UPANISHAD
Kya Ishwar Mar Gaya Hai 01
First Discourse from the series of 8 discourses – Kya Ishwar Mar Gaya Hai by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं आज की चर्चा प्रारंभ करना चाहूंगा।
एक सुबह की बात है। एक बड़े पहाड़ से एक व्यक्ति बहुत गीत गाता हुआ नीचे उतर रहा था। उसकी आंखों में किसी बात को खोज लेने का प्रकाश था। उसके हृदय में किसी सत्य को जान लेने की खुशी थी। उसके कदमों में उस सत्य को दूसरे लोगों तक पहुंचा देने की गति थी। वह बहुत उत्साह से और बहुत आनंद से भरा हुआ प्रतीत हो रहा था। अकेला था पहाड़ के रास्ते पर और नीचे मैदान की तरफ उतर रहा था। बीच में उसे एक बूढ़ा आदमी मिला, जो पहाड़ की तरफ ऊपर को चढ़ रहा था। उस व्यक्ति ने उस बूढ़े आदमी से पूछा कि तुम पहाड़ पर किसलिए जा रहे हो?
उस बूढ़े ने कहा: परमात्मा की खोज में।
और वह व्यक्ति जो पहाड़ से नीचे की तरफ उतर रहा था, यह सुन कर बहुत जोर से हंसने लगा। और उसने कहा: क्या यह भी हो सकता है कि तुम्हें अभी तक वह दुखद समाचार नहीं मिला?
उस बूढ़े आदमी ने पूछा: कौन सा समाचार?
उस व्यक्ति ने कहा: क्या तुम्हें अभी तक पता नहीं कि ईश्र्वर मर चुका है? तुम किसे खोजने जा रहे हो? क्या जमीन पर नीचे मैदानों तक अब तक यह खबर नहीं पहुंची कि ईश्र्वर मर चुका है? मैं पहाड़ से आ रहा हूं। और मैं भी ईश्र्वर को खोजने गया था। लेकिन वहां जाकर मुझे ईश्र्वर तो नहीं, ईश्र्वर की लाश मिली। और क्या दुनिया तभी विश्र्वास करेगी जब अपने हाथों से उसे दफना देगी? क्या यह खबर अब तक नहीं पहुंची? मैं यही खबर लेकर नीचे उतर रहा हूं कि मैदानों में जाऊं और लोगों को कह दूं कि पहाड़ों पर जो ईश्र्वर रहता था, वह मर चुका है। लेकिन बूढ़े आदमी ने विश्र्वास नहीं किया।
साधारणतः कोई मर जाए तो उसकी बात पर भी हम विश्र्वास नहीं करते हैं। ईश्र्वर के मरने पर कौन विश्र्वास करता है? उस बूढ़े आदमी ने समझा कि युवक पागल हो गया है। वह अपने रास्ते पर बिना कुछ कहे पहाड़ चढ़ने लगा। और उस युवक ने सोचा कि अजीब है यह आदमी! जिसे खोजने जा रहा है वह मर चुका है और फिर भी खोज को जारी रखना चाहता है! लेकिन वह नीचे की तरफ उतरता रहा।
रास्ते में उसे और एक साधु मिला, जो आंखें बंद किए हुए किसी के ध्यान में लीन था। उस युवक ने उसे झकझोरा और कहा कि किसका चिंतन करते हो? किसका ध्यान करते हो?
उसने कहा: परमात्मा का स्मरण कर रहा हूं।
वह युवक हंसा। और बोला कि मालूम होता है यह खबर ले जाने का दुखद काम मुझे ही करना पड़ेगा, कि तुम जिसका ध्यान कर रहे हो वह बहुत समय हुआ मर चुका है। अब उसका ध्यान करने से कुछ भी नहीं होगा। अब उसके स्मरण करने से कुछ भी नहीं होगा। और अब उसके गीत और प्रार्थनाएं कोई भी फल न लाएंगी। क्योंकि मुर्दा आदमी कुछ नहीं कर सकता, मुर्दा परमात्मा भी क्या करेगा?
और वह युवक और नीचे उतरा। और उसी पहाड़ पर मैं भी गया था और मेरी भी उससे मुलाकात हुई। वही मैं आपसे कहना चाहता हूं।
उस आदमी ने मुझसे भी पूछा कि कहां जाते हो? इसके पहले कि मैं उसको कोई उत्तर देता, मैंने भी उससे पूछा: तुम कहां जाते हो?
उसने कहा: एक खबर मेरे पास है, उसे दुनिया को मुझे कहना है। और उसने मुझसे कहा कि ईश्र्वर मर गया है, तुम्हें पता चला?
मैंने उस आदमी को कहा कि मेरे पास भी एक खबर है और वह मुझे भी दुनिया को कहनी है। और क्या तुम्हें पता है कि जो ईश्र्वर मरा है वह ईश्र्वर था ही नहीं? एक झूठा ईश्र्वर मर गया है। कुछ लोग उस झूठे ईश्र्वर के जिंदा होने के खयाल में हैं और कुछ लोग उस झूठे ईश्र्वर के मर जाने के खयाल में हैं। लेकिन जो सच्चा ईश्र्वर था वह अब भी है और हमेशा रहेगा। तो मैंने उससे कहा कि तुम एक खबर दुनिया को कहना चाहते हो और मैं भी एक खबर कहना चाहता हूं: कि जो मर गया है, वह सच्चा ईश्र्वर नहीं था। क्योंकि जो मर सकता है, वह जीवित ही न रहा होगा।
जीवन का मृत्यु से कोई भी संबंध नहीं है। जहां जीवन है, वहां मृत्यु नहीं है। और जहां मृत्यु हो, जानना कि जीवन भ्रामक था और झूठा था, कल्पित था। मृत्यु ही सत्य थी। वह जो मरा हुआ है, वही केवल मरता है। जो जीवित है, उसका मरना, उसके मरने की कोई संभावना नहीं है। जीवन के मर जाने से ज्यादा असंभव और कोई बात नहीं हो सकती है। और ईश्र्वर तो समग्र जीवन का नाम है।
वह आदमी दुनिया के कोने-कोने में अपनी खबर कहता फिरता है। मुझको भी उसका पीछा करना पड़ रहा है। जहां वह जाता है, वहां मुझे भी जाना पड़ता है। जरूर आपसे भी उसने यह बात आकर कही होगी कि ईश्र्वर मर चुका है। बहुत तरकीबें हैं उस बात को कहने की, बहुत से रास्ते हैं, बहुत सी व्यवस्थाएं हैं। बहुत ढंगों से यह खबर आप तक भी निश्र्चित ही पहुंच गई होगी कि ईश्र्वर मर चुका है।
मैं आपको दूसरी बात कहना चाहूंगा इन आने वाले चार दिनों की चर्चाओं में वह यह कि जो ईश्र्वर मर चुका है, वह जिंदा ही नहीं था। कुछ लोगों ने उसे झूठा ही जीवन दे रखा था। और अच्छा हुआ कि वह मर गया है। और अच्छा हुआ होता कि वह कभी पैदा ही न होता। और अच्छा हुआ होता कि वह बहुत पहले मर गया होता। इसलिए, यह खबर सुखद है, दुखद नहीं।
लोगों ने आपसे बहुत रूपों में कहा होगा कि धर्म की मृत्यु हो गई है। यह बहुत अच्छा हुआ है। क्योंकि जो धर्म मर सकता है, वह मर ही जाना चाहिए। उसे जिंदा रखने की कोई जरूरत नहीं है। और जब तक झूठा धर्म जिंदा रहेगा और झूठा ईश्र्वर जीवित मालूम पड़ेगा, तब तक सच्चे ईश्र्वर को खोजना अत्यंत कठिन है। क्योंकि सच्चे ईश्र्वर और हमारे बीच में झूठे ईश्र्वर के अतिरिक्त और कोई भी नहीं खड़ा हुआ है। मनुष्य के और परमात्मा के बीच में एक झूठा परमात्मा खड़ा हुआ है। मनुष्य के और धर्म के बीच में अनेक झूठे धर्म खड़े हुए हैं। वे गिर जाएं, वे जल जाएं, वे नष्ट हो जाएं, तो मनुष्य की आंखें उसकी तरफ उठ सकती हैं जो कि सत्य है और परमात्मा है।
कौन सा ईश्र्वर झूठा ईश्वर है?
