UPANISHAD
Maha Geeta 82
EightySecond Discourse from the series of 91 discourses – Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 – FEB 10 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, मेरे नैना सावन-भादौं, फिर भी मेरा मन प्यासा…
मन जब तक है तब तक प्यासा ही रहेगा। मन का होना ही प्यास है। अतृप्ति मन का स्वभाव है। मन कभी तृप्त हुआ, ऐसा सुना नहीं। मन कभी तृप्त होगा, ऐसा संभव नहीं। मन तृप्त नहीं हो सकता है। इसीलिए तो संसार में कोई तृप्ति नहीं है, क्योंकि संसार मन का फैलाव है। मन का विस्तार है।
संसार यानी मन। संसार यानी मन के माध्यम से तृप्ति की खोज। जो नहीं हो सकता, उसे करने की चेष्टा। असंभव के लिए प्रयास। जो अस्तित्व के गणित में ही नहीं है, उसकी खोज। इसलिए जन्मों-जन्मों तक भी खोजो, लाख रोओ-धोओ, अंतर न पड़ेगा। मन का स्वभाव प्यास है। जैसे आग गरम, ऐसा मन प्यासा है।
मन को प्यासा देखकर लगता है कि शायद मन तृप्त हो सके। भाषा के कारण भूल पैदा होती है–हम कहते हैं, मन प्यासा। तो लगता है, मन तृप्त भी हो सकेगा। जब प्यासा है तो तृप्त भी हो सकेगा। ठीक-ठीक होगा कहना, अगर हम कहें कि मन प्यास। मन प्यासा, ऐसा नहीं; मन ही प्यास है। प्यास और मन एक ही बात के दो नाम हैं। तब चीजें ज्यादा साफ होंगी।
तो प्यास तो कभी भी तृप्त नहीं हो सकती। प्यास का तो स्वभाव ही प्यास है। जब तृप्ति होगी तो प्यास न रहेगी। ऐसा थोड़े ही कहोगे–प्यास तृप्त हो गयी। ऐसा ही कहोगे, अब प्यास न रही। प्यास की तृप्ति का अर्थ होता है, प्यास का न हो जाना। और मन भी वहीं तृप्त होता है जहां नहीं हो जाता है। जहां मन मिटा, वहां तृप्ति। जब तक मन है, तब तक मन की आग जलती रहेगी। और हम इस मन की आग में खूब-खूब घृत डालते हैं। नयी-नयी आकांक्षाओं के, नयी-नयी वासनाओं के, नयी-नयी योजनाओं के। हम ईंधन को और भी प्रज्वलित करते रहते हैं।
‘मेरे नैना सावन-भादौं,
फिर भी मेरा मन प्यासा।’
आंखों के रोने से मन के तृप्त होने का कोई संबंध ही नहीं है। आंखों के आंसुओं से थोड़े ही मन की तृप्ति का कुछ लेना-देना है, कि तुम कितने रोए, उस मात्रा में तृप्ति हो जाएगी। रोना-धोना बंद करो। रो तो बहुत लिये। इस रोने से तो मन की ही गति बढ़ती है। क्योंकि रो-रोकर तुम यही कहते हो कि अब तक नहीं मिला, कब मिलेगा? अब तक नहीं आयी मंजिल पास, कब आएगी? रो-रोकर तुम कहते क्या हो? रो-रोकर तुम समझाने की कोशिश कर रहे हो अस्तित्व को कि देखो मैं कितना रो रहा हूं, अब तो कृपा करो। लेकिन तुम जो मांग रहे हो, वह हो नहीं सकता। अस्तित्व के पास भी कोई उपाय नहीं है।
कंठ से मृदुगान आकर ओंठ तक
एक सिसकी प्राय होकर रह गये
दर्द से असहाय होकर रह गये
हम बड़े निरुपाय होकर रह गये
फिर वही नासूर उभरे वक्त के
एक बेबस हाय होकर रह गये
हाट खुशियों की लगायी थी यहां
अश्रु के व्यवसाय होकर रह गये
पग पहुंचते ही प्रणय-सोपान पर
स्वप्न सब कृशकाय होकर रह गये
इस जीवन में योजनाएं तो हम बनाते हैं, लेकिन कौन-सी योजना पूरी होती है? कब कौन सिकंदर जीत पाता है? कब कौन पहुंच पाता है? सपने हम सब संजोते हैं–
हाट खुशियों की लगायी थी यहां
अश्रु के व्यवसाय होकर रह गये
करते कुछ हैं, होता कुछ है। तुमने तो मांगी तृप्ति थी, आंखें आंसुएं बन गयीं। ठीक है, यही होगा। क्योंकि जिस दिशा में तुम मांग रहे हो, उस दिशा में मिलन नहीं है। भीतर चलो।
मन का अर्थ होता है, बाहर की यात्रा। बहिर्यात्रा। मन का अर्थ होता है, कहीं और खोज रहे हैं। अ-मन का अर्थ होता है, अब कहीं और नहीं खोज रहे, अपने भीतर झांक रहे हैं। अब वहीं बैठे हैं जहां अस्तित्व स्वयं का है। अब स्वयं के केंद्र पर ठहरे हैं, अकंप। जब तक ऐसा न होगा, तब तक कंठ से जो गान उठेंगे वे भी ओंठ तक आते-आते सिसकियां हो जाएंगे–
कंठ से मृदुगान आकर ओंठ तक
एक सिसकी प्राय होकर रह गये
दर्द से असहाय होकर रह गये
हम बड़े निरुपाय होकर रह गये
फिर वही नासूर उभरे वक्त के
एक बेबस हाय होकर रह गये
प्रश्न तुम्हारा समझता हूं। लेकिन तुम मेरे उत्तर को भी समझने की कोशिश करो। जब भी तुम रोए हो, तो दो तरह के उत्तर दिये गये हैं। एक तो उत्तर है सांत्वना का। जिनको तुम साधारणतः साधु-संत कहते हो, वे तुम्हें सांत्वना बंधाते हैं। वे तुम्हारे आंसू पोंछ देते हैं, पीठ थपथपा देते हैं, लोरी गा देते हैं। वे कहते हैं, सब ठीक हो जाएगा, बच्चा। प्रभु-कृपा से सब ठीक होगा। घबड़ा मत। यह ले मंत्र, इसका जाप कर। यह ले माला, इसे फेर। सब ठीक हो जाएगा। ये जो सांत्वना देने वाले लोग हैं, यही तुम्हें भटकाए हुए हैं। ये तुम्हें जगने भी नहीं देते।
तुम्हारा विषाद इतना है कि तुम्हारा विषाद जगा सकता था। लेकिन लोरी गानेवाले भी बहुत हैं, थपकियां देकर सुलानेवाले भी बहुत हैं, जो कहते हैं, अब तक ठीक नहीं हुआ, कोई फिकिर नहीं, कल ठीक हो जाएगा। भरोसा रख भाग्य पर, भगवान पर। पूजा कर, पाठ कर, हवन कर, यज्ञ कर। अब तक तूने अपनी ही तरफ से चेष्टा की थी पाने की, अब भगवान का भी साथ लेकर पाने की चेष्टा कर। अब तक तूने कोशिश तो की, लेकिन कोशिश पूरी-पूरी न थी। अब समग्र मन-प्राण से चेष्टा कर। और गहरा उपाय, और योग लगा, और विधि जुटा, और एकजुट होकर जूझ जा, जीत तेरी है। ऐसे लोग लोगों को कहते हैं, असंभव कुछ भी नहीं है।
मेरे एक शिक्षक थे। उन्हें तो कुछ अंदाज न था। मैट्रिक में मुझे पढ़ाते थे। तो उन्होंने सिकंदर का प्रसिद्ध वचन उद्धृत किया: असंभव कुछ भी नहीं है। संसार में असंभव कुछ भी नहीं है। और जब उन्होंने यह वचन उद्धृत किया तो वे इसको समझाने भी लगे कि संसार में असंभव कुछ भी नहीं है। और उन्होंने बड़ी ओजस्वी वक्तृता दी। मैंने उनसे खड़े होकर कहा कि आप जो कह रहे हैं, कितने ही अच्छे शब्दों में कहें और कितनी ही लफ्फाजी करें, यह बात सच नहीं है। क्योंकि सिकंदर की खुद की जीवन की हार कह रही है! सिकंदर के वक्तव्य से क्या होगा कि असंभव कुछ भी नहीं है! और मैंने कहा इस तख्ते पर लिखें दो और दो, और जोड़कर तीन कर दें। आप कहते हैं, असंभव कुछ भी नहीं, छोटी-सी बात है, तख्ता पास है, चाक रखी है हाथ में आपके, दो और दो को जोड़कर तीन कर दें। अगर दो और दो जुड़कर तीन हो जाएं तो मैं मान लूंगा कि असंभव कुछ भी नहीं है।
यह छोटी-सी बात भी नहीं हो सकती। लेकिन लोग अपने आंसू पोंछने में उत्सुक हैं। मेरे पास आ जाते हैं, लोग मुझसे कहते हैं कि हमारा आत्मविश्वास कैसे मजबूत हो? कोई उपाय बताएं। वे सोचते हैं, बड़ी आध्यात्मिक खोज कर रहे हैं। आत्मविश्वास कैसे मजबूत हो! इसी तथाकथित आत्मविश्वास की वजह से तो तुम जन्मों-जन्मों भटके हो। अब तक टूटने नहीं दिया, अब तक टूटा नहीं। तुम्हारा आत्मविश्वास टूट जाए तो तुम समर्पित हो जाओ, तो तुम अर्पित हो जाओ प्रभु को। मगर ये अकड़। कोई कहता है, मेरा संकल्प, विल पावर कैसे मजबूत हो? क्या करोगे विल पावर मजबूत करके? संकल्प मजबूत करके करना क्या है? किसी को धन कमाना है, किसी को पद, किसी को प्रतिष्ठा; साम्राज्य बनाने हैं यश के, गौरव के। लेकिन कब कौन बना पाया?
तो एक तो हैं सांत्वना देने वाले संत। जो कि झूठे संत हैं। वे तुम्हारे मन की ही सेवा कर रहे हैं। हालांकि वे तुम्हें प्रीतिकर लगेंगे। क्योंकि जो भी तुम्हारे आंसू पोंछ देगा, वही प्रीतिकर लगेगा! और जो भी तुम्हें थपकी देकर सुला देगा और कहेगा कि राजा बेटा, सो जाओ, वही अच्छा लगेगा! कि कितना प्यारा संत है!
