UPANISHAD
Kathopanishad 01
First Discourse from the series of 19 discourses – Kathopanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during OCT 06-13 1973.
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प्रथम वल्ली
ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।।1।।
तंह कुमारं सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽमन्यत।।2।।
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्।।3।।
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति।
द्वितीयं तृतीयं तंहोवाच मृत्यवे त्वा ददामीति।।4।।
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।
किंस्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्ममाद्य करिष्यति।।5।।
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे।
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।।6।।
वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान्।
तस्यैतां शांन्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्।।7।।
आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां च इष्टापूर्ते पुत्रपशूंश्च सर्वान्।
एतद् वृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे।।8।।
तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे अनश्नन् ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्यः।
नमस्तेऽतु ब्रह्मन् स्वस्ति मेऽस्तु तस्मात् प्रति त्रीन् वरान् वृणीष्व।।9।।
शान्तसंकल्पः सुमना यथा स्याद्वीतमन्युर्गौतमो माभि मृत्यो।
त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे।।10।।
यथा पुरस्ताद् भविता प्रतीत औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्टः।
सुखं रात्रीः शयिता वीतमन्युस्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम्।।11।।
स्वर्गे लोके न भयं किंचनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति।
उभे तीर्त्वाशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके।।12।।
स त्वमग्निम् स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यो प्रब्रूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम्।
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण।।13।।
प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन्।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम्।।14।।
लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीर्वा यथा वा।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्युः पुनरेवाह तृष्टः।।15।।
तमब्रवीत् प्रीयमाणो महात्मा वरं तवेहाद्य ददामि भूयः।
तवैव नाम्ना भवितायमग्निः सृंकां चेमामनेकरूपां गृहाण।।16।।
त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य संधिं त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू।
ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति।।17।।
त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्।
स मृत्युपाशान् पुरतः प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके।।18।।
एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण।
एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यंति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व।।19।।
ॐ इस सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा के नाम का स्मरण करके उपनिषद का आरंभ करते हैं।
प्रसिद्ध है कि यज्ञ का फल चाहने वाले वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने (विश्वजित यज्ञ में) अपना सारा धन (ब्राह्मणों को) दान कर दिया। उसका नचिकेता नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र था।।1।।
(जिस समय ब्राह्मणों को) दक्षिणा के रूप में देने के लिए गौवें लाई जा रही थीं, उस समय छोटा बालक होने पर भी नचिकेता में श्रद्धा का आवेश हो गया और उन जराजीर्ण गायों को देखकर वह विचार करने लगा।।2।।
जो अंतिम बार जल पी चुकी हैं, जिनका घास खाना समाप्त हो गया है, जिनका दूध अंतिम बार दुह लिया गया है, जिनकी इंद्रियां नष्ट हो चुकी हैं, ऐसी निरर्थक, मरणासन्न गौवों को देने वाला वह दाता तो नीच योनियों और नरकादि लोक जो सब प्रकार के सुखों से शून्य हैं, उनको प्राप्त होता है। (अतः पिताजी को सावधान करना चाहिए)।।3।।
यह सोचकर वह अपने पिता से बोला कि हे प्यारे पिताजी! आप मुझे किसको देंगे? (उत्तर न मिलने पर उसने वही बात) दुबारा-तिबारा कही, तब पिता ने उससे क्रोधपूर्वक कहा कि तुझे मैं मृत्यु को देता हूं।।4।।
(यह सुनकर नचिकेता मन ही मन विचारने लगा कि) बहुतों में मैं प्रथम श्रेणी के आचरण पर चलता आया हूं और बहुतों में मध्यम श्रेणी के आचार पर चलता हूं, (कभी भी नीची श्रेणी के आचरण को मैंने नहीं अपनाया, फिर पिताजी ने ऐसा क्यों कहा!) यम का ऐसा कौन-सा कार्य हो सकता है, जिसे आज मेरे द्वारा (मुझे देकर) (पिताजी) पूरा करेंगे?।।5।।
उसने अपने पिता से कहा: आपके पूर्वज पितामह आदि जिस प्रकार का आचरण करते आए हैं, उस पर विचार कीजिए और (वर्तमान में भी) दूसरे श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण कर रहे हैं, उस पर भी दृष्टिपात कर लीजिए, (फिर आप अपने कर्तव्य का निश्चय कर लीजिए।)यह मरणधर्मा मनुष्य अनाज की तरह पकता है अर्थात जराजीर्ण होकर मर जाता है तथा अनाज की भांति ही फिर उत्पन्न हो जाता है।।6।।
अतएव इस अनित्य जीवन के लिए मनुष्य को कभी कर्तव्य का त्याग करके मिथ्या आचरण नहीं करना चाहिए। आप शोक का त्याग कीजिए और अपने सत्य का पालन कर मुझे मृत्यु (यमराज) के पास जाने की अनुमति दीजिए।
पुत्र के वचन सुनकर उद्दालक को दुख हुआ, परंतु नचिकेता की सत्यपरायणता देखकर उन्होंने उसे यमराज के पास भेज दिया। नचिकेता को यमसदन पहुंचने पर पता लगा कि यमराज कहीं बाहर गए हुए हैं; अतएव नचिकेता तीन दिनों तक अन्न-जल ग्रहण किए बिना ही यमराज की प्रतीक्षा करता रहा।
यमराज के लौटने पर उनकी पत्नी ने कहा–हे सूर्यपुत्र! स्वयं अग्निदेवता ही ब्राह्मण अतिथि के रूप में गृहस्थ के घरों में प्रवेश करते हैं, साधुपुरुष उनका सत्कार किया करते हैं, अतः आप उनके लिए जल आदि अतिथि-सत्कार की सामग्री ले जाइए।।7।।
जिसके घर में ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किए निवास करता है, उस मंदबुद्धि मनुष्य की नाना प्रकार की आशा और प्रतीक्षा, उनकी पूर्ति से होने वाले सब प्रकार के सुख, सुंदर भाषण के फल एवं यज्ञ, दान आदि शुभ कर्मों के फल तथा समस्त पुत्र और पशु आदि वैभव, इन सबको वह नष्ट कर देता है।।8।।
पत्नी के वचन सुनकर यमराज नचिकेता के पास गए और उसका यथोचित सत्कार कर बोले: हे ब्राह्मण! आप अतिथि हैं। आपको नमस्कार हो। हे ब्राह्मण! मेरा कल्याण हो। आपने जो तीन रात्रियों तक मेरे घर पर बिना भोजन किए निवास किया है, इसलिए (आप मुझसे) प्रत्येक रात्रि के बदले (एक-एक करके) तीन वरदान मांग लीजिए।।9।।
यमराज ने जब इस प्रकार कहा, तब पिता को सुख पहुंचाने की इच्छा से नचिकेता बोला: हे मृत्युदेव! मेरे पिता गौतमवंशीय उद्दालक मेरे प्रति शांत संकल्प वाले, प्रसन्नचित्त और क्रोध एवं खेद से रहित हो जाएं तथा आप के द्वारा वापस भेजे जाने पर जब मैं उनके पास जाऊं तो वे मुझ पर विश्वास करके पुत्र-भाव रखकर मेरे साथ प्रेमपूर्वक बातचीत करें। यह मैं अपने तीनों वरों में पहला वर मांगता हूं।।10।।
यमराज ने कहा: तुमको मृत्यु के मुख से छूटा हुआ देखकर, मुझसे प्रेरित तुम्हारे पिता उद्दालक पहले की भांति ही, यह मेरा पुत्र नचिकेता ही है, ऐसा समझ करके दुख और क्रोध से रहित हो जाएंगे और वे अपनी आयु की शेष रात्रियों में सुखपूर्वक शयन करेंगे।।11।।
इस वरदान को पाकर नचिकेता बोला, हे यमराज! स्वर्गलोक में किंचितमात्र भी भय नहीं है; वहां मृत्युरूप स्वयं आप भी नहीं हैं। वहां कोई बुढ़ापे से भी भय नहीं करता। स्वर्गलोक के निवासी भूख और प्यास, इन दोनों से पार होकर, दुखों से दूर रहकर सुख भोगते हैं।।12।।
हे मृत्युदेव! आप उपर्युक्त स्वर्ग की प्राप्ति के साधनरूप अग्नि को जानते हैं। अतः आप मुझ श्रद्धालु को वह अग्निविद्या भलीभांति समझाकर कहिए, जिससे कि स्वर्गलोक के निवासी अमरत्व को प्राप्त होते हैं। यह मैं दूसरे वर के रूप में मांगता हूं।।13।।
तब यमराज बोले: हे नचिकेता! स्वर्गदायिनी अग्निविद्या को अच्छी तरह जानने वाला मैं तुम्हारे लिए उसे भलीभांति बतलाता हूं; तुम उसे मुझसे भलीभांति समझ लो। तुम इस विद्या को स्वर्गरूपी अनंत लोकों की प्राप्ति कराने वाली तथा उसकी आधारस्वरूपा और (बुद्धिरूप) गुफा में छिपी हुई समझो।।14।।
उस स्वर्गलोक की कारणरूपा अग्निविद्या का उस नचिकेता को उपदेश दिया। उसमें कुंड-निर्माण आदि के लिए जो-जो और जितनी ईंटें आदि आवश्यक होती हैं तथा जिस प्रकार उनका चयन किया जाता है, वे सब बातें भी बताईं। तथा उस नचिकेता ने भी वह जैसा सुना था, ठीक उसी प्रकार समझकर यमराज को पुनः सुना दिया। उसके बाद यमराज उस पर संतुष्ट होकर फिर बोले।।15।।
(उसकी अलौकिक बुद्धि देखकर) प्रसन्न हो, महात्मा यमराज नचिकेता से बोले: अब मैं तुम्हें यहां पुनः यह अतिरिक्त वर देता हूं कि यह अग्निविद्या तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगी तथा इस अनेक रूपों वाली रत्नों की माला को भी तुम स्वीकार करो।।16।।
(उस अग्निविद्या का फल बतलाते हुए यमराज कहते हैं:)
इस अग्नि का शास्त्रोक्त रीति से तीन बार अनुष्ठान करने वाला, तीनों ऋक्, साम, यजुर्वेद के साथ संबंध जोड़कर यज्ञ, दान और तपरूप तीनों कर्मों को निष्कामभाव से करने वाला मनुष्य जन्म-मृत्यु से तर जाता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न सृष्टि के जानने वाले स्तवनीय इस अग्निदेव को जानकर तथा इसका निष्कामभाव से विधिपूर्वक चयन करके इस अनंत शांति को पा जाता है, (जो मुझको प्राप्त है)।।17।।
(ईंटों के स्वरूप, संख्या और अग्नि-चयन-विधि) इन तीनों बातों को जानकर, तीन बार नाचिकेत अग्निविद्या का अनुष्ठान करने वाला तथा जो कोई भी इस प्रकार जानने वाला पुरुष इस नाचिकेत अग्नि का चयन करता है, वह मृत्यु के पाश को अपने सामने ही (मनुष्य शरीर में ही) काटकर शोक से पार होकर स्वर्गलोक में आनंद का अनुभव करता है।।18।।
हे नचिकेता, यह तुम्हें बतलाई हुई स्वर्ग प्रदान करने वाली अग्निविद्या है, जिसको तुमने दूसरे वर से मांगा है। इस अग्नि को अब से लोग तुम्हारे ही नाम से स्मरण करेंगे। हे नचिकेता, अब तुम तीसरा वर मांगो।।19।।
उपनिषद जीवन के रहस्य के संबंध में इस पृथ्वी पर अनूठे शास्त्र हैं। कठोपनिषद उन सब उपनिषदों में भी अनूठा है। इसके पहले कि हम उपनिषद में प्रवेश करें, इस उपनिषद की अंतर-भूमिका समझ लेनी चाहिए।
पहली बात, इस जगत में जो व्यक्ति भी जीवन को जानना चाहता है, उसे स्वयं ही मृत्यु से गुजरे बिना और कोई उपाय नहीं है।
जीवन को जानना हो तो मरने की कला सीखनी पड़ती है। जो मृत्यु से भयभीत है, वह जीवन से भी अपरिचित रह जाता है। क्योंकि मृत्यु जीवन का गुह्यतम, गहन से गहन केंद्र है। केवल वे ही लोग जीवन को जान पाते हैं, जो सचेतन, होशपूर्वक, स्वागत से भरे हुए मृत्यु में प्रवेश कर सकते हैं।
मरते सभी हैं, लेकिन सभी लोग मरने के कारण जीवन को नहीं जान पाते।
हम भी बहुत बार मरे हैं। और डर है कि अभी और बहुत बार मरेंगे। लेकिन मृत्यु होती है एक जबर्दस्ती। हम मरना नहीं चाहते, मरना पड़ता है; इसलिए मृत्यु होती है एक दुख, एक पीड़ा, एक संताप। और मृत्यु की पीड़ा इतनी गहन है कि उस पीड़ा को झेलने का एक ही उपाय है कि आप मूर्च्छित हो जाएं। इसलिए मरने के पहले ही हम मूर्च्छित हो जाते हैं। सर्जन तो बहुत बाद में खोज पाए कि पीड़ा से बचने का उपाय बेहोशी है। लेकिन प्रकृति को सदा से पता है–मृत्यु के भय के कारण, पीड़ा के कारण चेतना मूर्च्छित हो जाती है।
हम सब मरते हैं मूर्च्छा में। बहुत बार मरे हैं बेहोश। इसलिए हमें कोई स्मरण नहीं है। बहुत बार जन्मे भी हैं, लेकिन बेहोश। हमें उसका भी कोई स्मरण नहीं। अतीत की तो बात छोड़ दें, इतना तो निश्चित ही है कि इस बार आप जन्मे हैं। लेकिन इस जन्म का भी कोई स्मरण नहीं है।
जिसकी मृत्यु मूर्च्छा में होती है, उसका जन्म भी मूर्च्छा में होता है। क्योंकि मृत्यु एक पहलू है उसी सिक्के का, जन्म जिसका दूसरा पहलू है। एक छोर पर जो बेहोश है, वह दूसरे छोर पर भी बेहोश ही होगा। जो मरता है बेहोश, वह जन्मता है बेहोश। इसलिए हमें जन्म का भी कोई स्मरण नहीं है।
सुना है आपने कि आप जन्मे। माता-पिता कहते हैं, परिवार-समाज कहता है। आप खुद जन्मे हैं, लेकिन आपको अपने जन्म की कोई स्मृति नहीं है। मरते सभी हैं, लेकिन बेहोश मरते हैं। इसलिए मृत्यु से जो सीखा जा सकता है, उससे वंचित रह जाते हैं।
धर्म होशपूर्वक मरने की कला है।
धर्म जानते हुए, समझपूर्वक मृत्यु में प्रवेश करने का विज्ञान है।
और जो व्यक्ति होशपूर्वक मृत्यु में प्रवेश कर जाता है, उसके लिए मृत्यु सदा के लिए समाप्त हो जाती है। क्योंकि होशपूर्वक मरते हुए वह जानता है कि मैं मर ही नहीं रहा हूं। होशपूर्वक मरते हुए वह जानता है कि जो मर रहा है, वह मेरी देह है, शरीर है; वस्त्रों से ज्यादा नहीं। और जो मेरी अंतर-चेतना है, वह मृत्यु में भी प्रज्वलित है। मृत्यु की आंधी भी उसे बुझा नहीं पाती।
मृत्यु में जो जानता है–जागता है, होश से भरा है, उसके लिए मृत्यु समाप्त हो गई। जो बेहोश मरता है, उसी के लिए मृत्यु है। जो होशपूर्वक मरता है, उसके लिए कोई मृत्यु नहीं है। फिर मृत्यु ही उसके लिए अमृत का द्वार हो जाती है।
जो होशपूर्वक मरता है वह होशपूर्वक जन्मता भी है। और जो होशपूर्वक जन्मता है, उसके जीवन का पूरा गुण बदल जाता है; वह होशपूर्वक जीता भी है। उसका रोआं-रोआं, उसकी चेतना का कण-कण प्रकाश से, ज्ञान से, बुद्धत्व से भर जाता है।
जो व्यक्ति होशपूर्वक जन्मता है, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं होती। फिर उसका कोई जन्म नहीं होता। फिर यह देह छूट जाती है, लेकिन परमब्रह्म में लीनता शेष रहती है। उसे ज्ञानियों ने निर्वाण कहा है, ब्रह्म-उपलब्धि कही है, मोक्ष कहा है, कैवल्य कहा है।
जिसने मृत्यु को पहचानकर अमृत को जान लिया, शरीर से उसके संबंधों का फिर कोई कारण नहीं रह जाता। शरीर से हम जुड़ते हैं, क्योंकि हम बेहोश हैं। बेहोशी हमारा शरीर से जोड़ है, वही सेतु है। होश–जोड़ टूट जाता है। शरीर अलग और हम अलग हो जाते हैं। और जैसे ही इस अलगपन की स्मृति गहन होती है, वैसे ही फिर कोई मृत्यु नहीं है। क्योंकि शरीर ही मरता है, शरीर ही जन्मता है। शरीर के भीतर जो छिपा है–अशरीरी–वह न जन्मता है, वह न मरता है। वह स्वयं जीवन है। जीवन की मृत्यु कैसी?
