UPANISHAD
Maha Geeta 76
SeventySixth Discourse from the series of 91 discourses – Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 – FEB 10 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप क्रांतिकारी हैं, फिर आप परंपरागत प्राचीन शास्त्रों को क्यों पुनरुज्जीवित करने में लगे हैं?
क्योंकि सभी शास्त्र क्रांतिकारी हैं। शास्त्र परंपरागत होता ही नहीं। शास्त्र हो तो परंपरागत हो ही नहीं सकता। शास्त्र के आसपास परंपरा बन जाये भला, शास्त्र तो सदा परंपरा से मुक्त है। शास्त्र के पास परंपरा बन गई, उसे तोड़ा जा सकता है। शास्त्र को फिर-फिर मुक्त किया जा सकता है। शास्त्र कभी बासा नहीं होता; न पुराना होता है, न प्राचीन होता है। क्योंकि शास्त्र की घटना ही समय के बाहर की घटना है, समय के भीतर की नहीं।
अष्टावक्र आज भी वैसे ही नित नूतन हैं, जैसे कभी रहे होंगे; और सदा नित नूतन रहेंगे। यही तो शास्त्र की महिमा है–शाश्वत, सनातन और फिर भी नित नूतन।
हां, धूल जम जाती है समय की। तो धूल जम जाने के कारण कोई दर्पण को थोड़े ही फेंक देता है! धूल को झाड़ देता है। यही कर रहा हूं। जमी धूल को झाड़ रहा हूं। दर्पण तो वैसा का वैसा है। ये दर्पण ऐसे नहीं जो मिट जायें, जराजीर्ण हो जायें। ये चैतन्य के दर्पण हैं। ये आकाश जैसे निर्विकार दर्पण हैं। बदलियां घिरती हैं, आती हैं, जाती हैं, आकाश तो निर्मल ही बना रहता है।
तो पहली बात: कोई शास्त्र परंपरा नहीं है। शास्त्र के आसपास परंपरा निर्मित होती जरूर। तो परंपरा को तोड़ने का उपाय कर रहा हूं। शास्त्र को बचाना और परंपरा को तोड़ना, यही मेरी चेष्टा है। शास्त्र पर और लोग भी बोलते हैं लेकिन फर्क समझ लेना। वे परंपरा को बचाते हैं और शास्त्र को तोड़ते हैं। मैं शास्त्र को बचाता और परंपरा को तोड़ता हूं।
शास्त्र पर बोलने भर से कुछ नहीं सिद्ध होता कि क्या काम भीतर हो रहा है। कुछ हैं जो धूल को बचाते हैं, दर्पण को तोड़ते हैं। वे भी शास्त्र पर बोलते हैं, मैं भी शास्त्र पर बोल रहा हूं, लेकिन दर्पण को बचा रहा हूं, धूल को तोड़ रहा हूं।
इसलिए तुम ऐसा मत समझ लेना कि पुरी के शंकराचार्य बोलते तो वही मैं बोल रहा हूं। अष्टावक्र की गीता पर पुरी के शंकराचार्य भी बोल सकते हैं, लेकिन मौलिक भेद यहां होगा: शास्त्र को मिटायेंगे और परंपरा को बचायेंगे। परंपरा अष्टावक्र की नहीं, अष्टावक्र के पीछे आये हुए लोगों ने बनाई है। मैं उन सबको पोंछे डाल रहा हूं, जिन्होंने परंपरा बनाई है।
कोई सदगुरु परंपरा नहीं बनाता; पर परंपरा बनती है, वह अनिवार्य है। उस परंपरा को बार-बार तोड़ना भी उतना ही अनिवार्य है। इसलिए समझना:
परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है जो जीवन है, जीवनदायक है
जैसे भी हो, ध्वंस से बचा रखने के लायक है
परंपरा में दबा हुआ शाश्वत भी पड़ा है। इस कूड़े-करकट में हीरे भी पड़े हैं।
परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है जो जीवन है, जीवनदायक है
जैसे भी हो, ध्वंस से बचा रखने के लायक है
है क्या परंपरा? दो बातों का जोड़: परम ज्ञानी का अनुभव और अज्ञानियों का परम ज्ञानी के आसपास इकट्ठा हो जाना। परम ज्ञानी का शाश्वत को पकड़कर समय में उतारना और अज्ञानियों की समझ। नासमझी है उनकी समझ। उस नासमझी में अज्ञानियों ने जैसा समझा वैसी लकीरों का निर्मित हो जाना।
जैसे रोशनी उतरे और अंधे आदमी की आंखों पर नाचे, अंधा आदमी कुछ धारणा बनाये। उस धारणा से परंपरा बनती है।
वह जो रोशनी उतरी, वही शास्त्र है। और परंपरा में दोनों बातें मिश्रित हैं। आंखवालों की बातें मिश्रित हैं, अंधों की टीकायें, व्याख्यायें मिश्रित हैं। अंधों की व्याख्याओं को अलग करना है।
पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना
एक क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांधकर पानी को गहरा बनाना
यह परंपरा का काम है
परंपरा और क्रांति में संघर्ष चलने दो
आग लगी है तो सूखी टहनियों को जलने दो
मगर जो टहनियां आज भी कच्ची और हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान जाओ
कुछ टहनियां ऐसी हैं जो सदा हरी हैं; जो कभी सूखती ही नहीं हैं। जो सूख जाये वह आदमी का है; जो कभी न सूखे वही परमात्मा का है। जो कुम्हला जाये, क्षणभंगुर है, सीमा है जिसकी, उसका कोई बड़ा मूल्य नहीं। लेकिन क्षण में भी तो शाश्वत झांकता है। बुलबुले में, पानी के क्षणभंगुर बुलबुले में भी तो अस्तित्व झलक मारता है। बदलियां कितनी ही घिरी हों, बदलियों के पीछे नीला आकाश तो खड़ा है। बदलियों में से उसकी भी छांव तो दिखाई पड़ती है। बदलियों में से उसका भी दर्शन तो होता है।
जैसे ही कोई सदगुरु कुछ कहता है–कहा, शब्द बने। कहा, किसी ने सुना, व्याख्या बनी। कहा, कोई पीछे चला। चलनेवाला अपनी समझ से चलेगा। उसकी समझ मिश्रित हो जायेगी। फिर सदियां बीतती जाती हैं। अब अष्टावक्र को हजारों साल हुए। इन हजारों साल में हजारों लोगों ने अपना-अपना सब जोड़ा। अपनी-अपनी व्याख्यायें, अपने-अपने अर्थ डाले; उस सबसे विकृति हो गई। इस हजारों साल की प्रक्रिया में जो हुआ है उसे हम काट दें तो अष्टावक्र आज, यहीं, इसी क्षण ताजे प्रगट हो जाते हैं।
फिर परंपरा का भी उपयोग है, एकदम व्यर्थ नहीं है। मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं; अगर इसकी कोई परंपरा न बचे, इसकी कोई परंपरा न बने तो यह क्रांति बिलकुल खो जायेगी। यही तो जीवन का अदभुत विरोधाभास है। क्रांति को भी टिकने के लिए परंपरा बनना पड़ता है। और परंपरा बनकर क्रांति खो जाती है। लेकिन परंपरा की पर्तों के नीचे कहीं दीया जलता रहता है। और जब भी कोई सजग व्यक्ति ठीक चेष्टा करेगा तो पर्तों को तोड़कर फिर उस दीये को, जलते हुए दीये को फिर प्रगट कर देगा; फिर रोशनी प्रगट हो जायेगी।
परंपरा तो ऐसे है, जैसे बीज के आसपास खोल होती है, मजबूती से बीज को बचाती है, रक्षा करती है। क्योंकि बीज तो कोमल है। अगर खोल न हो बचाने को तो कभी का नष्ट हो जाता। भूमि में पहुंचने के पहले, ठीक ऋतु के आने के पहले, वर्षा के बादल घुमड़ते उसके पहले नष्ट हो गया होता। वह जो खोल है बीज की वह उसे बचाये रखती है। लेकिन कभी-कभी खोल इतनी मजबूत हो सकती है कि जब ठीक मौसम भी आ जाये, और बादल घिर उठें और मोर नाचने लगें, भूमि भी मिल जाये और तब भी खोल कहे, मैंने तुझे बचाया, मैं बचाये ही रहूंगी। अब तुझे मैं छोड़ नहीं सकती। खतरा है। तो जो रक्षक था वह भक्षक हो गया।
परंपरा बचाती है। अगर परंपरा न होती तो अष्टावक्र के ये वचन बचते नहीं। इनको बचाया परंपरा ने। बिगाड़ भी परंपरा रही है, बचाया भी परंपरा ने। इस बात को ठीक से खयाल में लेना। अगर परंपरा न बनती तो अष्टावक्र के वचन खो गये होते। बहुत सदगुरुओं के वचन खो गये हैं।
मखली गोशाल के कोई वचन आज मौजूद नहीं हैं। वह महावीर की हैसियत का ही व्यक्ति रहा होगा। जिसकी आलोचना महावीर को करनी पड़ी, बार-बार करनी पड़ी है, वह आदमी हैसियत का रहा होगा। लेकिन उसके कुछ वचन नहीं बचे, कोई परंपरा नहीं बनी। तो अब उसे आज छुड़ाने का कोई उपाय नहीं है। बन जाती परंपरा तो कारागृह में होता मखली गोशाल, लेकिन दरवाजे तोड़ सकते थे, ताले खोल सकते थे, सींखचे गला सकते थे। उसे मुक्त कर लेते। महावीर को अभी मुक्त किया जा सकता है। जैनों के कारागृह से मुक्त किया जा सकता है। बुद्ध को मुक्त किया जा सकता है। मखली गोशाल को कैसे मुक्त करो? मखली गोशाल के आसपास कारागृह बना ही नहीं। मखली गोशाल खो गया।
ऐसे ही अजित केशकंबली खो गया। ऐसे ही और न मालूम कितने सदगुरु, जिन्होंने जाना, उनके आसपास परंपरा नहीं बनी तो खो गये। अब यह मजे की बात है, जिनके पास परंपरा बनी वे परंपरा में दब गये और जिनके पास परंपरा नहीं बनी वे तो बिलकुल खो गये। तो धन्यभागी हैं वे, जिनके आसपास परंपरा बनी। कुछ तो बचे! कितनी ही पर्तों में दबे हों लेकिन हैं तो! कोई न कोई उन पर्तों को तोड़ सकेगा।
तो परंपरा एकदम व्यर्थ नहीं है। बचाती भी है, मारती भी है। परंपरा का उपयोग आना चाहिए तो फिर बचाती है। ठीक मौसम में फिर मुक्त कर देती है।
जैसे मुझे लगता है, अष्टावक्र के लिए ठीक मौसम आया। ऋतु आ गई है, बादल घिर गये हैं। इस पृथ्वी पर अब अष्टावक्र को समझने के लिए ज्यादा संभावना है जितनी पहले रही होगी। मनुष्य की प्रतिभा विकसित हुई है। मनुष्य का बोध बढ़ा है। मनुष्य प्रौढ़ हुआ है। इतनी जो अड़चनें दुनिया में दिखाई पड़ती हैं ये प्रौढ़ता के कारण ही दिखाई पड़ती हैं। अब इस प्रौढ़ता के भी ऊपर जाना है। इस प्रौढ़ता से भी पार होना है। अष्टावक्र की बातें उपयोगी हो सकती हैं। परंपरा से छुड़ा लेना होगा।
अब यह तो स्वाभाविक है कि अष्टावक्र जैसे व्यक्ति के पीछे जो परंपरा बनेगी वह शुद्ध नहीं रह सकती, क्योंकि शुद्ध रहने के लिए तो अष्टावक्र जैसे लोग चाहिए। ऐसे लोग तो विरले होते हैं, कभी-कभी होते हैं। इनकी कोई धारा तो नहीं होती। बार-बार श्रृंखला टूट जाती है।
अष्टावक्र को बचाने के लिए तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण जैसे व्यक्ति चाहिए। मगर ये तो कभी-कभी होते हैं। और जब ऐसे व्यक्ति होते हैं तो फिर वही बात खड़ी होती है। उनको भी कोई व्यक्ति नहीं मिलता जो ठीक उनकी ही दशा का हो, उनकी ही स्थिति का हो। फिर बात नीचे हाथों में पड़ जाती है। पड़ेगी ही।