मैं उनमें से नहीं हूं। मैं तुम्हें वही कहना चाहता हूं, जैसा है। चाहे कितनी ही कड़वी हो दवा, चाहे पीने में तुम कितना ही ना-नुच करो, चाहे तुम भागो, चाहे तुम नाराज होओ, लेकिन जो है, मैं तुमसे वही कहना चाहता हूं। मैं तुम्हें सांत्वना देने में उत्सुक नहीं हूं। जगा सकूं तो ठीक, तुम्हें सुलाने में मेरी कोई उत्सुकता नहीं है।
मन जब तक है, तब तक दुख है। मन जब तक है, तब तक नर्क है। तुम मन के पार उठो। मन से बहुत झांककर देख लिया, अब जरा मन को सोने दो–तुम जागो। अब मन की खिड़की से हटो। यही तो अर्थ है ध्यान का। मन की खिड़की से हट जाना। जब कोई विचार न हो तुम्हारे भीतर–कोई विचार न हो, कोई विचार की तरंग न हो, तब प्यास बचती है? कभी एकाध क्षण ऐसा पाया जब कोई विचार नहीं है, तुम बैठे हो निर्विचार, निस्तरंग? उस क्षण कोई प्यास उठती है? उस क्षण अनुभव होता है कि मैं प्यासा हूं? उस क्षण तृप्ति ही तृप्ति बरस जाती है। उस क्षण कोई अतृप्ति नहीं होती। तो यह तो बहुत छोटा-सा गणित है–जहां तक विचार है, वहां तक प्यास; जहां से निर्विचार शुरू हुआ, वहां से तृप्ति।
तो एक ही काम करो–एक ही काम करने जैसा है। और सब करना न करने जैसा है। और सब किया एक दिन अनकिया हो जाएगा, एक ही काम करने जैसा है जो कभी अनकिया न होगा। और तुमने जो किया, मौत छीन लेगी। एक ही काम ऐसा है जो मौत नहीं छीन पाएगी, अगर तुम कर पाए। उस काम का नाम ध्यान है। थोड़ी-थोड़ी घड़ियां निकालने लगो, बैठने लगो। विचार चलते रहें, चलने दो। देखते रहो शांति से। न जाओ उनके साथ, न करो उनका विरोध। न निंदा, न स्तुति। न कहो कि यह विचार कितना सुंदर आया, न कहो कि यह कहां का दुर्विचार मेरे भीतर प्रविष्ट हुआ! नहीं कोई निर्णय लो, न्यायाधीश न बनो, साक्षी बने बैठे रहो। चलने दो यह ट्रैफिक विचार का, यह राह चलने दो, तुम बैठे रहो। काले, गोरे, सब तरह के विचार निकलेंगे; बुरे, भले, सब तरह के विचार निकलेंगे। यह राह है। इससे तुम इतना भी संबंध मत रखो कि यह मेरा मन है। तुम्हारा क्या लेना-देना है! तुम मन नहीं हो, तुम देह नहीं हो, तुम जरा भीतर से बैठकर इसे देखते रहो। देखते-देखते, देखते-देखते एक दिन ऐसी घड़ी आएगी…पहले तो बड़ी कठिनाई होगी, विचारों पर विचार आते जाएंगे, जैसे सागर में तरंगों पर तरंगें आती हैं, कोई अंत ही न मालूम होगा; बड़ा अंधेरा मालूम होगा, लेकिन घबड़ाना मत।
पनपने दे जरा आदत निगाहों को अंधेरों की
अंधेरे में अंधेरा रोशनी के काम आएगा
न जाने दर्द को दिल अब कहां आराम आएगा
जहां यह उम्र सिर रख दे कहां वह धाम आएगा
अभी कुछ और बढ़ने दे पलक पर इस समुंदर को
तभी तो मोतियों का और ज्यादा दाम आएगा
घबड़ाना मत, अगर पहले अंधेरा भी मालूम पड़े तो देखते ही चले जाना। जैसे भरी दोपहरी में कोई आता है घर, धूप से भरी आंखें, घर में प्रवेश करता है तो अंधेरा-ही-अंधेरा मालूम होता है। आंखों की थोड़ी आदत तो बनने दो। बैठ जाता, सुस्ता लेता घड़ी भर। जैसे-जैसे सुस्ताता है, आंखें राजी होती जाती हैं। पहले घर में आकर अंधेरा मालूम हुआ था, अब अंधेरा नहीं मालूम होता। अब बड़ी शीतल रोशनी मालूम होती है।
पनपने दे जरा आदत निगाहों को अंधेरों की
अंधेरे में अंधेरा रोशनी के काम आएगा
एक बार देखने की आदत बन जाए अंधेरे को, तो अंधेरे को देखते-देखते ही रोशनी पैदा होनी शुरू हो जाती है। पहले तो बड़ा अंधकार मालूम होगा–विचार, विचार, विक्षिप्तता मालूम होगी। देखते रहना।
पनपने दे जरा आदत निगाहों को अंधेरों की
बस जरा आदत पनपने की बात है। और विचारों की इन धाराओं को देखकर बहुत बार ऐसा प्रश्न उठने लगेगा कि इसका कोई अंत होगा! यह कभी समाप्त होनेवाला है! कहते हैं बुद्धपुरुष कि समाप्त हो जाता है, लेकिन भरोसा न आएगा। बहुत बार नाव डगमगा जाएगी। बहुत बार चित्त कहेगा लौट चलो, पहले ही ठीक थे। यह किस झंझट में पड़े, समय क्यों गंवाते हो? जब भी ध्यान को बैठोगे, मन कहेगा, क्यों समय गंवाते हो, यह होनेवाला है! हुआ होगा किसी को, कम-से-कम तुम्हें तो नहीं होने वाला है। और जो तुम्हें नहीं हो सकता, वह किसी और को भी कैसे हुआ होगा! झूठी हैं सब बातें। ये ध्यान और समाधि, ये कल्पना के जाल हैं। ऐसा मन समझाएगा।
न जाने दर्द को दिल अब कहां आराम आएगा
जहां यह उम्र सिर रख दे कहां वह धाम आएगा
विचार और विचारों के तूफान और अंधड़ों में बहुत बार लगने लगेगा, है कोई ऐसी जगह जहां सिर रखकर आराम आ जाए?
जहां यह उम्र सिर रख दे कहां वह धाम आएगा
नहीं, लगेगा कि नहीं ऐसा कोई धाम है, ऐसा कोई तीर्थ नहीं है जहां सिर रखने का उपाय हो। यह विक्षिप्तता शाश्वत, अनंत मालूम होती है। यह सदा से है, सदा रहेगी। पर फिर भी मैं तुमसे कहता हूं, अगर थोड़ा धीरज रखा, तो वह धाम आ जाता है। और जितनी देर से आता है, उतना ही बहुमूल्य है।
अभी कुछ और बढ़ने दे पलक पर इस समुंदर को
तभी तो मोतियों का और ज्यादा दाम आएगा
अगर तुमने थोड़ा साहस रखा, धैर्य रखा और देखते ही चले गये, देखते ही चले गये, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे, छोटे-छोटे झरोखे आने लगे। कभी-कभी विचार नहीं होता। एक क्षण को सपाट शून्य हो जाता है। और उसी शून्य में झरता है अमृत। उसी शून्य में तृप्ति है। उसी शून्य में प्यास नहीं होती, तुम परम तृप्त होते हो। संतुष्ट। एक गहन परितोष, आनंद, एक अपूर्व रस की धार बहने लगती है।
ऐसा पहले तो शुरू-शुरू होगा, बूंद-बूंद आएगी रस की धार, बिंदु-बिंदु परमात्मा उतरेगा। फिर एक दिन सिंधु की भांति भी उतरता है। तुम जैसे-जैसे राजी होने लगे, पात्र जैसे-जैसे तैयार होने लगा, वैसे-वैसे ज्यादा-ज्यादा रस की धार बहने लगती है।
मन से तो कोई कभी तृप्त नहीं हुआ है। जो हुए हैं तृप्त, मन के पार जाकर हुए हैं। ध्यान से तृप्ति है, मन से अतृप्ति है। ऐसा कहो, मन यानी अतृप्ति, प्यास, असंतोष। ध्यान यानी तृप्ति, संतृप्ति, परितोष।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि आप न भाषाशास्त्री हैं, न अर्थशास्त्री हैं, न व्यवस्था- शास्त्री हैं। संभवतः आप कहना चाहेंगे कि आप विधिशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनीति-शास्त्री भी नहीं हैं। तो क्या ये सब विषय परम ज्ञान में समाहित नहीं हैं? मुझे तो लगता है आप सब कुछ हैं।
परम ज्ञान का अर्थ होता है, परम अज्ञान। परम ज्ञान में कुछ भी समाहित नहीं है। सब छूट गया। सब जाना हुआ व्यर्थ मालूम होने लगा। सिर्फ जाननेवाला बचा। परम ज्ञान का अर्थ होता है, सिर्फ जाननेवाला बचा। जानी गयी बातें सब गयीं। विषय गये। सिर्फ साक्षी बचा। परम ज्ञान का संबंध ज्ञेय से नहीं है, ज्ञाता से है।
तो परमज्ञान में राजनीति तो है ही नहीं, समाजशास्त्र और विधिशास्त्र तो हैं ही नहीं। परम ज्ञान में तो धर्मशास्त्र भी नहीं है। परम ज्ञान में तो अध्यात्मशास्त्र भी नहीं है। परम ज्ञान में तो दर्शनशास्त्र भी नहीं है। परम ज्ञान में तो कुछ भी नहीं है। परम ज्ञान तो महाशून्य का नाम है। परम ज्ञान यानी परम अज्ञान। उस घड़ी तुम कुछ भी नहीं जानते। बस जाननेवाला ही शेष रह गया अपनी परमशुद्धि में। क्योंकि जो भी तुम जानते हो, वह तुम्हारे जाननेवाले को अशुद्ध करता है। विकृति होती है। मिलावट हो जाती है।
चेतना के स्वभाव को समझो।
चेतना का स्वभाव है, चेतना जो भी जानती है उसी का रूप ले लेती है। उसी का आकार ले लेती है। तदाकार हो जाती है। जैसे, जब तुमने गुलाब का फूल देखा, तो तुम्हारी चेतना गुलाब का फूल बन जाती है, उसका रूप ले लेती है। नहीं तो तुम देख कैसे पाओगे गुलाब के फूल को? गुलाब का फूल तो बाहर है, भीतर तो है नहीं; आंख से गुलाब के फूल की तस्वीर जाती। तस्वीर भी नहीं जाती, अगर तुम वैज्ञानिक से पूछो, आंख के जानकार से पूछो, तो तस्वीर भी नहीं जाती। क्योंकि आंख पर तस्वीर बनती है जरूर, पर आंख के पीछे तो सिर्फ स्नायुओं का जाल है, उनसे तस्वीर जा नहीं सकती। स्नायुओं से तो कुछ रासायनिक प्रक्रियाएं जाती हैं। रासायनिक प्रक्रियाएं जाकर तुम्हारी चेतना में पुनः किसी चीज को जन्म देती हैं। वहां तुम गुलाब का फूल देखते हो। तो तुम्हारी चेतना ही गुलाब के फूल का आकार लेती। इसलिए तो गुलाब के फूल को देखते-देखते तुम ऐसे मग्न हो जाते हो, ऐसी सुवास से भर जाते हो। तुम गुलाब के फूल हो गये। कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं, ‘द आब्जर्वर इज द आब्जर्व्ड।’ वह जो अवलोकन कर रहा है, वह अवलोकित है।
जब तुम गुलाब के फूल को देखते हो, तो गुलाब का फूल तो बाहर है, उसे तो तुम देख ही नहीं सकते, तुम बाहर गये कहां? तुम भीतर हो, गुलाब का फूल बाहर है। लेकिन तुम्हारे भीतर एक गुलाब का फूल आकृति लेता है।
इसलिए सुंदर को देखो, तो तुम सुंदर हो जाते हो; असुंदर को देखो तो तुम असुंदर हो जाते हो। बुरे को देखो तो बुरे हो जाते हो, शुभ को देखो तो शुभ हो जाते हो। इसलिए संत के पास अगर तुम बैठे, तो तुम्हारे भीतर भी संतत्व आकार लेता है। दुष्ट के पास बैठे तो दुष्टत्व आकार लेता है। हत्यारे के पास बैठे, तो तुम्हारे भीतर हत्या के विचार उठने लगेंगे। तुम्हें बहुत बार इसका पता भी चलता है, लेकिन तुम कभी बहुत ठीक-ठीक विमर्श नहीं कर पाते। किसी आदमी के पास जाते हो और बड़े बुरे विचार उठते हैं। और किसी आदमी के पास जाते हो, बड़े शुभ विचारों का जन्म उठता है। किसी के पास बैठकर परमशांति का अनुभव होता है, और किसी के पास बैठकर बड़ी अशांति अनुभव होने लगती है। किसी से बचने का मन होता है, किसी को आलिंगन करने का मन होता है।
