UPANISHAD
Kya Ishwar Mar Gaya Hai 02
Second Discourse from the series of 8 discourses – Kya Ishwar Mar Gaya Hai by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
कल संध्या एक बात मैंने आपसे कही है। उस संबंध में ही बहुत से प्रश्र्न उपस्थित हुए हैं।
मैंने कल आपको कहा कि ‘ईश्र्वर मर गया है!’ और यह घटना सौभाग्यपूर्ण है। क्योंकि जो ईश्र्वर मर गया है, वह ईश्र्वर ही नहीं था। जो मर सकता है, वह ईश्र्वर नहीं है। जो अमृत है, सदा है और शाश्र्वत है, वही ईश्र्वर है।
लेकिन उस शाश्र्वत ईश्र्वर को जानने के लिए ईश्वर को बनाना नहीं पड़ता है, वरन मनुष्य को स्वयं ही मिटना पड़ता है। उस शाश्र्वत ईश्र्वर को पाने के लिए मनुष्य को ईश्र्वर निर्मित नहीं करना होता, वरन स्वयं को ही पिघला देना होता है और मिटा देना होता है।
मनुष्य मिटता है, तो ईश्र्वर उपलब्ध होता है। मनुष्य जब स्वयं को खोता है, तो परमात्मा को पाता है।
जो ईश्र्वर मर गया है, वह मनुष्य के द्वारा निर्मित ईश्र्वर था। मनुष्य ने जिसे बनाया है, वह मिटेगा। उस अनबनाए को, अनक्रिएटेड को जानना हो, जो कि नहीं मिटता है, तो मनुष्य को स्वयं को खोना जरूरी है।
रामकृष्ण एक छोटी सी कहानी कहा करते थे। वे कहते थे, एक समुद्र के किनारे एक बार बहुत लोगों की भीड़ इकट्ठी हुई, कोई मेला था, और वे सभी लोग यह विचार करने लगे कि समुद्र की गहराई कितनी है? और तभी एक नमक का पुतला भी वहां आया और उसने कहा कि ठहरो! मैं जाता हूं और गहराई का पता लगा कर अभी आता हूं।
वह नमक का पुतला सागर में कूद गया। फिर दिन आए और गए, सूरज उगा और डूबा, धीरे-धीरे मेला उजड़ गया, भीड़ छंट गई, लोग अपने घरों को वापस लौट गए। वह पुतला वापस नहीं लौटा। बहुत प्रतीक्षा रही कि वह लौटे और बताए कि सागर कितना गहरा है। लेकिन वह नहीं लौटा। वह नहीं लौट सकता था। अगर लौट आता, तो उसका अर्थ होता कि सागर का उसके साथ स्पर्श नहीं हुआ। और अगर सागर का स्पर्श हुआ और सागर की गहराई उसने जानी, तो इस जानने में ही वह विलीन हो गया। नमक का पुतला था, खो गया!
मनुष्य भी परमात्मा में उतरते समय नमक के पुतले से ज्यादा नहीं है। सागर नमक से बना है, नमक सागर से बनता है। मनुष्य परमात्मा से बना है। यह मनुष्य खोजने जाएगा परमात्मा को, तो खो जाएगा; वैसे ही जैसे नमक का पुतला सागर में खो जाता है।
इसलिए मनुष्य ने एक तरकीब ईजाद की ईश्र्वर से बचने की और वह यह है: ईश्र्वर को खोजना उसने बंद कर दिया और ईश्र्वर को बनाना शुरू कर दिया। ऐसे मनुष्य बच गया और ईश्र्वर भी निर्मित कर लिया गया। स्वभावतः बहुत प्रकार के ईश्र्वर निर्मित हो गए–हिंदू के, मुसलमान के, ईसाई के, जैन के, बौद्ध के। हजार-हजार प्रकार के ईश्र्वर निर्मित हो गए। अपनी-अपनी रुचि के भगवान सभी लोगों ने बना लिए।
ये जो ईश्र्वर हैं, मैंने कल कहा, ये मर गए हैं! और यह शुभ है!
तो मुझसे बहुत से प्रश्र्न पूछे हैं, जिनमें अधिक इसी बात से संबंधित हैं, उनका मैं पहले आपको उत्तर दूंगा।
पूछा है:
भगवान, यह कैसे पता चला है कि यह ईश्र्वर मर गया?
मनुष्य को देख कर यह पता चलता है कि ईश्र्वर मर गया है। कहीं खोजने से ईश्र्वर की लाश नहीं मिलेगी। और किसी कब्र पर लगा हुआ पत्थर नहीं मिलेगा कि यहां वह दफनाया गया है। और न जमीन के कोने-कोने में खोज लेने पर यह पता लगेगा कि कौन से लोग गवाह हैं जिनके सामने वह मरा हो। नहीं; ईश्र्वर के मर जाने की गवाही तो हम सारे लोग हैं–एक-एक आदमी! जीवन में इतना दुख, जीवन में इतना अंधकार, जीवन में इतनी पीड़ा और इतनी अशांति किस बात की सूचना है? इस बात की कि जो आनंद का स्रोत था, जो जीवन में प्रकाश का स्रोत था, उससे हमारे संबंध विच्छिन्न हो गए हैं। वह संबंध टूट गया है।
एक रात एक घर में एक अंधा आदमी मेहमान हुआ। आधी रात बीत जाने पर जब वह विदा होने लगा, तो घर के लोगों ने कहा: रास्ता अंधेरा है, अमावस की रात है, तुम एक लालटेन हाथ में लेते चले जाओ।
वह अंधा आदमी हंसने लगा, जैसा कि स्वाभाविक था। उसने कहा कि मेरे हाथ में लालटेन होने या न होने से क्या फर्क पड़ेगा? मैं तो अंधा हूं, रात अंधेरी है या उजाली और दिन है या रात, इससे भी फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिए तो सब अंधेरा है। और हाथ में लालटेन भी होगी तो क्या होगा? आकाश में सूरज होता है, तब भी कुछ नहीं होता।
बात तो उसकी ठीक थी। लेकिन घर के लोग भी बड़े तार्किक थे, वे मानने को राजी न हुए। उन्होंने कहा कि यह तो सच है कि तुम्हारे हाथ में, तुम्हारी आंखों के लिए, लालटेन से कोई फर्क न पड़ेगा। लेकिन दूसरे अंधेरे में आते हुए लोगों को तो लालटेन दिखाई पड़ेगी, वे तो कम से कम तुमसे टकराने से बच जाएंगे। इतना भी क्या कम है!
और इस दलील के सामने उस अंधे आदमी को हार जाना पड़ा। वह लालटेन लेकर निकला। लेकिन वह कोई सौ कदम ही गया होगा कि कोई आदमी उससे आकर टकरा गया। वह बहुत हैरान हुआ। उसने पूछा कि मेरे मित्र, क्या आप भी अंधे हो? मेरे हाथ की लालटेन दिखाई नहीं पड़ती?
उस दूसरे आदमी ने कहा कि महानुभाव, आपकी लालटेन बीच में कहीं बुझ गई है।
अंधे आदमी को कैसे पता चले कि लालटेन बुझ गई है! आप पूछते हैं कि ‘हमें कैसे पता चले कि ईश्र्वर मर गया है?’ अंधे आदमी को कैसे पता चले कि लालटेन बुझ गई है? इस बात से पता चलेगा कि टक्कर हो गई। टक्कर हो गई है, इस बात का सबूत है कि लालटेन बुझ गई है।
और हम सबकी एक-दूसरे से टक्कर हो रही है, क्या यह ईश्र्वर के मर जाने का सबूत नहीं है? यह लालटेन के बुझ जाने का सबूत है।
हम जिंदगी में कर क्या रहे हैं?
जी रहे हैं या लड़ रहे हैं? प्रेम कर रहे हैं या क्रोध कर रहे हैं? एक-दूसरे को दे रहे हैं या छीन रहे हैं? एक-दूसरे के जीवन में सहयोगी हैं या शत्रु हैं? इस बात से सबूत मिलेगा कि ईश्र्वर मर गया है या नहीं मर गया। इसे पूछने किसी और से मत जाना कि ईश्र्वर मर गया है या नहीं मर गया। अपनी जिंदगी को देख लेना। और अगर वह आस-पास टकराहट पैदा करती हो, घृणा पैदा करती हो, क्रोध और हिंसा पैदा करती हो, तो जानना कि हाथ की लालटेन बुझ गई है और हमारे संबंध टूट गए हैं जीवन के स्रोत से। इसे खोजने कहीं और जाने की किसी को भी कोई जरूरत नहीं है।
तो मुझे कैसे पता चला कि ईश्र्वर मर गया है?