मंदिरों में जो पूजा जाता है, वह ईश्र्वर झूठा है। वह इसलिए झूठा है, क्योंकि उसका निर्माण मनुष्य ने किया है। मनुष्य ईश्र्वर को बनाए, इससे ज्यादा झूठी और कोई बात नहीं हो सकती है। ईश्र्वर ने मनुष्य को बनाया होगा, यह तो हो भी सकता है, लेकिन यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य और ईश्र्वर को बनाए! लेकिन जितने प्रकार के मनुष्य हैं, उतने ही प्रकार के ईश्र्वर हमने निर्मित कर लिए हैं। और जितने प्रकार के मनुष्य हैं, उतने ही प्रकार के मंदिर हैं, उतने ही प्रकार की मस्जिदें हैं, उतने ही प्रकार के गिरजाघर हैं, और-और न मालूम क्या हैं। हम सबने मिल कर न मालूम कितने प्रकार के ईश्र्वर ईजाद कर लिए हैं। ये ईश्र्वर निश्र्चित ही झूठे हैं।
ईश्र्वर ईजाद नहीं किया जा सकता, इनवेंट नहीं किया जा सकता। कोई उसे न तो पत्थर के द्वारा निर्मित कर सकता है, और न शब्दों के द्वारा, और न रंगों के द्वारा, और न रेखाओं के द्वारा। क्योंकि जो भी हम निर्मित कर सकेंगे, वह हमसे भी कच्चा और हमसे भी ज्यादा झूठा और हमसे भी ज्यादा क्षणभंगुर होगा।
मनुष्य ईश्र्वर निर्मित नहीं कर सकता, लेकिन ईश्र्वर को उपलब्ध कर सकता है।
मनुष्य ईश्र्वर की ईजाद नहीं कर सकता, लेकिन ईश्र्वर का आविष्कार कर सकता है। इनवेंट तो नहीं कर सकता, डिस्कवर कर सकता है।
मनुष्य ने जितने भी ईश्र्वर ईजाद किए हैं, वे सब झूठे हैं। और इन्हीं ईश्वरों के कारण, इन्हीं धर्मों, रिलीजंस के कारण रिलीजन, धर्म का दुनिया में कहीं कोई पता भी नहीं मिलता है। जहां भी जाइएगा, कोई न कोई ईश्र्वर बीच में आ जाएगा और कोई न कोई धर्म। और धर्म से आपका कोई संबंध न हो सकेगा। हिंदू बीच में आ जाएगा, ईसाई और मुसलमान और जैन और बौद्ध, कोई न कोई बीच में आ जाएगा, कोई न कोई दीवाल खड़ी हो जाएगी, कोई न कोई पत्थर बीच में अटक जाएगा और द्वार बंद हो जाएंगे। और ये द्वार परमात्मा से तो मनुष्य को तोड़ते ही हैं, मनुष्य को भी मनुष्य से तोड़ देते हैं।
मनुष्य को अलग करने वाला कौन है? एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य के बीच कौन सी दीवालें हैं?–पत्थर की, मकानों की? नहीं; मंदिरों की, मस्जिदों की, धर्मों की, शास्त्रों की, विचारों की वे दीवालें हैं जो एक-एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से अलग किए हुए हैं। और स्मरण रहे, कि जो दीवालें मनुष्य और मनुष्य को ही दूर कर देती हों, वे दीवालें मनुष्य को परमात्मा से कैसे मिलने देंगी? यह असंभव है। यह असंभव है! अगर मैं आपसे दूर हो जाता हूं, तो यह कैसे संभव है कि जो चीज मुझे आपसे दूर कर देती हो, वह मुझे उससे जोड़ दे जो कि सबका नाम है। यह संभव नहीं है।
लेकिन इसी तरह का ईश्र्वर, इसी तरह का धर्म, हजारों-हजारों वर्षों से मनुष्य के मन पर छाया हुआ है। और यही कारण है कि पांच-छह हजार वर्षों के निरंतर, निरंतर चिंतन-मनन और ध्यान के बाद जीवन में धर्म का कोई अवतरण नहीं हो सका है। एक फॉल्स रिलीजन, एक मिथ्या धर्म हमारे और धर्म के बीच में खड़ा हुआ है।
नास्तिक नहीं धर्म को रोक रहे हैं, और न वैज्ञानिक रोक रहे हैं, और न भौतिकवादी रोक रहे हैं, रोक रहे हैं वे लोग जिन्होंने धर्मों की ईजाद कर ली है। और तब हम उन ईजाद किए किसी न किसी धर्म की दीवाल में आबद्ध हो जाते हैं। कारागृह में बंद हो जाते हैं। और हमारे चित्त परतंत्र हो जाते हैं और उस स्वतंत्रता को खो देते हैं जो कि सत्य की खोज की पहली शर्त है।
ऐसा ईश्र्वर मर गया है। मर जाना चाहिए। न मरा हो, तो जिन लोगों को भी ईश्र्वर से प्रेम है, उन्हें सहायता करनी चाहिए कि वह मर जाए। उसे दफना दिया जाना चाहिए। अगर समय रहते यह न हो सका, तो सच्चे धर्म के अभाव में मनुष्य-जाति का क्या होगा, यह कहना बहुत कठिन है। और बहुत दुर्भाग्यपूर्ण भी है वह घोषणा करनी। और उस दिन की कल्पना भी मन को कंपाने वाली है।
आज भी मनुष्य का क्या हो गया है? आज भी मनुष्य क्या है? अगर पशु-पक्षियों में होश होगा तो वे आदमी को देख कर जरूर हंसते होंगे, उन्हें हंसी आती होगी। डार्विन ने कुछ वर्षों पहले लोगों को समझाया कि मनुष्य जो है वह बंदर का विकास है। लेकिन एक बंदर ने मुझे बताया है कि मनुष्य जो है वह बंदर का पतन है। डार्विन समझ नहीं पाया। बंदर हंसते हैं आदमी पर और सोचते हैं कि यह उनका पतन है: ये कुछ बंदर भटक गए हैं और आदमी हो गए हैं। और डार्विन को खयाल था कि यह बंदरों का विकास है। यह केवल आदमी के अहंकार की भूल है–एक बंदर ने मुझे यह बताया है। यह जो आदमी की आज स्थिति है यह कल और क्या होगी? और कौन इसे इस स्थिति को ऐसा बनाए हुए है?
स्मरण रखिए, बीमारियों से भी ज्यादा घातक वे दवाइयां हो जाती हैं जो झूठी हों। स्मरण रखिए, समस्याओं से भी ज्यादा खतरनाक वे समाधान हो जाते हैं जो कि सच्चे न हों। क्योंकि समस्या तो एक तरफ बनी रहती है और समाधान दूसरी समस्याएं खड़ी कर देते हैं। इधर पांच हजार वर्षों में धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ उससे जीवन की कोई समस्या हल नहीं हुई, बल्कि और नई समस्याएं खड़ी हो गई हैं। और हर समाधान अगर नई समस्याएं खड़ी कर देता हो, तो ऐसे समाधानों से विदा लेने का समय आ गया है, उन्हें विदा दे देनी जरूरी है। क्योंकि बहुत सी व्यर्थ की समस्याएं उनके कारण खड़ी हुई हैं और समाधान तो कोई भी नहीं हुआ।
मनुष्य ईश्र्वर के कितने निकट पहुंचा है? मंदिर तो बढ़ते जाते हैं, मस्जिद तो बढ़ती जाती हैं, गिरजे रोज नये-नये खड़े होते जाते हैं। और ऐसा मालूम होता है कि अगर यह विकास इसी भांति चला तो आदमी के रहने के लायक मकान न बचेंगे, ईश्र्वर सब मकान घेर लेगा। लेकिन इन मंदिरों में, इन गिरजों में, इन मस्जिदों में होता क्या है? क्या मनुष्य के जीवन से कोई ईश्र्वर का संबंध वहां पैदा होता है? क्या मनुष्य के जीवन में कोई क्रांति वहांघटित होती है? क्या मनुष्य के जीवन का दुख और अंधकार वहां दूर होता है? क्या मनुष्य के जीवन की हिंसा और घृणा वहां समाप्त होती है? क्या मनुष्य के जीवन में प्रेम और प्रार्थना के गीत वहां पैदा होते हैं? क्या कोई सौंदर्य और क्या कोई सौंदर्य के फूल मनुष्य के हृदय पर वहां पैदा होते हैं, बनते हैं और निर्मित होते हैं?