क्यों? तुम्हारे भीतर, जो भी तुम बाहर देखते हो उसके अनुकूल आकृति निर्मित होती है। तुम जो भी देखते हो, उसी के रूप में तुम ढल जाते हो। यही उपाय है देखने का, और कोई उपाय ही नहीं है। तब इसका अर्थ यह हुआ कि परम ज्ञान का तो एक ही अर्थ हो सकता है कि अब तुम किसी के आकार में नहीं ढलते। न गोबर का ढेर और न गुलाब का फूल। तुम दोनों से मुक्त हुए। शुभ-अशुभ, सुंदर-असुंदर, सबसे मुक्त हुए। अब तुम अपने रूप में हो, स्वाकार। परम ज्ञान का अर्थ होता है, अब तुम स्व-भाव में, स्व-आकार में, स्वच्छंद, स्वयं के गीत को उपलब्ध। अब किसी चीज का आकार नहीं ले रहे हो। गुलाब का आकार था, वह भी उधार था। चट्टान का आकार था, वह भी उधार था। जो भी देखा था अब तक, वह सब उधार था। एक चीज तुम पर आरोपित हो गयी थी। अब तुम किसी भी चीज से आरोपित नहीं हो रहे हो। अब तुम निराकार हो, अब कोई आकार नहीं है।
ध्यान रखना, जब मैं कह रहा हूं कोई आकार नहीं, तो इसमें तुमने बुद्ध की धारणा बनायी कि कृष्ण की धारणा बनायी, वे भी आकार सम्मिलित हैं। इसलिए झेन फकीर कहते हैं, अगर ध्यान के मार्ग पर बुद्ध मिल जाएं, तो उठाकर तलवार दो टुकड़े कर देना। ध्यान के मार्ग पर अगर बुद्ध मिल जाएं, तो उठाकर तलवार दो टुकड़े कर देना! फिर जरा भी सोच-संकोच मत करना। क्योंकि ध्यान के मार्ग पर अगर बुद्ध का आकार उठ आया, तो फिर तुम विकृत हो गये। बुद्ध का आकार भी विकृत कर देगा।
अगर ध्यान के मार्ग पर कृष्ण बांसुरी बजाने लगें, तो धक्का मार बाहर निकाल देना, कि जाओ अभी, यहां बीच में न आओ। ये कहां तुम बांसुरी लिए चले आ रहे! क्योंकि ध्यान में तो वह भी विघ्न है। चाहे क्राइस्ट दिखाई पड़ें, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, उनको नमस्कार कर लेना! उनसे बचकर निकल जाना। अपना पल्ला छुड़ा लेना उनसे। वे तुम्हारे ही मन के विचार हैं। अंतिम विचार मन उठा रहा है। मन कहता है अब संसार से तुम छूट रहे हो, चलो, मैं तुम्हें मोक्ष दे दूं। तुम कहते हो धन में तुम्हारी उत्सुकता नहीं, मैं तुम्हें बुद्ध दे दूं। मन आखिरी प्रलोभन दे रहा है। मन कह रहा है तुम्हें जिन खिलौनों में रुचि हो, वही देने को मैं राजी हूं। कृष्ण को खड़ा कर दूं। मन कल्पनाएं कर रहा है। और सभी कल्पनाएं तुम्हें विकृत कर जाती हैं।
परम ज्ञान की अवस्था, इसलिए मैं कहता हूं, परम अज्ञान की अवस्था है। क्योंकि परम ज्ञान की अवस्था परम निर्दोषता की अवस्था है। प्राइमल इनोसेंस। वह जो मौलिक निर्दोषता है, क्वांरापन है, उसकी अवस्था है। जहां अभी ज्ञान ने ज्ञाता को विकृत नहीं किया। ज्ञान उठा, विकृति उठी। ज्ञान उठा, मन उठा। ज्ञान उठा, उपद्रव शुरू हुआ। जहां तुमने जाना, वहीं से संकीर्ण हुए। जानना मात्र संकीर्ण कर देता है। इसलिए तो उपनिषद कहते हैं कि जो कहें कि जानते हैं, जान लेना कि नहीं जानते। जो कहे कि नहीं जानता हूं, जानना कि वही जानता है। इसीलिए तो बुद्ध चुप रह गये। जब किसी ने पूछा ईश्वर को जानते हैं, तो चुप रह गये। इसका उत्तर देने में गलती हो जाएगी। उत्तर देना ही गलत होगा। जो भी उत्तर दिया जाएगा, गलत होगा। उत्तर मात्र गलत होगा। कहो कि जानता हूं, तो भूल हो गयी। कहो कि नहीं जानता हूं तो भूल हो गयी, क्योंकि जानता तो हूं। यह कहना कि नहीं जानता हूं, असत्य होगा। और यह कहना कि जानता हूं, विकृति होगी। इसलिए चुप रह जाने के सिवाय उपाय नहीं।
तो परम उत्तर तो मौन ही है। निःशब्द, शून्य ही है। परम ज्ञान में कुछ भी समाहित नहीं है। परम ज्ञान सभी चीजों से मुक्त हो जाने की परम दशा है। सबका अतिक्रमण।
लेकिन तुम कहते हो कि मुझे लगता है कि आप सब कुछ हैं। तुम्हारा लगना तुम्हारे मोह, तुम्हारी प्रीति का लक्षण है। तुम्हें मुझसे मोह है, तो तुम्हें लगता है, सब कुछ हूं। मुझे मुझसे बिलकुल मोह नहीं है, इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, कुछ भी नहीं हूं।
तुम्हारे मोह को मैं समझता हूं। तुम्हारे मोह के कारण तुम्हें लगता होगा कि मैं सब जानता हूं। लेकिन मैं तुम्हें यह बात कह देता हूं, इसे गांठ में बांध कर रख लो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। जानना जहां तक है, वहां तक तो जाना ही कहां! वहां तक तो उपद्रव जारी है। जहां जानने से छूटे, वहीं छूटे। वहीं मुक्ति है। वहीं परम ज्ञान है। जहां जानने से छूटे, वहां परम ज्ञान है। इसका अर्थ हुआ, जहां ज्ञान से छूटे वहां परम ज्ञान है।
तो परम ज्ञान शब्द ठीक नहीं है। ज्यादा अच्छा होगा, हम कहें–परम अज्ञान।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, कृपापूर्वक समझाएं कि बुद्धपुरुषों की पहचान क्या है?
न समझा सकूंगा। इस संबंध में कृपा करने का भी कोई उपाय नहीं। यह बात कही ही नहीं जा सकती। बुद्धपुरुषों की कोई पहचान नहीं। और जितनी पहचानें तुम बना लोगे, उनसे भूल-चूक करोगे। क्योंकि जब भी बुद्धत्व प्रगट होता है, तब इतना अनूठा होता है, इतना अद्वितीय, इतना बेजोड़ कि वैसा पहले कभी हुआ ही नहीं था और वैसा पीछे फिर कभी नहीं होगा। पुनरुक्ति तो होती नहीं। तो तुम जो भी पहचान बना लोगे वह अड़चन हो जाएगी।
अगर तुमने गौतम बुद्ध को देखकर पहचान बना ली, तो तुम महावीर को न पहचान पाओगे। अगर महावीर को देखकर पहचान बना ली तो तुम कृष्ण को न पहचान पाओगे। अगर कृष्ण को देखकर पहचान बना ली, तो तुम मुहम्मद को न पहचान पाओगे। तुमने जिसको देखकर पहचान बना ली, तुम उसी से बंध जाओगे और बाकी अनंत-अनंत बुद्ध तुम्हारी आंख से ओझल हो जाएंगे।
तो पहचान से तुम चूकोगे, पहुंचोगे नहीं। क्योंकि सब पहचान संकीर्ण होगी। पहचान का मतलब होगा–एक बुद्ध की होगी, बुद्धत्व की तो कोई पहचान नहीं होती। बुद्धत्व तो बड़ी विराट घटना है। जितने बुद्ध हुए हैं, सब; जितने आज हैं, सब; और जितने भविष्य में होंगे, सब; समस्त बुद्धों में कुछ है जो एक-सा है। और कुछ है, जो बिलकुल एक-जैसा नहीं है। वह जो कुछ एक-सा है, वह आंतरिक है। वह दिखायी नहीं पड़ता, उसकी बाहर से पहचान नहीं हो सकती। और जो दिखायी पड़ता है, जो समझ में आता है, वह बिलकुल अलग-अलग है।
महावीर नग्न खड़े हैं, कृष्ण पीतांबर वस्त्रों में, सुंदर रेशमी वस्त्रों में। मोर-मुकुट बांधे हैं। बांसुरी लिए खड़े हैं। जीसस सूली पर लटके हैं। जीसस को तुम पाओगे यहूदियों के मंदिर में कोड़ा लिए, लोगों को खदेड़ते। बड़े सक्रिय हैं। इधर बुद्ध हैं, मूर्ति की भांति बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हैं। जैसे कभी ये हिलेंगे ही नहीं, डुलेंगे ही नहीं। इधर लाओत्सु है, जो बिलकुल साधारण-से-साधारण मनुष्य की तरह जी रहा है। कि तुम्हें राह पर मिल जाएगा तो तुम पहचान न सकोगे भीड़ में। सबसे साधारण वही है। और इधर मोजिज हैं, जरथुस्त्र हैं, बड़े विशिष्ट! लाखों की भीड़ में होओगे तो भी तुम जरथुस्त्र को पहचान लोगे, वे अलग दिखाई पड़ेंगे। और फिर भी इन सबके भीतर एक ही घटना घटी है बुद्धत्व की। ये सब जाग गये हैं।
ऐसा समझो कि तुम हजार तरह के लैंप बना लो, हजार तरह की लालटेन, कंदील बना लो–किसी में लाल रंग का कांच लगा दो, किसी में पीले रंग का, किसी में हरे रंग का; किसी में बहुत मोटा कांच लगा दो, किसी में बहुत पतला कांच लगा दो; किसी में सफेद, बहुत पारदर्शी; और सब कंंदील अलग-अलग ढांचे, ढंग, रूप-रंग के हों और तुम सबको जला दो, तो सभी के भीतर रोशनी एक होगी। और सभी के बाहर अलग-अलग रूप प्रगट होगा। नीले कांच से नीला रंग झरता हुआ मालूम होगा और रोशनी नीली नहीं है। रोशनी तो एक ही है भीतर। लेकिन यह जो कांच की पर्त है, यह उसे नीला कर रही है। लाल से लाल रंग झरता मालूम होगा, पीले से पीला रंग झरता मालूम होगा। कोई कंदील सतरंगी हो सकती है। उससे पूरा इंद्रधनुष निकलता मालूम होगा।
कृष्ण ऐसी ही कंदील हैं। इंद्रधनुषी। सात रंग, मोरपंख। लाओत्सु ऐसी कंदील है, इतना पारदर्शी कि तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि कंदील है भी, कि कांच है भी! इतना पारदर्शी! कि जब तक तुम जाकर छू ही न लोगे, तुम्हें पता ही न चलेगा। बहुत पारदर्शी कांच को दूर से तुम देख नहीं सकते। टकरा जाओगे तभी पता चलेगा कि अरे, कोई है! अलग-अलग। बुद्ध हैं, महावीर हैं। महावीर बिना कांच के, सिर्फ रोशनी जल रही है, नग्न खड़े हैं। कोई रंग-रूप नहीं है।
लेकिन रोशनी एक है। अब इस रोशनी के लिए क्या कहें? और यह रोशनी बाहर की नहीं है, यह रोशनी भीतर की, चैतन्य की, बुद्धत्व यानी चैतन्य जागरूकता की है।
मैं तुमसे यह कह भी दूं तो कुछ हल तो न होगा। मैं तुमसे कहूं कि बुद्धत्व की एक ही पहचान है, परम जागरूकता–इससे क्या हल होगा? इससे कुछ तुम्हें सहायता तो न मिलेगी। परम जागरूकता! तुम कहोगे, परम जागरूकता यानी क्या? प्रश्न वहीं-का-वहीं खड़ा रहेगा। तुम सोए हुए हो। तुमने सिर्फ सोने का स्वाद जाना है, जागरण का तो तुम्हें कुछ भी पता नहीं। जागरण शब्द तुम्हें मालूम है, जागरण का कोई अनुभव नहीं। जब तक तुम जागो न, तब तक तुम जान न सकोगे। बुद्ध हुए बिना बुद्धत्व को जानने का कोई उपाय नहीं। अनुभव काम आएगा, परिभाषा काम न आएगी।