जैसे जल बादल से बरसता है, भूमि पर गिरता है, कीचड़ मच जाती। जब तक भूमि को नहीं छुआ तब तक जल-कण बड़े स्वच्छ होते हैं, स्फटिक-मणि जैसे होते हैं। जैसे ही भूमि को छुआ, कीचड़ मच जाती है। अष्टावक्र बरसेंगे, तुम्हारे मन को छुएंगे, कीचड़ मच जायेगी। मगर सौभाग्य है कि कम से कम कीचड़ तो मचती है। मिट्टी में भी गंदा तो हो जाता है पानी लेकिन मौजूद तो होता। कोई पारखी कभी पैदा होगा तो मिट्टी को अलग कर लेगा, पानी को अलग कर लेगा।
परंपरा की जरूरत है। संघर्ष चलने दो। परंपरा-क्रांति में संघर्ष चलने दो। संघर्ष की भी जरूरत है, बार-बार क्रांति हो इसकी जरूरत है। ताकि बार-बार जो नष्ट हो गया, जो खो गया, पुनः आविष्कृत हो सके। और बार-बार परंपरा बने यह भी जरूरी है ताकि जो नया पुनः आविष्कृत हुआ है वह बचाया जा सके। होगी बार-बार क्रांति। होगी बार-बार परंपरा।
तुम इस बात को ठीक से समझ लेना। पूछा है तुमने कि आप क्रांतिकारी हैं…।
लेकिन मैं साधारण क्रांतिकारी नहीं हूं। मैं परंपरा के विरोध में हूं ऐसा क्रांतिकारी नहीं हूं। मैं परंपरा और क्रांति दोनों से मुक्त हूं, ऐसा क्रांतिकारी हूं। मेरी क्रांति क्रांति से भी गहरी जाती है। क्योंकि मैं देख पाता हूं कि क्रांति और परंपरा तो दिन और रात जैसे हैं। हर दिन के बाद रात, हर रात के बाद दिन। हर क्रांति के पीछे परंपरा, हर परंपरा के पीछे क्रांति। यह अनवरत श्रृंखला है। मैं तो साक्षी मात्र हूं। जो जैसा है उसे तुमसे वैसा कह रहा हूं। मैं कोई लेनिन और मार्क्स और क्रोपाटकिन जैसा क्रांतिकारी नहीं हूं जो परंपराविरोधी हैं। न मैं परंपरावादी हूं; मनु, याज्ञवल्क्य इन जैसा परंपरावादी भी नहीं हूं, जो क्रांतिविरोधी हैं।
मैं तो देखता हूं कि क्रांति और परंपरा दोनों जरूरी हैं। हो क्रांति बार-बार, आये परंपरा बार-बार। बने परंपरा, मिटे परंपरा, फिर हो क्रांति। और यह सतत हो। न तो ज्यादा देर क्रांति रुके; क्योंकि ज्यादा देर क्रांति रुक जाये तो अराजकता हो जाती है। न ज्यादा देर परंपरा रुके; क्योंकि ज्यादा देर परंपरा रुक जाये तो मरघट हो जाता है। सब समय पर हो, सब अनुपात में हो।
परंपरा क्रांति में संघर्ष चलने दो
आग लगी है तो सूखी टहनियों को जलने दो
मगर जो टहनियां आज भी कच्ची और हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान जाओ
परंपरा जब लुप्त हो जाती है
लोगों की आस्था के आधार टूट जाते हैं
उखड़े हुए पेड़ों के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते हैं
तो परंपरा बिलकुल लुप्त नहीं हो जानी चाहिए, नहीं तो लोग जड़हीन हो जाते हैं, बेजड़ हो जाते हैं, उखड़े हुए हो जाते हैं। उनको समझ ही नहीं पड़ता कि अब कहां जायें, क्या करें, कैसे उठें, कैसे बैठें। उनका संतुलन खो जाता है। उनकी दिशा खो जाती है। उनके लिए मार्ग नहीं बचता। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। जीवन के चौराहे पर पागल की तरह, विक्षिप्त की तरह यहां-वहां दौड़ने लगते हैं। कोई गंतव्य नहीं रह जाता।
तो परंपरा बिलकुल न टूट जाये, नहीं तो जड़ें उखड़ जाती हैं। और परंपरा इतनी मजबूत न हो जाये कि बीज टूट ही न सके, नहीं तो वृक्ष छिपा रह जाता है।
जीवन इन विरोधाभासों के बीच संतुलन का नाम है, समता का नाम है। और जब भी जीवन संतुलन को उपलब्ध होता है, जहां परंपरा अपना काम करती है, और क्रांति अपना काम करती है, और जहां परंपरा और क्रांति हाथ में हाथ डालकर चलती हैं वहां जीवन में छंद पैदा होता है, गीत पैदा होता है। जहां परंपरा और क्रांति साथ-साथ नाच सकती हैं। यही मेरी चेष्टा है।
तो एक तरफ क्रांति की बात करता हूं, दूसरी तरफ शास्त्रों को पुनरुज्जीवित करता हूं। तुम्हें इसमें विरोध दिखेगा, क्योंकि तुम्हें पूरा जीवन दिखाई नहीं पड़ता। मुझे पूरा जीवन दिखाई पड़ता है, मुझे विरोध नहीं दिखाई पड़ता। दोनों परिपूरक हैं।
बिदको नहीं
गुरूर में मुस्कुराओ नहीं
कौन कहता है कि तुम सब कुछ नहीं जानते हो
मगर दो-चार बातें प्राचीनों को भी मालूम थीं
मसलन, वे जानते थे कि पावन पुष्प एकांत में खिलता है
और सबसे बड़ा सुख उसे मिलता है
जो न तो किस्मत से नाराज है
न भाग्य से रुष्ट है
जिसकी जरूरतें थोड़ी और ईमान बड़ा है
संक्षेप में जो अपने आप से संतुष्ट है
तो नाराज मत होओ। हर सदी इस अहंकार में जीती है कि जो हमें पता है वह किसी को पता नहीं था। हर पीढ़ी इस अस्मिता की घोषणा करती है कि जो हमने जान लिया है, बस वह हमने जाना है, और किसी ने नहीं जाना। हमसे पहले तो सब मूढ़ थे।
देखो, क्रांतिकारी कहता है, हमसे पहले जो थे वे सब मूढ़ थे। परंपरावादी कहता है, हमसे बाद जो होंगे वे सब मूढ़ होंगे। ये दोनों बातें मूढ़ता की हैं। परंपरावादी कहता है, पीछे देखो अगर ज्ञान खोजना है। तो ज्ञान हो चुका। सतयुग हो चुका। स्वर्णयुग बीत चुका। अब आगे तो बस अंधेरा है–और अंधेरा, कलियुग और अंधकार, और नरक। अब आगे तो मूढ़ से मूढ़ लोग होंगे। रोज-रोज प्रतिभा कम होगी। रोज-रोज पाप बढ़ेगा। परंपरावादी कहता है पीछे जा चुके स्वर्ण शिखर। लौटो पीछे, देखो पीछे।
और क्रांतिवादी कहता है, पीछे क्या रखा है? अंधकार के युग थे वे। तमस घिरा था। लोग मूढ़ थे, अंधविश्वासी थे। वहां क्या धरा है! आगे देखो। स्वर्णकलश भविष्य में है। प्रतिभा रोज-रोज पैदा होगी। ज्ञानी आनेवाले हैं, अभी आये नहीं। उनका आगमन हमारे साथ शुरू हुआ है। क्रांतिकारी कहता है, हमारे साथ ज्ञानियों का आगमन शुरू हुआ है। यह पहला पदार्पण है किरण का। अब और किरणें आयेंगी; बच्चों में आयेंगी, भविष्य में आयेंगी।
ये दोनों बातें अधूरी हैं। ये दोनों बातें गलत हैं। अधूरे सत्य झूठ से भी बदतर होते हैं।
बिदको नहीं
गुरूर में मुस्कुराओ नहीं
कौन कहता है कि तुम सब कुछ नहीं जानते हो
मगर दो-चार बातें प्राचीनों को भी मालूम थीं
इतनी दया करो। इतना तो स्वीकार करो कि दो-चार बातें प्राचीनों को भी मालूम थीं। और अगर उन्हें मालूम न होतीं तो तुम्हें भी मालूम नहीं हो सकती थीं, क्योंकि तुम उन्हीं से आते हो। तुम उन्हीं की श्रृंखला हो। उन्हें मूढ़ मत कहो। क्योंकि अगर वे मूढ़ थे तो तुम भी मूढ़ हो। क्योंकि वे बीज थे, तुम उन्हीं के फल हो। और मूढ़ता के बीजों में ज्ञान के फल नहीं लगते।
उन्हें अंधविश्वासी मत कहो; अन्यथा तुम आते कहां से हो? तुम उन्हीं की श्रृंखला हो। तुम उन्हीं का सातत्य हो। तो इतना ही हो सकता है कि तुमने शायद अपने अंधविश्वास बदल लिये हों लेकिन अन्यथा तुम हो नहीं सकते। हो सकता है वे धर्म के शास्त्रों में मानते थे, तुम विज्ञान के शास्त्रों में मानते हो। लेकिन अंधविश्वास तुम्हारा कुछ बहुत भिन्न नहीं है। अगर वे अंधविश्वासी थे तो तुम भी अंधविश्वासी हो।
बड़े मजे की बातें हैं। लोग पुराने, प्राचीन शास्त्रों में अंधविश्वास खोजते हैं। कहते हैं, ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता। हो तो दिखाओ। दिखाओ तो मान लें। और जब आधुनिक भौतिकी कहती है, आधुनिक भौतिकशास्त्र कहता है कि इलेक्ट्रान है और दिखाई नहीं पड़ता, तब ये संदेह नहीं उठाते। तब ये डा. कोवूर और इस तरह के लोग फिर संदेह नहीं उठाते कि यह बात हम कैसे मान लें? कि तुम कहते हो है, और दिखाई नहीं पड़ता। है तो दिखा दो। किसी वैज्ञानिक की क्षमता नहीं है कि इलेक्ट्रान को दिखा दे। मगर वैज्ञानिक कहता है, है तो। क्योंकि हम उसके परिणाम देखते हैं।
यही तो पुराने शास्त्र कहते हैं कि परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता लेकिन परिणाम दिखाई पड़ते हैं। यह देखो, इतनी बड़ी व्यवस्था, यह इतना बड़ा आयोजन! और क्या प्रमाण चाहिए?
तुम जाओ मरुस्थल में और तुम्हें पड़ी हुई एक घड़ी मिल जाये…हाथ की साधारण जेबघड़ी या हाथघड़ी। तुम्हें कोई भी दिखाई न पड़े, दूर-दूर मरुस्थल तक कहीं कोई पदचिह्न न मालूम पड़ें तो भी तुम कहोगे कि कोई मनुष्य आया है जरूर। यह घड़ी कहां से आई? तुम यह तो न मान सकोगे कि सिर्फ संयोगवशात यह घड़ी अपने आप निर्मित हो गई है। टिक-टिक घड़ी अब भी बजा रही है समय को। क्या तुम यह मान सकोगे कि संयोगवशात? अनंत-अनंत काल में संयोग से यह घड़ी निर्मित हो गई है, कोई बनानेवाला नहीं है? तुम न मान सकोगे। एक घड़ी तुम्हें मुश्किल में डाल देगी। तुम लाख मनाने की कोशिश करो, फिर भी घड़ी कहेगी कि कोई बनानेवाला है। फिर भी घड़ी कहेगी, कोई आदमी यहां आ चुका है।
तुम घड़ी को देखकर यह बात नहीं मान पाते कि यह अपने आप बन गई और तुम इस विराट विश्व को देखकर कहते हो कि अपने आप बन गया! ये चांद-तारे, यह सूरज, यह जीवन, यह इतनी अपूर्व लीला, यह इतना जटिल जाल इतनी सरलता से चल रहा है। नहीं, कोई दिखाई नहीं पड़ता। कोई हाथ साफ मालूम नहीं पड़ते।
पुराने शास्त्र कहते हैं, होंगे जरूर; होने चाहिए। परिणाम दिखाई पड़ता है। वही तो आधुनिक भौतिकशास्त्री कह रहा है कि इलेक्ट्रान होना तो चाहिए क्योंकि उसका परिणाम दिखाई पड़ता है। हिरोशिमा में परिणाम देखा न? अब कौन इंकार करेगा? कैसे इंकार करोगे? भौतिकशास्त्री कहता है कि हमने देखा, अणु का विस्फोट हो सकता है। विस्फोट का परिणाम हुआ कि एक लाख आदमी जलकर राख हो गये। परिणाम साफ है। मौत घट गई, तुम अब इंकार कैसे करते हो?