नहीं; बिलकुल नहीं। बल्कि वहां मनुष्य और मनुष्य के बीच घृणा पैदा होती है। क्रोध और हिंसा पैदा होती है। आज तक जितना संघर्ष, युद्ध और खूनपात मंदिरों के और मूर्तियों के नाम पर हुआ है और किस चीज के नाम पर हुआ है? और मनुष्य की जितनी हत्या मनुष्यों के द्वारा निर्मित धर्मस्थानों को लेकर हुई है और किस बात से हुई है? अगर हम अब भी इस बात को कहे चले गए कि हम इन्हीं स्थानों को धर्मस्थान मानते रहेंगे, तो निश्र्चित मानिए, धर्म के अवतरण की फिर कोई संभावना नहीं है।
एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है, वह मैं आपसे कहूं।
एक चर्च के द्वार पर सुबह-सुबह एक आदमी ने आकर दस्तक लगाई। मैं तो उसे आदमी कह रहा हूं, लेकिन चर्च में जो लोग रहते थे वे उसे आदमी नहीं समझते थे। क्योंकि मंदिरों ने आदमियों और आदमियों में फर्क पैदा कर रखा है। वह आदमी काले रंग का था और जिनका मंदिर था और जिनका परमात्मा था वे सफेद रंग के लोग थे। उस मंदिर के पुरोहित ने उस काले आदमी को कहा: यहां कैसे आए?
उसने कहा: मैं परमात्मा की खोज में आया हूं।
उस पुरोहित ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा। काला आदमी और सफेद आदमियों के परमात्मा के मंदिर में आए, यह बिलकुल समझ में आने वाली बात नहीं है। लेकिन पुराने दिन होते तो उसने तलवार निकाली होती और उससे कहा होता, यहां से हट जाओ! तुम्हारी छाया पड़नी भी खतरनाक है! लेकिन दिन बदल गए हैं और भाषाएं बदल गई हैं। उस पुरोहित ने बहुत प्रेम से कहा। और कहा: मेरे भाई, मंदिर में आने से क्या होगा? जब तक तुम्हारा हृदय शांत न हो और तुम्हारा मन विकारों से मुक्त न हो, तब तक मंदिर में आकर क्या करोगे? परमात्मा तो केवल उन्हें मिलता है जिनके हृदय शांत होते हैं और विकार से मुक्त होते हैं। तो तुम जाओ, पहले हृदय को पवित्र करो और फिर आना।
उस पुरोहित ने सोचा होगा, न होगा हृदय पवित्र और न यह वापस आएगा। लेकिन यह बात उसने सफेद चमड़ी के लोगों से कभी भी नहीं कही थी। यह तो इस आदमी को इस मंदिर से दूर रखने का उपाय था।
वह काला आदमी चला गया। कई महीनों के बाद रास्ते के चौराहे पर उस पुरोहित को वह दिखाई पड़ा। वह बहुत मगन, बहुत आनंदित और उसकी आंखों में कोई रोशनी झलकती थी। उस पुरोहित ने पूछा कि तुम दुबारा नहीं आए?
उसने कहा कि मैं क्या करता, मैंने मन को पवित्र करने की कोशिश की, मुझसे जो बन पड़ता था वह मैंने किया। मैं शांत हुआ, मैंने एकांत खोजा। और एक दिन रात परमात्मा ने मुझे सपने में दर्शन दिए और उसने कहा कि तू किसलिए पवित्र होने की कोशिश कर रहा है? मैंने उससे कहा कि वह जो मंदिर है हमारे गांव में, वह जो चर्च है, मैं उसमें प्रवेश पाना चाहता हूं और उसके पुरोहित ने कहा है कि पहले पवित्र हो जाओ, तब आने के लिए द्वार खुल सकेगा। परमात्मा यह सुन कर हंसने लगा और उसने कहा: तू बिलकुल पागल है! कोशिश छोड़ दे। दस साल से मैं खुद ही उस चर्च में घुसने की कोशिश कर रहा हूं, वह पुजारी मुझे घुसने ही नहीं देता। मैं खुद ही सफल नहीं हो सका हूं और निराश हो गया हूं, तू भी वहां प्रवेश नहीं पा सकेगा।
और यह बात एक मंदिर के बाबत नहीं, सभी मंदिरों के बाबत है। और यह बात एक पुजारी के संबंध में नहीं, सभी पुजारियों के संबंध में है। जहां भी मंदिर हैं और जहां भी पुजारी हैं वहां उन्होंने परमात्मा को कभी प्रवेश नहीं पाने दिया और न वे पाने देंगे। क्योंकि परमात्मा और पुजारी दोनों एक साथ नहीं चल सकते हैं। परमात्मा प्रेम है, पुजारी व्यवसाय है। प्रेम और व्यवसाय का क्या संबंध? जहां पुजारी है, वहां दुकान है, वहां मंदिर कैसे हो सकता है? लेकिन अपनी उन दुकानों को उन्होंने मंदिर बना रखा है और उन दुकानों के ग्राहकों को दूसरी दुकानों के खिलाफ बहुत घृणा से भर रखा है, ताकि वे उनकी दुकानों को छोड़ कर दूसरी दुकानों पर न चले जाएं। इसलिए एक मंदिर दूसरे मंदिर के विरोध में है और एक मंदिर का परमात्मा दूसरे मंदिर के परमात्मा के विरोध में है।
क्या यह धर्म की स्थिति है? और क्या इसके द्वारा धर्म को गति मिली है, प्राण मिले हैं?