और जो मरता है, उसका जीवन धोखे का था, उधार था। जो मरता है, उसके जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
यह बड़े मजे की बात है। मनुष्य दो का जोड़ है। एक है: मरणधर्मा शरीर। वह मरा हुआ ही है। और एक है: अमृत आत्मा। वह स्वयं जीवन है। आत्मा के जीवन की निकटता के कारण ही शरीर जीवित मालूम होता है।
शरीर की जीवंतता उधार है, प्रतिफलन है। जैसे दर्पण के सामने आप खड़े हों, और दर्पण में आप दिखाई पड़ें। वह जो दर्पण में दिखाई पड़ रहा है, वह उधार है। वह वास्तविक नहीं है। आप हटे कि वह दर्पण से हट जाएगा। वह प्रतिबिंब है, सचाई नहीं। सचाई की खबर तो उससे मिलती है, सचाई का इशारा भी उससे मिल सकता है। लेकिन जो उसे ही सचाई समझ ले, वह भटक जाएगा। उससे सत्य का संबंध सदा के लिए टूट जाएगा।
शरीर सिर्फ खबर देता है, भीतर छिपे जीवन की। शरीर जीवित मालूम होता है सिर्फ निकटता के कारण, सान्निध्य के कारण। आत्मा की जीवंतता इतनी प्रगाढ़ है कि मुर्दा शरीर भी जीवित हुआ मालूम पड़ता है। लेकिन जो इस शरीर के जीवन को ही जीवन समझ लेता है, वह जीवन को जानने से वंचित हो जाता है।
मृत्यु में प्रवेश का अर्थ है, दर्पण से हटकर मूल में प्रवेश, इस उपनिषद का सारभूत यही है। शेष कथा है।
लेकिन शेष कथा भी बड़ी मधुर है। और बहुत सी अनूठी बातों की सूचक है।
कठोपनिषद बहुत बार आपने पढ़ा होगा। बहुत बार कठोपनिषद के संबंध में बातें सुनी होंगी। लेकिन कठोपनिषद जितना सरल मालूम पड़ता है, उतना सरल नहीं है।
ध्यान रहे, जो बातें बहुत कठिन हैं, उन्हें ऋषियों ने बहुत सरल ढंग से कहने की कोशिश की है। क्योंकि वे बातें ही इतनी कठिन हैं कि सरल ढंग से कहने पर भी समझ में न आएंगी। अगर सीधी-सीधी कह दी जाएं तो आपसे उनका कोई संबंध, कोई संपर्क ही नहीं होगा।
कठोपनिषद एक कथा है, एक कहानी है। लेकिन उस कहानी में वह सब है, जो जीवन में छिपा है। हम इस कहानी की एक-एक पर्त को उघाड़ना शुरू करेंगे।
ॐ इस सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा के नाम का स्मरण करके उपनिषद का आरंभ करते हैं।
परमात्मा के स्मरण से आरंभ!
जीवन में हम भी बहुत आरंभ करते हैं, लेकिन सभी आरंभ अहंकार के स्मरण से होते हैं। हम जो भी करते हैं, उसमें मैं मौजूद होता हूं। असल में हम करते ही इसलिए हैं कि मैं घना हो, सघन हो, मजबूत हो। हमारी सारी क्रियाएं मैं को ही मजबूत करने की चेष्टाएं हैं। हमारा सारा कर्तापन अहंकार को भरने की कोशिश है। इसलिए संसार में सभी कुछ प्रारंभ हो सकता है अहंकार से, लेकिन धर्म का प्रारंभ अहंकार से नहीं हो सकता। धर्म का प्रारंभ निरअहंकार से होगा।
परमात्मा का स्मरण इस बात का स्मरण है कि मैं नहीं हूं, तू है। मेरा होना न होने के बराबर है। मैं तेरे स्मरण से शुरू करता हूं, उसका अर्थ है कि मैं अपने को केंद्र से हटा लेता हूं। तू केंद्र पर है। मैं परिधि बनता हूं। मैं गौण हो जाता हूं, तू प्रमुख है।
परमात्मा का स्मरण अगर वास्तविक हो, तो मात्र स्मरण से ही सब कुछ घट सकता है। शायद आगे उपनिषद में जाने की जरूरत भी न रह जाए। मात्र स्मरण–कि तू ही सब कुछ है, और मैं कुछ भी नहीं हूं–अगर यह सचमुच वास्तविक हो जाए, जीवंत हो जाए, अनुभव बन जाए, पूरे प्राण हमारे इसी एक भाव से भर जाएं; पूरी श्वास की, हृदय की धड़कन-धड़कन एक ही गूंज से उठ जाए, प्रभु के स्मरण से, तो शायद आगे जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। या आगे जो कहा गया है वह ऐसे लोगों ने कहा है, जो ऐसे स्मरण से भर गए। जिन्होंने इस स्मरण को जाना, उनके लिए जीवन के सारे रहस्य खुल गए। उनके लिए कहीं कोई पर्दा न रहा। उनके लिए जीवन एक खुली किताब हो गई।
ऋषि कहता है: प्रभु के स्मरण से हम इस उपनिषद का प्रारंभ करते हैं। आपसे भी मैं कहूंगा, इस साधना शिविर का प्रारंभ आप अपने से न करें, प्रभु-स्मरण से करें। जो अपने से करेगा, वह खाली हाथ लौट जाएगा। जो अपने से करेगा, वह व्यर्थ ही आया। वह आया ही नहीं। क्योंकि ध्यान वहीं शुरू होता है, जहां आप समाप्त होते हैं। जहां तक आप हैं, वहां तक कोई ध्यान नहीं है। आपकी मृत्यु, आपका मरना ही ध्यान है।
प्रभु के स्मरण का अर्थ है कि मैं मूल्यवान नहीं हूं कि मेरा स्मरण करूं। मैं हट जाता हूं; मैं जगह दे देता हूं। और जब आप जगह दे देते हैं, जैसे कोई द्वार खोल दे और बाहर का सूरज भीतर प्रवेश कर जाए, जैसे ही आप हट जाते हैं कि शाश्वत प्रकाश आपके भीतर भरना शुरू हो जाता है। आपके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।
लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं, क्या है बाधा? क्या है अड़चन? बड़ी कोशिश करते हैं ध्यान की, नहीं होता। प्रार्थना करते हैं, अधूरी रह जाती है। स्मरण करते हैं, छूट-छूट जाता है। माला फेरते हैं, हाथ में ही रह जाती है, भीतर कुछ और फिरने लगता है। मंदिर में जाते हैं, पहुंच नहीं पाते। शास्त्र पढ़ते हैं, कहीं भी प्राण उससे स्पंदित नहीं होते हैं। क्या बाधा है? क्या अड़चन है?
कोई और बाधा होती तो मैं भी छीन सकता था। आप ही बाधा हैं। आपके अतिरिक्त इस बाधा को और कोई भी मिटा नहीं सकता।
प्रभु के स्मरण का अर्थ है: मैं अपने को हटाता हूं, मैं अपने को भूलता हूं और तुझे स्मरण करता हूं।
पर हम बड़े मजेदार लोग हैं। हम प्रभु का स्मरण भी करते हैं, तो भी हम ही स्मरण करते हैं। और जहां आप मौजूद हैं, वहां प्रभु मौजूद नहीं हो सकता। आपके और उसके मिलने का कोई भी उपाय नहीं है। आपकी उससे कभी कोई मुलाकात न होगी। कभी हुई नहीं किसी की। जब व्यक्ति मिट जाता है, तब उसका प्रगट होना शुरू होता है।
कबीर ने कहा है कि बड़ी उलझन है। पहले मैं खोजता था। खोजते-खोजते खुद खो गया। अब तुम मिले हो, लेकिन तुम मिले हो तब मैं नहीं हूं। जो खोजने निकला था, वह अब नहीं है। कबीर ने कहा है, जब मैं तुम्हें पुकारता फिरता था, खोजता था, तुम्हारा कोई पता न चलता था। और अब तुम मेरे पीछे-पीछे घूमते हो, कबीर-कबीर बुलाते, और अब मैं नहीं हूं!
आज तक किसी मनुष्य का परमात्मा से मिलन नहीं हुआ। कभी हो भी नहीं सकता। वह मिलन असंभव है। वह वैसे ही असंभव है जैसे प्रकाश और अंधेरे का कोई मिलन नहीं होता। अंधेरा होता है तो प्रकाश नहीं होता। प्रकाश होता है तो अंधेरा नहीं होता।
आप अंधेरा हैं। हम स्मरण भी करते हैं प्रभु का, तो इस अंधेरे के भीतर ही वह स्मरण भी है। हम उस स्मरण को भी इस अंधेरे का एक अंग बना लेते हैं। हमारा धर्म भी हमसे छोटा होता है; हमारी प्रार्थना भी हमसे छोटी होती है। और जैसे हम और चीजें सम्हालकर रखते हैं, वैसे ही अपनी प्रार्थना को भी सम्हालकर रख लेते हैं। लेकिन मालिक, मालिक अहंकार ही होता है।
प्रभु के स्मरण का अर्थ है कि अब मैं नहीं हूं। और अगर एक बार पूरे हृदय से यह खयाल आ जाए कि मैं नहीं हूं, तो आप सब कुछ हो जाते हैं। कुछ और पाने को शेष नहीं रह जाता।
प्रभु-स्मरण, स्वयं का विस्मरण है।
स्वयं का स्मरण, प्रभु का विस्मरण है।
वह जो हमारे भीतर छिपा है, तब तक छिपा रहेगा, जब तक हमारा अहंकार, जब तक मैं का भाव मजबूत है। जैसे ही मैं-भाव हटता है, वह जो भीतर छिपा है, प्रकट हो जाता है। वह जो भीतर छिपा है, वह परमात्मा है।
परमात्मा कहीं कोई आकाश में नहीं बैठा है। इसलिए अगर आप आकाश की तरफ अपनी प्रार्थनाएं भेज रहे हैं तो व्यर्थ ही भेज रहे हैं। और परमात्मा किसी मंदिर में भी नहीं छिपा है। अगर आप किसी मंदिर की तलाश कर रहे हैं, आप समय और जीवन नष्ट कर रहे हैं। परमात्मा आपके भीतर छिपा है। लेकिन जब तक आप हैं, तब तक जो भीतर छिपा है वह प्रगट न हो सकेगा। ऐसे ही जैसे एक बीज जब टूट जाता है तो अंकुरित होता है और वृक्ष बन जाता है। बीज की खोल ही वृक्ष को छिपाए हुए है।
जब तक आप टूट न जाएंगे और मिट्टी में न मिल जाएंगे, जब तक आप खो न जाएंगे, मर न जाएंगे, तब तक आपके भीतर जो छिपा है वह प्रगट नहीं होगा। आप बाधा हैं। इसलिए उपनिषद शुरू होता है प्रभु के स्मरण से।
प्रसिद्ध है कि यज्ञ का फल चाहने वाले वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने अपना सारा धन विश्वजित यज्ञ में ब्राह्मणों को दे दिया। उसका नचिकेता नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र था।
इस कहानी की एक-एक पर्त उघाड़नी है।
प्रसिद्ध है कि यज्ञ का फल चाहने वाले वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित यज्ञ में अपना सारा धन ब्राह्मणों को दे दिया।
इस वचन में इतना कुछ छिपा है! पहली तो बात कि लोग धर्म के नाम पर भी विश्व को ही जीतने की आकांक्षा रखते हैं। विश्वजित यज्ञ–सारी दुनिया को जीत लूं! सारे संसार का मालिक हो जाऊं! लोग छोड़ते भी हैं तो पाने के लिए! तो छोड़ना व्यर्थ हो जाता है। उस त्याग का दो कौड़ी भी मूल्य नहीं, जो किसी भोग के लिए किया गया हो। उस त्याग का क्या अर्थ है, जिसके पीछे पाने की कामना और वासना हो! सौदा हुआ, त्याग न हुआ।
आप भी छोड़ते हैं। ऐसे तो हर आदमी छोड़ता है। बाजार से कुछ खरीदना है तो आपको जेब खाली करनी पड़ती है, लेकिन उस खाली करने को आप त्याग नहीं कहते। आप उसे सौदा कहते हैं। जब आप कुछ पाना चाहते हैं तो आपको कुछ देना पड़ता है। लेकिन उस देने को त्याग कोई भी न कहेगा।
त्याग का अर्थ ही यह है कि जब कोई दे, और पाना न चाहे। जब दान तो हो, लेकिन मांग न हो। जब कोई सिर्फ दे। और जिसकी लौटने के लिए कोई शर्तबंदी न हो। जो यह न कहे कि इसलिए देता हूं। जो यह न कहे कि मैं यह पाने के लिए देता हूं। उसका देना ही दान है। अन्यथा दान धोखा है।
आप अगर दान करते हैं कि स्वर्ग मिल जाए, तो आप सिर्फ दुकान का विस्तार करते हैं। आप सिर्फ इन्वेस्टमेंट करते हैं। आप स्वर्ग को खरीदने की चेष्टा में लगे हैं। और जो भी खरीदा जा सकता है, वह नर्क ही होगा। जो भी खरीदा जा सकता है, वह संसार होगा।
परमात्मा खरीदा नहीं जा सकता। इसलिए परमात्मा को पाने के लिए अगर आप कुछ देते हैं तो आप परमात्मा को न पा सकेंगे। आप सारा संसार भी दे दें, लेकिन अगर पाने की कामना भीतर है तो सारा संसार भीतर मौजूद है। वासना संसार है।
बुद्ध ने कहा है: वासना, तृष्णा, कामना संसार है। यह जो संसार दिखाई पड़ता है बाहर फैला हुआ, यह नहीं। यह तो ऐसे ही फैला रहेगा। आप नहीं थे तब भी था, आप नहीं होंगे तब भी होगा। यह तो तब भी फैला रहता है जब बुद्ध जैसा व्यक्ति अपनी सारी वासना से मुक्त हो जाता है। तब भी यह संसार तो बना ही रहता है। इस संसार से कोई सवाल नहीं है। संसार से उस कामना का सवाल है, जो इस संसार की तरफ आप अपने भीतर से फैलाते हैं। वह जो वासना के हाथ फैलते हैं, पंख फैलते हैं और सारे संसार को अपने कब्जे में ले लेना चाहते हैं।
उपनिषद का ऋषि यह कह रहा है कि उद्दालक ने विश्वजित यज्ञ किया। सारे संसार का मैं विजेता हो जाऊं।
संसार का जो विजेता होना चाहता है उसका धर्म से क्या संबंध! वह सिकंदर की चाह है, नेपोलियन की चाह है, हिटलर की चाह है। सभी पागलों की इच्छा यही है।
जीसस ने कहा है कि तुम सारा संसार भी पा लो और अगर स्वयं को खो दो, तो इस पाने से क्या होगा? उद्दालक सारे संसार को जीतने की आकांक्षा से भरा है। स्वयं को पाने की कोई आकांक्षा नहीं दिखाई पड़ती। स्वयं का कोई खयाल भी नहीं है।
उद्दालक का धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। उद्दालक कुलीन है। बड़ी प्रसिद्ध उसकी वंश-परंपरा है। समझदार है, बुद्धिमान है, पंडित है। यज्ञ कर रहा है, लेकिन संसार को जीतने के लिए! ज्ञानी नहीं है, अनुभवी है। उम्र है उसकी। लेकिन फिर भी अनुभव निचुड़कर ज्ञान नहीं बन पाया है। तो वह धर्म के नाम पर जो कुछ भी करेगा, वह सिर्फ औपचारिक होगा, फारमल होगा, उसके भीतर अंतरात्मा नहीं होगी। उसने अपना सारा धन ब्राह्मणों को दे दिया। लेकिन वासना है विश्व-विजय की! वासना है ख्याति की, यश की! वासना है अहंकार की!
