UPANISHAD
Naye Samaj Ki Khoj 14
Fourteenth Discourse from the series of 17 discourses – Naye Samaj Ki Khoj by Osho. These discourses were given in RAJKOT during MAR 06-09 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
एक छोटा सा स्कूल एक छोटे गांव में और सुबह ही सुबह स्कूल के निरीक्षण के लिए स्कूल का इंस्पेक्टर निरीक्षण को आया हुआ है। स्कूल की बड़ी कक्षा में वह गया, उसने बोर्ड पर तीन सवाल लिखे और विद्यार्थियों से कहा: तुम्हारी कक्षा में जो प्रथम, द्वितीय और तृतीय विद्यार्थी हों; वे क्रमशः आकर इन सवालों को हल कर दें। पहला विद्यार्थी उठा, उसने बोर्ड पर सवाल आकर हल किया, अपनी जगह बैठ गया। दूसरा विद्यार्थी उठा, उसने भी सवाल हल किया। तीसरा विद्यार्थी उठा, लेकिन बहुत झिझकता हुआ, बहुत डरा हुआ। फिर बोर्ड पर आकर खड़ा हुआ तो भी सिर झुकाए हुए। फिर इंस्पेक्टर को शक हुआ। उसने गौर से उस बच्चे को देखा, तो उसे खयाल आया, यह तो पहली बार भी आकर सवाल हल कर गया है। उसने उस विद्यार्थी के कान पकड़ लिए और कहा कि तुम दुबारा धोखा देने की कोशिश कर रहे हो, तुम तो पहले भी सवाल हल किए हो आकर?
उस विद्यार्थी ने कहा: पहले भी मैं आया था, लेकिन दूसरी हैसियत से। हमारी कक्षा का नंबर तीन का विद्यार्थी क्रिकेट का मैच देखने चला गया है और वह मुझसे कह गया है कि उसकी जगह कोई जरूरत पड़ जाए तो मैं जाकर कर दूं। मैं उसकी जगह पर सवाल हल करने आया हूं।
इंस्पेक्टर तो बहुत नाराज हुआ और उसने कहा कि कोई किसी दूसरे की जगह परीक्षा नहीं दे सकता है। यह तो बेईमानी की यात्रा शुरू हो गई। तुमने अभी से ही बेईमानी सीख ली। कोई किसी की दूसरे की जगह परीक्षा देने की औचित्य नहीं है। बहुत डांटा उस विद्यार्थी को और कहा: दुबारा ऐसी भूल मत करना।
आदमी अपनी ही जगह हो सकता है, किसी दूसरे की जगह नहीं। और जब भी कोई आदमी किसी दूसरे की जगह होने की कोशिश करता है, तभी जीवन में अनीति का कारण हो जाता है।
फिर वह शिक्षक की तरफ मुड़ा, जो बोर्ड के पास चुपचाप खड़ा था। और उस इंस्पेक्टर ने कहा: यह बच्चा मुझे धोखा दे रहा था, आप चुपचाप खड़े हुए देखते रहे! हो सकता था मैं पहचान भी न पाता, आप तो भलीभांति पहचानते होंगे कि विद्यार्थी दुबारा आया है?
उस शिक्षक ने कहा: क्षमा करें, मैं इस क्लास का शिक्षक नहीं हूं, मैं पड़ोस की कक्षा का शिक्षक हूं। इस कक्षा का शिक्षक क्रिकेट का मैच देखने चला गया है और मुझसे कह गया है कि उसकी जगह खड़ा हो जाऊं। मैं सिर्फ उसकी जगह आकर खड़ा हो गया हूं क्योंकि आप निरीक्षण करने आए हैं।
तब तो इंस्पेक्टर बहुत पागल हो उठा। उसने कहा: विद्यार्थी ही धोखा नहीं दे रहा है, आप भी धोखा दे रहे हैं! और अगर आप भी धोखा दे रहे हैं तो विद्यार्थी तो धोखा देना सीखेंगे ही। ऐसे शिक्षक को स्कूल की नौकरी में नहीं रखा जा सकता है। उसने अपना रजिस्टर खोल लिया और कहा कि मैं आपके खिलाफ रिपोर्ट लिखता हूं। गरीब शिक्षक बहुत घबड़ा गया। घुटने टेक कर, हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगा कि अब दुबारा ऐसी भूल नहीं करूंगा। इस बार क्षमा कर दिया जाऊं, मेरे छोटे बच्चे हैं। इंस्पेक्टर को अंततः दया आ गई। और उसने कहा कि तुम इस बार क्षमा किए जाते हो, लेकिन दुबारा ऐसी भूल मत करना। इस बार तुम बच रहे हो, क्योंकि मैं असली इंस्पेक्टर नहीं हूं। असली इंस्पेक्टर क्रिकेट का मैच देखने चला गया है। मैं उसका मित्र हूं, उसने कहा कि जरा जाना आज स्कूल का निरीक्षण कर आना। तो मैं स्कूल का निरीक्षण करने आ गया हूं।
यह कहानी जब मैंने सुनी, तो मुझे समझ में आया कि यह तो हमारे पूरे देश की प्रतीक कहानी है। नीचे से लेकर ऊपर तक, चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक सब आदमी बेईमानी में संलग्न हैं। हर आदमी हर दूसरे आदमी को धोखा दे रहा है। और हर धोखा देने वाला यह समझा रहा है कि धोखा देना बहुत बुरा है, धोखा नहीं देना चाहिए।