और यह बात सच है कि इलेक्ट्रान दिखाई नहीं पड़ते। इतने सूक्ष्म हैं, ऊर्जा मात्र हैं। दिखाई नहीं पड़ते। लेकिन कोई इस पर शक नहीं उठाता। कोई बड़ा समझदार होने का दावा करनेवाला आदमी यह नहीं कहता कि यह तो नया अंधविश्वास हो गया। पहले के लोग ईश्वर नाम देते थे, तुम इलेक्ट्रान कहने लगे। फर्क क्या पड़ता है? इससे क्या फर्क पड़ता है? नाम बदल दिये लेकिन धारणा तो वही की वही है कि चीज हो और दिखाई न पड़े, और फिर भी तुम मानते हो।
सोचो, अगर पुराने लोग अंधविश्वासी थे तो तुम अन्यथा नहीं हो सकते। तुम अपने बाप को गालियां देकर प्रशंसित न हो सकोगे, क्योंकि तुम वहीं से आते। गंगा गंगोत्री को गाली देकर गंगा न हो सकेगी। गंगोत्री अगर भ्रष्ट है तो गंगा भ्रष्ट है। क्योंकि जहां से हम आते…स्रोत अगर भ्रष्ट हो गया तो हम भ्रष्ट हो गये।
कौन कहता है कि तुम सब कुछ नहीं जानते हो
मगर दो-चार बातें प्राचीनों को भी मालूम थीं
इतनी तो दया करो, इतना स्वीकार करो कि कुछ वे भी जानते थे। उस कुछ को बचा लेना है।
मसलन, वे जानते थे कि पावन पुष्प एकांत में खिलता है
समस्त पुराने शास्त्र एकांत की महिमा गाते हैं। तुम भीड़ में जी रहे हो। तुम भीड़ की तरह जी रहे हो। तुम्हें खयाल ही भूल गया है कि पावन पुष्प एकांत में खिलता है। तुम भीड़ के हिस्से हो गये हो। भीड़ तुम्हारे बाहर, भीड़ तुम्हारे भीतर, भीड़ ही भीड़ है। तुम्हारे भीतर व्यक्ति तो बिलकुल खो गया है। व्यक्ति तो ध्यान में खिलता है। ध्यान यानी एकांत। व्यक्ति तो अकेले में, परम एकाकीपन में उभरता है, संबंधों में नहीं। संबंधों से मुक्त हो जाने का नाम संन्यास है। संबंधों के पार हो जाने का नाम संन्यास है।
तुमने जाना कि मैं बाप हूं, तुमने जाना कि मैं पति हूं, तुमने जाना कि मैं पत्नी हूं, मैं बेटा हूं, मैं यह, मैं वह, तो तुम गृहस्थ। घर में रहने से तुम गृहस्थ नहीं होते, इस बात को जानने से कि मैं बाप हूं, बेटा हूं, पति हूं, पत्नी हूं, तुम गृहस्थ होते हो। तुम घर में रहे लेकिन तुमने जाना कि मैं कैसे बाप, मैं कैसे बेटा, मैं कैसे पत्नी! मुझे तो अभी यही पता नहीं कि मैं कौन हूं। अभी तो मुझे अपने भीतर झांककर देखना है कि यह कौन है मेरे भीतर जो बैठा है? और जब तुम इसे देखने लगोगे, पहचानने लगोगे, तुम अचानक पाओगे असंबंधित हो तुम; असंग हो तुम। तब संन्यास जन्मा।
मसलन, वे जानते थे कि पावन पुष्प एकांत में खिलता है
और सबसे बड़ा सुख उसे मिलता है
जो न तो किस्मत से नाराज है
न भाग्य से रुष्ट है
समझो, यही तो तथाता का सिद्धांत है, साक्षी का सिद्धांत है।
जो न तो किस्मत से नाराज है
न भाग्य से रुष्ट है
जो यह कहता ही नहीं कि कुछ गलत हो रहा है, उसी को सुख मिलता है। जिसने कहा गलत हो रहा है, वह तो चूका।
मैं एक मुसलमान फकीर का जीवन पढ़ रहा था। एक आदमी मेहमान हुआ। सुबह दोनों नमाज पढ़ने बैठे। वह आदमी नया-नया था, परदेशी था उस गांव में। वह गलत दिशा में मुंह करके बैठ गया। काबा की तरफ मुंह होना चाहिए, मक्का की तरफ मुंह होना चाहिए, वह गलत दिशा में मुंह करके बैठ गया। और जब उस आदमी ने आंखें खोलीं तो फकीर को दूसरी दिशा में मुंह किये नमाज पढ़ते देखा तो वह बहुत घबड़ाया कि बड़ी भूल हो गई। वह फकीर से पहले नमाज करने बैठ गया था तो देख नहीं पाया कि ठीक दिशा कहां है।
जब फकीर नमाज से उठा तो उसने कहा महानुभाव, आप तो मेरे बाद ध्यान करने बैठे, आपने तो देख लिया होगा कि मैं गलत दिशा में ध्यान कर रहा हूं। मुझे कहा क्यों नहीं? मुझसे यह गलती क्यों हो जाने दी? वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, हमने गलती देखना ही छोड़ दी। अब जो होता है ठीक होता है। हम अपनी गलती नहीं देखते तो तेरी गलती हम क्या देखें! गलती देखना छोड़ दी। जब से गलती देखना छोड़ी तबसे हम बड़े सुखी हैं।
जो न तो किस्मत से नाराज है
न भाग्य से रुष्ट है
जो जीवन में देखता ही नहीं कोई भूल। जो है वैसा ही होना चाहिए। जैसा हुआ वैसा ही होना चाहिए था। जैसा होगा वैसा ही होगा। ऐसा जिसने जान लिया, ऐसा परम स्वीकार जिसके भीतर पैदा हुआ–फिर सुख ही सुख है। फिर रस बहता। फिर तो मगन ही मगन। फिर तो मस्ती ही मस्ती है। फिर तो सब उपद्रव गये। फिर कांटे कहां बचे? फिर तो फूल ही फूल हैं, कमल ही कमल हैं।
जिसकी जरूरतें थोड़ी और ईमान बड़ा है
हमारी जरूरतें बड़ी और ईमान छोटा है। हम ईमान को बेचकर जरूरतें पूरी कर रहे हैं। ईमान को बेचते हैं, वस्तुएं खरीद लाते हैं। हम सोचते हैं, हम बड़े समझदार हैं।
क्षमा करो, मगर दो-चार बातें प्राचीनों को भी मालूम थीं। उन्हें मालूम था कि चाहे जरूरतें कितनी ही कट जायें, कोई चिंता नहीं; ईमान मत बेच देना। ईमान बेचना यानी आत्मा को बेचना है। ईमान बेचना यानी जीवन की मूल भित्ति को बेच देना है। तब तुम क़ूडा-करकट खरीद लोगे, एक दिन पाओगे हाथ तो भरे हैं, प्राण सूने हैं। जाते वक्त हाथ चाहे खाली हों, प्राण भरे हों बस, तो तुम जीवन से जीतकर लौटे, विजेता की तरह लौटे; अन्यथा खाली हाथ लौटे।
जिसकी जरूरतें थोड़ी और ईमान बड़ा है
संक्षेप में जो अपने आप से संतुष्ट है
ऐसे कुछ गहरे सूत्र उन्हें मालूम थे। इन सूत्रों को मुक्त करना है।
जीवन से चिपकना और मृत्यु से घृणा करना
पुराने मर्द ये बातें नहीं जानते थे
अस्ताचल पर न तो वे रोते थे
न उदयाचल पर खुशी मानते थे
जीवन के बारे में उन्हें न तो आसक्ति थी
न दुनिया के बारे में कोई भ्रम था
आने की उन्हें न तो कोई खुशी थी
न जाने का गम था।
आये–उसने भेजा तो आये। चले–उसने बुलाया तो चले। न आने की कोई खुशी थी न जाने का कोई गम था। न सूरज के उगने पर वे उत्सव मनाते थे न डूब जाने पर रोते थे। उनका कोई चुनाव ही न था।
जीवन से चिपकना और मृत्यु से घृणा करना
पुराने मर्द ये बातें नहीं जानते थे
न तो जीवन से चिपकते थे, न मृत्यु से घृणा करते थे। ये दोनों बातें तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो जीवन से चिपकेगा वह मृत्यु से घबड़ायेगा। जो घबड़ायेगा वह घृणा भी करेगा। और जो जीवन से चिपकेगा और मृत्यु से घबड़ायेगा वह जीवन से वंचित रह जायेगा, क्योंकि वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो मृत्यु से बचेगा वह जीवन से भी वंचित रह जायेगा।
पुराने मर्द कुछ बातें जानते थे। कुछ बातें उन्होंने बड़ी गहराई से जानी थीं। लाओत्सु, अष्टावक्र, च्वांगत्सु, जरथुस्त्र, बुद्ध, कृष्ण–पुराने मर्द कुछ बातें जानते थे। तुम जल्दी से ऐसे घमंड से मत भर जाना कि सब तुम्हें पता है।
जीवन के बारे में उन्हें न तो आसक्ति थी
न दुनिया के बारे में कोई भ्रम था
वे जानते थे कि क्षणभंगुर है। जो है वह मिटेगा। इसलिए न तो कोई आसक्ति थी, न कोई भ्रम पालते थे।
आने की उन्हें न तो कोई खुशी थी
न जाने का गम था
बीज पहले पौधा बनता है और फिर वृक्ष
और फिर टूटकर वह धरती पर सो जाता है
प्रकृति का नियम कितना सरल है
आदमी भी मरता नहीं, लौटकर अपने घर जाता है।
कौन कहता है कि वह अनस्तित्व में खो जाता है।
उन्हें कुछ मौलिक बातों का बोध था। जिन शास्त्रों पर मैं चर्चा कर रहा हूं इन शास्त्रों में इन मौलिक बातों की कुंजियां छिपी हैं। वे कुंजियां तुम्हें फिर मिल जायें इसलिए इन पर बात है।
परंपरा को नहीं सम्हाल रहा हूं, परंपरा को तो तोड़ रहा हूं। लेकिन कोई शास्त्र परंपरावादी होता ही नहीं। परंपरावादी हो तो शास्त्र नहीं, साधारण किताब है।
शास्त्र तो आग है। शास्त्र तो क्रांति है। शास्त्र तो जलाता है, भस्मीभूत कर देता है। जो जल सकता है, जल जाता है। जो नहीं जल सकता वही बचता है। जो बच जाता है आग से गुजरकर वही कुंदन, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है।
इसलिए तुम मुझे किसी कोटि में मत रखो कि मैं क्रांतिकारी हूं कि परंपरावादी हूं। मैं कोई भी नहीं या दोनों साथ-साथ हूं। और तुमसे भी मैं यही चाहता हूं कि तुम चुन मत लेना। चुनाव कर लिया कि तुम चूक गये। आधा ही हाथ लगेगा। और आधा सत्य असत्य से भी बदतर है ।
पूरे से कम क्यों लो? जब पूरा मिल सकता हो तो कम पर क्यों राजी होओ? पूरा सत्य यही है कि परंपरा और क्रांति दिन और रात जैसे हैं, जन्म और मृत्यु जैसे हैं, साथ-साथ हैं। दोनों को नाचने दो गलबाहें डालकर। किसी तरफ पलड़ा ज्यादा न झुके–न परंपरा की तरफ, न क्रांति की तरफ, तो तुम समतुल हो जाओगे। तो सम्यकत्व पैदा होता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, अष्टावक्र अकृत्रिम व सहज समाधि के प्रस्तोता हैं। उनके दर्शन में बोध के अतिरिक्त किसी अनुष्ठान, साधन या प्रयत्न को स्थान नहीं है। तो क्या वहां प्रार्थना भी व्यर्थ है?
प्रार्थना जो की जा सके वह तो व्यर्थ है। अष्टावक्र के मार्ग पर करना व्यर्थ है, क्रिया व्यर्थ है, कर्तव्य व्यर्थ है, कर्ता का भाव व्यर्थ है। तो जो प्रार्थना की जा सके वह तो व्यर्थ है; हां, जो प्रार्थना हो जाये वह व्यर्थ नहीं है; जिस प्रार्थना को करते समय तुम्हारा कर्ता मौजूद न हो। आयोजन से हो जो प्रार्थना वह व्यर्थ है। अनायास जो हो जाये–कभी सूरज को उगते देखकर तुम्हारे हाथ जुड़ जायें; नहीं कि तुमने जोड़े। जोड़े तो जुड़े ही नहीं। जुड़ गये तो ही जुड़े।
अब यह भी क्या बात है कि तुम हिंदू हो इसलिए सूर्य-नमस्कार कर रहे हो। यह बात दो कौड़ी की हो गई। हिंदू होने की वजह से सूर्य-नमस्कार कर रहे हो? सूर्य के उठने होने की वजह से करो। यह सूरज उठ रहा है, मुसलमान के हाथ नहीं जुड़ते, क्योंकि वह मुसलमान है। हिंदू के जुड़ जाते हैं क्योंकि वह हिंदू है। दोनों बातें फिजूल हैं।
इधर सूरज उग रहा है, वहां तुम हिंदू-मुसलमान का हिसाब रख रहे हो? यह परम सौंदर्य तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। अंधे हो तुम? हिंदू होओगे तब नमस्कार करोगे? यह चमत्कार सामने खड़ा है, तुम हिंदू होओगे तब नमस्कार करोगे? यह अपूर्व सूरज फिर उग रहा है। ये फिर छाने लगे प्रकाश के जाल चारों तरफ। फिर खिले फूल, फिर पक्षी बोले, फिर जीवन प्रगट हुआ। सब खो गया था रात के अंधेरे में, सब फिर प्रगट हुआ। तुम्हारे हाथ नहीं जुड़ते, जोड़ना पड़ते हैं? जोड़ो तो व्यर्थ, जुड़ जायें तो सार्थक।
जरा तुम हृदय को संवेदनशील तो करो। जरा आंख खोलकर तो देखो। मेरे देखे तो न हिंदू के जुड़ते न मुसलमान के। क्योंकि हिंदू भी आंख बंद करे हाथ जोड़ लेता है, क्योंकि सूरज है। मैं देखता हूं, कोई बिजली जलाये, हिंदू ऐसा हाथ जोड़ लेता है, नमस्कार कर लेता है। बिजली जल रही है, हाथ जोड़कर नमस्कार कर लिया। यह यंत्रवत है।
एक सज्जन मेरे पास आते थे, उनको यह आदत थी। एक दिन वे आये, सांझ हम देर तक बैठे बात करते रहे। फिर मैंने पास बटन दबाकर, अंधेरा हो रहा था, बिजली जलाई तो उन्होंने हाथ जोड़े। मैंने फिर बुझा दी। वे बोले आपने यह क्या किया? मैंने कहा, तुमने सब खराब कर दिया। मैंने फिर जलाई, उन्होंने फिर हाथ जोड़े। मैंने कहा, जब तक तुम हाथ जोड़ना बंद न करोगे, मैं बुझाता रहूंगा। ऐसा कोई पचास बार मैंने किया। आखिर इक्यानवीं बार वे हार गये। कहने लगे हाथ जोड़े आपके। बात क्या है? आप क्यों यह जला-बुझा रहे हैं?
