UPANISHAD
Kathopanishad 15
Fifteenth Discourse from the series of 19 discourses – Kathopanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during OCT 06-13 1973.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न च्रुषा पश्यति कश्चनैनम्।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति।।9।।
यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।10।।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।11।।
इस परमेश्वर का वास्तविक स्वरूप अपने सामने प्रत्यक्ष विषय के रूप में नहीं ठहरता, इसको कोई भी चर्मच्रुओं द्वारा नहीं देख पाता। मन से बारंबार चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ (वह परमात्मा) निर्मल और निश्चल हृदय से (और) विशुद्ध बुद्धि के द्वारा देखने में आता है। जो इसको जानते हैं, वे अमृतस्वरूप हो जाते हैं।।9।।
जब मन के सहित पांचों ज्ञानेंद्रियां भलीभांति स्थिर हो जाती हैं और बुद्धि भी किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करती, उस स्थिति को (योगी) परमगति कहते हैं।।10।।
उस इंद्रियों की स्थिर धारणा को ही योग मानते हैं, क्योंकि उस समय (साधक) प्रमादरहित हो जाता है। परंतु योग उदय और अस्त होने वाला है, अतः योगयुक्त रहने का दृढ़ अभ्यास करते रहना चाहिए।।11।।
इस परमेश्वर का वास्तविक स्वरूप अपने सामने प्रत्यक्ष विषय के रूप में नहीं ठहरता, इसको कोई भी चर्मच्रुओं द्वारा नहीं देख पाता। मन से बारंबार चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ वह परमात्मा निर्मल और निश्चल हृदय से और विशुद्ध बुद्धि के द्वारा देखने में आता है। जो इसको जानते हैं, वे अमृतस्वरूप हो जाते हैं।
पहली बात, परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन सभी धर्मों ने जिस भांति की परमात्मा की चर्चा की है, उससे यह भ्रांति बैठ गई है लोक-मन में कि परमात्मा कोई व्यक्ति है। यदि परमात्मा व्यक्ति है तो फिर उसके साक्षात्कार करने की अभिलाषा जगती है कि उसे हम देखें, कि उसे हम जानें, कि उसे हम पहचानें, कि उसकी निकटता उपलब्ध हो, कि उसका सामीप्य मिले। लेकिन परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। व्यक्ति की तरह परमात्मा की धारणा केवल काव्य-प्रतीक है।
परमात्मा शक्ति है, व्यक्ति नहीं है। इसलिए कहीं आप उसे खोज न पाएंगे। कोई ऐसा क्षण नहीं होगा, जब आप आमने-सामने खड़े हो जाएंगे। इसलिए सूत्र कहता है, परमात्मा को प्रत्यक्ष करने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष तो व्यक्तियों का हो सकता है, वस्तुओं का हो सकता है। फिर यह भी समझ लेना जरूरी है कि परमात्मा को जब मैं कह रहा हूं कि शक्ति है, तो शक्ति भी बहुत विशिष्ट ढंग की है। शक्ति तो विद्युत भी है। शक्ति तो कशिश भी है। शक्ति तो चारों तरफ व्याप्त है। परमात्मा शक्ति है, इतना कहने से भी बात पूरी नहीं होती। परमात्मा सब्जेक्टिव एनर्जी है, विषयीगत शक्ति है।
एक तो ऐसी शक्ति है जो देखी जा सकती है, और एक ऐसी शक्ति है, जो सदा देखने वाले में होती है; जो दृश्य में नहीं होती, बल्कि द्रष्टा में होती है। एक तो आब्जेक्टिव एनर्जी है, जिसे हम देख सकते हैं–बिजली है। एक सब्जेक्टिव एनर्जी है, एक अंतरात्मा की ऊर्जा है, जिसे हम कभी भी नहीं देख सकते। क्योंकि हम उसी के द्वारा देख रहे हैं। या और भी उचित होगा कहना कि हम स्वयं वह ऊर्जा हैं। और ऐसा नहीं है कि वह ऊर्जा बाहर नहीं है। वह बाहर भी है। लेकिन उसे देखने का ढंग पहले भीतर उसके अनुभव से शुरू होता है।
और जो व्यक्ति उस ऊर्जा को अपने भीतर अनुभव कर लेता है, उसे वह सब जगह प्रत्यक्ष हो जाती है। जो उस ज्योति को भीतर देख लेता है, उसके लिए सारे जगत में उस ज्योति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह जाता। लेकिन उसका पहला अनुभव, पहली दीक्षा, उसका पहला संस्पर्श भीतर होगा। वह अंतर्तम ऊर्जा है।
तो परमात्मा की खोज कोई बहिर्खोज नहीं है। न तो उसे खोजने के लिए हिमालय जाना जरूरी है, न तिब्बत के पर्वतों में भटकना। न मक्का-मदीना कुछ साथ देंगे, न काशी और प्रयाग, न गिरनार, न जेरूसलम। कोई बाहर की खोज परमात्मा नहीं है। इसलिए कोई मंदिर, कोई तीर्थ उसकी जगह नहीं है। इससे कठिनाई बहुत बढ़ जाती है।
अगर वह किसी मंदिर में होता, किसी तीर्थ में होता, वह चाहे तीर्थ हो एवरेस्ट के शिखर पर, कैलाश पर, तो भी कोई अड़चन न थी, हम वहां पहुंच ही जाते। वह सरल बात थी। बाहर की यात्रा जरा भी कठिन नहीं है। कितनी भी अड़चन हो, बाहर की यात्रा कठिन नहीं है। वहां हम पहुंच ही जाते। लेकिन परमात्मा की तरफ पहुंचने की कठिनाई यही है कि वह खोज के अंत में नहीं है, वह खोजी के भीतर प्रारंभ से ही मौजूद है। वह कोई मंजिल नहीं है; वह यात्री का अंतस्तल है।
जो उसे बाहर खोजता है, बाहर खोजने के कारण ही नहीं खोज पाता है। क्योंकि वह गलत जगह खोज रहा है। उसे खोजना हो तो खोजी में ही खोजना होगा। उसे खोजना हो तो सब तीर्थों से मुक्त होकर भीतर आना होगा। उसे पाना हो तो बाहर से सारे इंद्रियों के द्वार बंद ही कर लेने पड़ेंगे। क्योंकि जितना हम उसे खोजने जाते हैं, उतना ही उससे दूर निकलते जाते हैं। जितना हम बाहर सोचते हैं कि वह होगा, उतना ही यह खयाल मिटने लगता है कि भीतर है।
तो परमात्मा व्यक्ति नहीं है, उसका कोई साक्षात्कार नहीं हो सकता। परमात्मा शक्ति है। लेकिन शक्ति भी पदार्थगत नहीं है, आत्मगत है। इसलिए उसका पहला अनुभव स्वयं में प्रवेश पर ही होता है।
और यह जो स्वयं-प्रवेश है, इसका हमें स्मरण ही नहीं आता। हम सब तरफ भटकते हैं, हम सब जगह खोजते हैं। हमारी आंखें, हमारे हाथ, हमारे कान कोई स्थान नहीं छोड़ते जहां हम उसे न खोजते हों। चाहे हमारे नाम अलग हों–सभी लोग परमात्मा को नहीं खोज रहे हैं–कोई आनंद को खोज रहा है, कोई शांति को खोज रहा है, कोई परमात्मा को खोज रहा है, कोई मुक्ति को खोज रहा है। ये सब नाम उस एक ही चीज के हैं। एक बात पक्की है कि सभी खोज रहे हैं। उनकी खोज का नाम कुछ भी हो।
और जो भी उसे खोज रहा है, वह दो ही जगह खोज सकता है: या तो बाहर खोजे, या भीतर खोजे। दो आयाम हैं। जो बाहर खोज रहा है, वह भटकता रहेगा। उसकी पहली चिनगारी भीतर से शुरू होती है। उसे पहले भीतर ही जानना होगा; उसे पहले स्वयं में ही जानना होगा। क्योंकि जो स्वयं के भीतर ही झांकने में असमर्थ है, वह किसी और के भीतर झांकने में कैसे समर्थ हो सकेगा? जिसके भीतर का दीया बुझा है, वह कहीं भी खोजता रहे, वह जहां भी जाएगा, वहीं अंधेरा हो जाएगा। उसे प्रकाश नहीं मिल सकता। वह अंधेरे को अपने साथ ही लेकर चल रहा है।
और जिसके भीतर का दीया जला है, वह अंधेरे से अंधेरे में भी जाए तो वहां प्रकाश हो जाएगा। क्योंकि वह अपने भीतर के प्रकाश को लेकर चल रहा है। वह जहां जाता है, उसका प्रकाश उसके साथ चला जाता है।
परमात्मा अंतर्खोज है।
यह सूत्र कह रहा है–
इस परमेश्वर का वास्तविक स्वरूप अपने सामने प्रत्यक्ष विषय के रूप में नहीं ठहरता। इसको कोई भी चर्मच्रुओं द्वारा नहीं देख पाता है। मन से बारंबार चिंतन करके…।
इसको थोड़ा एक-एक कदम समझने की कोशिश करें।
मन से बारंबार चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ वह परमात्मा निर्मल और निश्चल हृदय से और विशुद्ध बुद्धि के द्वारा देखने में आता है।
पहली बात, मन से बारंबार चिंतन करके…।
हमें उसका कोई पता नहीं, कोई ठिकाना नहीं। हमें उसके नाम का भी कोई पता नहीं। हम यह भी नहीं जानते कि वह है भी या नहीं। तो कहां से शुरू करें! यह अंधेरे की यात्रा कहां से शुरू हो! यह अज्ञात किस जगह से हम उघाड़ें! कहां से पर्दे उठाएं! हमें उसका कुछ भी पता होता तो हम शुरू कर सकते थे।
जैसे अंधा आदमी एक अंधेरे में खड़ा हो और दरवाजा उसे पता भी नहीं है कि किस दिशा में है। आंखें होतीं तो देख भी लेता। देख भी नहीं सकता। आंखें भी होतीं तो भी मुश्किल था, क्योंकि घना अंधेरा है। फिर यह भी पक्का नहीं है कि जहां खड़ा है, वहां दरवाजा है भी या नहीं। या सब तरफ कारागृह की दीवाल है। अंधा कहां से शुरू करेगा? अंधा टटोलना शुरू करेगा। सब तरफ टटोलेगा। टटोलने में बहुत भूल-चूक होगी। क्योंकि दरवाजे पर हाथ सीधा नहीं पड़ जाएगा। दीवाल पर पड़ेगा। बहुत बार दरवाजा चूक-चूक भी जा सकता है।
चिंतन टटोलना है। चिंतन का अर्थ है: हमें कुछ पता नहीं; टटोलते हैं। मन से सोचते हैं, विचारते हैं, प्रश्न उठाते हैं, हल खोजने की कोशिश करते हैं। सब टटोलना है। इसमें सौ में निन्यानबे मौके पर तो दीवाल पर हाथ पड़ेगा। एक ही मौके पर दरवाजे पर हाथ पड़ेगा। और डर यह है कि निन्यानबे दफा जब दीवाल पर हाथ पड़े, तो हाथ भी दीवाल का आदी हो जाएगा। हो सकता है कि दरवाजे पर भी जब हाथ पड़े, तब भी आपको भरोसा न आए कि दरवाजा है। निन्यानबे बार दीवाल मिली, शायद यह भी दीवाल ही हो!