अब सबको यह पता चल गया है कि धोखा देना ही जिंदगी का नियम है। और यह भी समझ में आ गया है कि समझाते रहना चाहिए कि धोखा नहीं देना है, लेकिन धोखा देना जारी रखना चाहिए।
पूरे देश का चारित्र्य, पूरे देश का आचरण, पूरे देश की आत्मा रोज-रोज पतित होती चली जा रही है। और लाख उपदेश दिए जाएं, लाख समझाया जाए, उससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है। क्योंकि उपदेश देने वाले भी उसी जगह खड़े हैं जिस जगह उपदेश सुनने वाले खड़े होते हैं। एक ऐसा जाल पैदा हो गया है जिससे बाहर निकलने का कोई उपाय भी नहीं सूझता है। और सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह होता है कि यह एक ऐसे देश में घट रहा है जो देश हजारों वर्षों से सत्य की, ईमानदारी की, नीति की, धर्म की और परमात्मा की बातें कर रहा हो। हमसे ज्यादा बातें पृथ्वी पर किसी देश ने नहीं की हैं–अच्छी बातें। और हमसे ज्यादा बुरा आदमी खोजना पृथ्वी पर मुश्किल हो गया। हम सबसे अच्छी बातें करने वाले लोग और हमसे ज्यादा बुरा जीवन किन्हीं का भी न हो, तो बहुत हैरानी मालूम पड़ती है।
क्या कारण हो सकता है? कहीं बहुत अच्छी बातें करना भी तो एक कारण नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने धर्म को बातचीत बना लिया है और जीवन से उसका कोई संबंध नहीं रह गया?
जिन देशों में धर्म की कोई भी बातचीत नहीं है, वे देश हमसे ज्यादा धार्मिक मालूम पड़ते हैं। जिन देशों में धर्म की कोई चर्चा नहीं है, उनका चरित्र भी हमसे ऊंचा मालूम पड़ता है। और हम जो हजारों वर्षों से चरित्र की बात करते हैं, सुबह से सांझ तक धर्म की बात करते हैं–सुबह उठते हैं तो राम का नाम लेते हुए, रात सोते हैं तो राम का नाम लेते हुए। लेकिन दो नामों के बीच में दिन भर का हमारा जो जीवन है, वह राम के बिलकुल विपरीत है। यह ऐसा कैसे हो गया? इसे समझने के लिए पहली बात तो यही समझ लेनी जरूरी है कि जब भी कोई समाज और कोई देश और कोई कौम जीवन की श्रेष्ठतम दिशाओं को सिर्फ चर्चा का कारण बना लेती है, तभी उस देश, उस समाज, उस कौम का पतन शुरू हो जाता है। कुछ चीजें बात करने के लिए नहीं, जीने के लिए होती हैं। और जब हम उनकी बात करने लगते हैं तो जीने से उनका संबंध चूक जाता है।
इस देश को भी धर्म की बातचीत बंद कर देनी पड़ेगी। इस देश को भी चरित्र की बातचीत बंद कर देनी पड़ेगी और चरित्र को जीना और धर्म को जीना शुरू करना पड़ेगा।
एक आदमी सुबह मंदिर हो आता है, भागता हुआ मंदिर में जाकर हाथ जोड़ कर लौट आता है और हम कहते हैं वह आदमी धार्मिक हो गया, क्योंकि वह आदमी मंदिर गया। मंदिर जाने से किसी के धार्मिक होने का क्या संबंध हो सकता है? मंदिर जाने से कोई आदमी कैसे धार्मिक हो सकता है? मंदिर जाने से जीवन का क्या परिवर्तन होता है? जिस तरह का आदमी मंदिर गया था उसी तरह का आदमी मंदिर से वापस लौट आता है। मंदिर जाने से, मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने से किसी की आत्मा नहीं बदल जाती। लेकिन हम कहते हैं, यह आदमी धार्मिक हो गया। यह धोखे की परिभाषा हो गई। जीवन को धर्म से हटा कर मरे हुए मंदिर के साथ जोड़ दिया। तब कोई भी आदमी मंदिर हो आएगा और धार्मिक हो जाएगा।
और जब इतने सस्ते ढंग से धार्मिक होने की सुविधा मिल जाए, तो कोई जिंदगी को बदल कर धार्मिक होने की कोशिश क्यों करे? एक आदमी तिलक लगा लेता हो, यज्ञोपवीत पहन लेता हो, चोटी बढ़ा लेता हो और धार्मिक हो जाता है। जिस देश ने धार्मिक होने के इतने सस्ते रास्ते निकाल लिए, उस देश में जीवन अधार्मिक हो ही जाएगा। इतने सस्ते रास्ते खतरनाक सिद्ध हुए। इस तरह कोई भी आदमी कभी धार्मिक नहीं होता।