मैंने कहा, इसलिए कि ये हाथ तुम्हारे तुम जोड़ते हो, जुड़ते नहीं। तुम्हारे जीवन में मैंने प्रार्थना का कोई स्वर ही नहीं देखा है। ये मुर्दा हाथ हैं, यंत्रवत उठ रहे हैं। तुम मशीन हो, आदमी नहीं हो, क्योंकि तुम्हें मैंने कहीं और सौंदर्य को प्रगट होते देखकर हाथ जोड़ते नहीं देखा। बगीचे में सामने गुलाब खिल रहे हैं, मैंने तुम्हें हाथ जोड़ते नहीं देखा। तुम क्या खाक समझोगे! कोयल गीत गाती है, मैंने तुम्हें कभी हाथ जोड़ते नहीं देखा। एक सुंदर स्त्री राह से गुजर जाती है, मैंने तुम्हें कभी हाथ जोड़ते नहीं देखा। तुम कैसे रोशनी के प्रगट होने पर हाथ जोड़ोगे!
रोशनी हजार-हजार रूपों में प्रगट हो रही है। यह सारा जगत रोशनी का ही खेल है। ये जो हरे पत्ते हैं ये भी रोशनी के ही हिस्से हैं। इसमें किरण का जो हरा हिस्सा है वह समा गया। इसे तुमने नमस्कार किया? ये जो लाल गुलाब खिले हैं ये भी रोशनी के ही हिस्से हैं। इसमें किरण का लाल हिस्सा समा गया। यह सारा जगत रोशन है और तुम बस बिजली का बटन दबा तो तुम नमस्कार करते हो? और तुम्हारे चेहरे पर मैं कोई नमस्कार का भाव नहीं देखता। यंत्रवत हाथ उठ जाते हैं।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था कि कोई भी एक क्रिया चुन लो जो यंत्रवत होती हो, और उसी वक्त एक चांटा खींचकर अपने को मारो। वह आदमी अदभुत था। जैसे तुम चर्च के पास से गुजरे और सिर झुका लिया। तो वह कहता, उसी वक्त चांटा मारो अपने को–चाहे बीच बाजार में मारना पड़े। कोई भी एक क्रिया चुन लो, जो तुम यंत्रवत करते हो; या कोई शब्द, तुम जो यंत्रवत बोलते हो, बार-बार बोलते हो और जो यांत्रिक हो गया है।
जैसे कुछ लोग हैं, वे हर किसी को कहे चले जाते हैं: मैं आपको प्रेम करता हूं। वे हर चीज को प्रेम करते हैं। आइसक्रीम से लेकर आत्मा तक हर चीज को प्रेम करते हैं। कि आइसक्रीम से मुझे बड़ा प्रेम है। तुम प्रेम शब्द को भी खराब किये दे रहे हो। आइसक्रीम तो खराब हो ही रही है, तुम प्रेम को भी खराब किये दे रहे हो। कुछ प्रेम का मूल्य है, कुछ शब्द का अर्थ होता। तुम क्या कह रहे हो?
तो गुरजिएफ कहता था, यह जो तुम प्रेम शब्द का उपयोग करते हो, यांत्रिक है। जब-जब दिन में तुम प्रेम शब्द का उपयोग करो, एक चांटा कसकर अपने को मारो। इससे तुम्हें होश आयेगा। और इसके बड़े परिणाम होते हैं। यह प्रक्रिया उपयोगी है। इसके बड़े परिणाम होंगे। क्योंकि जब भी तुम प्रेम कहोगे, एक चांटा मारोगे। धीरे-धीरे प्रेम कहने के पहले ही तुम्हें खयाल में आ जायेगा कि अब निकला प्रेम, और पड़ा चांटा। और बदनामी हुई और भद्द हुई और लोग हंसे। धीरे-धीरे तुम्हारी यंत्रवत्ता गिरने लगेगी और होश जगेगा।
अष्टावक्र के मार्ग पर जो करना पड़ता है वह व्यर्थ है। जो हो जाता है! और जो हो जाता है उसको अष्टावक्र भी रोकेंगे कैसे? जो किया ही नहीं वह रुकेगा कैसे? जो किया है वही रुक सकता है। अष्टावक्र मीरा को नहीं रोक सकते प्रार्थना करने से, तुम्हें रोक सकते हैं। तुम कर रहे थे।
इधर मैं अष्टावक्र पर बोल रहा हूं तो मेरे पास प्रश्न आ जाते हैं कि अष्टावक्र तो कहते हैं ध्यान इत्यादि करने से कुछ सार नहीं, तो फिर हम जो ध्यान कर रहे हैं उसको बंद कर दें? तुम कर रहे हो इसलिए खयाल उठता है कि बंद कर दें, जब अष्टावक्र कहते हैं बंद कर दो। लेकिन जिसे ध्यान हो रहा है वह कैसे बंद करेगा? जो तुमने शुरू किया, बंद कर सकते हो। जो तुमने शुरू नहीं किया, जो शुरू हुआ, उसे तुम कैसे बंद करोगे? जरा श्वास को तो बंद करके देखो तो पता चल जायेगा कि नहीं होती बंद। तुमने शुरू भी नहीं की है, शुरू हुई है। बंद भी होगी कभी, अपने से होगी। तुम बीच में कर्ता नहीं बन सकते।
तो खयाल रखना, एक तो प्रार्थना है जो की जाती है। और एक प्रार्थना है, जो हो जाती है। जो हो जाये वही सच है। जो हो जाये वह परम सौभाग्य की है।
और कहीं भी हो सकती है। मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे का सवाल नहीं है। कहीं भी हो सकती है, क्योंकि परमात्मा सब जगह है। जहां से भी उसकी झलक मिल जायेगी वहीं हृदय डांवांडोल हो जायेगा। वहीं मस्ती छा जायेगी। वहीं आंखों में नशा आ जायेगा। वहीं तुम डोलने लगोगे। वहीं तुम झुक जाओगे।
तुम जरा इस बात को खयाल में रखना। जरा सोचो, किसी गुलाब के फूल को देखकर अगर तुम झुक गये और वहीं घुटने टेके; हो गई नमाज। काबा की तरफ मुंह कर रहे हो, मुर्दा पत्थर की तरफ? इधर जीवित परमात्मा फूल से पुकार रहा है। कि तुम शब्दों के जाल को दोहरा रहे हो–गायत्री मंत्र, नमोकार। यहां फूल में नमोकार जीवित है, गायत्री प्रगट हो रही है, तुम मुर्दा शब्दों के साथ खेल कर रहे हो। झुक जाओ यहां। डूब जाओ इस फूल में। और तुम जानोगे प्रार्थना का स्वाद।
तुम्हारे कारण प्रार्थना भी खराब हो गई है। जिस प्रार्थना में तुम मौजूद हो, वह प्रार्थना नहीं। जिस प्रार्थना में तुम बिलकुल लीन हो गये वही प्रार्थना है।
फिर तुम्हारी प्रार्थनाएं तो भिखमंगे की प्रार्थनाएं हैं। तुम कुछ न कुछ मांग रहे हो। दीन हो। नहीं, प्रार्थना दीन भाव से नहीं उठती। प्रार्थना अर्पण है, समर्पण है। तुम अपने को अर्पित करते हो, मांगते नहीं।
जो प्रार्थना दीन भाव से उठती है, कुछ मांगने के लिए उठती है, जिस प्रार्थना में तुम प्रार्थी हो जाते हो, चूक गये। फिर अष्टावक्र की प्रार्थना नहीं है वह। होगी किसी और की लेकिन अष्टावक्र के शास्त्र में, अष्टावक्र के मार्ग पर उसके लिए कोई जगह नहीं है।
घोर तम छाया चारों ओर
घटायें घिर आईं घनघोर
वेग मारुत का है प्रतिकूल
हिले जाते हैं पर्वत-मूल
गरजता सागर बारंबार
कौन पहुंचा देगा उस पार?
तरंगें उठतीं पर्वताकार
भयंकर करतीं हाहाकार
अरे उनके फेनिल उच्छवास
तरी का करते हैं उपहास
हाथ से गई छूट पतवार
कौन पहुंचा देगा उस पार?
ग्रास करने नौका स्वच्छंद
घूमते फिरते जलचरवृंद
देखकर काला सिंधु अनंत
हो गया है साहस का अंत
तरंगें हैं उत्ताल अपार
कौन पहुंचा देगा उस पार?
यह सच है कि हम असहाय हैं। तो प्रार्थना के दो रूप हो सकते हैं। या तो हम अपनी असहाय अवस्था में मांगें उससे कि कुछ दे ताकि हम आलंबन पा जायें। या हम अपनी असहाय अवस्था में सिर्फ झुक जायें, कुछ मांगें न। असहाय अवस्था में झुक जायें।
घोर तम छाया चारों ओर
घटायें घिर आईं घनघोर
वेग मारुत का है प्रतिकूल
हिले जाते हैं पर्वत-मूल
गरजता सागर बारंबार
कौन पहुंचा देगा उस पार?
कुछ मांगा नहीं जा रहा है। कुछ कहा जा रहा है जरूर। अपनी असहाय अवस्था प्रगट की जा रही है। मांगा कुछ भी नहीं जा रहा। मांग कुछ भी नहीं है। अपना बेसहारापन प्रगट किया जा रहा है, कोई सहारा नहीं मांगा जा रहा है।
तरंगें उठतीं पर्वताकार
भयंकर करतीं हाहाकार
अरे उनके फेनिल उच्छवास
तरी का करते हैं उपहास
हाथ से गई छूट पतवार
कौन पहुंचा देगा उस पार?
सुनते हो?
कौन पहुंचा देगा उस पार?
न ही कोई मांग है, न ही किसी हाथ की तलाश है, न ही कोई भिखमंगे की प्रार्थना है,
सिर्फ निवेदन है। सिर्फ अपनी स्थिति का निवेदन है।
ग्रास करने नौका स्वच्छंद
घूमते फिरते जलचरवृंद
देखकर काला सिंधु अनंत
हो गया है साहस का अंत
तरंगें हैं उत्ताल अपार
कौन पहुंचा देगा उस पार?
और जब ऐसी भावदशा में तुम झुकोगे तो तुम अचानक पाओगे, पहुंच गये उस पार। उस झुकने में ही मिल जाता किनारा। क्योंकि उस झुकने में ही खो जाता अहंकार। यह जो हाहाकार है, ये जो उत्ताल तरंगें हैं, यह जो सब तरह गहन अंधकार है, यह तुम्हारा अहंकार है और कुछ भी नहीं।
अब फर्क समझना। अहंकारी आदमी झुकता है परमात्मा के सामने ताकि अहंकार के लिए कुछ और सहारे मिल जायें कि हे प्रभु, कुछ दो। इधर अहंकार टूटा जा रहा है, स्तंभ हिले जाते हैं, जड़ें उखड़ी जाती हैं, कुछ दो। मुझे मजबूत करो। तो प्रार्थना चूक गई। प्रार्थना प्रार्थना न हुई।
नहीं, तुमने कहा सिर्फ, ये जड़ें उखड़ी जाती हैं। यह गहन अंधकार है। ये उत्ताल तरंगें हैं। यह सब उखड़ा जा रहा है।
कौन पहुंचा देगा उस पार?
तुमने बस निवेदन कर दिया और तुम चुप रहे। तुम्हारा निवेदन, और निवेदन के बाद गहरी चुप्पी और मौन।
कौन पहुंचा देगा उस पार?
एक प्रश्न मात्र है। तुमने कुछ मांगा नहीं है। तुमने कुछ चाहा नहीं है।
ऐसे निवेदन के लिए अष्टावक्र के मार्ग पर कोई इंकार नहीं है। लेकिन तुम्हारी जो प्रार्थनायें हैं उनके लिए तो इंकार है। तुम्हारी प्रार्थनायें तो अभीप्सा के ही हिस्से हैं। आकांक्षा का नया-नया रूप। तुम कुछ पाने चले हो–संसार, स्वर्ग, मोक्ष। तुम अपने को ही भरने में लगे हो। वास्तविक प्रार्थना वहीं उठती है जहां तुम खाली हो, शून्य हो।
कौन पहुंचा देगा उस पार?
तीसरा प्रश्न:
भगवान, सदगुरु की छाया में होने का अर्थ कृपा करके हमें समझाइये।
अर्थ नहीं समझाया जा सकता, अनुभव करना पड़े। कैसे समझाओगे? यात्री थका-मांदा है मार्ग पर। धूप, धूल-धंवास, लंबी यात्रा की थकान! कोई छाया नहीं मिली कभी। और पूछता है, किसी वृक्ष की छाया के तले विश्राम का क्या अर्थ है?
