UPANISHAD
Kathopanishad 07
Seventh Discourse from the series of 19 discourses – Kathopanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during OCT 06-13 1973.
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यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः।।6।।
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाशुचिः।
न स तत्पदमाप्नोति सन्सारं चाधिगच्छति।।7।।
यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदा शुचिः।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते।।8।।
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान् नरः।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्।।9।।
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः।।10।।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः।।11।।
जो सदा विवेकयुक्त बुद्धि वाला (और) वश में किए हुए मन से संपन्न रहता है, उसकी इंद्रियां सावधान सारथि के अच्छे घोड़ों की भांति वश में रहती हैं।।6।।
जो कोई सदा विवेकहीन बुद्धि वाला, असंयतचित्त (और) अपवित्र रहता है, वह उस परमपद को नहीं पा सकता, अपितु बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र में ही भटकता रहता है।।7।।
परंतु जो सदा विवेकशील बुद्धि से युक्त, संयतचित्त (और) पवित्र रहता है, वह उस परमपद को प्राप्त कर लेता है, जहां से (लौटकर) पुनः जन्म नहीं लेता।।8।।
जो (कोई) मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से संपन्न और मनरूप लगाम को वश में रखने वाला है, वह संसारमार्ग के पार पहुंचकर सर्वव्यापी परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान के उस सुप्रसिद्ध परमपद को प्राप्त हो जाता है।।9।।
क्योंकि इंद्रियों से शब्दादि विषय बलवान हैं, और शब्दादि विषयों से मन (प्रबल) है, और मन से भी बुद्धि बलवती है (तथा) बुद्धि से भी महान आत्मा (उन सबका स्वामी होने के कारण) अत्यंत श्रेष्ठ और बलवान है।।10।।
उस जीवात्मा से भी बलवती है भगवान की अव्यक्त मायाशक्ति। अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ है परमपुरुष स्वयं परमेश्वर। परमपुरुष भगवान से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है, वही सबकी परम अवधि (और) वही सबकी परम गति है।।11।।
मनुष्य की अशांति, मनुष्य के मन के भीतर निरंतर का द्वंद्व, तनाव, चिंता, मनुष्य की बेचैनी और विक्षिप्तता, एक ही बात से जन्म पाती है, और वह है मनुष्यों के व्यक्तित्वों में बहुत-सी पर्तों का होना।
मनुष्य एक नहीं है, बहुत-सी पर्त है।
शरीर है; शरीर की एक पर्त है। और शरीर की पर्त की अपनी वासनाएं हैं, अपनी इच्छाएं हैं। शरीर का अपना आकर्षण है। अपने मोह, अपने लोभ, अपनी कामनाएं हैं।
फिर शरीर के भीतर मन की पर्तें हैं। मन की अपनी वासनाएं हैं। अपनी आकांक्षाएं हैं। और मन के भी भीतर बुद्धि है, विवेक है। उस विवेक की कामना बिलकुल भिन्न है। और इन तीनों पर्तों की वासनाओं में आपस में बड़ा विरोध है।
शरीर कहता है कुछ करो। मन कहता है कुछ और करो। विवेक सुझाता है कुछ और। और तब मनुष्य के भीतर एक भीड़ हो जाती है, संघर्ष की; एक उपद्रव, एक अराजकता हो जाती है।
अगर मनुष्य केवल शरीर होता तो कोई अशांति न होती। अगर मनुष्य अकेला मन होता तो भी कोई अशांति न होती। अगर मनुष्य केवल आत्मा होता तो भी कोई अशांति न होती। इसलिए पशु मनुष्य से कम अशांत हैं। क्योंकि पशुओं के पास शरीर ही है। मन की थोड़ी-सी झलक है, और जितनी झलक है उतनी अशांति वहां भी है। पौधे और भी शांत हैं। वृक्ष और भी शांत हैं। कोई चिंता नहीं, कोई तनाव नहीं। मन की वहां हलकी-सी झलक भी नहीं।
मनुष्यों में भी जितना विचारशील व्यक्ति होगा, उतना अशांत हो जाएगा। जितना बुद्धिहीन व्यक्ति होगा, उतना कम अशांत होगा।
इसलिए जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ती है, विचार की क्षमता बढ़ती है, बुद्धि तीव्र होती है, वैसे-वैसे अशांति बढ़ती है। अमरिका में पागलों की संख्या सर्वाधिक है। उससे आप प्रसन्न मत होना; उससे आप यह मत सोचना कि हम बड़े सौभाग्यशाली हैं। उसका कुल अर्थ इतना है कि अमेरिका आज बुद्धि के जगत में सर्वाधिक विकसित है।
संपन्न घरों में तनाव और चिंता ज्यादा होगी। होना उलटा चाहिए। विपन्न, दीन-हीन, दरिद्र घरों में उतनी अशांति नहीं है। संपन्न घरों में अशांति है, क्योंकि संपन्नता के साथ बुद्धि भी बढ़ती है। बुद्धि के बढ़ने के साथ संपन्नता बढ़ती है। जितना विपन्न आदमी है, उतना बुद्धि का भी विकास नहीं है। अन्यथा वह भी संपन्न हो गया होता। विपन्न आदमी दुखी, दीन है; अशांत नहीं है।
अर्थ यह हुआ कि हमारे भीतर जितनी पर्तें होंगी ज्यादा, उतना संघर्ष होगा।
अकेला शरीर में कोई जी सके, तो विक्षिप्त होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन अकेले शरीर में आप जी नहीं सकते, मन पीछे खड़ा है। शरीर कुछ कहता है, मन कुछ कहता है। आप भोजन कर रहे हैं। शरीर कहता है, पेट भर गया। मन कहता है, स्वादिष्ट है, थोड़ा और लिया जा सकता है। बुद्धि कहती है, नासमझी कर रहे हो, क्योंकि यह रुग्णता का कारण होगा, बीमारी बढ़ेगी। तीन पर्तें हो गईं, कलह भीतर शुरू हो गई।
शरीर कोई नीति-नियम नहीं मानता। शरीर तो ठीक पशु जैसा है। लेकिन मन बड़े द्वंद्व में होता है। मन के पास भी पशुओं जैसी वासना है, लेकिन मन के पास मनुष्य के संस्कार भी हैं। समाज का दिया हुआ ज्ञान भी है, अंतःकरण भी है। भूख लगी है। शरीर तो कहेगा, चोरी कर लो, कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि शरीर के तल पर कोई हर्ज होता भी नहीं। लेकिन मन बेचैनी अनुभव करेगा।
अहंकार कहेगा कि अगर चोरी करते पकड़ लिए गए, बदनामी होगी। मन यह कहेगा कि अगर चोरी ही करनी है, तो इस ढंग से करो कि पकड़े न जाओ। लेकिन भीतर बुद्धि है–और भी गहरे में–वह कहेगी, इससे कोई संबंध नहीं कि तुम पकड़े गए या नहीं पकड़े गए। चोरी की, कि गलत हुआ। और बुद्धि को कांटा सालता रहेगा। न भी पकड़े गए तो भी बुद्धि पीड़ा पाएगी कि बुरा हुआ।
मनुष्य की अशांति है उसके बहुत पर्तों में बंटे होने के कारण। इस बात को ठीक से समझ लें तो दूसरी बात समझने में आसान हो जाएगी। वह दूसरी बात यह है कि जिस तल पर उपद्रव होता है, उसी तल पर आप उसी तल की शक्ति से उस उपद्रव को शांत नहीं कर सकते। उससे ऊंचे तल पर, उससे बड़ी शक्ति के द्वारा उपद्रव शांत हो सकता है।
अगर शरीर के तल पर कठिनाई है, तो शरीर ही उसे हल करने में समर्थ नहीं है, उसे मन हल कर सकता है। और अगर मन के तल पर कठिनाई है, तो मन ही उसे हल करने में समर्थ नहीं है, उसे बुद्धि हल कर सकती है। और अगर बुद्धि के तल पर कोई कठिनाई है, तो बुद्धि उसे हल करने में समर्थ नहीं है, उसके लिए तो आत्मा के निकट ही पहुंचना पड़े। और अगर आत्मा के तल पर कोई कठिनाई है, तो सिवाय परमात्मा के तल पर पहुंचे उसका कोई हल नहीं है।
इसका मतलब यह हुआ कि जहां कठिनाई है, उससे ऊंचे तल पर उसका हल खोजना होगा।
हम अक्सर उसी तल पर हल खोजते हैं, इससे कठिनाई बढ़ती है, घटती नहीं। समझें। शरीर में वासना उठती है, आंखें रूप की तलाश करती हैं। ऐसे कुछ संतों की कथाएं हैं, कि उन्होंने आंखें निकालकर फेंक दीं, क्योंकि आंख रूप को खोजती है। शरीर रूप की खोज कर रहा है। लेकिन आंख को निकालकर फेंक देना उसी तल पर है, तल के ऊपर उठना नहीं है।
