। जो गलत दूसरे लोग कहते हों, वह कभी मत करना, और जो दूसरे लोग ठीक कहते हों, वह सदा करना! हम उस बच्चे को जिंदगी जीने से तोड़ रहे हैं, हम उससे यह कह रहे हैं कि तू एक निरंतर उधार जिंदगी जीना। दूसरों की आंखों में पहले देख लेना कि लोग क्या कहते हैं!
लोग क्या कहते हैं, इससे जीवन का कोई संबंध नहीं है। तू क्या अनुभव करता है, इससे जीवन का संबंध है। लेकिन कोई मां-बाप अपने बेटे को यह नहीं कह रहे हैं कि तू जिंदा रहना, अपनी हैसियत से जीना। और चाहे सारी दुनिया भी गलत कहती हो, लेकिन अगर तुझे आनंदपूर्ण मालूम पड़ता हो, और तुझे शांतिपूर्ण मालूम पड़ता हो, तो तू अपने रास्ते पर जाना, तू दुनिया की फिकर मत करना।
सच तो यह है कि राजपथों पर चलने वाले लोगों को आनंद की कोई झलक भी नहीं मिलती। जो पगडंडियों पर जाते हैं, अपनी-अपनी जिंदगी की पगडंडियों पर जाते हैं, वे ही केवल जीवन के गहन रहस्य में प्रवेश कर पाते हैं। सीमेंट से पटे हुए जो राजपथ हैं, वे राजधानियां पहुंचा देते हैं, लेकिन जंगलों में जाने वाली जो गहरी पगडंडियां हैं, जहां आदमी को अकेला चलना पड़ता है अपना रास्ता बनाते हुए, वहां जिंदगी की गहराइयों की पहुंच है। लेकिन हम यह कभी नहीं सिखाते।
और तीसरी बात, हम कभी बच्चे को नहीं सिखाते, नहीं सिखा पाते–न हमने सीखा है, न सिखा पाते हैं कि वह जो चारों तरफ विराट ब्रह्मांड फैला हुआ है, उससे हमारा कोई संबंध है। हम सिर्फ आदमियों से संबंध जुड़वाते हैं। हम कहते हैं: यह रही तेरी मां, यह रहे तेरे पिता, यह रहे तेरे भाई, यह तेरी बहिन। लेकिन चांद-तारों से कोई संबंध है? समुद्र की लहरों से कोई संबंध है? आकाश में भटकने वाले बादलों से कोई संबंध है? वृक्षों पर खिलने वाले फूलों से कोई संबंध है? धूप से कोई संबंध है? छाया से कोई संबंध है? पत्थरों से, रेत से कोई संबंध है? पृथ्वी से कोई संबंध है? नहीं, कोई संबंध नहीं है।
आदमी ने आदमी के बीच संबंध बना लिए हैं और सारे जगत से संबंध तोड़ दिए हैं। जब कि जिंदगी कभी भी रसपूर्ण नहीं हो सकती, जब तक कि हम समग्र से न जुड़ जाएं। ऐसे हम जुड़े हैं, लेकिन मन से हम टूट गए हैं। आप समुद्र के किनारे बैठ कर कभी आनंदित हो लेते हैं क्षण भर को–कभी आपने जाना है कि यह आनंद क्यों आपको आ रहा है समुद्र की इन लहरों में? यह समुद्र के पास आपको एक शांति क्यों मालूम पड़ रही है? यह समुद्र के गर्जन में आपको अपनी आत्मा की आवाज क्यों सुनाई पड़ती है? कभी आपने सोचा है, खोजा है?
शायद आपको पता भी न हो कि करोड़ों-करोड़ों वर्ष पहले आदमी का पहला जन्म तो समुद्र में ही हुआ था, और आज भी आदमी के भीतर जो खून बह रहा है, उसमें उतना ही नमक है जितना समुद्र के पानी में। आदमी के भीतर जो पानी है, उसमें समुद्र के पानी और नमक का जो अनुपात है, वही अनुपात आज भी आदमी के भीतर के पानी और नमक में है। आज भी पानी वही बह रहा है। मां के पेट में जो बच्चा गर्भ में होता है, उस गर्भ को चारों तरफ से जो पानी घेरे रहता है, उसमें अनुपात नमक का वही है, जो समुद्र में है। उसी से तो वैज्ञानिक पहली दफा इस खयाल पर पहुंचे कि हो न हो किसी न किसी तरह आदमी कभी पहली दफा, उसका पहला जीवन समुद्र से शुरू हुआ होगा। आज भी उसके पास पानी का अनुपात वही है। आज भी बच्चा उसी पानी में तैरता है और बड़ा होता है। और आज भी हमारे शरीर में नमक का जरा सा अनुपात गिर जाए कि हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। नमक का अनुपात वही रहना चाहिए, जो समुद्र में है!