कैसे समझाओगे उसे? क्या करोगे उपाय? कौन-सी विधि काम आयेगी समझाने में? नहीं, अर्थ समझाया नहीं जा सकता। उसे कहना पड़ेगा कि वृक्ष हैं, छाया भी है, तू विश्राम कर। जानकर ही जानेगा तू। अनुभव कर ही जानेगा तू। और कोई उपाय नहीं है।
सदगुरु के पास होने का इतना ही अर्थ है कि तुमने अपने अहंकार पर भरोसा खो दिया। अब तुम कहते हो, इस अहंकार की मानकर बहुत चल लिये, कहीं पहुंचे नहीं। सिर्फ दुख पाया, पीड़ा पाई। इसने भटकाया, उलझाया, भरमाया, अब इसकी और न सुनेंगे। बजाय अपने अहंकार की सुनने के, अब तुमने किसी प्रज्ञा-पुरुष की वाणी पर भरोसा किया। यह जो वाणी है किसी प्रज्ञा-पुरुष की, किसी दूसरे की वाणी नहीं, तुम्हारे ही अंतरतम की वाणी है।
सदगुरु वही है जो तुम्हारे भीतर छिपे अंतरतम की वाणी बोलता है। जो तुम अपने भीतर नहीं खोज पाते वह बाहर से तुम्हें सुनाता है। जिस दिन तुम भीतर भी खोजने में समर्थ हो जाओगे, उस दिन पाओगे यह वृक्ष बाहर नहीं था, यह तुम्हारे भीतर ही फैल रहा था। यह छाया तुम्हारे भीतर से ही आ रही थी। गुरु ने तो सिर्फ इशारा किया, इंगित किया।
सदगुरु की छाया में होने का अर्थ है, एक परम प्रेम में पड़ जाना। एक ऐसे प्रेम में, जिसका कोई निर्वचन नहीं हो सकता, जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती।
दुनिया में तीन तरह के प्रेम हैं। एक तो प्रेम है, किसी के शरीर के साथ प्रेम में पड़ जाना। वह क्षुद्रतम है। वह जल्दी ही आता और चला जाता। वह शरीर की वासना है। उसको ही काम कहो, सेक्स कहो।
एक दूसरा प्रेम है, जो किसी के मन के साथ प्रेम में पड़ जाना। साधारणतः हम उसे ही प्रेम कहते हैं–दूसरे प्रेम को। वह पहले से श्रेष्ठतर है। थोड़ा गहरा है। ज्यादा देर टिकेगा। शरीर के थोड़ा पार है। थोड़ी इसमें सुगंध है काव्य की। थोड़े पंख हैं उसके पास, थोड़ा उड़ सकता है।
फिर एक तीसरा प्रेम है, किसी के साथ आत्मा में, आत्मा के साथ आत्मा का प्रेम हो जाना। फिर पूरा खुला आकाश है; विराट आकाश है। इसे हम प्रार्थना कहते हैं।
पहला काम, दूसरा प्रेम, तीसरी प्रार्थना।
सदगुरु के पास होने का अर्थ है, प्रार्थनापूर्ण होकर बैठना। किसी की आत्मा के साथ प्रेम में पड़ गये। किसी की आत्मा ने मन को डुबा लिया, मोह लिया। किसी के रंग में रंग गये।
यह तुम्हें जो मैंने गैरिक रंग दिया है यह तो केवल प्रतीक है। यह तो इस बात की खबर है कि तुम मेरे रंग में रंगने को राजी हुए। यह तो सिर्फ ऊपर की बात है। यह तो केवल शुरुआत है। यह तो ऐसा है जैसे छोटे बच्चों को हम समझाते हैं कि आ आम का। आम से आ का क्या लेना-देना? आ तो और हजार चीजों का भी है। लेकिन शुरुआत तो कहीं से करनी पड़ती हैै।
परसों ही कोई मुझसे पूछता था कि संन्यास अगर भीतर का ही लें तो ठीक नहीं? तो मैंने कहा, भीतर का ले सको तब तो जरूरत ही नहीं है लेने की। भीतर का नहीं ले सकते इसीलिए तो बाहर से शुरू करना पड़ता है। भीतर का ही लेने की क्षमता हो तब तो लेने की भी जरूरत खतम हो गई। अभी लेने की जरूरत है तो उसका अर्थ ही इतना हुआ कि अभी भीतर का कुछ पता नहीं।
और तुम बाहर खड़े हो। भीतर जाओगे भी तो भी बाहर से ही भीतर जाओगे। अब जो आदमी अपने घर के बाहर खड़ा है सड़क पर, उससे हम कहें कि चलो, सीढ़ियां चढ़ो। वह कहे कि हम सीधे भीतर ही पहुंच जायें तो हर्ज है? हम कहेंगे, अगर तुम भीतर ही खड़े हो तब तो पहुंचने की कोई जरूरत ही नहीं है। लेकिन अगर बाहर सड़क पर खड़े हो तो फिर बाहर से यात्रा करनी पड़ेगी।
अब जो पूछता था, भयभीत है कपड़ों से। बाहर-भीतर के तो बड़े ऊंचे शब्द उपयोग कर रहा है। डरा हुआ है बाहर से। फिर जल्दी ही बात निकल आई कि–परिवार, प्रियजन, गांव, बस्ती, वहां इन वस्त्रों में जाऊंगा, लोग हंसेंगे। तो मैंने कहा, वे तो बाहर हंस रहे हैं, तुम्हारा क्या बिगाड़ते हैं? तुम तो भीतर की बातें कर रहे हो। वह प्रियजन, गांव, बस्ती, वह सब तो बाहर है, तुम्हारे भीतर तो नहीं। कहा, आप ठीक कहते हैं मगर मुश्किल पड़ेगी। मुश्किल तो बाहर से आ रही है। और तुम तो भीतर खड़े हो।
लेकिन आदमी बड़ा बेईमान है। बड़े ऊंचे तर्क खोजता है बड़ी छोटी बातें छिपाने को। तो मैंने कहा, सीधा-सीधा क्यों नहीं कहते कि बाहर कर डर है? उसने कहा, अब आप नहीं मानते तो मान लेता हूं कि बाहर का डर है। तो उस बाहर के डर को तो बाहर से ही मिटाना पड़ेगा। यह भीतर से नहीं मिट सकता।
ये गैरिक वस्त्र तो सिर्फ इस बात की खबर हैं कि तुम राजी रंगने को। सदगुरु के पास होने का अर्थ है कि तुम उसके रंग में रंगने को राजी। सदगुरु तो रंगरेज है। वह तो तुम्हारी ओढ़नी को रंग देता है। पर तुम्हारा सहयोग जरूरी है। वृक्ष घनी छाया से भरा है। लेकिन तुम उसके नीचे विश्राम न करो तो वृक्ष कुछ भी न कर पायेगा। वृक्ष तुम्हारे पीछे दा़ैड नहीं सकता। तुम्हें वृक्ष के साथ सहयोग करना होगा।
सदगुरु जीवन में क्रांति ला सकता है। आमूल रूपांतरण हो सकता है। लेकिन तुम्हारे सहयोग के बिना न होगा। और तुम्हारा सहयोग तभी संभव है जब सदगुरु की मौजूदगी तुम्हें अपने जीवन से भी ज्यादा मूल्यवान मालूम होने लगे। तभी तुम रंगने को राजी होओगे, नहीं तो नहीं।
मौत अच्छी है जो दम निकले तुम्हारे सामने
आंख से ओझल हो तुम तो जिंदगी अच्छी नहीं
–ऐसा जब लगने लगे।
मेरे दिल की नैरंगी पूछते हो क्या मुझसे
तुम नहीं तो वीराना तुम रहो तो बस्ती है
–जब ऐसा लगने लगे।
कहां हम कहां वस्ले-जाना की हसरत
बहुत है उन्हें एक नजर देख लेना
–जब ऐसा लगने लगे। एक नजर भी जब परम तृप्ति देने लगे तो फिर सदगुरु की छाया में होने का अर्थ समझ में आयेगा।
ये कोई हिसाब-किताब की बातें नहीं हैं, ये तो पागलों की बातें हैं। बेहिसाब-किताब हैं। दीवानों की बातें हैं।
गो न समझूं उसकी बातें, गो न पाऊं उसका भेद
पर यह क्या कम है कि मुझसे वह परीपैकर खुला
सदगुरु की बातें तुम्हें समझ में थोड़े ही आयेंगी! एकदम से तो कैसे समझ में आयेंगी?
गो न समझूं उसकी बातें, गो न पाऊं उसका भेद
न उसकी बात समझ में आये, न उसके भेद का कुछ पता चले, न राज का पता चले। बिलकुल ठीक ही है। लेकिन फिर भी प्रेम का दीवाना खिंचा चला जाता है।
पर यह क्या कम है कि मुझसे वह परीपैकर खुला
वह दिव्यदेही मुझसे बोला यही क्या कम है? नहीं समझे उसकी बात, नहीं समझे उसका भेद। छोड़ो। समझ लेंगे कभी। जल्दी भी क्या है? लेकिन उसने कहा, उसने कहने योग्य समझा, उसने इतना पात्र समझा कि अपने को उंड़ेला यही क्या कम है?
ऐसा जब तुम्हारे भीतर भाव बने तो सदगुरु की छाया में होने का अर्थ पता चलेगा–अनुभव से; और कोई उपाय नहीं है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, तू ही राजदां है मेरा, तुझको मेरी शरम है तू ही वायसे-मसर्रत, तू ही दर्द, तू ही गम है जिसे चाहे तू बना दे, जिसे चाहे तू मिटा दे वह भी तेरा करम है, यह भी तेरा करम है एक बात तुझसे पूछूं, सच-सच अगर बता दे तुझे याद करके रोना, क्या यह बंदगी से कम है?
कम-ज्यादा की तो बात ही नहीं, रोना ही बंदगी है। और जिस बंदगी में रोना नहीं है, सूखी-सूखी है; बंदगी पूरी नहीं है। जिस बंदगी में रोना नहीं है, मरुस्थल है। आंसुओं से ही तो मरूद्यान शुरू होता है, हरियाली आती है। जो बंदगी आंसुओं से रिक्त है, तुम झुके तो लेकिन झुके नहीं। अगर आंखें आंसुओं से न भरीं तो क्या खाक झुके! तो शरीर झुक गया, हृदय न झुका। तो देह झुक गई, भावना न झुकी। जब तुम झुकोगे देह से तो वह तो कवायद है केवल। लेकिन जब तुम हृदय से झुकोगे तो आंखों से आंसुओं की धार बहेगी।
आंसुओं की धार दुख में ही थोड़े ही बहती है, परम सुख में भी बहती है, आनंद में भी बहती है। जब भी कोई चीज इतनी ज्यादा हो जाती है जिसे तुम सम्हाल नहीं पाते, तभी आंसुओं का सहारा लेकर बहती है।
अब तुम परमात्मा के सामने झुके या सदगुरु के सामने झुके या जगत के सौंदर्य के सामने झुके, यह झुकने की घटना इतनी…इतनी गहरी है कि अगर इससे आंखों में आंसू न आयें और तुम भीतर गदगद न हुए तो झुकना रूखा-रूखा रह गया। यह तो ऐसा ही है जैसे प्यास लगी और किसी ने खाली गिलास पी लिया। खाली गिलास से कहीं प्यास बुझेगी? गिलास भरा होना चाहिए।
आंसू तो खबर लायेंगे कि तुम्हारा झुकना प्रामाणिक है। तुम औपचारिक रूप से नहीं झुके, तुम सच में ही झुके।
तो मैं तो रोने को ही बंदगी कहता हूं। तुम्हें अगर सूरज को उगते देखकर, आकाश में चांद को तिरते देखकर, सफेद बदलियों को आकाश में भटकते देखकर आंसू आ जायें तो बंदगी हो गई। किसी बच्चे को हंसते देखकर तुम्हारी आंखों में आंसू भर आयें तो बंदगी हो गई। इन पक्षियों के कलरव से तुम्हारी आंखें अगर गीली हो आयें तो बंदगी हो गई। भाव है बंदगी।
और ऐसी बंदगी फिर जाती नहीं। ऐसा नहीं है कि हो गई और समाप्त हो गई। ऐसी बंदगी फिर जाती नहीं। सूखी बंदगी कर भी ली और खतम भी हो जाती है। होती भी नहीं और खतम भी हो जाती है। गीली बंदगी, भावपूर्ण बंदगी हुई तो हुई। डूबे तो डूबे। फिर चलती ही रहती है, सरकती ही रहती है तुम्हारे रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में।
याद एक जख्म बन गई है वरना
भूल जाने का कुछ खयाल तो था
लेकिन फिर प्रभु का स्मरण भी ऐसा हो जाता है जैसे जख्म हो गया। एक दर्द, मीठा दर्द, जो भीतर सदा बना रहता है, जाता नहीं।
याद एक जख्म बन गई है वरना
भूल जाने का कुछ खयाल तो था
अब तो भूलने के उपाय से भी भूलना नहीं होता। खयाल भी हो कि भूल जायें तो भी भूलना नहीं हो सकता है। बहुत बार जिसकी जिंदगी में बंदगी आई है वह सोचता है, कहां झंझट में पड़े! छूट जायें इससे। घबड़ाहट लगती है कि यह किस तरह चल पड़े! यह कौन-सी रौ में बहने लगे! यह कौन सी धारा ने पकड़ लिया। सब अस्तव्यस्त होने लगी जिंदगी पुरानी। पुराना ढांचा पिघलने लगा, बिखरने लगा। जो अब तक बनाया था, अर्थहीन मालूम होने लगा। यह किस मार्ग पर चले? किस अनजान राह पर चले? बहुत बार मन होता है कि लौट जायें वापिस। वह जो अनजाना है उससे डर लगता है। जो जाना-माना है उसी में थिर हो जायें। फिर लौट जायें। लेकिन यह हो नहीं सकता।
याद एक जख्म बन गई है वरना
भूल जाने का कुछ खयाल तो था
फिर भूल नहीं सकते। अभी तुम कहते हो, परमात्मा को कैसे याद करें? और एक ऐसी भी घड़ी आती है कि फिर तुम पूछोगे कि अब परमात्मा को कैसे भूलें? जब वह घड़ी आ गई तो समझो कि बंदगी हो गई; तो समझो कि प्रार्थना हुई; तो बात उतर गई तीर की तरह हृदय में।
तब तुम कहोगे–
कुछ वक्त कट गया जो तेरी याद के बगैर
हम पर तमाम उम्र वो लमहे गिरां रहे
फिर तुम कहोगे, कि वह जो तेरी याद के बिना जो थोड़ा-सा वक्त कट गया जिंदगी का, वह बोझ की तरह ढोना पड़ रहा है। वही दुख हो जायेगा जो तेरे बिना वक्त कट गया। जो तुझे याद किये बिना दिन गुजर गये वही बोझ की तरह छाती पर पत्थर की तरह बैठे हैं! क्यों ऐसा न हुआ कि तब भी तुझे याद किया? क्यों ऐसा न हुआ कि तब भी तुझे पुकारा? क्यों कटे वे दिन तेरी बिना याद के?