चिंतन सौ में से निन्यानबे बार नास्तिकता पर पहुंचेगा, एक बार ही आस्तिकता पर पहुंचता है। यह थोड़ा समझ लेने जैसा है।
जो लोग भी सोचना शुरू करेंगे, पहले नास्तिक हो जाएंगे। दीवाल पहले मिलेगी। दरवाजा तो बहुत छोटी-सी जगह होता है, दीवाल बड़ी है। हाथ दीवाल पर ही पड़ेगा। कभी संयोग की ही बात है, या बहुत जन्मों तक दीवाल टटोलकर जो चले हों, उनका हाथ किसी जन्म में सीधा दरवाजे पर पड़ जाए। अन्यथा नास्तिकता ही प्रारंभ होगी। चिंतनशील व्यक्ति पहले नास्तिक हो जाएगा।
और ध्यान रहे, जो नास्तिक होने से डरेगा, वह पहला कदम ही नहीं उठा पाएगा। इसलिए मैं नास्तिकता को आस्तिकता का विरोध नहीं मानता हूं, आस्तिकता का प्राथमिक चरण मानता हूं। इसलिए नास्तिक की मेरे मन में जरा भी निंदा नहीं है, पूरी प्रशंसा है। क्योंकि जो नास्तिक ही नहीं हुआ, उसके आस्तिक होने का कोई भी उपाय नहीं। और अगर आप नास्तिक होने के पहले आस्तिक हो गए हैं, तो आपकी आस्तिकता नपुंसक होगी, झूठी होगी, सिर्फ अंधी होगी। ऐसी आस्तिकता के पास आंखें नहीं हो सकतीं।
क्योंकि जिसने नहीं कहने की हिम्मत नहीं जुटाई, उसके हां में कोई बल नहीं होता। उसकी हां निर्बल होती है। और जिसने कभी चिंतन की धारा को निखारा नहीं, पैना नहीं किया, और जिसने चिंतन की तलवार पर धार नहीं रखी, जो इसलिए डरता रहा कि कहीं इनकार न हो जाए, उसकी बोथली तलवार–आस्तिकता की भी–किसी काम की नहीं है।
इसलिए दुनिया में बड़ी अजीब घटना घटी है। वह घटना यह है कि कुछ हैं बड़ी संख्या में लोग, जो नास्तिक न हो जाएं इसलिए सोचते ही नहीं। सोचने से भयभीत हैं, विचार करने से डरे हुए हैं। लेकिन अगर आपकी आस्तिकता विचार करने से डरती है, तो दो कौड़ी की है। जो विचार को भी नहीं सह सकती, वह आस्तिकता कहां ले जाएगी!
विचार बड़ी कमजोर चीज है। जो विचार से ही टूट जाती है, उसका क्या मूल्य है। तर्क कोई बड़ी वजनी बात नहीं है, खेल है शब्दों का। और तर्क से ही जो आस्तिकता भयभीत होती है, उस आस्तिकता के नीचे कोई भूमि नहीं है, वह अधर में लटकी है। वह ताश का घर है, जरा सा तर्क का झोंका उसे गिरा देता है।
क्या आप डरते हैं? क्या आपकी श्रद्धा कंपती है? तो आप जानना कि आप पहला कदम चूक गए हैं। आपने ठीक चिंतन नहीं किया।
तो सौ में से निन्यानबे लोग झूठे आस्तिक हैं। सौ में से कभी कोई एक आदमी नास्तिक होने की हिम्मत जुटाता है। नास्तिक होना हिम्मत है। हिम्मत इसलिए है कि आस्तिकता के साथ सारी व्यवस्था है; आस्तिकता का सारा विस्तार है; आस्तिकता के साथ हमारे जीवन के सब मूल्य जुड़े हैं। आस्तिकता के साथ हमारे स्वार्थ संयुक्त हैं। नास्तिकता असुरक्षा में डाल देती है। नास्तिक आदमी कहीं का नहीं रह जाता। उसकी कोई बिलांगिंग नहीं रह जाती। वह किसका है? किसका साथी? किसका मित्र? किस समाज का हिस्सेदार?
नास्तिक का कोई समाज नहीं है, न कोई संप्रदाय है, न कोई चर्च, न कोई मंदिर, न कोई कुरान, न कोई बाइबिल, नास्तिक बिलकुल शून्य में अटक जाता है। सौ में से कभी एक आदमी नास्तिक होने की हिम्मत करता है; निन्यानबे झूठे आस्तिक बने रहते हैं। और जो नास्तिक होने की हिम्मत करता है, वह फिर नास्तिक ही होकर अटक जाता है। नास्तिकता अंत नहीं है, पहला कदम है। वह जैसे एक आदमी ने पैर उठाया और फिर वहीं पैर उठाए खड़ा रह गया; वह पैर पूरा भी नहीं हुआ।
तो नास्तिक बड़ी बेचैनी में पड़ जाता है। उससे तो झूठा आस्तिक कम बेचैनी में होता है। उसके दोनों पैर कम से कम जमीन पर खड़े होते हैं। उसने पैर उठाया ही नहीं, उसने यात्रा शुरू ही नहीं की। उसने, दूसरों ने जो कहा, वह मान लिया। पिता ने, मां ने, शिक्षक ने, परिवार-समाज ने जो कहा, उसने आंख बंद करके हां भर दी। उसने कभी सोचा नहीं, क्योंकि सोचता तो हां भरना मुश्किल होता। इसलिए सारा समाज चिंतन का दुश्मन है।
आपके घर में कोई बेटा विचारशील पैदा हो जाए, आप सब उसका विचार नष्ट करने में लग जाएंगे। क्योंकि विचार बगावती है, वह रिबेलियन है। जो भी विचार करेगा, वह सभी बातों में हां नहीं भरेगा। वह हां भी भरेगा तो बहुत मुश्किल से भरेगा। अधिकांश मौकों पर वह न कहेगा। तो कोई नहीं चाहता कि विचार हो। इसलिए हम बच्चों की विचार की क्षमता को कुचल डालते हैं। हम उसे नष्ट करने का पूरा उपाय करते हैं। और हम सोचते हैं कि शायद इस भांति हम बच्चों को नास्तिक बनाने से रोक लेंगे? हम उन्हें आस्तिक बनने से ही रोक रहे हैं। वे झूठे आस्तिक हो जाएंगे।
झूठे आस्तिक से सच्चा नास्तिक बेहतर है। लेकिन नास्तिकता सिर्फ पहला कदम है, वह यात्रा का अंत नहीं है। और जो पहले कदम को उठाकर ही रुक गया, वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। इसलिए नास्तिक बड़ा बेचैन होता है, बड़ी चिंता उसे पकड़ती है। और चित्त उसका सदा अशांत होता है। बड़े तनाव, संताप उसे जकड़ लेते हैं। जिंदगी अर्थहीन मालूम होती है; बिना परमात्मा के होगी ही मालूम। क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त यह अस्तित्व व्यर्थ है। परमात्मा के साथ ही इस अस्तित्व में कुछ अर्थ हो सकता है, कोई मीनिंग हो सकता है।