धर्म निष्प्राण हुआ है।
इस भांति का ईश्र्वर मर गया हो, इससे ज्यादा सुखद सु-समाचार और दूसरा नहीं हो सकता। लेकिन, अगर वह मर भी गया हो, तो पुजारी इसकी खबर आपको पता नहीं चलने देंगे। क्योंकि यह आपको पता चल जाना बहुत खतरनाक होगा। इसलिए, वे उस मरे हुए ईश्र्वर के आस-पास भी मंत्र पढ़ते रहेंगे और पूजा करते रहेंगे। इसलिए नहीं कि परमात्मा से उन्हें बहुत प्रेम है, बल्कि इसलिए कि उनके जीवन का आधार यही पूजा है। वे इसी से जीते हैं। यही उनकी आजीविका है।
जिन लोगों ने परमात्मा को आजीविका बनाया, उन लोगों ने ही मनुष्य को परमात्मा से दूर करने के उपाय किए हैं। तो जहां भी परमात्मा आजीविका बन गया हो, जान लेना कि वहां परमात्मा नहीं हो सकता है। परमात्मा प्रेम है; और प्रेम का व्यवसाय नहीं हो सकता, उसकी आजीविका नहीं हो सकती। प्रार्थना बेची नहीं जा सकती है। और प्रार्थना दूसरे के लिए की भी नहीं जा सकती है। और प्रेम में कोई मध्यस्थ नहीं होता है और न कोई दलाल होता है। जहां दलाल हो और मध्यस्थ हो, वहां प्रेम असंभव है। वहां सौदा होगा, बार्गेन होगा, प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम सीधा होता है। प्रेम के बीच में कोई भी मौजूद नहीं होता। परमात्मा और मनुष्य के बीच में जिस दिन से पुजारी मौजूद हुआ, उसी दिन से सारी बात खराब हो गई।
ऐसा परमात्मा मर जाए, इससे ज्यादा शुभ कुछ भी नहीं है, क्योंकि ऐसा परमात्मा जिंदा ही नहीं है। और इसकी मृत्यु से, उस परमात्मा के जीवन की तरफ हमारी आंखें उठनी शुरू होंगी जो कि वस्तुतः जीवन है, महा जीवन है, परम जीवन है।
हिंदू, मुसलमान, ईसाई और जैन और बौद्ध और इस तरह के सभी नाम दुनिया से विदा होने चाहिए, तो दुनिया में धर्म का जन्म हो सकता है।
और इसी भांति शास्त्रों, शब्दों और सिद्धांतों का ईश्र्वर भी मर गया है। वह भी सच्चा ईश्वर नहीं है। शब्द, शास्त्र और सिद्धांत मनुष्य के चित्त और बुद्धि के अनुमानों से ज्यादा नहीं है। वे अंधेरे में फेंके गए उन तीरों की भांति हैं, जो लग भी जाते हों तो भी उनके लगने का कोई अर्थ नहीं है। उनका लग जाना बिलकुल सांयोगिक है।
मनुष्य सोचता रहा है, जीवन में जहां-जहां अज्ञान है और अंधेरा है, मनुष्य विचार करता रहा है, अनुमान करता रहा है। अनुमानों के बहुत शास्त्र सारी जमीन पर इकट्ठे हो गए हैं। इन अनुमानों में, इन कल्पनाओं में, इन धारणाओं में कोई सत्य नहीं है, कोई ईश्र्वर नहीं है। क्योंकि ईश्र्वर का अनुभव तो वहीं शुरू होता है जहां सब अनुमान, सब विचार, सब धारणाएं शांत हो जाते हैं। जहां चित्त, मौन और निर्विचार को उपलब्ध होता है, वहीं वह सत्य को जानने में समर्थ होता है। जहां सारे शास्त्र शून्य हो जाते हैं, वहीं उसका उदघाटन होता है जो सत्य है।
इसलिए शब्दों में जो भटके हों, शब्दों को जिन्होंने पकड़ रखा हो, शास्त्रों को जिन्होंने अपनी आत्मा समझ रखी हो, उनका सत्य से कोई संबंध न हो सकेगा। अनुमान करने में मनुष्य की बुद्धि प्रखर है, तीव्र है; और अनुमान के द्वारा अपने अज्ञान को ढंक लेने में भी हम बहुत होशियार हैं।
जहां-जहां अज्ञान है, वहां-वहां हम कोई अनुमान कर लेते हैं, कोई कल्पना कर लेते हैं। और धीरे-धीरे उस कल्पना पर विश्र्वास करने लगते हैं। क्यों? क्योंकि उस कल्पना पर विश्र्वास कर लेने से हमारे अज्ञान का बोध नष्ट हो जाता है। हमें लगता है कि हम जानते हैं। जिस मनुष्य को यह लगता हो कि मैं जानता हूं ईश्र्वर को, वह ईश्र्वर को कभी न जान सकेगा। वह ईश्वर को कभी भी नहीं जान सकेगा! क्योंकि उसका जानना निश्र्चित ही किन्हीं शास्त्रों और सिद्धांतों की पकड़ पर निर्भर होगा। कुछ उसने सीख लिया होगा, कुछ उसने समझ लिया होगा, कुछ उसने स्मरण कर लिया होगा, वही उसका ज्ञान बन गया होगा।
ऐसा ज्ञान नहीं, बल्कि ऐसा अज्ञान कि मैं जीवन-सत्य के संबंध में कुछ भी नहीं जानता हूं। इस बात का बोध कि मुझे जीवन-सत्य के संबंध में कुछ भी पता नहीं है, कुछ भी ज्ञात नहीं है, ऐसी इग्नोरेंस का स्पष्ट–स्पष्ट अहसास, ऐसी प्रतीति कि मुझे पता नहीं है, मनुष्य के चित्त को शब्दों के भार से मुक्त कर देती है। और वह मौन पैदा होता है जो उसे जानने की तरफ ले जा सकता है।
किसी ने यह घोषणा कर दी एथेंस में कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है। लोग सुकरात के पास गए और उन्होंने सुकरात से कहा कि लोगों ने घोषणा की है कि तुम सबसे बड़े ज्ञानी हो। सुकरात हंसा और उसने कहा: उनसे जाओ और कहना कि जब मैं युवा था तो मुझे ऐसा भ्रम था कि मैं ज्ञानी हूं। फिर जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ी, मेरा ज्ञान बिखरता गया और पिघलता गया और बह गया है। अब जब कि मैं मौत के करीब आ गया हूं और अब जब मुझे कोई भी किसी से डर नहीं है, मैं एक सच्ची बात कह देना चाहता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। जाओ और उन लोगों को कह दो कि सुकरात तो कहता है कि वह महा अज्ञानी है।
वे लोग गए और उन्होंने जाकर, जो लोग इसकी घोषणा गांव में करते फिरते थे, उनसे जाकर कहा कि सुकरात तो कहता है: वह महा अज्ञानी है।
उन्होंने कहा: इसीलिए! इसीलिए तो हम कहते हैं कि उसको परम ज्ञान उपलब्ध हुआ है। क्योंकि जो यह कहने में समर्थ हो गया है और जो इस सत्य को जानने में समर्थ हो गया है कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं–इस शांत और मौन, इस इनोसेंट, इस निर्दोष स्थिति में ही जानने के द्वार खुल सकते हैं। जिसको यह खयाल हो कि मैंने जान लिया है, उसका तो अहंकार और मजबूत हो जाएगा। ज्ञानियों के अहंकार से ज्यादा बड़ा अहंकार और किसी का भी नहीं होता है। उनकी तो ईगो, उनका तो ‘मैं-भाव’ कि ‘मैं कुछ हूं’ और भी प्रबल हो जाएगा। और जिसको यह वहम हो जाए कि ‘मैं हूं’, वह परमात्मा से नहीं मिल सकेगा। क्योंकि परमात्मा में मिलने की पहली शर्त यह है कि जैसे बूंद अपने को सागर में खो देती है, ऐसे ही कोई अपने अहंकार को सर्व के साथ निमज्जित कर दे, सर्व के साथ खो दे, वह जो चारों तरफ फैला हुआ विस्तार है, वह जो असीम और अनंत सत्ता है चारों ओर, उसमें अपने को डुबा दे और खो दे।
सुकरात ने कहा कि मैं महा अज्ञानी हूं। क्या आप भी किसी क्षण में इस बात को अनुभव कर पाते हैं कि आप महा अज्ञानी हैं? अगर कर पाते हैं, तो किसी न किसी दिन परमात्मा वह क्षण निकट लाएगा जब ज्ञान का जन्म हो सके। लेकिन अगर आप भी अपने मन में यह दोहराते हों कि मैं जानता हूं, तो स्मरण रखना, यह जानने का भ्रम कभी भी नहीं जानने देगा।
ज्ञानियों का ईश्र्वर मर गया है! उनका ईश्र्वर, जिनको यह खयाल है कि हम जानते हैं। पंडितों का ईश्र्वर मर गया है! अब तो उन लोगों के ईश्र्वर के लिए इस जगत में जगह होगी जिनके हृदय बच्चों की तरह सरल हों और जो यह कह सकें कि हम नहीं जानते हैं। और उस न जानने के बिंदु से जिनकी खोज शुरू हो सके, जो न जानने के स्थान से खोज कर सकें और यात्रा कर सकें। सच तो यह है, इंक्वायरी, या कोई भी खोज तभी प्रारंभ होती है जब न जानने का भाव गहरा और प्रबल हो जाए। जब जानने का भाव गहरा हो जाता है तो खोज बंद हो जाती है, टूट जाती है, समाप्त हो जाती है।