शरीर ही आकर्षित हो रहा है, शरीर को ही आप चोट पहुंचा रहे हैं। शरीर की आंखें निकाल फेंक देने से कोई भी हल न होगा। अंधा भी, आंखें मिट जाने पर भी वासना से ग्रस्त ही रहेगा। शायद आंखें होतीं तो इतना ग्रस्त न होता। आंखें खो जाने से और भी कठिनाई बढ़ जाएगी।
अनेक परंपराओं ने कहा है कि जो अंग कष्ट दें उन्हें काट देना। आप जानकर हैरान होंगे, रूस में ईसाइयों का एक बहुत बड़ा संप्रदाय है, जो जननेंद्रियां काट देता था। उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति के बाद जब कानूनन रोक लगाई गई, तब बामुश्किल उस संप्रदाय को जननेंद्रिय काटने से रोका जा सका। कोई दस लाख लोग रूस में थे, जिन्होंने अपनी जननेंद्रियां काटकर फेंक दी थीं, सिर्फ इस खयाल से कि जननेंद्रिय के काटने से कामवासना से छुटकारा हो जाएगा।
जननेंद्रिय के काटने से कामवासना का कोई छुटकारा नहीं हो सकता। क्योंकि कामवासना अगर जननेंद्रिय में ही होती पूरी, तो भी कोई बात थी। कामवासना तो मस्तिष्क में है, गहरे में है। जननेंद्रिय तो मस्तिष्क का ही एक हिस्सा है। और जो सुख मिलता है संभोग का, वह जननेंद्रिय के तल पर नहीं मिलता, वह मिलता तो मस्तिष्क के तल पर है।
आपको ज्यादा भोजन में रस है, तो लोग उपवास कर लेते हैं–लेकिन उसी तल पर। जहां जबर्दस्ती भर रहे थे शरीर में, अब जबर्दस्ती रोक लेते हैं। लेकिन तल नहीं बदलता। और जब तक तल न बदले, तब तक जीवन में कोई क्रांति नहीं हो सकती। सिर्फ ऊंचा तल नीचे तल का मालिक हो सकता है। दूसरी बात।
तीसरी बात स्मरण रखें कि अगर आप उसी तल पर व्यवस्था जुटाने की कोशिश करेंगे, तो आपके जीवन में दमन, रिप्रेशन हो जाएगा। और सारी जिंदगी विषाक्त हो जाएगी। लेकिन अगर दूसरे तल को आप सजग करते हैं, तो दमन की कोई भी जरूरत नहीं है। दूसरे तल की शक्ति के मौजूद होते ही पहला तल विनत हो जाता है, झुक जाता है।
मन है और मन की ही सारी कठिनाई है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, इस मन से कैसे छुटकारा हो? लेकिन मन से छुटकारे का वे जो भी उपाय करते हैं, वह भी सब मन का ही काम है। मन से छुटकारे के लिए मंदिर चले जाते हैं। वह मंदिर भी मन का बनाया हुआ खेल है। मन से छुटकारे के लिए शास्त्र पढ़ने लगते हैं। वे शास्त्र भी मन से निर्मित हुए हैं। मन से छूटने के लिए मंत्रोच्चार करने लगते हैं। वे मंत्रोच्चार मन की ही परिधि में हैं। माला जपने लगते हैं। व्रत-नियम ले लेते हैं। कसमें खा लेते हैं। वे कसमें भी मन ही खा रहा है।
एक मित्र मेरे पास आए। उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया। लेकिन व्रत लेने से कहीं ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है! अगर इतना आसान होता, तो व्रत लेने की क्या कठिनाई थी? उन्होंने मुझे आकर कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। यह व्रत ले लिया है, लेकिन यह सध तो नहीं रहा है। और मन तो बेचैन है। और इतना बेचैन कभी भी नहीं था, जितना अब है। और इतनी वासना भी कभी मन में नहीं थी, जितनी अब है। जब से यह व्रत लिया है, तब से ऐसा हो गया है कि मन में सिवाय वासना के और कुछ भी नहीं है। पहले तो कुछ और बातें भी सोच लेता था। अब तो बस एक ही धुन लगी है!
व्रत लेते ही नासमझ हैं। समझदार व्रत नहीं लेता। समझदार विवेक को जगाता है, व्रत नहीं लेता। क्योंकि व्रत का मतलब है, उसी तल पर उपद्रव करना। जैसे एक छोटी-सी कक्षा है और उसमें बच्चे लड़ रहे हैं और शोरगुल मचा रहे हैं। और शिक्षक कमरे में प्रवेश कर जाए, एकदम सन्नाटा हो जाता है। बच्चे अपनी जगह बैठ गए हैं, किताबें उन्होंने खोल ली हैं, जैसे कि कहीं कुछ भी नहीं हो रहा था। एक दूसरे तल की शक्ति कमरे के भीतर आ गई। उसकी मौजूदगी रूपांतरण है।
जैसे ही आप ऊंचे तल की शक्ति को जगा लेते हैं, नीचे तल का संघर्ष, उपद्रव एकदम शांत हो जाता है। यह बात बड़ी समझ लेने जैसी है। क्योंकि जहां भी आपके जीवन में अड़चन हो, सीधे उससे लड़ने मत लग जाना। उसके पीछे की शक्ति को जगाने की कोशिश करना।
तो जो मुझसे पूछते हैं, मन को कैसे शांत करें, उनको मैं कहता हूं: मन की फिकर ही मत करो। मन को कुछ मत करो। तुम विवेक को जगाओ; तुम होश से भर जाओ। मन के साथ संघर्ष मत करो, क्योंकि संघर्ष करने वाला मन ही होगा। यह जो शांत होने के लिए कह रहा है, यह भी मन है।
तो मन मन से लड़े, दो टुकड़ों में बंटकर, तो लड़ाई ऐसी होगी जैसे मेरा दायां हाथ बाएं हाथ से मैं लड़ाने लगूं। कोई जीतेगा नहीं, कोई हारेगा नहीं। और मेरी मौज है, जब चाहूं तो बाएं को ऊपर कर लूं और जब चाहूं तो दाएं को ऊपर कर लूं। दोनों मेरे हाथ हैं और दोनों में मेरी ही शक्ति प्रवाहित है। जीत-हार का कोई उपाय नहीं है। कभी मैं चाहूं तो बाएं हाथ के साथ अपना तादात्म्य कर लूं, कि मैं बायां हाथ हूं। और कभी चाहूं तो दाएं के साथ तादात्म्य कर लूं, कि मैं दायां हाथ हूं।
तो कभी आप मन के उस हिस्से से राजी हो जाते हैं, जो वासना से भरा है। और कभी मन के उस हिस्से से राजी हो जाते हैं, जो व्रत, संकल्प, साधना की बातें सोचता है। यह बदलता रहता है, घड़ी के पेंडुलम की तरह। एक क्षण यह, दूसरे क्षण वह। क्योंकि दोनों हाथ आपके हैं।
संघर्ष के तल के ऊपर, पीछे, गहरे में कोई तत्व खोजना जरूरी है, जो जाग सके। विवेक बुद्धि का सार है। विवेक का अर्थ है, एक प्रकार की सजगता, एक तरह का होश। कार्य में, विचार में, एक तरह की सावधानी, एक तरह का सतत स्मरण, अवेयरनेस।
आप रास्ते पर चल रहे हैं। चलना यांत्रिक है। चलना आपको पता है कैसे चला जाता है, शरीर चलता चला जाता है। आपको कोई होश रखने की जरूरत नहीं है, कि आप चल रहे हैं, कि पैर उठाया जा रहा है। श्वास ले रहे हैं। श्वास चलती चली जाती है, यांत्रिक है। श्वास के लिए आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है। होश बिलकुल आवश्यक नहीं है।
लेकिन आप होशपूर्वक भी श्वास ले सकते हैं। बुद्ध ने अपनी पूरी साधना श्वास और होश के ऊपर आधारित की थी। बुद्ध कहते थे अपने भिक्षुओं को कि तुम अगर होशपूर्वक श्वास लेने लगो, तो सब ठीक हो गया।
इतनी सरल बात, और सब ठीक हो जाए! यह सरल ऊपर से दिखती है, भीतर बहुत जटिल है। और ऊपर सरल दिखती है वैसे, जैसे बिजली का बटन दबाएं और हजारों बल्ब जल जाएं। कोई पूछे कि जरा-सा यह बटन और इसको दबाने से हजारों बल्ब कैसे जल सकते हैं? बटन तो दिखाई पड़ता है, भीतर तारों का बड़ा जाल है, वह दिखाई नहीं पड़ता, वह छिपा है।
होश सरल-सी बात है, लेकिन अति कठिन है। बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ अपनी श्वास को होशपूर्वक लेने-छोड़ने लगो, बस। क्या हो जाएगा इतने से? इतने से सब कुछ हो जाता है। क्योंकि भीतर का तत्व जो विवेक है, वह जगने लगता है। वह किसी भी प्रक्रिया के द्वारा जगाया जा सकता है।
कोई भी प्रक्रिया आप होशपूर्वक करने लगें, आपकी बुद्धि सजग होने लगेगी। और जैसे ही बुद्धि सजग होती है, मन शांत होने लगता है, क्योंकि मालिक मौजूद हो गया। नौकर चुपचाप बैठ जाता है; आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगता है।