आदमी को देख कर पता चलता है। आदमी ईश्र्वर की कब्र बन गया है। और क्या बड़ी खबर हो सकती है? और इससे बड़ी और क्या खबर हो सकती है कि आदमी एक मुर्दे की भांति जी रहा है? उसके भीतर राख है और जीवन की कोई आग नहीं। उसके भीतर सब मुर्दा-मुर्दा है। जीवंत और जलता हुआ कुछ भी नहीं, सब बुझा-बुझा है। यह खबर है, यह सूचना है। और अगर यह भी सूचना नहीं है, तो फिर अब और क्या सूचना इससे बड़ी हो सकती है?
पूछा है कि अगर ईश्र्वर मर गया है, तो क्या हम निराश हो जाएं?
नहीं। ईश्र्वर के मरने से निराश होने का कोई भी संबंध नहीं है। बल्कि यदि झूठा ईश्र्वर, जिसे हम ईश्र्वर समझते रहे, समाप्त हो गया हो, तो सच्चे ईश्र्वर की खोज शुरू हो सकती है। हीरों के दुश्मन पत्थर नहीं हैं, नकली हीरे हैं। पत्थरों ने हीरों से कोई दुश्मनी नहीं की है। उनसे उनका कोई नाता-रिश्ता ही नहीं है। नकली हीरे हीरों के दुश्मन हैं। ईश्र्वर से उन लोगों का विरोध नहीं है जो कहते हैं ईश्र्वर नहीं है, ईश्र्वर की शत्रुता वे लोग कर रहे हैं जिन्होंने झूठे ईश्र्वर गढ़ लिए हैं। उन्होंने मनुष्य को सच्चे ईश्र्वर तक जाने से हमेशा के लिए रोक लिया है।
इसलिए नास्तिकों से मत घबड़ाना। नास्तिक तो एक दिन अपनी नास्तिकता की पीड़ा से ही आस्तिक हो जाएगा। और कोई अगर नास्तिक है पूरा-पूरा, तो बहुत दिन तक नास्तिक नहीं रह सकता। उसकी नास्तिकता ही उसे आस्तिकता में ले जाएगी। नास्तिकता तो सीढ़ी है।
लेकिन जो झूठे आस्तिक हैं, वे कभी आस्तिक न हो सकेंगे। क्योंकि उन्हें नास्तिकता की सीढ़ी ही उपलब्ध नहीं हुई जिसे पार करके कोई आस्तिक हो सकता है। जिसने कभी पूरे मन से ईश्र्वर की प्रचलित धारणाओं पर संदेह नहीं किया, वह आदमी कभी भी सच्चे ईश्र्वर की तरफ गतिमान नहीं हो सकेगा। क्योंकि संदेह ही वह शक्ति थी जो झूठे ईश्र्वर को गिरा देती। उसने संदेह की उस शक्ति का प्रयोग नहीं किया। उसने झूठे ईश्र्वर का ही विश्र्वास कर लिया, प्रचलित धारणा का विश्वास कर लिया। जैसे और सारे लोग विश्र्वास कर रहे हैं, उसने भी विश्र्वास कर लिया।
पूछा है एक प्रश्न:
कि यदि हम इस तरह संदेह से भर जाएं, तब फिर विश्र्वास कैसे पैदा होगा?
क्या आपको यह पता नहीं है कि केवल उन्हीं लोगों के जीवन में और भाग्य में विश्र्वास की संपदा मिलती है जो सम्यक रूप से संदेह करना जानते हैं? राइट डाउट करना जो जानते हैं, वे ही लोग विश्र्वास की संपदा को उपलब्ध होते हैं। वे लोग नहीं जो संदेह करने से डरते हैं। क्योंकि जो संदेह करने से डरता है, उसका विश्र्वास झूठा होगा। इसलिए वह संदेह करने से डरता है, क्योंकि वह जानता है कि संदेह किया कि विश्र्वास गया।
इसलिए झूठे विश्र्वास वाले लोग लोगों को समझाते हैं कि संदेह मत करना, क्योंकि संदेह की आग में उनके विश्र्वास, जो बिलकुल कागजी हैं, जिंदा नहीं रह सकेंगे, जल जाएंगे। इसलिए जो भी यह समझाता हो कि विश्र्वास करो, संदेह नहीं, समझ लेना कि उसका विश्र्वास झूठा है। वह संदेह की अग्नि-परीक्षा में से गुजरने को राजी नहीं है। जो विश्र्वास संदेह की अग्नि-परीक्षा में से गुजरने को तैयार है, वही सत्य है।
इसलिए इसके पहले कि आपके पास विश्र्वास आए, जान रखना कि संदेह की पगध्वनियां उसके पहले सुननी जरूरी हैं। जो समग्र हृदय से संदेह करता है, उस संदेह में ही वे विश्र्वास जल जाते हैं जो असत्य हैं और केवल वे ही सत्य निखर कर वापस लौट आते हैं जिन पर कि जीवन को आधारित किया जा सकता है और गतिमान किया जा सकता है।
इसलिए संदेह से भयभीत मत होना। संदेह से जो भयभीत हो जाता है, वह कभी धार्मिक नहीं हो पाएगा।
पूछा है कि मैंने कहा कि पुजारियों ने, पंडितों ने, धर्म-पुरोहितों ने मनुष्य को ईश्र्वर की तरफ, ईश्र्वर के ज्ञान की तरफ जाने से रोका है, तो पूछा है कि क्या पुजारी कुछ भी नहीं जानते हैं? क्या हजारों साल में उन्होंने कुछ भी नहीं जाना है? क्या वे बिलकुल अज्ञानी हैं?
नहीं; पुजारी बहुत कुछ जानते हैं। यही तो खतरा है। अगर वे अज्ञानी होते तो इतना खतरा नहीं होता। वे बहुत कुछ जानते हैं, उनके जानने में ही खतरा है।
एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात शायद समझ में आ जाए।
एक राजदरबार में सुबह ही सुबह दरबार भरता ही जाता था और एक अजनबी यात्री आया। वह किसी दूर देश का रहने वाला होगा। उसके वस्त्र पहचाने नहीं मालूम होते थे। उसकी शक्ल भी अपरिचित थी। लेकिन वह बड़ा गरिमाशाली और गौरवशाली व्यक्तित्व का धनी आदमी मालूम होता था। सारे दरबार के लोग देख कर उसकी तरफ देखते ही रह गए। उसने एक बहुत शानदार पगड़ी पहन रखी थी। वैसी पगड़ी भी उस देश में कभी नहीं देखी गई थी। उसमें बहुत रंग-बिरंगी छापें थीं। उसमें ऊपर चमकदार चीजें लगी थीं। राजा ने पूछा कि अतिथि, क्या मैं पूछ सकता हूं कि यह पगड़ी कितनी महंगी है और कहां से खरीदी गई?
उस आदमी ने कहा: यह बहुत महंगी पगड़ी है। एक हजार स्वर्णमुद्राएं मुझे खर्च करनी पड़ी हैं।
वजीर जो कि राजा के बगल में बैठा था। और वजीर जो कि स्वभावतः चालाक होते हैं, नहीं तो उन्हें कौन वजीर बनाएगा? उसने राजा के कान में कहा: सावधान! यह पगड़ी बीस-पच्चीस रुपये से ज्यादा की नहीं मालूम पड़ती है। यह हजार स्वर्णमुद्राएं बता रहा है। इसके लूटने के इरादे हैं।
उस अतिथि ने भी, वजीर ने जो कान में कहा उसे वजीर के चेहरे से पहचान लिया होगा। वह अतिथि भी कोई नौसिखिया नहीं था। उसने बहुत दरबार देखे थे और बहुत दरबारों में वजीर और राजा देखे थे। वजीर ने जैसे ही अपना मुंह राजा के कान से दूर हटाया, वह नवागंतुक बोला: क्या मैं फिर लौट जाऊं? मुझे कहा गया था कि इस पगड़ी को खरीदने वाला जमीन पर केवल एक ही सम्राट है, एक ही राजा है। क्या मैं लौट जाऊं इस दरबार से और समझ लूं कि यह दरबार वह दरबार नहीं है जिसकी कि मैं खोज में हूं? मैं कहीं और जाऊं? मैं बहुत से दरबारों से वापस लौट आया हूं। मुझे कहा गया है कि एक ही राजा है जमीन पर जो इस पगड़ी को एक हजार स्वर्णमुद्राओं में खरीद सकता है। तो क्या मैं लौट जाऊं? यह दरबार वह दरबार नहीं है?