लेकिन हम सभी लोग कुछ न कुछ जानने के खयाल में हैं। अगर हमने गीता स्मरण कर ली है, या कुरान, या बाइबिल, या कोई और शास्त्र, और अगर हमें वे शब्द पूरी तरह कंठस्थ हो गए हैं, और जीवन जब भी कोई समस्याएं खड़ी करता है तो हम उन सूत्रों को दोहराने में सक्षम हो गए हैं, और अगर हमें इस भांति ज्ञान पैदा हो गया है तो हम बहुत दुर्दिन की स्थिति में हैं, बहुत दुर्भाग्य की। यह ज्ञान खतरनाक है। यह ज्ञान कभी सत्य को नहीं जानने देगा और कभी ईश्र्वर को नहीं जानने देगा। कभी ईश्र्वर से यह ज्ञान संबंधित नहीं होने देगा। यह ज्ञान, जो शब्दों से और शास्त्रों से आता है, ज्ञान ही नहीं है। यह अज्ञान को छिपा लेने के उपाय से ज्यादा नहीं है। हां, यह हो सकता है कि इस अज्ञान में भी कभी-कभी कोई तीर लग जाता हो कहीं ठीक जगह। यह हो सकता है। कभी-कभी तो पागल भी ठीक उत्तर दे देते हैं। और कभी-कभी तो अनुमान भी अंधेरे में सच्चाइयां साबित हो जाते हैं। लेकिन, लेकिन उन पर कोई जीवन खड़ा नहीं हो सकता।
मैंने सुना है, एक गांव में एक स्कूल के निरीक्षण के लिए एक इंस्पेक्टर आया। खबर उसके पहले ही गांव में आ गई थी कि उस इंस्पेक्टर का दिमाग खराब हो गया है। लेकिन सरकारी काम था–और जैसे कि सभी सरकारी काम होते हैं–यह खबर मिल जाने पर भी कि उसका दिमाग खराब हो गया है, अभी उसकी चिकित्सा की व्यवस्था होने में काफी देर थी, या उसे नौकरी से निवृत्त करने में भी अभी काफी देर थी। वह पागल हो गया था। लेकिन अपने काम को जारी रखे हुए था, बल्कि और भी मुस्तैदी से। पागल काम करने में बड़े कर्मठ हो जाते हैं, वे जो भी करते हैं पूरी ताकत से करते हैं। वह और भी जोर से निरीक्षण करने लगा था। अब वह बैठता ही नहीं था घर पर। वह गांव-गांव निरीक्षण करता घूमता था। और हर स्कूल के रजिस्टर में उस स्कूल का रिकॉर्ड खराब करता था, क्योंकि उसके प्रश्र्नों के उत्तर देने बिलकुल असंभव थे।
वह उस गांव में भी आया जिसकी मैं बात कर रहा हूं। उस गांव का अध्यापक डरा हुआ था, प्रधान अध्यापक डरा हुआ था, बच्चे डरे हुए थे कि क्या होगा! वह आया। और जो सबसे बड़ी कक्षा थी उस स्कूल की उसमें जाकर उसने कुछ प्रश्र्न पूछे। सबसे पहले उसने यह कहा कि जो प्रश्र्न मैं पूछ रहा हूं, इसका कोई भी अब तक उत्तर नहीं दे पाया है। अगर तुम बच्चों में से किसी ने भी इसका उत्तर दे दिया, तो फिर मैं दूसरा प्रश्र्न नहीं पूछूंगा। क्योंकि एक चावल को ही परख लेना काफी होता है, बाकी चावलों के पके होने का पता चल जाता है। अगर तुम इसका उत्तर न दे सके, तो मैं और प्रश्र्न भी पूछूंगा, लेकिन वे फिर इससे भी ज्यादा कठिन हैं। उसने प्रश्र्न पूछा। उसने पूछा कि दिल्ली से एक हवाई जहाज कलकत्ते की तरफ उड़ा, वह घंटे भर में दौ सौ मील चलता है, तो क्या तुम हिसाब लगा कर बता सकते हो कि मेरी उम्र क्या है?
वे सारे बच्चे घबड़ा गए। बच्चे क्या, बूढ़े होते तो वे भी घबड़ा जाते। इससे कोई संबंध नहीं था। प्रश्र्न बिलकुल असंगत था। उसमें कोई संबंध ही नहीं था। दिल्ली से हवाई जहाज जाए कलकत्ता, किसी रफ्तार से जाए, इससे क्या संबंध था उसकी उम्र का? लेकिन बड़ी और हैरानी की बात हुई जब एक बच्चे ने हाथ हिलाया उत्तर देने के लिए। तब तो अध्यापक और प्रधान अध्यापक और भी हैरान हुए। उसका प्रश्र्न तो पागलपन का था, लेकिन एक बच्चा उत्तर देने को भी राजी था। जब उसने हाथ हिलाया था, इंस्पेक्टर बहुत खुश हुआ और उसने कहा कि यह पहला मौका है कि ऐसा बुद्धिमान बच्चा मुझे मिला जिसने हाथ हिलाया उत्तर देने के लिए। खड़े होओ और उत्तर दो।
उस बच्चे ने कहा: यह उत्तर मैं ही दे सकता हूं। और आप सारी जमीन पर घूम लेते तो भी यह उत्तर नहीं मिल सकता था। जैसे आपका प्रश्र्न आप ही कर सकते हैं, यह उत्तर भी सिर्फ मैं ही दे सकता हूं।
उसने कहा कि कितनी है मेरी उम्र?
उस लड़के ने कहा: आपकी उम्र चवालीस वर्ष है।
वह इंस्पेक्टर हैरान हो गया। उसकी उम्र चवालीस वर्ष थी! उसने कहा: किस विधि से तुमने यह गणित हल किया?
उसने कहा: बहुत आसान है। मेरा बड़ा भाई आधा पागल है, उसकी उम्र बाइस वर्ष है; तो बिलकुल ही आसान सवाल है, आपकी उम्र चवालीस वर्ष होनी ही चाहिए!
यह ईश्र्वर के संबंध में, आत्माओं के संबंध में, परलोक, स्वर्ग और नरक और मोक्ष के संबंध में जो प्रश्र्न पूछे गए हैं, वे इस पागल के प्रश्र्न से भी ज्यादा असंगत हैं। और इनके उत्तर देने वाले भी मिल गए हैं। यह कितनी असंगत बात है कि हम पूछें: ईश्र्वर कैसा है? कहां है? कहां रहता है? हम, जिन्हें अपना भी पता नहीं, हम ईश्र्वर के संबंध में यह प्रश्र्न पूछें! हम, जिन्हें यह भी पता नहीं कि हम कहां हैं, कौन हैं, क्या हैं, हम यह पूछें कि ईश्र्वर क्या है, कैसा है, बिलकुल ही असंगत है।
लेकिन हमारे ये प्रश्र्न चाहे असंगत हों, इनके उत्तर देने वाले लोग भी मौजूद हैं, जो बताते हैं कि ईश्र्वर कहां है। उन्होंने नक्शे भी बनाए हैं और उन्होंने किताबें भी छापी हैं और उसमें उसका सब पता-ठिकाना दिया हुआ है। पुराने जमाने में फोन नंबर नहीं होते थे इसलिए उन्होंने नहीं लिखा। अगर वे अब फिर से नये संस्करण निकालेंगे अपनी किताबों के तो उसमें फोन नंबर भी होगा। और फिर वहां जाने की भी बहुत जरूरत नहीं है, आप घर से ही बात भी कर ले सकते हैं। उन्होंने फासले तक बताए हैं। स्वर्ग के रास्ते और नरक के रास्ते बनाए हैं। और नक्शे बनाए हैं। और मंदिरों में वे नक्शे टंगे हुए हैं। और इन सारी बातों पर अगर नक्शा बनाने वालों में विरोध है, होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह तय करना कठिन है कि किसका नक्शा ठीक है।
और अगर इन संबंधों में कि ईश्र्वर की शक्ल कैसी है, स्वभावतः चीनी में और भारतीय में झगड़ा होना स्वाभाविक है। क्योंकि चीनी जो शक्ल बनाएगा वह चीन के आदमी जैसी होगी और भारतीय जो शक्ल बनाएगा वह भारतीय आदमी जैसी होगी। और नीग्रो जो शक्ल बनाएगा उसमें वह पतले ओंठ नहीं लगा सकता: उसके बाल घुंघराले होंगे, शक्ल काली होगी और ओंठ वैसे होंगे जैसे नीग्रो के होते हैं। तो झगड़ा होना स्वाभाविक है कि ईश्र्वर के ओंठ कैसे हैं? तो भारतीयों का उत्तर दूसरा होगा और नीग्रो का उत्तर दूसरा और चीनी का उत्तर दूसरा। यह बिलकुल स्वाभाविक है। और इन झगड़ों को तय करने का, तय करने का रास्ता फिर एक ही रह जाता है कि कौन कितनी जोर से तलवार चला सकता है और कितने जोर से लोगों को मार सकता है। जो जितना ज्यादा जोर से मार सकता है और मारने में जीत सकता है उसका उत्तर सही है।
तो वह स्कूल के इंस्पेक्टर पर मत हंसिए, सारी दुनिया के इतिहास पर हंसिए, पंडितों पर हंसिए। उत्तर के सही होने का सबूत क्या है? सबूत यह है कि हम साठ करोड़ हैं और तुम बीस करोड़। सबूत यह है कि अगर तुम लड़ोगे तो हम तुम्हारी हत्या कर देंगे, तुम हमारी नहीं कर पाओगे, इसलिए हम सही हैं। इसीलिए तो सारी दुनिया के धर्म अपनी संख्या बढ़ाने के लिए पागल हैं। क्योंकि संख्या बल है। और सत्य की गवाही में संख्या के सिवाय और कौन सा बल है। इसलिए सारे दुनिया के धर्म-पुरोहित राजाओं को दीक्षित करने के लिए दीवाने और पागल रहे हैं। वह इसलिए कि राजा के पास बल है। और जो राजा जिस धर्म में दीक्षित हो जाएगा वह धर्म सत्य हो जाएगा।
और लड़ कर जो लोग यह तय करना चाहते हों कि कुरान सही है, कि बाइबिल, कि गीता, उनसे ज्यादा पागल और कौन होगा। लड़ कर जो यह तय करना चाहते हों कि कौन सही है! लड़ाई क्या किसी बात की सच्चाई का सबूत है? या कि जीत जाना कोई सच्चाई का सबूत है?
