UPANISHAD
Maha Geeta 77
SeventySeventh Discourse from the series of 91 discourses – Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 – FEB 10 1977.
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अष्टावक्र उवाच।
भ्रमभूतमिदं सर्वं किंचिन्नास्तीति निश्चयी।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति।। 246।।
शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।
क्व विधिः क्व च वैराग्यं क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा।। 247।।
स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः।
क्व बंधः क्व च वा मोक्षः क्व हर्षः क्व विषादिता।। 248।।
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः।। 249।।
अक्षयं गतसंतापमात्मानं पश्यतो मुनेः।
क्व विद्या च क्व वा विश्वं क्व देहोऽहं ममेति वा।। 250।।
भ्रमभूतमिदं सर्वं किंचिन्नास्तीति निश्चयी।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति।।
‘यह सब प्रपंच कुछ भी नहीं है ऐसा जानकर, ऐसा निश्चयपूर्वक जानकर अलक्ष्य स्फुरणवाला शुद्ध पुरुष स्वभाव से ही शांत होता है।’
एक-एक शब्द को ठीक से समझना। जैसा अष्टावक्र कहें वैसा ही समझना। अपने अर्थ मत डालना। पहला शब्द है, प्रपंच।
भ्रमभूतमिदं सर्वं…।
यह सब जो दिखाई पड़ता, सच नहीं है। जैसा दिखाई पड़ता वैसा नहीं है। हम वैसा ही देख लेते हैं जैसा देखना चाहते हैं। हम अपनी कामना आरोपित कर लेते हैं। जैसा है वैसा तो तभी दिखाई पड़ेगा जब हमारे मन में कोई भी विचार न रह जायें; जब हमारी आंखें बिलकुल खाली हों, शून्य हों; जब हमारी आंख पर कोई भी बादल न हों पक्षपात के, वासना के, कामना के। तो ही जो जैसा है वैसा दिखाई पड़ेगा।
प्रपंच का अर्थ होता है, जैसा नहीं है वैसा देख लेना।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अमरीका की यात्रा पर गया। न्यूयार्क की एक बड़ी सड़क पर राह के किनारे उसने एक बोर्ड लगा देखा, जिस पर लिखा था कि उन्नीस सौ अस्सी में अमरीका में कारों की संख्या पचास करोड़ हो जायेगी। ऐसा पढ़ते ही वह एकदम भागा सड़क पर। खतरनाक था वैसा भागना। और एक पुलिसवाले ने उसे पकड़ा और कहा कि कहां भागे जाते हो? क्या इतनी जल्दी है? देखते नहीं, रास्ते पर इतना ट्रैफिक है? नसरुद्दीन ने कहा, छोड़ो भी! उन्नीस सौ अस्सी में कारों की संख्या पचास करोड़ हो जायेगी। अगर रास्ता पार करना है तो अभी ही कर लेना चाहिए।
आदमी अपनी कामना को प्रक्षेपित कर लेता है। तुम हंसते हो क्योंकि उन्नीस सौ अस्सी तो दूर मालूम पड़ता। इतनी जल्दी क्या है? लेकिन तुमने न केवल मृत्यु तक की योजनायें बना रखी हैं, तुमने मृत्यु के बाद की भी योजनायें बना रखी हैं। तुमने यहां तो इंतजाम किया ही है, तुम स्वर्ग में भी इंतजाम कर रहे हो। यहां धन इकट्ठा कर रहे, वहां पुण्य इकट्ठा कर रहे। यहां चोरी से धन मिलता है तो चोरी से कर रहे, वहां दान देने से पुण्य के सिक्के इकट्ठे होते हैं तो दान भी कर रहे। चोर भी हो, दानी भी हो; साथ-साथ हो।
मैंने सुना है, एक सम्राट ने एक बहुत बड़े चोर को फांसी की सजा दी। उस राज्य का नियम था कि जिसे फांसी की सजा हो उससे अंतिम समय सम्राट पूछता था, तेरी कोई आखिरी इच्छा तो नहीं? तो सम्राट ने पूछा उस महाचोर को, तेरी कोई आखिरी इच्छा तो नहीं? उसने कहा मेरी आखिरी इच्छा है, छोटी-सी इच्छा है, वह पूरी हो जाये तो मैं तृप्त मरूं।
मेरे पास कुछ मोती हैं। और मेरे गुरु ने कहा था कि इन्हें बो देना तो एक-एक मोती से लाखों मोती पैदा होंगे। तो मैं इन्हें बो देना चाहता हूं। मैं तो मर जाऊंगा लेकिन कोई यह फसल काटेगा। किसी को तो यह लाभ होगा, नहीं तो ये मोती मेरे साथ ही चले जायेंगे।
सम्राट भी लोभ से भरा। और उसने कहा, ठीक है तुम राजमहल के बगीचे में ही बो दो। उस आदमी ने जमीन साफ की। उस आदमी ने जमीन पर हल-बखर चलाये। और फिर वह आदमी अचानक खड़ा हो गया। उसने सम्राट से कहा, आप कृपा करके यहां आ जायें क्योंकि मेरे गुरु ने कहा था, जो चोर न हो वही इन मोतियों को बोये। मैं तो चोर हूं, मैं इनको नहीं बो सकूंगा। और बोऊंगा तो ये व्यर्थ चले जायेंगे। इन मोतियों की यह खूबी है, ये उगेंगे तभी जब कोई ऐसा आदमी बोये जो अचोर है।
सम्राट अपने वजीरों की तरफ देखने लगा, वजीर पुरोहित की तरफ देखने लगे, पुरोहित सेनापति की तरफ देखने लगा और सेनापति सम्राट की तरफ देखने लगा और तब सम्राट ने कहा, क्षमा करो। ये बीज न बोये जा सकेंगे। हम सब चोर हैं। ऐसा तो कोई आदमी नहीं है, जो चोर न हो। और सम्राट ने कहा, मैं समझ गया तुम्हारी बात। तुम्हारी फांसी की सजा रद्द की जाती है। तुम भी चोर हो, हम भी चोर हैं। तुम छोटे चोर हो, हम बड़े चोर हैं; लेकिन चोर हम सब हैं।
और वह सम्राट बड़ा दानी था। और वह चोर कहने लगा, महाराज, आप और चोर कैसे हो सकते हैं? आप तो महादानी! वह सम्राट कहने लगा, महादानी कैसे हो सकता हूं बिना चोर हुए? पहले तो चोरी करनी पड़े, फिर दान करना पड़ता है। लाख आदमी चुरा लेता है, दो-चार हजार दान कर देता है। ऐसे चोरी के ऊपर साधु हो जाता है। चोरी करके यहां धन इकट्ठा कर लेता है, साधु होकर पुण्य करके वहां स्वर्ग में भी सिक्के इकट्ठे कर लेता है।
तुम तो योजना बनाते मृत्यु तक की, मृत्यु के पार तक की–अपने लिए, अपने बच्चों के लिए, अपने बच्चों के बच्चों के लिए, नाती-पोतों के लिए। समय के लंबे विस्तार पर तुम्हारी कामना फैल जाती है। फिर उस कामना की धुंध में से तुम देखना चाहते हो यथार्थ को, नहीं दिखाई पड़ेगा। राम को देखना चाहते काम की धुंध से, नहीं दिखाई पड़ेगा। काम की धुंध जाये तो राम दिखाई पड़े। सत्य तो मौजूद है, आंख के सामने मौजूद है, लेकिन आंखें धुंधली हो गई हैं। आंखों पर चश्मे पर चश्मे चढ़े हैं। और मजा ऐसा है कि चश्मे भी तुम्हारे नहीं हैं, चश्मे भी दूसरों के हैं।
कभी देखा? किसी दूसरे का चश्मा लगाकर देखा, कैसी हालत हो जाती है? कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगता है। और तुम्हारी आंख पर एकाध चश्मा नहीं है दूसरों का, न मालूम कितने चश्मे हैं। बुद्ध के, महावीर के, कृष्ण के, मोहम्मद के, जरथुस्त्र के, चश्मे पर चश्मे तुमने हर जगह से इकट्ठे कर लिए हैं। सदियों-सदियों के चश्मे हैं; वे सब तुम लगाए बैठे हो। और उनके माध्यम से तुम देखना चाहते हो, जो है उसे। नहीं, प्रपंच हो जाता है सब। सब झूठ हो जाता है। सब विकृत, कुरूप।
प्रपंच का अर्थ होता है, आंख शुद्ध न थी और देखा। और आंख ही शुद्ध न हो तो फिर तुम जो भी देखोगे वह गलत हो गया। यही माया का अर्थ है। माया का ऐसा अर्थ नहीं है कि जो चारों तरफ है वह झूठ है। जैसा तुमने देखा वैसा नहीं है। जैसा तुमने देखा वैसा झूठ है। ये पत्थर-पहाड़, ये सूरज, चांद-तारे, ये झूठ नहीं हैं, लेकिन तुमने जैसा देखा वैसा झूठ है।
कभी देखा? रात चांद निकला हो, पूर्णिमा का चांद हो, शरद का चांद हो और अगर तुम दुखी हो तो चांद भी लगता है रो रहा है। चांद क्या खाक रोयेगा! लेकिन तुम रो रहे हो। तुम्हारी आंखें आंसुओं से भरी हैं। तुम्हारी प्रेयसी खो गई कि तुम्हारा प्रेमी खो गया कि तुम्हारा बेटा मर गया, तुम चांद की तरफ देखते, लगता है चांद से आंसू टपक रहे हैं। तुम्हारे आंसू चांद पर आरोपित हो जाते हैं। और हो सकता है तुम्हारे ही पड़ोस में किसी को उसकी प्रेयसी मिल गई हो, उसका मित्र घर आया हो, वह आनंदमगन हो रहा हो। वह चांद को देखेगा तो देखेगा, चांद मुस्कुरा रहा, नाच रहा, गीत गुनगुना रहा। एक ही चांद को देखते हो तुम दोनों लेकिन दोनों की आंखें अलग हैं। दोनों की भावदशा अलग है। भावदशा आरोपित हो जाती है। फिर चांद नहीं दिखाई पड़ता, वही दिखाई पड़ता है जो तुम्हारे भीतर है।
जब तक हमारे भीतर प्रक्षेपण, प्रोजेक्टर मौजूद है तब तक हम जो भी देखेंगे वह झूठ हो जायेगा।
भ्रमभूतमिदं सर्वम्।
और यह जो सब तुम्हें अब तक दिखाई पड़ा है, यह सब बिलकुल असत्य है। समझ लेना ठीक से, इसका यह मतलब नहीं है कि यह नहीं है। कि तुम जाओगे तो दीवाल से निकलना चाहोगे तो निकल जाओगे। सिर टूट जायेगा। दीवाल है। इस भ्रांति में मत पड़ना।
लेकिन जैसा तुम देखते हो वैसा नहीं है। तुम्हारे देखने में भूल है, सत्य के होने में जरा भी भूल नहीं है। जिस दिन तुम्हारी आंखें निर्मल हो जायेंगी, ध्यान-पूरित हो जायेंगी, जिस दिन तुम्हारी आंखों पर दूसरों के चश्मे न रह जायेंगे, पक्षपात के, शास्त्र के, सिद्धांत के, हिंदू-मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन के; जिस दिन तुम्हारी आंख पर कोई चश्मे न होंगे, तुम्हारी आंख खुली और नग्न होगी और तुम मुक्त आंख से देखोगे और आंख के पीछे छिपी हुई वासना का कोई प्रोजेक्टर, कोई प्रक्षेपण-यंत्र न होगा, उस दिन जो दिखाई पड़ेगा वही परमात्मा है। उस दिन सत्य को जाना। उस दिन भ्रम छूटा।
‘यह सब प्रपंच है, यह कुछ भी नहीं है, ऐसा निश्चयपूर्वक जानकर…।’
किंचिन्नास्तीति निश्चयी।
किंचिन्नास्ति–यह बिलकुल भी ऐसा नहीं है, ऐसा निश्चयपूर्वक जानकर।
इति निश्चयी।
निश्चयपूर्वक जानने को खयाल में ले लो। सुना तो तुमने भी है बहुत बार कि यह सब माया। यह तो सदियों से इस देश में दोहराया जा रहा है कि सब माया। लेकिन सुनने से निश्चय नहीं होता। विश्वास भी कर लो तो भी निश्चय नहीं होता। विश्वास के भीतर भी अविश्वास का कीड़ा सरकता रहता है। तुमने लाख मान लिया कि सब माया है लेकिन भीतर? भीतर गहरे तो तुम जानते हो कि है तो सच। शास्त्र कहते हैं सो मान लिया। हिंदू घर में पैदा हुए सो मान लिया। बौद्ध घर में पैदा हुए तो मान लिया। लेकिन यह मानना है, यह निश्चय नहीं है। और जब तक यह निश्चय न हो तब तक काम न पड़ेगा।
मैं एक छोटे बच्चे से पूछ रहा था–किसी के घर में मेहमान था। और वह बच्चा बड़ा तेजस्वी है। वह मुझसे कहने लगा कि मेरा भी विश्वास ईश्वर में है। मैंने उससे पूछा, विश्वास का तू अर्थ क्या करता है? तो वह थोड़ा सोचने लगा और बोला, विश्वास का अर्थ होता है, ऐसी शक्ति कि जिसके द्वारा जैसा नहीं है वैसा मानने की हिम्मत आ जाये। जैसा नहीं है वैसा मानने की हिम्मत आ जाये, उसका नाम विश्वास है।
उसकी परिभाषा मुझे जंची। मालूम तो है कि नहीं है ईश्वर, लेकिन फिर भी मान लेने की जो शक्ति है उसका नाम विश्वास है। बड़े-बड़े शास्त्रों ने विश्वास की परिभाषा की है लेकिन इतनी सुंदर नहीं।
तुम भी कहां मानते हो कि ईश्वर है? कहते हो। जीभ पर है, प्राण में नहीं है। ओठों पर है, हृदय में नहीं है। ऊपर-ऊपर है, भीतर-भीतर बिलकुल नहीं है। यह विश्वास निश्चय नहीं है।
मैंने सुना है, एक आदमी किसी गुरु के पास बहुत वर्षों तक रहा। उसने एक दिन देखा कि गुरु पानी पर चल रहा है। वह बड़ा चमत्कृत हुआ। जब गुरु लौटकर आया तो उसने पैर पकड़ लिये। चमत्कार से तो लोग बड़े चकित होते हैं। उसने कहा कि यह सूत्र तुम मुझे भी बता दो। यह तरकीब तो अब मैं छोडूंगा न, जानकर रहूंगा। यह रहस्य मुझे भी समझाओ, कैसे पानी पर चलें?