विवेक समस्त धर्मों का सार है, और मूर्च्छा समस्त अधर्म का आधार है। हम जो भी कर रहे हैं, अगर वह मूर्च्छित है, तो वह पाप है; और अगर वह होशपूर्वक है, तो पुण्य है। कोई कृत्य न तो पुण्य होता है और न पाप। इस बात पर निर्भर होता है कि करते समय चेतना की अवस्था क्या थी? चेतना अगर सजग थी…।
ऐसा हुआ कि बुद्ध एक गांव से गुजर रहे थे। तब वे बुद्ध नहीं हुए थे। तब वे खोज में लगे थे और साधक थे, सिद्ध नहीं हुए थे। एक मित्र से बात कर रहे थे। तभी एक मक्खी उनके सिर पर आकर बैठ गई, तो बात उन्होंने जारी रखी, रास्ते पर चलते रहे, मक्खी को उड़ा दिया–जैसा आप उड़ा देते हैं। फिर तत्क्षण रुक गए, फिर हाथ को उठाया और उस जगह ले गए जहां मक्खी अब नहीं थी। उड़ाया–उस मक्खी को जो अब नहीं थी–हाथ को वापस लाए।
उस मित्र ने कहा, आपका मस्तिष्क तो ठीक है न? क्या उड़ा रहे हैं अब? बुद्ध ने कहा, मैं ऐसे उड़ा रहा हूं जैसे मुझे उड़ाना चाहिए था–होशपूर्वक। तुमसे बात में लगा रहा, मूर्च्छा से मक्खी को उड़ा दिया। वह हाथ मेरा यंत्रवत उठ गया। मेरी सावधानी उसमें न थी, अब मैं हाथ को सावधानीपूर्वक ले गया हूं। इस हाथ की गति में मेरा पूरा बोध है। इस हाथ के साथ मैं भी गया हूं। मक्खी मैंने उड़ाई है, उड़ाते वक्त मेरा मन कहीं और नहीं है, उड़ाने की क्रिया में ही मौजूद है। स्मृतिपूर्वक। यह बुद्ध का शब्द है। होशपूर्वक मैंने मक्खी उड़ाई। पहली दफा मैंने भूल की। पाप हो गया।
मक्खी को कोई चोट भी नहीं लगी थी। पाप का कोई कारण भी नहीं था। लेकिन बुद्ध कहते हैं कि पहली दफा पाप हो गया, क्योंकि मैं मूर्च्छित था। और अगर मैं मक्खी मूर्च्छा से उड़ा सकता हूं, तो मैं कुछ भी कर सकता हूं मूर्च्छा में। मैं हत्या भी कर सकता हूं। क्योंकि मूर्च्छित आदमी का क्या भरोसा? जो बिना होश के कुछ भी कर सकता है, उससे कुछ भी हम आशा नहीं रख सकते। उससे कुछ भी पाप हो सकता है। मैंने मक्खी ऐसे उड़ाई जैसी मुझे उड़ानी चाहिए थी।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे–उठो, बैठो, चलो, लेकिन बस भीतर एक स्मृति का दीया जला रहे। जो कदम तुम भूल से उठा लो मूर्च्छा में, उसे वापस लौटा लो। फिर से कदम को उठाओ होशपूर्वक।
जैसे-जैसे कोई व्यक्ति अपनी क्रियाओं में जागरूकता साध लेता है–भोजन करता है, आंख झपकाता है, श्वास लेता है…। थोड़ा प्रयोग करके देखें, आप चकित हो जाएंगे कि आप कितने शांत हो जाते हैं–एकदम। मन को कुछ करना नहीं पड़ता। कोई इलाज मन का नहीं करना पड़ता। सिर्फ क्रियाओं में जागरूकता और आप पाते हैं कि मन शांत हो गया।
मन अशांत है मूर्च्छा के कारण। एक नशा है जो छाया हुआ है। इस नशे को तोड़ना जरूरी है। ये सूत्र इस नशे को तोड़ने की तरफ इशारे हैं।
जो सदा विवेकयुक्त बुद्धि वाला और वश में किए हुए मन से संपन्न रहता है, उसकी इंद्रियां सावधान सारथि के अच्छे घोड़ों की भांति वश में रहती हैं।
समझ लें। आमतौर से हम शुरू करते हैं–घोड़ों को वश में करना। हम इंद्रियों के साथ लड़ना शुरू कर देते हैं। और हम सोचते हैं, एक-एक इंद्रिय पर कब्जा करके जीत लेंगे। कभी कोई जीतता नहीं, सिर्फ विनष्ट होता है। और चीजें इतनी विकृत और परवर्टेड हो जा सकती हैं कि जीवन में कोई अर्थ ही न रह जाए, और जीवन आत्महत्या जैसा मालूम होने लगे। लेकिन अनेक हैं, तथाकथित बुद्धिमान लोग, वे इंद्रियों से ही लड़ते रहते हैं। कोई भोजन से लड़ रहा है, कोई कामवासना से लड़ रहा है, कोई किसी और चीज से लड़ रहा है, लेकिन लड़ाई जारी है, इंद्रियों से।
इंद्रियों से लड़ना ऐसा ही है, जैसे कोई अपने नौकरों से लड़ने लगे। नौकरों को आज्ञा देने की जरूरत होती है, लड़ने की कोई जरूरत ही नहीं होती। लड़ने का मतलब यह है कि तुमने नौकर को समान मान लिया। भूल हो गई। और जिसने नौकर को समान मान लिया, वह नौकर से जीत न सकेगा; नौकर उससे जीतेगा। एक दफा नौकर को पता चल जाए कि मालिक समान मानता है, और ताल ठोंककर लड़ने को तैयार है… क्योंकि लड़ने का मतलब ही होता है, वह सिर्फ समान से हो सकता है। और अगर लड़ाई हो सकती है, तो फिर नौकर जीत भी सकता है। वह भी पूरी कोशिश करेगा।
इंद्रियां लड़ने योग्य नहीं हैं। लड़कर ही भूल हो जाती है। और अगर आप इंद्रियों से लड़कर हार गए–जो कि निश्चित है, क्योंकि जिसे अपनी मालकियत का अनुभव नहीं है, वह हार ही जाएगा; लड़ने जा रहा है, वहीं भूल हो गई–अगर आप इंद्रियों से हार गए, तो आप सदा के लिए हताश हो जाएंगे।
मैं कलकत्ते में एक घर में मेहमान था। और एक बहुत समृद्ध और बहुत समझ के बूढ़े व्यक्ति ने मुझसे कहा कि मैं अपने जीवन में चार बार ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुका हूं। मेरे साथ एक मित्र थे, वे बड़े प्रभावित हुए। मैंने उनसे कहा कि इतने प्रभावित मत हों, पहले इसका मतलब तो समझो। चार बार कोई ब्रह्मचर्य का व्रत किसलिए लेगा? एक ही बार काफी है! और फिर मैंने कहा कि जिसे चार बार लेना पड़ा है, तुम यह भी तो पूछो कि पांचवीं बार क्यों नहीं लिया? वे बूढ़े सच में ईमानदार आदमी थे, उन्होंने कहा कि आपने ठीक सवाल उठाया। पांचवीं बार इसीलिए नहीं लिया कि चार बार इतना असफल हो गया, कि यह आशा ही छोड़ दी कि विजय हो सकती है।
अगर आप इंद्रियों से लड़ेंगे, तो एक उपद्रव हो जाने वाला है, और वह यह कि अगर आप हारे–और आप हारेंगे–हार तो वहीं शुरू हो गई, जहां आपने लड़ने का निर्णय लिया। आपको मालकियत का पता ही नहीं; जिसको लड़ने की जरूरत ही नहीं है। सिर्फ होश काफी है और इंद्रियां अपने रास्ते पर खड़ी हो जाएंगी। और हार गए अगर, तो हताश हो जाएंगे। और तब सोचेंगे, इंद्रियां बहुत प्रबल हैं, इनसे छुटकारा नहीं हो सकता। और एक बार यह हताशा मन में बैठ जाए, तो जीवन सदा के लिए अंधकार में रह जाता है।
हम सब हताश हैं। हम सबने भरोसा खो दिया है। और हमारी इस हताशा का कारण हमारे तथाकथित साधु-संन्यासी हैं, जो हमें लड़ना सिखाते हैं, जागना नहीं सिखाते। उन्होंने आपको कठिनाई में डाल दिया है।
मेरे पास मित्र आते हैं, वे कहते हैं कि मैं बीस साल हो गए, सिगरेट से लड़ रहा हूं!
तुम्हें लड़ना ही था तो कुछ बड़ी चीज चुनते! सिगरेट से लड़ रहे हो? तुम अपनी आत्मा की कोई कीमत भी नहीं मानते! और बीस साल से लड़ रहे हो और सिगरेट से भी नहीं जीत पाए! तो कैसे तुम्हें भरोसा आएगा कि तुम्हारे भीतर परमात्मा है? तुम हताश हो ही जाओगे। किसने तुम्हें कहा, किस नासमझ ने तुम्हें यह कहा कि सिगरेट से लड़ो। सिगरेट पीनी थी तो पीते, मालिक तो बने रहते! छोड़नी थी तो छोड़ते, मालिक बने रहते! लड़कर क्यों उपद्रव कर लिया? और बीस साल! और सिगरेट जीत रही है और तुम हार रहे हो!
क्षुद्र से भूलकर भी मत लड़ना। क्षुद्र से लड़ने का मतलब यह है कि विराट का संग खो गया। विराट को खोजना, क्षुद्र से लड़ना मत। विराट की मौजूदगी पर क्षुद्र अपने आप हार जाता है। बड़े को लाना, छोटे को मिटाने की कोशिश ही मत करना।
सुनी होगी वह कहानी अकबर की, जिसमें उसने एक लकीर खींच दी है दीवार पर, और अपने दरबारियों को कहा है कि इसे बिना छुए छोटा कर दो। मुश्किल हो गई। वे सब दरबारी आपके तथाकथित साधु-संन्यासियों जैसे रहे होंगे। बिना लकीर को काटे-पीटे छोटी होगी कैसे?