कुछ वक्त कट गया जो तेरी याद के बगैर
हम पर तमाम उम्र वो लमहे गिरां रहे
भक्त को तो हर घड़ी उसकी याद आने लगती है। हर तरफ से उसकी याद आने लगती है; फूलों-पक्षियों के गीत से ही नहीं, इंद्रधनुषों के रंग, किरणों के जाल से ही नहीं, हर तरफ से।
बैठे-बैठे मुझे आया गुनाहों का खयाल
आज शायद तेरी रहमत ने किया याद मुझे
सुनते हो? भक्त यह कह रहा है, आज बैठे-बैठे मैंने जो अब तक गुनाह किये, पाप किये उनकी याद आ गई। जरूर तेरी करुणा ने मुझे याद किया। ऐसा लगता है तेरा दिल मुझे क्षमा कर देने का हो रहा है, तभी तो तूने गुनाहों की याद दिलाई। तू रहीम है, रहमान है। तू करुणावान है। जरूर तू मुझे क्षमा करना चाहता है अन्यथा इन गुनाहों की याद किसलिए दिलाता!
तो गुनाहों तक से भक्त को परमात्मा की ही याद आती है।
बैठे-बैठे मुझे आया गुनाहों का खयाल
आज शायद तेरी रहमत ने किया याद मुझे
फिर तो हर चीज उसी तरफ इशारा करने लगती है। फिर हर रास्ता उसी तरफ जाने लगता है। फिर हर मील का पत्थर उसी तरफ तीर को बनाये हुए दिखाने लगता है। सब तरफ से–सुख हो कि दुख, अच्छा हो कि बुरा, शुभ हो कि अशुभ, सफलता हो कि असफलता, सब तरफ से आदमी परमात्मा की याद की तरफ जाने लगता है। सफलता हो तो वह धन्यवाद देता है। दुख हो तो धन्यवाद देता है।
सूफी फकीर बायजीद ने कहा है कि प्रभु, कुछ न कुछ दुख बनाये रखना। क्योंकि जब दुख होता है तो मुझे तेरी याद ज्यादा आती है। सुख में कहीं भूल न जाऊं। तू थोड़ा दुख बनाये रखना। तू थोड़े कांटे चुभाये रखना। कहीं फूलों में भटक न जाऊं। कांटा चुभता है तो तेरी तत्क्षण याद आती है। दुख में याद आती है न! तो बायजीद कहता है, दुख बनाये रखना। ज्यादा सुख मत दे देना। कहीं ऐसा न हो कि सुख में मैं खो जाऊं। मुझे मेरा भरोसा नहीं है, तेरा ही भरोसा है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आप बोलते क्यों हैं?
यह भी खूब रही! बोलने भी न दोगे? अगर मैं चुप रहूं तो तुम पूछोगे, आप चुप क्यों हैं? और अगर मैं न बोलूं तो तुम यह प्रश्न किससे पूछते?
बोलता हूं क्योंकि तुम्हारे पास प्रश्न हैं और मेरे पास उत्तर है। बोलता हूं इसलिए कि न बोलूं तो अपराध होगा। जो मिला है उसे बांटना जरूरी है। जो मिला है उसके मिलने में ही यह शर्त है कि बांटना जरूरी है। मिल जाये और न बांटो तो कंजूसी होगी। और सब कंजूसियां माफ हो सकती हैं लेकिन परम सत्य मिल जाये और न बांटो तो यह अक्षम्य अपराध है। यह कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता।
हर सुमन का सुरभि से यह अनलिखा अनुबंध
अनिल को सौंपे बिना यदि मैं झरूं, सौगंध!
हर सुमन का, हर फूल का सुरभि से यह अनलिखा अनुबंध। यह बिना लिखा कांट्रेक्ट है, अनुबंध है।
हर सुमन का सुरभि से यह अनलिखा अनुबंध
अनिल को सौंपे बिना…
हवाओं को सुगंध को सौंपे बिना।
यदि मैं झरूं, सौगंध!
तो कसम है, झरना मत जब तक कि सुगंध हवाओं को सौंप न दी जाये। यह अनलिखा अनुबंध है। कहीं लिखा नहीं है। किसी कानून की किताब में नहीं है।
लेकिन ऐसा कभी हुआ भी नहीं है। कभी किसी ने चाहा भी करना तो नहीं कर पाया। बुद्ध ने चाहा था। सात दिन तक चुप बैठे रहे थे ज्ञान हो जाने के बाद। सोचा, क्या कहूं? कौन समझेगा? फिर जो समझ सकते हैं वे मेरे बिना भी समझ लेंगे–सौ में कोई एकाध। निन्यानबे तो ऐसे हैं कि मैं कहूंगा, कहूंगा, कहता रहूंगा और वे न समझेंगे। क्या सार? वे सात दिन चुप बैठे रहे।
कथा मीठी है। ब्रह्मा सारे देवताओं को लेकर बुद्ध के चरणों में आये और कहा, आप बोलें। ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई बुद्ध हुआ हो और न बोला हो। अनलिखा अनुबंध! सौगंध है आपको, कसम है आपको। बोलें, क्योंकि बहुत लोग हैं जो प्रतीक्षातुर हैं। बुद्ध ने फिर वही तर्क दोहराया। कहा, मैंने भी सोचा था। लेकिन मैं सोचता हूं जो नहीं समझेंगे, नहीं समझेंगे। और जो समझने योग्य हैं वे मेरे बिना भी खोज लेंगे। दिन-दो दिन की देर होगी। और क्या फर्क पड़ेगा? आ ही जायेंगे।
बात तो जंची थी ब्रह्मा को भी। वह भी सोच-विचार में पड़ गया कि बात तो ठीक है। सौ में कोई एक समझेगा। और जो समझने योग्य है वह बुद्ध के बिना भी खोज ही लेगा, थोड़ा टटोलेगा, थोड़ी देर-अबेर होगी, मगर पहुंच जायेगा। इसमें कुछ हर्जा नहीं होता। और जो निन्यानबे हैं वे सुनकर भी समझने वाले नहीं हैं। अब क्या करें?
तो देवताओं ने विचार-विमर्श किया होगा। और वे फिर एक तर्क लेकर बुद्ध के पास आये। उन्होंने कहा, आप ठीक कहते हैं। कुछ ऐसे हैं जो सुनकर भी न समझेंगे। और कुछ ऐसे हैं जो आपको बिना सुने भी समझ लेंगे। मगर इन दोनों के बीच में भी कोई एकाध है; बीच में भी कड़ी है एक, जो आप बोलेंगे तो समझेगा। आप न बोलेंगे तो न समझेगा। किनारे पर खड़ा है। कोई धक्का दे देगा तो गिर पड़ेगा सागर में। किसी ने धक्का न दिया तो खड़ा रह जायेगा।
कुछ तो बहुत दूर हैं सागर से। आप कितना ही धक्का दो, वे न गिरेंगे। गिरेंगे भी तो जमीन पर गिरेंगे। उठकर खड़े हो जायेंगे और गाली देंगे कि क्यों धक्का दिया? हम भले-चंगे जा रहे थे और तुम्हें धक्का देने की सूझी! और कुछ हैं जो छलांग लगाने को तैयार ही हैं। उनको धक्के की जरूरत भी नहीं है। वे छलांग लगा ही रहे हैं। उन्होंने तैयारी कर ही ली है। बस, वे एक-दो-तीन की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कूद जायेंगे। वे आपके बिना भी कूद जायेंगे। लेकिन कुछ हैं जो किनारे पर खड़े हैं। पहुंच गये हैं सागर के किनारे और छलांग का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। जरा-सा आपका इशारा, जरा-सा आपके द्वारा दिया गया साहस–वे कूद जायेंगे।
बुद्ध को यह तर्क स्वीकार कर लेना पड़ा।
और मेरे खयाल में यह कथा बड़ी बहुमूल्य है, क्योंकि यह सभी बुद्धपुरुषों के सामने ऐसी घटना घटती है। जब मिलता है सत्य तो एक मन होता है, चुप रह जाओ। कबीर ने कहा है, ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, अब वाको बार-बार क्यों खोले।’ मिल गया हीरा, जल्दी से गांठ गठियाया, अपने रास्ता चले। बार-बार खोलने का और बताना और दिखाने का क्या प्रयोजन? वह सभी के मन में उठता होगा। हीरा पायो और गांठ गठियायो। अब कौन फिजूल पंचायत में पड़े!
और यहां ऐसे लोग हैं कि हीरा भी दिखाओ तो वे कहते हैं, कहां है हीरा? दिखाई नहीं पड़ता। हीरा भी दिखाओ तो वे कहते हैं, पता नहीं हीरा होगा कि नहीं होगा। उन्होंने कभी हीरे तो देखे नहीं। वे कहते हैं, होगा कंकड़, रंगीन पत्थर होगा। और कौन जाने यह आदमी धोखा दे रहा है कि लूटने आया है कि क्या मामला है। कि कहेंगे चलो भी, बहुत हीरे देख लिये, हीरे होते नहीं हैं सिर्फ सपने हैं! ईश्वर, आत्मा, निर्वाण, मोक्ष होते थोड़े ही, बातचीत है। किसी और को उलझाना। हम बहुत समझदार हैं, हमें न उलझा सकोगे।
तो क्या फायदा! कबीर कहते हैं, हीरा पायो गांठ गठियायो। अपने रास्ते पर चले, बात खतम हो गई। अपनी बात खतम हुई। लेकिन कबीर भी चुप न रह पाये। गांठ को खोल-खोलकर दिखाना पड़ा। कभी-कभी ग्राहक आ जाते हैं। कभी-कभी ऐसे लोग आ जाते हैं जिन्हें हीरा दिखाना ही पड़ेगा। न दिखाओगे तो तुम भीतर ही भीतर खुद अपराध-भाव से गड़े जाओगे। इसलिए बोलता हूं।
जाओ, ओ मेरे शब्दों के मुक्तिसैनिको, जाओ
जिन-जिन के मन का देश तक है गुलाम
जो एकछत्र सम्राट स्वार्थ के शासन में
पिस रहे अभी हैं सुबह शाम
घेरे हैं जिनको रूढ़िग्रस्त चिंतन की ऊंची दीवारें
जो बीते युग के संसारों की सरमायेदारी का शोषण
सहते हैं बेरोकथाम
उन सब तक नई रोशनी का पैगाम आज पहुंचाओ
जाकर उनको इस क्रूर दमन की कारा से छुड़वाओ
जाओ, ओ मेरे शब्दों के मुक्तिसैनिको, जाओ
बोलता हूं कि तुम मुक्त हो सको। बोलता हूं कि तुम बंधे हो न मालूम कितने प्रश्नों की जंजीरों से। बोलता हूं कि वे जंजीरें टूट सकें। किसी उत्तर की तुम्हें झलक भी दिखाई पड़ जाये। तुम्हारी आंख जरा आकाश की तरफ उठ जाये। तुम जमीन पर गड़ाये चल रहे हो जन्मों-जन्मों से। तुम भूल ही गये हो कि आकाश भी है।
बोलता हूं कि तुम्हें याद आ जाये कि तुम्हारे पास पंख हैं जिनका तुमने उपयोग ही नहीं किया। तुम उड़ सकते थे और नहीं उड़े। तुम उड़ने को ही बने थे और तुम नहीं उड़े। उड़कर ही तुम्हारी नियति पूरी हो सकती थी। और तुम जमीन पर घसिट रहे हो। तुम घसिटने के लिए बने नहीं हो, आकाश ही तुम्हारा गंतव्य है, लक्ष्य है, इसलिए बोलता हूं।
अक्षर से क्षर तक की यात्रा यंत्र
क्षर से अक्षर तक की यात्रा मंत्र
अक्षर से अक्षर तक की यात्रा तंत्र
जो बोल रहा हूं उसमें कुछ यंत्र है, जो बोल रहा हूं उसमें कुछ मंत्र है, और जो बोल रहा हूं उसमें कुछ तंत्र है। उसमें तीनों हैं। फिर से सुनो:
अक्षर से क्षर तक की यात्रा यंत्र
वह जो अक्षर है, जो दिखाई भी नहीं पड़ता, जिसकी कोई सीमा नहीं है, जो शाश्वत-सनातन है, उसको जब हम सीमा में उतारते हैं, शब्द में बांधते हैं, तो यंत्र पैदा होता है। विज्ञान वही है।