अहंकार सब कुछ छोड़ सकता है, सिर्फ आप अहंकार को भर मत छोड़ें। अहंकार सब छोड़ सकता है, महलों को लात मार सकता है, सिंहासनों को लात मार सकता है, धन को फेंक सकता है, पत्नी-बच्चों को त्याग सकता है, अहंकार सब छोड़ सकता है, अगर आप अहंकार भर को सम्हालने को राजी हों। अहंकार डरता है सिर्फ एक बात से कि आप उसको न छोड़ दें। आप सब छोड़ें। क्योंकि अहंकार बड़ा कुशल है। आप जो भी छोड़ते हैं, उसी से अपने को भर लेता है।
अहंकार धन से ही नहीं भरता, त्याग से भी अपने को भर लेता है। अहंकार का गणित बहुत साफ है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप महल में रहते हैं कि झोपड़े में। आप महल छोड़कर झोपड़े में रह सकते हैं, और अहंकार अकड़ा हुआ रहेगा कि मैंने महलों को लात मार दी। क्या रखा है महलों में! मेरे लिए कुछ भी नहीं। अहंकार नग्न खड़ा हो सकता है कि मैंने वस्त्रों को लात मार दी! अहंकार किसी भी चीज से रस ले सकता है।
तो दान तो किया है उद्दालक ने; दान में कोई कमी नहीं है। इसलिए आप अपने छोटे-मोटे दान से बहुत ज्यादा परेशान मत हो जाना। उद्दालक ने सब छोड़ दिया, सब दे दिया। सब दे दिया, फिर भी उसकी बुद्धि एक छोटे बच्चे के मुकाबले भी शुद्ध नहीं है। उसका ही बेटा नचिकेता, जो अभी कुछ भी नहीं जानता, ज्यादा शुद्ध है, ज्यादा निर्दोष है, इनोसेंट है। उसे भी दिखाई पड़ जाता है कि यह बाप बड़ी गलती कर रहा है।
इसे भी थोड़ा समझ लें।
बहुत बार जो बाप को नहीं दिखाई पड़ता, वह बेटे को दिखाई पड़ जाता है। क्योंकि बाप की बुद्धि अक्सर धूल से भर जाती है। समय, जीवन के कडुवे-मीठे अनुभव बुद्धि को निखारते नहीं, कुंद कर जाते हैं; जंग खा जाती है बुद्धि। तो आप यह मत सोचना कि उम्र बढ़ जाने से आप बुद्धिमान हो जाते हैं। बूढ़े हो जाते हैं, बुद्धिमान नहीं होते।
सच तो यह है कि बच्चे के पास ज्यादा साफ-सुथरी बुद्धि होती है। बच्चे के पास ज्यादा निर्दोष आंख होती है। वह चीजों को सीधा-सीधा देख पाता है। उसके पास ईमानदार हृदय होता है। इसलिए नहीं कि उसने ईमानदारी साध ली है, इसलिए कि अभी उसे बेईमानी का कोई पता नहीं। जल्दी ही वह भी बेईमान हो जाएगा, क्योंकि आप सब उसे सिखाने में लगे हैं। मां-बाप हैं, परिवार है, समाज है, विश्वविद्यालय हैं, गुरु हैं, ये सब सिखाने में लगे हैं। इसके पहले कि वह अपनी निर्दोषता को सम्हाल पाए, हम सारे विकार उसमें डाल देंगे। वह हमारे काम का तभी है, जब विकारग्रस्त हो जाए, जब बीमार हो जाए।
हमारी सारी शिक्षा की व्यवस्थाएं उस निर्दोष बुद्धि को नष्ट करने का उपाय करती हैं, जिसको प्रत्येक व्यक्ति जन्म से लेकर पैदा होता है–एक कोरा हृदय, जिस पर अभी कोई दाग नहीं पड़े। लेकिन दाग पड़ेंगे। यह कोरा हृदय कोई उपलब्धि नहीं है। यह कोरा हृदय बहुत जल्दी गंदा हो जाएगा। इसे भी संसार में जाना पड़ेगा। इसके बाप के पास भी किसी दिन ऐसा ही कोरा हृदय था।
इसलिए बचपन प्राकृतिक घटना है। उसमें कोई गौरव नहीं है। लेकिन कोई बूढ़ा होकर फिर जब बच्चे की आंख पा लेता है, तब गौरव की बात है। जब कोई बूढ़ा होकर भी हृदय को बूढ़ा नहीं होने देता, ताजा और निर्दोष रख लेता है, तब गौरव की बात है।
इसलिए जीसस ने कहा है कि मेरे प्रभु के राज्य में वे ही प्रवेश कर सकेंगे, जो छोटे बच्चों की तरह हैं। छोटे बच्चों की भांति! काश, जीसस को नचिकेता का पता होता, तो जीसस ने नचिकेता का नाम जरूर लिया होता। क्योंकि पूरे इतिहास में नचिकेता जैसा शुद्ध हृदय खोजना मुश्किल है। सभी बच्चों के पास होता है।
और आप यह मत सोचना कि आपके बच्चे के पास नहीं है। उद्दालक को भी समझ में नहीं आया था, आपको भी समझ में नहीं आएगा। आप जरा अपने बेटे की, अपनी बेटी की बात गौर से सुनना। उद्दालक ने भी नहीं सुनी थी, आप भी नहीं सुनेंगे। क्योंकि आप समझते हैं कि बेटे नासमझ हैं, आप समझदार हैं। उम्र को लोग समझदारी का पर्यायवाची समझ लेते हैं!
काश, हम बच्चों की बातें गौर से सुन सकें। काश, हम अपनी बुद्धिमत्ता को एक तरफ हटाकर उनकी बातें सुन सकें, तो कठोपनिषद जैसे लाखों उपनिषद पैदा हो जाएं। यह तो कोई ऋषि पकड़ पाया इस कथा को; उद्दालक नहीं समझ पाया।
हुआ क्या? होता क्या है रोज? रोज यही होता है। आप अपने बचपन को खो दिए, आपने बेच दिया। आपने संसार की कुछ चीजें खरीद लीं। उन्हें खरीदने में आपको अनिवार्यरूप से अपनी निर्दोषता बेचनी पड़ी। आपने कुछ तिजोड़ी बड़ी कर ली, कोई मकान बना लिया, कोई जमीन खरीद ली। आपने बचपन खो दिया।
और जब कोई बच्चा आपसे कुछ कहता है, तो एक तो आपको एक-दूसरे की भाषा समझ में नहीं आती। क्योंकि बच्चा किसी और ही दुनिया से बोलता है। बच्चे के लिए कुछ और चीजें मूल्यवान हैं। आप किसी और दुनिया से बोलते हैं। आप दोनों के बीच बड़ा फासला है। आपने बचपन खो दिया है। आप दोनों के बीच एक खाई है।
और जब बच्चा बोलता है तो आपकी समझ में नहीं आता है। और जब आप बोलते हैं तो बच्चे की समझ में आने का कोई उपाय नहीं। अगर बच्चा तितलियों के पीछे भागता है तो आप समझते हैं, पागल है। और आप जब रुपए गिनते हैं रोज रात को बैठकर, दरवाजे बंद करके, तो बच्चे की समझ में नहीं आता है कि इतनी खूबसूरत तितलियां दुनिया में हैं और इस बूढ़े बाप को क्या हुआ कि रद्दी गंदे कागजों को गिनता है! ये कागज बच्चा फेंक देगा, फाड़ देगा। और बच्चा अगर आपका नोट फाड़ दे, तो आपकी आत्मा फटती है। और आप सोच भी नहीं सकते कि बच्चे के लिए नोट में कोई भी मूल्य नहीं है। नोट में मूल्य होने के लिए आप जैसी विकृत बुद्धि चाहिए। तब उसमें मूल्य होता है। क्योंकि वह मूल्य डाला हुआ है।
मैं देखता हूं–कभी किसी घर में ठहरा हुआ था–बाप बेटे पर नाराज हो रहा है और उसको कह रहा है कि मैंने पच्चीस बार तुम्हें कह दिया कि अपने छोटे भाई को मत मारो। फिर तुमने मारा! और इतनी बार समझा दिया कि अपने से छोटे को मारना बुरा है! और बाप उसको एक चांटा मारता है। और वह लड़का चौंककर देखता है और कहता है, मैं भी छोटा हूं और आप बड़े हैं! लेकिन बाप की बिलकुल समझ में नहीं आता कि इसमें कुछ भूल हो रही है।
बेटे को दिखाई पड़ रहा है कि मैं अपने से छोटे को मारता हूं, तो गलती है। मुझसे बड़ा मुझे मार रहा है–और इसीलिए मार रहा है कि छोटे को मारना बुरा है–तो कोई गलती नहीं है! और बच्चा इससे क्या सीख रहा है? बच्चा इससे सिर्फ इतना ही सीख रहा है कि छोटे को मारना बुरा नहीं है, ठीक से बड़ा होना जरूरी है। यह बच्चा कल बड़ा हो जाएगा। और बाप कल धीरे-धीरे छोटा हो जाएगा, बूढ़ा हो जाएगा। तब बहुत-बहुत तरकीबों से यह बच्चा भी बाप को मारेगा।
सब बच्चे बाप को मारते हैं। तरकीबें बदल जाती हैं। और बाप तब पीड़ित होते हैं और दुखी होते हैं। और उन्हें पता नहीं है कि यह केवल उन्होंने ही जो आवाज दी थी, वही वापस लौट रही है। उन्होंने जो बीज बोए थे, वे ही काटे जा रहे हैं। अब फसल काटने का वक्त आ गया है।
हर बाप अपने बेटे के साथ जो करता है बचपन में, बेटा बाप के बूढ़े होने पर वही करेगा। क्योंकि बाप बूढ़ा होकर फिर कमजोर हो गया, दीन हो गया।
बच्चों की भाषा कोई समझ ले, तो संतों की भाषा समझनी बहुत आसान हो जाए। संत अक्सर बच्चों जैसे हो जाते हैं। ठीक बच्चे नहीं हो जाते, बच्चों जैसे। जीवन का सारा अनुभव उनके साथ होता है। वे उस जगह से गुजर गए, जहां कालिख लग सकती थी। और कालिख से अपने को बचाकर गुजर गए।
कबीर ने कहा है, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। वह जो चादर तुमने मुझे दी थी, वह मैंने वैसी की वैसी रख दी है बचाकर; उसमें जरा भी दाग नहीं लगने दिया। इसका अर्थ है कि मैंने बचपन को वापस लौटा दिया है तुम्हारे हाथों। वे परमात्मा से यह कह रहे हैं कि जैसा बच्चा तुमने मुझे भेजा था, वैसा ही बच्चा मैं मरकर वापस लौटा हूं।
अगर कोई मरते वक्त भी बच्चे की तरह भोला और सरल हो, तो उसके मोक्ष में कोई भी बाधा नहीं है।
उसका नचिकेता नाम का एक पुत्र था…। जिस समय ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में देने के लिए गौवें लाई गईं —
यह बच्चे को दिखाई पड़ा, बाप को दिखाई नहीं पड़ रहा है–
ये गौवें अपना आखिरी पानी पी चुकीं, अपना आखिरी चारा चर चुकीं, इनका आखिरी दूध दुह लिया गया। नचिकेता को विचार उठने लगा मन में कि इन गौवों को दान देने का क्या अर्थ है?
लेकिन गौवें लोग दान ही तब देते हैं जब उनका आखिरी दूध निकाल लिया जा चुका हो। गौवों का ही नहीं, सभी चीजों का आप तभी दान करते हैं जब आखिरी दूध निकाल लिया गया हो।
क्वेकर, ईसाइयों का एक छोटा-सा अनूठा संप्रदाय है। क्वेकर संप्रदाय का एक नियम है कि हर सप्ताह एक चीज दान करें। लेकिन वह चीज वही हो, जो आपको सबसे ज्यादा प्रिय है। जिसको आप बिलकुल दान न करना चाहेंगे, वही दान करें, नहीं तो दान का कोई अर्थ नहीं है।
आप भी दान करते हैं। घर में जो कूड़ा-करकट इकट्ठा हो जाता है, जिसकी आपको कोई जरूरत नहीं रह जाती, उसका आप दान करते हैं।
आप सोचते होंगे कि बहुत धनपति इतना दान करते हैं। उनके लिए धन की कोई जरूरत नहीं रह गई, दूध दुह लिया गया। धन की एक सीमा है, उसके बाद उसमें से दूध नहीं निकाला जा सकता। अब समझें कि एंड्रू कारनेगी या फोर्ड या रॉकफेलर या बिरला–अब ये धन से क्या खरीद सकते हैं जो इनके पास नहीं है! अब धन से जो भी खरीदा जा सकता है, वह ये खरीद चुके हैं। अब धन फिजूल है। अब इस धन का क्या करें? अब इससे स्वर्ग खरीदने की कोशिश शुरू होती है। तो बिरला-मंदिर खड़े होने लगते हैं! यह गाय का दूध दुह लिया गया है। इस धन से अब कुछ मिलने वाला नहीं था–जो मिल सकता था वह मिल चुका–और यह धन फिजूल था। फिजूल धन को लोग परमात्मा की तरफ लगाते हैं। हृदय को नहीं, कूड़े-कचरे को लगाते हैं।
नचिकेता को दिखाई पड़ने लगा। उपनिषद का ऋषि कहता है, नचिकेता में श्रद्धा का आवेश हो गया।
असल में भोलापन श्रद्धा है। सरलता श्रद्धा है।
नचिकेता कोई तर्क नहीं कर सकता, लेकिन तर्क की कोई जरूरत नहीं है। एक छोटे बच्चे को भी यह दिखाई पड़ रहा है कि इस गाय में से दूध तो निकलता नहीं है, इसे दान क्यों किया जा रहा है?