बीरबल उठा, उसने एक बड़ी लकीर उसके पास खींच दी। बड़ी लकीर खिंचते ही वह छोटी हो गई, उसे छूने की जरूरत न रही। उसे काटा भी नहीं, उसे मिटाया भी नहीं।
जीवन की कला यही है कि छोटे के सामने बड़े को खड़ा कर दो। छोटे से लड़ने मत जाओ, वह तुम्हें छोटा कर देगा।
ध्यान रहे, मित्र तो कोई भी चल जाएगा, शत्रु बहुत सोच-समझकर चुनना। जिसने छोटा शत्रु चुन लिया, वह छोटा हो जाएगा। मित्रों से लोग इतना नहीं सीखते, जितना शत्रुओं से सीखते हैं। क्योंकि शत्रुओं के साथ चौबीस घंटे का संघर्ष होता है। और धीरे-धीरे दोनों शत्रु बराबर एक-से हो जाते हैं।
अगर सौ साल तक दो शत्रु लड़ते रहें, तो करीब-करीब मरते समय वे जुड़वां भाइयों जैसे हो जाएंगे। एक-से हो जाएंगे। यह सौ साल का सतत संघर्ष सत्संग है। और एक-दूसरे से लड़कर वे एक-दूसरे की कला सीख रहे हैं। लड़ना हो तो कला सीखनी ही होती है कि दूसरा क्या कर रहा है, उसका हिसाब रखना पड़ता है। धीरे-धीरे वे समान होते चले जाते हैं। शत्रु आमतौर से समान हो जाते हैं। मित्रों में तो भेद बने रहते हैं। शत्रुओं के भेद मिट जाते हैं।
भीतर इस बात को ठीक से खयाल में रख लेना कि छोटी किसी चीज से शत्रुता मत लेना।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं–बड़ी कीमत की बात कहते हैं, इस संदर्भ में भी जरूरी है, समझने जैसी है–मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कोई भी पिता अपने बेटे से ऐसी बात कभी न कहे, जिसे वह पूरा न करवा सके। एक दफा हार गया कि फिर बेटे के मन में कभी प्रतिष्ठा बाप की नहीं रहेगी।
जैसे समझ लें, आपका छोटा बच्चा आपके सामने बैठा रो रहा है, और आप कहते हैं–रोना बंद कर! आपकी ताकत है रोना बंद करवाना? और वह रोए चला जा रहा है, और आप कह रहे हैं–रोना बंद कर! आप ज्यादा से ज्यादा मार सकते हैं। मारने से वह और रोएगा। रोना बंद करवाना बहुत मुश्किल है।
और एक दफा बच्चे को पता चल गया कि अरे! तुम कहे चले जा रहे हो कि रोना बंद करो, मैं रो रहा हूं, और तुम कुछ भी नहीं कर पा रहे हो, तुम्हारी सारी शक्ति खो गई। इस बच्चे के मन में तुम्हारी स्थिति ठीक हो गई, कि तुम कोई बड़े शक्तिशाली नहीं हो।
फ्रॉयड ने कहा है कि बेटे इस कारण बुरी तरह बिगड़ते हैं कि बाप उनसे ऐसी बात करवाना चाहते हैं जो करवा नहीं सकते। फ्रॉयड ने कहा, ऐसी बात कहना ही मत। तुम वही कहना जो तुम करवा सको। तुम कहो कि निकल जा कमरे के बाहर! तुम निकाल तो सकते हो कम से कम कमरे के बाहर। उसको इतना भरोसा तो रहेगा कि बाप जो कहता है, उसे पूरा कर सकता है।
इस संदर्भ में भी यह याद रखने जैसा है कि अपनी इंद्रियों से वही आप कहना, जो आप पूरा करवा सकें। अन्यथा कहना ही मत। रुकना अभी, ठहरना। क्योंकि एक बार इंद्रियों को यह पता चल जाए कि तुम कहते रहते हो, तुम्हारी बातों का कोई मूल्य नहीं, सब बकवास है; कि तुम निर्णय लेते रहते हो, सब व्यर्थ है। तुम संकल्प बांधते हो, व्रत करते हो, कोई मूल्य का नहीं। इंद्रियों को एक दफा पता चल जाए कि तुम अपने मालिक नहीं हो, तुम्हारी हर चीज तोड़ी जा सकती है, फिर ये घोड़े तुम्हारे वश में आने वाले नहीं हैं।
लेकिन हर आदमी ने यही कर लिया है। और बड़े समझदार लोग समझा रहे हैं लोगों को, कि ऐसा करो।
व्रत वही लेना, जो पूरा हो सके। लेकिन जो पूरा हो सके, उसका आदमी व्रत लेता ही नहीं है।
इसे समझ लें। जो पूरा हो सकता है, उसको आप पूरा कर लेते हैं। व्रत की क्या जरूरत है? व्रत तो आप तभी लेते हैं, जिसे आप जानते हैं यह पूरा न हो सकेगा, इसलिए व्रत का सहारा लेते हैं। तो कसम खाते हैं कि इसको करके दिखाऊंगा। लेकिन करके किसको दिखाइएगा! और अगर न दिखा पाए, तो आप अपनी ही आंखों में गिर जाएंगे। और उस आदमी से ज्यादा दीन कोई भी नहीं है, जो अपनी आंखों में गिर जाता है।
तो मैं कहता हूं, शराब पीना हो पीना, सिगरेट पीना हो पीना, जो तुम्हें करना हो करना, लेकिन मालिक रहकर। लड़ाई मत खड़ी कर देना कि मालकियत टूट जाए।
इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि तुम शराब पीते ही रहना, सिगरेट पीते ही रहना। मैं यह कह रहा हूं कि भीतर एक और तत्व है, जो संघर्ष से पैदा नहीं होता, जो सजगता से पैदा होता है; वह विवेक है। तुम उसे जगाना, तुम उसकी साधना में लग जाना। इन क्षुद्र चीजों से मत लड़ना। यह लड़ाई बेमानी है। समय और शक्ति का अपव्यय है। और तुमने किसी तरह अगर सिगरेट भी छोड़ दी, तो तुम नास नाक में डालने लगोगे। या तुम कुछ पान खाने लगोगे, या तंबाकू! क्योंकि वह जो उपद्रव था, वह नया रास्ता खोज लेगा। लेकिन इंद्रियां अपनी मालकियत इतनी आसानी से नहीं छोड़तीं।
यह सूत्र उलटी यात्रा बता रहा है। यह कह रहा है कि जो सदा विवेकयुक्त बुद्धि वाला और वश में किए हुए मन से संपन्न रहता है, उसकी इंद्रियां सावधान सारथि के अच्छे घोड़ों की भांति वश में रहती हैं।
असली बात है: विवेकयुक्त बुद्धि वाला। वह हो, तो मन संयत हो जाता है। मन संयत हो, तो इंद्रियां वश में आ जाती हैं। इसलिए असली खोज विवेक की है।
जो कोई सदा विवेकहीन बुद्धि वाला, असंयत चित्त और अपवित्र रहता है, वह उस परमपद को नहीं पा सकता, अपितु बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र में ही भटकता रहता है।
हमारा भटकाव हमारी मूर्च्छा है, अविवेक है। हम ऐसे चल रहे हैं जैसे जन्म से ही शराब पिए हों। एक आदमी अगर साठ साल जीए तो बीस साल तो सोता है। एक तिहाई। यह तो पक्का ही है कि बीस साल सोता है। बीस साल छोटा वक्त नहीं है। जिंदगी का एक तिहाई हिस्सा है। बाकी जो चालीस साल बचते हैं, उन चालीस साल में भी ऐसे कुछ ही क्षण हैं जब आदमी सपने नहीं देखता, नहीं तो सपने देखता रहता है।
बैठे हैं घर में कुर्सी पर, सपना चल रहा है। सोच रहे हैं कि राष्ट्रपति हो गए हैं, कि अचानक घर में धन की वर्षा हो गई। और ऐसा नहीं कि इतने पर रुक जाते हैं। उस धन का क्या उपयोग करें? कैसे उस धन का महल बनाएं? क्या करें, क्या न करें? वह सब शुरू हो जाता है।
शेखचिल्ली की कहानियां बच्चों की किताबों में नहीं हैं, हर आदमी के मन में हैं। और हर आदमी बनाए चला जाता है। और एक दफा बनाता है, ऐसा नहीं है, रोज बनाता है। और फिर जरा-सा होश आता है तब हंसता है, कि यह मैं क्या बात कर रहा हूं, छोड़ो सब। लेकिन फिर घड़ी दो घड़ी बाद सिलसिला शुरू हो जाता है स्वप्न का।
बीस साल तो गहन निद्रा में, चालीस साल सपनों में। उसमें कभी-कभी कोई क्षण होते हैं, अगर सब जोड़े जाएं, तो गुरजिएफ कहा करता था कि पांच मिनट से ज्यादा नहीं हैं पूरे साठ साल की जिंदगी में, जब आदमी कभी-कभी क्षणभर को होश में आता है। वह होश की झलकें आती हैं और खो जाती हैं। इतने-से होश से कोई परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। इतने-से होश से तो कहीं पहुंचने का कोई उपाय नहीं। और यह होश भी कब आता है, जब जीवन में कोई अड़चन होती है, कोई भय होता है, कोई दुर्घटना होती है।
आप अपनी कार चला रहे हैं, या साइकिल चला रहे हैं। चले जाते हैं–अपना सपना देखते हुए। हाथ रोबोट की तरह गाड़ी का स्टीयरिंग सम्हालते हैं। मन सपने देख रहा है, भीतर बातचीत चल रही है। जहां आपको पहुंचना है, भीतर आप पहुंच ही गए। जहां से आप आ गए हैं, अभी वहां से आए ही नहीं। गाड़ी चली जा रही है। अचानक एक्सिडेंट की हालत हो जाती है–सामने एक ट्रक आ गया। एक सेकेंड को होश आता है, मन रुक जाता है, विचार टूट जाते हैं, सपने छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। एक सेकेंड को।