लेकिन इन उत्तरों के जो कि भिन्न-भिन्न होने स्वाभाविक हैं, क्योंकि वे मनुष्य की कल्पना से निकले हैं और मनुष्य के अपने अनुभव से निकले हैं।
अगर आप तिब्बतियों से पूछें कि नरक में क्या है, तो वे कहेंगे, नरक में बहुत ठंड है, बहुत शीत है। क्योंकि तिब्बत ठंड से परेशान है, शीत से परेशान है। तो जो-जो तिब्बत में पाप करते हैं उनको और ठंडी जगह में भेजना बिलकुल स्वाभाविक है। यह बिलकुल अनुभव की बात है कि उनको और ठंडी जगह में भेज दो जो पाप करते हैं।
लेकिन भारतीयों से पूछिए कि तुम्हारा नरक कैसा है, तो वहां पर आग की लपटें जल रही हैं, कड़ाहे जल रहे हैं, और उन कड़ाहों में, जलते हुए कड़ाहों में लोगों को डाला जा रहा है। क्योंकि हम गर्मी से परेशान हैं, सूरज तप रहा है, तो हमारा नरक गरम होगा। यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह हमारा अनुमान बिलकुल स्वाभाविक है। हम अपने पापी को ठंडी जगह नहीं भेज सकते। ठंडी जगह तो हम अपने मिनिस्टरों को भेजते हैं। ठंडी जगह तो हम अपनी राजधानियां बदलते हैं। पापियों को ठंडी जगह भेजेंगे तब तो बड़ा गड़बड़ हो जाएगा। पापियों को हम गरम जगह भेजेंगे। यह हमारी कामना गरम जगह भेजने की, उनको सताने की हमारे नरक का निर्माण बन जाती है, नरक हमारा गरम हो जाता है। यह हमारा अनुमान है। इस अनुमान से नरक के होने का न पता चलता है कि वह गरम है या ठंडा है, या है भी या नहीं, इससे केवल एक बात पता चलती है कि किस कौम ने और किस तरह के लोगों ने यह कल्पना की है।
तो हमारे शास्त्र यह नहीं बताते कि सत्य कैसा है, हमारे शास्त्र यह बताते हैं कि उनको बनाने वाले लोग कैसे हैं। हमारी कल्पनाएं सत्य के संबंध में यह नहीं बतातीं कि सत्य कैसा है, वे यह बताती हैं कि इसकी कल्पना करने वाले लोग किस स्थिति में हैं, किस मनोदशा में हैं वे लोग, उनकी सूचना मिलती है। और फिर हम इन पर लड़ाइयां लड़ते हैं, इन अनुमानों पर। और इन अनुमानों और शास्त्रों पर सारी दुनिया विभाजित खड़ी है। और इन हवाई बातों पर हम एक-दूसरे की हत्या करते रहे हैं। लेकिन हम लोगों को समझाते रहे हैं कि तुम मरो, फिकर मत करो, जो धर्म के लिए मरता है वह स्वर्ग जाता है। और तब ऐसे नासमझ खोज लेने कठिन नहीं हैं, जो कि स्वर्ग जाने की उत्सुकता में जमीन को बर्बाद करने के लिए राजी हो जाएं। और ऐसे पागल जमीन पर काफी हैं, जिन्हें शहीद होने में बहुत मजा आ जाए।
और यह सारा हमारा इतिहास, ऐसे झूठे ईश्र्वरों के आस-पास, इर्द-गिर्द निर्मित हुआ है। शब्दों के आस-पास, अनुमानों के आस-पास। सत्य के निकट नहीं है। सत्य के निकट कोई संगठन खड़ा नहीं हो सकता। संगठन हमेशा झूठ के करीब ही खड़े हो सकते हैं।
सत्य के इर्द-गिर्द कोई संगठन, कोई आर्गनाइजेशन खड़ा नहीं हो सकता। नहीं हो सकता इसलिए कि सत्य का अनुभव अत्यंत वैयक्तिक है। समूह से उसका कोई संबंध नहीं है। दस आदमी इकट्ठे बैठ कर सत्य का अनुभव नहीं कर सकते। भीड़ से उसका कोई वास्ता नहीं है। एक व्यक्ति अपने एकांत में, तनहाई में, अकेलेपन में अपने भीतर डूबता है, शांत होता है, मौन होता है और उसे जानता है। व्यक्ति, और व्यक्ति ही केवल सत्य को जानते हैं, समूह और समाज नहीं। इकट्ठे होकर सत्य को नहीं जाना जा सकता। इकट्ठे होकर संगठन बनाया जा सकता है, लेकिन इकट्ठे होकर धर्म को नहीं पाया जा सकता।
संगठनों का ईश्र्वर मर गया है! मर जाना चाहिए! लेकिन धर्म का ईश्र्वर? वह बात ही और है। वही अकेला जीवन है। वही अकेला जीवन है! उसके अतिरिक्त तो सब मृत है। उसके अतिरिक्त तो कुछ है ही नहीं। उसको जानने के लिए संगठन में नहीं, साधना में जाना जरूरी है। साधना अकेले की बात है, संगठन भीड़ और समूह की। और हम सारे लोग अब तक धर्म को समूह और संगठन की बात समझते रहे हैं। हम समझते हैं कि हिंदू हो जाना धार्मिक हो जाना है। मुसलमान हो जाना, पारसी हो जाना धार्मिक हो जाना है। कैसी पागलपन की बातें हैं! किसी एक संगठन के हिस्से हो जाने से कोई धार्मिक होता है?
धार्मिक होने का अर्थ ही कुछ उलटा है इससे। संगठन का हिस्सा होकर कोई धार्मिक नहीं होता, बल्कि संगठनों से जो मुक्त हो जाता है वह धार्मिक हो जाता है। समाज का हिस्सा होकर कोई धार्मिक नहीं होता, लेकिन अपने चित्त में जो समाज से परिपूर्णतया स्वतंत्र हो जाता है वही धार्मिक होता है। समाज और संगठन में तो हम किन्हीं और कारणों से इकट्ठे होते हैं–किसी भय के कारण, किसी सुरक्षा के लिए, किसी घृणा के लिए, किसी से लड़ने के लिए इकट्ठे होते हैं। इस भय के कारण कि मैं अकेला बहुत कमजोर हूं, मैं दस लोगों के साथ हो जाऊं।
एक फकीर को, मंसूर को फांसी लगाई जा रही थी। लोग उसके हाथ काट रहे थे। लाखों लोग इकट्ठे थे और पत्थर फेंक रहे थे। और वही व्यवहार कर रहे थे जो ईश्र्वर के आदमी के साथ हमेशा तथाकथित धार्मिक लोग करते हैं। उसकी आंखें फोड़ डाली थीं, उसके पैर काट डाले थे, उस पर पत्थर फेंक रहे थे। लेकिन वह मुस्कुरा रहा था और वह परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था। लेकिन तभी एक फकीर ने भी–जो उस भीड़ में खड़ा था–एक मिट्ठी का ढेला उठा कर उसकी तरफ फेंका। मंसूर अब तक मुस्कुरा रहा था। उसकी आंखें फोड़ दी गई थीं, उनसे खून बह रहा था। उसके पैर काट दिए गए थे। वह मरने के करीब था। उस पर पत्थर मारे जा रहे थे, जो उसके शरीर को क्षत-विक्षत कर रहे थे। लेकिन वह हंस रहा था। और उसकी आंखों में, उसके ओंठों पर, उसके हृदय में, इस सारी पीड़ा और दुख के बीच भी प्रार्थना और प्रेम था। लेकिन एक मिट्टी का ढेला एक फकीर ने भी फेंका, जो भीड़ में खड़ा था, और मंसूर रोने लगा।
लोग बड़े हैरान हुए। और एक आदमी ने पूछा कि तुम्हें इतना सताया गया और तुम नहीं रोए और एक छोटे से मिट्टी के ढेले को फेंकने से?