मैं तुमसे जो बोल रहा हूं उसमें कुछ विज्ञान है; उसमें कुछ विधियां हैं। उन विधियों को तुम पकड़ लो–अक्षर से क्षर तक की यात्रा यंत्र। अगर तुम उन विधियों को पकड़ लो, उन सीढ़ियों को पकड़ लो तो फिर तुम क्षर के सहारे चढ़कर पुनः अक्षर तक पहुंच सकते हो। उसमें कुछ विधियां हैं।
क्षर से अक्षर तक की यात्रा मंत्र
और जब क्षर में अक्षर तक जाना होता है तो जिनसे सहारा मिलता है उन्हीं का नाम मंत्र है। जो मैं बोल रहा हूं उसमें कुछ मंत्र हैं। इन मंत्रों को अगर तुम समझ लो तो तुम वापिस वहां पहुंच जाओगे जहां से आये हो। मूल स्रोत तक पहुंच जाओगे। और मैं जो बोल रहा हूं उसमें कुछ तंत्र है।
अक्षर से अक्षर तक की यात्रा तंत्र
यह सबसे ज्यादा कठिन बात है तंत्र। यंत्र भी समझ में आता–ऊपर से नीचे उतरना यंत्र। नीचे से ऊपर जाना मंत्र। ऊपर से ऊपर जाना तंत्र। पृथ्वी से आकाश की तरफ जाना मंत्र, आकाश से पृथ्वी की तरफ आना तंत्र। आकाश से और बड़े आकाशों की तरफ जाना, पूर्णता से और बड़ी पूर्णताओं की तरफ जाना, शून्य से और महाशून्यों की तरफ जाना तंत्र। तीनों हैं।
किन्हीं के काम के लिए यंत्र है अभी, विधि जरूरी है। उनके लिए विधि दे रहा हूं। किन्हीं के लिए मंत्र जरूरी है। उनके लिए विधि आवश्यक नहीं, प्रार्थना काफी है; भाव काफी है। फिर कुछ ऐेसे भी हैं जिन्हें न प्रार्थना की जरूरत है, न ध्यान की विधियों की जरूरत है। उनके लिए अष्टावक्र के सूत्र दे रहा हूं; यह तंत्र है। अक्षर से अक्षर तक की यात्रा तंत्र। श्रवणमात्रेण। न कोई विधि, न कोई मंत्र। मात्र सुन लिया, हो गया।
तीनों तरह के लोग यहां हैं। कुछ तांत्रिक, कुछ यांत्रिक, कुछ मांत्रिक। तीनों तरह के लोग यहां हैं। तीनों के लिए बोल रहा हूं। जब भक्ति पर बोलता हूं तो मंत्र पर बोलता हूं। जब पतंजलि और योग पर बोला तो यंत्र पर बोला। अष्टावक्र पर बोल रहा हूं या लाओत्सु पर बोला तो तंत्र पर बोला।
बोलना जरूरी है क्योंकि तुमने अभी सुना नहीं। तुम सुन लो तो मेरा काम पूरा हो जाये।
लेकिन जिसने पूछा है वह शायद मेरे बोलने से परेशान होता होगा। उसे कुछ अड़चन होगी। दूसरे भी हैं जिन्हें बोलने में रस आ रहा है, जो सुनने में रसमग्न हैं, वे कहते हैं और बोलूं। जिसने पूछा है उसे कुछ बेचैनी होगी। शायद मेरे शब्द उसकी सुरक्षाओं को तोड़ते होंगे। शायद मेरे शब्द उसके सिद्धांतों को डांवांडोल करते होंगे। शायद मेरे शब्दों के कारण उसकी रात की नींद खराब होती होगी। शायद मेरे शब्दों के कारण उसकी जो मान्यतायें हैं वे उखड़ रही होंगी। उसे कुछ अड़चन है।
तुम अपनी अड़चन समझो। बजाय यह पूछने के कि मैं क्यों बोलता हूं, तुम यह समझो कि मेरे बोलने से तुम बेचैन क्यों हो? क्योंकि वही तुम्हारा…तुम्हारी सीमा है। वही तुम्हारी समस्या है। मेरे बोलने का क्या संबंध है? तुम्हें नहीं सुनना है, मत सुनो। मैं तुम्हारे घर आकर नहीं बोलता हूं। तुम यहां आकर मुझे सुनते हो। तुम मत आओ। तुम्हें सुनने में कुछ अड़चन होती है, कुछ पीड़ा होती है, कोई कांटा चुभता है, मत आओ। लेकिन यही मुसीबत है। आना भी पड़ता है। सुनना भी पड़ता है। सुनने से मुसीबत भी खड़ी होती है। क्योंकि सुनने से क्रांति निर्मित होती है। पुराने को छोड़ना पड़ेगा। सुन लिया तो तुम मुश्किल में पड़े। अब तुम बिना सुने भी नहीं रह सकते हो और आगे सुनने में भी डरते हो। तो तुम मुझसे ही प्रार्थना कर रहे हो कि आप ही कृपा करके बोलना बंद कर दें।
नहीं, मैं तुम्हारी न सुनूंगा। जब तुम मेरी नहीं सुन रहे तो मैं तुम्हारी सुनूं? तुम मेरी सुन लो तो मैं भी तुम्हारी सुन लूं। तुम अगर सुन लो जो मैं कह रहा हूं तो मुझे बोलने की जरूरत न रह जाये। फिर बिना बोले भी काम हो जाये। फिर शून्य से भी बात हो जाये। फिर अक्षर से अक्षर, शून्य से शून्य, मौन से मौन का भी मिलन हो जाये। सुन लो तुम तो। वे भी हैं जो सुनते रहना चाहते हैं। वे भी हैं जो मैं चला जाऊंगा तो पछतायेंगे। वे भी हैं जो मैं चुप हो जाऊंगा तो रोयेंगे।
वे तुम्हारे बोल, वे अनमोल मोती
वे रजत क्षण, वे तुम्हारे आंसुओं के बिंदु
वे लोने सरोवर, बिंदुओं में प्रेम के भगवान का
संगीत भर-भर बोलते थे तुम, अमर रस घोलते थे
तुम हठीले पर हृदय-पट तार
हो पाये कभी मेरे न गीले
न, अजी मैंने सुने तक भी नहीं प्यारे
तुम्हारे बोल
बोल से बढ़कर बजा मेरे हृदय में
सुख-क्षणों का ढोल
वे तुम्हारे बोल
वे भी हैं; उनके लिए ही बोल रहा हूं। जिनको सुनने में अड़चन है वे न सुनें। सुविधा है उनके लिए, न सुनें। अगर नहीं सुनने से कठिनाई है, सुनना ही पड़ेगा, तो फिर हृदय खोलकर सुन लें। फिर कंजूसी से न सुनें। मैं तो बोल रहा हूं उनके लिए, जिनके हृदय में कुछ अमृत घुलता है।
वे तुम्हारे बोल, वे अनमोल मोती
वे रजत क्षण,
बिंदुओं में प्रेम के भगवान का संगीत भर-भर
बोलते थे तुम, अमर रस घोलते थे
पर हृदय-पट तार
हो पाये कभी मेरे न गीले
उनके लिए बोलता हूं जिनके हृदय-पट के तार अभी भी गीले नहीं हो पाये, लेकिन जो गीले करने को तत्पर हैं। जो रंगे जाने को तत्पर हैं। जिनकी तैयारी है। अड़चनें हैं अनंत कालों की, जन्मों-जन्मों की, बाधायें हैं संस्कारों की। लेकिन जो तैयार हैं, आज नहीं कल जो रंगे जायेंगे। बोलता हूं उनके लिए।
और उनके हृदय की स्थिति ऐसी है कि जो वे सुन रहे हैं, उसे चाहे न भी सुन पाते हों तो भी उनके हृदय में सुख का एक ढोल बजता है।
न, अजी मैंने सुने तक भी नहीं प्यारे तुम्हारे बोल
बोल से बढ़कर बजा मेरे हृदय में
सुख-क्षणों का ढोल
वे तुम्हारे बोल
और वह ढोल बजने लगे तो चाहे तुमने सुना नहीं सुना, कोई अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि उसी परम सुख की तरफ यात्रा है। ढोल बजने लगा सुख का तो बात हो गई। ये शब्द शब्द नहीं हैं, यह तुम्हारे भीतर पड़ी हुई बांसुरी को बजाने का उपाय है। ये शब्द शब्द नहीं हैं, यह तुम्हारे भीतर पड़ी वीणा को छेड़ने का उपाय है। तुम एक संगीत लेकर आये हो, उसको बिना बजाये मत चले जाना। तुम एक गीत लेकर आये हो, उसे बिना गाये मत चले जाना।
हर सुमन का सुरभि से यह अनलिखा अनुबंध
अनिल को सौंपे बिना यदि मैं झरूं, सौगंध!
तुम्हें भी सौगंध है, बिना अपनी सुगंध को हवाओं को सौंपे बिना चले मत जाना।
सुनना हो, सुनो। न सुनना हो, न सुनो। लेकिन सदा याद रखो, समस्या तुम्हारी है। यह समस्या मेरी नहीं है कि मैं क्यों बोलता हूं। मैं बोलता हूं क्योंकि पक्षी क्यों बोलते हैं! मैं बोलता हूं क्योंकि फूल क्यों बोलते हैं! मैं बोलता हूं क्योंकि सूरज की किरणें क्यों बोलती हैं! मैं बोलता हूं क्योंकि परमात्मा चारों तरफ बोल रहा है।
छठा प्रश्न:
भगवान, कल रात मैंने एक स्वप्न देखा कि रजनीश और उनके संन्यासियों तथा सत्य साईंबाबा और उनके अनुयायियों के बीच युद्ध हो रहा है। और अंत में साईंबाबा स्वीकार करते हैं कि रजनीश बड़े भगवान हैं। इस स्वप्न का कारण और अर्थ बताने की कृपा करें।
न तो कुछ अर्थ है, न कोई बड़ा कारण है। या जो भी है वह बिलकुल साफ है; वह सीधा-सीधा है कि तुम रजनीश के अनुयायी हो। सत्य साईंबाबा के होते तो निष्कर्ष उल्टा होता।
यह तुम्हारा अहंकार है। तुम मेरे अनुयायी हो इसलिए मेरी जीत होनी चाहिए, क्योंकि मेरी जीत में ही तुम्हारी जीत छिपी है। तुम मेरे अनुयायी हो तो मैं बड़ा महात्मा होना चाहिए, क्योंकि बड़े महात्मा के ही तुम शिष्य हो सकते हो, छोटे के तो नहीं। तुम जैसा शिष्य और छोटे महात्माओं का हो?
अपने अहंकार के खेलों को समझने की कोशिश करो। न तुम्हें रजनीश से कोई मतलब है, न तुम्हें सत्य साईंबाबा से कुछ मतलब है। यह तुम्हारा ही अहंकार है। तुम सोच रहे हो, कोई बहुत बड़ा तात्विक सपना देख लिया, कि कोई बहुत आध्यात्मिक घटना देख ली; कि भविष्यवाणी तुम्हारे सपने में आ गई।
इस पागलपन में मत पड़ना। न कुछ अर्थ है, न कोई बड़ा कारण है। सिर्फ तुम्हारे अहंकार के रोग हैं। वे नये-नये ढंग लेते हैं। वे गुरु के पीछे भी खड़े हो जाते हैं। तुम्हें क्या प्रयोजन है? मैं हारूं कि जीतूं, तुम्हें क्या लेना-देना है? हां, अगर तुम मेरे अनुयायी हो तो अड़चन है। तो मैं हारा तो तुम हारे। मैं जीता तो तुम जीते। तुम्हें फिक्र तुम्हारी जीत की है। मेरी हार-जीत की थोड़े ही फिक्र है!
और मेरी हार-जीत होनी भी नहीं है। हो चुकी। जो होना था हो चुका। अब कुछ होने को नहीं है। यात्रा पूरी हो गई। मैं अपने घर वापिस लौट आया हूं। अब कोई युद्ध नहीं चल रहा है। तुम्हारी यात्रा अभी अधूरी है।
और तुम्हारा अहंकार नये-नये रूप लेगा। और ऐसे रूप लेगा कि तुम्हें शक भी नहीं होगा कि यह अहंकार है। इसीलिए तो तुमने इतने बड़े मजे से यह प्रश्न पूछा। तुमने सोचा कि मैं तुम्हारी पीठ बहुत थपथपाऊंगा। कहूंगा कि खूब, कि मुझे भी जिता दिया! बड़ी कृपा!