बाप नाराज होगा ही। क्योंकि यह बात चुभने वाली है। यह घाव को छूना है। बेटे अक्सर घाव को छू देते हैं। यह बाप को चुभने वाली बात है। यह तो बाप भी जानता है कि ये दूध नहीं देतीं, इसीलिए तो दान दे रहा है। अगर दूध अभी बाकी होता तो बाप ने दान दिया ही नहीं होता। बाप इतना नासमझ नहीं है, जितना नचिकेता है।
शुद्ध आंख के लिए एक तरह की नासमझी चाहिए। समझदारी चालाक हो जाती है। इसलिए दुनिया जितनी समझदार होती जाती है, उतनी चालाक होती जाती है।
लोग मुझसे कहते हैं कि विश्वविद्यालयों से इतने लोग निकलते हैं पढ़-लिखकर तो दुनिया में चालाकी घटनी चाहिए, वह बढ़ रही है! मैं कहता हूं, वह बढ़ेगी ही। क्योंकि समझदारी से चालाकी बढ़ती है, घटती नहीं। जब एक आदमी गणित ठीक-ठीक करने लगता है, तर्क ठीक-ठीक बिठाने लगता है, तो चालाकी बढ़ेगी, घटेगी नहीं। दुनिया जितनी सार्वभौम रूप से शिक्षित होगी, उतनी सार्वभौम रूप से चालाक और कनिंग हो जाएगी। हो ही गई है।
किसी भी व्यक्ति को शिक्षित कर दें और फिर अगर वह भोला रह जाए तो समझें कि संत है। शिक्षित होते से ही भोलापन खो जाता है।
यह बाप भी जानता है; बाप होशियार है। गणित जानता है। वह जानता है कि गाय को दान ही तब देना, जब दूध समाप्त हो जाए। तो गाय के खोने से कुछ खोता भी नहीं और दान देने से कुछ मिलता है। दान दिया, यह वह परमात्मा के सामने खड़े होकर कहेगा कि हजार गौवें दान कर दीं।
लेकिन तुम एक छोटे बच्चे को धोखा नहीं दे पा रहे हो, तुम परमात्मा को धोखा दे पाओगे? नचिकेता को लगा कि यह क्या हो रहा है? इन जराजीर्ण गायों को देखकर उसमें आस्तिकता का उदय हुआ, भोलेपन का उदय हुआ, सरलता का उदय हुआ, चालाकी का नहीं।
मेरे हिसाब में भी नास्तिकता एक गणित है और आस्तिकता एक भोलापन है। नास्तिक कहता है कि मैं सिद्ध कर सकता हूं कि ईश्वर नहीं है। उसके पास गणित और तर्क है। और जब कोई आस्तिक भी कहता है कि मैं सिद्ध कर सकता हूं कि ईश्वर है, तो समझना कि वह आस्तिक नहीं है। वह भी नास्तिक ही है।
आस्तिक तो कहता है कि मैं सिद्ध तो नहीं कर सकता, लेकिन ईश्वर है। आस्तिक कहता है, तुम सिद्ध भी कर दो कि ईश्वर नहीं है तो भी मैं कहता हूं कि ईश्वर है। क्योंकि ईश्वर का होना गणित और तर्क और बुद्धि की बात नहीं है, मेरे हृदय का गहन अनुभव है। आस्तिक कहता है कि तुम कितनी ही कोशिश करो, तुम कितना ही सिद्ध करो, तुम्हारे सब सिद्ध करने से इतना ही सिद्ध होता है कि तुम होशियार हो, कुशल हो, गणितज्ञ हो, तर्कवान हो; ईश्वर असिद्ध नहीं होता।
रामकृष्ण के पास केशवचंद्र ने आकर सिद्ध करने की कोशिश की थी कि ईश्वर नहीं है। और आशा रखी थी कि रामकृष्ण जवाब देंगे। और जब केशवचंद्र तर्क करने लगे, तो रामकृष्ण हर तर्क पर उठ-उठकर केशवचंद्र को गले लगा लेते थे। केशवचंद्र बड़ी मुश्किल में पड़े! वह ईश्वर को असिद्ध कर रहे थे। और यह नासमझ, समझ नहीं रहा है या क्या मामला है। क्योंकि आस्तिक को तो नाराज हो जाना चाहिए। उसको जवाब देना चाहिए, प्रत्युत्तर देना चाहिए। और जब प्रत्युत्तर न मिले तो केशव भी हतप्रभ हुए और उनके साथ आए हुए लोग भी बड़ी मुश्किल में पड़े। क्योंकि सोचा था कि आज बड़ा आनंद होगा, और सोचा था कि यह नासमझ रामकृष्ण, गंवार, बेपढ़ा-लिखा, आज बड़ी मुश्किल में पड़ेगा। इसकी फजीहत देखने काफी लोग इकट्ठे हो गए थे। लेकिन फजीहत रामकृष्ण की करनी मुश्किल है। नासमझ की फजीहत कैसे करिएगा? समझदार भर की की जा सकती है!
जब केशवचंद्र थक गए और उदास हो गए और उन्होंने पूछा कि आप कोई जवाब न देंगे? रामकृष्ण ने कहा, जवाब क्या दूं? तुम्हें देखकर मुझे और पक्का भरोसा आ गया कि ईश्वर है। केशवचंद्र ने कहा, मुझे देखकर? रामकृष्ण ने कहा, तुम्हें देखकर, क्योंकि ऐसी प्रतिभा बिना ईश्वर के जगत में हो नहीं सकती। रामकृष्ण ने कहा, ईश्वर के अतिरिक्त और कौन ईश्वर को गलत सिद्ध कर सकता है?
यह आस्तिक है।
तो उपनिषद का ऋषि कहता है कि नचिकेता को श्रद्धा का जन्म हुआ, और उसे लगा कि इन जराजीर्ण गायों को देकर पिता क्या कर रहे हैं!
जो अंतिम बार जल पी चुकीं, जिनका घास खाना समाप्त हो चुका, जिनका अंतिम दूध दुह लिया गया, जिनकी इंद्रियां नष्ट हो गई हैं–ऐसी निरर्थक, मरणासन्न गायों को देने वाला दाता तो नीच योनियों में, नरकादि लोकों में, जहां सब सुख समाप्त हैं, जहां सब सुख शून्य हैं, उनको प्राप्त होता है। अतः पिता जी को सावधान करना चाहिए।
उसे लगा कि यह तो धोखा है, बेईमानी है। और साधारण धोखा नहीं है, परमात्मा से धोखा है।
अगर आपकी कोई जेब काट ले तो आपको धोखा दे रहा है। एक आदमी एक आदमी को धोखा दे रहा है, समझ में आता है। लेकिन जब कोई आदमी परमसत्ता को धोखा देने चल पड़ता है, तब स्वभावतः इसका परिणाम महादुख होगा। क्योंकि परमसत्ता को धोखा देने का क्या उपाय है?
परमसत्ता वही है जो हमारे हृदय के अंतसतम में बैठी है। इसे तो उद्दालक भी जानता होगा। जिसे नचिकेता कह रहा है, उद्दालक के भीतर भी छिपा हुआ बचपन है, वह जानता है। वह भी जानता है। बेईमान से बेईमान आदमी भी भीतर जानता है कि बेईमानी है; चोर जानता है कि चोरी है; धोखा देने वाला जानता है कि धोखा है। उस भीतर के बच्चे को, उस निर्दोष तत्व को नष्ट तो किया नहीं जा सकता। वह भीतर छिपा कितने ही गहरे में हो, उसे हमने दबाया कितना ही हो, लेकिन वह मौजूद है, सजीव है, और वहां से धक्के दे रहा है।
नचिकेता की बात को सुनकर पिता को क्रोध आया, क्योंकि खुद का नचिकेता भी भीतर जग गया होगा, चोट खाकर। उसे भीतर भी लगा होगा कि बात तो सच है।
आप ध्यान रखें, जब कोई झूठ कहता है तो क्रोध नहीं आता है। जब कोई सच कहता है तो क्रोध आता है। अगर आप चोर नहीं हैं, और कोई कहता है, आप चोर हैं, तो आप हंस सकते हैं, क्रोध करने का कोई कारण नहीं है। लेकिन आप चोर हैं, और कोई कहता है, आप चोर हैं, आप आग से भर जाते हैं, क्योंकि उसने कोई घाव छू दिया। उसने कोई बात जो आपने छिपाकर रखी थी, बाहर ला दी। उसने कोई नस छू दी, जहां से मवाद बहने लगी। तो जब भी आप क्रोधित हों, तो समझना कि कोई सच आपके आसपास आ गया। क्रोध बताता है कि घाव छू दिया गया।
बुद्ध और महावीर क्रोधित नहीं होते, क्योंकि कोई घाव नहीं है, जिसको आप छू सकें। कुछ छिपाया नहीं है, जिसे आप उघाड़ सकें। सब उघड़ा हुआ है। अगर संतों को हम गाली देते हैं और वे हंसते हैं, तो उसका यह कारण नहीं है कि आपकी गालियों से उन्हें बड़ा मजा आ रहा है। उसका कुल कारण इतना है कि आप हंसी योग्य बात ही कर रहे हैं–हास्यास्पद। आप अपना ही मजाक उड़वा रहे हैं। क्योंकि आपकी गाली बिलकुल ही निरर्थक है, वह कहीं भी छूती नहीं, उससे कहीं कोई तालमेल नहीं है।
आपको जब कोई गाली देता है, तो आप फौरन खड़े हो जाते हैं रक्षा के लिए। किसकी रक्षा कर रहे हैं? भीतर कुछ छिपा है, जो गाली तोड़ देगी। भीतर कुछ छिपा है, जो गाली प्रगट कर देगी। भीतर कुछ छिपा है, जो गाली आपको भी जागरूक कर देगी।
पिता नाराज हो गए। क्योंकि बेटे ने दिखता है ठीक घाव छू दिया। ठीक स्थान पर उसने हाथ रख दिया।
सोचा बेटे ने, नचिकेता ने कि पिता को सावधान करूं। लेकिन बड़ा मुश्किल है। बेटा जब भी पिता को सावधान करे, पिता को बुरा लगेगा। क्योंकि यह पिता मान ही नहीं सकता कि तुम और मुझसे ज्यादा समझदार! यह असंभव है।
जीसस के पिता नहीं मान सकते कि जीसस समझदार है। न बुद्ध के पिता मानते हैं कि बुद्ध समझदार हैं। बुद्ध के पिता ने बुद्ध से कहा है–बुद्ध हो जाने के बाद–कि तू अपनी नासमझी छोड़, घर वापिस आ। बहुत हो चुका। और मैं तेरा पिता हूं, मैं तुझे अभी भी माफ कर सकता हूं। मेरे भीतर पिता का हृदय है। और यह आवारागर्दी बंद कर। और मेरे कुल में कभी किसी ने भिक्षा नहीं मांगी, तू भिखारी होकर मेरी ही राजधानी में भीख मांग रहा है! मेरी नाक को मत डुबा। मेरी इज्जत को मत मिटा।
सोचें, बुद्ध का पिता कोई गैर पढ़ा-लिखा आदमी नहीं था, सम्राट था। सुशिक्षित था, सुसंस्कृत था। शास्त्र पढ़े थे, ज्ञानियों के वचन सुने थे। घर में महापंडित आते थे, विद्वत-समूह था आसपास। लेकिन बुद्ध को पहचानना मुश्किल है।
बाप का जो अहंकार है, वह यह मान नहीं सकता कि मुझसे पहले और मेरा बेटा ज्ञान को उपलब्ध हो गया! बुद्ध ने कहा विनम्रता से कि आप ठीक कहते हैं कि आपके कुल में किसी ने भीख नहीं मांगी। लेकिन जहां तक मैं जानता हूं, मैं पुराना भिखारी हूं। मैं पहले भी भीख मांग चुका हूं। तो पिता ने कहा, क्या तू अपने आपको मुझसे ज्यादा जानता है! मेरा खून तेरे खून में बह रहा है। और मेरी हड्डियां तेरी हड्डियों में हैं। मैंने तुझे पैदा किया। मैं तुझे भलीभांति जानता हूं। बुद्ध ने कहा, आप थोड़ी सी भूल कर रहे हैं। मैं आपसे पैदा हुआ, आपके द्वारा पैदा नहीं हुआ। आप एक मार्ग थे, जिससे मैं आया। लेकिन आप मेरे स्रष्टा नहीं हैं।
स्वभावतः, जब कोई बेटा किसी बाप से कहे कि आप मेरे स्रष्टा नहीं हैं, तो पीड़ा होगी, अहंकार को चोट लगेगी। बुद्ध ने कहा कि आप एक चौराहा थे, जिससे मैं गुजरा। लेकिन मेरी यात्रा बहुत पुरानी है। मैं पहले भी था। आपसे पैदा होने के पहले भी था।
जीसस से किसी ने कहा है–जीसस एक भीड़ में खड़े हैं और किसी ने कहा कि तुम्हारे माता और पिता तुमसे मिलने आए हैं–तो जीसस ने कहा कि मेरे कौन माता और कौन पिता! बड़ी अजीब बात कही। क्योंकि मैं उनके भी पहले था। अब्राहम पैदा हुआ उसके पहले भी मैं था।
ज्ञान पिता के अहंकार को कष्ट देगा। इसलिए कोई बेटा अगर पिता को सावधान करना चाहे तो बहुत सावधानी पूर्वक सावधान करे। खतरा है। किसी और को सावधान करना ठीक है, पिता को सावधान करना खतरा है। क्योंकि वहां अहंकार को गहन चोट लग जाएगी। मेरा बेटा, मुझे सावधान करे! जो मुझसे पीछे आया, जो मुझसे जन्मा, वह मुझे सावधान करे!
नचिकेता ने वही भूल की। निर्दोष चित्त से कई बार भूलें होती हैं। होंगी ही। उसे लगा कि पिता भूल में पड़ रहे हैं। यह दान झूठा है, यह बेईमानी है, यह धोखा है और इसका परिणाम महादुख होगा।
यह सोचकर वह अपने पिता से बोला, आप मुझे किसको देंगे?
क्योंकि पिता ने कहा था, मेरा सब कुछ मैं दान कर दूंगा। तो नचिकेता को लगा कि मैं भी तो उन्हीं का हूं, और जब सब कुछ ही दान हो रहा है, तो जरूर मेरा भी दान होगा।
पिता बेटों को भी अपनी संपत्ति ही मानते हैं, पति पत्नियों को अपनी संपत्ति मानते हैं। हम व्यक्तियों को भी संपत्ति बना लेते हैं–कहते हैं, मेरी!