जब आप समुद्र के पास जाते हैं, तो आपके पूरे शरीर और पूरे व्यक्तित्व में समुद्र कोई सहानुभूति की लहरें उठा देता है। आप उसी के हिस्से हैं। आप कभी मछली थे। हम सब कभी मछली थे। उसके निकट जाकर हमारे भीतर वही लहरें उठ आती हैं।
जब आप पहाड़ पर जाते हैं और देखते हैं हरे वृक्षों के विस्तार को, तो मन एकदम शांत, हरे विस्तार को देख कर एकदम आनंदित हो जाता है। क्या बात है हरे रंग में ऐसी? आखिर हमारे सारे खून में, हमारी सारी हड्डियों में वृक्षों से लिया हुआ सब-कुछ घूम रहा है। हम उनसे ही बने हैं, हम उनसे ही जुड़े हैं।
जब ठंडी हवाओं की लहरें आती हैं, और आप उन हवाओं में बहे चले जाते हैं, तो एक खुशी, एक प्रफुल्लता भर जाती है। क्यों? क्योंकि हवा हमारा प्राण है। हम जुड़े हैं, हम अलग-अलग नहीं हैं।
जब रात को पूर्णिमा के चांद को आप देखते हैं तो कुछ गीत आपके भीतर झरने लगते हैं और कोई कविता फूटने लगती है। अंग्रेजी में शब्द है ‘लुनार’ चांद के लिए तो। और पागल को कहते हैं लुनाटिक। वह भी उसी से बना हुआ शब्द है। हिंदी में भी कहते हैं पागल को चांदमारा।
ऐसा खयाल है कि पूर्णिमा के दिन जितने लोग पागल होते हैं, उतने किसी और दिन नहीं होते हैं। कुछ कारण है। पूर्णिमा का चांद हमारे भीतर न मालूम कैसी लहरें ले आता है। समुद्र में ही लहरें नहीं आतीं, समुद्र ही ऊपर उठ कर चांद को छूने को चला जाता हो, ऐसा नहीं है। हमारे प्राण भी किन्हीं गहरी गहाराइयों में, हमारे प्राणों की तरंगें भी चांद को छूने को उठ जाती हैं। लेकिन चांद से हमारा कोई नाता नहीं है, कोई रिश्ता नहीं है!
हमने सब तरफ से जिंदगी को तोड़ लिया है। और अगर आदमी सब तरफ से जिंदगी को तोड़ेगा और सिर्फ आदमियों की दुनिया बनाएगा, वह दुनिया उदास होगी, दुखी होगी। वह दुनिया सच्ची नहीं होगी। क्योंकि वह दुनिया वास्तविक नहीं है। उसकी जड़ें पूरे ब्रह्मांड तक फैलनी चाहिए।
मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूं, जिसका संबंध आदमियों से ही नहीं है, जिसका संबंध सारे जीवन से फैल गया है। एक पशु के साथ भी उसका संबंध है, एक पौधे के साथ भी, एक पक्षी के साथ भी।
आकाश में देखा है कभी कोई पर तौलती हुई चील को? उसे देखते रहें तो ध्यान में चले जाएंगे। कैसा निष्प्रयास, एफर्टलेस एक चील आकाश में परों को फैला कर पड़ी रह जाती है और बह जाती है हवाओं में। पर भी नहीं हिलाती और बही चली जाती है। कभी उसे गौर से देखते रहें, तो भीतर कोई चील आपके भी पर फैला देगी और बह जाएगी।
जिंदगी सब तरफ से जुड़ी है और आदमी ने उसे तोड़ लिया है। तोड़ी हुई जिंदगी विक्षिप्त हो गई है।
इसलिए मैंने कहा: हम समाज नहीं बना पाए, हमने अजायबघर बना लिया है। समाज बनाने में अभी हम बहुत दूर हैं। हमने कटघरे बना लिए हैं, आदमी को प्रकृति से तोड़ दिया है, सब प्राकृतिक से तोड़ दिया है–भीतर भी बाहर भी! नैसर्गिक से तोड़ दिया है और एक कृत्रिम, एक आर्टिफिशियल, एक जबरदस्ती आदमी हमने खड़ा कर दिया है। वह आदमी बड़े धोखे का है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
एक कवि एक गांव के पास से गुजरता था, उसने खेत में एक झूठे आदमी को खड़ा हुआ देखा। आपने भी खेतों में झूठे आदमी देखे होंगे? अगर खेत देखे होंगे, तो वहां झूठा आदमी भी देखा होगा। क्योंकि अब तो खेत देखना भी बड़ी मुश्किल बात हो गई है। अभी लंदन में बच्चों का एक सर्वे किया गया, तो दस लाख बच्चों ने गाय नहीं देखी है। वे बच्चे पूछने लगे: गाय यानी क्या? क्योंकि दस लाख बच्चों ने लंदन में गाय नहीं देखी! तीन लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा!