उसने कहा: और सबको तो मैं सोचता था नासमझ हैं, इसलिए परमात्मा से उनके लिए प्रार्थना कर रहा था, इसलिए मुझे कोई दुख नहीं था। लेकिन एक आदमी यहां खड़ा है, फकीर, वह वस्त्र पहने हुए है परमात्मा के, और उसने भी मुझे पत्थर मारा तो मुझे हैरानी हुई। तो मेरी आंखों में आंसू आ गए। कि जब फकीर भी पत्थर मारेगा, फिर दुनिया का क्या होगा?
लेकिन फकीर तो बहुत दिन से पत्थर मार रहे हैं। और इसलिए तो दुनिया का यह हाल हो गया है जो हुआ है। भीड़ बिखर गई। वह आदमी मंसूर तो मर गया, उसकी सुवास तो उड़ गई। उस फकीर से कुछ दूसरे फकीरों ने पूछा कि तुमने पत्थर क्यों मारा? उसने कहा: भीड़ का साथ देने के लिए। अगर मैं भीड़ का साथ न देता तो लोग समझते कि पता नहीं यह भी मंसूर को पसंद करता है। उन फकीरों ने कहा: पागल! अगर साथ ही देना था तो उसका देना था जो अकेला था। साथ भी दिया उनका जो बहुत थे! उन फकीरों ने उससे कहा: तू फकीरी के कपड़े छोड़ दे, क्योंकि जो भीड़ से डरता है वह धार्मिक नहीं हो सकता।
जो भीड़ से डरता है वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता! क्योंकि अगर भीड़ ही धार्मिक होती तो दुनिया में अधर्म कहां होता। अगर भीड़ ही धार्मिक होती तो फिर अधर्म और कहां होता। भीड़ तो अधार्मिक है। इसलिए जो भीड़ से भयभीत है और भीड़ का अंग बना रहता है, वह कभी भी धार्मिक नहीं हो पाएगा। भीड़ से मन तो मुक्त होना चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि मैं आपसे यह कह रहा हूं कि आप भीड़ को छोड़ दें और जंगलों में चले जाएं। जमीन बहुत छोटी है, अगर सारे लोग जंगलों में चले गए तो वहां बस्तियां बस जाएंगी। उससे कोई फर्क न पड़ेगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि आप गांव छोड़ दें और जंगलों में चले जाएं। कुछ लोगों ने यह गलती भी की है–कि जब उनको यह कहा जाता है कि तुम भीड़ से मुक्त हो जाओ, तो वे भीड़ को छोड़ कर भागने लगते हैं।
भागने वाला कभी मुक्त नहीं होता। भागने वाला भी डरने वाला है। अगर मुक्त होना है तो बीच में रहो और मुक्त हो जाओ। वह तो अभय का, फियरलेसनेस का सबूत होगा।
दो तरह के लोग हैं। भीड़ में रहते हैं तो भीड़ से दब कर और डर कर रहते हैं। यही डरे हुए लोगों को जब कभी यह खयाल पैदा होता है कि हम मुक्त हो जाएं, तो ये जंगल की तरफ भागते हैं, क्योंकि वहां भीड़ ही नहीं रहेगी तो डराएगा कौन?
सवाल यह नहीं है कि डराने वाला न हो, सवाल यह है कि आप डरने वाले न रहें। इसलिए जंगल जाने से कुछ भी नहीं होगा। जो जंगल भागते हैं, भयभीत हैं, डरे हुए लोग हैं।
जिंदगी से भागने वाला धर्म सच्चा धर्म नहीं हो सकता।
जिंदगी के बीच, जहां जीवन चारों तरफ है, वहीं, वहीं मुक्त हुआ जा सकता है।
मुक्त होने का मतलब कोई शारीरिक और बाह्य मुक्ति नहीं है। मुक्त होने का मतलब है मानसिक स्वतंत्रता। मुक्त होने का मतलब है मानसिक गुलामी को तोड़ देना। मुक्त होने का मतलब है भीड़ ने जो विश्र्वास दिए हैं, जो बिलीफ्स दी हैं, उनसे छूट जाना। भीड़ ने जो बातें पकड़ा दी हैं–हिंदू होना, मुसलमान होना, इस मंदिर को पवित्र मानना, उस मंदिर को पवित्र नहीं मानना, ये जो बातें पकड़ा दी हैं, ये जो शब्द पकड़ा दिए हैं, ये जो सिद्धांत पकड़ा दिए हैं, इनसे मुक्त हो जाना। और मन की उस स्वतंत्रता को पाकर सत्य की निजी वैयक्तिक खोज शुरू करनी है।
जो व्यक्ति दूसरों से उधार सत्यों को स्वीकार करके चुप हो जाता है, उस आदमी की खोज सत्य के लिए नहीं है, क्योंकि सत्य कभी भी उधार नहीं हो सकता, वह बॉरोड कभी भी नहीं हो सकता। जो भी चीज उधार ली जा सकती है वह संसार की होगी। और जो चीज कभी उधार नहीं पाई जा सकती वही केवल परमात्मा की हो सकती है। परमात्मा को उधार नहीं लिया जा सकता। परमात्मा कोई ऐसी चीज नहीं है कि ट्रांसफरेबल हो कि मैंने आपको दे दी और आपने किसी और को दे दी है।
जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जीवन में जो भी सत्य है, जीवन में जो भी सुंदर है, जीवन में जो भी शिव है, वह कुछ भी एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता। उसे तो सीधे, स्वयं ही, अपनी खोज, अपने प्राणों के आंदोलन, अपने हृदय की प्रार्थनाओं, अपने जीवन की प्यास से ही पाना होता है। वह निजी और वैयक्तिक खोज है।
समूह का ईश्र्वर मर गया है! मर जाने दें। सहारा दें कि वह मर जाए।
व्यक्ति का, एक-एक इकाई का, एक-एक मनुष्य का ईश्र्वर ही सच्चा ईश्र्वर हो सकता है।
संगठन का ईश्र्वर गया है! जाने दें, उसे रोकें न। घबड़ाएं न कि उसके जाने से दुनिया से धर्म चला जाएगा। उसके होने की वजह से दुनिया में धर्म नहीं आ सका है। उसे जाने दें।
और उस ईश्र्वर की आकांक्षा करें, उस ईश्र्वर की अभीप्सा करें, उस ईश्र्वर के लिए प्रार्थना और प्रेम से भरें जो व्यक्ति का है, इकाई का है, समूह का और संगठन का नहीं है। मर जाने दें हिंदू को, मुसलमान को; मर जाने दें जैन को, बौद्ध को। विदा हो जाने दें दुनिया से। कोई जरूरत नहीं है। एक-एक व्यक्ति के ईश्र्वर को और एक-एक व्यक्ति के धर्म को जन्म देना है।
समूह के ईश्र्वर में बड़ी सुविधा है। आपको बिना खोजे धार्मिक होने का मजा आ जाता है। बिना जाने जानने का सुख मिल जाता है। बिना धार्मिक हुए धार्मिक होने का अहंकार तृप्त हो जाता है। रोज सुबह उठ कर किसी मंदिर में हो आते हैं और अकड़ से चलते हैं कि मैं धार्मिक हूं। रोज सुबह किसी किताब को उठा कर पढ़ लेते हैं और जानते हैं कि मैं धार्मिक हूं। अगर ये रोज सुबह से किताबों को पढ़ने वाले लोग धार्मिक हैं, अगर ये रोज मंदिरों में जाने वाले लोग धार्मिक हैं, तो यह दुनिया में इतना अधर्म क्यों है? यह अधर्म कहां से आ रहा है?