धार्मिक आदमी होता है जीवन से। धार्मिक आदमी होता है चरित्र से। धार्मिक आदमी होता है व्यवहार से। धार्मिक आदमी होता है आचरण से। और हमने थोथी बातों से धर्म को जोड़ कर एक होशियार और चालाकी की तरकीब निकाल ली है। इस तरकीब से बिना धार्मिक हुए धार्मिक होने का मजा आ जाता है। अब गले में कोई रस्सी बांध ले, इससे कोई धार्मिक हो सकता है! तो कितनी ही मोटी रस्सी बांध ले, चाहे लोहे की जंजीर बांध ले, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। लेकिन हम देख लेते हैं कि फलां आदमी यज्ञोपवीत पहने हुए है, वह आदमी धार्मिक। माथे पर कोई चंदन लगा ले, इससे कोई धार्मिक हो सकता है? या कोई आदमी गेरुए वस्त्र पहन ले, इससे कोई आदमी धार्मिक हो सकता है? वस्त्रों के पहनने से धार्मिक होने का क्या संबंध है? या कोई आदमी काशी हो आए या कोई आदमी बद्री और केदार की यात्रा कर ले, तो यात्रा करने से धार्मिक कैसे हो सकता है? चाहे कोई आदमी कितने ही गंगा-स्नान करे और चाहे कितने ही मंदिरों में बैठ कर आरती चलाए, इन सारी बातों से धार्मिक होने का कोई भी संबंध नहीं है। चाहे कोई आदमी बैठ कर कितनी ही माला फेरे…आश्चर्यजनक है, माला फेरने से, गुरिए फेरने से कोई आदमी धार्मिक कैसे हो जाएगा? लेकिन हमने ये तरकीबें निकाल ली हैं। और इन तरकीबों के कारण हम धार्मिक होने से बच गए हैं।
अगर हमें धार्मिक होना हो–और धार्मिक हुए बिना कोई समाज कभी भी न आनंद को उपलब्ध होता है, न शांति को उपलब्ध होता है। और धार्मिक हुए बिना कोई समाज न कभी शक्तिशाली होता है, न कभी सामर्थ्यवान होता है। धर्म को उपलब्ध हुए बिना कोई समाज कभी समृद्ध भी नहीं होता। धर्म को उपलब्ध हुए बिना कोई समाज ठीक अर्थों में मनुष्य का समाज भी नहीं बन पाता है।
लेकिन हम सोचते हैं कि धार्मिक होने का मतलब यह है कि हमारे गांव में कितने मंदिर हैं, कितने मस्जिद, कितने पुजारी हैं, कितने पुरोहित, कितने त्यौहार हम मनाते हैं, सत्यनारायण की कितनी कथाएं हम पढ़ाते हैं, रामायण कितनी पढ़ते हैं, गीता कितनी पढ़ते हैं, इन सारी बातों से हम धार्मिक होना समझ रहे हैं।
मेरे एक पटना युनिवर्सिटी के मित्र हैं, वे अमरीका गए धर्म के संबंध में बोलने। अमरीका में उन्होंने भारतीय धर्म के संबंध में बड़े व्याख्यान दिए। एक बूढ़ी स्त्री न्यूयॉर्क में उनके पास आई, उसकी उम्र कोई पचहत्तर वर्ष होगी, उस बूढ़ी स्त्री ने उनके पैर पकड़ लिए और उसने कहा कि अब तो मैं आपके साथ भारत चलूंगी। जहां ऐसे धार्मिक लोग हैं, जहां ऐसे धर्म का जगत है, मैं अपनी अंतिम श्वास वहीं लेना चाहती हूं। वे मित्र बहुत घबड़ाए। धर्म के संबंध में व्याख्यान देना बात एक है। और भारत में कहां धर्म है? कहां खोजने से मिलेगा? उन मित्र ने उसे बहुत टालने की कोशिश की कि मैं जाकर वहां इंतजाम करूंगा, फिर आपको बुला लूंगा। लेकिन उस बूढ़ी औरत ने कहा: आपने ही अपने व्याख्यान में कहा, एक भी श्वास का भरोसा नहीं है। क्या पता आप जाएं और मैं समाप्त हो जाऊं। पचहत्तर वर्ष मेरी उम्र हो गई। नहीं, मैं आपके साथ चलूंगी। इंतजाम मैं कर लूंगी, आप इंतजाम की फिकर न करें। मैं तो अपने अंतिम जीवन को वहीं बिताना चाहती हूं जहां ऐसे पवित्र लोग हैं।
वे पवित्र लोग यहां कहां हैं? लेकिन यह सारी दुनिया यही सोचती है कि भारत में बड़े पवित्र लोग होंगे। क्योंकि वे भारत की किताबें पढ़ते हैं और उन्हें भ्रम पैदा हो जाता है कि जहां की किताबें इतनी श्रेष्ठ हैं वहां के आदमी भी इतने श्रेष्ठ होंगे। उन्हें पता ही नहीं कि हमारी किताबें और हममें जमीन-आसमान का फर्क है।
वह बूढ़ी औरत नहीं मानी और जबरदस्ती भारत आ गई। वे मित्र तो बहुत डरे हुए थे कि उसे कहां जाकर दिखाएंगे ऋषि-मुनियों का देश। ऋषि-मुनियों की कमी नहीं है। लेकिन दूर से उनको देखो तो वे ऋषि-मुनि मालूम पड़ते हैं, उनके पास जाओ तो सब धोखा टूट जाता है।
पचपन लाख संन्यासी हैं भारत में आज भी, कोई संन्यासियों की कमी नहीं है। लेकिन इन पचपन लाख संन्यासियों का कोई भी उपयोग नहीं है। जिस देश में पचपन लाख ईश्वर को प्यार करने वाले संन्यासी हों, उस देश की यह हालत हो सकती है?