अगर परमात्मा नहीं है, तो सब व्यर्थ है। तब हम सिर्फ दुर्घटनाएं हैं; हमारा होना मात्र संयोग है; हमारे अस्तित्व में कोई अभिप्राय नहीं है। और हम कहीं जा नहीं रहे हैं, व्यर्थ ही भटक रहे हैं। और कहीं हम पहुंच भी नहीं सकते हैं, क्योंकि कोई किनारा फिर है भी नहीं। परमात्मा ही किनारा है।
इसलिए जितना कोई व्यक्ति नास्तिक हो जाएगा, उतना ही ज्यादा चित्त तनावग्रस्त हो जाएगा, मुश्किल में पड़ जाएगा। हर चीज कठिन हो जाएगी। और सब जगह नहीं कहकर जीना बड़ा मुश्किल है। हां के बिना जीवन के लिए कोई आधार नहीं मिलता। नहीं तो अटका देता है शून्य में। नकार किसी भी व्यक्ति को सुखद नहीं हो सकता। नहीं कहने से कोई जीवन की आस्था, जीवन की श्रद्धा, जीवन का आनंद, जीवन का सौंदर्य, कुछ भी निर्मित नहीं होता। नहीं तो सिर्फ निषेध है। नहीं तो मृत्यु का प्रतीक है। हां जीवन का प्रतीक है। तो नास्तिक मुश्किल में होता है।
चिंतन जो भी करेगा ठीक से, वह पहले नास्तिक बनेगा। क्यों? क्योंकि जो भी सिखाया गया है, वह सब संदिग्ध मालूम पड़ेगा। पहले सब आस्थाएं टूट जाएंगी; एक शून्य निर्मित होगा। और जब शून्य निर्मित हो जाए, तब आप समझना कि आप समाज से मुक्त हो गए।
चिंतन समाज से मुक्त होने की प्रक्रिया है। जो-जो सिखाया था, वह आप भूल गए। अब आप कोरे कागज हो गए। अब अगर अस्तित्व में कोई अर्थ है, तो इस कोरे कागज पर उतर सकता है। अब इस कागज पर जो भी लिखावट औरों की थी, वह सब पोंछ डाली गई। अब यह स्लेट कोरी है।
नास्तिकता कीमती प्रयोग है, अगर वह अंत न हो। तो नास्तिकता की अग्नि से प्रत्येक को गुजरना ही चाहिए। क्योंकि नास्तिकता निखार देती है, कचरे से छुटकारा दिला देती है। दूसरों का जो उधार ज्ञान था, उससे मुक्ति हो जाती है। और अपने ज्ञान के पहले दूसरे के ज्ञान से मुक्त हो जाना अत्यंत अनिवार्य है।
स्वयं की प्रज्ञा जगे इसके पहले, दूसरों ने जो हमें सिखाया है, जो हमारी अपनी अनुभूति नहीं है, उससे छुटकारा आवश्यक है। अज्ञान से तो छुटकारा चाहिए ही, उधार ज्ञान से भी छुटकारा चाहिए।
गीता आपने पढ़ी, कुरान पढ़ा, बाइबिल पढ़ा। सुना–जीसस के संबंध में, कृष्ण के संबंध में, मुहम्मद के संबंध में। भर लिया मन में। अपनी कोई प्रतीति नहीं है, अपना कोई अनुभव नहीं है। सब बासा और उधार है। सब मुर्दा है।
जीसस के पुरोहित से पूछो, वह कहता है, जीसस ऐसा कहते हैं। उससे पूछो, तुम क्या कहते हो? उसके पास कहने को कुछ भी नहीं है। वह सिर्फ बाइबिल को दोहरा सकता है। वह आदमी है या यंत्र!
गीता के भक्त से पूछो तो वह कहता है, कृष्ण ऐसा कहते हैं। उससे पूछो, तुम क्या कहते हो? तुम किसलिए हो? तुम्हें परमात्मा ने सिर्फ कृष्ण का हिज़ मास्टर्स वाइस रिकार्ड–तुम ग्रामोफोन हो? तो फिर कृष्ण के बाद किसी के पैदा होने की कोई जरूरत नहीं। तो परमात्मा बिलकुल व्यर्थ ही तुम्हें पैदा किए जा रहा है।
तो ध्यान रहे, इस अस्तित्व में कोई पुनरुक्ति नहीं है। परमात्मा दुबारा उसी आदमी को, उसी जैसा आदमी पैदा ही नहीं करता। परमात्मा कोई साधारण स्रष्टा नहीं है। परमात्मा हर व्यक्ति को अनूठा पैदा करता है। उसकी कला का कोई अंत नहीं है। जिनकी कला का अंत हो जाता है, वे पुनरुक्ति करते हैं।
परमात्मा या विराट जगत की जो ऊर्जा है, वह प्रतिपल नई लहर पैदा करती है। वह कृष्ण को दुबारा नहीं दोहराती। इसलिए तो कृष्ण दुबारा पैदा नहीं होते, बुद्ध दुबारा पैदा नहीं होते। नहीं तो परमात्मा सोचता कि बुद्ध और कृष्ण जैसे बढ़िया लोग हो चुके, आपको पैदा करने की क्या जरूरत है! कृष्ण और बुद्ध की कतार लगा दे। जैसे कि कार की फैक्ट्री से कतारबद्ध एक सी कारें निकलती हैं, ऐसा ही वह कृष्णों की कतार लगा दे। लेकिन वह आपको पसंद किया है पैदा करना, कृष्ण को दुबारा दोहराना पसंद नहीं करता। जरूर आपसे कुछ प्रयोजन है। कोई अभिप्राय आपसे पूरा होना चाहता है। और अगर आप कृष्ण को ही दोहरा रहे हैं, तो आप उस अभिप्राय में बाधा बन रहे हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। और जैसा वह हो सकता है, इस जगत में न पहले कोई हुआ है और न पीछे कोई होने का उपाय है। इसलिए अगर आप दोहराते हैं, तो आप एक महान अवसर खो रहे हैं।
पंडित तोतों की तरह हो जाते हैं। वे दोहराए चले जाते हैं, वे रटी हुई बातें कहे चले जाते हैं। उन बातों से उनकी आत्मा का कहीं कोई संबंध नहीं है।
गीता हो, कुरान हो, या बाइबिल हो; मुहम्मद, कृष्ण, महावीर हों, वे प्यारे लोग हैं, लेकिन पुनरुक्त करने योग्य नहीं। उन जैसे होने की कोई भी जरूरत नहीं। और उनकी बातें दोहराकर आप उन जैसे हो भी नहीं सकते। महावीर को हुए पच्चीस सौ साल हो रहे हैं। पच्चीस सौ साल में हजारों लोगों ने उनकी बातें तोतों की तरह दोहराई हैं, उनमें से एक भी महावीर पैदा नहीं हो सका। कभी हो भी नहीं सकता।
महावीर ने किसी की बात नहीं दोहराई, इसलिए वे महावीर हो सके। कृष्ण किसी कीबात नहीं दोहरा रहे हैं, इसलिए वे कृष्ण हो सके। जीसस पुराने शास्त्रों से कुछ उल्लेख नहीं कर रहे हैं; जो खुद जाना है उसे कह रहे हैं, इसलिए वे जीसस हो सके। और आप उनकी बातें दोहराकर होना चाहते हैं!