वह कवि खेत के पास से गुजर रहा है। वहां उसने एक झूठे आदमी को खड़ा देखा। उस कवि के मन में बड़ी दया आ गई। वह उस झूठे आदमी के पास गया। हंडी का सिर है, डंडे लगे हैं, कुरता पहना हुआ है। उस कवि ने उस झूठे आदमी से पूछा कि मित्र, खेत में खड़े-खड़े बड़े थक जाते होगे, और काम भी बड़ा उबाने वाला है। वर्षा, सर्दी, रात, दिन, धूप, गर्मी, कुछ भी है, तुम यहीं खड़े रहते हो! मैं कई बार निकला हूं इस रास्ते पर, तुम यहीं खड़े रहते हो! ऊब नहीं जाते हो? घबड़ा नहीं जाते हो? कभी छुट्टी नहीं मनाते हो?
उस झूठे आदमी ने कहा कि बड़ा मजा है इस काम में। दूसरों को डराने में इतना मजा आता है कि अपनी तकलीफ पता ही नहीं चलती। रात-दिन डराता रहता हूं। फिर कोई आ जाता है, फिर उसको डरा देता हूं; फिर कोई आ जाता है, उसको डरा देता हूं। इतना मजा है कि फुरसत ही नहीं मिलती दूसरों को डराने से कि मैं खुद अपनी चिंता करूं। वह कवि सोचने लगा। उसने कहा: बात तो बड़ी ठीक कहते हो। मैं भी जब किसी को डरा पाता हूं तो बड़ा आनंद आता है। वह झूठा आदमी हंसने लगा, और उसने कहा कि तब तुम भी झूठे आदमी हो, क्योंकि सिर्फ झूठे आदमियों को ही दूसरों को डराने में आनंद आता है। तुम भी घास-फूस के आदमी हो, तुम्हारे ऊपर भी हंडी लगी है और डंडे लगे हैं और कुरता पहन लिया है।
मैं सोचने लगा: झूठे आदमी और सच्चे आदमी में फर्क क्या है? हंडी लगी हो, डंडे लगे हों, कुरता पहना हो–इसमें और मुझमें फर्क क्या है?
फर्क इतना ही है कि यह अपने में बंद है, इसकी कोई जड़ें जीवन से जुड़ी हुई नहीं हैं। इसकी कहीं श्र्वास नहीं जुड़ी है। किसी आकाश से इसका मन नहीं जुड़ा है। किन्हीं वृक्षों से इसका खून नहीं जुड़ा है। किन्हीं समुद्रों से इसका पानी नहीं जुड़ा है। इसके भीतर कोई जोड़ नहीं है बाहर से। यह सब तरफ से टूटा अपने में बंद है। इसका कोई जोड़ ही नहीं है, इसीलिए यह झूठा है।
और सच्चे आदमी का क्या मतलब होगा?
कि वह जुड़ा है, सबसे जुड़ा है–रग-रग, रेशा-रेशा, कण-कण जुड़ा है। सूरज से जुड़ा है, चांद से जुड़ा है, समुद्रों से, आकाशों से, सबसे जुड़ा है। जितना जो आदमी ज्यादा जुड़ा है, उतना सच्चा होगा। और जितना ज्यादा टूटा है, उतना हंडी रह जाएगी, लकड़ियां रह जाएंगी, कुरते रह जाएंगे।
और करीब-करीब आदमी झूठा हो गया है। यह सारी मनुष्यता हंडी वाली, लकड़ी वाली, कुरते वाली मनुष्यता हो गई है। वहां भीतर कोई आत्मा नहीं है, क्योंकि आत्मा जोड़–अनंत जोड़ से उत्पन्न होने वाली संभावना है। इस संबंध में कल आपसे बात करूंगा।
सुबह जो मित्र ध्यान के लिए आते हैं, वे ठीक आठ बजे के पहले पहुंच जाएं स्नान करके। और घर से ही चुप चलें, आंख बंद करके चलें और वहां भी कोई बात न करें।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, इससे अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।