वे उस महिला को लेकर वे मेरे मित्र बोधगया पहुंचे। गया स्टेशन पर उतरे। सोचा कि जाकर भगवान बुद्ध का मंदिर दिखा देंगे बोधगया में। शांति है उस जगह। उस बूढ़ी को अच्छा लगेगा। स्टेशन पर उतरे गया के और दस-पंद्रह भिखमंगों ने आकर घेर लिया। वे भीख मांगने लगे। उस बूढ़ी औरत ने कहा कि तुम्हारे देश में अभी भी लोग भीख मांगते हैं? क्योंकि तुमने तो अपने व्याख्यानों में कहा था कि करुणा हमारे देश में पैदा हुई, कंपेशन। जिस देश में करुणा का जन्म हो चुका उस देश में अभी तक भिखारी हैं? तो तुम हजारों वर्ष से कैसी करुणा कर रहे हो कि अब तक भिखारियों को नहीं मिटा पाए? यह कैसी करुणा है?
मित्र ने कहा: मैंने वहीं कहा था कि अभी मत चलो, मैं इंतजाम कर लूं तब चलना। लेकिन यह तो साधारण नगर है, मैं तुम्हें बोधगया ले चलता हूं थोड़ी दूर। वहां तुम्हें बहुत शांति और धार्मिक वातावरण मिलेगा।
वे जाकर बोधगया के मंदिर के सामने उतरे। उस बूढ़ी से उन्होंने कहा कि पहले चल कर होटल में सामान रख दें। उस बूढ़ी ने कहा: नहीं, पहले तो मैं भगवान बुद्ध के बोधिवृक्ष का दर्शन करूंगी। मंदिर के सामने ही सामान रख कर वे मंदिर के पीछे दर्शन करने को गए। लौट कर आए, सब सामान नदारद है, चोरी चला गया। वह बूढ़ी स्त्री कहने लगी कि क्या मंदिर में भी चोरी हो सकती है? और भगवान गौतम बुद्ध के मंदिर में चोरी हो सकती है? कैसा तुम्हारा देश?