जो व्यक्ति जितना दोहराने में पड़ जाएगा, उतनी ही चिंतन की क्षमता क्षीण होती है। चिंतन पैदा होता है अपना सत्य खोजने से। जो दूसरों के सत्य मान लेता है, वह खोजता ही नहीं। जो खोजता नहीं, वह सोचेगा क्यों? जो सोचता नहीं है, उसके भीतर सब द्वार बंद हो जाते हैं। वह टटोलता ही नहीं। दीवाल ही रह जाती है, वह कारागृह में बैठा रह जाता है।
यह हो सकता है कि कारागृह में बैठे-बैठे ही आप सोचें, कोई कारागृह नहीं है, सब कारागृह माया है। लेकिन इससे कोई मुक्ति नहीं होती। बैठे आप कारागृह में ही हैं। बाहर की हवा, खुला आकाश, बाहर का प्रकाश, उससे आपका कोई भी संबंध नहीं है। आप आंख बंद किए दोहरा सकते हैं कि यह सब कारागृह माया है, मैं बंधन में हूं ही नहीं। लेकिन सच में ही अगर कारागृह माया है और आप बंधन में नहीं हैं, तो यह दोहराने की भी क्या जरूरत है? उठें और चल पड़ें। लेकिन हर जगह दीवाल मिलती है। चलने के लिए दरवाजा खोजना जरूरी है।
उपनिषद का यह सूत्र कहता है–मन से बारंबार चिंतन करके…।
जो बारंबार चिंतन करता ही चला जाएगा, पहले तो उधार विचार गिर जाएंगे; शास्त्र, गुरु से छुटकारा हो जाएगा; शून्यता आएगी; एक नास्तिकता आ जाएगी; नहीं ठीक है यह भी; नहीं ठीक है वह भी–ऐसा नेति-नेति का भाव पैदा हो जाएगा। उससे जो डर जाएगा, वह पीछे आस्तिकता को पकड़ लेगा। जो उसी को पकड़ लेगा, वह दुख में पड़ जाता है।
और थोड़ा आगे बढ़ने की जरूरत है। अगर परमात्मा है, तो हमारे सोचने से नष्ट नहीं हो सकता। अगर परमात्मा है, तो हमारे सोचने से निश्चित ही मिलेगा। अगर नहीं मिल रहा है, तो समझना कि सोचना अभी पूरा नहीं हुआ है। परमात्मा उस दिन मिलता है, जिस दिन चिंतन अपने पूरे शिखर पर पहुंच जाता है। परमात्मा, चिंतन के पूरे शिखर पर उसकी पहली किरण उतरती है। वह विचार के परम शिखर पर हुई पहली प्रतीति है–कि वह है। उसका होना अंधी श्रद्धा में नहीं, आंख वाले विचार का परिणाम है।
जो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है, निर्भीक होकर; कुछ भी टूटे, टूट जाए; परंपरा टूटे, टूट जाए; शास्त्र गलत दिखें, दिखाई पड़ने दे, सोचता ही चला जाता है, एक दिन जब सब उधार से मुक्ति हो जाती है, अचानक आंखें साफ हो जाती हैं और जहां नहीं प्रतीत हो रहा था, वहां परमात्मा का पहला आभास, पहली झलक मिलती है।
आस्तिक परम विचारक है। उन्होंने बहुत सोचा है। उस जगह तक सोचा है, जहां सोचना पीछे पड़ गया और वे आगे निकल गए। उन्होंने सोचने का पीछा अंत तक किया है। उस जगह तक जहां सोचना ही गिर गया और वे आगे चले गए।
परमात्मा की पहली प्रतीति चिंतन से मिलती है, पहला आभास। लेकिन अनुभव नहीं, सिर्फ आभास। सिर्फ इस बात की झलक कि वह है। इस झलक पर ही जो रुक जाएगा, वह भी परमात्मा को नहीं पहुंच पाया। उसने भी अनुभव नहीं किया। यह झलक जरूरी है, पर काफी नहीं है।
चिंतन के बाद, मन में बारंबार चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ परमात्मा…।
यह जो पहली झलक मिले, फिर इसको ध्यान में रूपांतरित करना है। यह जो पहली झलक आए, यह सदा स्मरण रहने लगे; यह ध्यान बन जाए; इसे भूला ही न जा सके। उठते-बैठते, सोते-जागते वह झलक सम्हालकर रखनी है भीतर। जैसे मां अपने बच्चे को गर्भ में सम्हालकर रखती है। चलती भी है तो सम्हलकर, काम भी करती है तो सम्हलकर। एक स्मरण बना ही रहता है कि वह गर्भवती है। एक छोटा जीवन अंकुरित हो रहा है, उसे कोई चोट न पहुंच जाए। ठीक जिसे झलक मिल गई, उस झलक को वह अपने भीतर सम्हालकर चलता है।
कबीर ने कहा है, जैसे गांव की वधुएं नदी से पानी भरकर सिर पर मटकियां रखकर गांव की तरफ लौटती हैं, तब वे गपशप भी करती हैं, बातचीत भी करती हैं, हंसती भी हैं, राह से चलती भी हैं, पर उनका ध्यान सदा गगरी में लगा रहता है; वह गिरती नहीं। सब चलता रहता है–चलना, बात करना, हंसना, गीत गाना–लेकिन ध्यान गगरी में लगा रहता है। कोई भीतर की स्मृति गगरी को सम्हाले रखती है। इसको कबीर ने सुरति कहा है, नानक ने भी सुरति कहा है।
सुरति बुद्ध के वचन स्मृति का बिगड़ा हुआ रूप है। बुद्ध ने कहा था–माइंडफुलनेस, स्मृति; होश बना रहे निरंतर एक तत्व का। सब कुछ भूल जाए, वह न भूले। उसी को कबीर, नानक, दादू ने सुरति कहा है। सुरति बनी रहे, जगी रहे।
पुराने संतों ने निरंतर एक कहानी का उल्लेख किया है। कहानी अर्थपूर्ण है।
एक खोजी अनेक-अनेक संतों के पास गया। लेकिन कहीं भी उसे कोई सार न मिला। तब उसके आखिरी गुरु ने कहा कि तू अब जनक के पास चला जा। पर उस खोजी ने कहा कि मैं बड़े-बड़े संतों के पास गया, ज्ञानियों के पास गया, वहां मुझे कुछ न मिला; तो इस भोगी सम्राट के पास मुझे क्या मिलेगा! फिर भी गुरु ने कहा, तू जा। जब संतों के पास तुझे कुछ नहीं मिला, तो अब जरा भोगी के पास भी जाकर खोजने की कोशिश कर, शायद…।
जब वह पहुंचा तो देखा कि जनक, संध्या का समय है और अपने मित्रों के साथ बैठे गपशप कर रहे हैं। शराब ढाली जा रही है। आसपास सुंदर युवतियां नाच रही हैं। संगीत चल रहा है।
वह खोजी तो बड़ा दुखी हुआ कि मैं किस गलत जगह आ गया। वह जाने को हुआ। जनक ने कहा, रुको। इतनी जल्दी मत करो। खोजी को थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। आ ही गया था और अब वापस लौटना, जंगल में, रात मुश्किल भी था। तो सोचा, रात रुक ही जाऊं, सुबह उठकर चला जाऊंगा। अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं है। इससे क्या मिलने को है! यह आदमी खुद अज्ञान में डूबा हुआ है, यह मुझे क्या जगाएगा? सांझ भोजन के बाद सम्राट उसे उसके कमरे में छोड़ गया और कहा कि आप ठीक से विश्राम करें।
बड़ा सुंदर कमरा था, सजा हुआ था, विशेष अतिथियों के लिए बनाया गया था। बहुमूल्य गद्दियां थीं। बड़ा सुखद वातावरण था। सुगंधित था। वह खोजी सोया। लेकिन जैसे ही बिस्तर पर लेटा कि घबड़ाहट हो गई। ऊपर ठीक छत से, जो काफी ऊंची थी, एक नंगी तलवार लटक रही थी और एक पतले धागे से बंधी! उसने कहा कि यह भी क्या स्वागत की कोई व्यवस्था है! यह आदमी मुझे मारना चाहता है? यह तलवार कभी भी गिर सकती है। एक कच्चा-सा धागा बंधा है। जरा-सा हवा का झोंका…।
तो वह रात–बहुत उसने सोने की कोशिश की, लेकिन सो न सका। करवट बदले, फिर आंख खोलकर देखे कि तलवार अभी लटकी है! फिर करवट बदले, फिर उठकर बैठ जाए, फिर देखे–तलवार अभी लटकी है!
सुबह सम्राट आया। उसने पूछा कि रात ठीक से तो सो सके? उसने कहा, खाक। यह कोई सोने की व्यवस्था है? यह कोई आतिथ्य है? यह तलवार ऊपर लटकी है पतले धागे से, इसकी स्मृति पीछा करती रही। नींद असंभव थी।
सम्राट ने कहा, ऐसी ही पतले धागे से लटकी तलवार मेरे ऊपर भी है। तुम्हें नहीं दिखाई पड़ती, मुझे दिखाई पड़ती है। वह मौत की तलवार है। और चाहे मैं नाच में बैठा रहूं, और चाहे शराब ढलती हो वहां बैठा रहूं, चाहे संगीत बजता हो वहां बैठा रहूं, उस तलवार की स्मृति मिटती ही नहीं, वह लटकी है। तुम रातभर नहीं सो सके, मैं भी जिंदगीभर से सोया नहीं हूं। सोना असंभव ही हो गया। जब से यह स्मृति आई है मृत्यु की, तब से सोना असंभव हो गया।
कोई एक चीज भीतर धुन की तरह बजती रहे, उसका नाम ध्यान है। कोई एक चीज भीतर चलती ही रहे। झलक मिल जाए चिंतन से कि परमात्मा है; ऐसी प्रतीति आ जाए–अस्तित्व है; नकार नहीं, एक स्वीकार का भाव आ जाए, फिर इस भाव को भीतर जो सम्हालता चलता है, उस सम्हालने का नाम ध्यान है।
बारंबार मन से चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ परमात्मा निर्मल और निश्चल हृदय से और विशुद्ध बुद्धि के द्वारा देखने में आता है।
ध्यान से जो निरंतर परमात्मा को अपने भीतर गर्भ की भांति सम्हालता रहेगा, उसकी सुरति को सम्हाले रखेगा, वैसा व्यक्ति निर्मल और निश्चल हृदय से और विशुद्ध बुद्धि से परमात्मा को देखने में सफल हो जाता है।
यह जो ध्यान है, इसके परिणाम हैं। अगर कोई व्यक्ति परमात्मा के स्मरण को निरंतर सम्हाले रहे, या और किसी स्मरण को…। जरूरी नहीं है, स्मरण जरूरी है। सुरति जरूरी है। किसकी–यह बात, सवाल नहीं है बड़ा।
एक आदमी चौबीस घंटे श्वास को ही खयाल रखे। श्वास भीतर आई, बाहर गई। भीतर आई, बाहर गई। बुद्ध ने इसे बड़ा मूल्य दिया है। श्वास को कोई देखता रहे, उसे उन्होंने अनापानसती योग कहा है, आती-जाती श्वास की स्मृति का योग। भीतर गई, बाहर गई। श्वास भीतर आई, बाहर गई। इसे कोई स्मरण रखे।