गुरु ने कहा, इसमें कुछ रहस्य नहीं। प्रभु पर भरोसा हो तो सब हो जाता है–इति निश्चयी! श्रद्धा हो, सब हो जाता है।
तो उसने कहा, कैसे करूं श्रद्धा? तो उन्होंने कहा, प्रभु का स्मरण काफी है। राम-नाम। तो उस आदमी ने दूसरे ही सुबह नदी पर जाकर कोशिश की। एकदम दोहराने लगा ‘राम-राम-राम-राम।’ चलने की कोशिश की, तत्क्षण डुबकी खा गया। मुंह में पानी भर गया। बामुश्किल बाहर निकलकर आया। बड़ा क्रोधित हुआ।
गुरु के पास गया और कहा कि आप धोखा दिये। मैं तो राम-राम, राम-राम कहता ही गया फिर भी डुबकी खा गया। और राम-राम कहने की वजह से मुंह में भी पानी चला गया। वैसे मैं तैरना जानता हूं। मगर मैं राम-राम कहने में लगा था। और मैं इस खयाल में था कि डुबकी तो होनी नहीं है तो मैंने कुछ व्यवस्था नहीं की थी। सब कपड़े भी खराब हो गये, डुबकी भी खा गया। यह बात जंचती नहीं। आपने कुछ धोखा दे दिया है।
गुरु ने पूछा, कितनी बार राम कहा था? उसने कहा, कितनी बार? अनगिनत बार कहा था। पहले तो किनारे पर खड़े होकर खूब कहता रहा ताकि बल पैदा हो जाये। फिर जब देखा कि हां, अब आ गई गर्मी, तो चला और डुबकी खा गया। और कह रहा था तब भी, जब डुबकी खा रहा था तब भी मैं राम-राम ही कह रहा था।
गुरु ने कहा, इतनी बार कहा इसीलिए डूब गये। श्रद्धा होती तो एक ही बार कहना काफी था। यह तो अश्रद्धा की वजह से इतनी बार कहा। श्रद्धा होती तो एक बार काफी था, फिर दुबारा क्या कहना? राम कह दिया, बात खतम हो गई।
सच तो यह है, अगर श्रद्धा हो तो शब्द में कहना ही नहीं पड़ता। हृदय में उसकी पुलक, उसकी लहर काफी है। इतने शब्द भी नहीं बनाने पड़ते। हवा के एक झोंके की तरह से हृदय में कोई चीज गूंज जाती है, तुम्हें गुंजानी भी नहीं पड़ती। इसलिए तो नानक ने उसके जाप को अजपा कहा है। जप करना पड़े तो सच्चा नहीं। थोड़ा झूठ हो गया। जप का मतलब यह हो गया, तुम कर रहे हो, अजपा का अर्थ होता है, जो अपने से हो।
तुम बैठे हो, अचानक तुम पाओ भीतर कि गूंज रही बात; खिल रहे फूल। तुम द्रष्टा बन जाओ उस समय, कर्ता नहीं। अजपा का अर्थ होता है, जो तुमने जपा नहीं था फिर भी जपा गया। जो अपने आप हुआ। आगे हम सूत्रों में समझेंगे अजपा का अर्थ।
‘जो स्फुरण मात्र है…।’
जो तुम्हारे करने से नहीं हुआ है, जिसकी स्फुरणा हुई है। वृक्षों में फूल खिले हैं; वृक्षों ने खिलाये नहीं, खिले हैं। इसलिए बड़ी गहरी सचाई है उनमें और बड़ी सुगंध। और उनके रंग अदभुत हैं। और प्रभु की उनमें झलक है। ये पक्षी गुनगुना रहे हैं। ये चेष्टा नहीं कर रहे हैं, यह गीत इनसे फूट रहा है। जैसे झरने बह रहे हैं ऐसे पक्षी गीत गुनगुना रहे हैं। जैसे हवा बहती है और सूरज निकलता है। और सूरज की किरणें बरसती हैं। ऐसे पक्षी गा रहे हैं। यह स्फुरण मात्र है।
तुम जब बैठकर राम-राम करते हो तब चेष्टा होती है। चेष्टा यानी झूठ। तुम्हारा किया सब प्रपंच है। तुम्हारे किये तुम कहीं भी न पहुंच पाओगे। तुमने किया कि तुम भटके। तुम ऐसी दशा में आ जाओ जहां तुम न करो, जो होता है उसे होने दो। लेकिन बिना किये तुम नहीं रह सकते।
एक मछुआ एक नदी के किनारे मछलियां मार रहा था। उसने दो बालटियां रख छोड़ी थीं। मछलियां पकड़ता, एक बालटी में डाल देता और कुछ केंकड़े पकड़ लेता तो उनको दूसरी बालटी में डाल देता। मछलियां जिस बालटी में डालता उसके ऊपर तो उसने ढक्कन ढांक रखा था। और केंकड़े जिसमें डालता, बिना ढक्कन के छोड़ दिया था। और पच्चीसों केंकड़े उसमें बिलबिला रहे थे। और निकलने की कोशिश कर रहे थे, चढ़ रहे थे।
गांव के एक राजनेता–नेताजी घूमने निकले थे। उन्होंने खड़े होकर देखा। उनको कुछ बात जंची नहीं। उन्होंने कहा, भाई तू कैसा पागल है! इतनी मेहनत कर रहा है और ये केंकड़े सब निकल जायेंगे। इसको ढांकता क्यों नहीं? जैसा मछलियों को ढांका, ऐसा इसको क्यों नहीं ढांकता?
उसने कहा, आप बेफिक्र रहो। ये केंकड़े बड़े बुद्धिमान हैं। ये करीब-करीब राजनीतिज्ञ हैं। यह राजनीति ही समझो। आपकी राजनीति जैसी हालत है इनकी। एक केंकड़ा चढ़ता है, दूसरा नीचे खींच लेता है। ये निकल न पायेंगे। इनकी वही हालत है, जो दिल्ली में है। पच्चीस केंकड़े हैं, एक भी निकल नहीं सकता। ये तो मैं सुबह से पकड़ रहा हूं, एक भी नहीं निकला। मैं भी देख रहा हूं कि हद राजनीति चल रही है। एक चढ़ता है, दो खींच लेते हैं उसको। इनको ढांकने की कोई जरूरत नहीं है। ये अपने ही करने से फंसे हुए हैं। इनका कृत्य ही इन्हें फंसा रखने को काफी है।
तुम जो फंसे हो, तुम्हारे ही कृत्य से फंसे हो। तुम जो खींच रहे हो, दूसरा भी तुम्हें नहीं खींच रहा है, तुम खुद ही अपने को खींच-खींचकर गिरा लेते हो। तुम्हारे जीवन में क्रांति घट सकती है। अगर तुम कृत्य को और कर्ताभाव को छोड़ दो और स्फुरणा से जीयो।
भ्रमभूतमिदं सर्वम्…।
यह सब जैसा तुमने देखा, असत्य है; जैसा है वैसा तुमने अभी देखा नहीं।
संसार और परमात्मा की यही परिभाषा है। तुमने अक्सर सोचा होगा कि संसार और परमात्मा दो अलग-अलग बातें हैं। गलत सोचा है। परमात्मा को गलत ढंग से देखा तो संसार। संसार को ठीक ढंग से देख लिया तो परमात्मा। ये दो बातें नहीं हैं। यहां द्वैत नहीं है, एक ही है। जैसा है वैसा ही देख लिया तो परमात्मा दिखाई पड़ जाता है, और जैसा नहीं है वैसा देख लिया तो संसार। ठीक-ठीक देख लिया तो परमात्मा, चूक गये तो संसार। परमात्मा को देखने में जो चूक हो जाती है उसी से संसार दिखाई पड़ता है। परमात्मा को देखने में जो चूक हो जाती है उसी से पदार्थ दिखाई पड़ता है; अन्यथा पदार्थ नहीं है। पदार्थ तुम्हारी भ्रांति है। परमात्मा सत्य है।
अब लोग हैं जो पूछते हैं, परमात्मा कहां है? कहते हैं, परमात्मा को देखना है। कभी-कभी कोई नास्तिक मेरे पास आ जाता है। वह कहता है, जब तक हम देखेंगे नहीं, मानेंगे नहीं। मैं उससे कहता हूं, पहले तू अपनी आंख की तो फिक्र कर ले। देखेगा यह तो ठीक है। देखने की आकांक्षा भी ठीक है। लेकिन तेरी आंख खुली है? तेरी आंख साफ-सुथरी है? इसकी तुझे चिंता नहीं है। दर्शन की चिंता है, दृष्टि की चिंता ही नहीं है।
अंधा है और रोशनी देखना चाहता है। बहरा है और संगीत सुनना चाहता है। और कहता है जब तक सुनूंगा नहीं, मानूंगा नहीं। बात तो ठीक कह रहा है। सुनोगे नहीं तो मानने का सार भी क्या है? लेकिन अगर सुनाई नहीं पड़ रहा है तो पहली बात बुद्धिमान आदमी यही सोचेगा कि कहीं मेरे सुनने के यंत्र में कोई खराबी तो नहीं है? सदियों-सदियों में सत्पुरुषों ने कहा है, है। एक देश में नहीं, अनंत-अनंत कालों में, अनंत-अनंत देशों में, अनंत-अनंत परिस्थितियों में, सत्पुरुषों ने निरपवाद रूप से कहा है, है। तो कहीं मेरी आंख के यंत्र में कुछ खराबी तो नहीं है? यह बुद्धिमान आदमी पहली बात उठायेगा। बुद्धू कहता है, हो तो मैं देखूं। देखूं तो मैं मानूं। और इसकी फिक्र ही नहीं करता कि मेरे पास देखने की क्षमता है, पात्रता है?