आपने कभी खयाल किया है, अगर एक्सिडेंट का कभी आपको क्षण आया हो, एकदम से चोट नाभि पर लगती है। नाभि जीवन का मूल है। चोट लगते ही नाभि से एक झलक रोशनी की पूरे चित्त पर फैल जाती है। एक सेकेंड के लिए आप होश से भर जाते हैं। उतनी देर को भर आप होश से स्टीयरिंग सम्हालते हैं। ट्रक चला गया। धड़कन थोड़ी देर धड़कती रहेगी, शांत हो जाएगी। श्वास बढ़ गई थी, धीमी हो जाएगी। सपना वापस लौट आया। फिर अपनी दुनिया में खो गए।
दुर्घटना के क्षणों में कभी-कभी थोड़ा-सा होश आता है। पत्नी मर गई, पति मर गया, बेटा मर गया। एक क्षण को सदमा लगता है। नाभि पर चोट पड़ती है। एक रोशनी भीतर झलक जाती है। एक क्षण को होश आता है कि मौत है, कि जीवन सदा रहने वाला नहीं, कि जिनको हमने चाहा है वे विदा हो जाएंगे। तो ये प्रेम के सारे घर ताश के घर हैं। कि हमने रेत पर महल बनाया है। तो एक सेकेंड को! और वह सेकेंड इतना छोटा होता है कि हमें कभी-कभी तो उसका पता ही नहीं चलता कि वह कब आया और चला गया। फिर हम छाती पीटकर रोने लगे, दुखी होने लगे, अतीत-भविष्य की सोचने लगे, वह क्षण खो गया।
ऐसा गुरजिएफ कहता था, अगर आदमी की पूरी साठ साल की जिंदगी में जोड़ा जाए तो मुश्किल से ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट, और यह भी इकट्ठा नहीं। यह भी इकट्ठा नहीं, यह भी टुकड़ों-टुकड़ों में मिलता है। कभी सूरज उग रहा है और उसके सौंदर्य ने आपको झकझोर दिया। कभी एक बगुलों की कतार आकाश से गुजर गई, काले बादलों की पृष्ठभूमि में एक क्षण को कौंध गई बिजली और आप रुक गए। कभी किसी पक्षी ने गीत गाया और उसकी आवाज भीतर की ध्वनि को चोट कर गई और मन रुक गया। ऐसे मुश्किल से थोड़े-से क्षण। यही हमारे आनंद के क्षण भी हैं।
जागृति का क्षण ही आनंद का क्षण है। सोए हुए क्षण सब दुख के क्षण हैं। यह जागृति अगर कोई सावधानीपूर्वक उठाना शुरू करे अपने भीतर, तो उठ सकती है।
आप एक छोटा-सा प्रयोग करें अपने घर। सुबह उठ आएं। यह पूजा-प्रार्थना से ज्यादा कीमती होगा। अपनी घड़ी को सामने रख लें, उसके सेकेंड के कांटे पर नजर रखें, और एक ही बात का खयाल रखें कि मैं सेकेंड के कांटे को एक मिनट तक, जब तक यह पूरा चक्कर लेगा, होशपूर्वक देखता रहूंगा। होश नहीं चूकूंगा, देखता ही रहूंगा, कि कांटा घूम रहा है, घूम रहा है, घूम रहा है।
लेकिन आप चकित होंगे कि दो-चार सेकेंड बाद मन कहीं और चला गया, कांटा भूल गया। दो-चार सेकेंड बाद! साठ सेकेंड भी पूरा आप मन को कांटे पर नहीं रख सकते। पच्चीस बातें आ जाएंगी। यही खयाल आ जाएगा कि घड़ी कहां की बनी है, स्विस मेड है? कितने ज्वेल्स लगे हैं? वह छोटा-सा घूमता कांटा पच्चीस चीजें खयाल दिला देगा।
कोशिश करें! अगर आप कोशिश करें तो तीन महीने लगेंगे, जब आप पूरे एक मिनट कांटे पर ध्यान रख सकेंगे। यह बड़ी उपलब्धि है, छोटी उपलब्धि नहीं है। एक सेकेंड का कांटा पूरा चक्कर ले, उस पूरे वर्तुल पर ध्यान। तीन महीने लग जाएगा आपको विवेक जगाने में। इतना कठिन है विवेक।
लेकिन अगर आप एक मिनट को भी विवेक को जगा लें, आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। वह पुराना आदमी आपको लगेगा ही नहीं कि आपसे संबंधित था। वह कहानी किसी और की मालूम पड़ेगी। वह मर गया, वह जो पीछे था, अब कुछ नए जीवन का अवतरण हुआ।
क्योंकि इस व्यक्ति के जीवन की व्यवस्था बिलकुल अनूठी और नई होगी। मन इसका मालिक नहीं होगा। जो एक मिनट भी जाग सकता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। जो एक मिनट जाग सकता है, कोई वासना उसे खींच नहीं सकती। क्योंकि वह जागकर रह सकता है।
यह बड़े मजे की बात है कि वासना खींच लेती है आपको, क्योंकि आप बेहोश होते हैं, सोए होते हैं। क्रोध आपको पकड़ नहीं सकता। जब भी कोई चीज आपको पकड़े, आप जाग सकते हैं, इतनी कला आपको आ गई। जो एक मिनट जाग सकता है, वह किसी भी घड़ी में, कामवासना मन को पकड़े, वह जाग सकता है। वह रीढ़ को सीधी कर लेगा और एक क्षण को जाग जाएगा। और अचानक एक अनूठा अनुभव होता है, आपके जागते ही वासना एकदम तिरोहित हो जाती है, जैसे थी ही नहीं।
बुद्ध ने कहा है कि जिस घर में दीया जलता है, उस घर में चोर नहीं झांकते। दीया बुझा है, चोर प्रवेश कर जाते हैं। बुद्ध ने कहा है, जिस घर के द्वार पर बैठा हुआ पहरेदार है, उस घर की तरफ चोर देखते भी नहीं। जिस द्वार पर पहरेदार सोया हुआ है, चोरों के लिए निमंत्रण हो जाता है।
वासनाएं चोरों की भांति हैं। आपका पहरेदार जागा हो, कि आपके भीतर का दीया जलता हो, तो वासनाएं झांककर भी नहीं देखेंगी। और आप सोए हैं और खर्राटे की आवाज आ रही है, तो वासनाएं आपको घेर लेंगी। मूर्च्छा में, अंधकार में, सोए हुए होने में वासनाओं का बल है।
जो कोई सदा विवेकहीन बुद्धि वाला, असंयतचित्त और अपवित्र रहता है, वह उस परमपद को नहीं पा सकता, अपितु बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र में भटकता रहता है।
मूर्च्छा ही भटकाती है बार-बार। यह कई बार ऐसा लगता है कि बार-बार जन्म-मृत्यु का यह चक्र, समझ में नहीं आता, क्योंकि हमें अनुभव में नहीं, खयाल में नहीं है। हमें उसका कोई स्मरण नहीं है। इसको छोड़ दें। एक और तरह से इस बात को समझें तो खयाल में आ जाए।
आप कितनी दफे जिंदगी में क्रोध कर चुके हैं, और कितनी दफे पश्चात्ताप कर चुके हैं, और कितनी दफे तय कर चुके हैं कि अब क्रोध नहीं करूंगा, लेकिन फिर करते हैं। कितनी बार वासना ने आपको पकड़ा, आप बेहोश हुए, पागल हुए, और कितनी बार पीछे से पछताए, और मन ने विषाद अनुभव किया, और मन दुखी और पीड़ित हुआ, और मन ने सोचा कि अब नहीं, बस बहुत हो गया। लेकिन यह कितनी बार हो चुका है!
बार-बार, एक गाड़ी के चाक की तरह आप घूम रहे हैं। चाक का वही आरा अभी नीचे जाता मालूम पड़ता है, घड़ीभर बाद फिर ऊपर आ जाता है। क्रोध का आरा अभी ऊपर, नीचे जाता मालूम पड़ता है। जब वह नीचे जाता है, तब आप पश्चात्ताप कर लेते हैं। फिर वह ऊपर आ जाता है। फिर नीचे जाता है, फिर पश्चात्ताप कर लेते हैं। गाड़ी के चाक के आरों की भांति आपका जीवन एक वर्तुल में घूम रहा है। और इसलिए इस बात को समझने में बहुत कठिनाई नहीं है कि यही वर्तुल इस जन्म से शुरू नहीं हो रहा है, इस मृत्यु पर समाप्त नहीं हो रहा है।
अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे के गर्भ में रहते हुए भी उसका व्यक्तित्व होता है–भिन्न। पैदा होने के बाद तो होने ही वाला है भिन्न, गर्भ में भी भिन्न होता है। कुछ बच्चे गर्भ में ही एग्रेसिव होते हैं और मां के पेट में लातें मारते हैं। आक्रामक और हिंसक होते हैं। कुछ बच्चे इतने उदासचित्त होते हैं कि उनके कारण मां उदास हो जाती है, जब बच्चे गर्भ में होते हैं। कुछ बच्चे इतने प्रसन्न और आनंदित होते हैं कि उनके कारण मां प्रफुल्लित और आनंदित हो जाती है। क्योंकि मां उनकी तरंगों से आंदोलित होती है। वे दोनों जुड़े हुए हैं।
इसलिए अक्सर स्त्रियों का व्यक्तित्व गर्भावस्था में बदल जाता है। क्योंकि एक नया व्यक्ति और एक नई आत्मा संयुक्त हो जाती है। उसके भी प्रभाव काम करने लगते हैं। इसलिए गर्भावस्था में स्त्री का व्यक्तित्व भिन्न हो जाता है। शांत स्त्री अशांत हो सकती है, अशांत शांत हो सकती है। बच्चे के जन्म के बाद वह वापस लौट आएगी अपने ढर्रे में। लेकिन नौ महीने में एक नई धारा उसके भीतर प्रवाहित होती है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पहले ही क्षण से बच्चे का अपना व्यक्तित्व है।
यह व्यक्तित्व कहां से वह लेकर आता होगा! इसके पीछे लंबी कथा होनी चाहिए। कोई बच्चा आज पैदा नहीं हो रहा है। अनंत-अनंत जन्मों की यात्रा है, वह उनको लेकर पैदा हो रहा है।