राजा ने कहा: दो हजार स्वर्णमुद्राएं दो और पगड़ी खरीद लो।
वजीर बहुत हैरान हो गया! जब वजीर चलने लगा, तो उस आए हुए अतिथि ने वजीर के कान में कहा कि मित्र, यू मे बी नोइंग दि प्राइस ऑफ दि टर्बन, बट आइ नो दि वीकनेसेस ऑफ दि किंग्स। तुम जानते होओगे कि पगड़ी के दाम कितने हैं, लेकिन मैं राजाओं की कमजोरियां जानता हूं।
तो पादरी और पुरोहित और धर्मगुरु ईश्र्वर को तो नहीं जानते हैं, आदमी की कमजोरियां जानते हैं। आदमी की कमजोरियां जानते हैं और यही उनका खतरा है। उन्हीं कमजोरियों का शोषण चल रहा है। और आदमी बहुत कमजोर है और बड़ी कमजोरियां हैं उसकी। और उनकी कमजोरियों का शोषण है।
और स्मरण रखें, जो परमात्मा की शक्ति को जानता है, उसके लिए इस जमीन पर कोई कमजोर नहीं रह जाता और जो परमात्मा को पहचानता है, उसके लिए शोषण असंभव है।
लेकिन मनुष्य का शोषण चल रहा है–धर्म के नाम पर, मंदिर और मस्जिद के नाम पर। और हजारों-हजारों वर्षों से यह शोषण चल रहा है। और हम, हम सब उस शोषण में सहभागी हैं। यह भी हो सकता है कि हम उस शोषण को न कर रहे हों, लेकिन अगर हम उस शोषण को अपने ऊपर होने दे रहे हैं, तो हम उस शोषण को बनाए रखने में साथी हैं, संगी हैं। और जमीन पर जो भी पाप हुए हैं, कोई यह न समझे कि वह उससे बच जाएगा। जमीन पर हुए पाप हम सबके सहभाग में घटित हुए हैं। और जमीन पर जो कुछ हो रहा है, हम सब एक-एक आदमी उसके लिए जिम्मेवार है। कोई यह न सोचे कि वह बच जाएगा। कोई नहीं बच सकता। हम जाने-अनजाने साथ दे रहे हैं। हम सहयोगी हैं।
मनुष्य की कमजोरियों का शोषण राजनीतिज्ञ कर रहा है, धर्मगुरु कर रहा है, और–और न मालूम किस-किस तरह के लोग कर रहे हैं। लेकिन सबसे गहरा शोषण धर्मगुरुओं ने किया है। अभी राजनीतिज्ञ तो बहुत पीछे से आया है उस दौड़ में। बहुत पीछे से उसको यह बात समझ में आई कि यह धर्मगुरु क्या कर रहा है? तो राजनीतिज्ञ अभी पीछे-पीछे आया है। और इसलिए पीछे दिनों की जो राजनीति है, वह धर्मगुरु के विरोध में खड़ी है। उसका कोई और कारण नहीं है: दो चोर एक ही आदमी की संपत्ति पर आंख लगाए हुए हैं।
इसलिए पिछला जो राजनीतिज्ञ है, अभी-अभी, नया-नया, जो सारी दुनिया में राजनीति है, चाहे वह कम्युनिज्म हो, चाहे वह फॉसिज्म हो, चाहे वह कुछ और हो, उस सबकी टक्कर धर्मगुरु से है। क्यों है? एक ही आदमी पर दोनों का हमला है। दोनों का शिकार एक ही आदमी को बनना है–वही कमजोर आदमी। इन दोनों के बीच टक्कर पुरानी है। लेकिन अभी बहुत प्रगाढ़ हो गई है। और राजनीतिज्ञ धर्म को हटा देने की कोशिश में है। कई मुल्कों से उसने धर्म को हटा दिया है। मंदिरों से ईश्र्वर को विदा कर दिया है। उनकी जगह नये ईश्र्वर गढ़ने शुरू कर दिए हैं, नई मूर्तियां वहां स्थापित हो गई हैं, नई प्रतिमाएं वहां बन रही हैं। लेकिन आदमी का शोषण जारी रहेगा, क्योंकि आदमी की कमजोरी बरकरार है। एक ने शोषण बंद किया, तो दूसरा उस शोषण को शुरू कर देगा।
मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता हूं: धार्मिक लोग केवल वे ही हैं, जो मनुष्य की कमजोरी को समझें। और उस मनुष्य की कमजोरी के चल रहे शोषण के विरोध में एक विश्र्वव्यापी चेतना को जन्म दें।
क्या है कमजोरी मनुष्य की?
और किस-किस भांति उस कमजोरी का शोषण है?
इसे कुछ बहुत विस्तार में कहने की बात नहीं है। हम सब अपनी कमजोरी जानते हैं। और उस कमजोरी के लिए क्या-क्या प्रलोभन हमें दिए जा सकते हैं, वे भी हम जानते हैं।
हम आदमी की मृत्यु की कमजोरी जानते हैं। हर आदमी मृत्यु से डरता है। इसलिए सभी धर्म मृत्यु का बड़े पैमाने पर शोषण करते हैं। मनुष्य डरता है कि मैं मर न जाऊं, तो धर्म समझाते हैं कि आत्मा अमर है। मरते हुए आदमी को बड़ी राहत मिलती है कि आत्मा अमर है। कोई फिकर नहीं, शरीर चला जाएगा, चले जाने दो। आत्मा तो बचेगी। मैं तो बचूंगा। हम सब बचना चाहते हैं।
यह जो हम विश्र्वास कर लेते हैं कि आत्मा अमर है, तो यह मत समझना कि आपको पता चल गया है कि आत्मा अमर है। नहीं, आप मृत्यु से भयभीत हैं, इसलिए जल्दी से विश्र्वास कर लिया है कि आत्मा अमर है।
सबको पता है कि कोई नहीं मरना चाहता। इसलिए दुनिया के सभी धर्म-पुरोहित यह समझाने की कोशिश करते हैं कि घबड़ाते क्यों हो?–कोई मरता ही नहीं है, आत्मा बिलकुल अमर है। और यह मृत्यु से भयभीत मन विश्र्वास कर लेना चाहता है कि आत्मा अमर है। इसीलिए जवान आदमी जरा कम धार्मिक होता है, बूढ़ा आदमी ज्यादा धार्मिक हो जाता है। क्योंकि मौत जितने करीब आती है, उतना मृत्यु का भय करीब आता है और आत्मा की अमरता को मान लेने का मन तीव्र होने लगता है। जल्दी होती है कि मान लो, विश्र्वास कर लो। कोई नहीं मरना चाहता। यह कमजोरी है हमारे भीतर। और इसीलिए जो कौम जितनी मृत्यु से भय करने वाली होती है, वह कौम उतनी ही आत्मा की विश्र्वासी होती है, अमरता की विश्र्वासी होती है।
हमीं हैं, जमीन पर हमसे ज्यादा मौत से और कौन डरता होगा? लेकिन हमसे ज्यादा आत्मा की अमरता की घोषणा करने वाले लोग भी जमीन पर और कहीं नहीं हैं। इन दोनों बातों में संबंध है। ये दोनों बातें अलग-अलग नहीं हैं। ये दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तो शोषण है मृत्यु का, उसके भय का। आदमी असुरक्षित है। इनसिक्योरिटी है सब तरफ। कहीं कोई सुरक्षा नहीं मालूम होती। जिंदगी बहुत डांवाडोल है। कहीं कोई सहारा नहीं मिलता। आदमी बेसहारा है। आदमी का बेसहारा होना एक कमजोरी है। उस कमजोरी का शोषण धर्म करता है, पंडित-पुरोहित करता है, मंदिर और गिरजे करते हैं। वे कहते हैं, कोई फिकर न करो! बेसहारा कहां हो, भगवान का सहारा लो! भगवान का सहारा लो, भगवान का हाथ थामो! और चूंकि वे भगवान का हाथ थमाने में बीच में मध्यस्थ हैं, या जो भी उनकी दलाली हो वह उनको दे दो, तुम भगवान का हाथ थाम लो!