वे कहते हैं, परमात्मा को न भी स्मरण किया तो कोई हर्ज नहीं। स्मृति आ जाए बस, इसके भीतर आते-जाते होश जगता जाएगा। इस होश के दो परिणाम होंगे। इस होश के जगते ही जीवन में जो विकार पकड़ते हैं, वासनाएं पकड़ती हैं, वे पकड़ना बंद हो जाएंगी।
इसे आप छोटा-सा प्रयोग करके देखें, उससे समझ में आ जाएगा। आपको क्रोध आए तो आप क्रोध के लिए कुछ मत करें; तत्काल गहरी श्वास लें और श्वास को देखें। एक सात बार गहरी श्वास लें। श्वास को देखते हुए भीतर जाएं, फिर बाहर जाती श्वास के साथ बाहर आएं। फिर गहरी श्वास लें, सात बार। फिर आंख खोलकर देखें–क्रोध कहां है? आप अचानक चकित हो जाएंगे कि वह क्रोध गया! सात गहरी श्वास का स्मरण और क्रोध विसर्जित हो गया।
मन में कामवासना उठे, आप सात बार गहरी श्वास लेकर देखें। फिर लौटकर देखें–कामवासना शरीर से विदा हो गई। ये छोटे-छोटे प्रयोग आपको यह स्मरण दिला देंगे कि जितनी ही स्मृति सजग होती है, उतनी ही वासनाएं क्षीण हो जाती हैं। जितना होश सघन होता है, उतने ही विकार मन को कम पकड़ते हैं और हृदय शुद्ध होता चला जाता है। जिस चीज से भी आपको छुटकारा चाहिए हो, उससे लड़ें मत। उसकी जगह श्वास का स्मरण करें।
जापान में छोटे बच्चों को वे सिखाते हैं कि जब भी तुम्हें क्रोध आए, तो तुम गहरी श्वास लो। जापान सबसे कम क्रोधी मुल्क है पूरी दुनिया में। और जापान में जैसी मुस्कुराहट दिखाई पड़ती है, वैसी दुनिया के किसी मुल्क में नहीं दिखाई पड़ती। और जापान का आदमी जितना संयत होता है…कि आप गाली दें, तो दुनियाभर में जिस गाली से क्रोध आ जाए, उसमें भी जापानी आदमी को क्रोध में लाना मुश्किल होगा। अब जापान की वह प्रतिभा खोती जा रही है, क्योंकि वह पश्चिम के प्रभाव में भारी है। लेकिन फिर भी जापानी व्यक्तित्व की कुछ खूबियां हैं।
एक अमेरिकन यात्री ने लिखा है कि वह पहली दफा जापान गया और जब वह टोकियो के एअरपोर्ट के बाहर आया–कोई तीस साल पहले की घटना है–तो उसने देखा कि वहां दो आदमी लड़ रहे हैं। लड़ नहीं रहे हैं, सिर्फ एक-दूसरे को गालियां देते हैं, घूसे दिखाते हैं, मुंह बनाते हैं, जैसे जान ले लेंगे। और बड़ी एक भीड़ खड़ी हुई देख रही है। यह बड़ी देर तक चलता रहा। वह भी खड़े होकर देखता रहा। उसे तो कुछ समझ में न आया कि मामला क्या है! जब लड़ाई ही होनी है और इतने जोर-शोर से तैयारी चल रही है, तो होती क्यों नहीं? वे बिलकुल पास आ जाते हैं एक-दूसरे के और फिर दूर हट जाते हैं।
तो उसने एक आदमी से पूछा कि मामला क्या है? यह इतनी देर से चल रहा है शोरगुल। इतनी भूमिका बांधी जा रही है! इतनी देर में तो कभी का मामला खतम हो जाता। और आप सब लोग खड़े होकर देख क्या रहे हैं?
उस आदमी ने कहा, हम यह देख रहे हैं कि इनमें से पहले कौन हारता है? मतलब–इनमें से पहले कौन क्रोधित होता है! ये दोनों एक-दूसरे को क्रोधित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अभी दोनों क्रोधित नहीं हैं। सिर्फ यह देख रहे हैं। जो क्रोधित हो गया, वह हार गया। भीड़ हट जाएगी, क्योंकि उसने संयम खो दिया। वह आदमी गया; उसका कोई मूल्य नहीं है। मारपीट की जरूरत नहीं है। क्रोधित कौन पहले होता है? ये अभी दोनों संयत हैं और ये सब गालियां वगैरह दूसरे को उकसाने के लिए दी जा रही हैं! जैसे ही एक आदमी इनमें से फूट पड़ेगा, वस्तुतः क्रोधित हो जाएगा, भीड़ विदा हो जाएगी। हार हो चुकी। कौन जीतता है, यह सवाल नहीं है; कौन पहले क्रोध से हार जाता है, यह सवाल है।
जापान ने श्वास के ऊपर बड़े प्रयोग किए हैं। और बड़े से बड़ा प्रयोग यह है कि जब भी कोई वासना मन को पकड़े, तो आप गहरी श्वास लें। सिर्फ गहरी श्वास न लें, श्वास को होशपूर्वक भी लें–श्वास भीतर गई, बाहर गई–और उतने में ही आप पाएंगे कि सारी वासना तिरोहित हो गई। उसे दमन भी नहीं करना पड़ा। उससे लड़ना भी नहीं पड़ा। उसे हटाने के लिए भी कोई प्रयास नहीं करना पड़ा। सिर्फ चित्त कहीं और चला गया। और जब चित्त हट जाता है, तो संपर्क टूट जाता है। जब चित्त हट जाता है, तो सहयोग टूट जाता है। जब चित्त हट जाता है, तो जो ऊर्जा आप दे रहे थे वासना को, वह उसे नहीं मिलती, वह मर जाती है।
सब वासनाएं आपके सहयोग से जीती हैं। जो व्यक्ति किसी भी तरह की सुरति को साध ले, उस व्यक्ति का हृदय निर्मल हो जाएगा। बुद्धि शुद्ध हो जाएगी। विवेक साफ-सुथरा हो जाएगा। और ऐसे विवेक, ऐसे हृदय और ऐसी सुरति के सध गए चित्त में परमात्मा की प्रतीति होती है।
जो इसको जानते हैं, वे अमृतस्वरूप हो जाते हैं।
और जो एक बार जान लेते हैं कि भीतर परमात्मा छिपा है, उनकी फिर कोई मृत्यु नहीं। मृत्यु तो पहले भी नहीं थी, लेकिन पहले वे सोचते थे कि मृत्यु होगी। भयभीत थे, डरे हुए थे। परमात्मा का अनुभव अमृत का अनुभव है।
जब मन के सहित पांचों ज्ञानेंद्रियां भलीभांति स्थिर हो जाती हैं और बुद्धि भी किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करती, उस स्थिति को योगी परमगति कहते हैं।
ये ध्यान के कीमती सूत्र हैं, आखिरी सूत्र हैं।
जब मन के सहित पांचों ज्ञानेंद्रियां भलीभांति स्थिर हो जाती हैं और बुद्धि भी किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करती…।
जब आपके भीतर सब क्रिया रुक जाती है, क्रियामात्र रुक जाती है; न शरीर में कोई गति होती है, क्रिया होती है, न इंद्रियों में कोई हलन-चलन होती है, न मन में कोई थिरकन होती है; सब क्रिया रुक जाती है; आप बिलकुल इनएक्टिविटी में, अक्रिया में डूब जाते हैं। कुछ भी हो नहीं रहा है–सिर्फ हैं। कुछ कर नहीं रहे हैं–सिर्फ होना मात्र है। ऐसी जो ठहरी हुए चित्त की दशा है, ऐसी जो चेतना की लौ रुक जाती है निष्कंप, इसे योगियों ने परमगति कहा है।
यह बड़े मजे की बात है! जहां सब गति ठहर जाती है, उसे परमगति कहा है। और हम, जिनकी सब गति चल रही है, इसको दुर्गति कहा है।
सब चल रहा है, आंखें चल रही हैं, कान चल रहे हैं, मन चल रहा है, सब इंद्रियां भाग रही हैं, और सब अलग-अलग भाग रही हैं। हमारी हालत ऐसी है जैसे एक ही बैलगाड़ी में सब तरफ बैल जुते हों। सब बैल भागे जा रहे हैं। बैलगाड़ी कहीं पहुंचती भी नहीं है; सिर्फ अस्थिपंजर ढीले हो रहे हैं। जो बैल जरा ताकत में आ जाता है, वह खींचकर एक तरफ ले जाता है। थक जाता है, तब तक दूसरा बैल खींचकर दूसरी तरफ ले जाता है। आखिर में हम करीब-करीब वहीं पाए जाते हैं, जहां हम पैदा हुए थे। कहीं कोई गति नहीं हो पाती। मरता हुआ आदमी आमतौर से वहीं होता है, उसी दुर्गति में, जहां वह जन्म के समय था। ये साठ, सत्तर, अस्सी साल सिर्फ खींच-घसीट होती है; इंद्रियां यहां से वहां खींचती रहती हैं। यात्रा लगती है बहुत हो रही है, पहुंचना कहीं भी नहीं होता।
इंद्रियों की यह गति, क्रिया की स्थिति ही हमारे ऊपर अशांति है। शांत लोग होना चाहते हैं, आनंदित लोग होना चाहते हैं, लेकिन यह राज, यह सूक्ष्म सूत्र उन्हें खयाल में नहीं है कि आनंद अक्रिया का स्वभाव है, दुख क्रिया का स्वभाव है। इसलिए जो भी करके मिलेगा, उससे दुख मिलेगा। जो भी अनकिए मिल जाएगा, वही आनंद है। क्योंकि करके जो भी हम पाते हैं, वह हमारा स्वभाव नहीं है। जो स्वभाव है, उसे करके पाने की कोई जरूरत ही नहीं है। जो आप हैं ही, उसके लिए कुछ भी करने की कोई जरूरत नहीं।
परमात्मा आपका स्वभाव है। वह कोई उपलब्धि नहीं है कि जिसके लिए कुछ करना है। वह आप हैं ही, इसे सिर्फ जानना है, इसे सिर्फ उघाड़ना है। एक पर्दा है, जिसे खींच देना है। एक पर्त है, जिसे उघाड़ देना है। कुछ छिपा है, जिसे प्रगट कर देना है। एक झरना है, जिसके ऊपर एक पत्थर रखा है, पत्थर के हटाते ही झरना फूट पड़ेगा। झरने को पाने कहीं भी नहीं जाना है, रुकावट हटा देनी है। मनुष्य के स्वभाव में ही छिपा है सच्चिदानंद। वह किसी क्रिया से लाने की कोई भी जरूरत नहीं है।
इसलिए जितने दुनिया में परम योगी हुए हैं, उन्होंने अक्रिया सिखाई। वे कहते हैं कि तुम ऐसी हालत में आ जाओ, जहां तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो।
मैं आपको जो ध्यान सिखा रहा हूं, वह बड़ी भयंकर क्रिया है। तो आपको सवाल उठेगा कि अगर अक्रिया ही करनी है, तो क्यों गहरी श्वास लेनी? क्यों नाचना-कूदना? क्यों चीखना-चिल्लाना? ये तो सब क्रियाएं हैं!