इस भूल में मत पड़ना। मैं तुम्हारी पीठ थपथपाऊंगा नहीं, क्योंकि यह तो तुम्हारे अहंकार को ही थपथपाना होगा।
पेरिस के विश्वविद्यालय में एक दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर था। वह रोज कहा करता था कि मुझसे बड़ा आदमी संसार में दूसरा नहीं है। आखिर उसके शिष्यों को भी बेचैनी होने लगी। एक शिष्य ने कहा कि आप दर्शन के प्रोफेसर हैं, तर्कशास्त्र के ज्ञाता हैं, और आप ऐसी बात कहते हैं। करोड़ों- करोड़ों लोग हैं, इनमें आप सबसे बड़े हो कैसे सकते हैं? और फिर अगर आप कहते हैं इसको तो सिद्ध कर दें।
तो उसने कहा, सिद्ध कर देता हूं। उसने सारी दुनिया का नक्शा टांग दिया लाकर। और कहा, तुम मुझे यह बताओ, इस सारी दुनिया में सबसे श्रेष्ठ देश कौन-सा है? वे सभी फ्रांसीसी थे, फ्रेंच थे। उन्होंने कहा, निश्चित ही फ्रांस से बड़ा देश कोई भी नहीं है।
सभी देशों को यही पागलपन है। भारतीयों से पूछो तो वे कहते हैं, यह तो धर्मगुरु। यह देश, यह तो पुण्यभूमि है। यहीं भगवान अवतार लेते रहे, और तो कहीं लिये ही नहीं। और तो बाकी सब ठीक है, असली चीज तो यहीं है। पर यह सभी को खयाल है। यह कोई तुम्हारा ही खयाल नहीं है। चीनियों से पूछो, रूसियों से पूछो, अमरीकनों से पूछो, अंग्रेजों से पूछो।
तो सभी फ्रेंच थे, उन्होंने कहा कि फ्रांस से बड़ा कोई देश नहीं है। तो उसने कहा कि ठीक है, बाकी दुनिया तो खतम हुई, रहा फ्रांस। उसमें अगर मैंने सिद्ध कर दिया कि मैं सबसे बड़ा आदमी हूं, फिर तो मानोगे? उन्होंने कहा, मानेंगे। उसके बाद उसने पूछा कि तुम मुझे यह बताओ कि फ्रांस में सबसे श्रेष्ठ नगर कौन-सा? सब पेरिस के रहने वाले। उन्होंने कहा कि साफ है बात कि पेरिस सबसे…। तब तो वे भी थोड़े घबड़ाने लगे विद्यार्थी, कि यह आदमी तो धीरे-धीरे रास्ते पर ला रहा है। पेरिस सबसे बड़ा, सबसे श्रेष्ठ नगर। इसमें कोई शक-शुबहा, इसमें कोई दो मंतव्य हो भी नहीं सकते।
और तब उस प्रोफेसर ने कहा, फिर मैं तुमसे यह पूछता हूं कि पेरिस में सबसे श्रेष्ठ स्थान? निश्चित ही विश्वविद्यालय से श्रेष्ठ और क्या हो सकता है! विद्यापीठ, सरस्वती का मंदिर। मगर अब तो विद्यार्थियों को जंचने लगा कि मामला यह उलझाये दे रहा है। तो उन्होंने कहा, विश्वविद्यालय। और उसने कहा, मुझे तुम यह बताओ कि विश्वविद्यालय में सबसे श्रेष्ठ विभाग? अब वे सब फिलासफी के विद्यार्थी। और ऐसे भी फिलासफी, दर्शनशास्त्र, शास्त्रों का शास्त्र! उसके पार कौन है? तो उन्होंने कहा, दर्शनशास्त्र। उसने कहा, तुम यह बताओ कि दर्शनशास्त्र का हेड आफ द डिपार्टमेंट कौन है? मैं! और मैं तुमसे कहता हूं कि मैं दुनिया का सबसे श्रेष्ठ आदमी हूं।
ऐसा आदमी चलता है। उसके सब तर्क मैं पर आ जाते हैं। तुम जब कहते हो कि भारतभूमि धन्य, तो तुम यह नहीं कह रहे हो कि भारतभूमि धन्य, तुम यह कह रहे हो कि हम यहां पैदा हुए धन्य। तुम्हारे पैदा होने से यह भारतभूमि धन्य। तुम अगर रूस में पैदा होते तो रूस की भूमि धन्य होती। पक्का मानो! क्योंकि एक भी रूसी नहीं कहता कि भारतभूमि धन्य। तुम चीनी होते तो चीन। तुम जहां होते, तुम उसी को धन्य कहते।
तो खयाल रखना, यह भारत, यह हिंदू धर्म श्रेष्ठतम धर्म, यह तुम्हारी वजह से है। और वेद सबसे महान शास्त्र, यह तुम्हारी वजह से है–या कुरान, या बाइबल। और जब तुम घोषणा करते हो कि महावीर महान तीर्थंकर, तो तुम खयाल कर लेना, कोई आदमी जो जैन नहीं है ऐसा नहीं कहेगा। हिंदू कहेगा, कहां की बातें उठा रहे हो? महावीर? कृष्ण की कहो। मुसलमान हंसेगा, वह कहेगा महावीर? अरे मोहम्मद की बात करो!
प्रत्येक अपने की घोषणा कर रहा है, क्योंकि अपने के माध्यम से अपनी घोषणा है। कहावत है न, कौन अपनी मां को असुंदर कहता? लेकिन घोषणा अपनी ही चल रही है।
यह तुम्हारा स्वप्न तुम्हारे अहंकार का विस्तार है। इससे सावधान होना। स्वप्न ने बड़ी कृपा की कि तुम्हें चेताने की चेष्टा की है। जो स्वप्न में प्रगट हुआ है वह जाग्रत में भी तुम्हारे मन में होगा, तभी तो प्रगट हुआ है। न तो कोई युद्ध चल रहा है किसी के साथ–कम से कम मेरा नहीं चल रहा है किसी के साथ कोई युद्ध। तुम्हारा शायद चल रहा हो। तुम मुझे बचाना। मैं तुम्हारे पीछे नहीं आ रहा हूं। मेरा किसी से कोई युद्ध नहीं चल रहा है। न कोई हार है, न कोई जीत है। लेकिन तुम्हारी अस्मितायें तुम्हें बहुत तरह की प्रवंचनाओं में डालेंगी। उनसे सावधान रहना जरूरी है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, तीन साल की छोटी-सी अवधि में ही यह आश्रम अस्तित्व में आया, जहां से पूरी पृथ्वी पर धर्म की ज्योति फैल रही है। अभी धरती पर यह अपने ढंग का अकेला और अप्रतिम धर्मधाम है। और आप ही उसके सब कुछ हैं–जन्मदाता, निर्माता और संचालक। मुझे अक्सर आश्चर्य होता है कि निर्माण और व्यवस्था का यह विशाल कार्य कामना को बीच में लाये बिना ही कैसे संभव हुआ?
न तो मैं जन्मदाता हूं, न निर्माता और न संचालक। तुम जानते हो, तेईस घंटे तो मैं अपने कमरे में रहता। बाहर जाता भी नहीं। कमरे के बाहर नहीं जाता। ऐसे कहीं संचालन होता है? ऐसे कहीं निर्माण होता है? पूरे आश्रम से भी मैं परिचित नहीं हूं। कहां क्या हो रहा है इसका भी मुझे कुछ पता नहीं है। आश्रम के सब मकान भी मैंने नहीं देखे हैं।
ऐसे कहीं निर्माण होता है? नहीं, मैं निर्माता नहीं हूं, न जन्मदाता हूं और न संचालक हूं। मैं हूं ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा बहाना। और इसे स्मरण रखना कि यह मेरा आश्रम नहीं है। और ऐसा मैं चाहता हूं कि यह आश्रम किसी का भी न हो। यह परमात्मा का ही हो; वही चलाये। मेरा उपयोग कर ले, तुम्हारा उपयोग कर ले, लेकिन हम निमित्त से ज्यादा न हों।
और जब वही चला रहा हो तो हम बीच-बीच में न आयें। बीच में हमारे आने की कोई जरूरत भी नहीं। इसलिए अपने कमरे में बैठा रहता हूं। उससे कहता हूं, तू चला। जिनके सिर पर सवार होना हो उनके सिर पर सवार हो जा और चला।
मैं कोई कतार्र् नहीं हूं। और इसीलिए बिना किसी कामना को बीच में लाये काम होता रहता। यह और भी विशाल होगा। यह और भी विराट होगा। क्योंकि विशाल के हाथ इसके पीछे हैं। हमारे हाथ तो बड़े छोटे हैं। इन हाथों से छोटी चीजें ही बनती हैं, बड़ी चीजें नहीं बन सकतीं। लेकिन जब परमात्मा का हाथ कहीं होता है तब बात बदल जाती है। तब चीजें विराट होने लगती हैं। तब चीजें सब सीमाओं को तोड़कर बढ़ने लगती हैं।
मैं तो अपने कमरे में बैठा हूं, सारी दुनिया से लोग चले आ रहे हैं। कैसे नाम सुन लेते हैं, कैसे उन तक खबर पहुंचती है, वे जानें। जरूर कोई उनके कान में कह जाता होगा। जरूर कोई उन्हें यहां भेजे दे रहा है।
मोहम्मद के जीवन में एक बड़ा प्यारा उल्लेख है। दुश्मन उनका पीछा कर रहे थे। हजारों की भीड़ उनके पीछे लगी थी। और वे अपने केवल एकमात्र साथी अबू बकर को लेकर मक्का से रवाना हुए। और दुश्मन पीछे हैं। और ऐसी घड़ी आ गई कि दुश्मन कभी भी आकर उनको खत्म कर देंगे। तो वे एक गुफा में छिप रहे। गुफा के चारों तरफ हजारों लोग चक्कर काट रहे हैं और पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं, वे कहां छिपे हैं। गुफा के सामने भी लोग खड़े हैं।
और अबू बकर कंप रहा है। और वह मोहम्मद का हाथ हिलाकर कहता है कि अब क्या होगा हजरत? हम दो हैं और दुश्मन हजार हैं। आज मौत निश्चित है। और मोहम्मद हंसते हैं। और मोहम्मद कहते हैं, तू गिनती ठीक से कर। हम दो नहीं हैं, तीन हैं। तो अबू बकर अपने चारों तरफ देखता है, वह कहता है, क्या कह रहे हैं? आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया घबड़ाहट में? तीन नहीं, दो हैं। मैं हूं और आप हैं। मोहम्मद कहते हैं, फिर तूने गलती की। हम दो का तो कुछ होना न होना बराबर है। तीसरे को देख, परमात्मा साथ है। हम तीन हैं।
और मोहम्मद ठीक कह रहे हैं। वे हजारों दुश्मन चारों तरफ घूमते रहे। वे द्वार के सामने भी खड़े रहे गुफा के और उनको मोहम्मद दिखाई न पड़े। और वे धीरे-धीरे घंटों भर मेहनत करके चले भी गये। वह जो तीसरा है वही महत्वपूर्ण है।
नहीं, मैं नहीं चला रहा हूं, वही चला रहा है। जब तक उसकी मर्जी, चलाये। जैसे उसकी मर्जी, चलाये। जैसा मेरा उपयोग करना हो, कर ले।
इसलिए निश्चिंत हूं। इसलिए जो होता, ठीक; जो नहीं होता वह भी ठीक। उसका कोई हिसाब भी नहीं रखता हूं।
तुम्हीं बयार बन पाल भरो
तुम्हीं पहुंचे फड़फड़ाओ
लटों में छन-छन अंग-अंग सहरो
तुम्हीं धार पर संतार दो
मैंने तो प्रभु से कह दिया, अब तुम्हीं बयार बन पाल भरो। तुम्हीं पहुंचे फड़फड़ाओ। और लटों में छन-छन अंग-अंग सहरो। और तुम्हीं धार पर संतार दो। और मुझे क्षमा करो। जो करना हो करो। मेरा जो उपयोग करना हो करो।
निमित्त मात्र! इससे ज्यादा आदमी न रहे। इससे ज्यादा आदमी न रहे तो बहुत होता है, बिना किये होता है। और जहां तुम करने वाले हुए वहां कितना ही करो, कुछ भी नहीं होता। सब क्षुद्र रह जाता है। मनुष्य के हस्ताक्षर कभी भी विराट नहीं हो पाते, छोटे ही रह जाते हैं। उनकी सीमा है।
और जिस दिन से मैंने ऐसा जाना कि तुम अपने को छोड़ सकते हो, प्रभु सब करता है, उस दिन से जीवन में एक अलग ही रस आ गया।
फूल की रेशमी-रेशमी छांहें
आज हैं केसर रंग रंगे वन
उसी दिन से दिखाई पड़ने लगा कि सब तरफ छाया है।
फूल की रेशमी-रेशमी छांहें।
कोई धूप नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई श्रम नहीं।
आज हैं केसर रंग रंगे वन
उसी दिन से सारा जगत केसर में रंग गया। उसी दिन से तो तुम्हें केसरिया रंग में रंगना शुरू कर दिया।
आज हैं केसर रंग रंगे वन
नहीं, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। जो हो रहा है, हो रहा है। जैैसे तुम देख रहे हो वैसे ही मैं भी देख रहा हूं। मेरा तो उसूल छोटा-सा है–
बांस के कुंज में बैठो और चाय पीयो
जैसे चीन के पुराने संत जीते थे वैसे निश्चिंत जीयो
देवता की राह हिंसा नहीं है, अहिंसा की राह है
वे इंद्रियों से लड़ते नहीं, पुचकारकर उन्हें पास बुलाते हैं
देवता के पास पीपल की छाया होती है
वे छांह में इंद्रियों को प्रेम से सुलाते हैं
लेकिन प्रेत कहता है, जीवन से युद्ध करो
मारो, मारो, इंद्रियों को मारो और अपने को शुद्ध करो
मैं कहता हूं, बांस के कुंज में बैठो और चाय पीयो
जैसे चीन के पुराने संत जीते थे वैसे निश्चिंत जीयो।
हिंसा नहीं। आक्रमण नहीं। कुछ करने की योजना में हिंसा है, आक्रमण है। अब आक्रमण छोड़ो। अनाक्रमक। कुछ करने का भाव ही छोड़ो। अहंकार के लिए कुछ करने को नहीं है। जहां अहंकार आया, हिंसा आई। न तो संसार से लड़ो न अपने से लड़ो।
बांस के कुंज में बैठो और चाय पीयो
जैसे चीन के पुराने संत जीते थे वैसे निश्चिंत जीयो।
आज इतना ही।