आदमी है अकेले में डरा हुआ, घबड़ाया हुआ। अकेले में भय मालूम होता है। जिंदगी बड़ी अकेली है, कोई संगी-साथी नहीं मालूम होता। क्षण आते हैं जब पत्नी अपनी नहीं मालूम होती, लड़का अपना नहीं मालूम होता, मित्र अपने नहीं मालूम होते। कमजोरियां, बीमारियां आती हैं, मौत करीब आती है, तब लगता है सब छूट जाएगा! धन-संपत्ति कोई अपना नहीं मालूम होता। तब पुरोहित पास में आता है और कहता है, मित्र, घबड़ाओ मत! परमात्मा साथी है, उसका नाम जपो! वह तो तुम्हारे साथ है, उसका नाम जपो! और तब इस कमजोरी का शोषण किया जा सकता है।
और यह जो परमात्मा का जाप आप करने लगते हैं, तो यह मत समझना कि परमात्मा से बहुत प्रेम आपको पैदा हो गया है इसलिए आप जाप कर रहे हैं। आप भयभीत हैं जिंदगी में अकेलेपन से, इसलिए परमात्मा का साथ खोज रहे हैं।
और ऐसे कोई साथ न मिलेगा, क्योंकि जो भयभीत है, उसका प्रेम का कभी कोई संबंध नहीं हो सकता। जो अभय है, फियरलेसनेस में जिसका चित्त है, वही केवल प्रेम कर सकता है।
भयभीत लोग कैसे प्रेम करेंगे? परमात्मा को कैसे प्रेम करेंगे? परमात्मा को कैसे जानेंगे? फियर तो कुछ भी जानने नहीं देता। लेकिन हमारे भय का शोषण किया जा रहा है, हमें समझाया जा रहा है कि भयभीत हो जाओ! गॉड फियरिंग बनो! ईश्र्वर से डरो! क्यों? क्योंकि अगर ईश्र्वर से नहीं डरोगे, तो पुजारी से कैसे डरोगे, पंडित से कैसे डरोगे, धर्म-पुरोहित से कैसे डरोगे? ईश्र्वर से भयभीत हो जाओ! और जितने भयभीत हो जाओगे, उतना ही शोषण किया जा सकता है।
अभय व्यक्ति का कोई शोषण नहीं किया जा सकता। लेकिन भयभीत व्यक्ति का शोषण किया जा सकता है। इसलिए धर्म के नाम पर बचपन से ही भय और भय सिखाया जाता है कि डरो! हर चीज से डरो! भयभीत हो जाओ! यह सब शोषण है। हमारी सारी कमजोरियों का शोषण है। यह जो नरक का डर है, हम सब डरे हुए हैं कि कहीं हमें आग में न जलाया जाए, कहीं कड़ाहों में न फेंका जाए, कहीं हमें सताया न जाए। हम सब डरे हुए हैं। तो नरक का भय खड़ा हुआ है। …स्वर्ग का प्रलोभन! हम सब प्रलोभित हैं।
एक जगह से मैं निकलता था। एक महिला ने लाकर मुझे एक कागज दिया। उसके ऊपर लिखा हुआ था कि क्या आप बहुत अच्छे बंगले में रहना चाहते हैं, जहां कि मंद-मंद हवाएं बहती हों ठंडी, पास में झरना हो, बड़े-बड़े छायादार दरख्त हों। मैं हैरान हुआ कि ऐसी चीज, ऐसी जगह कहां पर है? कौन नहीं रहना चाहेगा? मैंने दूसरा पन्ना पलटा, तो उसमें पीछे लिखा है: तो फिर जीसस क्राइस्ट को स्वीकार कर लो। मैं बहुत हैरान हुआ। तो जो जीसस क्राइस्ट को स्वीकार कर लेगा परमात्मा के लोभ में, वह किंगडम ऑफ गॉड में, उसको अच्छे-अच्छे मकान, झरनों के किनारे, छायादार वृक्षों के नीचे मिलेंगे। और जो नहीं विश्र्वास करेगा, नरक में उसका स्थान है।
यह कोई जीसस क्राइस्ट के पीछे जो शैतान लगे हैं उनकी ही करतूत है ऐसा नहीं, राम के पीछे भी लगे हैं, कृष्ण के पीछे भी लगे हैं, मोहम्मद के, महावीर के, बुद्ध के, सबके पीछे शैतान लगे हुए हैं। और वे ईजाद कर रहे हैं आदमी की कमजोरी को शोषण करने का। किसका मन नहीं हो जाएगा ठंडी हवाओं वाली दुनिया में रहने का? जहां कोई दुख न व्यापता हो, जहां कोई कष्ट न आता हो। और कितने सस्ते में! बहुत सस्ते में कि मंदिर में जाओ, थोड़े से पैसे चढ़ाओ, इतने सस्ते में! या एक ब्राह्मण को गाय दान कर दो,इतने सस्ते में! या एक मंत्र रोज पढ़ो, किसी किताब को रोज पढ़ो, इतने सस्ते में! कौन, कौन पागल होगा, कौन नासमझ होगा जो यह मौका चूक जाएगा?
तो हमारा प्रलोभन है, उसका शोषण है। हमारा भय है, उसका शोषण है। हमारी मृत्यु है, उसका शोषण है।
पुजारी बहुत कुछ जानते हैं, ह्यूमन वीकनेसेस जानते हैं। और आदमी को अब तक इस बात का पता नहीं है कि उसकी कमजोरियों का कितना शोषण हुआ है और कितना शोषण हो रहा है।
दुनिया में सच्चे धर्म का जन्म तभी होगा, जब हम मनुष्य को उसकी कमजोरियों से मुक्त करने में लगेंगे, न कि उसकी कमजोरियों का शोषण चलने देंगे। मनुष्य को उसकी कमजोरियों से मुक्त करना है। मनुष्य को अभय, अलोभ, स्वतंत्रता, विचार, यह सब देने हैं, ताकि उसके भीतर एक, एक गरिमा चिंतन की, चेतना की, एक गौरव जीवन का खड़ा हो सके, ताकि वह हर शोषण के विरोध में, उसके भीतर एक बगावत, एक विद्रोह, एक रिबेलियन खड़ा हो सके। ऐसे लोग एक धार्मिक दुनिया की शुरुआत बनेंगे।
ये डरे हुए भयभीत लोग नहीं, ये घुटने टेक कर जमीन पर बैठे हुए हाथ जोड़े आकाश की तरफ बच्चे मांगते हुए, बीमारियां ठीक करने की प्रार्थनाएं करते हुए लोग नहीं, ये स्वर्ग में स्थान पाने की कोशिश में लगे हुए लोग नहीं, ये नरक से बचने की कोशिश में लगे हुए लोग नहीं, ये मंदिर बना कर स्वर्ग में अपना कोई रिजर्वेशन कराने वाले लोग नहीं। इन लोगों से दुनिया धार्मिक नहीं होगी। इनसे उस ईश्र्वर का अवतरण जमीन पर नहीं हो सकता, जो कि सच्चा ईश्र्वर है। उसके लिए चाहिए समस्त कमजोरियों से मुक्त मनुष्य। और यह पुरोहितों ने और धर्मगुरुओं ने आज तक नहीं होने दिया है और वे कोशिश में लगे हैं कि आगे भी न होने दें।
निश्र्चित, उनकी कोशिश उनके व्यवसाय का प्राण है। उनके सारे प्रयास परमात्मा को बचाने के प्रयास नहीं, खुद को बचाने के प्रयास हैं। लेकिन यह तो आपको ज्ञात होगा ही कि हम जब भी कोई गलत काम करना चाहते हों, तो अच्छे नारे ईजाद कर लेने चाहिए। जब हमें कोई बुरा काम करना हो, तो कोई अच्छी फिलॉसफी की आड़ ले लेनी चाहिए। और जब हमें किसी की हत्या करनी हो, तो हमें उसके ही हित में हत्या करने का प्रचार करना शुरू कर देना चाहिए। और अगर पुरोहित को अपना व्यवसाय बचाना है, तो उसे परमात्मा को बचाने की घोषणा करनी चाहिए। उसे कहना चाहिए, परमात्मा खतरे में है! परमात्मा खतरे में है, अगर यह बात फैला दी जाए, तो पुरोहित बच सकता है।
पुरोहित बचेगा, तो धर्म नहीं बचेगा!
सामने विकल्प सीधा है। या तो जमीन पर आने वाले दिनों में धर्मगुरुओं का यह पुराना व्यवसाय जारी रहेगा और परमात्मा के लिए स्थान नहीं बनाया जा सकेगा; और या फिर यह व्यवसाय बंद होगा और हम एक ज्यादा मुक्त, ज्यादा स्वतंत्र चित्त से सत्य की खोज में संलग्न हो सकेंगे।
इसलिए यह ठीक पूछा है कि ‘क्या पुरोहित कुछ भी नहीं जानते हैं?’
पुरोहित बहुत कुछ जानते हैं। उनकी चालाकी, उनकी कनिंगनेस, उनकी होशियारी गहरी है। वे आदमी के आखिरी कोनों तक उसकी कमजोरियां जानते हैं। और इसका उन्होंने फायदा उठाया है। यह फायदा चल रहा है।
पूछी हैं और बहुत सी बातें।
पूछा है कि मैंने कहा कि शास्त्र को न मानें, शब्द को न मानें, तब तो फिर हम अकेले छूट जाएंगे, फिर हम क्या मानेंगे?
अकेले छूटने से इतने भयभीत क्यों होते हैं? और न मानने की स्थिति इतना डर क्यों लाती है? क्या यह खयाल में कभी नहीं आता कि न मानने को अगर एक क्षण के लिए भी चित्त ठहर जाए तो एक क्रांति हो जाएगी। न मानने की एक क्षण की स्थिति में भी क्रांति हो सकती है।
न मानने का क्या मतलब?