अक्रिया ही ध्यान है, लेकिन मैं आपको क्रिया करने को कह रहा हूं, क्योंकि आप क्रिया से इस बुरी तरह भरे हैं कि जब तक क्रिया आप से उतर न जाए, अक्रिया में आपका प्रवेश नहीं हो सकता। आपकी क्रिया को थकाना जरूरी है। जब आप बिलकुल एग्झास्टेड हो जाएं कि जब आप खुद ही कहने लगें कि अब हमें क्रिया करनी ही नहीं है…।
मैं आपसे कहूं कि क्रिया मत करिए, तो कुछ न होगा। आप बैठकर अगर शरीर को भी किसी तरह रोक लेंगे, तो मन क्रिया करता रहेगा। जो शक्ति शरीर से जा रही थी, वह मन में चलने लगेगी।
मैं आपसे कहता हूं कि आप एक दफा क्रिया कर ही डालिए और ऐसी जगह आ जाइए जहां कि आपके शरीर का सेल-सेल, रोआं-रोआं, कोष्ठ-कोष्ठ चिल्लाने लगे कि बस, ठहरो! जहां शरीर ही आपसे कहने लगे कि अब बहुत हो गया, अब रुको। जहां आपका मन ही कहने लगा कि क्या अब तोड़ ही डालोगे? थोड़ा विश्राम। जहां आपका पूरा अस्तित्व विश्राम मांगने लगे, ध्यान तो वहीं शुरू होता है।
इसलिए पहले तीन चरण ध्यान के चरण नहीं हैं, सिर्फ ध्यान की तैयारी के चरण हैं। चौथा चरण ही ध्यान है, जब आप बिलकुल अक्रिया में हो जाते हैं, जब मैं आपसे कहता हूं कि बिलकुल ठहर जाएं। और मैंने सब तरह के प्रयोग करके देखे हैं, अनेक-अनेक तरह के लोगों पर। अगर मैं उनसे सीधा कहता हूं, ठहर जाएं, तो वे नहीं ठहर पाते। बस शांत हो जाएं। मुश्किल से सौ में से दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, ज्यादा से ज्यादा सात प्रतिशत लोग मुश्किल से सीधे शांत हो सकते हैं। मैं बहुत कोशिश करके देखा कि कारण क्या है, लोग शांत क्यों नहीं हो पाते? वे सब समझ लेते हैं, बात उनकी समझ में आ जाती है, लेकिन शरीर में एक मोमेंटम है।
जैसे एक आदमी साइकिल चलाता है। साइकिल जब चलाता है तो पैडल मारता है। पैडल न मारे तो साइकिल न चले। लेकिन एक आदमी दस मील से पैडल मारता हुआ चला आ रहा है। अब वह पैडल मारना बंद भी कर दे, तो भी आधा मील तक साइकिल चलती हुई चली जाएगी। मोमेंटम है। दस मील से पैडल मारे जा रहे हैं, साइकिल के चक्कों ने गति ले ली है, उनमें ऊर्जा भर गई है। अब आधा मील तक वे बिना मारे भी चले जाएंगे। और अगर उतार पर हो, तब तो बहुत मुश्किल है।
और अधिक लोग उतार पर हैं। ऊंचाई की तरफ तो कोई जाता नहीं, सब नीचाई की तरफ जाते हैं। सब पतन की तरफ जाते हैं, इसलिए अधिक लोग उतार पर होते हैं। उन्होंने जन्मों-जन्मों में इतना मोमेंटम इकट्ठा कर लिया है कि अगर वे सब तरह से रोककर भी खड़े हो जाएं, तो कोई फर्क नहीं पड़ता; गति जारी रहती है। साइकिल चलती ही चली जाती है। अगर वे जोर से ब्रेक भी लगा दें, तो रुकने की संभावना कम है, उलटने की संभावना ज्यादा है, क्योंकि मोमेंटम है। आप तेज साइकिल में ब्रेक नहीं लगा सकते। इतनी गति में लगाए गए ब्रेक का मतलब होगा कि आप बुरी तरह फेंक दिए जाएंगे। इतनी गति एकदम से नहीं रोकी जा सकती।
तो मैंने निरंतर अनुभव किया कि लोग इतनी गति से भरे हैं कि उनकी गति का निकास और रेचन होना एकदम जरूरी है। तो जहां मैं लोगों को शांत ध्यान के लिए समझा रहा था, वहां मुश्किल से पांच-सात प्रतिशत लोग उसमें प्रवेश कर पाते थे।
अब मैं आपको पहले अशांत करने की कोशिश करता हूं; क्रिया में डालता हूं। अब मैं देखता हूं कि जहां सात प्रतिशत लोग ठहर पाते थे, वहां सत्तर प्रतिशत लोग ठहर जाते हैं। और जो बाकी लोग नहीं ठहर पाते हैं, तीस प्रतिशत, वह इसीलिए कि वे पूरी क्रिया नहीं कर रहे हैं। वे आधा-आधा कर रहे हैं। वे पूरी तरह गति में नहीं आ रहे हैं। वे पूरी तरह गति में आ जाएं तो जब मैं कहूंगा, रुक जाओ, तब उनका पूरा प्राण ही राजी है रुकने को। वे बिलकुल रुक जाएंगे।
और एक क्षण को भी स्टापिंग हो जाए, सब चीजें ठहर जाएं, सब इंद्रियां, सारा शरीर, मन, तो उस एक क्षण में आपकी ट्यूनिंग हो जाती है, उस एक क्षण में झरोखा खुल जाता है। एक झलक मिल जाती है, जैसे बिजली कौंध गई अचानक अंधेरे में।
जैसे आप रेडियो को लगाते हैं, तो एक ट्यूनिंग की जरूरत होती है। अगर रेडियो की सुई ढीली हो, कंपती हो, ठहरती न हो, तो दो-चार स्टेशन इकट्ठे साथ लग जाते हैं। अधिक लोगों की खोपड़ी में कई स्टेशन एक साथ लगे हुए हैं। उन्हें कुछ समझ नहीं आता भीतर कि क्या चल रहा है, अखबार की खबर चल रही है, संगीत चल रहा है, कि ड्रामा चल रहा है, कि क्या चल रहा है भीतर?