इति निश्चयी का अर्थ होता है, जिसने देख लिया और देखकर जो निश्चय को उपलब्ध हो गया। निश्चय एक ही तरह से आता है–दर्शन से, अनुभव से, प्रतीति से।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति।
‘और अलक्ष्य स्फुरणवाला शुद्ध पुरुष स्वभाव से शांत होता है।’
यह शब्द बड़ा अदभुत है: अलक्ष्य स्फुरणवाला। इसे समझ लिया तो अष्टावक्र का सब सारभूत समझ लिया।
हम तो जीते हैं अपनी चेष्टा से। हम तो जीते हैं अपनी योजना से। हम तो जीते हैं प्रयास से। जीने की यह जो हमारी चेष्टा है, यह जो प्रयास है, यही हमें तनाव से भर देता है, संताप और चिंता से भर देता है। इतना विराट अस्तित्व चल रहा है, तुम देखते हो फिर भी अंधे हो। इतना विराट अस्तित्व चल रहा है, इतनी व्यवस्था से चल रहा है, इतना संगीतपूर्ण, इतना लयबद्ध चल रहा है, लेकिन तुम सोचते हो तुम्हें अपना जीवन खुद चलाना पड़ेगा।
कहा है मलूक ने:
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम
दास मलूका कह गये सबके दाता राम
बड़ा अदभुत वचन है। यद्यपि गलत लोगों के हाथ में पड़ गया! लोगों ने इसका अर्थ निकाल लिया कि पड़े रहो आलसी होकर।
दास मलूका कह गये सबके दाता राम
तो अब करना क्या है? कुछ मत करो। यह मतलब नहीं है।
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम
लेकिन देखा पंछी कितने काम में लगे हैं! ला रहे घास-पात, बना रहे घोंसले, बीन रहे गेहूं, चावल, दाल, इकट्ठा कर रहे भोजन, बच्चों को खिला रहे, खुद खा रहे, काम तो बहुत चल रहा है। अजगर भी सरक रहा है। अजगर भी काम में लगा है। लेकिन मलूक का कुछ अर्थ और है।
मलूक यह कह रहे हैं कि पंछी इतना काम कर रहे हैं फिर भी खुद नहीं कर रहे हैं; जो हो रहा है, हो रहा है। इसमें योजना नहीं है। इसमें अहंकार नहीं है। इसमें कर्तृत्व का भाव नहीं है। लेकिन लोग तो अपने ही ढंग से समझते हैं। लोग अपनी बुद्धि से समझते हैं। लोगों ने समझा कि यह तो आलस्य का पाठ है तो ओढ़कर चादर सो रहो। लेकिन तुम अगर चादर भी ओढ़कर सोये तो तुम्हीं कर्ता हो।
परमात्मा को करने दो, तुम मत करो; यह अर्थ होता है अलक्ष्यस्फुरण। अज्ञात स्फुरण। जो हाथ दिखाई नहीं पड़ते उनमें अपने को छोड़ दो। जिसने सब सम्हाला है, तुम्हें भी सम्हाल लेगा। छोटी-सी जिंदगी है तुम्हारी। एक दिन मरे, दूसरे दिन गये। दो दिन की जिंदगी है। इतना विराट सम्हला हुआ है, तुम अपनी इस दो दिन की जिंदगी को छोड़ नहीं सकते इस विराट पर? और न छोड़कर भी क्या सार है! मरोगे। न तुमने जन्म लिया है स्वयं, न मौत तुम ले सकोगे। जन्म भी हुआ, मौत भी घटेगी, बीच में ये थोड़े-से दिन हैं, तुम नाहक उत्पात कर रहे।
अष्टावक्र कहते हैं, छोड़ दो स्फुरण पर। जीयो सहज स्फुरण से। मत करो योजना। मत बनाओ बड़े किले। मत खड़े करो बड़े स्वप्न। लेकिन लोग समझते हैं कि यह आलस्य की शिक्षा है। यह आलस्य की शिक्षा नहीं है। यह अकर्मण्यता की शिक्षा नहीं है। यह इतनी ही शिक्षा है कि कर्ता तुम न रहो, कर्ता परमात्मा हो। लेकिन लोग अपने ही ढंग से समझते हैं।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। वह स्त्री जरा चिंतित थी, संदिग्ध थी। एक दिन उसने पूछा–जब शादी बिलकुल करीब ही आने लगी और दिन बहुत निकट आने लगा तो उस स्त्री ने पूछा कि नसरुद्दीन, क्या तुम शादी के बाद भी मुझे इतना ही प्यार करोगे? ऐसा ही प्रेम करोगे जैसा अभी करते हो? नसरुद्दीन ने कहा, क्यों नहीं! तुम तो जानती ही हो कि मुझे शादीशुदा औरतें ज्यादा पसंद हैं।
आदमी की समझ! अपनी समझ से ही देखेगा। अपनी ही समझ से व्याख्या करेगा। अपनी समझ के बाहर हम नहीं निकल पाते। इसलिए परमात्मा की समझ हमारे हाथों में नहीं उतर पाती। हम थोड़ी अपनी समझ को एक तरफ रखें।
अलक्ष्यस्फुरणा का अर्थ होता है, तुम स्वभाव पर छोड़कर देखो, क्षण-क्षण जीयो। जो अष्टावक्र अलक्ष्यस्फुरणा से कह रहे हैं वही बुद्ध ने कहा है क्षणवाद से। क्षण-क्षण जीयो। आगे के क्षण का विचार मत करो। इस क्षण जो हो, होने दो। आगे का क्षण जब आयेगा तब आयेगा। जीसस ने कहा है, आगे का क्षण अपनी फिक्र स्वयं कर लेगा। जीसस ने कहा है, देखो खेतों में उगे हुए लिली के फूल। कितने सुंदर हैं! न इन्हें कल की चिंता है, न बीते कल की कोई याद। न ये श्रम करते हैं, न ये रंग जुटाते, न सुगंध जुटाते। सब किसी अलक्ष्यस्फुरणा से हो रहा है। और जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से कि मैं तुमसे कहता हूं कि सम्राट सोलोमन भी अपने बहुमूल्य वस्त्रों में इतना सुंदर न था, जितने कि ये लिली के फूल।
अलक्ष्यस्फुरणा का अर्थ है, जैसे फूल हैं, पक्षी हैं, यह सारी प्रकृति का विराट खेल चल रहा है, इस खेल में तुम भी भागीदार हो जाओ। कर्ता न रहो। जो परमात्मा कराये, होने दो।
झेन फकीर कहते हैं जब भूख लगे, भोजन कर लो; जब नींद आये तब सो जाओ। जैसा होता हो उसके साथ बहे चलो। तैरो भी मत। नदी की धार में बहो। तुमने कभी एक मजेदार बात देखी है? जिंदा आदमी डूब जाता नदी में और मुर्दा आदमी तैरने लगता है। मुर्दा नदी के ऊपर आ जाता है और जिंदा आदमी डुबकी खा जाता है। मुर्दा आदमी को जरूर कोई राज मालूम है जो जिंदा को मालूम नहीं। मुर्दा को एक राज मालूम है कि वह कोई चेष्टा नहीं करता। चेष्टा कर ही नहीं सकता; मुर्दा है। जब चेष्टा नहीं करता तो नदी भी उसे अपने हाथों में ले लेती है। तुम चेष्टा करते हो उसी में डूब जाते हो।
तैरने की कला का कुल इतना ही राज है कि जिस दिन तुम्हें पता चल गया कि नदी नहीं डुबाती, तुम अपनी चेष्टा से डूबते हो। तुम धीरे-धीरे चेष्टा छोड़ते गये। तब तो तुम नदी की छाती पर तैर सकते हो। पड़े रहो! नदी नहीं डुबाती। नदी ने कभी किसी को नहीं डुबाया है। लोग अपनी ही मेहनत से डूब गये हैं।
यह विराट किसी को डुबाने में उत्सुक नहीं है। लोग अपनी मेहनत से डूब जाते हैं। लोग अपने गले में अपनी फांसी खुद लगा लेते हैं। यहां कोई तुम्हें फांसी देने को उत्सुक नहीं है। यह अस्तित्व अपूर्व रस से भरा है। और यह अस्तित्व अपूर्व उत्सव से भरा है। तुम नाच सकते हो। तुम्हारे पैर में जंजीरें नहीं हैं। अस्तित्व ने तुम्हारे पैर में घूंघर डाले हैं, लेकिन तुम जंजीरें बना बैठे हो। तुम यह बात भूल ही गये हो कि अस्तित्व के साथ एकरस हुआ जा सकता है।
संन्यास का ठीक-ठीक यही अर्थ है: जो व्यक्ति स्वस्फुरणा से जीने लगा। जो अपने भीतर से जीने लगा। जो अब बुद्धि से योजना नहीं करता। जो होता है, होने देता है। जैसा होता है वैसा होने देता है। अकर्मण्य नहीं हो गया है, कर्म विराट होता है अब भी, लेकिन अब कर्म के ऊपर अपनी कोई मालकियत नहीं रही। अब अपने कर्म पर कोई दावा नहीं रहा। जो गैरदावेदार हो गया है वही संन्यासी है।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति।
और ऐसा व्यक्ति शुद्ध हो जाता, स्वभाव से ही शांत हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को शांत होने के लिए कोई भी योग, जप-तप नहीं करना पड़ता और ऐसे व्यक्ति को शुद्ध होने के लिए कोई भी आयोजना नहीं करनी पड़ती।
तो प्रपंच का अर्थ हुआ: स्वप्नजाल, मन का खेल, विचार-प्रक्षेपण, कामना-आरोपण, जैसा नहीं है वैसा देख लेना, जैसी इच्छा है वैसा देख लेना। और प्रपंच से बाहर होने का मार्ग हुआ:
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः।
जैसा है उसके साथ राजी हो जाना, उसके साथ बहना। नदी की धार से लड़ना नहीं। नदी की धार के विपरीत न जाना। नदी की धार के साथ जाना। यह जो अस्तित्व की विराट धार जा रही है, इसके साथ जाना–अलक्ष्यस्फुरणा।
हमें पक्का पता भी नहीं है कि नदी कहां जा रही है। हमें पक्का पता भी नहीं कि इसका अंत कहां होगा। अंत होगा भी या नहीं, यह भी पता नहीं। इस विराट की नियति क्या है इसका भी हमें कोई पता नहीं। यह सब बड़ा रहस्यपूर्ण है। लेकिन इसका पता लगाने की चेष्टा व्यर्थ है। हम पता लगा भी न पायेंगे। यह तो ऐसे ही समझो कि बूंद सागर को समझने चली। यह नहीं हो पायेगा। यह असंभव है। बूंद सागर तो बन सकती है लेकिन सागर को समझ नहीं सकती। मनुष्य परमात्मा बन सकता है लेकिन परमात्मा को समझ नहीं सकता। बूंद अगर सागर में गिर जाये और राजी हो जाये और छोड़ दे अपनी सीमा तो सागर हो जाये। सागर होकर ही जान पायेगी, और कोई उपाय नहीं। हम उसी को जान सकते हैं जो हम हो जाते हैं।
प्रपंच से बाहर होने का अर्थ है, जो स्फुरणा से हो वही करना, महत्वाकांक्षा से मत करना। कुछ पाने, कुछ होने की आकांक्षा से मत करना। जो परमात्मा बनाये, जैसा रखे–सुख में तो सुख में, दुख में तो दुख में। अगर ऐसा तुम कर सके तो तुम्हारे जीवन में कभी पश्चात्ताप न होगा। अगर ऐसा न कर सके तो प्रपंच का फल पश्चात्ताप है। एक दिन तुम बहुत रोओेगे। और तब कुछ भी न कर सकोगे। क्योंकि जो समय बीत गया, बीत गया।
रंगों के मनहर मेले, चले गये छोड़ अकेले
एक दिन बहुत रोओगे। एक दिन बहुत पछताओगे। एक दिन आंखों में सिर्फ टूटे इंद्रधनुष, बिखरे सपने, आंसुओं के अतिरिक्त कुछ भी न रह जायेगा।
रंगों के मनहर मेले, चले गये छोड़ अकेले
टूटे अनुबंधों जैसे, रूठे संबंधों जैसे
बिखर रहे पल-अणुपल हम, फूटे तट-बंधों जैसे
झरे-गिरे पीत पात से, भरे-भरे गीत गात से
पीड़ाओं में घुले-मिले, आंसू से जी भर खेले
शापित वरदान सरीखे, बुझकर भी जलते दीखे
अर्थहीन जीवन जीना, जग आकर हमसे सीखे
अपनों के तेवर बदले, सपनों के जेवर बदले
प्रज्वलित पलाश-से नयन, जैसे गेरू के ढेले
सांसें घनसार हो गईं, आशायें क्षार हो गईं
अधरों पर चिपकीं बेबस मुसकानें भार हो गईं
रोम-रोम जलती होली, भाल लगी उलझन रोली
एक भाव से तटस्थ हो, फाग आग दोनों झेले
रंगों के मनहर मेले, चले गये छोड़ अकेले
एक दिन बहुत पछताओगे। यह जो आज मेला जैसा मालूम पड़ता है, यह जो रंगों का जमघट है, यह ज्यादा देर न टिकेगा। यह सपना है। यह तुमने ही मान रखा है। यह कहीं है नहीं। जल्दी ही जीवन-ऊर्जा क्षीण होने लगेगी। और जैसे-जैसे जीवन ऊर्जा क्षीण होगी वैसे-वैसे सपनों के भीतर छिपी सचाई प्रगट होगी। एक दिन तुम पाओगे, जहां तुमने बहुत कुछ देखा था वहां कुछ भी नहीं है। एक दिन हर आदमी पाता है कि हाथ खाली रह गये। जीवन चला गया, हाथ खाली रह गये। फिर रिक्तता बहुत सालती है। फिर रिक्तता बहुत दुख देती, बहुत पीड़ा देती। फिर रिक्तता बहुत विषाद से भर देती।
नर्क का कोई और अर्थ नहीं है। मरने के बाद तुम नर्क जाते हो ऐसा मत सोचना। या मरने के बाद स्वर्ग जाते हो ऐसा मत सोचना। जिसने जीवन को परमात्मा की स्फुरणा से जीया वह यहीं स्वर्ग में जीता है। और जिसने जीवन को अपनी अहंकार की योजना से जीया वह यहीं नर्क में जीता है। जो यहां स्वर्ग में है वही मृत्यु के बाद भी स्वर्ग में होगा और जो यहां नर्क में है वही मृत्यु के बाद भी नर्क में होगा। क्योंकि मृत्यु के बाद उसी का सिलसिला जारी रहेगा जो मृत्यु के पहले तुमने निर्मित किया था। अन्यथा नहीं हो जायेगा। अचानक कुछ बदलाहट नहीं हो जायेगी।
जीवन को रत्ती-रत्ती जीयोगे, एक-एक सीढ़ी चढ़ोगे तो तुम पाओगे कि शिखर उपलब्ध हुआ।
‘दृश्यभाव को नहीं देखते हुए शुद्ध स्फुरणवाले को कहां विधि है, कहां वैराग्य है, कहां त्याग, कहां शमन!’
शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।
क्व विधिः क्व च वैराग्यं क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा।।
जो व्यक्ति अपनी अंतर्स्फुरणा से भर गया है–स्वस्फुरणवाले को, शुद्ध स्फुरणवाले को। स्फुरण का अर्थ होता है, स्पान्टेनिटी। स्फुरण का अर्थ होता है, जो अपने आप होता है, तुम्हारे किए नहीं होता। स्फुरण का अर्थ होता है, जिसको तुम्हें करना नहीं पड़ता। अचानक तुम पाते हो कि हो रहा है।
जैसे तुम यहां बैठे हो; मुझे सुनते-सुनते किसी की तारी लग जायेगी। सुनते-सुनते किसी की लय मुझसे बंध जायेगी। ऐसा नहीं कि तुमने किया। तुम करोगे तो यह कभी भी न हो पायेगा। तुम करोगे तो तुम बीच में अड़े रहोगे। तुम करोगे तो तुम अटकाते रहोगे, उपद्रव मचाते रहोगे। तुमने अगर चेष्टा की कि बंध जाये लय, फिर न बंधेगी। तुम भूलो, तुम सिर्फ सुनो। सुनते-सुनते अनायास एक स्फुरणा होती है, भीतर कोई द्वार खुल जाता, कोई रोशनी झांकती। भीतर कोई स्वर प्रविष्ट हो जाता। तुम मुझसे एकतान हो गये, एकरस हो गये। जुड़ गये हृदय से हृदय।
उस क्षण कुछ घटता है। उस क्षण आंसू बह सकते हैं, उस क्षण तरंग उठ सकती है। उस क्षण रोमांच हो सकता। उस क्षण रोआं-रोआं पुलकित हो सकता। उस क्षण एक दर्शन मिल सकता है–क्षण भर को ही सही, लेकिन जैसा है उसका एक क्षण को आभास हो सकता है। जैसे कोई बिजली कौंध गई और अंधेरी रात में रोशनी हो गई और सब दिखाई पड़ गया क्षण भर को। यद्यपि क्षण भर को दिखाई पड़ेगा लेकिन पूरे जीवन का स्वाद बदल सकता है। क्योंकि जो दिखाई पड़ गया, फिर पीछा करेगा। फिर बार-बार उस दिशा में जाने का रस जागेगा, स्वाद जागेगा, आकांक्षा होगी, अभीप्सा होगी, प्रतीक्षा होगा, पुकार होगी, प्रार्थना होगी। जो एक बार अनुभव में हुआ, फिर उसे छोड़ा नहीं जा सकता। फिर बार-बार तुम खिंचे किसी अदृश्य जादू में उसी केंद्र की तरफ चलने लगोगे। लेकिन यह होगा स्फुरणा से; यह चेष्टा से नहीं होगा।
तुम देखो, जीवन में जब भी आनंद घटता है, स्फुरणा से घटता है। और जीवन में जब भी आनंद घटता है तो तुम सीधी चेष्टा करो तो कभी नहीं घटता।
कोई आदमी तैरने जाता है और बड़ा सुख अनुभव करता है। तुम उससे पूछो, तैरने में सुख आता है, मैं भी आऊं? मैं भी तैरूं? मुझे भी सुख मिलेगा? मुश्किल। शायद तुम्हें नहीं मिलेगा। क्योंकि तुम पहले से योजना बनाकर जाओगे कि सुख मिले। तुम तैरोगे कम, बार-बार कनखियों से देखोगे कि अभी तक सुख मिला नहीं। बीच-बीच सोचने लगोगे, अभी तक नहीं मिला, कब मिलेगा? तो तुम चूक जाओगे। वह जो आदमी तैरने जाता है उसे सुख इसलिए मिलता है कि वह सुख की तलाश में गया ही नहीं। वह तो तैरने गया है। उसकी नजर तो तैरने में लगी है। वह तो तैरने में डूब जाता है। जब तैरने में डुबकी लग जाती है, जब तैरने में पूरा खो जाता है, भावविभोर हो जाता है, बस सुख का झरोखा खुल जाता है। वह स्फुरणा से होता है।
इसलिए अक्सर ऐसा होगा, मुझे सुननेवाला किसी मित्र को कभी ले आयेगा कि तुम आओ। तुम एक दफा तो आओ। वह सोचता है, जो मुझे हो रहा है वही मित्र को भी हो जायेगा। जरूरी नहीं। आवश्यक नहीं। क्योंकि मित्र आयेगा कि चलो देखें क्या होता है। शायद तुम्हारी भावदशा को देखकर लोभ से भर आये कि जो तुम्हें होता है वही मुझे भी हो जाये। नहीं होगा।
एक मित्र ध्यान करने आये। किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, होशियार आदमी हैं। इस दुनिया में होशियार बुरी तरह चूकते हैं। कभी-कभी पागल पा लेते हैं और होशियार चूक जाते हैं। यह दुनिया बड़ी अनूठी है। उन्होंने तीन दिन ध्यान किया, चौथे दिन मुझे आकर कहा कि लोगों को तो होता है। कुछ हो रहा है। इसको मैं देख सकता हूं। मुझे कुछ भी नहीं हो रहा है। और मैं बड़ी आकांक्षा से आया हूं कि कुछ हो। महीनों से प्रतीक्षा की थी इन दिनों की। अब छुट्टी मिली है तो आया हूं। और कुछ हो नहीं रहा है। और मैं यह भी मानता हूं कि कुछ हो रहा है, लोगों को कुछ हो रहा है। किसी को मैं रोते देखता हूं तो मेरे प्राण कंप जाते हैं कि मुझे कब होगा? किसी को आनंद से नाचते देखता हूं तो मैं भी सोचता हूं कि कब भाग्य के द्वार खुलेंगे, मैं भी नाचूंगा? मगर मेरे पैरों में कोई पुलक ही नहीं आती। मैं बीच-बीच में दूसरों को भी देख लेता हूं कि देखो हो रहा है किसी को या नहीं! लेकिन हो रहा है। और मुझे नहीं हो रहा। बात क्या है? कोई मेरे पाप आड़े पड़ रहे हैं? कोई मैंने बुरे कर्म किये हैं?
आदमी कोई न कोई तर्क खोजता है अपने को समझाने को। मैं तुमसे कहता हूं, न तो कोई पाप आड़े आते हैं, न कोई कर्म आड़े आते हैं। एक ही बात आड़े आती है, और वह बात है कि तुम बहुत आतुरता से अगर लोभ से भर गये और तुमने योजना बना ली कि सुख लेकर रहेंगे–बस मुश्किल हो गई।
मैंने उनसे कहा, तुम ऐसा करो, यह सुख का भाव छोड़ दो। यह समाधि का भाव छोड़ दो। तुम मेरी मानो। इतनी मेरी मानो कि तुम यह भाव मत रखो। तुम नाचो, गाओ, ध्यान करो। तुम थोड़े दिन के लिए सुख का विचार ही छोड़ दो; मिले न मिले। अगर छोड़ सको सुख का भाव तो मिलेगा।
सीधे-सीधे सुख को पाने की कोई व्यवस्था नहीं है इस जगत में। सुख आता पीछे के दरवाजे से, चुपचाप। पगध्वनि भी नहीं होती। तुम जब मस्त होते हो किसी और बात में तब आता है।
कोई चित्रकार अपना चित्र बना रहा है–मुग्ध, डूबा, सारी दुनिया को भूला। उन क्षणों में अस्तित्व नहीं रहा, उन क्षणों में स्वयं भी नहीं रहा। उन क्षणों में तो बस चित्र बन रहा है। सच पूछो तो उन क्षणों में परमात्मा चित्र बना रहा है, चित्रकार तो मिट गया। अलक्ष्यस्फुरणा काम करने लगी। तब चित्र अनूठा बनेगा। और तब कभी ऐसा भी होगा कि चित्रकार खड़ा होकर देखेगा मंत्रमुग्ध। अपनी ही कृति पर भरोसा न कर पायेगा। कहेगा, कैसे बनी? किसने बनाई?