न मानना, नॉन-एक्सेप्टेंस का मतलब क्या है?
उसका मतलब यह है कि मैं बाहर से आए हुए किसी भी ज्ञान को स्वीकार करने को राजी नहीं हूं।
क्यों?
इसलिए कि मैं उस ज्ञान का प्यासा हूं जो कि भीतर से आए। इसलिए मैं ठहरूंगा।
यह बाहर के ज्ञान का अनादर नहीं है। यह बाहर के ज्ञान का तिरस्कार नहीं है। यह गीता, कुरान का अनादर नहीं है। सिर्फ इतना निवेदन है खोजी का कि मैं उस ज्ञान को पाना चाहता हूं जो प्राणों के प्राणों से उठता है। मैं उसको खोजना चाहता हूं जो मेरे भीतर कहीं है। इसलिए ठहरो! जो बाहर का है, चाहे महावीर कहते हों, चाहे बुद्ध, चाहे कोई, अभी मैं कह रहा हूं कुछ बातें, कोई भी जो बाहर से कह रहा है, उससे कहो कि ठहर जाए। वह विचार बाहर रुक जाए। कहीं ऐसा न हो कि बाहर का विचार आए और मेरे सारे चित्त को घेर ले और मैं बाहर के विचार में इस भांति कैद हो जाऊं कि मुझे यह भूल ही जाए कि भीतर मेरे अज्ञान है। यह हुआ है। पांडित्य में ज्ञान का भ्रम पैदा हो जाना बिलकुल रोज की घटना है। जब बहुत सी बातें हमें मालूम हो जाती हैं, बहुत सी इनफर्मेशन, बहुत सी सूचनाएं इकट्ठी हो जाती हैं, तो हमें खयाल पैदा हो जाता है कि हम जानते हैं।
और यह खयाल, वह भीतर जो अज्ञान बैठा हुआ है, जहां हम कुछ भी नहीं जानते, कुछ भी नहीं–पता भी नहीं है कि कैसे जन्म हुआ है; पता भी नहीं है कि कैसे मृत्यु आ जाएगी; पता भी नहीं है कि यह जो जीवन चल रहा है क्या है? यह भी पता नहीं है कि यह श्र्वास क्यों चल रही है? कुछ भी पता नहीं है। इग्नोरेंस गहरी है। अज्ञान बहुत गहरा है। कुछ भी पता नहीं है। क्या पता है आपको? क्या पता है किसी को भी? एक, एक श्र्वास भी अपरिचित है। लेकिन फिर भी हम ज्ञान इकट्ठा कर लेते हैं। और उस ज्ञान की छाया में और भ्रम में भूल जाते हैं इस गहरे अज्ञान को। यह खतरनाक स्थिति हो जाएगी। मौत उस सारे ज्ञान को छीन लेगी और रह जाएगा हाथ में केवल अज्ञान।
इसलिए समझदार वे नहीं हैं जो ज्ञान को पकड़ कर ज्ञानी हो जाते हैं, समझदार वे हैं जो बाहर के ज्ञान को कहते हैं, ठहरो! अज्ञान मेरा है, यह ज्ञान तो पराया है। जिस दिन मेरा ही ज्ञान होगा, वही मेरे अज्ञान को तोड़ सकेगा।
स्मरण रखें, अज्ञान मेरा है। ज्ञान दूसरों का है। दूसरों का ज्ञान मेरे अज्ञान को कैसे तोड़ सकता है? मेरा ज्ञान ही मेरे अज्ञान को तोड़ सकता है।
मेरा ज्ञान कैसे पैदा हो?
उसकी पहली शर्त तो यह है कि मैं पराए और उधार ज्ञान को स्वीकार न करूं। स्वीकार कर लिया, तब तो खोज ही बंद हो जाएगी। अगर मैं स्वीकार न करूं और अपने अज्ञान में ठहरा रह जाऊं, क्या होगा?
पूछा है कि ‘फिर तो हम अज्ञानी रह जाएंगे।’
नहीं! अगर एक मकान में आग लगी हो और आप मकान के भीतर हों और आपको पता लग जाए कि बाहर आग लगी है और लपटें आपको दिखाई पड़ने लगें, तो आप क्या पूछेंगे, फिर किसी से आप पूछेंगे कि अब मैं क्या करूं? क्या आप अलमारियां खोल कर कोई शास्त्र निकालेंगे और विचार करेंगे कि जब आग लगी हो चारों तरफ तो क्या करना चाहिए? या आप उस भवन में किसी गुरु की तलाश करेंगे, उसके चरणों में बैठेंगे, कहेंगे कि हे गुरुदेव! अब मुझे मार्ग सुझाइए कि जब आग लगी हो तो क्या करना चाहिए?
नहीं, गुरुदेव भी उसी मकान के भीतर रहेंगे, वे शास्त्र वहीं जलते रहेंगे और आप आग के देखते ही बाहर हो जाएंगे। फिर आप किसी से पूछने नहीं जाएंगे कि क्या करूं? आग का दिखाई पड़ना कि वह लगी है, आपके सारे प्राणों को इकट्ठा कर देता है। आपकी सारी जीवंत ऊर्जा संगठित हो जाती है। आप एक क्षण में पाते हैं कि न कोई शैथिल्य है, न कोई आलस्य है, न कोई निद्रा है। एक क्षण में आप पाते हैं कि कोई प्रमाद नहीं, कोई सुस्ती नहीं। एक क्षण में आप पाते हैं कि विचार सतेज है, चेतना जाग्रत है और आप पूछते नहीं किसी से मार्ग, लपटों में मार्ग खोजते हैं, बाहर निकल जाते हैं। बाहर निकल कर शायद आपको खयाल आए कि गुरुदेव भीतर रह गए हैं, शास्त्र भीतर रह गए हैं जिनको हम ला नहीं पाए और जिनको हम देख भी नहीं पाए कि उनमें क्या लिखा था कि हम क्या करें?
आग लगी हो और उसका पूरा तथ्य दिखाई पड़ जाए, तो उस तथ्य के दर्शन से जीवन में एक क्रांति घटित होती है।
अज्ञान का पूरा दर्शन हो जाए, तो वह आग लगे होने से भी ज्यादा भयानक, ज्यादा तीव्र, ज्यादा उत्कट पीड़ा और ताप उत्पन्न करता है। और यह खयाल आ जाए कि मैं बिलकुल अज्ञानी हूं, तो उस अज्ञान के बाहर निकलने की एक तीव्र ज्वलंत अभीप्सा, आकांक्षा प्राणों के कण-कण में पैदा हो जाती है। वही आकांक्षा, अभीप्सा बाहर ले आती है। कोई गुरु बाहर नहीं लाता।
लेकिन अगर अज्ञान का बोध ही दब जाए, घर में आग लगी हो और कोई बैठ कर हमें समझा रहा हो कि कहां आग है, यह तो सब माया है। तुम तो राम-राम जपो। और हम आंख बंद करके राम-राम जप रहे हों और मन में सोच रहे हों कि कहां आग लगी है, आग तो लगी ही नहीं है। यह हम बैठे वहां सोचते रहें तो जरूर फिर बाहर निकलना असंभव हो जाएगा। आग हमें लेकर ही समाप्त होगी। और यही हुआ है। जीवन में यही हो रहा है।
उधार ज्ञान हमें सुला देता है, जगाता नहीं। उधार ज्ञान सुला देता है, जगाता नहीं! निद्रा लाता है, जागृति नहीं लाता।
खुद के अज्ञान का बोध एक जागृति लाता है, एक होश लाता है, एक अवेयरनेस पैदा होती है, और एक तीव्रता पैदा होती है और एक तीव्रता का बोध पैदा होता है कि मैं कैसे बाहर निकल जाऊं? सारे प्राण संलग्न हो जाते हैं। और जिस व्यक्ति के भीतर भी सारे प्राण संलग्न हो जाएं किसी प्यास में, प्राप्ति निश्र्चित है। वह प्यास को पार कर जाएगा, अतिक्रमण कर जाएगा।
एक फकीर था, फरीद। एक नदी के किनारे एक झोपड़े में रहता था। एक आदमी एक सुबह-सुबह आया और उसने कहा कि मुझे ईश्र्वर के दर्शन करने हैं। कई लोगों को यह फितूर पैदा हो जाता है ईश्र्वर के दर्शन करने का। कई लोगों को यह सनक चढ़ जाती है कि ईश्र्वर के दर्शन करने हैं। उस आदमी को भी चढ़ गई होगी। कई कारण हैं चढ़ जाने के। वह गया फरीद के पास और कहा कि मुझे ईश्र्वर के दर्शन करने हैं।
फरीद ने कहा कि अभी तो मैं नदी पर स्नान करने जाता हूं, तुम भी आ जाओ। थोड़ा स्नान कर लें दोनों। फिर किनारे पर बैठ कर तुम्हें बताऊंगा। और यह भी हो सकता है कि मौका मिल जाए तो नदी की धार में भी बता दूं। वह आदमी थोड़ा हैरान हुआ कि नदी की धार में क्या बताएगा? लेकिन फकीरों की बात है, हो सकता है कोई मतलब हो।
वह गया। दोनों स्नान करने उतरे। और जैसे ही उस जिज्ञासु ने पानी में डुबकी लगाई, फरीद ने उसकी गर्दन पानी के नीचे दबा ली। उसके सिर को न उठने दे। फरीद तगड़ा आदमी था। जिज्ञासु मुश्किल में पड़ गया। सारे प्राणपण से चेष्टा करने लगा, लेकिन फरीद दबाए चला जाता था, दबाए चला जाता था। लेकिन थोड़ी देर में फरीद ने पाया कि उसकी ताकत, खुद की ताकत, दबाने की ताकत कम पड़ रही है और वह उठने वाला आदमी पूरी ताकत से ऊपर उठ रहा है। फरीद मजबूत था। वह जिज्ञासु दुबला-पतला और कमजोर आदमी था, लेकिन फरीद को उठा कर वह आदमी ऊपर निकल आया।
फरीद ने उससे पूछा कि मेरे मित्र, कुछ समझे?