लेकिन कुछ इशारे किये जा सकते हैं। इसको परिभाषा मत समझना, सिर्फ इशारे। इशारे और परिभाषा में फर्क समझ लेना। परिभाषा का अर्थ होता है, बात कह दी पूरी-पूरी। इशारे का अर्थ होता है, सिर्फ इंगित है। समझो तो बहुत है, न समझो तो कुछ भी नहीं है। परिभाषा का अर्थ है, यह लो परिभाषा, जो था जानने योग्य इसमें रख दिया है। इशारे का अर्थ है, ये सिर्फ इंगित है, इसे बहुत जोर से मत पकड़ लेना, नहीं तो चूक जाओगे। जैसे कोई आदमी चांद की तरफ उंगली से इशारा करे और तुम उसकी उंगली पकड़ लो कि चलो, यह चांद है। अंगुली चांद नहीं है। अंगुली चांद की परिभाषा भी नहीं है। अंगुली में कहां चांद की परिभाषा! अंगुली से चांद का क्या लेना-देना! अंगुली गोरी हो, काली हो, कुरूप हो, सुंदर हो, अपंग हो, क्या फर्क पड़ता है! बूढ़ी हो, जवान हो, स्त्री की हो, पुरुष की हो, बच्चे की हो, क्या फर्क पड़ता है! अंगुली असली न हो, लकड़ी की हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। अंगुली से कोई चांद का लेना-देना नहीं है। जब कोई अंगुली बताता है, तो तुम अंगुली मत पकड़ लेना। इशारे का मतलब होता है, अंगुली छोड़ो, चांद को देखो। उस तरफ देखो जिस तरफ इशारा है। ये इंगित हैं, परिभाषाएं नहीं।
पत्थर गड़े हुए हैं अक्षर मिटे हुए
अज्ञात दूरियों का अंदाज कौन दे
हर ओंठ पर जड़ी है गीतों की बेकसी
फिर पांव को थिरकने का राज कौन दे
जिस व्यक्ति के पास तुम्हें अज्ञात दूरियों का अंदाज मिले–एक इशारा, जिसके पास ज्ञात पर ही तुम समाप्त न होते होओ, जिसके पास जाकर अज्ञात की थोड़ी झलक मिले, तुम्हारे भीतर अज्ञात थोड़े पर फड़फड़ाने लगे, तुम्हारे भीतर भी जो नहीं जाना है उसे जानने की अदम्य आकांक्षा, अभीप्सा पैदा हो जाए, तुम्हारे भीतर एक नयी प्यास का जन्म हो जिससे तुम कभी परिचित ही न थे–धन की प्यास थी, पद की प्यास थी–एक नयी प्यास, सत्य की प्यास उठे।
पत्थर गड़े हुए हैं अक्षर मिटे हुए
अज्ञात दूरियों का अंदाज कौन दे
इस संसार में तो ऐसी हालत है जैसे मील का पत्थर हो और उसके अक्षर मिट गये हों। ऐसी हालत है लोगों की। लोग पथरीले हो गये हैं। और उनकी आत्मा के सब अक्षर मिट गये हैं। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा का तीर अनंत की और अज्ञात की ओर है, लेकिन मिट गया है, धुंधला हो गया है। समय ने, रेत ने, समय की धूल ने सब ढांप दिया है। तुम मील के पत्थर नहीं हो अब। तुम्हारे भीतर कोई इशारा नहीं है जो तुमसे पार जाता हो। तुम अपने ही पर समाप्त हो गये हो। ऐसा समझो कि जैसे मील के पत्थर को किसी ने हनुमान जी समझकर पूजा शुरू कर दी। लाल रंग से रंगे बैठे हैं और अक्षर भी मिट गये हैं, तो किसी ने फूल चढ़ा दिये। और हनुमान जी की पूजा शुरू हो गयी। अब इससे कोई इशारा आगे की तरफ नहीं जाता, ये अपने पर ही बात खतम हो गयी।
पत्थर गड़े हुए हैं अक्षर मिटे हुए
अज्ञात दूरियों का अंदाज कौन दे
इस संसार में जब कभी तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जिससे तुम्हारे भीतर अज्ञात की सुगबुगाहट पैदा होने लगे, तुम्हारे भीतर एक नयी खोज पैदा हो, अनजानी, अपरिचित, कभी न जानी, कभी न पहचानी; जिसके पास से तुम्हें यात्रा का एक नया द्वार खुले, एक नया आयाम, समझना कि वहां कुछ है। कोई किरण फूटी, कोई सूरज वहां ऊगा।
हर ओंठ पर जड़ी है गीतों की बेकसी
फिर पांव को थिरकने का राज कौन दे
यहां संसार में तो सब ओंठ सीए हुए हैं। गीत की तो छोड़ो, मुश्किल से गालियां निकलती हैं। गीत तो निकलते ही नहीं। यहां तो ओंठ जड़े हुए, सिले हुए पड़े हैं। लोग तो भूल ही गये हैं। उनके प्राणों का गीत पैदा ही नहीं हुआ है। जो गीत लेकर आए थे, गाया नहीं। जो बीज लेकर आए थे, बीज की तरह पड़ा है, अंकुरित नहीं हुआ, फूला-फला नहीं।
फिर पांव को थिरकने का राज कौन दे
यहां तो नाच लोग भूल ही गये हैं, नृत्य भूल ही गये हैं, उत्सव भूल ही गये हैं। जिस किसी व्यक्ति के पास तुम्हारे पांव में थिरक आने लगे, जिस किसी व्यक्ति के पास तुम्हें नृत्य की नयी भाव-भंगिमाएं प्रगट होने लगें, तुम्हारे भीतर एक नर्तन शुरू हो, समझना कि वहां कुछ हुआ है। ये इशारे हैं, परिभाषाएं नहीं।
रात है,
सो गयी दुनिया थकन से चूर
नींद में भरपूर
कुछ क्षणों को जिंदगी की विषमता
कटुता हुई है दूर
एक-सी आंखें सभी की
एक-सी है रैन
जागती आंखें उसी की
है न जिसको चैन
मैं नहीं यह चाहता सोता रहे जग
हो सदा ही रैन,
चाहता हूं किंतु,
कर्मठ-दिवस में भी नींद-सा हो चैन
सुनो फिर से–
मैं नहीं यह चाहता सोता रहे जग
हो सदा ही रैन,
चाहता हूं किंतु,
कर्मठ-दिवस में भी नींद-सा हो चैन
जिस व्यक्ति के कर्म में भी तुम्हें नींद-जैसे चैन की प्रतीति हो; जो चले और फिर भी अनचला मालूम पड़े; जो बोले और फिर भी अनबोला मालूम पड़े; जो उठे-बैठे और फिर भी जिसके भीतर कुछ उठता-बैठता न हो; जो सोए भी और तुम देखो भी कि सोया है, और फिर भी तुम जानो कि उसके भीतर कुछ जागा है; जो सोए-सोए जागा हुआ हो; जो जागा-जागा भी ऐसा शांत हो जैसे सोया है–
चाहता हूं किंतु,
कर्मठ-दिवस में भी नींद-सा हो चैन
तो जानना बुद्धत्व की किरण वहां पैदा हुई है। जहां अपूर्व शांति का राज्य हो, जिसकी मौजूदगी में, जिसकी उपस्थिति में तुम भी शांत होने लगो, तुम्हारा भागा-भागा मन भी घर लौटने लगे, जिसके पास बैठकर तुम अपने भीतर एक खिंचाव अनुभव करो कि तुम अपने भीतर खींचे जा रहे हो, जो तुम्हें तुम्हारे भीतर पहुंचाने लगे, सिर्फ मौजूदगी से, सिर्फ उपस्थिति से–यही सत्संग का अर्थ है–तो जानना बुद्धत्व घटित हुआ है।
मगर, फिर मैं दोहरा दूं–ये इशारे हैं। इनको परिभाषाएं मत समझ लेना।
सिमटकर आज बांहों में चलो आकाश तो आया
उतरकर एक टुकड़ा चांदनी का पास तो आया
ठहरते थे जहां पर आंसुओं के काफिले आकर
अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया
अभी तक पतझरों से ही हुआ था उम्र का परिचय
चलो वातायनों से फिर मलय-वातास तो आया
जिसके पास तुम्हें ऐसा लगे कि खुल गया आकाश; जिसकी मौजूदगी दीवाल न बने, जिसकी मौजूदगी द्वार बने; जिसके पास से विराट और तुम्हारे बीच कुछ कानाफूसी होने लगे–कानाफूसी कह रहा हूं, इसलिए कह रहा हूं कानाफूसी कि ये इशारे हैं–जिसके पास कुछ झलकें, आहटें, पदचाप सुनायी पड़ें…धुंधले-धुंधले होंगे, साफ तो हो नहीं सकते क्योंकि तुम सोए हुए हो। सोए हुए आदमी के पास कोई नाच भी रहा हो, तो भी उसे पक्का तो पता नहीं चलेगा, नींद में कभी-कभी घूंघर बज जाएंगे, कभी पैरों की ताल मालूम पड़ जाएगी, कभी बजती ढोलक का कोई एक स्वर भीतर प्रविष्ट हो जाएगा, कभी करवट लेते वक्त थोड़ा गहरी नींद न होगी, हल्की नींद होगी तो कोई धुन भीतर प्रवेश कर जाएगी, बस ऐसा। तुम सोए हो। तो तुम बुद्धत्व को पूरा-पूरा आंख खोलकर तो नहीं देख सकते, सीधा-सीधा तो नहीं देख सकते, इसलिए कानाफूसी, पदचाप। वे भी नींद में और दूर से सुने गये।
कभी तुमने देखा, सुबह-सुबह जागने के करीब हो, नींद टूट रही है, नहीं भी टूटी है; जागे भी, नहीं भी जागे; आधे-आधे, बीच में हो; दूधवाला दस्तक देने लगा द्वार पर, राह चलने लगी, बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करने लगे, किचन में पत्नी काम-धाम करने लगी, ऐसी टूटी-फूटी आवाजें सुनायी पड़ रही हैं, तुम जागे भी नहीं हो, तुम सोए भी नहीं हो। तुम इतने भी नहीं सोए हो कि कुछ सुनायी भी न पड़े, तुम इतने जागे भी नहीं हो कि साफ-साफ सुनायी पड़ जाए, ऐसी तुम्हारी दशा है। ऐसी दशा में बुद्धत्व की पहचान और परिभाषा पूरी-पूरी तुम्हारे हाथ में नहीं हो सकती। इसलिए कहता हूं, इशारा।
सिमटकर आज बांहों में चलो आकाश तो आया
उतरकर एक टुकड़ा चांदनी का पास तो आया
और तुम पूरे बुद्धत्व की परिभाषा की फिकिर छोड़ो। तुम्हारे पास तो उतरकर चांदनी का एक छोटा सा टुकड़ा भी आ जाए तो तुम समझना बहुत है। तुम्हें तो थोड़े-बहुत लक्षण मालूम हो जाएं तो बहुत है। तुम इस पागलपन में मत बैठना कि तुम जब पूरा-पूरा पक्का पता लगा लोगे कि यह आदमी बुद्ध है, जब पक्की पहचान हो जाएगी और सरकारी सर्टिफिकेट मिल जाएगा, तब तुम झुकोगे। तो तुम कभी न झुकोगे।
एक बात खयाल रखना कि बुद्ध कभी भी सरकारी संत नहीं रहे हैं। अब तक तो नहीं रहे हैं। बुद्ध कोई विनोबा भावे नहीं हैं, कोई सरकारी संत नहीं हैं। बुद्धत्व तो मौलिक रूप से क्रांति है, विद्रोह है, बगावत है। आमूल। आचूल। कौन प्रमाणपत्र देगा? कोई काशी की पंडितों की सभा प्रमाणपत्र थोड़े ही देगी बुद्ध को! वह तो जिनको दे, समझ लेना कि वह बुद्ध नहीं है। क्योंकि काशी के पंडित और बुद्धों को, वह संभव नहीं है! उनके प्रमाणपत्र तो इसी बात की खबर हैं कि कम-से-कम इतना तय हो गया कि यह आदमी बुद्ध नहीं है, चलो, इससे झंझट मिटी। बुद्धपुरुष तुम्हें पोप की पदवियों पर नहीं मिलेंगे और न शंकराचार्यों की पदवियों पर मिलेंगे। क्योंकि ये तो परंपराएं हैं। और परंपरा में जो आदमी सफल होता है, वह मुर्दा हो तो ही सफल हो पाता है। परंपरा के द्वारा पद पाना सिर्फ मुर्दों के भाग्य में है, जीवंत लोगों के भाग्य में नहीं। यह सौभाग्य है जीवितों का और मुर्दों का दुर्भाग्य!