वस्तुएं तक जिस जगत में मेरी नहीं हैं, वहां कोई व्यक्ति मेरा नहीं हो सकता। व्यक्ति पर कब्जा करने की कोशिश पागलपन है। लेकिन बाप को लगता है, बेटा मेरा है।
तो नचिकेता को लगा कि पिता मेरे कहते हैं कि नचिकेता तू मेरा है और कहते हैं कि सब मैं दान कर दूंगा, तो सीधी बात है कि अब मेरा भी दान होगा। तो पूछ लूं कि मुझे किसको दान करेंगे। यह सरल हृदय में उठा हुआ सवाल है। कि अगर सब कुछ ही दान कर रहे हो, तो ममत्व का भी दान करोगे या नहीं? तो ममता का भी दान करोगे या नहीं? तो मोह का भी दान करोगे या नहीं? तो यह मेरा बेटा जो है, इसका भी मैं दान करूंगा या नहीं?
नचिकेता ने सवाल तो ठीक पूछा है। सच तो यह है कि ममत्व ही छोड़ना चाहिए, वस्तुएं और व्यक्तियों को छोड़ने का कोई अर्थ नहीं है। मेरेपन का भाव छोड़ना चाहिए। तो गाएं बूढ़ी तुम दान कर रहे हो, ठीक। मुझे किसको दान करोगे? मैं किसके पास जाने वाला हूं?
इससे तो बात और भी गहन चोट की हो गई। पिता को लगा कि यह लड़का तो सीमा से ज्यादा बढ़ा जा रहा है! यह पिता ने भी नहीं सोचा था कि जब मैं कहा हूं कि मैं सब कुछ दान कर दूंगा, तो मेरा बेटा भी दान में दिया जाएगा। यह उसने सोचा नहीं था। यह सोचने का कोई कारण भी नहीं था। धन ही छोड़ रहा था, मोह और ममता तो नहीं। लेकिन बेटे ने चिढ़ा दिया। चोट गहरी पड़ी होगी। आप मुझे किसको देंगे? पिता चुप रह गया।
चुप रह जाने से पता नहीं चलता कि आदमी क्रोधित नहीं है। अक्सर तो आदमी क्रोध में चुप रह जाता है। अगर बेटा चालाक होता तो वह भी चुप रह जाता; वह पिता का क्रोध समझता। लेकिन वह सीधा-सादा बच्चा है–उसने फिर से पूछा, दुबारा पूछा, तिबारा पूछा कि मुझे किसको देंगे? पिता क्रुद्ध हो गया। और जैसा कि कोई भी पिता कहता, बिलकुल स्वाभाविक है, पिता ने कहा, मैं तुझे मृत्यु को दे देता हूं। अक्सर बाप जब नाराज हो जाता है तो कहता है, तू पैदा ही न हुआ होता तो अच्छा था। मां नाराज हो जाती है तो कहती है, मर जाओ; हटो सामने से; मिट जाओ।
उद्दालक ने कहा कि मैं तुझे मृत्यु को दे देता हूं।
यह बड़ी स्वाभाविक बात है। जिसने जन्म दिया है, वह अगर पूरी तरह क्रुद्ध हो जाए तो मृत्यु दे सकता है। असल में बाप अगर नाराज हो तो बेटे को मार डालना चाहेगा। जिसको मैंने बनाया, उसको मैं मिटा दूंगा। इसके पीछे बड़ा मनोविज्ञान छिपा है।
बाप के मन में जन्म देने का खयाल है, तो साथ ही मृत्यु देने का खयाल भी छिपा हुआ है। दोनों साथ-साथ हैं। इसलिए कोई भी बेटा अपने बाप को कभी माफ नहीं कर पाता। बड़ा कठिन है। और जब कोई बेटा अपने बाप को माफ कर देता है तो साधुता का परम फूल खिलता है। बेटे बाप के खिलाफ बने रहते हैं।
तुर्गनेव ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी है–फादर्स एंड संस, बाप-बेटे। जिसमें तुर्गनेव ने एक मौलिक विचार, सारभूत और आधारभूत विचार पर पूरी कथा निर्मित की है। तुर्गनेव का खयाल है कि बाप और बेटे का संघर्ष पुरातन है, सनातन है, सदा से चलता रहा है। बाप बेटे से लड़ रहा है, बेटा बाप से लड़ रहा है। और यही संघर्ष व्यापक होकर पीढ़ियों का संघर्ष बन जाता है। जेनरेशन्स आपस में लड़ने लगती हैं। आज सारी दुनिया में झगड़ा है। बेटों की पीढ़ी कुछ और कर रही है, बाप की पीढ़ी कुछ और कह रही है। दोनों के बीच खाई है। कोई बीच में संवाद भी नहीं रहा है।
और जितना संपन्न होगा देश, बाप और बेटे की खाई उतनी ही बढ़ जाएगी। जितना गरीब होगा देश, उतनी कम होगी। क्योंकि जितना संपन्न देश होगा, उतना ही बेटे ज्यादा सुशिक्षित होंगे और ज्यादा देर तक जवान रहेंगे। गरीब मुल्क में बारह साल, दस साल का बच्चा भी काम में लग जाता है, जुट जाता है। फिर बाल-विवाह हो जाता है उसका, वह खुद ही बाप बन जाता है। इसके पहले कि ठीक से बेटा बन पाता और बाप से लड़ता, वह खुद बाप बन जाता है। यह बाल-विवाह बापों की बड़ी पुरानी ईजाद हो सकती है। इससे पहले कि बेटा उपद्रव खड़ा करे, उसे बाप बना देना जरूरी है। जैसे ही वह बाप बनता है, वह बाप की पीढ़ी का हिस्सेदार हो जाता है, भागीदार हो जाता है।
आप जानकर हैरान होंगे कि जब तक आप बाप नहीं बनते, तब तक आप जवान बने रहते हैं। जिस दिन आप बाप बनते हैं, उसी दिन आप ब़ूढे हो जाते हैं। एक बड़ा गहरा रूपांतरण मन में हो जाता है। जब तक एक आदमी की शादी नहीं होती, उसका बच्चा नहीं होता, तब तक उसके ढंग और होते हैं। तब तक वह एक खानाबदोश हो सकता है। तब तक वह फिकर नहीं करता सुरक्षा की। तब तक धन को लात मार सकता है, तब तक समाज से लड़ सकता है, तब तक बगावती हो सकता है, विद्रोही हो सकता है। शादी होते ही जैसे खूंटे से कहीं बंध जाता है। घर चारों तरफ से घेर लेता है। लेकिन बेटा होते ही वह बूढ़ा हो जाता है। वह खुद बाप की तरह सोचने लगता है। उसे अपने बाप की बात तक ठीक मालूम पड़ने लगती है।
यह बड़े मजे की बात है। यह जब तक आप बाप नहीं बन जाते, तब तक आपको अपने बाप की बात ठीक नहीं मालूम पड़ेगी। तब तक लगेगा कि बूढ़ा सनक गया है। इसका दिमाग खराब है। किस पुराने जमाने की पिटी-पिटाई बातें कर रहे हो! आप भी बाप होते ही ठीक वे ही पिटी-पिटाई, पुराने जमाने की बातें शुरू कर देंगे।
अमरीका में नए जवान लड़के हिप्पी हैं, बड़ी तादाद में। लेकिन जैसे ही वे शादी कर लेते हैं और उनको एक बच्चा हुआ कि हिप्पी विदा हो जाता है। वापस समाज में वे भी लौट आते हैं। उनको अपने बाप की बातें ठीक मालूम होने लगती हैं कि पिता ठीक कहते थे। असल में अनुभव के अतिरिक्त कोई उपाय भी तो नहीं है। जब तक आप पिता न बनें, तब तक पिता की बात का आपको खयाल नहीं हो सकता।
यह जो बच्चों के, जवानों के और बूढ़ों के बीच एक संघर्ष है सतत, उस संघर्ष का कारण वही है कि बाप ने जन्म दिया है, वह पूरा मालिक होना चाहता है। वह जरा-सी भी बगावत पसंद नहीं करेगा। वह चाहता है कि बेटा उसकी प्रतिछवि हो, उसकी प्रतिध्वनि हो, उसकी आवाज हो। वह कहे रात तो रात, वह कहे दिन तो दिन।
लेकिन मुश्किल है। क्योंकि बेटे का अपना अहंकार है। जैसे-जैसे बेटा बड़ा हो रहा है, उसका अपना अहंकार मजबूत हो रहा है। और बेटा स्वतंत्र होना चाहता है। और कई मौकों पर तो दिन भी हो और बाप अगर कहे कि दिन है, तो बेटा कहेगा, रात है। क्योंकि सिवाय बाप से बगावत किए, उसके अपने अहंकार के खड़े होने का कोई उपाय नहीं है। बाप से लड़कर ही अहंकार निर्मित होता है। जैसे-जैसे बेटा बाप से लड़ता है, वैसे-वैसे बाप दबाने की कोशिश करता है। और बाप के मन में, क्योंकि उसने जन्म दिया है, छिपा रहता है कि वह चाहे तो मृत्यु भी दे सकता है।
नचिकेता के पिता ने कहा कि मैं तुझे मृत्यु को दे दूंगा। नचिकेता ने सही मान लिया। बेटे इतनी छोटी उम्र में तर्क नहीं कर सकते। आस्था तर्क नहीं करती। निर्दोषता तर्क नहीं करती। उसने मान लिया कि निश्चित ही मैं मृत्यु को दे दिया जाऊंगा। उसने स्वीकार कर लिया।
यह स्वीकृति का भाव बड़ा क्रांतिकारी है। और यह कोई छोटी स्वीकृति न थी! उसने यह न पूछा कि क्यों देंगे मृत्यु को? उसने यह न कहा कि क्या आप विक्षिप्त हो गए हैं कि मुझे मृत्यु को देंगे? कि मैंने ऐसा क्या बुरा किया है कि आप मुझे मृत्यु को देंगे? न उसने कोई तर्क किया, न उसने यह माना कि मृत्यु को दिए जाने में कुछ बुरा है। उसने सोचा कि पिता मृत्यु को देते हैं, तो ठीक ही देते होंगे। पिता मृत्यु को देते हैं, तो मृत्यु के देवता को जरूर मेरी कोई जरूरत होगी। उसने इसे स्वीकार कर लिया। यह स्वीकृति ही इस पूरे शास्त्र का आधार है। जो व्यक्ति मृत्यु को भी स्वीकार कर ले, वह मृत्यु के पार आ जाएगा, अमृत होकर।
इस पिता के वचन का एक और गूढ़ रहस्य भी है। एक इसका और इसोटेरिक, एक और छिपा हुआ अर्थ भी है। पुराने शास्त्रों ने कहा है कि मृत्यु गुरु है। और पुराने शास्त्रों ने यह भी कहा है कि गुरु मृत्यु-रूप है। क्योंकि गुरु के पास जब शिष्य जाता है तो गुरु उसे काटता है, मिटाता है। उसे इतना मिटा देता है कि वह बचता ही नहीं है। उसके भीतर एक खालिस शून्य पैदा हो जाता है। समाधि निर्मित हो जाती है। उस समाधि में ही परम से साक्षात्कार होता है।
शिक्षक और गुरु में फर्क है। शिक्षक आपको कुछ देता है, गुरु आपसे कुछ छीनता है। शिक्षक आपको भरता है, गुरु आपको खाली करता है। शिक्षक आपको सूचनाएं देता है, गुरु, आपके पास जो अहंकार है, उस अहंकार का जो ज्ञान है तथाकथित, उसको छीन लेता है। शिक्षक आपको आजीविका देता है, गुरु आपको जीवन।
आजीविका देनी हो तो आपको कुछ सिखाना पड़ता है। गणित है, भूगोल है, इतिहास है, साइंस है, केमेस्ट्री है, फिजिक्स है, यह कुछ सिखाना होता है। और अगर ज्ञान देना हो, तो आपने जो भी सीखा है उसे अनसिखाना होता है, उसे अनलर्न करवाना होता है। उसे मिटाना होता है।
स्कूल में, कालेज में, विश्वविद्यालय में जो है, वह शिक्षक है। गुरु खो गया है इस सदी में। गुरु वह था, जिसके पास आप तब जाते थे जब आप सीखने से ऊब जाते थे और बोझ उतारना चाहते थे।
इसलिए शास्त्रों ने कहा है कि गुरु मृत्यु-रूप है, वह मार डालता है। वह आपको मिटा देता है। और जब आप वापस लौटते हैं तो आपका पुनर्जन्म हो गया होता है; आप नए होकर, द्विज होकर, ट्वाइस बॉर्न, फिर से जन्म लेकर वापस लौटते हैं। तो एक गर्भ तो मां का है और एक गर्भ गुरु का भी है।
मृत्यु गुरु है। यह भी इस छिपे हुए, इस कथा का छिपा हुआ सूत्र है। और नचिकेता के लिए मृत्यु गुरु सिद्ध हुई। और आपके लिए भी सिद्ध होगी।
अगर आप मरना सीख जाएं, तो आप सब पा जाएंगे जो पाने योग्य है। फिर पाने को कुछ शेष न रह जाएगा।
यहां मैंने आपको बुलाया है कि आप भी नचिकेता बन सकें। यहां मैं आपको भी मृत्यु के हाथ में दे देना चाहूंगा। और चाहूंगा कि सब तरफ से मृत्यु आपको घेर ले, और आपके भीतर जो भी मर सकता है वह मर ही जाए। और जो नहीं मर सकता, जिसको मारने का मृत्यु के पास कोई उपाय नहीं है, वही केवल आपके भीतर जगमगाता हुआ बच रहे। जो कूड़ा-करकट है वह जल जाए, जो स्वर्ण है वह निखर आए। इस अग्नि से आपको भी गुजरना होगा।
आगे मृत्यु नचिकेता को कहती है कि वह अग्नि तेरे ही नाम से जानी जाएगी; वह अग्नि जिससे गुजरकर आदमी नया होता है, अमरत्व को उपलब्ध होता है।
यह सुनकर नचिकेता मन ही मन विचार करने लगा कि मैं प्रथम श्रेणी के आचरण पर चलता चला आया हूं। जिसे भी शुभ कहा जाता है, वह मैंने किया है। कभी-कभी कठिनाई अगर होती है और प्रथम कोटि का आचरण नहीं पालन कर पाता, तो भी मैं मध्यम श्रेणी का आचरण तो निश्चित ही पालन करता रहा हूं। और कभी भी मैंने निम्न श्रेणी का आचरण नहीं अपनाया, फिर भी पिताजी ने ऐसा क्यों कहा! जरूर ही यम का कोई कार्य होगा। लेकिन यम का कौन-सा कार्य हो सकता है, जो मेरे द्वारा पूरा हो! मैं मृत्यु के किस काम आ सकता हूं?