वे मित्र मुझसे कहने लगे, मैंने अपना सिर पीट लिया और उस बूढ़ी को कहा कि मैं पहले ही कह रहा था कि वहां मत चलो। अब तुम नहीं मानी, आ गई, तो मैं तुम्हें सत्य बता देना चाहता हूं। अच्छी बातें हमारी किताबों में लिखी हैं। हमने अच्छी बातों को किताबों में बंद कर दिया है, ताकि हमको अच्छी बातों के साथ जीना न पड़े। जैसा हमें जीना है, हम जीते हैं। अच्छी बातें हमने किताबों में लिख कर समाप्त कर दीं।
यह जो स्थिति है हमारी, यह बदलने जैसी नहीं मालूम पड़ती? क्या हम ऐसे ही जीते चले जाएंगे और देश रोज नरक से नरक होता चला जाएगा? लेकिन इसे कैसे बदला जाए? इसे बदलने का पहला सूत्र मैं आपसे कहना चाहता हूं और वह यह है, पहला सूत्र यह है कि धर्म को व्यर्थ की असंगत बातों से मुक्त करो, ताकि धर्म को संगत और जीवन की बातों से जोड़ा जा सके।
मत कहो उस आदमी को जो मंदिर जाता है धार्मिक। कहो उस आदमी को धार्मिक जो इस तरह जीता है जमीन पर जैसे कि ईश्वर हो। कहो उस आदमी को धार्मिक जो लोगों में, जीवित लोगों में परमात्मा के दर्शन करता है, पत्थर की मूर्तियों में नहीं। कहो उस आदमी को धार्मिक जिसका आचरण प्रार्थनापूर्ण है। मत कहो उस आदमी को धार्मिक जो तीन घंटे हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता है, लेकिन बाकी जिंदगी में प्रार्थना का जिससे कोई भी संबंध नहीं है। मत कहो उस आदमी को धार्मिक जो सुबह उठ कर गीता पढ़ लेता हो और फिर दिन भर बेईमानी करता है। कहो उस आदमी को धार्मिक जिसने चाहे गीता कभी न पढ़ी हो और कभी किसी मंदिर और मस्जिद में न गया हो और कभी कुरान और बाइबिल को उठा कर न देखा हो, लेकिन जिसके उठने-बैठने और चलने से सबूत मिलता है कि वह आदमी चारों तरफ परमात्मा को अनुभव कर रहा है। जिसकी श्वास-श्वास से, जिसके शब्द-शब्द से, जिसके व्यवहार से धार्मिक होने का सबूत मिलता है, उस आदमी को हम धार्मिक कहेंगे। वह चाहे गेरुए वस्त्र पहनता हो या न पहनता हो, वह चाहे किसी धर्म को मानता हो या न मानता हो, चाहे वह ईश्वर को भी स्वीकार करता हो या न स्वीकार करता हो। लेकिन जिस व्यक्ति का व्यक्तित्व खबर देता है, सुगंध देता है पवित्रता की, उसको हम धार्मिक कहेंगे। हमें धार्मिक का क्राइटेरियन, धार्मिक होने का मापदंड बदल लेना पड़ेगा, तो हम इस देश में धार्मिक आदमी को पैदा कर सकते हैं, अन्यथा नहीं।
पुरी के शंकराचार्य ठहरे हुए थे दिल्ली में और एक आदमी उनसे मिलने गया और उस आदमी ने कहा कि हमारा एक छोटा सा समाज है, हम चाहते हैं कि आप चल कर हमें ब्रह्म के संबंध में उपदेश दें। शंकराचार्य ने हिकारत से उस आदमी को देखा, हंसे और कहा कि तुम, तुम्हें अभी कपड़े पहनना भी नहीं मालूम, तुम पैंट, टाई और कोट पहने हुए हो। कभी पता है कि फुलपैंट, टाई और कोट पहनने वालों को ब्रह्मज्ञान हो सकता है?
वह आदमी तो घबड़ा गया होगा। आस-पास बैठे हुए लोग भी हंसने लगे। और शंकराचार्य ने कहा कि अगर ऋषि-मुनियों ने किसी ने कभी फुलपैंट, कोट ये सब पहने थे? नासमझ थे वे लोग? तुम इन कपड़ों को पहन कर कभी ईश्वर को पा सकते हो? चोटी है तुम्हारी या नहीं?
उस आदमी ने कहा: चोटी तो नहीं है। तो शंकराचार्य ने कहा: हो गया ब्रह्मज्ञान! जिनकी चोटी भी नहीं है उनको ब्रह्मज्ञान कैसे हो सकता है!
यह सब कल्याण में छपा है पूरा का पूरा। और आखिरी और मजे की बात उन्होंने पूछी। और उन्होंने उस आदमी से पूछा कि खड़े होकर पेशाब करते हो कि बैठ कर?
ये हमारे जगतगुरु हैं, ये हमारे ज्ञानी हैं, ये हमारे धार्मिक लोग हैं जो ब्रह्मज्ञान को इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातों से जोड़ रहे हैं जिनका इनसे कोई भी संबंध नहीं है।