जब बच्चा मां के पेट में होता है, तो हर बच्चे के साथ अलग स्वप्न मां को आते हैं। इसलिए जैनों ने और बौद्धों ने तो पूरा स्वप्न-विज्ञान निर्मित किया था। कि जब तीर्थंकर पैदा होता है तो मां को कैसे स्वप्न आएंगे। उन स्वप्नों से पता चल जाएगा कि होने वाला बेटा तीर्थंकर है, या बुद्धपुरुष है। अनेक तीर्थंकर और अनेक बुद्धपुरुषों की मां को जो अनुभव हुए थे और जो स्वप्न आए थे, उनको संगृहीत किया गया और उनको छांटकर एक पूरा विज्ञान बना लिया गया कि जब भी किसी स्त्री को गर्भ की अवस्था में ये स्वप्न आ जाएं, तो समझना कि इस तरह की आत्मा भीतर प्रवेश कर गई। उसके प्रभाव से ऐसे स्वप्न आने शुरू होते हैं।
यह जो व्यक्तित्व है, यह कोई समाज, संस्कार, व्यवस्था से पैदा नहीं होता। यह व्यक्ति अपने साथ लेकर आता है। आपका मन बड़ा प्राचीन है। अनंत-अनंत अनुभव उसके पास संगृहीत हैं, बीज की तरह, अति सूक्ष्म। उन सूक्ष्म अनुभवों का यह जो जोड़ है, यह कोई आज ही एक चाक की तरह नहीं घूम रहा है, यह घूमता ही रहा है। इसलिए हमने संसार को एक चक्र कहा है, एक व्हील।
यह सूत्र कहता है कि जो संयतचित्त नहीं, विवेक जिसका जागरूक नहीं, जो निर्दोष और पवित्र नहीं, वह बार-बार लौटकर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमता रहता है।
परंतु जो सदा विवेकशील बुद्धि से युक्त, संयतचित्त और पवित्र है, वह उस परमपद को प्राप्त कर लेता है, जहां से लौटकर पुनः जन्म नहीं होता।
यह परमपद की धारणा भारत के मन को बड़े प्राचीन समय से पकड़े हुए है। कैसे इस चक्र के बाहर होना हो। मुक्ति, बड़ी अनूठी धारणा है और भारत की अपनी है। मोक्ष भारत की अपनी धारणा है। और करोड़ों-करोड़ों बुद्धपुरुषों के अनुभवों का सार है, कि कैसे इस चक्र के बाहर छलांग लगाई जाए। कैसे कोई इस चक्र के बाहर हो जाए।
और जब तक इस चक्र से कोई बंधा है, तब तक कोई दुख से छुटकारा नहीं हो सकता। क्योंकि जो छूट गया वह फिर आ जाएगा। जो लगता है गया हुआ, वह फिर लौट आएगा। और हम बिलकुल बंधे हैं, और हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। इस बंधन के बीच एक ही धागा है जो स्वतंत्रता की तरफ ले जा सकता है, वह धागा विवेक का है।
एक आदमी कारागृह में बंद है और सोया हुआ है। क्या सोया हुआ आदमी कारागृह से किसी भी तरह बाहर निकल सकता है? सोए हुए आदमी को पहले तो पता ही नहीं चलता कि वह कारागृह में है। और सोए हुए आदमी को अगर स्वप्न में पता भी चल जाए कि वह कारागृह में है, तो भी वह निकलने के लिए क्या करेगा? उसकी आंखें बंद हैं और वह सोया हुआ पड़ा है, वह बेहोश है। और अगर वह स्वप्न में कुछ चेष्टा भी करे तो वह चेष्टा व्यर्थ होगी, क्योंकि वह स्वप्न में होगी, सत्य से उसका कोई संबंध न होगा।
कारागृह से निकलने के लिए पहली शर्त है कि सोया हुआ कैदी जाग जाए। जाग जाए तो फिर कुछ हो सकता है।
गुरजिएफ, जिसने पश्चिम में इस सदी में जागरूकता पर बड़े गहन प्रयोग किए हैं–ठीक महावीर और बुद्ध जैसे गहन प्रयोग इस सदी में करने वाला व्यक्ति गुरजिएफ था–गुरजिएफ कहता था कि आदमी इतना सोया हुआ है कि अकेले आदमी पर भरोसा ही नहीं किया जा सकता कि वह जाग सकता है। इसलिए गुरजिएफ कहता था कि स्कूल वर्क इज नीडेड। अकेले आदमी से नहीं होगा यह, इसलिए एक समूह की जरूरत है।
जैसे समझें कि एक रात अंधेरी है, चोरों का डर है, जंगली जानवरों का भय है, और आप दस आदमी एक जंगल में रुके हैं। आप यह भरोसा नहीं कर सकते कि एक आदमी को हम पहरे पर बिठाल दें तो वह जागा रहेगा। तो आप ऐसा इंतजाम करते हैं, कि एक आदमी दो घंटे जागे, फिर वह दूसरे को जगाए, वह दो घंटे जागे, फिर वह तीसरे को जगाए, वह दो घंटे जागे। एक आदमी जागता रहे और दूसरा उसको देखता रहे कि वह जाग रहा है कि नहीं, सो तो नहीं रहा है। वह झपकी खाए तो दूसरा उसको जगाए। कि दूसरे के पीछे तीसरा लगा रहे। और ध्यान रखे कि वह झपकी तो नहीं खा रहा है, कि उसकी नजर तो नहीं चूक गई?
इसको गुरजिएफ कहता था, स्कूल वर्क। इसको वह कहता था–एक समूह।
इसलिए गुरजिएफ ने पश्चिम में छोटे-छोटे स्कूल निर्मित किए थे, जिनमें वह थोड़े-से लोगों को साथ लेकर कोशिश करता था कि वे एक-दूसरे को जगाने की कोशिश करते रहें। कोई सो न जाए। बड़े सालों की मेहनत के बाद यह हालत पैदा हो पाती है कि लोग जागना सीखते हैं। कारागृह में सोया हुआ आदमी तो सोच ही नहीं सकता कि कारागृह से कैसे निकलना? जागरण पहली बात है।
और सोए हुए आदमी को जागने के दो ही उपाय हैं। या तो कोई जागा हुआ उसे जगाए, यही गुरु का अर्थ है। सोया हुआ आदमी सोया है, उसे यह भी पता नहीं कि मैं सोया हूं। क्योंकि यह भी उसे ही पता हो सकता है जो जागा हो, सोने का पता भी तो जागने में चलता है। आप जब सुबह जागते हैं, तब आपको पता चलता है कि रात सोए, बड़े मजे से सोए। यह तो नींद में पता नहीं चलता। यह तो जागने का अनुभव है कि रात सोए, मजे से सोए, ठीक से सोए, नींद अच्छी आई। यह नींद का अनुभव नहीं है। सोए हुए आदमी को पता ही नहीं कि वह सो रहा है। अगर आप आज रात सोएं और बीस साल तक न जागें, तो आपको यह पता भी नहीं चलेगा कि सुबह कभी की हो चुकी।
मैं एक स्त्री को देखने गया था, वह नौ महीने से सोई हुई है। नींद में ही मूर्च्छित हो गई। कोमा हो गया। अब वह कभी उठेगी नहीं, डॉक्टर कहते हैं। तीन साल तक पड़ी रह सकती है इसी नींद में। उस स्त्री को पता भी नहीं होगा कि सुबह हो चुकी बहुत दिन पहले, नौ महीने पहले। वह अभी भी सो रही है। उसे पता होगा? पता ही नहीं होगा। उसे यह पता होगा कि सो रही है।
अभी वह अगर जागे, तो अगर वह शुक्रवार की रात सोई होगी तो जागते से ही वह पूछेगी, क्या शनिवार हो गया? सुबह का उसे खयाल आएगा और वह कहेगी, रात बड़ी गहरी नींद आई। उसे यह खयाल भी नहीं आ सकता कि नौ महीने…वह तो जागे हुए लोगों का खयाल है।
गुरु का अर्थ इतना ही है कि सोए हुए आदमी को कोई जगा सकता है जो जागा हुआ हो। लेकिन बड़ा खतरा है। गुरु का काम थोड़ा खतरनाक है। क्योंकि किसी सोए आदमी को जगाना, नाराज करना है उसको। तुम उसकी नींद तोड़ रहे हो! वह मजे से सपना ले रहा है। वह विश्राम कर रहा है, तुम नाहक उसको परेशान कर रहे हो।
इमेनुएल कांट जर्मनी का एक दार्शनिक हुआ। उसने एक नौकर रख छोड़ा था। नौकर का काम इतना था कि सुबह उसे चार बजे उठा दे। उसे ब्रह्म-मुहूर्त में उठने की झक थी। और आदमी वह ऐसा था कि जो उसे उठाए उससे वह लड़ाई-झगड़ा करता। तो नौकर इसीलिए रख छोड़ा था, क्योंकि उसके परिवार का कोई उठाने को राजी न था। क्योंकि वह गाली बकता, गलौज करता, कभी मारता भी–सुबह उसकी चार बजे जो भी नींद तोड़ता। लेकिन ब्रह्म-मुहूर्त में उठने की उसको झक भी थी। तो एक नौकर ही रख छोड़ा था। उसका काम ही यह था कि मार-पीट भी हो जाए तो कोई फिकर नहीं, उठाकर ही रहेगा। उसकी आज्ञा ही थी कि चाहे मैं मारूं, तुझे भी मारना पड़े तो मारना, लेकिन चार बजे उठाना है।
गुरु का काम उपद्रव का है। इसलिए गुरुओं पर लोग नाराज हो जाते हैं। जीसस को हम सूली पर लगा देते हैं। वह गुस्सा है सोए हुए लोगों का, कि हमारी नींद खराब कर रहे हो!
ऑस्पेंस्की ने अपनी एक किताब अपने गुरु गुरजिएफ को डेडिकेट की है, समर्पित की है। उसमें लिखा है–गुरजिएफ को, जिसने मेरी नींद तोड़ी।
मगर जब तोड़ी थी, तब बड़ी पीड़ा का काम था, बड़े कष्ट का काम था।
तो गुरु शिष्य के बीच एक संघर्ष है। क्योंकि शिष्य सोना चाहता है। असल में वह आया इसीलिए है कि तुम ऐसी तरकीब बताओ कि वह अच्छी तरह सो सके। वह आया भी नहीं कि जागे। वह कहता है, शांति से सो सकूं, ऐसा कुछ रास्ता!