इसे सोचें।
स्वभावतः, जब कोई आपको कहे कि मृत्यु को दे दूंगा, तो पहला खयाल यह उठता है कि मेरी कोई भूल, मेरा कोई दोष, मेरी कोई गलती होगी, जिससे मुझे दंड दिया जा रहा है। लेकिन नचिकेता ने सोचा कि मैंने ऐसी कोई भूल नहीं की है। जिसे शुभ कहते हैं, वह मैं करता हूं। और अगर कभी चूकता भी हूं तो भी निम्न तक नहीं गिर पाता हूं, मध्य में तो रह ही जाता हूं। तब मेरे दोष का तो कोई कारण नहीं है। तब एक ही बात हो सकती है कि मृत्यु को कोई काम हो, जो मेरे द्वारा पूरा हो सके। निश्चित ही पिताजी इसीलिए मुझे मृत्यु को देते होंगे।
यह बहुत सोचने जैसा है कि इसमें भी नचिकेता ऐसा नहीं सोचता कि पिता क्रोध के कारण देते होंगे। यह धार्मिक चित्त का लक्षण है। अपना दोष सोचता है कि शायद मेरी कोई भूल हो। वह भूल नहीं पाता। तो सोचता है कि यम को कोई काम होगा जो मुझसे पूरा हो सके। लेकिन उसकी समझ में नहीं आता कि यम का क्या कार्य हो सकता है जो मैं कर सकूंगा। लेकिन भूलकर भी उसे यह खयाल नहीं आता कि पिता क्रुद्ध हैं। पिता नाराज हैं, पिता दोषी हैं, ऐसा उसे खयाल नहीं आता।
जब कोई व्यक्ति अपने दोष देखता है, तो जीवन में धर्म का प्रारंभ होता है। हम सारे लोग सदा दूसरे का दोष देखने में संलग्न होते हैं। अगर कोई गाली दे आपको, तो गाली देने वाले ने ही कुछ उपद्रव किया है। आप गाली के योग्य हो सकते हैं, यह तो सोचने में भी नहीं आता। कि गाली बिलकुल मौजू हो सकती है, आपको बिलकुल लगती है, बिलकुल आपके लायक थी, यह तो खयाल में भी नहीं आता। या गाली का कोई प्रयोजन हो सकता है, जो देने वाले ने इसलिए दी है कि कुछ कार्य पूरा हो, वह भी खयाल में नहीं आता। खयाल आता है कि यह आदमी दुष्ट है। यह आदमी शैतान है। धार्मिक और अधार्मिक चित्त का यही भेद है।
नचिकेता, ऋषि कहता है, सोचने लगा। लेकिन उसे यह खयाल नहीं आया जरा भी–मजा यह है। और पिता ने क्रोध के कारण ही ऐसा कहा था।
तो यह सवाल नहीं है कि दूसरे ने गाली दी है, तो उसने अपने पागलपन के कारण न दी हो। यह सवाल नहीं है। उसने भला विक्षिप्तता के कारण दी हो, उसके भीतर आग जल रही हो, वह शैतान हो। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि आप कैसा सोचते हैं। अगर आप सोचते हैं कि मेरी ही किसी भूल के कारण दी है, तो आप अपने जीवन को बदलने में लग जाएंगे। और अगर आप सोचते हैं, उसका ही कसूर है, तो आप अपनी तरफ तो ध्यान भी नहीं देंगे।
और अगर जिंदगी में हमारा यह ढंग हो जाए सोचने का–जैसा कि हो गया है–कि हमेशा दोष दूसरे में दिखाई पड़ता है, तो फिर जिंदगी अपरिवर्तित रह जाती है। फिर कोई रूपांतरण, फिर कोई क्रांति कैसे हो सकती है! दूसरे सही हैं या गलत, यह सवाल नहीं है। लेकिन मेरा ध्यान मुझ पर ही लगा रहे, तो मैं धीरे-धीरे अपने को बदल लूंगा। और मेरे भीतर एक नए जीवन का सूत्रपात हो सकता है।
उसने अपने पिता से कहा, आपके पूर्वज जिस प्रकार का सदा आचरण करते आए हैं, उस पर विचार कीजिए। और वर्तमान में भी दूसरे श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण कर रहे हैं, उस पर भी दृष्टिपात कीजिए। फिर आप अपने कर्तव्य का निश्चय कर डालिए। यह मरणधर्मा मनुष्य अनाज की तरह पकता है अर्थात जराजीर्ण होकर मर जाता है, तथा अनाज की भांति ही फिर उत्पन्न होता है।
छोटे बच्चे की यह उपमा सोचने जैसी है। असल में जितनी कौमें अभी भी निर्दोष बच्चों की तरह जी रही हैं–जंगलों में आदिवासी हैं–उनके सोचने का ढंग और चिंतना यही है।
इसलिए नचिकेता की यह बात सुनकर आप ऐसा मत समझना कि एक छोटा-सा बच्चा ऐसी बुद्धिमानी की बात कैसे कर रहा है–कि जैसे अनाज पकता है और गिर जाता है, फिर अंकुरित होता है, फिर पकता है और फिर गिर जाता है, ऐसा ही जन्म और जीवन का आवर्तन है। यह तो बड़े ज्ञान की बात है, नचिकेता जैसा छोटा बच्चा कैसे कर सकता है! लेकिन आप समझें। जो कौमें भी अभी भी आदिम हैं, जो अभी भी बहुत पुराने ढंग से जी रही हैं, प्रकृति के निकट हैं, और जिन्होंने वैज्ञानिक सभ्यता का कोई निर्माण नहीं किया है, उनके सोचने का यही ढंग है।
जीवन को अगर हम देखें तो वह वर्तुलाकार है। सुबह सूरज उगता है, सांझ डूब जाता है। फिर सुबह उगता है, फिर सांझ डूब जाता है। एक वर्तुल निर्मित होता है, एक सर्किल बनता है। गर्मी आती है, वर्षा आती है, शीत आती है; फिर गर्मी आ जाती है, फिर वर्षा आती है, फिर शीत आ जाती है। एक वर्तुल निर्मित होता है। मौसम गोलाकार घूमते चले जाते हैं। फसल उगती है, बीज पकते हैं, फिर बीज गिरते हैं; फिर अंकुर होते हैं, फिर फसल पकती है, फिर बीज गिरते हैं–एक वर्तुल है।
तो सभी भोले मन से सोचने वाले समाजों ने मनुष्य को भी कुछ अपवाद नहीं माना। और उन्होंने कहा, जैसे बीज गिरता है, पकता है, फिर गिरता है, फिर पकता है, ऐसा ही जन्म और मृत्यु है। आदमी मरता है, फिर जन्मता है, फिर मरता है, फिर जन्मता है। सारा जीवन वर्तुलाकार है। चांद-तारे गोल घूम रहे हैं। मौसम गोल घूम रहा है। मनुष्य का जीवन भी ऐसा ही वर्तुलाकार है। छोटे बच्चे इस उपमा को समझ सकते हैं। कि जब सभी चीजें वर्तुलाकार हैं, तो मनुष्य रेखाबद्ध नहीं हो सकता। मनुष्य भी वर्तुलाकार ही होगा।
पश्चिम और पूरब के विचार में बड़ा फर्क है इस संबंध में। पश्चिम सोचता है: जीवन रेखाबद्ध है। एक सीधी रेखा में चला जा रहा है, जैसे रेल की पटरियां जाती हैं। पूरब सोचता है कि ऐसा नहीं है, जीवन की सारी की सारी गति वर्तुल में है। बचपन, जवानी, बुढ़ापा, फिर बचपन। वहीं, जहां से प्रारंभ होता है, वहीं अंत होता है। फिर प्रारंभ, फिर अंत। इसलिए हमने जीवन-मरण के वर्तुल का खयाल किया है।
संसार का अर्थ है व्हील, एक घूमता हुआ चाक। वह जो भारत के राष्ट्रीय पताका पर जो हमने चक्र निर्मित किया है, वह चक्र बहुत पुराना है। वह अशोक ने अपने स्तंभों में खुदवाया था। और खुदवाया था बुद्ध-विचार के अनुसार। क्योंकि बुद्ध कहते हैं, जीवन एक चक्र की भांति घूमता है। सीधा नहीं है जीवन एक रेखा में।
तो वह छोटा बच्चा कहने लगा कि इसमें कोई चिंता की बात नहीं है कि मुझे आप मृत्यु को दे दें, क्योंकि आदमी मरता है, फिर जन्मता है। कोई मृत्यु अंतिम नहीं है। फिर-फिर जन्म होगा। यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि आप मुझे मृत्यु को दे दें, लेकिन इतना ही मैं निवेदन करता हूं कि आप थोड़ा सोचकर कहें, कहीं ऐसा तो नहीं कि आप क्रोध में कह रहे हों।
यह थोड़ा समझने जैसा है।
यहां वह यह नहीं कह रहा है कि मुझे मृत्यु को मत दें, या मृत्यु को देना बुरा है। यहां वह यह कह रहा है कि अगर आप क्रोध में दे रहे हैं तो आप अकारण ही उस क्रोध के कारण दुख पाएंगे।
आप मुझे मृत्यु को दे दें। क्योंकि कोई मरता नहीं। सब चीजें वापस लौट आती हैं अपने मूल स्रोत पर। गंगोत्री से गंगा बहती है, गिरती है सागर में, फिर भाप बनकर आकाश में उठती है, फिर बदलियां गंगोत्री पर बरसती हैं, फिर गंगा बहने लगती है। तो फसल की तरह वापस लौट आऊंगा। मृत्यु को देने में कोई हर्जा नहीं है। लेकिन आप किसी भीतरी पीड़ा, क्रोध, दुख, संताप के कारण तो ऐसा नहीं कह रहे हैं, इसे थोड़ा विचार करें।
ध्यान रहे, अगर आप क्षणभर भी विचार करें तो क्रोध विलीन हो जाता है। क्षणभर भी होशपूर्वक जगें तो क्रोध विलीन हो जाता है। क्रोध का एक ही उपाय है, एक ही औषधि है, एंटीडोट है कि आप होश से भर जाएं। क्रोध आए, आंख बंद कर लें और सजग हो जाएं। और आप पाएंगे, यहां सजगता बढ़ने लगी, वहां क्रोध नीचे गिरने लगा। क्रोध की ऊर्जा ही, क्रोध की शक्ति ही सजगता बन जाती है, अवेयरनेस बन जाती है।
बुद्ध ने कहा है कि क्रोध मत करो, ऐसा मैं नहीं कहता। होशपूर्वक क्रोध करो। होशपूर्वक क्रोध कभी कोई कर ही नहीं सकता। बुद्ध ने कहा है, चोरी मत करो, ऐसा मैं नहीं कहता। होशपूर्वक करो। होशपूर्वक कोई चोरी कर ही नहीं सकता।
जीवन में जो भी बुरा होता है, बेहोशी में होता है। जीवन में जो भी शुभ होता है वह होश में होता है। अगर होश पूरा है, तो जो भी होगा शुभ होगा। अगर बेहोशी गहन है, तो जो भी होगा वह अशुभ होगा।
कृत्य न शुभ होते हैं न अशुभ होते हैं। करने वाले के होश पर सब निर्भर होता है। ऐसा हो सकता है कि आप बेहोशी में अच्छा भी काम कर रहे हों, आपको लगे कि अच्छा कर रहे हैं, उसका परिणाम बुरा ही होगा। और ऐसा भी हो सकता है कि होशपूर्वक कोई आदमी कोई काम कर रहा हो और आपको लगे कि बुरा हो रहा है, तो भी अच्छा ही होगा। अंतिम निर्णायक बात यह है कि भीतर कितना गहन होश है, कितना जागा हुआ है आदमी! सोया हुआ नहीं। सोना पाप है और जागना पुण्य है।
नचिकेता अपने पिता से कहने लगा, आप जो भी करें थोड़ा सोच लें, थोड़ा विवेक से भर जाएं।
इस अनित्य जीवन के लिए मनुष्य को कभी कर्तव्य का त्याग करके मिथ्या आचरण नहीं करना चाहिए। आप शोक का त्याग कीजिए और अपने सत्य का पालन कर मुझे मृत्यु के पास जाने की अनुमति दीजिए।
निश्चित ही नचिकेता की ये बातें सुनकर पिता को शोक हुआ होगा। होश आया होगा, थोड़ी-सी चोट पड़ी होगी। और उसे लगा होगा कि उसने क्या कह दिया! उसने कैसी बात कह दी! बाप अपने बेटे से कह भी दे कि जाओ मर जाओ, तो ऐसा कोई मतलब नहीं होता। क्षणभर बाद सोचता है, यह मैंने क्या कह दिया! क्षणभर बाद मोह वापस लौट आया होगा। और इस बेटे ने जो बातें कही हैं वे इतनी कीमती हैं, सारे जीवन का सार-निचोड़ उनमें है, कि बाप को भी लगा होगा–बाप को भी लगा होगा, बाप को लगना बहुत मुश्किल है–उसको भी लगा होगा कि बेटा कह तो ठीक ही रहा है और उसे शोक हुआ होगा।
नचिकेता ने उसकी आंखों में, उसके चेहरे पर उदासी देखी होगी। तो वह यह कह रहा है कि आप शोक का त्याग करें और जो वचन आपने दे दिया कि मैं मृत्यु को दूंगा, उसे आप पूरा करें। जो कह दिया उसे पूरा करें, अब उसे असत्य न होने दें।
पुत्र के वचन सुनकर उद्दालक को दुख हुआ। लेकिन अब कोई उपाय न था। और नचिकेता की सत्यपरायणता देखकर उसे यमराज के पास भेज दिया। नचिकेता को यमसदन पहुंचने पर पता लगा कि यमराज कहीं बाहर हैं। अतएव नचिकेता तीन दिनों तक अन्न-जल ग्रहण किए बिना यमराज की प्रतीक्षा करता रहा।
कोई उपाय न था। वचन दे दिया गया था। और नचिकेता जोर डाल रहा है कि अब आप शोक न करें, जो हो गया हो गया। और जो किया जा चुका, उसे अनकिया नहीं किया जा सकता, और वचन दे दिया है अब मुझे भेज दें। तो मृत्यु के पास भेज दिया यह कथा है, यह प्रतीक है। यहां कहीं कोई यमराज बैठे हुए नहीं हैं, जिनके पास आपको भेजा जा सके। लेकिन कथा बड़ी मधुर है। और कई इशारे करती है।
नचिकेता यम के द्वार पर पहुंच गया। उसने मृत्यु का दरवाजा खटखटाया। लेकिन मृत्यु बाहर थी। इसमें दो बातें समझ लें। एक, नचिकेता के अतिरिक्त और किसी ने कभी मृत्यु का द्वार नहीं खटखटाया। हमेशा मृत्यु आपका द्वार खटखटाती है। और आप हमेशा घर में मिलते हैं, कभी बाहर नहीं होते! आप होंगे भी कहां? बाहर होने का कोई उपाय नहीं है।
शरीर घर है। और जब भी मृत्यु खटखटाती है, आपको वहां पाती है। नचिकेता गया मृत्यु के द्वार पर, घटना सब उलटी हो गई। क्योंकि हमेशा मृत्यु आती है आदमी के पास, आदमी नहीं जाता। और जब आदमी जाता है मृत्यु के पास, तो सब उलटा हो जाता है। उस उलटे के प्रतीक हैं ये। नचिकेता गया, मृत्यु को घर पर नहीं पाया।