आदमी कैसे कपड़े पहनता है इससे धार्मिक होने का संबंध नहीं है। आदमी कपड़े कैसे भी पहन सकता है। आदमी भीतर कैसा है, सवाल यह है। कपड़ों का सवाल नहीं है कि आप कैसे कपड़े पहने हुए हैं। आप कैसे हैं? आप चोटी रखते हैं या नहीं, यह सवाल नासमझी का है। वह आदमी भीतर कैसा है? उस आदमी का व्यक्तित्व कैसा है? कपड़ों को और चोटियों को नापने-जोखने वाले लोग दर्जी हो सकते हैं, नाई हो सकते हैं, ब्रह्मज्ञानी नहीं। लेकिन हम इन्हीं को ब्रह्मज्ञानी समझे बैठे हैं। और हमने सारे मनुष्य के व्यक्तित्व को झूठी बातों से जोड़ दिया है। यह झूठी आधारशिला उखाड़ देने की जरूरत है। ठीक जगह उसे रखना पड़ेगा। और ठीक जगह कहां है धर्म की? ठीक जगह मनुष्य का व्यक्तित्व है, मनुष्य के बाह्य उपकरण नहीं। आदमी क्या पहनता है, क्या खाता है, क्या नहीं खाता है, कब सोकर उठता है, कब सोता है, ये सारी बातें अत्यंत गौण हैं।
विवेकानंद से किसी ने अमरीका में पूछा कि तुम्हारे देश में धर्म की इतनी चर्चा है, लेकिन धर्म कहीं दिखाई नहीं पड़ता। कारण क्या है? तो विवेकानंद ने कहा कि मेरे देश में एक दुर्भाग्य घटित हो गया है, मेरे देश का सारा धर्म चौके-चूल्हे में जाकर सिकुड़ कर बैठ गया है। वहीं हम चिंतन करते हैं कि आदमी क्या खाता है, किसका छुआ खाता है, किसका छुआ पहनता है। इन सारी टुच्ची और दो कौड़ी की बातों में सारा धर्म सिकुड़ कर मर गया है।
धर्म को मुक्त करना जरूरी है, ताकि वह जीवन के विराट हिस्सों पर फैल जाए और हम उसे वहां पा सकें जहां उसकी जरूरत है। लेकिन यह तरकीब क्यों ईजाद की गई? यह तरकीब ईजाद करने वाले लोग बहुत चालाक रहे हैं। बहुत कनिंगनेस इस तरकीब के पीछे काम कर रही है। और वह तरकीब यह है कि जो लोग धार्मिक नहीं होना चाहते, अधार्मिक ही रहना चाहते हैं, वे लोग भी अपने मन को यह सुख और सांत्वना देने की इच्छा रखते हैं कि हम धार्मिक हैं। वे भी मरने के बाद स्वर्ग पाना चाहते हैं। वे भी मरने के बाद परमात्मा के सिंहासन के पास बैठना चाहते हैं। उन सबके लिए तरकीब निकालनी जरूरी है। और उनके लिए ऐसी ही व्यर्थ की तरकीबें निकाली जा सकती हैं।
तिब्बत में उनहोंने एक धर्म-चक्र बना रखा है। प्रेयर-व्हील उसका नाम है। जैसे आप माला फेरते हैं ऐसा उन्होंने एक छोटा चाक बना रखा है। उस चाक में एक सौ आठ आरे लगे हुए हैं। प्रत्येक आरे पर मंत्र लिखा हुआ है। दुकानदार अपनी दुकान में बैठा रहता है उस चक्के को रखे हुए। काम करता रहता है, दुकान चलती रहती है। कभी-कभी उस चक्के को हाथ से धक्का मार देता है, वह चक्का जितने चक्कर लगा लेता है उतने मंत्रों का फल उस आदमी को मिल जाता है। उस चक्के में लिखे हुए हैं मंत्र और चक्के को धक्के मारने से चक्के ने जितने चक्कर लगा लिए उतने मंत्रों का लाभ आदमी को मिल गया। वह दिन भर बैठा हुआ कभी-कभी धक्का मारता रहता है, ऐसे दिन भर में लाखों मंत्रों का लाभ उसे मिलता रहता है। अब तो बिजली आ गई। अब तो बिजली से जोड़ देना चाहिए चक्के को। वह दिन भर चलता रहेगा और मंत्रों का लाभ आपको मिलता रहेगा। इसमें, इसमें कोई फर्क नहीं है कि आप एक ब्राह्मण को खरीद कर घर ले आते हैं और उससे कहते हैं कि तू भागवत का पाठ कर। आप अपनी दुकान करते हैं, वह भागवत का पाठ करता है और लाभ आपको मिलता है।
नौकरों से प्रार्थनाएं करवाई जा रही हैं। नौकर भी प्रार्थना कर सकते हैं? नौकरों से करवाई गई प्रार्थना का उपयोग क्या है? लेकिन नहीं, हम धार्मिक होने का मजा भी लेना चाहते हैं। अब यह बड़ा अच्छा है कि चोटी बढ़ा लें, चोटी बढ़ाने में हर्ज क्या है, नुकसान क्या है। चोटी बढ़ा लें और धार्मिक हो जाएं। किसी पत्थर की मूर्ति के सामने दो मिनट सिर झुका कर बैठ जाएं और धार्मिक हो जाएं। दो फूल दूसरे की बगिया से तोड़ कर किसी मंदिर में चढ़ा दें और धार्मिक हो जाएं। इतना सस्ता रास्ता हमने निकाल लिया है। अब हमें सच में धार्मिक होने की जरूरत नहीं रह गई है।
आचरण को बदलना कठिनाई है। जिंदगी को बदलना मुसीबत है। क्योंकि जिंदगी को बदलने का मतलब है, बहुत सी तकलीफ भी झेलनी पड़ेगी। असत्य को बोलने से लाभ भी मिल सकता है, सत्य को बोलने से नुकसान भी झेलना पड़ेगा। जिंदगी को बदलना तो तपश्चर्या है। लेकिन हमने और तपश्चर्याएं निकाल ली हैं जो बिलकुल धोखे की हैं। एक आदमी धूप में खड़ा हुआ है और हम कहते हैं, वह तपश्चर्या कर रहा है। धूप में खड़ा होने से तपश्चर्या का क्या संबंध?