तो उस आदमी ने कहा कि क्या खाक समझता! आप मेरी जान लिए लेते थे, मेरे प्राण लिए लेते थे। समझने की इसमें कहां बात थी! और मैं किस पागल के पास आ गया। शक तो मुझे तभी हुआ था, जब आपने कहा कि मौका लगा तो नदी की धार में ही बता देंगे। शक तो मुझे तभी हुआ था कि मैं गलत जगह आ गया। लेकिन एकदम जा भी नहीं सकता था। तो आपके साथ चला आया। आप तो प्राण लिए लेते थे। परमात्मा के दर्शन तो रहे दूर, अपने ही प्राण समाप्त हुए जाते थे। कौन दर्शन करता फिर?
फरीद ने कहा: एक बात मुझे पूछनी है, जब मैंने तुम्हें भीतर दबाया था, तो कितने-कितने विचार तुम्हारे मन में थे?
उसने कहा: क्या मजाक करते हैं? कोई विचार नहीं था, एक ही खयाल था कि किसी तरह एक श्वास, हवा मिल जाए।
फरीद ने पूछा: कितनी देर तक वह खयाल रहा?
उसने कहा: वह भी थोड़ी देर तक रहा। और जब सारे प्राण संकट में पड़ गए, तो वह खयाल भी मिट गया। फिर खयाल कोई भी न रहा। बस, एक अनजानी-अबूझ प्रेरणा थी, जो ऊपर उठा रही थी। कोई खयाल नहीं था, कोई विचार नहीं था। कुछ ऊपर उठ रहा था भीतर से। सारे प्राण संलग्न थे। एक-एक कण संलग्न था। इसका कोई खयाल नहीं था, यह हो रहा था। इसका कोई खयाल नहीं था, इसका कोई विचार नहीं था, इसका कोई आइडिया नहीं था कि यह मैं करूं, या यह मैं कर रहा हूं, ऐसा कुछ भी नहीं था। यह हो रहा था। कोई प्राणों में जग गया था और ऊपर उठ रहा था। और तब मेरी सारी शक्ति इकट्ठी हो गई थी। और तब जैसे ही मेरी सारी शक्ति इकट्ठी हुई, मैंने पाया कि आप बहुत कमजोर हैं, आपके हाथ ढीले पड़ने लगे, मैं ऊपर आ गया।
फरीद ने कहा कि जिस दिन ईश्र्वर की खोज में इतने ही गहरे अज्ञान में डूबोगे, इतने ही गहरे जिस दिन प्यास में डूबोगे, उस दिन कोई ताकत, कोई ताकत तुम्हें रोक न पाएगी। तुम पाओगे कि तुम अतिक्रमण कर गए। तुम पार कर गए वह सीमा जहां तुम मिट जाते हो और परमात्मा शुरू हो जाता है।
शास्त्रों और शब्दों से नहीं मिलता ज्ञान। ज्ञान मिलता है प्राणों की समग्रीभूत प्यास से, इंटिग्रेटेड थर्स्ट, जब सारे प्राण इकट्ठे हो जाते हैं किसी प्यास में, तो ज्ञान उपलब्ध होता है। ज्ञान शास्त्रों से सीखा गया उपक्रम नहीं है, बल्कि प्राणों की प्यास में और अभीप्सा में पाई गई अनुभूति है। ज्ञान इसलिए बाहर से उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि प्यास भीतर है और भीतर की कोई प्यास बाहर के किसी पानी से न बुझ सकेगी। और बाहर के पानी से जो बुझ जाती हो, जान लेना कि वह प्यास भी बाहर की रही होगी। वह जो प्राणों की प्यास है, उस प्यास के ही इकट्ठे हो जाने में उसकी तृप्ति छिपी है। प्यास ही प्राप्ति है।
लेकिन हम बाहर ज्ञान खोजते हैं और उसको पकड़ लेते हैं। और जब पकड़ लेते हैं, तो द्वार बंद हो जाते हैं, खोज बंद हो जाती है, प्यास शिथिल हो जाती है, प्राण इकट्ठे नहीं हो पाते। और इस शिथिलता में, इस दुर्बलता में, इस खंड-खंड बंटे होने में हम भटकते हैं। स्मरण करते हैं, शब्द दोहराते हैं, जीते हैं और मरते हैं, कुछ हल नहीं हो पाता।
बंगाल में ऐसा हुआ। एक युवक अपने पिता के पास बैठा था। उसके पिता की उम्र साठ को पार कर गई थी। उसके पिता ने उस युवक को कहा कि हो सकता है कि कुछ ही दिन का मेहमान मैं और होऊं। लेकिन मैंने तुम्हें न तो कभी मंदिर जाते देखा, न कभी धर्म की पुस्तक पढ़ते देखा, न कभी मैंने सत्संग करते देखा! तो मैं तुम्हें यह अंत में कहूं कि कुछ उस तरफ भी ध्यान दो।
उस युवक ने कहा: कुछ ध्यान! कैसी बातें करते हैं आप? परमात्मा भी कुछ ध्यान से पाया जा सकता है? कुछ ध्यान से? उसने कहा कि मैं तो जहां तक सोच पाया हूं वह यही कि कुछ ध्यान तो आपको देते हुए मैं रोज देखता हूं। रोज सुबह आप मंदिर जाते हैं। कुछ ध्यान मंदिर में देते हैं, शेष ध्यान दुनिया में देते हैं।
और मुझे शक यह है कि जो तेईस घंटे दुनिया में रहता हो, वह एक घंटे मंदिर में कैसे रह सकता है? और जो मंदिर की सीढ़ियों तक फिल्मी गाने गुनगुनाता हो, वह मंदिर के भीतर भजन कैसे गा सकता है? हो सकता है कि मंदिर के भीतर भजन ही गाता हो, लेकिन उनका मूल्य फिल्मी गाने से ज्यादा नहीं हो सकता, क्योंकि गुनगुनाने वाला वही है जो सीढ़ियों के बाहर था, वही सीढ़ियों के भीतर भी है। और सवाल गुनगुनाने वाले का है, सवाल यह नहीं है कि वह क्या गुनगुनाता है। आप क्या पढ़ते हैं यह सवाल नहीं है, आप क्या हैं यह सवाल है। आप चाहे वेद-शास्त्र पढ़िए, या चाहे कोकशास्त्र पढ़िए, या चाहे कुछ और पढ़िए। आप आप हैं, और आपके ऊपर निर्भर है सारी बात! किताब वैसी हो जाएगी जैसे आप हैं। जिस मंदिर में आप प्रवेश करेंगे, वह मंदिर आप जैसा हो जाएगा। और जिस भगवान का आप हाथ पकड़ लेंगे, पाएंगे कि भगवान आप जैसा हो गया, क्योंकि आप असली बात हैं।
तो उसने अपने पिता से कहा कि मैं देखता हूं इधर आपको, तीस वर्षों से मैं भी देखता हूं, लेकिन न तो आपकी प्रार्थनाओं में कोई अर्थ निकला और न आपकी पूजा में और न आपके कोई ध्यान में।
उस लड़के ने कहा कि कभी मैं भी स्मरण करूंगा। लेकिन एक ही बार स्मरण करूंगा। क्योंकि दो बार स्मरण करने का क्या फायदा? अगर एक बार स्मरण से नहीं हो सका, तो दूसरी बार स्मरण से क्या होगा, क्योंकि स्मरण करने वाला तो मैं ही रहूंगा। और तीसरी बार करने से क्या होगा? हजार बार करने से क्या होगा? एक बार करूंगा। एक बार मंदिर जाऊंगा। एक बार परमात्मा के द्वार पर खड़ा होना है। लेकिन प्रतीक्षा में हूं उस दिन की, जिस दिन कि मैं पूरा का पूरा खड़ा हो सकूं। जब तक अधूरा खड़ा होऊंगा, तब तक कुछ होने वाला नहीं है।
क्योंकि बड़े रहस्य और आनंद की बात यह है कि आपका पूरी तरह इकट्ठा हो जाना ही आपके भीतर परमात्मा की उपलब्धि है। और तो कोई, कोई परमात्मा नहीं है बाहर। आपका पूरी तरह इकट्ठा हो जाना, आपका एक जुट हो जाना, आपके सारे प्राणों का समग्र हो जाना, खंड-खंड नहीं, डिसइंटिग्रेटेड नहीं, टूटा हुआ नहीं, इकट्ठा हो जाना। वही तो आपका जान लेना है। और यह हुआ।
पिता कोई अस्सी वर्ष के हुए, तब वे जीवित थे, और उनका लड़का मंदिर तब तक नहीं गया था। साठ वर्ष का उनका लड़का भी हो गया था। और एक दिन लोगों ने देखा कि वह सुबह-सुबह मंदिर की तरफ जा रहा है। सारे लोग हैरान हुए। वह जिंदगी भर का नास्तिक था। कभी मंदिर नहीं गया और मंदिर जा रहा है।