इसलिए तुम कैसे पहचानोगे? और पूरी पहचान का तुम विचार ही मत करना। क्योंकि तुम, तुम पूरा पहचानोगे! तो तुम बुद्ध हो जाओगे। तुम बुद्ध होते तो पहचानने की जरूरत न थी। क्या प्रयोजन था! तुम नहीं हो, इसीलिए तो पहचानने चले हो। इसलिए पूरे-पूरे का खयाल मत करना।
सिमटकर आज बांहों में चलो आकाश तो आया
उतरकर एक टुकड़ा चांदनी का पास तो आया
छोटा-सा टुकड़ा चांदनी का तैर आए तुम्हारे पास, तो बहुत धन्यभाग! अहोभाग! तुम उतने पर ही भरोसा करना। उसी चांदनी के टुकड़े को पकड़कर अगर बढ़ते रहे, चलते रहे, तो किसी दिन पूरे चांद के भी मालिक हो जाओगे। किसी दिन पूरा आकाश भी तुम्हारा हो जाएगा। तुम्हारा है; लेकिन अभी तुम्हें पहुंचना नहीं आया, चलना नहीं आया। अभी तुम घुटने के बल चलते हुए छोटे बच्चे की भांति हो। अभी तुम्हें चलने का अभ्यास करना है।
ठहरते थे जहां पर आंसुओं के काफिले आकर
अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया
किसी व्यक्ति के पास तुम्हें जीवन के परमहास का थोड़ा-सा भी स्वाद आ जाए।
तो संत उदास नहीं होंगे। बुद्धपुरुष उदास नहीं होंगे। जिनको तुम देखते हो मंदिरों-मस्जिदों में बैठे गुरु-गंभीर लोग, लंबे चेहरों वाले लोग, बुद्धपुरुष वैसे नहीं होंगे। बुद्धपुरुष तो उत्सव है। बुद्धपुरुष तोे ऐसा है जिसमें अस्तित्व के कमल खिल गये। कहां उदासी! कहां लंबे चेहरे! बुद्धपुरुष गंभीर नहीं। बुद्धपुरुष के पास तो तुम्हें एक मृदुहास मिलेगा। हलकी-हलकी हंसी। एक मुस्कुराहट। एक स्मित। एक उत्सव। एक आनंदभाव।
ठहरते थे जहां पर आंसुओं के काफिले आकरअचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया
तो तुम्हारी आंसुओं से भरी आंखों और तुम्हारे कारागृह में दबे हुए चित्त के पास अगर तुम्हें कभी कोई एक स्मित, एक हास, एक उत्सव की झलक भी आ जाए, तो छोड़ना मत उन चरणों को। उन्हीं चरणों के सहारे तुम परममुक्ति और स्वातंत्र्य के आकाश तक पहुंच जाओगे।
अभी तक पतझरों से ही हुआ था उम्र का परिचय
चलो वातायनों से फिर मलय-वातास तो आया
अभी तक तो तुम्हारी पहचान पतझड़ से ही थी। पतझड़…और पतझड़…और पतझड़…ऐसा ही तुमने जाना था। तुम्हारे जीवन का राग आंसुओं और रुदन से भरा था। तुमने जीवन का कोई और अहोभाव का क्षण तो जाना नहीं था। नर्क ही नर्क जाना था। जिस किसी क्षण में किसी व्यक्ति के पास तुम्हें लगे–चलो वातायनों से फिर मलय-वातास तो आया। और तुम्हें ऐसा लगे कि हवा का एक झोंका आया–मलय-वातास–शुभ्र, स्वच्छ, ताजा, सुबह का, मलयाचल से चलकर, ताजा-ताजा पहाड़ों से उतरकर, ऊंचाइयों से उतरकर, तुम्हारी नीचाइयों पर, तुम्हारी घाटियों में, तुम्हारे अंधेरे में। एक हवा का झोंका जिसके पास अनुभव में हो जाए, समझना कि बुद्धत्व करीब है। कुछ घटा है।
फिर दोहरा दूं, ये इशारे हैं। इशारों को बहुत जोर से मत पकड़ना अन्यथा उनके प्राण निकल जाते हैं। इशारों को ऐसा मत पकड़ना कि उनकी फांसी लग जाए। ये परिभाषाएं नहीं हैं। परिभाषा तो हो नहीं सकती–सिर्फ इंगित हैं।
इंगित को बड़ी सहानुभूति, प्रेम से अपने भीतर डूब जाने देना। तो फिर बुद्धपुरुष कितने ही भिन्न-भिन्न हों–बुद्ध हों कि महावीर हों कि कृष्ण हों कि राम हों कि जरथुस्त्र कि मुहम्मद, कुछ फर्क न पड़ेगा। कुछ बातें–अनंत का अनुभव उनके पास, शांति की प्रतीति उनके पास, ताजी हवा का झोंका उनके पास, चांदनी का एक टुकड़ा उनके पास, ये इशारे भी मैंने कविता से दिये हैं। क्योंकि कविता को हृदय तक जाने की ज्यादा सुगमता है। जहां गद्य नहीं पहुंच पाता, वहां पद्य प्रवेश कर जाता है। गद्य के साथ तो तुम तर्क करने लगते हो, पद्य के साथ तुम तर्क नहीं करते, उसे तुम पी लेते हो, ज्यादा आसानी से पी लेते हो, वह गले से ज्यादा जल्दी उतर जाता है।
पद्य में ये टुकड़े मैंने तुमसे कहे। इन्हें याद रखने की भी बहुत जरूरत नहीं है। बस इनका स्वाद तुम्हें लग जाए। तो भूल-चूक होगी नहीं। बुद्धत्व इतनी बड़ी घटना है कि पहचान में न आए यह तो हो ही नहीं सकता। बुद्धत्व इतनी बड़ी घटना है कि अगर तुम जरा खुले मन के हुए और गये बुद्ध के पास, तो तुम पहचान ही लोगे। परिभाषा के बिना पहचान लोगे। खतरा यही है कि लोग जाते ही नहीं। लोग इतने डरते हैं कि अगर गये तो कहीं फंस ही न जाएं, इसलिए जाते ही नहीं। दूर ही रहते हैं। ऐसी झंझट में नहीं पड़ते हैं।
अगर तुम पास गये किसी बुद्धपुरुष के, तो तुम पहचान ही लोगे; ये हो कैसे सकता है कि तुम न पहचानो! यह भी हो सकता है कि अंधे को सूरज दिखायी न पड़ता हो लेकिन सुबह जब सूरज की धूप फैलती है तो अंधे को उसका स्पर्श तो होगा। ऊष्मा तो अनुभव होगी। उत्ताप तो अनुभव होगा। यह तो अंधे को भी पता चलेगा कि रात गयी। पक्षी गीत गाने लगे। प्रभात की प्रभाती शुरू हो गयी। यह तो अंधे को भी पता चलेगा कि अभी सब सन्नाटा था, सब सोया था, सब मुर्दा पड़ा था, अब फिर पुनरुज्जीवित हो गया, फिर गुनगुनाहट है। सूरज चाहे दिखायी न पड़े, लेकिन सूरज का ताप, ऊष्मा तो प्रतीत होगी। वह तो अनुभव में आएगा। अंधे को भी सूरज की प्रतीति तो होती है। अंधा भी जानता है कब रात हो गयी, कब दिन हो गया।
माना कि तुम अभी भीतर की आंख वाले नहीं, लेकिन बुद्धपुरुष के पास जाओगे तो यह मलयाचल से आती हवा का टुकड़ा तुम्हें स्पर्श करेगा। तुम इसमें नहा जाओगे। तुम ताजे हो जाओगे। यह चांदनी का टुकड़ा तुम पर बरस जाएगा। तुम अपूर्व रस में विमुग्ध हो जाओगे। यह काव्य बुद्ध के अस्तित्व का तुम्हारे भीतर कोई धुन बजाने लगेगा। यह बुद्ध की वीणा तुम्हारे भीतर कानाफूसी करेगी। तुम परिभाषाओं की फिकिर छोड़ो, पास जाने की हिम्मत जुटाओ। परिभाषाएं पंडितों के लिए छोड़ दो। खोजियों के लिए परिभाषाओं से काम नहीं चलता। खोजी को अनुभव चाहिए। और अनुभव सामीप्य से मिलता है। सत्संग से मिलता है।
हर पत्ते पर है बूंद नयी
हर बूंद लिये प्रतिबिंब नया
प्रतिबिंब तुम्हारे अंतर का
अंकुर के उर में उतर गया
भर गयी स्नेह की मधुगगरी
गगरी के बादल बिखर गये
जब तुम आओगे किसी बुद्धपुरुष के निकट, झुकोगे, तो तुम पाओगे सब नया हो गया। अब तक सब पुराना था, जराजीर्ण, खंडहर जैसा, सड़ा-गला, बदबू से भरा, कूड़ा-करकट, कचरे का ढेर।
हर पत्ते पर है बूंद नयी
बुद्धत्व का संस्पर्श सब नया कर जाएगा।
हर पत्ते पर है बूंद नयी
हर बूंद लिये प्रतिबिंब नया
प्रतिबिंब तुम्हारे अंतर का
अंकुर के उर में उतर गया
भर गयी स्नेह की मधुगगरी
गगरी के बादल बिखर गये
और तुम एक अपूर्व घटना अनुभव करोगे। तुम जो सदा प्रेम से रिक्त थे, तुम्हारे स्नेह की गगरी भी भर गयी। न केवल भर गयी, बह गयी। फूट पड़ी। लुटने लगी। न केवल तुम प्रेम से भर गये, बल्कि तुमसे प्रेम की धाराएं औरों की तरफ भी विस्तीर्ण होनी शुरू हो गयीं। जिस व्यक्ति के संस्पर्श में तुम्हारे भीतर प्रेम जग जाए, जानना कि बुद्धत्व घटा है। जिस व्यक्ति के संस्पर्श में तुम्हारे भीतर इतना प्रेम जग जाए कि न केवल तुम उसे सम्हाल ही न पाओ, तुम लुटाने लगो, तो समझना कि बुद्धत्व की महाक्रांति घटित हुई है। बुद्धत्व का सूर्य ऊगा है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, प्रथम और अंतिम स्वतंत्रता के बीजरूप को कृपा करके हमें कहिए।
फिर बीजरूप में ही कहता हूं।
स्वतंत्रता का प्रथम और अंतिम सूत्र छोटा-सा है। इतना-सा ही है कि तुम स्वतंत्र हो, कुछ करना नहीं है। कि तुम स्वतंत्र हो, होना नहीं है। प्रयास, चेष्टा, साधना, कुछ भी नहीं। स्वतंत्रता तुम्हारा स्वभाव है। स्वतंत्रता है ही। तुम जीना शुरू करो। तुम ऐसे जीना शुरू करो जैसे स्वतंत्र हो। और तुम रोज-रोज पाओगे स्वतंत्रता बढ़ती जाती है। और एक दिन तुम पाओगे, खूब पागल थे हम भी, नाहक गुलाम होने का ढोंग कर रहे थे। स्वतंत्र हम थे। सिर्फ तुम्हारा अभ्यास है गुलामी का, स्वतंत्रता तुम्हारा स्वभाव है। तुम उसकी उदघोषणा करो। स्वतंत्रता पानी नहीं है, स्वतंत्रता है ही। सिर्फ प्रगट करनी है। जैसे बीज में छिपा है वृक्ष, ऐसे ही स्वतंत्रता तुममें छिपी है।
तो इतना ही सूत्र है प्रथम और अंतिम स्वतंत्रता का कि तुम्हें स्वतंत्र होना नहीं है, तुम स्वतंत्र हो। इस बात को हृदयंगम करो, इस बात को अपने में उतर जाने दो कि तुम्हारे हृदय के अंतरतम में विराजमान हो जाए।
अष्टावक्र की पूरी महागीता का स्वर इतना-सा है कि तुम सिद्ध हो, तुम्हें साधक नहीं होना है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आप हमें अनेक-अनेक बहानों से, अनेक-अनेक आयामों से जीवन-बोध दे रहे हैं, पर वह रोज-रोज और-और अबूझ, रहस्यमय, आश्चर्यजनक होता जा रहा है। क्या जीवन के विराट होने, जीवन के अनंत होने, जीवन के नितनूतन होने का अभिप्राय यही है? कृपा करके हमें कहें।
जीवन रहस्य है। तो जितना-जितना तुम जानोगे, उतना-उतना रहस्यपूर्ण हो जाएगा। तुम इस खयाल में मत रहना कि जीवन को जान लोगे तो रहस्य समाप्त हो जाएगा। ऐसा मत मान लेना। साधारणतः लोगों को यही खयाल है कि जिस बात को जान लिया, उसमें रहस्य समाप्त हो जाता है। विज्ञान की यही धारणा है कि जिस बात को जान लिया, उसमें फिर कोई रहस्य नहीं। विज्ञान रहस्यघातक है। और बड़ा खतरनाक है। विज्ञान के कारण ही संसार से आश्चर्य-भाव खो गया है। लोग किसी चीज से आश्चर्यचकित नहीं हैं।
जर्मन कवि गेटे ने लिखा है कि यहां एक-एक चीज आश्चर्यजनक है, पर हम न मालूम कैसे जड़ हैं कि हमें किसी बात में कोई आश्चर्य नहीं मालूम होता!