गुरु और शिष्य के प्रयोजन अलग हैं। शिष्य चाहता है कि किसी तरह शांति से सो सके, अच्छी गहरी नींद आए। वह इसी प्रयोजन से आता है। शांति की तलाश में आते हैं लोग। सत्य की तलाश में तो शायद ही कोई आता है। मुझसे कोई नहीं पूछने आता कि सत्य कैसे मिले। जो भी आता है, वह कहता है, शांति कैसे मिले? वह नींद की खोज कर रहा है, वह कोई ट्रैंक्वेलाइजर खोज रहा है। कोई जो सम्मोहित कर दे और वह मजे से सो जाए।
गुरु का प्रयोजन दूसरा है। एक अर्थ में गुरु शिष्य का दुश्मन है। क्योंकि वह आया है नींद की तलाश करने, और गुरु उसको नींद की तलाश का आश्वासन देता है कि ठीक है, शांत हो जाओगे, आओ; वह जगाएगा। लेकिन जगाने से पहले अशांति बढ़ेगी। शांति तो बहुत बाद में आएगी। जागने से पहले अशांति बढ़ेगी, क्योंकि नींद में जिनका कुछ भी पता नहीं था, वे सब उपद्रव पता चलने शुरू हो जाएंगे।
जैसे ही कोई व्यक्ति ध्यान करता है, वैसे ही उसकी अशांति बढ़नी शुरू होती है। क्योंकि जो चीजें उसे कल दिखाई नहीं पड़ती थीं, वे अब दिखाई पड़ती हैं। कोई अशांति बढ़ती नहीं। अशांति सदा थी, लेकिन होश ही नहीं था। अब जहां-जहां कांटे लगे हैं, वे सब चुभते हैं। वे सदा से चुभ रहे थे, लेकिन बेहोशी में पता नहीं चलता था। अब सारी मुसीबतें मालूम होने लगती हैं।
साधक का जीवन पहले बड़ी अशांति से गुजरता है। वही तपश्चर्या है। उससे जो गुजर जाता है, वह शांति को उपलब्ध होता है।
लेकिन गुरु की आकांक्षा शांति के लिए नहीं है। गुरु की आकांक्षा सत्य के लिए है; परम सत्य के लिए है। परम सत्य की छाया है शांति। जिसे परम सत्य मिलता है, वह शांत तो हो ही जाता है। लेकिन इस सारी यात्रा का मूल-सूत्र है विवेक। और जो विवेक को उपलब्ध है, वह परमपद को पा जाता है और उस जगह पहुंच जाता है जहां से कोई लौटना नहीं है।
जो कोई मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से संपन्न और मनरूप लगाम को वश में रखने वाला है, वह संसार मार्ग के पार पहुंचकर सर्वव्यापी परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान के उस सुप्रसिद्ध परम पद को प्राप्त हो जाता है।
यह थोड़ा समझ लेने जैसा है, क्योंकि लोगों को इस संबंध में बड़ी भ्रांतियां हैं। आमतौर से लोग समझते रहते हैं कि भगवान कोई व्यक्ति है, जिससे हमारा मिलन होगा, जिसका हम साक्षात्कार करेंगे। यह बिलकुल ही असत्य है।
भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, जिससे आपकी मुलाकात होगी और आप कोई इंटरव्यू लेंगे। भगवान एक अवस्था है। जैसे ही आप उस अवस्था के करीब पहुंचेंगे, आप भगवान होते जाएंगे। जिस दिन आप उस अवस्था में पूरे डूब जाएंगे, आप भगवान हो जाएंगे। वहां कोई बचेगा नहीं, जिससे आप मुलाकात लेंगे। आप ही हो जाएंगे।
भगवान के दर्शन का अर्थ भगवान हो जाना है, क्योंकि भगवान एक पद है, वह एक अवस्था है। वह चेतना की आखिरी ऊंचाई है। वह आपके भीतर ही छिपे हुए बीज का आखिरी रूप से खिल जाना है। वह जो छिपा है, उसका प्रगट हो जाना है।
तो भगवत्ता एक अवस्था है। इसलिए अच्छा है, भगवान शब्द से भी ज्यादा अच्छा शब्द है भगवत्ता, क्योंकि उससे अवस्था का पता चलता है, न कि व्यक्ति का–दिव्यता, गॉडलीनेस। बजाय गॉड, ईश्वर कहने के बजाय, भगवान कहने के बजाय, ब्रह्म कहने के बजाय–भगवत्ता, ब्रह्मपद।
लेकिन आदमी की कठिनाई है। क्योंकि आदमी की जो भाषा है, वह सभी चीजों को प्रतीक में, संकेत में बदल लेती है। हम सभी चीजों को बदल लेते हैं। अभी भारत में आजादी की लड़ाई चलती थी तो घर-घर में फोटुएं टंगी थीं भारतमाता की। वह कहीं है नहीं। लेकिन फोटुएं टंगी थीं–माता के पैरों में जंजीरें पड़ी हैं, हाथ में तिरंगा झंडा है। भारतमाता! और भारतमाता की जय बोलते-बोलते अनेक भूल गए होंगे। भारतमाता जैसा कोई कहीं कुछ है नहीं। प्रतीक है। प्रतीक प्यारा है, काव्यात्मक है, लेकिन तथ्य नहीं है।
भगवान भी बस प्रतीक है। वहां कोई बैठा हुआ भगवान नहीं है। आप ही हो जाएंगे। इसलिए भगवान की खोज असल में भगवान होने की खोज है। और जब तक कोई भगवान न हो जाए, तब तक जीवन में यह खोज जारी रहती है। रहेगी ही। क्योंकि इसी की तलाश है, इसी की प्यास है।
जैसे बीज जमीन में पड़ा हो तो तड़पता है, कि वर्षा हो तो फूट जाए, अंकुरित हो। रास्ते में कंकड़-पत्थर पड़े हों तो उनको भी, कोमल-सा बीज भी उनको हटाकर या उनसे बचकर निकलने की कोशिश करता है। फूटता है, जमीन पर आता है, उठता है आकाश की तरफ। और जब तक फूल न खिल जाएं, तब तक बीज की दौड़ जारी रहती है।
आदमी भी एक बीज है। कहें कि वह भगवान का बीज है। भगवत्ता का बीज है। और जब तक टूटकर भगवान का फूल न खिल जाए, तब तक बेचैनी जारी रहेगी। यह बेचैनी सृजनात्मक है, क्रिएटिव है। इस बेचैनी के बिना आप तो भटक जाएंगे।
इसलिए धन्य हैं वे, जो आध्यात्मिक बेचैनी से भरे हुए हैं। अभागे हैं वे, जिनको कोई बेचैनी नहीं। जो कहते हैं, हमें कुछ जरूरत ही नहीं है।
मेरे पास कई लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान की क्या जरूरत है? क्या करना है खोजकर भगवान को? धर्म से क्या लेना-देना है?
इस पृथ्वी पर इनसे ज्यादा अभागा और कोई भी नहीं है। ये बीज हैं जो कह रहे हैं–क्या करना है फूटकर? क्या होगा अंकुर बनकर? और क्या फायदा है आकाश में उठने का? और सूरज की यात्रा से क्या मिलने वाला है? तो ये बीज बीज ही रह जाएंगे, कंकड़-पत्थर की तरह पड़े रहेंगे। दुखी होंगे। दुखी हैं, लेकिन उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि दुख क्या है।
मेरी दृष्टि में एक ही दुख है जीवन का–आप जो होने को पैदा हुए हैं, अगर न हो पाए, तो आप दुखी होंगे। और एक ही आनंद है जीवन का कि आप जो होने को पैदा हुए हैं, हो गए। नियति पूरी हो गई। वह जो छिपा था, अनछिपा हो गया, प्रगट हो गया। और जब तक आप वही न हो जाएं जो होने की आपकी क्षमता है–और वह क्षमता भगवान होने की है–तब तक जीवन से पीड़ा, संताप का अंत नहीं है।
और यह सौभाग्य की बात है कि अंत नहीं है। क्योंकि अगर अंत हो जाए, तो आप वहीं बैठकर रह जाएंगे जहां आप हैं। वह पीड़ा ही आपको धकाए चली जाती है। दुख ही आपको धकाए चला जाता है। अशांति ही आपको धक्का देती है। अशांति, पीड़ा पतवार की तरह है, वही आपकी नाव को ले जाती है उस किनारे की तरफ।
क्योंकि इंद्रियों से शब्दादि विषय बलवान हैं, और शब्दादि विषयों से मन प्रबल है, और मन से भी बुद्धि बलवती है, तथा बुद्धि से भी आत्मा उन सबका स्वामी होने के कारण अत्यंत श्रेष्ठ और बलवान है।
इसलिए ध्यान रखना, जिसको वश में लाना हो, उसके पीछे छिपे हुए तत्व को जगाना। बलवान को पकड़ना, निर्बल से मत लड़ना। यह पॉजिटिव, यह विधायक खोज है।
दो तरह के लोग हैं। एक होते हैं नकारात्मक बुद्धि के लोग। वे हमेशा लड़ने में ही समय बिता देते हैं। दूसरे होते हैं विधायक बुद्धि के लोग, वे लड़ने की फिकर नहीं करते। वे श्रेष्ठ की तलाश में लग जाते हैं। कुछ लोग हैं जो इसी में समय बिता देंगे कि जो व्यर्थ है, जो गलत है, उसको कैसे जीता जाए। और कुछ हैं जो सार्थक है उसको कैसे जन्माया जाए, उसमें शक्ति को लगाएंगे। कुछ हैं जो अंधेरे से लड़ते रहेंगे और कुछ दीए को जलाने की कोशिश करेंगे।
और मजे की बात यह है कि अंधेरे से लड़ने वाला कभी भी अंधेरे से जीत नहीं पाता और दीए को जलाने वाला अंधेरे को जीत लेता है। तो आप दीए को जलाने वाले बनना; अंधेरे से मत लड़ना। नकारात्मकता अगर आपकी साधना में प्रविष्ट हो जाए, तो साधना बीमार हो गई। विधायक होना। कुछ पाने की कोशिश करना, कुछ छोड़ने की नहीं।