लेकिन वह मंदिर गया, फिर वापस नहीं लौटा मंदिर से। और मंदिर में वह हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ और सब समाप्त हो गया। श्वास जो बाहर थी बाहर रह गई, जो भीतर थी भीतर रह गई। उसके प्राण उड़ गए। उसके पास उसके खीसे में एक पत्र लिखा हुआ मिला। और उसने लिखा: कि आज मैं उस अवस्था में हूं कि मेरी प्यास पूरी-पूरी जग गई है और मैं अपने अज्ञान से समग्ररूपेण दुखी हो गया हूं। और आज, जब कि आग मेरे चारों तरफ लगी है, शायद मैं बाहर निकल सकूं।
क्या किया उसने उस मंदिर में जाकर खड़े होकर? और क्या उस करने का संबंध उस मंदिर से है? क्योंकि मंदिर में तो वहां रोज लोग खड़े होते थे जाकर। नहीं, उस मंदिर से उस करने का कोई संबंध नहीं है। वह आदमी कहीं भी खड़े होकर वही करता तो यह हो जाता जो उस मंदिर में हुआ। उस बात के करने का संबंध उसके अपने भीतर से है। उसके प्राण किसी किनारे आकर इकट्ठे हो सके हैं किसी प्यास में। उस प्यास में कोई बात घटित हो सकती है, कोई क्रांति, कोई विस्फोट, कोई एक्सप्लोजन हो सकता है।
धर्म एक एक्सप्लोजन है, एक विस्फोट है। और केवल उन्हीं के भीतर होता है, जो अपने अज्ञान की पूरी-पूरी पीड़ा को जीते हैं और झूठे ज्ञान में उसको छिपाते नहीं हैं।
तो इसलिए मैंने कहा कि नहीं–किताबें नहीं, शास्त्र और वेद और कुरान और बाइबिल नहीं, महावीर और बुद्ध के वचन नहीं, किसी के भी वचन नहीं–नहीं ले जा सकेंगे वहां जहां परमात्मा है। वहां तो ले जाएगी वह प्यास जहां आप हैं। तो ये शब्द और शास्त्र इस प्यास को शिथिल न कर दें, इस प्यास को ढांक न दें, इस चिनगारी के ऊपर राख न बन जाएं। बन गए हैं राख। इसलिए ज्ञानी मुश्किल से ही–ये तथाकथित ज्ञानी मुश्किल से ही सत्य को कभी जान पाते हैं। अब तक सुना तो नहीं कि किसी पंडित ने सत्य जाना हो। अब तक ऐसा सुना नहीं है। अब तक ऐसा हुआ नहीं है, होगा भी नहीं।
यह जो मैंने कहा… तो पूछा है: ‘तो क्या ये सब व्यर्थ हैं? क्या इन सबको फेंक दें?’
अगर इनको फेंकने गए, तो उसका मतलब होगा कि इनमें कुछ न कुछ अर्थ है, तभी तो फेंकने गए। अगर इनमें आग लगाने गए, तो उसका मतलब यह हुआ कि इनसे भयभीत हैं, इसलिए आग लगाने गए। नहीं। दोनों स्थितियों में हम बाहर की चीज को बहुत मूल्य दे देते हैं। या तो हम कहते हैं, हम पूजा करेंगे और या हम कहते हैं, हम आग लगा देंगे। लेकिन दोनों हालत में हम–पूजा करें तो, आग लगाएं तो–बाहर से ही बंधे रहते हैं।
नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पूजा मत करिए, आग लगा दीजिए। क्योंकि आग लगाने वाला भी उस शास्त्र को मानने वाला है, तभी तो इतनी मेहनत कर रहा है कि आग लगाने जा रहा है। नहीं, आग लगाने का सवाल नहीं है और न पूजा करने का सवाल है। सवाल इस सीधे से सत्य को जानने का है कि क्या जो भी मैं बाहर से सीख लेता हूं, वह मेरा ज्ञान बन सकता है? नहीं, वह केवल मेरी स्मृति बनता है, मेमोरी बनता है। ज्ञान नहीं, नॉलेज नहीं। स्मृति कितनी ही ज्यादा संगृहीत हो जाए, वे उत्तर झूठे हैं।
‘किसी ने कहा है कि अगर बचपन से हमें गीता और वेद और उपनिषद की कथाएं न बताई गई होतीं, और हमारी मां ने और हमारे पिता ने हमें शिक्षा न दी होती, तो हम आपकी बात सुनने ही नहीं आते।’
यह हो सकता था कि मेरी बात सुनने आप न आते। आने की कोई बड़ी जरूरत भी नहीं थी। लेकिन इन बातों को सीख कर अगर आप मेरी बात सुनने आए हैं, तो एक बात स्मरण रखना, सुनने के भ्रम में होंगे, सुन न पाएंगे। क्योंकि ये बातें बीच में आ जाएंगी और सुनने न देंगी। और यह भी खयाल में मत रखना…
यह पूछा है प्रश्र्न में कि ‘अगर हमने यह गीता और ये सब बातें नहीं पढ़ी होतीं, तो हमारे मन में ईश्र्वर का खयाल ही कैसे पैदा होता?’
कैसा पागलपन है! अगर सारी किताबें नष्ट हो जाएं, तो आप सोचते हैं कि ईश्र्वर नष्ट हो जाएगा? अगर सारी दुनिया की किताबें जला कर खाक कर दी जाएं, तो क्या आप सोचते हैं कि फिर दुनिया में वे लोग पैदा नहीं होंगे जो ईश्र्वर की खोज करेंगे? तो ईश्र्वर फिर बड़ा कमजोर है जोकिताबों पर निर्भर है। ईश्र्वर बड़ा कमजोर है! और तब तो यह ईश्र्वर बहुत बढ़ जाना चाहिए, क्योंकि प्रेस की ताकत बहुत बढ़ गई है। छापेखाने बहुत हैं। और कोई पांच हजार किताबें हर सप्ताह छपती हैं। तब तो दुनिया में थोड़े दिन में ईश्र्वर खूब बढ़ जाएगा। लेकिन क्या आपको पता है कि जितनी किताबें बढ़ती हैं, उतना ही ईश्र्वर कम होता चला जाता है? उलटा संबंध है दोनों के बीच कुछ।
असल में, कोई ईश्र्वर की खोज की प्रेरणा किताबों से नहीं आती है। ईश्र्वर की खोज की प्रेरणा तो जीवन के दुख से आती है, जीवन की पीड़ा से आती है, अशांति से आती है। जब तक हृदय में दुख है, पीड़ा है और अशांति है, तब तक ईश्र्वर की खोज पैदा होती रहेगी। चाहे शास्त्र रहें और चाहे जाएं। बल्कि शास्त्रों के कारण सस्ते संतोष मिल जाते हैं। अगर शास्त्र न हों, तो सस्ते संतोष मिलने असंभव हो जाएंगे। तब तो आदमी को अपनी ही खोज करनी पड़ेगी और अपने ही श्रम से कुछ पाना पड़ेगा और उसी से संतोष मिल सकेगा।
तो मेरा निवेदन है, आग लगाने को नहीं कहता हूं, क्योंकि आप जो पूजा करते थे, अगर आप ने आग भी लगाई, तो वह आपकी पूजा से भिन्न नहीं होगी। शास्त्र के साथ कुछ करने को नहीं कह रहा हूं–मेरी बात को गलत नहीं समझ लेना–आपके साथ कुछ करने को कह रहा हूं। सवाल गीता के साथ नहीं है, आपके साथ है। कुरान और बाइबिल के साथ नहीं है, आपके साथ है। आपका चित्त ऐसा होना चाहिए जो शब्द से और शास्त्र से मुक्त हो, जो शब्द और शास्त्र से बंधा हुआ न हो, जो स्वतंत्र हो, क्योंकि स्वतंत्रता ही सत्य की खोज की पहली शर्त है।
एक-दो छोटे-छोटे गैर-गंभीर प्रश्र्न हैं, उनकी भी मैं बात कर लूं। फिर कुछ जो प्रश्र्न रह जाएंगे, उनकी मैं परसों बात करूंगा।
किसी ने मुझसे पूछा:
कल मैंने कहा कि एक बंदर ने मुझे कहा है कि आदमी का पतन बंदरों से हुआ है, यह विकास नहीं है, तो उस व्यक्ति ने मुझसे पूछा है कि क्या बंदर भी बोलते हैं?