पिकासो ने कहा है कि कई बार कोई चित्र बन गया, फिर मैंने दुबारा उसे बनाने की कोशिश की और नहीं बना पाया। बहुत कोशिश की और नहीं बना पाया। फिर वैसी बात नहीं बनी। फिर किसी दिन बन गया। और जब फिर मैंने चेष्टा की तो फिर चूका, फिर हारा। अहंकार जीतता ही नहीं।
रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब-जब मैंने चेष्टा की तब-तब गीत नहीं बने। जब बने तभी बने। तो कभी-कभी ऐसा हो जाता था कि रवींद्रनाथ बैठे हैं, किसी से बात कर रहे हैं और अचानक भाव-रूपांतरण हो जाता। अचानक उनके चेहरे पर कोई और आभा आ जाती। कोई एक दीवानापन, एक मस्ती, जैसे कि शराब में डूब गये। तो उनके पास रहनेवाले लोग, उनके शिष्य, उनके मित्र, उनके प्रियजन धीरे-धीरे जानने लगे थे कि उस समय चुपचाप हट जाना चाहिए।
गुरुदयाल मलिक उनके एक पुराने साथी थे। वे कभी-कभी मुझे सुनने आते थे। एक बार उन्होंने मुझे आकर कहा कि आपसे एक बात कहनी है। मैं रवींद्रनाथ के पास जब पहली दफा गया तो मुझे भी कहा गया था कि अगर बीच में और लोग हटें तो तुम भी हट जाना। क्योंकि कब उन पर परमात्मा आविष्ट हो जाता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। उस वक्त बाधा नहीं देनी है।
तो कोई आठ-दस मित्र रवींद्रनाथ को मिलने गये थे। गुरुदयाल पहली दफा गये थे। और रवींद्रनाथ ने अपने हाथ से चाय बनाई और सबको वे चाय दे रहे थे। और अचानक चाय देते समय उनके हाथ से प्याला छूट गया, आंखें बंद हो गईं और वे डोलने लगे। एक-एक आदमी उठ गया। वे सब तो परिचित थे। और उन्होंने गुरुदयाल को भी इशारा किया कि उठ आओ। लेकिन गुरुदयाल ने मुझे कहा कि मैं उठ न सका। उन्होंने बहुत इशारा किया तो मैं उठ भी गया, तो भी मैं दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया। यह जो अपूर्व घट रहा था, मैं इसके दर्शन करना चाहता था।
यह क्या हो रहा था? मैंने अपनी आंख के सामने देखा कि अभी एक क्षण पहले जो आदमी था रवींद्रनाथ, अब वही नहीं है। कोई नई आभा! जैसे कोई और आत्मा प्रविष्ट हो गई। एक आलोकमंडित व्यक्तित्व! जैसे भीतर कोई बुझा था दीया, जल गया। जैसे रोशनी बाहर आने लगी। और एक अपूर्व शांति छा गई।
और मैं मंत्रमुग्ध खड़ा रहा। मन में अपराध भी लग रहा था कि खड़ा नहीं होना चाहिए क्योंकि सबने कहा हट जाओ। और लोग चले भी गये, मैं चोरी से खड़ा हूं। लेकिन हट भी न सका। कुछ ऐसा जादू घट रहा था कि हट भी नहीं सका।
और वे खड़े देखते रहे। फिर रवींद्रनाथ धीरे-धीरे डोलने लगे, खड़े होकर नाचने लगे और फिर गुनगुनाने लगे। गुरुदयाल ने मुझे कहा कि मैंने अपनी आंख के सामने कविता को जन्म लेते देखा। वह सौभाग्य का क्षण था। वैसा अपूर्व क्षण फिर कभी नहीं मिला। मैंने अपने सामने कविता को जन्म लेते देखा। फिर रवींद्रनाथ ने कागज उठा लिया, जो गुनगुनाया था वह लिखने लगे। और धीरे-धीरे गुरुदयाल वहां से हटकर चुपचाप अपने कमरे में चले गये।
तीन दिन तक रवींद्रनाथ बंद ही रहे अपने कमरे में, बाहर न निकले। जब कविता उतरती तो वे भोजन भी बंद कर देते। जब कविता उतरती तो वे स्नान भी न करते। जब कविता उतरती तो वे किसी से मिलते-जुलते भी नहीं। जब कविता उतरती तो कैसा सोना, कैसा जगना! सब अस्तव्यस्त हो जाता। जब कविता उतरती तो कोई और ही उन्हें चलाता; कोई और ही उनकी बागडोर थाम लेता।
इस बात का नाम ही है शुद्ध स्फुरणा।
देखा तुमने? यह प्रतीक है कि कृष्ण अर्जुन के सारथी बने। यह अलक्ष्यस्फुरणा का प्रतीक है। भगवान तुम्हारा सारथी बने, उसके हाथ में तुम्हारे रथ की बागडोर हो। वही चलाये। तुम बैठो भीतर निश्चिंतमन। वह जहां ले जाये, जाओ। भगवान सारथी बने, तुम रथ में चुपचाप बैठो।
वही सारथी है। तुम नाहक बीच-बीच में आ जाते। तुम्हारे बीच में आने से अड़चन पड़ती। तुम्हारे जीवन में अगर दुख है तो तुम्हारे कारण। अगर कभी सुख होगा तो उसके कारण है।
शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।
और जिस व्यक्ति के जीवन में शुद्ध स्फुरणा का जन्म हुआ उसको फिर दृश्य दिखाई भी पड़ते हैं और एक अर्थ में नहीं भी दिखाई पड़ते, क्योंकि अब तो द्रष्टा दिखाई पड़ता है। इसे समझो।
तुम जब देखते हो तो तुम स्वयं को नहीं देखते, पर को ही देखते हो। तुम्हारा बोध का तीर दूसरे पर लगा होता है। तुम स्वयं को नहीं देखते। तुम देखने वाले को नहीं देखते। जो मूल है उसे चूक जाते हो। तुम परिधि पर भटकते रहते हो। जिस व्यक्ति ने अपना हाथ परमात्मा के हाथ में दे दिया और कहा, अब तू सम्हाल…।
अब एक बड़ी मजेदार घटना घटती है। वह तुम्हें तो देखता है लेकिन तुमसे पहले वह जो भीतर छिपा है वह दिखाई पड़ता है। वह वृक्ष को देखता है लेकिन वृक्ष के पहले वृक्ष को देखनेवाला दिखाई पड़ता है। वृक्ष गौण हो जाता है। दृश्य गौण हो जाता है, द्रष्टा प्रमुख हो जाता है, आधारभूत हो जाता है। तब संसार गौण हो जाता है और सत्य आधारभूत हो जाता है।
‘दृश्यभाव को नहीं देखते हुए शुद्ध स्फुरणवाले को कहां विधि है!’
फिर उसके मन में दृश्य के कोई भाव नहीं उठते–कि ऐसा देखूं, ऐसा देखूं, वैसा देखूं। ये कोई भाव नहीं उठते। जो दिखाई पड़ जाता है ठीक, जो नहीं दिखाई पड़ जाता, ठीक। वह हर हाल राजी है। ऐसी जो दशा है इसमें न तो त्याग की कोई जरूरत है, न वैराग्य की कोई जरूरत है, न विधि की कोई जरूरत है, न दमन और शमन की कोई जरूरत है।
अष्टावक्र के सूत्र सिद्ध के सूत्र हैं, साधक के नहीं। अष्टावक्र कहते हैं, सीधे सिद्ध ही हो जाओ। यह साधक होने के चक्कर में क्या पड़े हो? साधन में मत उलझो। साधना में मत उलझो। सीधे सिद्ध हो जाओ। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा है। तुम कहां जप-तप में लगे! किसकी पूजा-प्रार्थना कर रहे? जिसकी पूजा-प्रार्थना कर रहे वह तुम्हारे भीतर विराजमान है। तुम कहां खोज रहे हो काबा-कैलाश! तुम कहां जा रहे? जिसे तुम खोज रहे, तुम्हारे भीतर बैठा। तुम भी जरा शांत होकर बैठ जाओ और उसकी स्फुरणा से जीयो। छोड़ दो सब उस पर बेशर्त।
हिम्मत की जरूरत है, दुस्साहस की जरूरत है। क्योंकि मन कहेगा ऐसे छोड़ें, कहीं कोई हानि हो जाये। ऐसा छोड़ा, कहीं कोई नुकसान हो जाये। ऐसा छोड़ा और कहीं भटक गये! और मजा यह है कि तुम मन के साथ चलकर सिवाय भटके, और क्या हुआ है? भटकने के सिवाय क्या हुआ है? कहां पहुंचे?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, संन्यास तो ले लें लेकिन समर्पण करने में डर लगता है। मैं उनसे पूछता हूं, तुम्हारे पास समर्पण करने को है क्या? क्या है जो तुम समर्पण करोगे? तब वे जरा चौंकते, झिझकते, कंधे बिचकाते। कहते, ऐसे तो कुछ भी नहीं है। तो फिर मैंने कहा, डर क्या है? तुम्हारे पास छोड़ने को क्या है? जो भी तुम्हें लगता है छोड़ने जैसा, वह छुड़ा ही लिया जायेगा। मौत छुड़ा लेगी। उस वक्त तुमसे यह भी नहीं पूछेगी, समर्पण करते हो? जब मौत सब छुड़ा ही लेगी तो देने का मजा क्यों नहीं ले लेते? जब मौत छीन ही लेगी तो तुम खुद ही क्यों नहीं छोड़ देते? आज नहीं कल मौत छीन लेगी तो तुम एक मौका खोये दे रहे हो। तुम खुद ही परमात्मा को कह दो कि मैं खुद ही अपने को छोड़ता हूं तेरे हाथों में।
और जो आदमी परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ देगा, मौत फिर उसकी नहीं होती। मौत उसी के पास आती है जो परमात्मा को अपने पास नहीं आने देता। इसे समझना।
तुम इकट्ठा करते–अपने कर्तृत्व, अपना अहंकार, धन, पद, प्रतिष्ठा। तुम सोचते हो, मैंने यह किया, मैंने यह कमाया, अर्जन किया, यह मेरी प्रतिष्ठा, यह मेरा पद। फिर एक दिन मौत आती है और सब बिखेर देती है–सब तुम्हारा पद, प्रतिष्ठा। जैसे किसी ने ताश के पत्तों का महल बनाया, हवा का एक झोंका आया और सब गिर गया। जिंदगी भर मेहनत की और मिट्टी में मिल गई। तुम खुद ही मिट्टी में मिल जाओगे तो तुम्हारी मेहनत कहां जायेगी? वह भी मिट्टी में मिल जायेगी।
संन्यासी बड़ा कुशल है। संन्यासी बड़ा समझदार है। वह कहता है जो मौत छीन लेगी वह हम स्वयं दे देते हैं। ऐसे भी छिन जाना है, वैसे भी छिन जाना है। तो देने का मजा क्यों न ले लें? इतना सुख क्यों न उठा लें कि दे दिया।
और तब एक क्रांति घटती है। तुमने छोड़ा कि फिर तुम्हें मिलना शुरू हुआ। जीसस ने कहा है, जो बचायेगा वह चूक जायेगा। और जो गंवा देगा वह पा लेगा। जो खोने को राजी है वह पाने का हकदार हो गया।
फिर कहां विधि, कहां त्याग, कहां शमन! नहीं कुछ करना पड़ता। एक बात कर लेने जैसी है कि तुम सब परमात्मा के ऊपर छोड़ दो। वह जैसा करवाये वैसा करो। वह जैसा उठाये वैसा उठो। वह जैसा बैठाये वैसा बैठो। और जब मैं यह कह रहा हूं तो फिर दोहरा दूं–बेशर्त। इसमें कोई शर्त बंधी नहीं है कि तू अच्छा करायेगा तो करेंगे, बुरा करायेगा तो न करेंगे।
वही तो अर्जुन के सामने सवाल था। वह कृष्ण से इसीलिए तो कहने लगा कि यह युद्ध मैं न करूंगा। इसमें तो पाप लगेगा। इसमें तो हिंसा होगी। इसमें तो प्रियजनों को मार डालूंगा। इस राज्य को लेकर भी क्या करूंगा? इतने सब अपने प्रियजनों को मारकर अगर यह राज्य मिला भी तो मरघट पर सिंहासन रखकर बैठना हो जायेगा। आदमी तो अपनों के लिए ही युद्ध करता। अपने होते तो ही तो सुख होता सिंहासन पर बैठने का। अपने ही न हुए तो क्या सुख? किसको दिखाऊंगा? मुझे जाने दो, अर्जुन कहने लगा, चला जाऊंगा दूर जंगल में। संन्यस्त हो जाऊंगा।
कृष्ण की सारी गीता एक बात समझाती है कि परमात्मा जो कराये, बेशर्त। युद्ध कराये तो युद्ध। अच्छा तो अच्छा, बुरा तो बुरा। तुम बीच में न आओ। तुम्हारा निमित्त होना परिपूर्ण हो। तुम चुनो न। तुम्हारा होना चुनावरहित हो। तभी तुम तुम्हारा समर्पण किये अन्यथा तुमने समर्पण न किया।
जहां समर्पण है वहां स्फुरणा है। समर्पण, स्फुरणा साथ-साथ है। बाहर समर्पण, भीतर स्फुरणा। जिसने समर्पण नहीं किया वह कभी स्फुरणा को उपलब्ध न हो सकेगा।
और इसको कहा है अलक्ष्यस्फुरणा।
शुद्धस्फुरणरूपस्य…।
अलक्ष्य का अर्थ होता है अकारण। परमात्मा का कोई कारण नहीं है, परमात्मा सबका कारण है। सब उसने बनाया, उसे किसी ने नहीं बनाया। सबके पीछे वह है, उसके पीछे कुछ भी नहीं है। वह कारणों का कारण है। अकारण है। वह मूलभूत है। उससे मूलभूत फिर कुछ भी नहीं है। वह जड़ है; उसके पार फिर कुछ भी नहीं है। न उसके नीचे कुछ है न उसके ऊपर कुछ है। सब उसके भीतर है।
तो जो परमात्मा से होता है वह अकारण होता है। तुम हो, किस कारण हो? मन में सवाल उठते हैं, किसलिए हूं मैं? क्या कारण है मेरे होने का? सिर्फ इस देश में उसका ठीक-ठीक उत्तर दिया गया है। सारी दुनिया में उत्तर देने की कोशिश की गई है। ईसाई कहते हैं कुछ, मुसलमान कहते हैं कुछ, यहूदी कहते हैं कुछ। लेकिन सिर्फ इस देश में ठीक-ठीक उत्तर दिया गया है। इस देश का उत्तर बड़ा अनूठा है। अनूठा है–लीला के कारण। लीला का मतलब होता है, अकारण। खेल है। उसकी मौज है। इसमें कुछ कारण नहीं है। क्योंकि जो भी कारण तुम बताओगे वह बड़ा मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ेगा।
कोई कहता है, परमात्मा ने इसलिए संसार बनाया कि तुम मुक्त हो सको। यह बात बड़ी मूढ़तापूर्ण है। क्योंकि पहले संसार बनाया तो तुम बंधे। न बनाता तो बंधन ही नहीं था, मोक्ष होने की जरूरत क्या थी? यह तो बड़ी उल्टी बात हुई कि पहले किसी को जंजीरों में बांध दिया और फिर वह पूछने लगा, जंजीरों में क्यों बांधा? तो उसको जवाब दिया कि तुम्हें मुक्त होने के लिए। जंजीरों में ही काहे को बांधा जब मुक्त ही करना था?