एक अंकुर फूटता है बीज से, तुम इससे बड़ा और आश्चर्य खोज सकोगे? एक वृक्ष पर नया पल्लव आता, नयी पत्ती फूटती, तुम इससे बड़ा कोई आश्चर्य खोज सकोगे? किसी स्त्री के गर्भ में एक नये बच्चे का आविर्भाव होता है, तुम उससे बड़ा और आश्चर्य खोज सकोगे?
तुम जरा सोचो, रोज रात आकाश तारों से भर जाता, अगर ऐसा एक हजार साल में एक ही बार होता होता, तो लोग नाचते उस रात। कोई सोता नहीं। एक हजार साल में अगर एक बार ऐसा होता कि रात तारों से भर जाती, तो सारी पृथ्वी जागी रहती–लोग नाचते, उत्सव मनाते, धूमधाम करते, गीत गाते और चकित होते लोग कि कैसा अदभुत! और रात रोज तारों से भरती है, कोई नहीं नाचता। रोज के कारण, परिचित होने के कारण तुम आश्चर्य को अनुभव नहीं करते हो। तुम अगर गौर से देखोगे तो जीवन सब तरफ आश्चर्य ही आश्चर्य है, रहस्य ही रहस्य है। लेकिन विज्ञान बड़ा रहस्यघाती है। वह रहस्य का दुश्मन है। और विज्ञान ने लोगों के जीवन को बड़े दुख से भर दिया है। क्योंकि जहां रहस्य समाप्त हो गया, वहां जीवन का काव्य नष्ट हो जाता है। जहां जीवन का काव्य नष्ट हुआ, वहां जीवन का धर्म नष्ट हो जाता है। जहां जीवन से धर्म नष्ट हुआ, वहां जीवन में कुछ अर्थ नहीं बचता। एक व्यर्थ कथा, किसी मूर्ख के द्वारा कही हुई। शोरगुल बहुत, अर्थ कुछ भी नहीं।
रहस्य ही प्रभु का पदचाप है। यहां जो मैं कह रहा हूं, यह कोई रहस्य को नष्ट करने के लिए नहीं। यहां तो जो कहा जा रहा है उससे तुम रहस्य के प्रति जागो, खूब जागो। जागते ही चले जाओ और रहस्य बड़ा होता चला जाए। यही धर्म और विज्ञान का फर्क है।
धर्म का जानना ऐसा जानना है जिससे रहस्य समाप्त नहीं होता, और रहस्यपूर्ण, और रसमय हो जाता है। तुम्हारा अहोभाव बढ़ता जाता है। विज्ञान रहस्य को नष्ट कर देता है, धर्म रहस्य पर पड़ी हुई धूल को झाड़ता है और रहस्य को पुनः-पुनः ताजा करता है।
तो यह जो यहां कह रहा हूं तुमसे, रहस्य बढ़ाने को। तुम्हें रहस्यवादी बनाने को। तुम्हें बनाना है रहस्य के जगत में डूबे हुए अपूर्व जन। जिनका रोआं-रोआं रहस्य से भरा है, रोमांचित है।
बात इतनी सी कहानी हो गयी
एक चूनर और धानी हो गयी
गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जब से रातरानी हो गयी
उम्र अचानक हीर हो गयी
निर्धन नजर अमीर हो गयी
एक दस्तूर किया तुमने
प्यार मशहूर किया तुमने
कांच का रूप तराश दिया
एक कोहनूर किया तुमने
सेहरा को सागर
सूखी नदी को पूर किया तुमने
पिलाकर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने
बात इतनी सी कहानी हो गयी
एक चूनर और धानी हो गयी
यहां तो काम जो है, वह रंगरेज का है। यहां तो चूनर रंगनी है–और धानी। यहां तो काम मधु पिलाने का है, यह तो मधुशाला है। आश्रम शब्द से तुम धोखे में मत पड़ना। यह शब्द तो सिर्फ लोगों को धोखा देने के लिए है। यहां तो एक मधुशाला है।
पिला कर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने
बात इतनी सी कहानी हो गयी
एक चूनर और धानी हो गयी
रंगना है तुम्हारी चूनर को रहस्य के अनंत-अनंत रंगों में। रंगना है तुम्हारे प्राणों को रस के नये-नये आयामों में। नयी-नयी भाव-भंगिमाएं तुममें उदित हों। नये-नये मंदिरों के शिखर तुममें उठें। नये गीतों का जन्म हो। नये नृत्य तुम नाचो। नयी वीणाएं तुम बजाओ, नित-नूतन। तुम खोजो, और जितना खोजो, उतना ही पाओ कि और खोजने को हो गया मौजूद। जितना खोजो, उतना खोज बढ़ती जाए। खोज कभी अंत पर न आए। यात्रा सिखाता हूं मैं, मंजिल तो बहाने हैं। मंजिल की बात करता हूं ताकि तुम दौड़ो; ताकि तुम चलो। मजा तो यात्रा का ही है, यात्रा ही मंजिल है।
बात इतनी सी कहानी हो गयी
एक चूनर और धानी हो गयी
गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जब से रातरानी हो गयी
तुम्हारे जीवन में खिलें फूल, तुम्हारा अंतर्कमल खिले। यह कमल तुम्हें ज्ञानी नहीं बना जाएगा, यह कमल तुम्हें परम अज्ञानी बना जाएगा, तुम निर्दोष बालक की भांति हो जाओगे। छोेटे बच्चे की भांति, जो सागर के तट पर शंख बीनता, सीप बीनता, रंगीन पत्थर बीनता और हर रंगीन पत्थर को ऐसे सम्हालकर रखता जैसे कोहनूर हीरा हो। बड़े-बूढ़े समझाते हैं कि फेंक, पत्थर कहां ढो रहा है? यह बोझ क्यों लिये चल रहा है? यह कचरा क्यों इकट्ठा कर रहा है? छोटे बच्चे को समझ में नहीं आता कि तुम किस चीज को कचरा कह रहे हो? इन रंगीन पत्थरों को! इन अपूर्व पत्थरों को! इन सीप-शंखों को!
जब तुम्हारे भीतर का कमल खिलेगा, फिर तुम दुबारा बच्चे हो जाओगे। और अबकी बार ऐसे बच्चे होओगे जो फिर कभी ब़ूढा नहीं होता। यह अंतर का जन्म होगा।
गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जब से रातरानी हो गयी
उम्र अचानक हीर हो गयी
निर्धन नजर अमीर हो गयी
एक दस्तूर किया तुमने
प्यार मशहूर किया तुमने
कांच का रूप तराश दिया
एक कोहनूर किया तुमने
सेहरा को सागर
सूखी नदी को पूर किया तुमने
पिलाकर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने
आकांक्षा यही है यहां कि तुम नाच सको। और यह नाच कृत्रिम न हो। यह नाच हार्दिक हो। स्वस्फूर्त हो। यह नाच ऐसा न हो जैसा कि नर्तक का होता है। यह नाच ऐसा हो जैसे मीरा का था, चैतन्य का था। यह नाच कोई अभ्यास न हो, यह तुम्हारी सहज तरंग हो। तुम तरंगी बनो, लहरी बनो, तुम मदमस्त बनो, तुम पर एक मस्ती का आलम छा जाए, इसकी चेष्टा चल रही है।
इसलिए रहस्य घटेगा नहीं। रहस्य को घटाना नहीं है, रहस्य को महारहस्य बनाना है। महारहस्य को परम आत्यंतिक रहस्य बनाना है, जो कभी हल होता ही नहीं। जो हल हो जाए, वह बात धर्म की नहीं। जिसका अंत आ जाए, वह बात सत्य की नहीं। जो चुक जाए, वह अस्तित्व नहीं। यह अस्तित्व तो चुकता नहीं।
यहां एक शिखर तुम चढ़े और सोचते थे कि बस अब आ गयी मंजिल, कि जब तुम शिखर चढ़ जाते हो, पाते हो और बड़ा शिखर सामने प्रतीक्षा कर रहा है। सोचते हो, चलो और थोड़ी यात्रा है, इसे और गुजार लो, लेकिन जब तुम नये शिखर पर पहुंचते हो तो और बड़ा शिखर नयी चुनौती बनकर खड़ा है। शिखर पर शिखर हैं और द्वार पर द्वार। और रहस्य पर रहस्य हैं। इनका अंत नहीं है। परमात्मा इन्हीं अर्थों में तो अनंत है।
धरणी पर छायी हरियाली
सजी कली-कुसुमों से डाली
मयूरी, मधुबन-मधुबन नाच
मयूरी नाच, मगन मन नाच
समीरण सौरभ सरसाता
घुमड़ घन मधुकण बरसाता
मयूरी नाच, मदिर मन नाच
मयूरी नाच, मगन मन नाच
तुम नाच सको मयूर जैसे। और प्रभु के मेघ तो सदा ही घिरे हैं। अषाढ़ तो सदा ही मौजूद है। तुम फुदक सको, तुम पुलकित हो सको, इसकी चेष्टा चल रही है। यहां मैं तुम्हें धार्मिक बनाने में उत्सुक नहीं हूं, यहां मैं तुम्हें जीवंत बनाने में उत्सुक हूं। और मेरे लिए जीवंतता ही धर्म है। मैं यहां तुम्हें किन्हीं सिद्धांतों और शास्त्रों की मान्यता में रूपांतरित करने के लिए आतुर नहीं हूं। तुम्हें हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन बनाने में मेरी जरा उत्सुकता नहीं है। तुम्हारा यही तो दुर्भाग्य है कि तुम कुछ बनकर बैठ गये हो। तुम्हारी सारी धारणाएं छीन लेने में उत्सुकता है। क्योंकि तुम्हारी धारणाओं के कारण ही तुम इतने बोझिल हो गये हो कि नाच नहीं पाते। मयूर के पैरों में पत्थर बंधे हैं, गले में शास्त्र बंधे हैं, पंडित-पुरोहित मयूर के ऊपर बैठे हैं, मयूर नाचे तो खाक नाचे! तुम्हारी सब धारणाएं, तुम्हारे सब सिद्धांत, विश्वास, सब हटा लेने हैं। ताकि केवल जीवन की श्रद्धामात्र तुम्हारी एकमात्र श्रद्धा रहे। और जीवन का मंदिर तुम्हारा एकमात्र मंदिर हो।
रहस्य तो बढ़ेगा। बढ़ता जाए तो ही समझना कि तुम मेरे साथ हो। जहां रहस्य रुकने लगे, अटकने लगे, समझना कि तुमने मेरा साथ छोड़ दिया। तुमने कुछ सिद्धांत बना लिए। तुम रुक गये। तुम राह के नीचे उतरकर किनारे पर तंबू गाड़ लिये और तुमने घर बना लिया। मेरे साथ पड़ाव तो बहुत आएंगे, मंजिल कभी नहीं। और हर मंजिल पड़ाव से ज्यादा नहीं है, क्योंकि और आगे है और आगे है यात्रा। बुद्ध ने कहा है, चरैवेति, चरैवेति। चले चलो, चले चलो। अंत कहीं भी नहीं है। सत्य की कोई सीमा नहीं है।
नये का स्वागत करते चलो। रोज-रोज नया सूरज ऊगेगा। रोज-रोज नये भावों के स्वाद तुम्हें दूंगा। उसका स्वागत करते चलो।
जिसके स्वागत में नभ ने
बरसा दी हैं जोहनियां सभी
और बड़ ने छांव बिछा डाली है
वह तू ऊषा
मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है
पत्तों की श्यामता के
द्वीप डुबोते हुए
हुस्न-हिना की गंध ज्वार सी
हरित श्वेत जो उदय हुई है
वह तू ऊषा
मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है
वेद में ऊषा के बड़े स्तुतिगान हैं। सुबह के बड़े गीत हैं। वे नये के स्वागत में गाये गये गीत हैं। ऊषा की प्रशंसा में जो कहा गया है, वह जो नितनूतन है, उसकी प्रशंसा में कहा गया है। ऊषा तो प्रतीक है। सुबह तो प्रतीक है। नये का। नयी कोंपल का। नये वसंत का। नये रहस्य का।
तुम रोज-रोज सूरज को, नये सूरज को ऊगते देखकर पुनः-पुनः उसका स्वागत कर सको और पुनः-पुनः नये-नये आविष्कार कर सको रहस्य के; जहां कल चूक गये थे वहां आज न चूको, जहां आज चूक गये थे वहां फिर कल न चूको। और इतना है रहस्य कि तुम उघाड़ते जाओ, उघाड़ते जाओ, उघाड़ते जाओ, तुम कभी उघाड़ तो नहीं पाओगे। परमात्मा को जानने का यही अर्थ होता है, उतर गये उसमें, डुबकी लगा ली उसमें। एक किनारा छूट जाता हैै, दूसरा किनारा कभी मिलता नहीं। मझधार में ही नौका रहती सदा। इसीलिए गति है, गत्यात्मकता है, गंतव्य कोई भी नहीं है।