तो मैं यह निवेदन करना चाहूंगा कि बंदरों का बोलना तो बिलकुल स्वाभाविक है, न बोलना बहुत कठिन है। बंदर चुप रह ही नहीं सकते हैं। और जो चुप रह जाए, ऐसा बंदर अगर मिल जाए, तो शक होगा कि कहीं यह आदमी तो नहीं है। चुप रह जाए! मौन! साइलेंस! असंभव। बंदर तो खूब बोलते हैं। यह दूसरी बात है कि आपको उनकी भाषा समझ में न आती हो। लेकिन जिन बंदरों की भाषा आपको समझ में आती हो उनको देख कर आप उनके बाबत भी समझ सकते हैं जिनकी समझ में न आती हो।
मुझे किसी ने एक घटना बताई थी, वह खयाल आ गई।
एक गधा आदमियों की संगत में रहते-रहते बोलना सीख गया था। आदमी की संगत किसको नहीं बिगाड़ देती है! वह गधा भी बिगड़ गया। वह बोलना सीख गया। और जब वह बोलना सीख गया, तो उसने पहला काम यह किया कि बाकी गधों को इकट्ठा किया और उनका नेता हो गया। जो भी बोलना सीख सकता है वह नेता हो ही जाएगा। वह चाहे फिर गधा हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? वह गधा बोलना सीखा और बोलना सीखने के बाद जो दूसरी सीढ़ी थी: वह नेता हो गया। और स्वभावतः इसके बाद तीसरी सीढ़ी थी कि उसने दिल्ली की यात्रा की। जो भी बोलना जानता है और नेता हो सकता है वह फिर दिल्ली जाएगा ही, और रहेगा कहां! जमीन पर फिर और कोई रहने लायक ठीक स्थान है नहीं! दिल्ली पहुंच कर कोई क्या करेगा…
उसने पहला काम–पुरानी बात है, वह पंडित नेहरू से मिलने चला गया। दरवाजे पर संतरी खड़ा था, लेकिन जैसे सभी संतरी सोए रहते हैं, वह संतरी भी सोया हुआ था। जैसा कि सभी पहरेदारों का काम है कि वे सोए रहते हैं। ऐसा वह भी सोया हुआ था। और फिर कोई आदमी भी जाता, तो संतरी थोड़ा सचेष्ट होता। आदमी से डर होता है। एक गधा जा रहा था, उसने कोई फिकर नहीं की। वह गधा बिना किसी प्रवेश-पत्र के भीतर चला गया।
सुबह-सुबह का वक्त था और नेहरू अपनी बगिया में घूमते थे। वह गधा पीछे गया उनके। और नेहरू तो बड़ी तेज चाल से घूम रहे थे, चाल क्या थी दौड़ना ही था करीब-करीब। वह गधा भी किसी तरह हांफता हुआ पीछे गया। और उसने कहा: पंडित जी! नेहरू बहुत घबड़ाए, क्योंकि वे भूत-प्रेत में विश्र्वास नहीं करते थे। वहां कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ता था जो बोलता हो। उन्होंने चारों तरफ गौर से देखा, वहां कोई दिखा ही नहीं, सिर्फ एक गधा खड़ा हुआ है। तो उन्होंने बहुत जोर से कहा कि कौन है? मेरे सामने आओ! मैं कोई भूत-प्रेत में विश्र्वास नहीं करने वाला हूं। जो भी हो, सामने आओ!
उस गधे ने कहा कि माफ करिए, मैं तो सामने खड़ा हूं। सिर्फ एक ही मेरी भूल है कि मैं जरा बोलता हूं। आप नाराज तो नहीं होंगे?
नेहरू ने कहा: तू बिलकुल बेफिकर रह। मैं बोलते हुए गधों से इतना ज्यादा रोज-रोज परिचित होता हूं, रोज-रोज कि तू बिलकुल फिकर मत कर। तू बोल।
तो गधे ने कहा कि मैं तो डरता था कि पता नहीं आप मुझसे मिलना पसंद करेंगे या नहीं?
नेहरू ने कहा:यहां गधों के सिवाय मिलने और आता ही कौन है?
फिर पता नहीं, उन दोनों में क्या बातें हुईं। वह तो मुझे कुछ पता नहीं। बातें जरूर कोई कुछ गुफ्तगू हुई होंगी, क्योंकि किसी अखबार ने अब तक छापी नहीं। कोई सीक्रेसी, कोई कांफिडेंशियल कोई बात होगी, किसी अखबार में छपी नहीं अब तक।
लेकिन आदमी इस भ्रम में न रहे कि वही बोलना जानता है, इस भ्रम में न रहे। बोलते तो सभी हैं।
आदमी ही अकेला समर्थ है जो कि न बोलने की स्थिति को उपलब्ध हो सकता है। अकेला आदमी समर्थ है कि न बोलने की स्थिति को, नॉन-स्पीकिंग, नॉन-थिंकिंग की स्थिति को उपलब्ध हो सकता है। उसी अबोल, उसी शांत स्थिति से वह द्वार खुलता है, जो परमात्मा का है।
तो वह तो मैंने बंदर की बात मजाक में कही थी। और अगर आप मजाक भी नहीं समझ पाए, तो धर्म क्या समझ पाएंगे! बड़ी मुश्किल हो जाएगी। और लोग इतने गंभीर हो गए हैं दुनिया में कि मजाक भी नहीं समझ पाते, परमात्मा को क्या समझ पाएंगे! बहुत कठिन है।
ये जो थोड़ी सी बातें मैंने अभी आपको कही हैं, वे इस खयाल से नहीं, कल और परसों भी जो बातें कहूंगा, वे इस खयाल से नहीं कि मैं आपको कोई ज्ञान दे रहा हूं। इस भ्रम में बिलकुल नहीं रहना। और यह खयाल हो तो आना ही मत कि मुझसे कोई ज्ञान मिल सकता है। नहीं, मेरी सारी कोशिश इस बात के लिए नहीं है कि आपको कुछ ज्ञान दूं, बल्कि इस बात के लिए है कि जो ज्ञान का आपको भ्रम है उसको तोड़ूं।
परमात्मा करे, आपका झूठा ज्ञान टूट जाए और उस अज्ञान को आप जान सकें, उस ओरिजिनल इग्नोरेंस को जो कि है, उस मौलिक अज्ञान को जो कि है भीतर। तो शायद उस अज्ञान में वह पीड़ा, वह ताप, वह घबड़ाहट पैदा हो; वह संताप, वह एंग्विश पैदा हो; वे प्राण इतने, इतने तड़फड़ा जाएं कि उस तड़फड़ाहट से आपके जीवन में क्रांति हो जाए। उसी अज्ञान के लिए इन चार दिन कोशिश करूंगा।
मैं तो अज्ञान सिखाता हूं। इसलिए मेरी बातें अगर ठीक न लगती हों, तो कोई हैरान होने की बात नहीं है, क्योंकि अज्ञान सिखाने वाला ठीक नहीं लग सकता है। ज्ञान सिखाने वाला ठीक लग सकता है, क्योंकि उससे आप कुछ सीख कर लौटते हैं। अज्ञान सिखाने वाला तो आपसे कुछ और छीन लेता है। आप घर जाते हैं तो और कुछ खोकर जाते हैं।
परमात्मा करे, किसी दिन आप घर ऐसे जाएं कि आप सब खोकर चले जाएं, तो शायद उसी दिन घर पहुंचते से ही आपको जो मिले, वह परमात्मा हो।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।