परमात्मा ने संसार को बनाया आदमी को मुक्त करने के लिए? यह तो बात उचित नहीं है, अर्थपूर्ण नहीं है; बेमानी है। कि परमात्मा ने संसार को बनाया कि आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो जाये? यह भी बात बेमानी है। इतना बड़ा संसार बनाया तो ज्ञान ही सीधा दे देता। इतने चक्कर की क्या जरूरत थी? कि परमात्मा ने बुराई बनाई कि आदमी बुराई से बचे। ये कोई बातें हैं! ये कोई उत्तर है! बुराई से बचाना था तो बुराई बनाता ही नहीं। प्रयोजन ही क्या है? यह तो कुछ अजीब सी बात हुई कि जहर रख दिया ताकि तुम जहर न पीयो। तलवार दे दी ताकि तुम मारो मत। कांटे बिछा दिये ताकि तुम सम्हलकर चलो।
पर जरूरत क्या थी? ठीक इस देश में उत्तर दिया गया है। उत्तर है–लीलावत। यह जो इतना विस्तार है, यह किसी कारण नहीं है। इसके पीछे कोई प्रयोजन नहीं है। इसके पीछे कोई व्यवसाय नहीं है। इसके पीछे कोई लक्ष्य नहीं है, यह अलक्ष्य है। फिर क्यों है?
जैसे छोटे बच्चे खेल खेलते हैं, ऐसा परमात्मा अपनी ऊर्जा का स्फुरण कर रहा है। ऊर्जा है तो स्फुरण होगा। जैसे झरनों में झर-झर नाद हो रहा है, जैसे सागरों में उत्तुंग लहरें उठ रही हैं। यह सारा जगत एक महाऊर्जा का सागर है। यह ऊर्जा अपने से ही खेल रही है, अपनी ही लहरों से खेल रही है। खेल शब्द ठीक शब्द है। लीला शब्द ठीक शब्द है। यह कोई काम नहीं है जो परमात्मा कर रहा है। लीलाधर! यह उसकी मौज है। यह उसका उत्सव है।
इस भांति देखोगे तो तुम्हें समझ में आयेगा, अलक्ष्यस्फुरण का क्या अर्थ हुआ। अलक्ष्यस्फुरण का अर्थ हुआ, इसके पीछे कोई भी कारण नहीं है।
पूछते हो, फूल क्यों खिलता है? पूछते हो, वृक्ष क्यों हरे हैं? पूछते हो, नदी क्यों सागर की तरफ बहती है? पूछते हो, क्यों आदमी आदमी से प्रेम करता? कभी पूछा, जब तुम किसी के प्रेम में पड़ जाते किसी स्त्री, किसी पुरुष के; तुमने पूछा, क्यों? कोई क्यों नहीं है। कोई उत्तर नहीं है। पूछने जाओगे, उत्तर न पाओगे। या जो भी तुम उत्तर पाओगे, सब बनावटी होंगे, झूठे होंगे।
तुम कहते हो, मैं इस स्त्री के प्रेम में पड़ गया क्योंकि यह सुंदर है। बात तुम उल्टी कह रहे। यह तुम्हें सुंदर दिखाई पड़ती है क्योंकि तुम प्रेम में पड़ गये। यह दूसरों को सुंदर नहीं दिखाई पड़ती।
लैला सिर्फ मजनूं को सुंदर दिखाई पड़ती थी, किसी को सुंदर नहीं दिखाई पड़ती थी। गांव के सम्राट ने मजनूं को बुलाकर कहा कि मुझे तुझ पर दया आती है पागल! यह लैला बिलकुल साधारण है और तू नाहक दीवाना हुआ जा रहा है। यह देख–एक दर्जन स्त्रियां उसने खड़ी कर दीं महल से। इनमें से तू कोई भी चुन ले। तुझे रास्ते पर रोते देखकर मैं भी दुखी हो जाता हूं। और दुख और भी ज्यादा हो जाता है कि किस लैला के पीछे पड़ा है? काली-कलूटी है, बिलकुल साधारण है। ये देख इतनी सुंदर स्त्रियां।
मजनूं ने गौर से देखा, कहने लगा, क्षमा करें। इनमें लैला कोई भी नहीं है।
फिर वही बात, सम्राट ने कहा, लैला में कुछ भी नहीं रखा है।
मजनूं कहने लगा, आप समझे नहीं। लैला को देखना हो तो मजनूं की आंख चाहिए। मेरी आंख के बिना आप देख न सकेंगे। लैला होती ही मजनूं की आंख में है।
तो तुम जिस स्त्री के प्रेम में पड़ गये हो, तुमसे कोई पूछे क्यों पड़ गये? तो तुम कहते हो, सुंदर है। तुम कहते हो, उसकी वाणी मधुर है। तुम कहते हो, उसकी चाल में प्रसाद है। मगर ये सब बातें झूठ हैं। तुम प्रेम में पड़ गये हो इसलिए चाल में प्रसाद मालूम पड़ता, वाणी मधुर मालूम पड़ती, चेहरा सुंदर मालूम पड़ता। कल जब तुम्हारा सपना टूट जायेगा, यही चाल बेढब लगने लगेगी और यही वाणी कर्कश हो जायेगी और यही चेहरा अति साधारण हो जायेगा। यह एक सपना है जो तुमने प्रेम के कारण देखा। प्रेम अकारण है।
अगर तुम अपने जीवन को भी समझने चलो तो तुम यही पाओगे कि यहां जो भी है, सब अकारण है। एक बार यह खयाल में आ जाये कि सब अकारण है तो जीवन से चिंता हट जाये। जहां कोई कारण नहीं वहां चिंता का कोई उपाय नहीं।
‘और अनंत रूप से प्रकाशित स्फुरित प्रकृति को नहीं देखते हुए ज्ञानी को कहां बंध है और कहां मोक्ष है? कहां हर्ष, कहां विषाद?’
स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः।
क्व बंधः क्व च वा मोक्षः क्व हर्षः क्व विषादिता।।
और यह जो प्रकृति चारों तरफ स्फुरित हो रही है–स्फुरतोऽनन्तरूपेण। यह जो अनंत-अनंत रूपों में चारों तरफ प्रकृति का खेल चल रहा है, लीला चल रही है और इस प्रकृति के पीछे परमात्मा का खेल चल रहा है, इस अनंत खेल को भी ज्ञानी देखता नहीं। ज्ञानी का इसमें बहुत रस नहीं है। वह इससे भी बड़े खेल में उतर गया। वह इस खेल के खेलनेवाले को देखने लगा।
अब क्या देखना छोटी बातें! माना, वृक्ष बहुत सुंदर है और चांद भी बहुत सुंदर है और सूरज जब सुबह उगता है तो अपूर्व है। लेकिन भीतर के सूरज के मुकाबले कुछ भी नहीं है। कबीर ने कहा, जब भीतर का सूरज उगा तो जाना कि असली सूरज क्या है। हजार-हजार सूरज जैसे एक साथ उग गये। फिर भी बात पूरी नहीं होती, क्योंकि जो अंतर है वह परिमाण का नहीं है, मात्रा का नहीं है, गुण का है। भीतर एक प्रकाश है जो अपूर्व है। बाहर का तो प्रकाश सब एक न एक दिन बुझ जायेगा। यह सूरज भी बुझ जायेगा।
वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार साल के भीतर यह सूरज बुझ जायेगा क्योंकि इसकी ऊर्जा रोज चुकती जाती, इसका ईंधन कम होता जाता। तुम्हारे घर में जो तुम दीया जलाते हो सांझ वह ही सुबह नहीं बुझता, यह सूरज भी बुझेगा। इसका तेल भी चुक रहा है। माना कि इसकी रात बड़ी लंबी है–करोड़ों-करोड़ों, अरबों वर्ष, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? अनंत काल में अरबों वर्ष भी ऐसे ही हैं जैसे एक रात। सांझ तुमने दीया जलाया, सुबह तेल चुक गया, दीया बुझ गया।
भीतर एक ऐसा प्रकाश है जो कभी बुझता ही नहीं–बिन बाती बिन तेल। न तो वहां बाती है और न तेल है। ऐसा एक प्रकाश है। उस प्रकाश को जिसने देख लिया, फिर ये सब प्रकाश फीके मालूम होंगे।
श्री अरविंद ने कहा है, जब तक भीतर के प्रकाश को न देखा था तब तक सोचता था, बाहर का प्रकाश ही प्रकाश है। जब भीतर के प्रकाश को देखा तो जिसे अब तक बाहर का प्रकाश माना था, वह अंधकार जैसा दिखाई पड़ने लगा। और जब असली जीवन को देखा तो जिसे जीवन समझा था वह मौत मालूम होने लगी। और जब असली अमृत का स्वाद चखा तो जिसे अब तक अमृत समझा था वह विष हो गया, जहर हो गया।
ज्ञानी मूल को देख लेता है। लीला की गहराई में छिपे लीलाधर को पकड़ लेता। नृत्य के भीतर नाचते नटराज को पकड़ लेता। बात खतम हो गई। जब नटराज से संबंध जुड़ गया, नृत्य दिखता भी, दिखता भी नहीं।
स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः।
फिर यह खेल चलता रहता है बाहर, लेकिन ज्ञानी में इसकी तरफ कोई लगाव, कोई रुचि, कोई दौड़ नहीं रह जाती। और जब ऐसी दौड़ ही न रह जाये तो फिर कहां बंध, कहां मोक्ष! यह बाहर का खेल ही बांधता है। जब यह बांध लेता है तो फिर मुक्त होने की कोशिश करनी पड़ती है। और जिसको भीतर का रहस्यधर दिखाई पड़ गया उसे तो बाहर का खेल बांधता ही नहीं; इसलिए मोक्ष का भी कोई कारण नहीं।
दृष्टि तंद्रिल, श्रवण सोये
अश्रु पंकिल, नयन खोये
मन कहां है? क्या हुआ है?
लग रहे कुछ भग्न-से हो
भ्रमशिला संलग्न-से हो
कर रहे हो ध्यान किसका?
क्यों स्वयं में मग्न-से हो?
लग रहे हो समय-बाधित
आप अपने से पराजित
हाय यह कैसी विवशता!
किस बुरे ग्रह ने छुआ है?
क्यों हुए उद्विग्न इतने?
पथ-प्रताड़ित विघ्न जितने
सोचकर देखो तनिक तो
श्वास हैं निर्विघ्न कितने
क्या चरण कोई कहीं हैं
काल-कवलित जो नहीं हैं
हर तरफ तम की विरासत
धुंध है कडुवा धुआं है!
तंतु-प्रेरित गात्र हो तुम
एक पुतले मात्र हो तुम
इस जगत की नाटिका के
क्षणिक भंगुर पात्र हो तुम
इसलिए हर भूमिका में
रंग भरो तुम भूमि जामे
बन सको निरपेक्ष तो फिर
क्या दुआ, क्या बद्दुआ है
मन कहां है? क्या हुआ है?
दृष्टि तंद्रिल, श्रवण सोये
अश्रु पंकिल, नयन खोये
मन कहां है? क्या हुआ है?
हम इतनी बुरी तरह जो भटके हैं, मन कहीं बाहर है इसलिए भटके हैं।
मन कहां है? क्या हुआ है?