मैं तुम्हारी तकलीफ भी जानता हूं। तुम गंतव्य में उत्सुक हो, मैं गति में उत्सुक हूं। मेरी और तुम्हारी बड़ी…तालमेल है नहीं। तुम उत्सुक हो कि जल्दी पहुंच जाएं, अब और कितनी देर लगेगी! मैं उत्सुक हूं कि तुम चलने में मजा लेने लगो और पहुंचने का रस छोड़ दो। तुम्हारी उत्सुकता है कि कब आ जाए मंजिल कि गिर पड़ें और सो जाएं, मेरी उत्सुकता है कि मंजिल कभी न आए ताकि तुम अब कभी सो न पाओ, सदा जागे रहो, सदा चलते रहो–चरैवेति, चरैवेति–और ऊषा का सदा स्वागत करते रहो।
प्रभु तो रोज-रोज आता, बहुत रूपों में आता। कभी किसी पक्षी के स्वर से; कभी हवा का झोंका गुजरता वृक्षों से, उसमें; कभी किसी बादल के टुकड़े में तैर आता; कभी सूरज की किरणों में; कभी सागर की लहर में; कभी किसी स्त्री की आंखों में; कभी किसी बच्चे की मुस्कुराहट में; कभी किसी पुरुष के रूप में; कभी किसी की शांति में, और कभी किसी के क्रोध में भी; कभी किसी की उदासी में भी। अनंत-अनंत रूपों में गीत गाता है। तुम एक दफा आश्चर्यमुग्ध हो जाओ, तुम्हारी आंख पर आश्चर्य का रंग चढ़ जाए, तो तुम्हें हर जगह दिखायी पड़ने लगेगा। तुम हर जगह उसे उघाड़ लोगे। वह किसी भी रूप में आए, तुम उसे पहचान लोगे।
आए घनश्याम,
श्लथ हरित कंचुकी
वसुधा व्रजबालिका
उर्मिल जलधि
स्त्रस्त कांची-रणित
सुरभित समीर
श्वास पुकल कदंब मल्लिका
वनवृंद वृंदाधाम
आए घनश्याम,
चकित तड़ित
पीत पट
मंद रव
वेणु बरसता सरस स्वर
मंद-मंद विंदु
सस्मित राका ज्यों
खलपूर्ण इंदु
आप
गत ताप
प्रमुदित चित्त धेणु
जल तल सकल अभिराम
आए घनश्याम
वह जो तापरहित परमात्मा है–आप गत ताप–जो शीतल परमात्मा है, जो शांत परमात्मा है; प्रमुदित चित्त धेणु–जो इंद्रधनुषों की तरह है, उत्सवपूर्ण है; प्रमुदित चित्त धेणु–जो चेतना का इंद्रधनुष है, प्रमोद से भरा, आनंद-उत्सव से भरा; जल तल सकल अभिराम–जो सब रूपों में छाया है, सब तरफ वही विस्तीर्ण है; आए घनश्याम। प्रभु आता, रोज-रोज आता, तुम्हारी आंख जब तक आश्चर्य से न भरी हो, तब तक तुम्हारा मिलन नहीं हो पाता है।
मैं सफल हो गया, अगर मैंने तुममें आश्चर्यभाव पैदा कर दिया। अगर मैंने तुम्हें फिर चकित कर दिया, फिर से तुम विस्मित होने लगे, लौट आया तुम्हारा बचपन फिर, फिर से तुम चौंककर देखने लगे चारों तरफ, फिर संवेदनशील हो गये, अगर मैं इतने में सफल हो गया कि तुम चकित हो गये, कि तुम चौंक गये, कि तुम विस्मय-विमुग्ध हो गये, कि आश्चर्य का अंकुर फिर तुममें फूटा, तो बस बात हो गयी। तो तुम बालवत हो गये।
अष्टावक्र बालक की बहुत बात करते हैं महागीता में, कि ज्ञानी बालवत। अगर बालक में कोई भी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, तो वह उसका आश्चर्यभाव। उसकी रहस्य के प्रति जिज्ञासा। वह हर छोटी-छोटी चीजों में रहस्य देख लेता है। जहां तुम्हें कुछ भी रहस्य नहीं दिखायी पड़ता वहां भी रहस्य देख लेता है। तुम नाराज भी होते, तुम उससे कहते भी कि बकवास बंद कर, कुछ भी नहीं रखा है वहां। तुम्हें पता नहीं कि तुम एक अनूठी क्षमता को नष्ट कर रहे हो। हर बच्चा रहस्य की क्षमता लेकर पैदा होता, लेकिन समाज, परिवार, स्कूल, शिक्षा उसके रहस्य को मार डालते। जवान होते-होते उसके रहस्य के प्राण निकल गये होते। और फिर लोग सोचते हैं कि लोग धार्मिक हो जाएं! बिना रहस्य के भाव के कोई धार्मिक हो कैसे सकता है! धर्म का कोई संबंध गंभीरता से नहीं है। जानकारी से नहीं है। इस दंभ से नहीं है कि मैं जानता हूं।
रहस्य और ज्ञान में बड़ा विपरीत भाव है। ज्ञान का अर्थ है, मैं जानता हूं। रहस्य का अर्थ है, मैं कुछ भी नहीं जानता–और इतना अपूर्व भरा है जानने को और मैं कुछ भी नहीं जानता। ज्ञान में दबा हुआ आदमी मुर्दा हो जाता है। कब्र में समा गया। रहस्य से भरा हुआ आदमी–चकित, चौंका हुआ, विस्मय-विमुग्ध! सब तरफ रहस्य-ही-रहस्य, काव्य-ही-काव्य, सौंदर्य-ही-सौंदर्य; खोलता पर्दे-पर-पर्दे, उठाता घूंघट-पर-घूंघट और हर घूंघट के पार और घूंघट हैं, और सुंदर घूंघट हैं।
छठवां प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि बुद्धपुरुष सर्वशः तथाता में जीते हैं। यानी जगत जैसा है वैसा ही उन्हें स्वीकार है। वे उससे रत्तीभर भी अन्यथा नहीं चाहते। यदि ऐसा है, तो वे हम लोगों को उपदेश क्यों करते हैं? हमें दिन-रात समझाते क्यों हैं? वे हमारे तथाता के अस्वीकार को स्वीकार में क्यों बदलना चाहते हैं? और उनकी यह चेष्टा उन्हें अ-तथाता में नहीं ले जाती?
प्रश्न महत्वपूर्ण है, समझने जैसा है।
पहली बात, बुद्धपुरुष उपदेश देते हैं, ऐसा तुमने समझा तो गलत समझा। बुद्धपुरुष से उपदेश होता है। देते हैं, ऐसा सोचा तो गलत सोच लिया। फिर भूल हो गयी। देते हों अगर, तब तो फिर तथाता के बाहर हो गये वे, अ-तथाता शुरू हो गयी। उपदेश देने का तो मतलब यह हुआ कि उनका आग्रह है कुछ कि ऐसा होना चाहिए। उपदेश देने का तो अर्थ यह हुआ कि अगर तुमने न माना तो वे दुखी होंगे और तुमने माना तो सुखी होंगे। नहीं, उपदेश उनसे होता है।
बुद्धपुरुषों ने कभी भी उपदेश नहीं दिया। हुआ है। महावीर के संबंध में जैनों ने बड़ी ठीक बात कही है: उनसे वाणी झरी। यह ठीक बात है। कही नहीं गयी, झरी। जैसे वृक्ष से फूल झरते हैं। या फूल से सुगंध झरती है। या दीये से रोशनी झरती है। या बादल से जल झरता है। ऐसी झरी। जो भीतर सघन हो गया है, वह अभिव्यक्त होगा। उपदेश देते, तो तुम चूक गये। उपदेश हुआ।
उपदेश देते हैं उपदेष्टा, उपदेश होता है बुद्धपुरुषों से। बुद्धपुरुष उपदेश देते नहीं। अगर बुद्धपुरुष उपदेश को रोकें, तो तथाता के बाहर होंगे। अगर वे चेष्टा करके न दें, तो चूक होगी। इसलिए जो होता है, होता है। उपदेश होता है तो उपदेश होता है। अगर नहीं होगा तो नहीं होगा। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि बुद्धपुरुष चुप रह गये। मेहर बाबा पूरे जीवन चुप रहे। चुप्पी आयी तो चुप्पी। बोलना हुआ तो बोलना। जो हुआ, उसे होने देना है। पहली बात।
दूसरी बात, तुम जैसे हो वैसे ही बुद्धपुरुषों को या बुद्ध को स्वीकार हो। तुम जैसे हो वैसे ही स्वीकार हो। तुम्हें बदलने की कोई चेष्टा भी नहीं है। जो उनके भीतर हुआ है, वह प्रगट हो रहा है। उस प्रगटीकरण में अगर तुम बदल जाओ, तुम्हारी मर्जी। न बदलो, तुम्हारी मर्जी। तुम बदले तो ठीक, तुम न बदले तो ठीक। बुद्धपुरुष को इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है कि तुम बदलो ही। ऐसा कोई आग्रह नहीं है।
तुम्हारी कठिनाई भी मैं समझता हूं। तुमने पूछा है कि हमें दिन-रात क्यों समझाते हैं? वे हमारे तथाता के अस्वीकार को स्वीकार में क्यों बदलना चाहते हैं?
कुछ भी बदलने का भाव नहीं है। इसलिए एक फर्क खयाल रखना, जब कोई साधु, कोई संत तुम्हें बदलने में बहुत उत्सुक हो, तो समझ लेना अभी बुद्धत्व का जन्म नहीं हुआ। जिस संत और साधु के पास बदलाहट होने लगे और उसकी कोई उत्सुकता ही न हो तुम्हें बदलने की, तो समझना कि बुद्धत्व मौजूद है। जिसकी मौजूदगी में बदलाहट हो।
समझो। सूरज निकला; तो सूरज आकर एक-एक फूल को कहता थोड़े ही कि खिलो, मैं आ गया, सुबह हो गयी। एक-एक फूल की पंखुड़ी पकड़-पकड़कर खोलता थोड़े ही। और कोई फूल न खिले तो सूरज कोई दुखी होकर उदास थोड़े ही बैठ जाता, अपनी किरणों को थोड़े ही सिकोड़ लेता। सूरज तो फैलता, उसकी मौजूदगी में फूल खिलते, सूरज किसी को खिलाता थोड़े ही। और कोई फूल न खिले, तो सूरज कोई हिसाब थोड़े ही रखता कि आज इतने फूल नहीं खिले, क्या मामला है! इनकी कोई शिकायत थोड़े ही करता कहीं। खिल गये, ठीक; नहीं खिले, नहीं ठीक। सच तो यह है, सूरज को इससे कुछ हिसाब नहीं है। लेकिन सूरज की मौजूदगी में फूल खिलते हैं, यह बात सच है। बिना सूरज के खिलाए खिलते हैं, यह बात सच है। सूरज की मौजूदगी के बिना नहीं खिलते, यह भी बात सच है। सूरज की मौजूदगी में ही खिलते हैं, यह भी बात सच है। फिर भी सूरज खिलाता नहीं। केटलिटिक है, उसकी मौजूदगी से खिल जाते हैं।
अगर बुद्धपुरुष की मौजूदगी में तुम रूपांतरित हो गये, हो गये। नहीं हुए, नहीं हुए। लेकिन बुद्धपुरुषों को इससे कुछ प्रयोजन नहीं है। और जब वे कुछ कह रहे हैं, चाहे तुम्हें ऐसा लगता हो कि तुम्हें बदलने के लिए कह रहे हैं–क्योंकि तुम बदलने में उत्सुक हो–वे तुम्हें बदलने के लिए नहीं कह रहे हैं। वे तो वही कह रहे हैं जो उनके भीतर घटा है। जो उनके भीतर हुआ है वह झर रहा है।
कठिन है थोड़ा। क्योंकि तुम तो कभी कोई ऐसी बात नहीं कहते जो बिना प्रयोजन के हो। तुम तो जब किसी को बदलना चाहते हो तब कुछ कहते हो। किसी को सलाह देते, तो तुम चाहते हो कि वह मान ले। अगर न माने तो तुम नाराज हो जाते हो। मान ले तो तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है, न माने तो तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है–कि मेरी सलाह नहीं मानी, तो अब देख लूंगा। मेरी और सलाह नहीं मानी! यह तुम्हारे अहंकार को बड़ा कठिन हो जाता है। बुद्धपुरुषों को इससे कुछ प्रयोजन नहीं है। जो होता है, होता है। तुम बदल गये तो भी मजा है, तुम न बदले तो भी मजा है। इसमें कहीं भी कोई सचेष्ट, आग्रहपूर्वक कोई हठ नहीं है।
‘हमारे तथाता के अस्वीकार को स्वीकार में क्यों बदलना चाहते हैं?’