सारी प्रक्रिया उलटी हो जाती है। जैसे ही व्यक्ति स्वयं मरने की तैयारी करता है, सब उलटा हो जाता है। जहां जीवन दिखाई पड़ता था, वहां मृत्यु दिखाई पड़ने लगती है। और जहां मृत्यु दिखाई पड़ती थी, वहां जीवन दिखाई पड़ने लगता है। और जहां सब सार-सर्वस्व मालूम होता था, वहां कचरा हो जाता है। और जहां कभी खयाल भी नहीं किया था, वहां जीवन के सारे खजाने खुल जाते हैं। यह प्रतीक है सिर्फ कि सब उलटा हो जाता है।
जब आदमी खुद हिम्मत करके मृत्यु के द्वार पर दस्तक देता है, तो पाता है कि वहां मृत्यु नहीं है। जब आप मृत्यु के पास जाएंगे, तो पाएंगे कि मृत्यु नहीं है। मृत्यु है ही नहीं। उससे दूर भागने में ही उसका होना है। जितना हम भागते हैं, उतनी ही ज्यादा वह है। जितना हम बचते हैं, उतनी ही वह है। जितना हम चाहते हैं कि हमें मृत्यु न आए, हम न मरें, उतने ही हम मरते हैं।
हिम्मतवर आदमी एक बार मरता है, लोग कहते हैं, कायर हजार बार मरता है। आखिर हिम्मतवर और कायर में फर्क क्या है? हिम्मतवर और कायर में इतना ही फर्क है कि कायर निरंतर कोशिश करता है बचने की मृत्यु से, इसलिए रोज मरता है। हिम्मतवर कहता है, जब आनी होगी तो आ जाएगी, इसलिए एक बार मरता है।
लेकिन नचिकेता जैसा व्यक्ति, जो मृत्यु के द्वार पर दस्तक देता है, वह पाता है कि मृत्यु वहां है ही नहीं। वह घर पर मौजूद नहीं है। जिन्होंने भी मृत्यु के दरवाजे पर कभी दस्तक दी है, उन्होंने उसे वहां नहीं पाया। वह एक भ्रम है। एक इल्यूजन है। भ्रम की एक खूबी है, आप दूर हटें तो वह बढ़ता है। आप पास जाएं तो कमता है।
एक रस्सी पड़ी है। अंधेरे में पड़ी है। और आप रास्ते से गुजरे हैं और सांप का भ्रम पैदा हो गया है। भागे, पसीना आने लगा–क्योंकि पसीने को कोई मतलब नहीं है कि सांप असली था कि नकली–छाती जोर से धड़कने लगी, रक्तचाप बढ़ गया, सिर की नसें तन गईं, पैर भागे जा रहे हैं। और जितना आप भाग रहे हैं, आपके भागने से घबड़ाहट और बढ़ रही है।
पश्चिम का एक मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स तो कहता था कि लोग घबड़ाकर नहीं भागते, भागने की वजह से घबड़ा जाते हैं। भय के कारण नहीं भागते, भागते हैं इसलिए भयभीत हो जाते हैं। उसकी बात में थोड़ी सचाई है। आप जितना ही भागेंगे, उतनी ही घबड़ाहट बढ़ती जाएगी। आपका भागना आपकी घबड़ाहट के लिए जीवन दे रहा है। और जितने आप दूर होते जा रहे हैं उस रस्सी से, उतना ही सांप पक्का होता चला जा रहा है। अब सांप रस्सी है, यह जानने का कोई उपाय न रहा। इसको जानने का तो एक ही उपाय था कि आप और पास गए होते। आपने दीया जलाया होता और आप रस्सी के बिलकुल पास बैठ गए होते और आपने देख लिया होता, तो आप पाते कि वहां सांप नहीं है।
इल्यूजन का अर्थ है–दूर जाने से जो बढ़ता है, पास जाने से जो घटता है। अब यह बड़ा मजा है, अगर हम इस परिभाषा को समझ लें, तो हमारी जिंदगी में चुकता भ्रमों के सिवाय कुछ भी नहीं है।
एक स्त्री बहुत सुंदर मालूम पड़ती है। बस आपको उससे मिलने न दिया जाए, वह सदा सुंदर रहेगी। मिलने दिया जाए, सब गड़बड़ हो जाएगा। अगर आपका विवाह करवा दिया जाए, तो वह स्त्री सुंदर नहीं रह जाएगी। जिसको देखकर आप दीवाने हो जाते थे, नाच उठते थे, उसको देखकर आपके भीतर धड़कन भी पैदा नहीं होगी, कुछ भी नहीं होगा।
सच तो यह है कि पत्नियों को लोग देखना ही बंद कर देते हैं। देखते ही नहीं। आंख भी पड़ती है, तो पत्नी दिखाई नहीं पड़ती। सिर्फ दूसरों की पत्नियां दिखाई पड़ सकती हैं, अपनी पत्नी दिखाई पड़ ही नहीं सकती। बहुत मुश्किल है। क्योंकि भ्रम तो कुछ बचता नहीं है। सब टूट जाता है, सब उघड़ जाता है।
जो आपके पास नहीं है, वह बड़ा मूल्यवान मालूम पड़ता है। और पास आते ही मूल्य खो जाता है। इसलिए शंकर जैसे ज्ञानियों ने संसार को मिथ्या कहा है, झूठ कहा है, असत्य कहा है, माया कहा है। उसका कुल मतलब इतना है कि माया की परिभाषा यही है कि जिसके पास जाने से जो मिट जाए और दूर जाने से बढ़े।
आप सोचते हैं कि धनपति अपने महल में बड़े आनंद में हैं। यह आप ही सोचते हैं। कोई धनपति आनंद में नहीं है। मगर यह आपको पता तब तक नहीं चलेगा, जब तक आप धनपति न हो जाएं और महल में न पहुंच जाएं। महल में पहुंचते-पहुंचते आपको पता चलेगा कि मैं कहां आ गया? यहां कुछ भी नहीं है! लेकिन यह आपको पता चलेगा। आपके मकान के करीब से जो लोग गुजर रहे हैं, वे सोच रहे हैं कि आप बड़े आनंद में हैं।
आप देखते हैं–जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र हैं। बुद्ध राजा के पुत्र हैं। हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के पुत्र हैं। कारण? असल में राजा हुए बिना संसार का पूरा भ्रम नहीं टूटता। राजा का मतलब, जिसके पास सब कुछ है। जब सब कुछ है, तो दिखाई पड़ जाता है कि सब बेकार है।
तीर्थंकर राजपुत्र ही हो सकता है। दरिद्र का बेटा तीर्थंकर हो, बड़ा मुश्किल है। मुश्किल इसलिए कि भ्रम टूटेंगे कैसे? जिनसे दूरी है, वे भ्रम नहीं टूटते। जिनसे निकटता है, वे भ्रम टूट जाते हैं।
पश्चिम में स्त्री-पुरुष के बीच सारे बंधन हटा दिए गए हैं, करीब-करीब। और एक पुरुष सैकड़ों स्त्रियों से संबंध निर्मित कर लेता है, एक स्त्री सैकड़ों पुरुषों से संबंध निर्मित कर लेती है। अब यह बड़े मजे की बात है कि सारे इतिहास में जो भ्रम कभी नहीं टूटा था, वह अमरीका में टूट रहा है। अमरीका में लोग पूछ रहे हैं कि इसमें कुछ भी तो नहीं है। इस कामवासना में कुछ भी नहीं है। इससे ज्यादा कुछ चाहिए। तो एल.एस.डी., मेस्क्लीन, मारीजुआना, इनकी आशा में हैं कि कुछ ड्रग, कोई इंजेक्शन शरीर में डालने से शायद थोड़ा-बहुत सुख मिले।
पुराने लोग बड़े होशियार थे। उन्होंने स्त्री-पुरुष के बीच इतनी बाधाएं खड़ी की थीं कि स्त्री-पुरुष का आकर्षण कभी नहीं टूटा। इस मुल्क में अपनी पत्नी से भी आकर्षण कभी नहीं टूटता था, क्योंकि दिन में पति भी नहीं देख सकता था उसको। रात में पति-पत्नी भी करीब-करीब चोरी से मिलते थे। संयुक्त परिवार, बड़े परिवार, सबके सामने पति-पत्नी भी नहीं मिल सकते थे। रस जीवनभर कायम रहता था। बड़े होशियार लोग थे। तलाक का कोई सवाल ही नहीं था, मिलना ही नहीं हो पाता था पूरा! तलाक तो पूरे मिलने का परिणाम है।
जिंदगी को जितना आप जानेंगे, उतना जिंदगी व्यर्थ होती चली जाएगी। जानने से जो व्यर्थ हो जाए, वह भ्रम है। जानने से जो और भी सार्थक होने लगे, वह सत्य है।
इसलिए जिसके पास जा-जाकर आपको लगे कि और भी सत्य है, और भी सत्य है, समझना कि वह माया का जो जाल था, उसके बाहर है। परमात्मा मैं उसे कहता हूं, जिसके पास जितना ज्यादा आप जाएं वह उतना सत्यतर होने लगे, और संसार उसे कहता हूं, जिसके पास जितना ज्यादा आप जाएं वह उतना असत्यतर होने लगे।
यह बड़ी मीठी बात है कि नचिकेता ने मृत्यु के द्वार पर दस्तक दी और पाया कि मृत्यु घर में नहीं है। आप भी दस्तक दें! इन आने वाले दिनों में मेरी यही चेष्टा होगी कि आप भी उस जगह पर खड़े होकर एक बार खटखटाएं। और मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि आप भी पाएंगे कि मृत्यु वहां नहीं है।
मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु सरासर झूठ है। बड़े से बड़ा झूठ जो इस जगत में हो सकता है, वह मृत्यु है। पर उस झूठ से हम इतने भयभीत हैं और इतने डरे हुए हैं और इतने भागे हुए हैं कि वह सत्य बना हुआ है।
नचिकेता तीन दिन तक उपवास किए बैठा रहा। उसने कहा, बिना मृत्यु से मिले मैं भोजन न कर सकूंगा। मृत्यु नहीं है वहां। घर पर मौजूद नहीं है, कहानी की भाषा में। नचिकेता तीन दिन उपवास किया।
इसे थोड़ा समझें।
असल में जिसको हम जीवन कहते हैं, वह भोजन से चलता है। जिसको हम जीवन कहते हैं, वह भोजन से चलता है। तो अगर मृत्यु का अनुभव करना हो, तो इस भोजन को रोक देना जरूरी है। इसलिए उपवास एक महान प्रक्रिया बन गई। उपवास का अर्थ है कि जीवन जिससे चलता है, उसे हम थोड़ी देर के लिए रोक देते हैं, ताकि मौत चलने लगे। ताकि जीवन की गति बंद हो जाए, और हम पहचान सकें कि जीवन की गति जब बंद हो जाती है तब भी हम मरते हैं या नहीं मरते।
महावीर ने उपवास के इस विज्ञान को उसकी चरम कोटि तक पहुंचाया। कहते हैं, महावीर ने बारह वर्षों में केवल तीन सौ पैंसठ दिन भोजन लिया, बारह वर्ष की साधना में। कभी महीने, कभी दो महीने, कभी तीन महीने वे बिना भोजन के रहे। यह चेष्टा इस बात की थी कि जब भोजन बिलकुल नहीं मिलता…और ध्यान रहे, नब्बे दिन आखिरी सीमा है। आप अगर बिना भोजन के रहें और पूरे स्वस्थ हों, तो आप नब्बे दिन तक बिना भोजन के रह सकते हैं। नब्बे दिन के बाद वह घड़ी आएगी जहां शरीर अटक जाएगा, चल नहीं सकेगा, जहां शरीर का जीवन शून्य हो जाएगा। उसी घड़ी में देखना पड़ेगा कि मैं जिंदा हूं या नहीं। जब शरीर मृतवत हो जाता है और तब भी मैं पाता हूं कि मैं जीवित हूं, तो उपवास का काम पूरा हो गया। उपवास के माध्यम से अमृत का अनुभव हुआ।
नचिकेता तीन दिन बिना खाए-पीए बैठा रहा। उसने कहा, जब तक मैं मृत्यु के दर्शन न कर लूं, तब तक मैं खाऊंगा नहीं। यह उपवास का विज्ञान है। जब तक मृत्यु का दर्शन न हो जाए, तब तक भोजन बंद रखूंगा। यह एक प्रक्रिया है। बहुत, हजारों प्रक्रियाओं में एक।
लेकिन जो उपवास करते हैं, उन्हें भी पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं। इसके भीतर बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है। यहां शरीर का जीवन क्षीण होने लगे, वहां भीतर होश बढ़ना चाहिए। अगर शरीर के जीवन के क्षीण होने के साथ भीतर भी शिथिलता और उदासी आने लगे, तो सब व्यर्थ हो गया। वहां होश बढ़ना चाहिए, वहां जीवंतता बढ़नी चाहिए। और एक घड़ी आती है जब शरीर बिलकुल मृतवत है, और फिर भी आप पूर्ण जीवित हैं। तो आप जान लिए कि भोजन जीवन नहीं देता, केवल शरीर का ईंधन है। भोजन से जीवन पैदा नहीं होता, सिर्फ चलता है शरीर। अगर भोजन बिलकुल समाप्त हो जाए तो शरीर समाप्त हो जाएगा, क्योंकि शरीर भोजन से निर्मित है। लेकिन आप समाप्त नहीं होंगे।
यह कथा में तो प्रतीक है। तीन दिन नचिकेता उपवासा बैठा रहा।
यमराज के लौटने पर यमराज की पत्नी ने कहा, ब्राह्मण अतिथि रूप में जब घर में प्रवेश करते हैं, तो समझो कि देवता ही प्रवेश करते हैं। उनके शयन की, भोजन की सुविधा जुटाना कर्तव्य है। यह ब्राह्मण-पुत्र घर में आकर बैठा है, तीन दिन से इसने भोजन नहीं लिया है। आप जाएं उनका सम्मान करें।
जो व्यक्ति उपवास की प्रक्रिया से साधना के जगत में प्रवेश करता है, वह घड़ी जल्दी ही आ जाती है जब मृत्यु प्रगट होती है। क्योंकि शरीर तो भोजन से ही चलता है। भोजन के बिना शरीर ज्यादा दिन नहीं चल सकता। मैंने कहा, नब्बे दिन चल सकता है, अगर पूर्ण स्वस्थ हो। क्योंकि शरीर इकट्ठा करता है भोजन, रिजर्वायर इकट्ठा करता है। आपके पास जो मांस-मज्जा है, वह इकट्ठा भोजन है। जरूरत के वक्त के लिए आप इकट्ठा करते हैं। वह इकट्ठा है। तीन महीने तक आप इसी का भोजन कर लेंगे।
शरीर के भीतर दोहरी प्रक्रिया है। अगर आप बाहर से भोजन लेना बंद कर दें, तो तीन, चार, पांच दिन आपको तकलीफ होगी। पांचवें दिन के बाद तकलीफ बंद हो जाएगी। भूख नहीं लगेगी। क्योंकि शरीर अपना ही मांस पचाना शुरू कर देगा। इसलिए रोज उपवास में एक पौंड, डेढ़ पौंड, दो पौंड वजन गिरने लगेगा। वह दो पौंड वजन आपका कहां जा रहा है? आप पचा रहे हैं। आप भोजन कर रहे हैं अपना ही। शरीर में दोहरी प्रक्रिया है।