अगर आपकी खोपड़ी को एंप्लिफायर लगाया जा सके–कि आपके भीतर जो चल रहा है, वह बाहर माइक से सुनाई पड़ने लगे…वैज्ञानिक कहते हैं कि जल्दी ऐसी व्यवस्था खोजी जा सकेगी, क्योंकि करीब-करीब काम पूरा होने को है। कुछ वैज्ञानिकों ने जो काम किया है मस्तिष्क के लिए, तो अब वे उसके ग्राफ तो बनाने लगे हैं। जैसे कार्डियोग्राम का ग्राफ हो जाता है कि आपके हृदय की धड़कन क्या है? कैसी है? रक्त का संचार, शरीर की विद्युत, वैसे मस्तिष्क के ई.ई.जी. ग्राफ बन जाते हैं।
मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड लगा दिए जाते हैं। इलेक्ट्रोड कागज पर ग्राफ बनाता जाता है कि आपके भीतर कितने जोर से बिजली चल रही है। धीमी चल रही है, तेज चल रही है, कितनी गति से चल रही है। उससे पता चलता है कि खोपड़ी में कितनी बेचैनी है, कितना चैन है; कितनी शांति, कितनी अशांति; क्या हो रहा है भीतर! रात आप सोए हों, तो रातभर का ग्राफ बन जाता है कि कब आपने सपना देखा और कब नहीं देखा। क्योंकि जब आप सपना देखते हैं, तब जोर से सुई चलने लगेगी। जब आप नहीं देखते हैं, तब खाली जगह छूट जाएगी।
वैज्ञानिक कहते हैं, आज नहीं कल मस्तिष्क को एंप्लिफाई करने का उपाय हो जाएगा, कि भीतर जो चल रहा है वह बाहर जोर से सुनाई पड़ने लगे। आप पाएंगे, हर आदमी पागल है! वहां कई स्टेशन एक साथ लगे हैं। और तब आप भी पहली दफा चौंकेंगे कि यह मेरे भीतर चल रहा है? आप उसके आदी हो गए हैं। और यह पागलपन भीतर उबलता रहता है। यह कभी भी सौ डिग्री पर पहुंच सकता है।
इसलिए पागलों में और गैर-पागलों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं होता–सिर्फ मात्रा का, डिग्री का। आप अट्ठानबे डिग्री पर खड़े हैं, कोई निन्यानबे डिग्री पर, कोई सौ डिग्री पर। कोई हिम्मतवर एक सौ एक डिग्री पर चला गया है, वह पागलखाने में है। लेकिन बस अंतर थोड़ा-सा है। एक धक्के की जरूरत है कि आप भी छलांग लगा जाएंगे। दीवाला निकल जाए, कि पत्नी मर जाए, कि कुछ भी हो जाए, एक धक्का लग जाए, कि एक डिग्री की छलांग हुई कि आप पागलखाने के भीतर! पागलखाने के भीतर और बाहर, इंचभर से ज्यादा का फासला नहीं है।
यह जो मनोदशा है कंपती हुई, यह जो क्रिया चल रही है भीतर बहुत जोर से–एक-एक स्नायु तना हुआ है मस्तिष्क का, एक-एक रग-रेशा खिंचा हुआ है–यह सब ठहर जाए, तो परमगति है, योगी कहते हैं। समाधिस्थ क्षण आ गया। जहां सब रुक गया, वहां पहुंचना हो गया।
संसार में जो कुछ भी पाना है, उसके लिए चलकर पाना होता है। दौड़कर जो पा ले, वह जल्दी पहुंचकर पा लेता है। जो धीमे-धीमे चलते हैं, वे संसार की यात्रा में, प्रतियोगिता में हारे हुए सिद्ध होते हैं, पराजित सिद्ध होते हैं। यहां तो जो तेज चल सकता है, दौड़ सकता है, दूसरों को धक्के दे सकता है, उनके सिरों की सीढ़ियां बना सकता है, वह ही कुछ उपलब्ध कर पाता है।
संसार में दौड़कर उपलब्धि है, परमात्मा में ठहरकर उपलब्धि है। वहां तो वही पहुंच पाता है, जो रुकने की कला जानता है, जो ठहर गया है।
जब मन के सहित पांचों ज्ञानेंद्रियां भलीभांति थिर हो जाती हैं और बुद्धि भी किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करती…।
कोई प्रयत्न नहीं करती, कोई प्रयास भीतर नहीं होता।
प्रयास को हम समझ लें कि इसका अर्थ क्या होता है। प्रयत्न का अर्थ क्या होता है? आप जब कुछ पाना चाहते हैं, तो चेष्टा करते हैं। फिर वह पाना कुछ भी हो। समाधि पाना है, कि मोक्ष पाना है, कि धन पाना है, कि पद पाना है, कुछ भी पाना हो, जब पाना है तो चेष्टा करनी पड़ेगी। और समस्त जगत के योग कहते हैं कि परमात्मा को पाना है तो वहां कोई चेष्टा न करनी पड़ेगी, वहां निश्चेष्ट होकर पड़ रहना होगा।
यह परमात्मा को पाना कुछ ऐसा है जैसे एक आदमी नदी में तैरता है। अगर नदी विराट हो, संघर्ष गहन हो, तो तैरने वाला भी डूब जाएगा। थकेगा और डूबेगा। असल में जितना ज्यादा तैरेगा उतनी ही जल्दी थकेगा और उतनी ही जल्दी डूबेगा। लेकिन एक बड़े मजे की घटना घटती है। तैरने वाला, लड़ने वाला, पूरी तरह कोशिश करने वाला डूब जाता है। लेकिन जैसे ही मरा कि ऊपर उठ आता है नदी की छाती पर।
जिंदा आदमी नीचे चला जाता है, मरा हुआ ऊपर आ जाता है! यह नदी भी बड़ी अदभुत है! नदी के नियम भी बड़े अदभुत हैं! जिंदा आदमी को डुबा देती है, मुर्दा आदमी को तैरा देती है। जो तैरना जानता ही नहीं, जो तैर सकता ही नहीं–मुर्दा तैर जाता है, जिंदा डूब जाता है। जरूर मुर्दे को कोई कला आती है, जो जिंदे को नहीं आती। कुछ राज मुर्दा जानता है। वह राज है, निश्चेष्ट होने का राज। वह कोई चेष्टा नहीं करता।
यह बड़े समझने की बात है कि हम नदी में नदी के कारण नहीं डूबते, अपनी चेष्टा के कारण डूबते हैं। अगर हम मुर्दे की भांति पड़ जाएं, कोई नदी हमें डुबा नहीं सकती। लेकिन हम पड़ नहीं सकते, क्योंकि हम जिंदा आदमी हैं, हम कुछ न कुछ करेंगे ही। एकदम मुर्दे की भांति पड़ जाएं और नदी डुबा ही दे! इस डर से हम कुछ करते हैं। और हम जानते हैं कि मुर्दे को कोई नदी कभी नहीं डुबाती। मुर्दा तो नदी पर तैर जाता है। आप क्यों डूब जाते हैं? आप चेष्टा से ही डूब जाते हैं।
नदी में भंवर पड़ते हैं, भंवर में लोग फंस जाते हैं। तो भंवर से बचने की एक ही कला है कि आप निकलने की कोशिश मत करना। जो लोग तैरने का शास्त्र जानते हैं, वे कहते हैं, भंवर से बचने की एक ही तरकीब है कि जब भंवर पकड़े, तो आप भंवर के साथ हो जाना। वह डुबाए तो आप डूबते चले जाना। क्योंकि भंवर ऊपर बड़ी होती है, जैसे-जैसे नीचे, उसके चक्र छोटे होते जाते हैं। बिलकुल नीचे जाकर वह बिलकुल छोटी हो जाती है। वहां वह आपको नहीं पकड़ सकती। अगर आपने लड़ने की कोशिश की, तो आप टूट जाएंगे ऊपर ही, नीचे पहुंचते-पहुंचते तक बचने का कोई अर्थ भी नहीं रह जाएगा, आप मरे हो चुके होंगे।
तैरने का शास्त्र कहता है, अगर भंवर पकड़ ले, तो उससे निकलने की कोशिश ही मत करना, डुबकी लगाकर उसके साथ ही हो जाना, नीचे चले जाना। नीचे से आप छूट जाएंगे। तो जो भंवर से बचने की कोशिश करता है, वह डूब जाता है। और जो भंवर के साथ हो जाता है, वह बच जाता है। नदी में मुर्दा तैर जाता है और जिंदा डूब जाता है।
परमात्मा को जिन्हें पाना है, उन्हें निश्चेष्ट होने की कला सीखनी होगी। वहां कुछ भी करना आवश्यक नहीं है। वहां सिर्फ न-करने में ठहर जाना आवश्यक है। आप जब तक कुछ पाना चाहते हैं, कुछ होना चाहते हैं, तब तक आप चेष्टा नहीं छोड़ेंगे।
इसलिए धर्म का आपको बुनियादी सूत्र कहता हूं: धर्म अचाह है; वह कोई चाह नहीं है। और जो चाह से धर्म की तरफ जा रहा है, वह धर्म की तरफ जा ही नहीं रहा है। वह अभी फिर संसार में ही घूम रहा है। उसने नाम बदल लिए हैं अपने संसार के, उसने मंजिलों पर नए लेबल लगा लिए हैं, लेकिन अभी उसकी मांग जारी है। और जो मांग रहा है, उसे सब मिल जाए, लेकिन परमात्मा नहीं मिल सकता।
निश्चेष्ट। यम कह रहा है नचिकेता को, जहां बुद्धि किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करती। चेष्टा तभी जाएगी, जब चाह चली जाएगी। लेकिन लोग इतने अदभुत हैं कि लोगों के मन की, उनके गणित की व्यवस्था जानकर बड़ी हैरानी होती है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि हम शांत कैसे हो जाएं? तो मैं उनसे कहता हूं, तुम चाह छोड़ दो तो तुम शांत हो जाओगे। तो वे मेरे पास लौटकर आ जाते हैं। वे पूछते हैं, तो हम गैर-चाह कैसे हो जाएं? अब उन्होंने गैर-चाह होने की चाह बना ली। अब वे कहते हैं कि इसकी कोई तरकीब बताएं। अब हम यही होना चाहते हैं। अब हमको चाह छोड़नी है! क्योंकि चाह में दुख है और अचाह में सुख है, तो अब हम अचाह को ही चाहते हैं।