तुम्हारी तरफ से जो दिखायी पड़ रहा है, उसे तुम बुद्धपुरुषों की तरफ से मत थोपना। तुम्हारी तरफ से जो दिखायी पड़ रहा है, वह तुम्हारी दृष्टि है।
झेन फकीरों में कहावत है कि बुद्ध कभी नहीं बोले। बुद्ध चालीस साल बोले, निरंतर बोले और झेन फकीरों में कहावत है कि बुद्ध कभी नहीं बोले। रिंझाई से किसी ने पूछा कि यह बात बड़ी अजीब है। ये शास्त्र रखे हैं इसी मंदिर में बुद्ध के वचनों के–इतना बोले–और यहीं इन्हीं शास्त्रों को पढ़ते हैं आप, इन्हीं शास्त्रों को नमस्कार भी करते हैं और रोज सुबह आप यह भी कहते हैं कि बुद्ध कभी नहीं बोले। और रिंझाई ने कहा कि दोनों बातें सच हैं। बोले भी और नहीं भी बोले। जहां तक हमारा संबंध है, बोले; जहां तक उनका संबंध है, नहीं बोले। हमने तो सुना, इसलिए हमने शास्त्र इकट्ठे किये। इसीलिए तो बुद्धपुरुषों ने कुछ लिखा नहीं। फूल सुगंध के संबंध में कुछ लिखते थोड़े ही हैं, सुगंध झरती है, तो झरती है। बुद्धपुरुष बोले। तुम्हारी मौजूदगी में कुछ उनसे झरा। तुम्हारी प्यास ने कुछ उनके भीतर से खींच लिया। तुम्हारी आतुरता ने कुछ उनसे बुलवा लिया। बोले ऐसा नहीं, बुलवा लिया। सहजस्फूर्त हुआ। अपनी तरफ से तो बोले ही नहीं।
मैं तुमसे रोज बोल रहा हूं और मैं तुमसे कहे देता हूं, भूलकर भी यह मत सोचना कि मैं कभी बोला। तुमने सुना, यह सच। मैं नहीं बोला। इसलिए मेरी कोई आतुरता तो नहीं कि तुम बदल जाओ। मेरे पास लोग आते हैं–क्योंकि इस देश में तो साधु-संतों की बड़ी आतुरता रहती है, महात्मा का मतलब ही यह कि वह सभी के पीछे लगा है कि बदलो। ऐसा खाओ, ऐसा पीओ, यह मत पीओ, यह मत खाओ; इतने बजे सोओ, इतने बजे उठो। महात्मा का तो मतलब ही यह है, जो लाठी लगाकर लोगों के पीछे पड़ा है। और बदल कर रहेगा। महात्मा का तो मतलब ही यह है कि जो तुम्हें चैन से न रहने दे। तुम चाय पीओ तो चाय न पीने दे। काफी पीओ तो काफी न पीने दे। कुछ भी न करने दे। तुम्हें इस तरह बांध दे कि तुम्हारा जीवन दूभर हो जाए। और अगर तुम जीना चाहो तो पाप अनुभव मालूम हो और अगर तुम उनकी मानो, तो जीवन खोने लगे। अगर पुण्य करना हो तो मरो, और अगर जीना हो तो पाप हो जाए, ऐसी हालत जो कर दे खड़ी, उसको महात्मा कहते हैं।
तो मेरे पास भी आ जाते हैं भूल से इस तरह के लोग, वे कहते हैं, आप का क्या मामला है? आप लोगों को कुछ कहते ही नहीं! क्या खाना, क्या पीना, कैसा आचरण? मैं उनसे कहता कि ये लोग जानें। लोगों का आचरण, लोगों की चिंता, वे समझें। मुझे जो हुआ है, वह मुझसे झर रहा है। उससे कोई सीख ले, सीख ले। समझ ले। न समझे, न समझे। मैं दोनों हालत में राजी हूं। मेरे मन में जरा भी निंदा नहीं है और जरा भी स्तुति नहीं है। उनको बहुत कठिनाई होती है। क्योंकि वे चाहेंगे, मैं भी लोगों के पीछे पड़ जाऊं, उनको सताऊं, उनको अपराधी सिद्ध करूं। लोगों को लोगों को कष्ट देने में बड़ा रस आता है। तुम्हारे महात्मा बड़े दुखवादी, सैडिस्ट। सताओ लोगों को! जरा भी कहीं रस ले रहे हों, जरा भी हंस रहे हों तो रोक लगा दो। कोई हंस न सके, कोई प्रसन्न न हो सके, सारे जीवन की खुशी छीन लो।
नहीं, यहां मुझे कोई भी प्रयोजन नहीं। मैं अपूर्व आनंदित हुआ हूं, उस आनंद से जो झर रहा है, तुम अपनी झोली में भर लो, तुम्हारी मौज; न भरो, तुम्हारी मौज। बदल जाओ, तुम्हारी मौज; न बदलो, तुम्हारी मौज। ये सब तुम्हारे निर्णय हैं, इनसे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, कब होगा छुटकारा भवबंधन से? और कब तक प्रतीक्षा?
तुम्हारी जल्दी ही अड़चन डाल रही है। तुम जितनी जल्दी करोगे, उतनी ही देर लग जाएगी। भवबंधन से छुटकारा तो तुम चाहते हो लेकिन अभी भवबंधन को समझा भी नहीं, अन्यथा छुटकारा हो जाता। कोई तुम्हें बांधे थोड़े ही है, तुम बंधे हो।
यह बड़े मजे की बात है। एक आदमी खंभे को पकड़े खड़ा है और वह कहता है, हे प्रभु, इस खंभे से कब छुटकारा? और कब तक प्रतीक्षा? किससे कह रहे हो? कोई तुम्हें बांधे हुए नहीं है, खंभे को तुम पकड़े खड़े हो। खंभे ने तुम्हें बांधा नहीं है, खंभे को तुम में जरा भी रस नहीं। इसी खंभे में तुम्हारे जैसे और मूढ़ भी पहले पकड़े खड़े रहे हैं–इसी खंभे को। और तुम्हारे चले जाने के बाद दूसरे इसी खंभे को पकड़े रहेंगे।
तुम तिजोड़ी को पकड़े हो, तुमसे पहले यह किसी और की तिजोड़ी थी। तुमने धन पकड़ा है, तुमसे पहले कोई और पकड़े था। जो नोट तुम्हारे हाथ में है, वह हजारों हाथों में आया है और हजारों हाथों में चलकर आया है। इसलिए तो अंग्रेजी में ठीक शब्द उसका नाम है, करेंसी। करेंसी का मतलब जो चलता रहता। करेंट। इधर से उधर, इधर से उधर। रुकता ही नहीं। एक हाथ से दूसरे, दूसरे हाथ से तीसरे हाथ में जाता रहता। हजार हाथों की छाप है उस पर। करेंसी नोट से गंदी चीज तुम दुनिया में कोई खोज ही नहीं सकते। मगर तुम भी उसको पकड़े हो। और जोर से पकड़े हो। और दूसरे जिनके हाथ में था वे भी जोर से पकड़े थे। और सबको खयाल यह है कि धन तुम्हें पकड़े हुए है। हे प्रभु, भवबंधन से कैसे छुटकारा होगा? कब छुटकारा होगा? तुम भवबंधन को जिस दिन समझ लोगे उसी क्षण छुटकारा हो गया। जिस क्षण समझ लिया कि खंभे को मैं पकड़े हूं, अब पकड़ना हो तो पकड़ो, न पकड़ना हो तो न पकड़ो, बात खतम हो गयी।
दुनिया के इस मोह जलधि में
किसके लिए उठूं उभरूं अब?
बिखर गयी धीरज की पूंजी
सुख-सपने नीलाम हो गये
शीशा बिका, किंतु रतन के
मंसूबे नाकाम हो गये
ऊपर की इस चमक-दमक में
किसके लिए दहूं निखरूं अब?
हाट-बाट की भीड़ छट गयी
मिला न कोई मेरा गाहक
मैं अनचाहा खड़ा रह गया
व्यर्थ गयी सब मेहनत नाहक
बीत गयी सज-धज की बेला
किसके लिए बनूं संवरूं अब?
प्रात गया दोपहरी के संग
आगे दिखती रीती संध्या
कातर प्रेत खड़े आंसू के
ज्योति हो गयी जैसे बंध्या
चला-चली की इस बेला में
किसके लिए रहूं ठहरूं अब?
तुम्हें अगर दिखायी पड़ने लगे, यह जो तुम अब तक करते रहे हो व्यर्थ था, रेत से तेल निचोड़ रहे थे, झूठ को सच बनाने में लगे थे, सपनों को यथार्थ माना था, जिस दिन तुम्हें दिख जाएगा, उसी दिन हाथ ढीले हो जाएंगे। किसी और ने तुम्हें पकड़ा नहीं। संसार ने तुम्हें पकड़ा नहीं। तुमने ही संसार को पकड़ा है।
तो जल्दी का अर्थ ही यह होता है कि अभी तुमने देखा नहीं, अभी दृष्टि पैदा नहीं हुई। अब एक आदमी जहर की प्याली लिए बैठा है, कहता है, हे प्रभु, कैसे इसको न पीयूं? कौन तुमको कहता है कि पीओ? पीना हो, पी लो; न पीना हो, न पीओ। मगर इस तरह की बातें तो न करो कि हे प्रभु, इसको कैसे न पीयूं? अगर जहर दिख गया है तो कैसे पीओगे, मैं पूछता हूं? और अगर जहर नहीं दिखा है, तो कैसे रुकोगे? अगर अमृत दिख रहा है तो कहते रहें लाख दूसरे लोग कि जहर है, इससे कुछ भी न होगा। तुम्हें दिखना चाहिए।
बिखर गयी धीरज की पूंजी
सुख-सपने नीलाम हो गये
शीशा बिका, किंतु रतन के
मंसूबे नाकाम हो गये
ऊपर की इस चमक-दमक में
किसके लिए दहूं निखरूं अब?
दुनिया के इस मोह जलधि में
किसके लिए उठूं उभरूं अब?
हाट-बाट की भीड़ छट गयी
मिला न कोई मेरा गाहक
मैं अनचाहा खड़ा रह गया
व्यर्थ गयी सब मेहनत नाहक
बीत गयी सज-धज की बेला
किसके लिए बनूं संवरूं अब?
देखो, खोलकर आंख देखो। जिसे तुम जीवन कहते हो, बिलकुल व्यर्थ है। जिसे तुम जीवन कहते हो, वहां जरा-भी सच नहीं। आंख भरके देखो; छूटने-छाटने की बातें न करो। पागलपन की बातें न करो। होश संभालो, देखो गौर से। जिसने गौर से देखा, व्यर्थ से छूट जाता है। और जिसने गौर से नहीं देखा और वैसे ही छाती पीटता रहा कि हे प्रभु, कब छूटूंगा, कब तक प्रतीक्षा, वह छाती ही पीटता रहता है।
तुम यही जन्मों-जन्मों से कर रहे हो। और अब कब तक करते रहोगे? तुम मुझसे पूछते हो, कब तक प्रतीक्षा? मैं तुमसे पूछता हूं, कब तक प्रतीक्षा?
आज इतना ही।