सत्य बोलना तपश्चर्या हो सकती है। प्रेम करना तपश्चर्या हो सकती है। घृणा से और क्रोध से ऊपर उठना तपश्चर्या हो सकती है। किसी भी मनुष्य को शत्रु न मानना, सारे जगत को मित्र मानना तपश्चर्या हो सकती है। हिंसा से बचना तपश्चर्या हो सकती है। लेकिन धूप में खड़ा होना सर्कस का काम है, तपश्चर्या नहीं। एक आदमी उपवास पर बैठा हुआ है, खाना नहीं खा रहा है और हम समझते हैं तपश्चर्या हो गई। भूखे मरने से धार्मिक होने का कोई भी संबंध नहीं है। अन्यथा दुनिया में जितने लोग अकाल में पड़ जाते हैं वे सब धार्मिक हो जाते। भूखे मरने से धार्मिक होने का कोई भी संबंध नहीं है। और न नंगे खड़े हो जाने से धार्मिक होने का संबंध है। ये सारी की सारी बातें ऊपर हैं, इनसे आत्मा नहीं बदलती। और अगर एक आदमी रोज धूप में खड़ा रहे, तो थोड़े दिन में अभ्यस्त हो जाता है।
अभी मैं एक गांव से गुजरा। वहां एक संन्यासी आठ साल से खड़े हुए हैं। वे बैठते नहीं, सोते नहीं। लाखों लोग उनकी पूजा करते हैं। मैंने उनसे पूछा कि किसी आदमी के खड़े हो जाने से क्या फर्क पड़ता है? उनके खड़े हो जाने से उनकी जिंदगी में कौन सा फर्क पड़ गया? और तुम पागलों की तरह पूजा करने में क्यों लगे हो? लाखों रुपये चढ़ाए जा रहे हैं। लोग कह रहे हैं कि बहुत बड़ा महान कार्य हो गया, क्योंकि एक आदमी खड़ा हुआ है।
किसी आदमी के जीवन भर खड़े रहने से क्या फर्क पड़ता है? क्या कोई आदमी खड़ा रहेगा तो ज्यादा बुद्धिमान हो जाएगा? जितना बुद्धू खड़ा होते समय रहा होगा उससे भी ज्यादा बुद्धू हो गया होगा
आठ साल में खड़ा-खड़ा। बुद्धि में थोड़ी-बहुत क्षमता रही होगी, वह भी खत्म हो गई होगी। क्या कोई आदमी खड़े रहने से आचरणवान हो जाएगा? तब तो बड़ी अच्छी तरकीबें हैं। क्या कोई आदमी खड़े रहने से भगवान को उपलब्ध हो जाएगा? मात्र खड़े रहने से क्या होने वाला है? हां, पूजा मिल सकती है, क्योंकि पूरा मुल्क बुद्धिहीनता की बातों में पड़ा हुआ है। लाखों लोग पूजा करेंगे कि कोई आदमी खड़ा हुआ है। कोई आदमी सिर के बल खड़ा हो जाए तो सारा गांव श्रद्धा करने इकट्ठा हो जाएगा। सिर के बल खड़े होने से क्या संबंध है? सिर के बल खड़े हो जाने से भगवान के मिलने की कौन सी सुविधा बनती है? भगवान सिर के बल खड़े हुए लोगों को ज्यादा पसंद करता होता तो उसने सभी को सिर के बल पैदा किया होता, किसी को पैर के बल खड़े करने की जरूरत न थी। लेकिन नहीं, हम इन सारी बातों को तप और साधना समझते हैं। ये तप और साधनाएं नहीं हैं।
जीवन की साधना और जीवन के तप वहां हैं जहां आदमी को श्रेष्ठ के लिए निकृष्ट को छोड़ने की तैयारी करनी पड़ती है। वहां जहां जिंदगी में असत्य को छोड़ने की हिम्मत जुटानी पड़ती है। जहां सत्य को बोलने का साहस करना पड़ता है। जहां चारों तरफ क्रोध को पैदा करने के उपाय किए जाते हैं और जहां आदमी क्रोध से बचने की चेष्टा करता है।
गौतम बुद्ध एक गांव के पास से निकलते थे, कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया और बहुत गालियां दीं। जब उन्होंने सारी गालियां सुन लीं, तब उन्होंने कहा कि अब मैं जाऊं अगर तुम्हारी बातें पूरी हो गई हों, क्योंकि मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। उस गांव के लोग रास्ता देखते होंगे। और तुमने मुझे पहले खबर भी नहीं की थी कि तुम्हें कुछ बात करनी है, अन्यथा मैं समय लेकर आता। मुझे जल्दी जाना पड़ेगा। तुम्हारी बात पूरी हो गई?