वे समझे ही नहीं। बात चूक गई। मुद्दा खो गया।
अचाह होने का मतलब ही यह है कि अब कोई चाह हम नहीं करते। अब हम यह भी नहीं चाहते कि अचाह हो जाएं। डिजायरलेसनेस भी अब हमारी मांग नहीं है। अब हम कुछ भी नहीं मांगते। और जो आदमी ऐसे क्षण में आ जाए, उसकी ट्यूनिंग हो जाती है। एक सेकेंड को भी अचाह–एकदम आनंद बरस जाता है। कांटा ठीक जगह पर आकर रेडियो पर लग गया। सब बाकी स्टेशन खो जाते हैं। ठीक कांटा जब अचाह पर लग जाता है, परमात्मा से हमारा संयोग हो जाता है। ट्यूनिंग! हम जुड़ गए। सुर बंध गए। यह एक बार भी हो जाए, तो रास्ता साफ हो जाता है, मार्ग साफ हो जाता है।
लेकिन आप यह मत समझना कि यह एक बार हो गया, तो सारी बात समाप्त हो गई। क्योंकि आगे का सूत्र बहुत साफ बात कह रहा है।
इंद्रियों की उस स्थिर धारणा को ही योग मानते हैं, क्योंकि उस समय साधक प्रमादरहित हो जाता है।
और जब हमारी चेतना परमात्मा से जुड़ती है, तो हम मिट जाते हैं। वह जो अहंकार है, जो मद है, वह खो जाता है। परमात्मा हमें आपूरित कर देता है, भर देता है। एकदम सागर बूंद में गिर पड़ता है। बूंद बिलकुल खो जाती है, उसका कोई पता नहीं चलता।
परंतु योग उदय और अस्त होने वाला है, अतः योगयुक्त रहने का दृढ़ अभ्यास करते रहना चाहिए।
कोई यह न सोचे कि यह घटना एक बार घट गई, यह झलक एक बार मिल गई, तो अब क्या करना है! यह कांटा कई बार चूक जाएगा, लग-लगकर चूक जाएगा। यह कांटा तब तक चूकता रहेगा, जब तक है। यह तो प्राथमिक घटना है।
इसी प्राथमिक घटना को, जापान में झेन फकीर जिसको सतोरी कहते हैं, वह यही घटना है। सतोरी समाधि नहीं है, वह समाधि की पहली झलक है। बड़ा आनंद हो जाएगा। जीवन बड़ा रस से भर जाएगा। आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। कल तक जो था वह गया, एक नए का जन्म हो जाएगा।
लेकिन यही अंत नहीं है। यह कांटा एक दफा लगकर इतना अमृत दे जाता है! यह कांटा जब तक है बुद्धि का, तब तक यह डांवाडोल होता ही रहेगा। इसे फिर डांवाडोल होने के उपाय मिल जाएंगे। यह फिर खो-खो देगा। जो संगति मिली है, वह चूक-चूक जाएगी। तो निरंतर उस एकतानता को, वह एकतानता सध सके, इसके लिए बार-बार हमें निश्चेष्ट होना, बार-बार हमें अक्रिया में डूबना, बार-बार ध्यान में लीन होने की प्रक्रिया जारी रखनी पड़ेगी।
एक घड़ी ऐसी आती है जब कि कांटा लीन ही हो जाता है, डूब ही जाता है; वह बचता ही नहीं कि डांवाडोल हो सके। मन खो जाता है। उसको कबीर ने अ-मनी, नो-माइंड की अवस्था कहा है। और जब मन खो जाता है, फिर योग साधने की कोई भी जरूरत नहीं।
कबीर परम अवस्था को पाने के बाद भी कपड़ा बुनते रहे, कपड़ा बेचने बाजार जाते रहे। उनके शिष्य उन्हें कहते थे, आप यह क्या कर रहे हैं? आप तो परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए, आप तो अपना सारा समय अब प्रभु की साधना में लगाइए।
तो कबीर कहते, अब साधने को कोई बचा ही नहीं। जो साधता था, वह नहीं बचा। इसलिए कबीर ने कहा है, सहज समाधि भली। अब तो वह घड़ी आ गई, जब कि हम कुछ भी करें तो समाधि बनी रहती है। अब तो हम उठें, बैठें, काम करें, न करें, कुछ भी चलता रहे, समाधि बनी रहती है। समाधि हमारा सहज होना हो गई है।
जब तक सहज न हो जाए समाधि, तब तक, तब तक निरंतर, निरंतर निश्चेष्ट होने की, अक्रिया में डूबने की, ध्यान की लीनता को खोजते ही रहना है।
उस इंद्रियों की स्थिर धारणा को ही योग मानते हैं, क्योंकि उस समय साधक प्रमादरहित हो जाता है। परंतु योग उदय और अस्त होने वाला है, अतः योगयुक्त रहने का दृढ़ अभ्यास करते रहना चाहिए।
बहुत लोग बहुत बार ध्यान शुरू करते हैं, फिर छोड़-छोड़ देते हैं। यह बार-बार छोड़ देना समय को, शक्ति को खोना और अपव्यय करना है। ध्यान को पकड़ा हो तो फिर पकड़ रखना चाहिए, और सतत चोट करते जाना चाहिए। यह सतत चोट ही एक दिन उस पत्थर को पूरी तरह तोड़ देगी, जो आपके और परम सत्य के बीच में है।
इस घटना के पहले बहुत बार झलकें मिलेंगी, लेकिन झलकों से राजी मत हो जाना। झलकों से बहुत से लोग राजी हो जाते हैं। जो झलक से राजी हो जाता है, उसे फिर पूर्ण विराट की उपलब्धि का मार्ग बंद हो जाता है। जल्दी राजी मत हो जाना। उस समय तक राजी मत होना जब तक कि सहज न हो जाए, जब तक कि ध्यान श्वास जैसा न हो जाए, कि आप सोए भी रहें, तो भी ध्यान चलता रहे। आप कुछ भी करते रहें, तो भी ध्यान चलता रहे। कुछ भी ध्यान को खंडित न कर सके। जब तक ऐसी अवस्था न आ जाए, तब तक निरंतर, निरंतर इस तलाश को जारी रखना चाहिए।
बहुत बार लोग छोड़-छोड़ कर फिर खोजना शुरू कर देते हैं। इसका परिणाम ऐसा होता है जैसा जलालुद्दीन रूमी ने कहा है।
एक दिन अपने शिष्यों को ले गया एक खेत में और उसने कहा कि देखो इस खेत के मालिक की कला! उस खेत में आठ बड़े गड्ढे थे और नौवां गड्ढा खोदा जा रहा था। शिष्य भी नहीं समझ पाए। पूरा खेत खराब हो गया था। उन्होंने कहा, यह हो क्या रहा है! मालिक से पूछने पर पता चला कि कुआं खोद रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह तो पूरा खेत कुआं ही बना जा रहा है! एक भी गड्ढे में पानी नहीं है! मालिक ने कहा, आठ हाथ खोदकर देखा कि पानी नहीं आता, तो सोचा, यहां से छोड़ो। फिर दूसरा खोदकर दस हाथ देखा, वहां भी पानी नहीं आया। वहां से भी छोड़ो। फिर तीसरा खोदा, वहां भी पानी नहीं आया। ऐसा खोदते-खोदते अब नौवां खोद रहे हैं।
रूमी ने कहा, इस आदमी को ठीक से समझ लो। यह आदमी बड़ा प्रतिनिधि है। इसी तरह के लोग हैं जमीन पर। वे एक गड्ढा खोदते हैं दस हाथ, फिर सोचते हैं, पानी नहीं आया, छोड़ो। फिर दो-चार साल बाद दूसरा गड्ढा खोदते हैं। फिर तीसरा गड्ढा खोदते हैं। अगर यह आदमी एक ही जगह खोदता चला जाता, तो पानी कभी का आ जाता। और जिस ढंग से यह खोद रहा है, पूरा खेत भी खराब हो जाएगा और पानी कभी आने वाला नहीं है।
तो आप जब खोदना शुरू करें, तो खोदते ही चले जाना। बार-बार छोड़कर अलग-अलग जगह खोदने के परिणाम घातक होंगे। सतत लगे ही रहना। पानी तो निश्चित भीतर है। अगर बुद्ध के कुएं में आया, अगर कृष्ण के कुएं में आया, तो आपके कुएं में भी आएगा। आप उतना ही सब कुछ लिए हुए पैदा हुए हैं, जितना बुद्ध या कृष्ण पैदा होते हैं। फर्क इतना ही है कि आपने ठीक से खोदा नहीं है, या खोदा भी है तो अनेक जगह खोदा है।
सतत खुदाई चाहिए; जल के स्रोत भीतर हैं। खोदते ही आप चले जाएं। पहले तो कंकड़-पत्थर ही हाथ लगेंगे। फिर सूखी भूमि ही हाथ लगेगी। फिर धीरे-धीरे गीली भूमि आनी शुरू होगी। जब आपके ध्यान में शांति मालूम पड़ने लगे, समझना कि गीली भूमि शुरू हो गई। और अब छोड़ना मत, क्योंकि शांति पहली खबर है आनंद की। जमीन गीली होने लगी। पानी पास है।
शांत मन खबर दे रहा है कि बहुत दूर नहीं है आनंद का स्रोत। थोड़ी मेहनत, थोड़ा श्रम, थोड़ी लगन, थोड़ी प्रतीक्षा और थोड़ा धैर्य, जलस्रोत निश्चित ही फूट पड़ने को है।
अब ध्यान के लिए तैयार हों।