सच तो यह है कि जो आदमी एक ही किताब को पचास वर्ष तक रोज-रोज पढ़ता रहा है, मैं निवेदन करूंगा कि उसने उस किताब को एक भी दिन नहीं पढ़ा होगा, क्योंकि अगर पढ़ लिया होता, तो फिर दुबारा दोहराने की कोई जरूरत नहीं थी। अगर उसने जान लिया होता, तो दुबारा, दुबारा का कोई सवाल नहीं था। लेकिन उसे रोज दोहराता रहा है, मशीन की भांति, यंत्र की भांति। पहले दिन जब उसने पढ़ा होगा तब शायद कुछ समझा भी हो, पचास वर्ष तक पढ़ने के बाद वह जो पढ़ेगा कुछ भी नहीं समझेगा, क्योंकि अब तो वह यंत्र की भांति दोहराने में समर्थ हो गया है। अब उसे किताब पढ़ने की जरूरत नहीं है। अब तो उसके पास शब्द इकट्ठे हो गए हैं, जिनको वह दोहरा ले सकता है।
हमारा धर्म इन शब्दों का और संगठनों का धर्म रह गया है। ऐसे धर्म से मनुष्य के लिए कोई भविष्य नहीं है। ऐसे धर्म को जाने दें।
तो मैंने उस आदमी को उस पहाड़ पर कहा था,जरूर मर गया है ईश्र्वर, लेकिन यह चिंता की बात नहीं, यह खुशी का अवसर है, यह स्वागत के योग्य घटना है। क्योंकि इससे यह संभावना बनती है कि शायद हम उस ईश्र्वर को खोज सकें जो कि वस्तुतः है। शायद हम उस धर्म को जान सकें, शायद हमारे प्राण उस धर्म की ओर गतिमान हो सकें जो कि जीवन को रूपांतरित कर दे, जिसके द्वारा जीवन प्रेम से और आनंद से भर जाए और आलोक से, तो हम कहेंगे, तो हम कहेंगे कि वह धर्म है। और जिसके द्वारा जीवन इन सारी बातों से न भरा हो और अंधकार अपनी जगह रहा हो, और धर्म की पूजाएं और प्रार्थनाएं एक तरफ चलती रही हों और दुनिया की दीनता और दरिद्रता और दुख और दुर्भाग्य कोई भी परिवर्तित न हुआ हो और मनुष्य वैसा का वैसा हो, वैसा का वैसा जैसा हजारों-हजारों साल पहले था, ऐसे धर्म को, ऐसे धर्म को लेकर क्या करेंगे? ऐसे धर्म को जिंदा रख कर क्या करेंगे?
एक फकीर एक सुबह एक मस्जिद के पास से निकलता था। अंधा था, आंखें नहीं थीं। उसने मस्जिद के द्वार पर हाथ फैलाए और कहा कि मुझे कुछ मिल जाए। किसी राह चलते ने कहा कि तू पागल है! यह तो मस्जिद है, यहां क्या मिलेगा? यह तो परमात्मा का घर है, कहीं और मांग।
वह फकीर भी अजीब रहा होगा। उसने कहा कि जब परमात्मा के घर से कुछ न मिलेगा तो फिर किस घर से मिलेगा? वह वहीं बैठ गया वह अंधा आदमी। और उसने कहा कि अब तो यहां से तभी विदा होऊंगा जब कुछ मिल जाए। क्योंकि यह तो आखिरी घर आ गया, अब इसके आगे घर कहां? और अगर यहां नहीं मिलने वाला है, तो फिर हाथ फैलाए रखने व्यर्थ हैं। फिर अब आगे कहां जाऊं? यह तो अंतिम घर आ गया। इसके बाद और घर कौन सा है?
वह वहीं रुक गया। आंखें उसकी जरूर अंधी रही होंगी, लेकिन हमसे ज्यादा देखने की उसमें ताकत रही होगी। उसने अपने हाथ उठा दिए। एक वर्ष वह उस द्वार से नहीं हटा। दिन आए और गए! रातें आईं और गईं! वर्षा आई और बीत गई! मौसम आए और गए! चांद उगा और ढला! लोग हैरान थे, वह फकीर बैठा था, वहां बैठा था! कोई दे जाता था तो भोजन कर लेता था, कोई पानी दे जाता था तो पानी पी लेता था, लेकिन उस द्वार से नहीं हटा। और वर्ष पूरा होते-होते एक दिन सुबह लोगों ने देखा कि वह नाच रहा है और उसकी अंधी आंखों में भी एक अदभुत, अदभुत सौंदर्य की झलक मालूम हो रही है और उसके मुर्झाए चेहरे में कोई नया जीवन आ गया है। और उसने लकड़ी फेंक दी है और वह नाच रहा है और वह कुछ गीत गा रहा है और वह कृतज्ञता के शब्द बोल रहा है।
लोगों ने पूछा: क्या हुआ है?
उसने कहा: अब यह मुझसे मत पूछो। अब मुझे देखो और समझो। अब यह मुझसे मत पूछो कि क्या हुआ है? अब मुझे देखो और समझो। मेरी अंधी आंखों में दिखाई पड़ने लगा है। अब मैं देख रहा हूं। तुमको नहीं, बल्कि उसको जो तुम्हारे भीतर है। अब मैं देख रहा हूं उसको जिसकी खोज थी। और अब मैं देख रहा हूं कि कहीं कोई मृत्यु नहीं है। और अब मैं देख रहा हूं कि कहीं कोई दुख नहीं है। और मैं देख रहा हूं कि मैं तो मिट गया हूं, लेकिन मिट कर भी मैंने कुछ पा लिया है। जो उससे बहुत ज्यादा बहुमूल्य है, जो मैंने खोया। मैंने ना-कुछ खोया और मैंने सब-कुछ पा लिया है। लेकिन यह मुझसे मत पूछो। और लोगों ने देखा कि उससे पूछने की कोई भी जरूरत न थी। उसका आनंद कह रहा था, उसका संगीत कह रहा था, उसका गीत कह रहा था, उसका नृत्य कह रहा था।
अगर दुनिया में धर्म होगा, तो लोगों का आनंद कहेगा, लोगों का प्रेम कहेगा, लोगों के गीत कहेंगे। अभी तो लोगों के पास सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं है, और उनके हृदय में सिवाय अंधकार के और कुछ भी नहीं है, और उनके मस्तिष्क सिवाय, सिवाय उलझन, तनाव और अशांति के किसी चीज से परिचित नहीं हैं। यह जमीन के लोगों का हाल है! इस हालत में कैसे धर्म हो सकता है!
इसलिए जो धर्म हैं, वे धर्म नहीं होंगे। लोगों के आंसू इसके सबूत हैं, उनका अंधकार इसका सबूत है। तो यह आंसुओं और अंधकार वाला ईश्र्वर मर गया तो अच्छा!
प्रकाश वाले ईश्र्वर का जन्म कैसे हो सकता है, यह आने वाली चर्चाओं में मैं आप से बात करूंगा।
लेकिन एक बात कह दूं: मेरी बातों से उसका जन्म नहीं हो सकता। मेरी बातें उसके लिए ज्ञान नहीं बन सकती हैं। इसलिए और लोगों को आप सुनने जाते होंगे, वे देते होंगे आपको ज्ञान, मैं इन तीन दिनों में कोशिश करूंगा कि आपका सब ज्ञान छीन लूं और आप अज्ञानी हो जाएं।
परमात्मा करे, आपका सब ज्ञान छिन जाए और आप अज्ञान की सरलता में खड़े हो जाएं, तो शायद, शायद उसे जान सकें जो कि सत्य है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और सबसे अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।