उन गांव के लोगों ने कहा: बात? हम गालियां दे रहे हैं, हम सीधी-सीधी गालियां दे रहे हैं, आपकी समझ में नहीं आता?
बुद्ध ने कहा: अगर गालियां देनी थीं, तो दस साल पहले आना था। दस साल से तो मैंने गालियां लेना बंद कर दिया है। तुम देते हो वह ठीक, धन्यवाद, लेकिन मैं लेता नहीं। दस साल से मैं गालियां लेता ही नहीं।
उन लोगों ने कहा: गालियां भी क्या लेनी पड़ती हैं?
बुद्ध ने कहा: जो मैं नहीं लूंगा, तुम कैसे देओगे? दूसरे गांव में, पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आए थे। मैंने कहा, मेरा पेट भरा हुआ है। वे थालियां वापस ले गए। तुम गालियां लेकर आए हो अपनी थालियों में भर कर। और मैं कहता हूं, मैं नहीं लूंगा। अब तुम क्या करोगे? जबरदस्ती तो नहीं दिया जा सकता। तुम्हें अपनी गालियां वापस ले जाना पड़ेंगी, मित्रो, क्योंकि मैं लेता ही नहीं, मैंने गालियां लेना बंद कर दिया है।
इसे तो हम साधना कह सकते हैं कि किसी आदमी ने गालियां लेना बंद कर दिया हो। यह धूप में खड़े होने की मजाक नहीं है। व्यक्तित्व को इस भांति तैयार करना कि गालियां लेना बंद हो जाए। यह तो तपश्चर्या हो सकती है। यह तो साधना हो सकती है। यह आदमी परमात्मा के निकट पहुंच सकता है। यह आदमी धार्मिक हो सकता है। गालियां न लेना, क्रोध न लेना, घृणा न लेनी बड़ी हिम्मत की बात है। क्योंकि हमें पता ही नहीं चलता, देने वाला गाली दे भी नहीं पाता कि हम ले चुके होते हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि कब हमने ले ली। दी नहीं कि गाली हमारे भीतर प्रवेश कर जाती है। प्रेम इतनी आसानी से प्रवेश नहीं करता। कोई हमें प्रेम करे तो हम पच्चीस बार सोचते हैं कि सच्चा है या झूठा? लेकिन कोई हमें गाली दे तो हम कभी नहीं सोचते कि सच्ची है या झूठी, फौरन स्वीकार कर लेते हैं।
जीवन की तपश्चर्या, जो व्यर्थ है, उसके प्रति जागने में है; जो सार्थक है, उसके विकास में है। चोटियां बढ़ाने में नहीं, आत्मा के बढ़ाने में; कपड़े बदलने में नहीं, आत्मा को बदलने में जिंदगी की साधना है। वहां है धर्म।
और जिस दिन कोई व्यक्ति अपने जीवन के मंदिर में घृणा से मुक्त हो जाता है और प्रेम से भर जाता है; असत्य से मुक्त हो जाता है और सत्य से भर जाता है, उस दिन उसे परमात्मा को खोजने नहीं जाना पड़ता, परमात्मा खोजता हुआ उसके द्वार पर आ जाता है। और यह मैं आपसे कहना चाहता हूं कि आप परमात्मा को कहां खोजेंगे? जिसका पता नहीं है उसे खोजेंगे कैसे? वह तो जिस दिन आप योग्य हो जाएंगे परमात्मा आपको खोज लेता है। आपको परमात्मा को नहीं खोजना पड़ता है।
धार्मिक आदमी मैं उसे नहीं कहता जो ईश्वर को खोजता है, धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं जिसे खोजने के लिए ईश्वर को मजबूर होना पड़ता है। धार्मिक आदमी ईश्वर की फिकर ही नहीं करता, ईश्वर ही धार्मिक आदमी की फिकर कर लेता है। मैं उसको धार्मिक आदमी नहीं कहता जो मंदिर जाता है, मैं उसको धार्मिक आदमी कहता हूं कि जहां भी बैठ जाए वहीं मंदिर हो जाए, जहां भी जीए वहीं मंदिर की सुगंध आने लगे, जहां खड़ा हो जाए वह भूमि पवित्र हो जाए, जहां देख ले वहां प्रार्थना की हवा छा जाए। वैसे आदमी का होना धार्मिक होना है। और अगर हम इस दिशा में थोड़ा सा प्रयास नहीं किए और हमने जीवन को बदलने को ही धर्म की कला नहीं बनाया, तो हमारा देश खो गया है, हमारे देश का आगे कोई भी भविष्य नहीं है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। एक सच्चे धर्म के आधार पर जीवन को और व्यक्ति को बदलना जरूरी है। और अगर हम यह कर सके, तो एक नये देश का और एक नये समाज का जन्म हो सकता है। इस जन्म की दिशा में आप सब भी प्रयास करेंगे, ऐसी अंत में प्रार्थना करता हूं।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।