और यह जो मन बाहर भटका है, कहीं-कहीं भटका है, अनंत-अनंत संसारों में भटका है, न मालूम कितनी वासना-कामनाओं में भटका है, इसकी वजह से हम घर नहीं लौट पाते। यह हमें खींचे लिये जाता। यह हमें दौड़ाये चला जाता। इसकी वजह से हम अपने को नहीं देख पाते। यह सब दिखा देता और अपने से वंचित कर देता।
मन कहां है? क्या हुआ है?
तंतु-प्रेरित गात्र हो तुम
एक पुतले मात्र हो तुम
इस जगत की नाटिका के
क्षणिक भंगुर पात्र हो तुम
इसलिए हर भूमिका में
रंग भरो तुम भूमि जामे
बन सको निरपेक्ष तो फिर
क्या दुआ, क्या बद्दुआ है
मन कहां है? क्या हुआ है?
जैसे ही ज्ञानी अपने द्रष्टा में ठहरता, दृश्य से हटता और द्रष्टा में ठहरता–इसको मैं कहता हूं एक सौ अस्सी डिग्रीवाला रूपांतरण। पूरा वर्तुल घूम गया, पूरा चाक घूम गया। हम बाहर देखते, ज्ञानी भीतर देखता। हम आंख खोलकर देखते, ज्ञानी आंख बंद करके देखता। हम विचार से देखते, ज्ञानी निर्विचार से देखता। हम मन से देखते, ज्ञानी अमन से देखता।
उल्टी हो गई बात सब। हमारी ऊर्जा बहिर्मुखी, ज्ञानी की ऊर्जा अंतर्मुखी। हम बाहर जाते, ज्ञानी भीतर आता। बस, आंख बंद करके जो दिखाई पड़ता है, वही सत्य है। एक बार आंख बंद करके तुम्हें भीतर का सत्य दिखाई पड़ जाये, फिर तुम आंख खोलना। फिर बाहर तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ेगा, प्रपंच नहीं। और फिर कैसा बंधन? परमात्मा ही है! कैसा बंधन और फिर कैसा मोक्ष? उससे मुक्त होने का प्रश्न भी कहां है? हम उसके साथ एक हैं। वह हमारा स्वभाव है। वही हमारा रस है।
‘बुद्धिपर्यन्त संसार में जहां माया ही माया भासती है, ममतारहित, अहंकाररहित और कामनारहित ज्ञानी ही शोभता है।’
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
इस सूत्र को खूब ध्यान से समझना।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः।।
दो शब्दों का भेद पहले समझ लो–बुद्धि और बुद्धत्व। अज्ञानी के पास बुद्धि है, ज्ञानी के पास बुद्धत्व। बुद्धि का अर्थ होता है, विचार की क्षमता। और बुद्धत्व का अर्थ होता है, निर्विचार की क्षमता। बुद्धि का अर्थ होता है, ऐसा आकाश जो बादलों से घिरा है। बुद्धत्व का अर्थ होता है, ऐसा आकाश जो अब बादलों से नहीं घिरा है। बुद्धि ही जब परम शुद्ध हो जाती है तो बुद्धत्व बन जाती है।
ऊर्जा वही है। बुद्धि ऐसी ऊर्जा है, जैसे सोना मिट्टी में पड़ा है–धूलि-धूसरित, कंकड़-पत्थर मिला। बुद्धत्व ऐसा सोना है जो आग से गुजर गया। कचरा-कूड़ा जल गया, परिशुद्ध हुआ। चौबीस कैरेट। सोना जब परिशुद्ध हो जाता है तो बुद्धत्व। और सोना जब कंकड़-पत्थर, मिट्टी-कचरे से मिला रहता है तो बुद्धि। बुद्धि को शुद्ध करते-करते ही बुद्धत्व का जन्म होता है।
समझो इस सूत्र को–
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
बुद्धिपर्यन्त संसार है। बुद्धि ही संसार है।
बुद्धिपर्यन्तसंसारे…।
यह जो तुम्हारे भीतर विचारों का जाल है, ताना-बाना है यही संसार है। धीरे-धीरे विचारों को त्यागते जाओ, छोड़ते जाओ, क्षीण करते जाओ। तुम्हारे भीतर कभी-कभी ऐसे अंतराल आने लगेंगे जब क्षण भर को कोई विचार न होगा। एक विचार गया और दूसरा आया नहीं। थोड़ी देर को खाली जगह छूट गई। उसी खाली जगह में से तुम्हें अपना दर्शन होगा। उस अंतराल का नाम ही ध्यान की झलक है। वहां से तुम्हें पहले स्वाद मिलने शुरू होंगे।
जैसे किसी ने द्वार खोला और सूरज दिखाई पड़ा। बहुत दूर है सूरज अभी। लेकिन द्वार खोलने से दिखाई पड़ता। ऐसे ही एक विचार भी गिर जाये और थोड़ी-सी खाली जगह आ जाये तो उसी खाली जगह में से अपने से संबंध जुड़ता; क्षण भर को जुड़ता लेकिन वह क्षण भी शाश्वत हो जाता। वह क्षण भी रूपांतरित कर जाता। वह क्षण भी बड़ी गहरी कीमिया है।
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
और जब तक बुद्धि है, विचारों से भरा हुआ जाल है तुम्हारे भीतर तब तक संसार है। और तब तक माया ही माया है। इसको ख्याल में लें। संसार बाहर नहीं है, बुद्धि की विचारणा में है। संसार ध्यान का अभाव है।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः।
और वह जो बुद्धत्व को प्राप्त हो गया उसके भीतर कौन-सी क्रांति घटती? न तो उसके भीतर ममता रह जाती, न अहंकार रह जाता, न कामना रह जाती। विचार के जाते ही ये तीन चीजें चली जाती हैं। कामना चली जाती। बिना विचार के कामना चल नहीं सकती। कामना को चलने के लिये विचार के अश्व चाहिए। विचार के घोड़ों पर बैठकर ही कामना चलती है। अगर तुम्हारे भीतर विचार नहीं तो तुम कामना को फैलाओगे कैसे? किन घोड़ों पर सवार करोगे कामना को? निर्विचार चित्त में तो कामना की तरंग उठ ही नहीं सकती। इसलिए कामना मर जाती है विचार के साथ।
ममता मर जाती। किसको कहोगे मेरा? किसको कहोगे अपना? किसको कहोगे पराया? मेरा और तेरा विचार का ही संबंध है। जहां विचार नहीं वहां कोई मेरा नहीं, कोई तेरा नहीं। जहां विचार नहीं है वहां सब संबंध विसर्जित हो गये। सब संबंध विचार के हैं।
और तीसरी चीज अहंकार। जहां विचार नहीं वहां मैं भी नहीं बचता। क्योंकि मैं सभी विचारों के जोड़ का नाम है। सभी विचारों की इकट्ठी गठरी का नाम मैं।
ये तीन चीजें हट जाती हैं जैसे ही विचार हटता। इसलिए मेरा सर्वाधिक जोर ध्यान पर है। ध्यान का इतना ही अर्थ होता है, तुम धीरे-धीरे निर्विचार में रमने लगो। बैठे हैं, कुछ सोच नहीं रहे। चल रहे हैं और कुछ सोच नहीं रहे। सोच ठहरा हुआ है। इस ठहरेपन में ही तुम अपने में डुबकी लगाओगे। इस ठहरेपन में ही स्फुरणा होगी, समाधि जगेगी।
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः।।
अक्षयं गतसंतापमात्मानं पश्यतो मुनेः।
क्व विद्या च क्व वा विश्वं क्व देहोऽहं ममेति वा।।
‘अविनाशी और संतापरहित आत्मा को देखनेवाले मुनि को कहां विद्या, कहां विश्व, कहां देह और कहां अहंता-ममता है?’
‘अविनाशी और संतापरिहत आत्मा को देखनेवाला–अक्षयं।’
मन क्षणभंगुर है। देखा तुमने? विचार ज्यादा देर नहीं टिकता। एक विचार आया…आया, गया। तुम रोकना भी चाहो तो भी ज्यादा देर नहीं टिकता। तुम एक विचार को थोड़ी देर रोककर देखो, तुम पाओगे नहीं टिकता। तुम लाख कोशिश करो, वह जाता। आता, जाता। विचार में गति है। विचार भागा-भागा है। विचार पागल है; ठहरता नहीं, रुकता नहीं, थिर नहीं होता। विचार क्षणभंगुर है, इसलिए विचार में क्षय है।
जहां निर्विचार है वहां अक्षयम्। वहां अक्षय की शुरुआत हुई। वहां तुम क्षण के पार गये, शाश्वत में उतरे। विचार समय की धारा है। और विचार के बाहर हुए कि कालातीत हुए। इसलिए समस्त ज्ञानियों ने ध्यान को कालातीत कहा है: समय के पार। समय के भीतर जो है, संसार है। और समय के पार जो है वही सत्य है।
अक्षयं गतसंतापमात्मानं पश्यतो मुनेः।
और जो व्यक्ति इस भीतर की अविनाशी धारा को अनुभव कर लेता है उसके सब संताप समाप्त हो जाते हैं।
फिर समझो, जितने भी जीवन के दुख हैं, सब विचार के दुख हैं। जितना भी जीवन का संताप है, सब विचार का संताप है। किसी ने गाली दी और तुम्हारे भीतर विचारों की एक तरंग उठ गई कि मेरा अपमान हो गया। अपमान हो गया, इस विचार से दुख होता है।
खलिल जिब्रान की बड़ी मीठी कथा है। एक आदमी परदेस गया–ऐसे देश, जहां उसकी भाषा कोई समझता नहीं। एक होटल के सामने खड़ा है, लोग भीतर-बाहर आ-जा रहे हैं। वह सोचने लगा, क्या है यहां? जाकर मैं भी देखूं, इतने लोग आते-जाते। बड़ा महल जैसा मालूम होता। गरीब आदमी, गरीब देश से आता। वह भीतर चला गया। वहां अनेक लोग टेबल-कुर्सियों पर बैठे हैं तो वह भी बैठ गया। वह बड़ा प्रसन्न है। बड़ा शीतल है। सब सुंदर है, सुवासित है।
और तभी वेटर आया। तो उसने समझा कि मेरे स्वागत में मालिक ने अपने आदमी भेजे। वेटर ने उसे समझने की कोशिश की, कुछ समझ न सका तो जो भी सामान्य भोजन था वह ले आया। उसने भोजन किया, बहुत प्रसन्न हुआ। झुक-झुककर धन्यवाद देने लगा। वेटर उसको पैसे मांगे, वह धन्यवाद दे। क्योंकि भाषा तो समझ में नहीं आती। वह समझ रहा है कि मेरा स्वागत किया गया।
अंततः वेटर उसे मैनेजर के पास ले गया। मैनेजर भी नाराज होने लगा लेकिन वह समझ रहा है कि मुझ परदेसी का इतना सम्मान किया जा रहा है। फिर उसे भेजा गया अदालत में। वह यही समझा कि सम्राट के पास भेजा जा रहा है।
अदालत बड़ी थी और सम्राट जैसा ही लगता था मजिस्ट्रेट। तो वह बड़ा झुक रहा। मजिस्ट्रेट उससे बहुत पूछता है कि तूने भोजन लिया तो पैसे क्यों नहीं चुकाये? मगर उसकी कुछ समझ में आता नहीं। वह भाषा समझता नहीं। वह जो कहता है, मजिस्ट्रेट नहीं समझ पाता।
आखिर मजिस्टे्रट ने कहा कि या तो यह आदमी पक्का धूर्त है, कि समझना नहीं चाहता; और या फिर महामूर्ख है। जो भी हो, इसको सजा दी जाये। इसके गले में एक तख्ती लटका दी जाये कि यह आदमी धूर्त है। और गधे पर बिठालकर इसकी सवारी गांव में घुमा दी जाये ताकि लोग जान लें कि इस तरह का काम कोई दुबारा न करे।