सुरक्षित भोजन है आपके शरीर में, उसको आप पचा रहे हैं। तीन महीने में चुक जाएगा सब, सिर्फ हड्डियां रह जाएंगी, जिनके पास भोजन बिलकुल नहीं बचा। मृत्यु घटित हो जाएगी। मृत्यु उपस्थित हो जाएगी।
यह तीन दिवस प्रतीक हैं। और शायद नचिकेता जैसी सरलता से भरा हुआ हृदय हो, तो तीन दिन में भी मृत्यु का देवता उपस्थित हो जाएगा। शरीर मरा हुआ दिखाई पड़ेगा। सिर्फ स्वयं की चेतना ही जीवित रह जाएगी।
पत्नी के वचन सुनकर यमराज नचिकेता के पास गए। बोले, हे ब्राह्मण! आप नमस्कार करने योग्य अतिथि हैं –अतिथि का अर्थ होता है, जो बिना तिथि बताए घर आ जाए, बिना कोई खबर किए, बिना एक पोस्टकार्ड डाले कि आ रहा हूं–आप अतिथि हैं, ब्राह्मण हैं। आपने तीन रात्रियों तक मेरे घर बिना भोजन के निवास किया। इसलिए आप मुझसे प्रत्येक रात्रि के बदले एक-एक वरदान मांग लीजिए।
यह कहानी है। कहानी का प्रतीक समझ लें। जो व्यक्ति भी ठीक से उपवास करेगा, मृत्यु घटने के पूर्व उसके पास अनेक शक्तियां आ जाएंगी, जो उसके भीतर छिपी पड़ी हैं। जिनको हम सिद्धियां कहते हैं। जो व्यक्ति भी लंबे उपवास करेगा, ठीक मृत्यु की घटना के पूर्व उसके पास बहुत-सी सिद्धियां आ जाएंगी। और बहुत संभावना तो यह है कि वह यह भूल ही जाएगा कि मैं किस खोज में निकला था और उन सिद्धियों में उलझ जाएगा। वे वरदान अभिशाप सिद्ध होते हैं। आखिरी समय के पहले जब कि मौत आपको आत्मा का ज्ञान दे सकती है, आखिरी प्रलोभन मन के पकड़ते हैं।
पतंजलि ने जिन सिद्धियों का उल्लेख किया है, वे सारी सिद्धियां लंबे उपवासी में पैदा होना शुरू हो जाती हैं। यह यम का कहना नचिकेता को कि मैं तुझे तीन रात्रि तक उपवासा रहने के लिए, हर रात्रि के लिए एक वरदान देता हूं, तू वरदान मांग ले–यह घटना घटती है हर एक व्यक्ति को। जो जल्दी से साधारण वरदानों से संतुष्ट हो जाता है, वह परम वरदान से वंचित रह जाता है।
लेकिन नचिकेता साधारण वरदानों से संतुष्ट होने वाला नहीं था। नचिकेता पूछे ही चला जाता है और आगे, और आगे, और परम गुह्य रहस्य को खोल लेना चाहता है।
नचिकेता ने कहा, हे मृत्युदेव! जिस प्रकार मेरे पिता गौतमवंशीय उद्दालक मेरे प्रति शांत संकल्प वाले, प्रसन्नचित्त हों और क्रोध एवं खेद से रहित हो जाएं, तथा आपके द्वारा वापस भेजे जाने पर, जब मैं उनके पास जाऊं तो वे मुझ पर विश्वास करके पुत्र-भाव रखकर मेरे साथ प्रेमपूर्वक बातचीत करें। यह मैं अपने तीनों वरों में पहला वर मांगता हूं।
पहला वर पिता के लिए है। उसके लिए, जिसने नचिकेता को मृत्यु में भेजा। पहला वर उसके लिए, जिसके लिए हमने पहला अभिशाप मांगना चाहा होता। जो हमें मृत्यु दे, उसको हम दोहरी मृत्यु देना चाहेंगे। आप होते तो आप कहते, पहला तो काम यह करो कि पिता जहां हों, वहीं, इसी वक्त समाप्त कर दो। शत्रु के लिए–और मृत्यु जो दे वह शत्रु ही मालूम पड़ेगा–शत्रु के लिए पहला वरदान कि मेरे पिता शांतचित्त हो जाएं। उनका क्रोध विलीन हो जाए। और जब मैं घर लौटूं तो वे मुझे प्रेम से पुत्र-भाव से स्वीकार कर सकें।
इसमें कई बातें हैं। एक तो जिसने बुरा किया है, उसके लिए शुभ की मांग है।
बुद्ध ने कहा है, तुम्हारी प्रार्थनाएं अगर तुम्हारे शत्रुओं के लिए न हों, तो व्यर्थ हैं। और जीसस ने कहा है, अगर तुम्हारा एक भी शत्रु है, तो तुम वापस जाओ, उससे क्षमा मांगो, उसे मित्र बनाओ; तभी मंदिर में लौटकर आना। क्योंकि उसके पहले कोई भी प्रार्थना पूरी नहीं हो सकती। अगर कहीं भी कोई तुम्हारे चित्त में खटका है कांटे की तरह, तो उस कांटे को तुम मिटा दो, अन्यथा जीवन के फूल नहीं खिल सकते।
नचिकेता ने कहा, मेरे पिता शांत हो जाएं। और जब मैं लौटूं तो मुझे पुत्र-भाव से प्रेमपूर्वक स्वीकार करें।
यह बड़ी कठिन है दूसरी बात। क्योंकि नचिकेता लौटेगा मृत्यु को जानकर। बड़ा मुश्किल होगा। इस ज्ञानी पुत्र को पुत्र की तरह स्वीकार करना। बड़ा कठिन होगा।
यमराज ने कहा, तुमको मृत्यु के मुख से छूटा हुआ देखकर मुझसे प्रेरित तुम्हारे पिता उद्दालक पहले की भांति ही, यह मेरा पुत्र नचिकेता ही है, ऐसा समझकर दुख और क्रोध से रहित हो जाएंगे। और वे अपने आयु की शेष रात्रियों में सुखपूर्वक शयन करेंगे।
इस वरदान को पाकर नचिकेता बोला, हे यमराज! स्वर्गलोक में किंचितमात्र भी भय नहीं है; वहां मृत्युरूप स्वयं आप भी नहीं हैं। वहां कोई बुढ़ापे से भी भय नहीं करता। स्वर्गलोक के निवासी भूख और प्यास, इन दोनों के पार होकर, दुखों से दूर रहकर सुख भोगते हैं।
हे मृत्युदेव! आप उपर्युक्त स्वर्ग की प्राप्ति के साधन-रूप अग्नि को जानते हैं। अतः आप मुझ श्रद्धालु को वह अग्निविद्या भलीभांति समझाकर कहिए, जिससे कि स्वर्गलोक के निवासी अमरत्व को प्राप्त होते हैं। यह मैं दूसरा वर-रूप मांगता हूं।
नचिकेता कह रहा है, मैं दूसरी बात मांगता हूं, जिससे मैं मृत्यु के पार हो जाऊं, जिससे मैं अमृत को उपलब्ध हो जाऊं। यह वरदान मृत्यु से ही पाया जा सकता है। जिन्हें जानना है कि मृत्यु के पार क्या है, कैसा जीवन, वे मृत्यु से गुजरकर ही जान सकते हैं।
तब यमराज बोले, हे नचिकेता! स्वर्गदायिनी अग्निविद्या को अच्छी तरह जानने वाला मैं, तुम्हारे लिए उसे भलीभांति बतलाता हूं। तुम उसे मुझसे भलीभांति समझ लो। तुम इस विद्या को स्वर्गरूपी अनंत लोकों को प्राप्त कराने वाली तथा उसकी आधारस्वरूपा बुद्धिरूपी गुहा में छिपी हुई समझो।
तुम्हारे भीतर ही छिपी है वह अग्नि जिसके माध्यम से तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे। तुम उस महासुख को उपलब्ध होओगे, जहां कोई दुख नहीं; उस परम स्वतंत्रता को, जो मुक्ति है। लेकिन वह अग्नि तुम्हारे ही हृदय की गुफा में छिपी है। उस अग्नि को खोजने तुम्हें कहीं जाना नहीं है। उस अग्नि को कहीं और प्रज्वलित नहीं करना है। वह प्रज्वलित है ही। तुम उसके मालिक हो ही; तुम अमृत हो ही। लेकिन तुम्हें इसका बोध और पता नहीं है।
उस स्वर्गलोक की कारणरूपा अग्निविद्या का उस नचिकेता को उपदेश दिया। उसमें जो-जो प्रक्रियाएं हैं, उन सबको विस्तार से समझाया। उसकी अलौकिक बुद्धि को देखकर प्रसन्न हो यमराज ने कहा, अब मैं तुमको यहां पुनः यह अतिरिक्त वर देता हूं कि यह अग्निविद्या तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगी। और इस अनेक रूपों वाली रत्नों की माला को भी तुम स्वीकार करो।
यह जो अग्नि है, जो हृदय में छिपी है, इसे कैसे प्रज्वलित करना? इसकी पूरी प्रक्रिया है। कैसे यह यज्ञकुण्ड बने? कैसे अरणियों से रगड़कर यह अग्नि पैदा की जाए? किन ईंटों से यह निर्माण होगा यज्ञकुण्ड का? कैसे तुम इसके भीतर जलोगे और तुम्हारा कचरा समाप्त होगा और तुम शुद्ध कुंदन बनोगे? यह सब विस्तार से यम ने कहा।
उसका कोई विस्तार यहां नहीं दिया है। लेकिन इन आठ दिनों में मैं पूरी प्रक्रिया आपको दूंगा। वह नहीं दी है जानकर। उपनिषदों में वे बातें छिपा ली गई हैं, जो गुरु स्वयं ही सीधा देगा। लिख दिए जाने पर खतरा है। भूल-चूक हो सकती है। शब्द को पढ़कर कोई करे, अनर्थ भी हो सकता है। और आग से खेलना, भीतर की आग से खेलना, बाहर की आग से खेलने से बहुत ज्यादा खतरनाक है।
जिन ध्यान की प्रक्रियाओं से हम यहां गुजरेंगे, वे भीतर की अग्नि को जलाने की प्रक्रियाएं हैं। और इन आठ दिनों में, तुम्हें खयाल में साफ हो जाएगा कि हृदय कैसे प्रज्वलित अग्निकुण्ड बन जाता है, और कैसे मृत्यु समाप्त हो जाती है और अमृत का अनुभव होता है। यह अनुभव से ही होगा। और मेरी चेष्टा होगी कि तुम्हें प्रक्रिया से गुजार चलूं। शब्दों में न कहूं, बल्कि यह तुम्हारा कृत्य बन जाए, ऐसी आयोजना हम यहां करेंगे।
नचिकेता को यम ने कहा कि यह अग्नि तेरे ही नाम से जानी जाएगी। इस अग्नि का शास्त्रोक्त रीति से तीन बार अनुष्ठान करने वाला ऋक्, साम और यजुर्वेद आदि तीनों वेदों के साथ संबंध जोड़कर यज्ञ, दान, तप रूप तीनों कर्मों को निष्कामभाव से करने वाला मनुष्य जन्म-मृत्यु से तर जाता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न सृष्टि को जानने वाले स्तवनीय इस अग्निदेव को जानकर तथा इसका निष्कामभाव से विधिपूर्वक चयन करके अनंत शांति को पा जाता है, जो मुझको प्राप्त है।
जो मृत्यु को प्राप्त है, वह आपको भी प्राप्त हो सकता है। मृत्यु को अमृत प्राप्त है, क्योंकि मृत्यु की कोई मृत्यु नहीं होती। आप मरेंगे, मृत्यु नहीं मर सकती। मृत्यु कैसे मरेगी? मृत्यु अमरत्व का सूत्र है। अगर आप मरना सीख जाएं, तो आप भी अमरत्व को उपलब्ध हो जाते हैं।
यम ने कहा, जो भी इस अग्नि का आयोजन कर लेता है, वह मृत्यु के पाश को अपने सामने ही, मनुष्य शरीर में ही काटकर, शोक के पार होकर स्वर्गलोक में आनंद का अनुभव करता है।
हे नचिकेता, यह तुम्हें बतलाई हुई स्वर्ग प्रदान करने वाली अग्निविद्या है, जिसको तुमने दूसरे वर में मांगा है। इस अग्नि को अब से लोग तुम्हारे ही नाम से स्मरण करेंगे। अब तुम तीसरा वर मांगो।
हम इस अग्नि से गुजरेंगे। बजाय इसके कि मैं आपसे कुछ कहूं, उचित होगा कि आपको उस अग्नि में ले चलूं। पहुंचाऊं आपको उस जगह जहां आप भी यम के द्वार पर दस्तक दे सकें। इस प्रक्रिया को ठीक से अभी समझ लें, क्योंकि कल सुबह से हम प्रारंभ करेंगे।
रात्रि आज सोने के पूर्व दस मिनट बिस्तर पर लेट जाएं, कमरे में अंधेरा कर लें। आंख बंद कर लें, और जोर से श्वास मुंह से बाहर निकालें। निकालने से शुरू करें, एक्झेलेशन से। लेने से नहीं, निकालने से। जोर से मुंह से श्वास बाहर निकालें। और निकालते समय ओऽऽऽ… की ध्वनि करें। जैसे-जैसे ध्वनि साफ होने लगेगी, ओम अपने आप ही निर्मित हो जाएगा। आप सिर्फ ओऽऽऽ… का उच्चारण करें। ओम का आखिरी हिस्सा अपने आप, जैसे ध्वनि व्यवस्थित होगी, आने लगेगा। आपको ओम नहीं कहना है, आपको सिर्फ ओ कहना है, म को आने देना है। पूरी श्वास को बाहर फेंक दें। फिर ओंठ बंद कर लें और शरीर को श्वास लेने दें, आप मत लें। निकालना आपको है, लेना शरीर को है।
आमतौर से लेते हम हैं, निकालता शरीर है। और उसका कारण है। जाती हुई श्वास जीवन से जुड़ी है–भीतर जाती हुई श्वास। बाहर जाती हुई श्वास मृत्यु से जुड़ी है। बच्चा जब जन्मता है तो पहला काम करेगा, श्वास भीतर लेगा। बाहर निकालने को तो उसके पास कोई श्वास होती भी नहीं। भीतर लेगा। श्वास का भीतर जाना, जीवन का पहला स्पंदन है। मरता हुआ आदमी जो आखिरी काम करेगा, श्वास को बाहर निकालेगा। क्योंकि भीतर श्वास रह जाए तो मृत्यु हो ही नहीं सकती।
मृत्यु है श्वास का बाहर जाना। जीवन है श्वास का भीतर आना।
प्रतिपल, आप जब श्वास भीतर लेते हैं, तो जन्मते हैं। और जब श्वास बाहर जाती है, तो मरते हैं। यहां हम नचिकेता बनने की तैयारी में हैं। इसलिए जोर श्वास छोड़ने पर रहेगा इस पूरे शिविर में। लेने की आप बात ही मत करें। घबड़ाएं नहीं कि मर जाएंगे, लेने का काम शरीर कर लेगा कोई श्वास रोकनी नहीं है। लेते समय आपको कुछ भी नहीं करना है, न लेना है न रोकना है, छोड़ना है। रात दस मिनट सोने के पहले। क्योंकि सोना भी मृत्यु का हिस्सा है। नींद छोटी मौत है। और अगर आप छोड़ती हुई श्वास के साथ सो जाएं, तो आपकी पूरी नींद गहरी मृत्यु बन जाएगी।
दस मिनट ओ की आवाज के साथ श्वास को छोड़ें मुंह से। फिर नाक से श्वास लें। फिर मुंह से छोड़ें फिर नाक से लें। और ऐसे ओऽऽऽ…की आवाज करते-करते-करते-करते सो जाएं। यह रात्रि के लिए। फिर सुबह का प्रयोग है। वह मैं आपको सुबह समझा दूंगा।