इसलिए मैं कहता हूं, त्याग शब्द को भूल जाओ। कुछ छोड़ने की फिकर मत करना, कुछ उपलब्धि की फिकर करना, कुछ पाने की फिकर करना। और जैसे-जैसे तुम पाओगे, वैसे-वैसे तुम पाओगे, बहुत-सा छूटता चला जाता है। जैसे ही तुम सीढ़ी पर, ऊंची सीढ़ी पर पैर रखोगे, नीची सीढ़ी से पैर अपने आप हट जाएगा। तुम नीची सीढ़ी को छोड़ने की कोशिश मत करना, तुम ऊंची सीढ़ी पर पैर रखने की कोशिश करना। तुम आगे बढ़ना, पीछे से तुम्हारी मुक्ति होती चली जाएगी। जैसे-जैसे व्यक्ति भगवान में प्रविष्ट होता है, या भगवान होने में लीन होता है, वैसे-वैसे संसार छूटता चला जाता है।
मेरे देखे ज्ञानियों ने कुछ भी नहीं छोड़ा है, सिर्फ अज्ञानी छोड़ते हैं। यह थोड़ा जटिल मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम कहते हैं, महावीर महात्यागी हैं, बुद्ध महात्यागी हैं। मेरे लेखे नहीं। मेरे लेखे महावीर कुछ भी छोड़ते नहीं, कुछ पाते हैं। और इतना पा लेते हैं कि उसमें कचरा छूट ही जाता है। अब जिसको हीरे मिल जाएं, वह कंकड़-पत्थर हाथ में लिए बैठा रहेगा? हीरे के लिए जगह बनानी पड़ेगी, कंकड़-पत्थर छोड़ देने पड़ेंगे। अज्ञानी छोड़ते हैं और कष्ट पाते हैं। भोग के भी कष्ट पाते हैं और त्याग के भी कष्ट पाते हैं।
मैं दोनों तरह के अज्ञानियों को जानता हूं। भोगते हैं, तब भी कष्ट पाते हैं; भोग भी नहीं सकते हैं ठीक से। छोड़ देते हैं, फिर त्याग के कष्ट पाते हैं।
एक संन्यासी ने मुझे आकर कहा कि चालीस साल हो गए छोड़े हुए, अभी तक कुछ मिला नहीं।
तुम पागल, छोड़े किसलिए? पहले पा लेते फिर छोड़ते, तो यह चालीस साल की पीड़ा तो बचती! कुछ मिला नहीं, छोड़े चालीस साल हो गए! असल में जब तक मिले नहीं, तब तक छोड़ने से एक रिक्तता पैदा होगी। और वह रिक्तता बहुत दुख देगी, नारकीय हो जाएगी।
इसलिए मेरी समझ में तो गृहस्थों से भी ज्यादा दुख तथाकथित साधु भोगते हैं। गृहस्थ को कम से कम कुछ तो भरोसा है कि संसार है। साधु को वह भी भरोसा नहीं। संसार भी छूट गया। परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, मोक्ष समझ में नहीं आता, संसार छूट गया। जो हाथ में था, वह गया और आया कुछ भी नहीं। खाली मुट्ठी है।
मगर वह मुट्ठी को बांधे रखता है ताकि लोगों को ऐसा न लगे, किसी को पता न चले कि कुछ भी उसके पास नहीं। इसलिए आत्मज्ञान की, ब्रह्मज्ञान की बातें करता रहता है। पर वे बातें सब दूसरों के लिए हैं। वह अपने को धोखा दे रहा है। वह दूसरों से चर्चा कर-कर के अपने से बात कर रहा है, अपने को समझा रहा है, परसुएड कर रहा है कि नहीं, कुछ मिल गया है।
जब तक मिले नहीं, तब तक छोड़ना मत। तब तक कंकड़-पत्थर भी ठीक हैं, कम से कम मुट्ठी तो बंधी रहती है। और ऐसा तो रहता है कि कुछ अपने पास है। और फिर जल्दी क्या है कंकड़-पत्थर छोड़ने की? जब हीरा मिलने लगे, कंकड़-पत्थर गिर जाएंगे, छोड़ने भी नहीं पड़ेंगे। आपको याद भी न आएगा, कब हाथ से कंकड़-पत्थर छूट गए और हीरे पर मुट्ठी बंध गई।
पॉजिटिव, विधायक होने की दृष्टि सदा बनाए रखनी चाहिए। वही प्रयोजन है यम का। श्रेष्ठ और बलवान कौन है भीतर, उसको जगाएं।
उस जीवात्मा से भी बलवती है भगवान की अव्यक्त मायाशक्ति। अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ है परमपुरुष स्वयं परमेश्वर। परमपुरुष भगवान से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है। वही सबकी परम अवधि और वही सबकी परम गति है।
इसलिए साधना की जो आत्यंतिक व्यवस्था है, वह है परमात्मा के प्रति समर्पण। उसका मतलब यह नहीं होता कि कोई परमात्मा है कहीं आकाश में, जिसके चरणों में आपने सिर रख दिया। परमात्मा के प्रति समर्पण का अर्थ होता है कि आप के भीतर जो श्रेष्ठतम और आत्यंतिक शक्ति है, उसके प्रति आपने अपने को समर्पित कर दिया। और अगर यह समर्पण पूरा हो जाए, तो एक क्षण में भी संयम, साधना सब पूरी हो जाती है।
पुराने शास्त्रों ने कहा है, गुरु के प्रति समर्पण। सिर्फ इस अर्थ में कि जिस परमात्मा की तुम्हें भीतर कोई खबर नहीं है, जिसे तुम अपने भीतर खोजने में असफल हो रहे हो, जिसकी झलक तुम अपने भीतर नहीं उपलब्ध कर पा रहे, क्योंकि बड़ी पर्तें हैं अंधेरे की, बड़ी दीवारें हैं, वह किसी दूसरे व्यक्ति में पारदर्शी हो गया है, ट्रांसपेरेंट हो गया है। उस ट्रांसपेरेंसी में, उस पारदर्शिता में तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ रहा है।
महावीर के पास जिनको परमात्मा दिखाई पड़ा, बुद्ध के पास, नानक के पास, जीसस के पास, मुहम्मद के पास, जिनको उनकी पारदर्शिता में भीतर का तत्व जगमगाता हुआ दिखाई पड़ा, वे समर्पित हो गए। वह समर्पण पहले तो मुहम्मद या महावीर के प्रति था, लेकिन वह जो भीतर का तत्व है वह तो एक ही है। वह मुहम्मद का और आपका अलग थोड़े ही है!
समर्पित होते ही उस झलक के प्रति, अपनी झलक की शुरुआत हो जाती है। जैसे दूसरे के सहारे अपना दीया जल गया। जैसे दूसरे की मौजूदगी में दूसरा एक केटेलिटिक एजेंट हो गया। गुरु केटेलिटिक एजेंट है। और जब तक खुद का भीतर का गुरु न जग जाए, तब तक बड़ा सहयोगी है।
परमात्मा के प्रति समर्पण का अर्थ है–अपनी श्रेष्ठतम संभावना के प्रति समर्पण, अपने अंतिम भविष्य के प्रति समर्पण, अपनी नियति की अंतिम अवस्था के प्रति समर्पण।
एक मित्र आज मेरे पास आए थे। पूछने लगे कि आत्मा तक तो ठीक है, लेकिन परमात्मा भी कोई है?
जैन हैं, इसलिए थोड़ी अड़चन है। क्योंकि जैन कोई परमात्मा को नहीं मानते। आत्मा तक तो ठीक है, लेकिन कोई परमात्मा भी है क्या? लेकिन आत्मा का भी पता कहां है? वह भी पढ़ा है, सुना है; वह भी जिस संप्रदाय में पैदा हुए हैं, उसकी खबर है। अगर आत्मा की ही खबर हो जाए, तो परमात्मा से मिलन हो ही जाता है तत्क्षण।
महावीर ने कहा है, आत्मा ही परमात्मा है। लेकिन आत्मा की कुछ तीन हालतें हैं। महावीर का विश्लेषण बहुत साफ है। महावीर ने कहा, एक आत्मा की हालत है–बहिर-आत्मा, बाहर की तरफ देखती हुई आत्मा। और एक आत्मा की हालत है–अंतर-आत्मा, भीतर की तरफ देखती आत्मा। और एक आत्मा की हालत है–परमात्मा, न बाहर, न भीतर; कहीं भी न देखती हुई, अपने में ठहरी हुई।
तो परमात्मा को महावीर आत्मा की अवस्था कहते हैं। यम भी वही कह रहा है। वह भी नहीं कह रहा है कि कोई परमात्मा कहीं बाहर बैठा हुआ है। वह भी यही कह रहा है कि जीवात्मा से भी बलवती है भगवान की अव्यक्त माया शक्ति। अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ है परमपुरुष स्वयं परमेश्वर। परमपुरुष भगवान से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है। वही सबकी परम अवधि और वही सबकी परम गति है।
वहीं सबको पहुंच जाना है। वही सागर है, जहां सभी गंगाएं गिरेंगी। वह सागर कितना ही दूर मालूम पड़ता हो, दूर नहीं है। और कितनी ही देरी लगती हो गंगा के पहुंचने में, देरी नहीं है। गंगा हर क्षण सागर के प्रति गिर रही है; गिरती जा रही है। गंगोत्री से गिरना शुरू करती है, ध्यान तो सागर पर ही लगा है; गिरती चली जाती है। और वह परम गति है–सागर में जब गंगा गिर जाती है, तो सागर अलग और गंगा अलग नहीं है। गंगा सागर हो जाती है।
व्यक्ति की परम, अंतिम अवस्था है परमेश्वर। वह सागर है, जहां सभी नदियां गिर जाती हैं।
अब ध्यान के लिए तैयार हों।