मगर वह तो बड़ा प्रसन्न है। जब उसके गले में तख्ती लटकाई तो उसने कहा, हद हो गई! मुझ गरीब आदमी का कैसा स्वागत हो रहा है। और जब गधे पर उसे बिठाला गया तब तो उसकी मगनता का अंत न रहा। उसने कहा, ये लोग भी आश्चर्य-जनक हैं–क्योंकि वह गरीब आदमी, घर पर गधे पर ही बैठता था। तो उसने सोचा हद है, इन लोगों ने पता भी कैसे लगा लिया कि मैं गधे पर ही बैठता हूं? और अब मेरी शोभायात्रा निकल रही। और बच्चे शोरगुल मचाते, और लोग हंसते और पीछे चलते और बड़ा जुलूस चला। और वह बड़ी अकड़ से बैठा।
सिर्फ एक बात मन में उसके खटकने लगी कि जब मैं लौटकर अपने गांव में कहूंगा तो कोई मानेगा नहीं कि ऐसा-ऐसा स्वागत हुआ। आज अगर कोई एक भी आदमी मेरा गांववाला होता तो मजा आ जाता। अब यह हो भी रहा है स्वागत तो बेकार है। यहां कोई मुझे जानता नहीं। और जहां लोग मुझे जानते हैं वहां कोई मानेगा नहीं।
तभी उसने देखा कि भीड़ में एक आदमी उसके देश का खड़ा है। वह आदमी कोई दस-बीस साल पहले आ गया था। तो वह बड़ा खुश हुआ। उसने कहा, देखते हो भाई, कैसा मेरा स्वागत हो रहा है। वह आदमी तो उसकी भाषा समझता है। वह जल्दी से भीड़ में सरक गया। वह इसलिए भीड़ में सरक गया कि यह मूढ़ समझ रहा है कि स्वागत हो रहा है। वह इस देश की भाषा भी समझने लगा है। और कोई यह न पहचान ले कि मैं भी इसी आदमी के देश का रहनेवाला हूं, कोई मुझे भी ऐसा न समझे कि मैं भी धूर्त हूं। तो वह भीड़ में चुपचाप सरक गया।
और यह गधे पर बैठा आदमी सोचा, हद हो गई ईर्ष्या की भी! मेरा स्वागत देखकर जलन पैदा हो रही है इसको। इसका कभी स्वागत नहीं हुआ मालूम होता, बीस साल हो गये आये हुए।
तुम्हें कोई गाली देता, गाली तुम्हारे भीतर विचारों का एक जाल पैदा करती है। अगर तुम गाली को शांतभाव से सुन सको और तुम्हारे भीतर विचार का कोई जाल पैदा न हो…गाली में नहीं है दंश। क्योंकि गाली अगर तुम्हारी समझ में न आये तो कोई अड़चन नहीं है। इसलिए गाली में दंश नहीं है। दंश तो तुम्हारे विचार की प्रक्रिया में है। जब भीतर विचार चलने लगे तो तुम पीड़ित हुए। किसी ने सम्मान किया तो तुम प्रफुल्लित होते हो। सम्मान में नहीं है प्रफुल्लता। तुम्हारे भीतर विचारों की जो तरंगें उठने लगती हैं, उनमें है।
ज्ञानी सुख और दुख में, सम्मान-अपमान में निर्विचार बना रहता है। जो होता उसे देख लेता लेकिन उसको कोई बहुत मूल्य नहीं देता। तटस्थ बना रहता है। संताप से मुक्त हो जाता है।
संताप हम पैदा करते हैं सोच-सोचकर। हम संताप के लिए बड़ी मेहनत करते हैं तब पैदा होता है। हम ऐसे दीवाने हैं कि बीस साल पहले किसी ने गाली दी थी, अब भी उसको सम्हालकर रखे हैं धरोहर की तरह, जैसे कोई हीरा-जवाहरात हो। अभी भी दिल में चोट आ जाती है। अभी भी याद कर लो उस बात को तो नथने फड़फड़ाने लगते हैं, हाथ-पैर गरम हो जाते हैं। मरने-मारने की जिद आ जाती है।
बीस साल पहले किसी ने गाली दी थी। एक हवा का झोंका आया और कब का गया, लेकिन तुम उसे पकड़े बैठे हो। एक स्मृति को पकड़े बैठे हो। तुम घाव को भरने नहीं देते। तुम घाव को कुरेदते रहते हो ताकि घाव हरा बना रहे।
लोग बड़े दुखवादी हैं। जो मनुष्य इस जगत में आनंदित होना चाहे उसे कोई रोक नहीं सकता। और अगर तुम दुखी हो तो तुम्हारे कारण दुखी हो। कोई तुम्हें दुखी कर नहीं रहा।
यह जो…जिस ढंग से हम जी रहे हैं, इस जीने में कहीं बुनियादी भूल हो रही है। अंधेरा बहुत बड़ा है–मन का अंधेरा, विचार का अंधेरा। और जरा-सी समझ है। बड़ी छोटी समझ है। जरा चोट पड़ती है कि समझ बिखर जाती, अंधेरा पूरा हो जाता। जरा चोट पड़ी कि तुम्हारी समझदारी गई। बड़े से बड़ा समझदार आदमी जरा-सी चोट में विचलित हो जाता है और समाप्त हो जाता है।
आंगन भर धूप में
मुट्ठी भर छांव की क्या बिसात, हो न हो!
अंतर की पीर कसे, अधरों पर हास हंसे
उलझन के झुरमुट में किरनों के हिरन फंसे
शहरों की भीड़ में
नन्हे-से गांव की क्या बिसात, हो न हो!
ढहते प्रण हाथ गहे, तट ने आघात सहे
भावी के सुख-सपने लहरों के साथ बहे
तूफानी ज्वार में
कागदीया नाव की क्या बिसात, हो न हो!
भेदभरे राज खुले, सुख-दुख जब मिले-जुले
बांवरिया दृष्टि धुली, आंसू के तुहिन घुले
कालजयी राह पर
क्षणजीवी पांव की क्या बिसात, हो न हो!
हमारी समझ बड़ी क्षणजीवी है। हमारे पैर बड़े कमजोर। हमारी बुद्धि तो ऐसी है जैसे बड़े गहन अंधकार में जरा-सी रोशनी है। बस जरा झिलमिलाती रोशनी है–अब मरी, तब मरी।
ढहते प्रण हाथ गहे, तट ने आघात सहे
भावी के सुख-सपने लहरों के साथ बहे
तूफानी ज्वार में
कागदीया नाव की क्या बिसात, हो न हो!
हमारी नाव तो कागज की है और तूफानी सागर है। इस कागज की नाव में पार करने का तय किया है। डूबना सुनिश्चित है। कुछ और नाव बनाओ। कुछ ऐसी नाव बनाओ, जो कागज की न हो। कुछ ऐसी नाव बनाओ जो वस्तुतः उस पार ले जाये।
यह मन की नाव तो कागज की नाव है, ध्यान की नाव बनाओ। यह दृश्य में उलझे-उलझे तो बस–
आंगन भर धूप में
मुट्ठीभर छांव की क्या बिसात, हो न हो!
यह जो तुम्हारी अभी विचारों के द्वारा जो तुमने थोड़ी-सी समझ का भ्रम पाल रखा है, यह बहुत काम नहीं आता।
आंगन भर धूप में
मुट्ठीभर छांव की क्या बिसात, हो न हो!
यह जरा-जरा में खो जाती है। यह कभी काम नहीं आती। जब जरूरत नहीं होती तब तो मालूम होती है, जब जरूरत होती तब खो जाती है। जब तुम घर में बैठे हो, किसी ने कोई अपमान नहीं किया तब तुम बड़े शांत मालूम पड़ते हो। किसी ने जरा-सा अपमान कर दिया, सब शांति खो गई। जब फिर शांत हो जाओगे तो फिर सोचोगे कैसी भूल हो गई। न करते तो अच्छा था।
अब यह बड़े मजे की बात है, तुम्हारी समझ तभी आती है जब काम नहीं होता। और जब काम होता है तभी खो जाती है। यह तो ऐसे ही है कि जब जरूरत पड़े, खीसे में हाथ डालो, पैसे नदारद। और जब जरूरत न रहे, हाथ डालो, पैसे खनखनाने लगे। यह तो बड़ी मुश्किल हो जाये। जब जरूरत हो तब गरीब; तब बैंक देने को तैयार नहीं। और जब जरूरत न हो, तब बैंक कहती है, आओ; आपका ही है सब–मगर जब जरूरत न हो।
तुमने ख्याल किया? तुम्हारी समझ तभी काम आती जब काम की नहीं होती। कोई जरूरत ही नहीं होती। हां, शास्त्र पढ़ रहे हैं तो तुम बड़े बुद्धिमान होते। बाजार में, दूकान में, जीवन के संघर्ष में सब बुद्धि खो जाती है।
भेदभरे राज खुले, सुख-दुख जब मिले-जुले
बांवरिया दृष्टि धुली, आंसू के तुहिन घुले
कालजयी राह पर
क्षणजीवी पांव की क्या बिसात, हो न हो!
यह हमारा जो पांव है, बड़ा क्षणजीवी है। ये जो विचार के चरण हैं इनसे तुम अनंत के द्वार तक न पहुंच पाओगे। कोई और पैर चाहिए। कोई और ज्योति चाहिए, जो इतने जल्दी-जल्दी बुझ न जाती हो। ऐसी ज्योति चाहिए जो बुझती ही न हो। कालजयी ज्योति चाहिए। ऐसा कुछ चाहिए जिसे मृत्यु भी मिटा न सके।
अभी तो किसी ने गाली दी, और मिट जाता सब। अभी तो किसी ने सम्मान किया कि तुम डांवाडोल हो गये। अभी तो दो पैसे हाथ लग गये तो तुम फूले नहीं समाते। दो पैसे गिर गये तो आत्महत्या का विचार उठने लगता है। अभी तो बात बड़ी छोटी है। मौत आयेगी तो तुम कैसे सम्हलोगे? और मौत आनेवाली है। इसीलिए तो लोग मौत से इतने डरते हैं। बुद्धि से काम न चलेगा, बुद्धत्व चाहिए।
अक्षयं गतसंतापमात्मानं पश्यतो मुनेः।
वही हो पाता है संताप से मुक्त, जो अविनाशी के साथ अपना संबंध जोड़ लेता। अविनाशी के साथ, अकाल के साथ, जो कभी अंत नहीं होगा उसके साथ जो संबंध जोड़ लेता, वही संताप के पार हो जाता।
‘और ऐसी आत्मा को देखने वाले मुनि को कहां विद्या?’
फिर उसको शास्त्रों में नहीं खोजना पड़ता, शब्दों में नहीं खोजना पड़ता। विद्या की कोई जरूरत न रही। उसके भीतर ही द्वार खुल गया ज्ञान का। मंदिर के पट अपने भीतर ही खुले। अब उसे किसी शास्त्र में नहीं जाना पड़ता। स्वयं का शास्त्र उपलब्ध हो गया। जहां से सब शास्त्र जन्मे हैं, सब वेद, कुरान, गुरुग्रंथ जहां से जन्मे हैं वही स्रोत उपलब्ध हो गया। उस मूल स्रोत से संबंध जुड़ गया। अब बासे सिद्धांत और बासी धारणाओं की कोई भी जरूरत न रही।
ऐसी आत्मप्रतीति में ही–इति निश्चयी–व्यक्ति निश्चय को, श्रद्धा को उपलब्ध होता है।
विश्वास काम नहीं आते, श्रद्धा काम आती है। विश्वास बचकाना है, संस्कार मात्र है; श्रद्धा अनुभव है। और श्रद्धा जिसे पाना हो उसे ध्यान की नाव में सवार होना पड़े। जल्दी करो। समय बीत जायेगा। समय बीत ही रहा है। जल्दी करो कि ध्यान की नाव बन जाये। इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे, तुम्हारी ध्यान की नाव तैयार हो जानी चाहिए।
तो फिर मृत्यु समाधि बन जाती है। फिर मृत्यु में तुम्हें परमात्मा के ही दर्शन होते हैं। फिर मृत्यु में उसी से आलिंगन होता है। अभी तो जीवन में भी तुम परमात्मा से चूके हो, तब फिर मृत्यु में भी मिलना होता है! और जब कोई मृत्यु में भी उसको ही पाता है तभी समझना कि जीवन में भी पाया है।
और उसे पाये बिना हमारा सब पाया हुआ व्यर्थ है। उसे पाये बिना तुम और कुछ भी पा लो, एक दिन पछताओगे। बुरी तरह पछताओगे। बहुत रोओगे। और फिर रोने से भी कुछ न होगा। क्योंकि गया समय हाथ लौटता नहीं। जो जा चुका, जा चुका। समय रहते जाग जाना चाहिए।
जागो!
आज इतना ही।