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₹860.00
Quick Overview
पुस्तक के मुख्य विषय-बिंदु:
कैसे दुख मिटे?
कैसे आनंद उपलब्ध हो?
महत्वाकांक्षा अभिशाप है।
जीवन में आत्म-स्मरण की जरूरत कब पैदा होती है?
यदि परमात्त्मा सभी का स्वभाव है तो संसार की जरूरत क्या है?
सामग्री तालिका अनुक्रम:
प्रवचन 1 : महत्वाकांक्षा
प्रवचन 2 : जीवन की तृष्णा
प्रवचन 3 : द्वैतभाव
प्रवचन 4 : उत्तेजना एवं आकांक्षा
प्रवचन 5 : अप्राप्य की इच्छा
प्रवचन 6 : स्वामित्व की अभीप्सा
प्रवचन 7 : मार्ग की शोध
प्रवचन 8 : मार्ग की प्राप्ति
प्रवचन 9 : एकमात्र पथ-निर्देश
प्रवचन 10 : जीवन-संग्राम में साक्षीभाव
प्रवचन 11 : जीवन का संगीत
प्रवचन 12 : स्वर-बद्धता का पाठ
प्रवचन 13 : जीवन का सम्मान
प्रवचन 14 : अंतरात्मा का सम्मान
प्रवचन 15 : पूछो—पवित्र पुरुषों से
प्रवचन 16 : पूछो—अपने ही अंतरतम से
प्रवचन 17 : अदृश्य का दर्शन
उद्धरण : साधना सूत्र – सत्रहवां प्रवचन – अदृश्य का दर्शन
“परम-शांति उसी क्षण प्राप्त होती है, जब तुम बचे ही नहीं। जब तक तुम हो, तुम अशांत रहोगे। इसलिए आखिरी बात खयाल में ले लेनी चाहिए। तुम कभी भी शांत न हो सकोगे, क्योंकि तुम्हारे होने में ही अशांति भरी है। तुम्हारा होना ही अशांति है, उपद्रव है। जब तुम ही न रहोगे, तब ही शांत हो पाओगे।
इसलिए जब कहा जाता है कि तुम्हें शांति प्राप्त हो, तो इसके बहुत अर्थ हैं। इसका अर्थ है कि तुम न हो जाओ, तुम समाप्त हो जाओ, ताकि शांति ही बचे। तुम्हीं तो उपद्रव हो। आप जो भी अभी हैं, बीमारी का जोड़ हैं। तुम कभी शांत न हो सकोगे, जब तक कि यह ‘तुम’ शांत ही न हो जाए, जब तक कि यह ‘तुम’ खो ही न जाए।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारी मुक्ति नहीं, तुमसे मुक्ति। तुम्हारी कोई मुक्ति न होगी, तुमसे ही मुक्ति होगी। और जिस दिन तुम अपने को छोड़ पाओगे, जैसे सांप अपनी केंचुल छोड़ देता है, उस दिन अचानक तुम पाओगे कि तुम कभी अमुक्त नहीं थे। लेकिन तुमने वस्त्रों को बहुत जोर से पकड़ रखा था, तुमने खाल जोर से पकड़ रखी थी, तुमने देह जोर से पकड़ रखी थी, तुमने आवरण इतने जोर से पकड़ रखा था कि तुम भूल ही गए थे कि यह आवरण हाथ से छोड़ा भी जा सकता है।
ध्यान की समस्त प्रक्रियाएं, क्षण भर को ही सही, तुमसे इस आवरण को छुड़ा लेने के उपाय हैं। एक बार तुम्हें झलक आ जाए, फिर ध्यान की कोई जरूरत नहीं। फिर तो वह झलक ही तुम्हें खींचने लगेगी। फिर तो वह झलक ही चुंबक बन जाएगी। फिर तो वह झलक तुम्हें पुकारने लगेगी और ले चलेगी उस राह पर, जहां यह सूत्र पूरा हो सकता है, ‘तुम्हें शांति प्राप्त हो।’”—ओशो
पुस्तक के मुख्य विषय-बिंदु:
कैसे दुख मिटे?
कैसे आनंद उपलब्ध हो?
महत्वाकांक्षा अभिशाप है।
जीवन में आत्म-स्मरण की जरूरत कब पैदा होती है?
यदि परमात्त्मा सभी का स्वभाव है तो संसार की जरूरत क्या है?
सामग्री तालिका अनुक्रम:
प्रवचन 1 : महत्वाकांक्षा
प्रवचन 2 : जीवन की तृष्णा
प्रवचन 3 : द्वैतभाव
प्रवचन 4 : उत्तेजना एवं आकांक्षा
प्रवचन 5 : अप्राप्य की इच्छा
प्रवचन 6 : स्वामित्व की अभीप्सा
प्रवचन 7 : मार्ग की शोध
प्रवचन 8 : मार्ग की प्राप्ति
प्रवचन 9 : एकमात्र पथ-निर्देश
प्रवचन 10 : जीवन-संग्राम में साक्षीभाव
प्रवचन 11 : जीवन का संगीत
प्रवचन 12 : स्वर-बद्धता का पाठ
प्रवचन 13 : जीवन का सम्मान
प्रवचन 14 : अंतरात्मा का सम्मान
प्रवचन 15 : पूछो—पवित्र पुरुषों से
प्रवचन 16 : पूछो—अपने ही अंतरतम से
प्रवचन 17 : अदृश्य का दर्शन
उद्धरण : साधना सूत्र – सत्रहवां प्रवचन – अदृश्य का दर्शन
“परम-शांति उसी क्षण प्राप्त होती है, जब तुम बचे ही नहीं। जब तक तुम हो, तुम अशांत रहोगे। इसलिए आखिरी बात खयाल में ले लेनी चाहिए। तुम कभी भी शांत न हो सकोगे, क्योंकि तुम्हारे होने में ही अशांति भरी है। तुम्हारा होना ही अशांति है, उपद्रव है। जब तुम ही न रहोगे, तब ही शांत हो पाओगे।
इसलिए जब कहा जाता है कि तुम्हें शांति प्राप्त हो, तो इसके बहुत अर्थ हैं। इसका अर्थ है कि तुम न हो जाओ, तुम समाप्त हो जाओ, ताकि शांति ही बचे। तुम्हीं तो उपद्रव हो। आप जो भी अभी हैं, बीमारी का जोड़ हैं। तुम कभी शांत न हो सकोगे, जब तक कि यह ‘तुम’ शांत ही न हो जाए, जब तक कि यह ‘तुम’ खो ही न जाए।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारी मुक्ति नहीं, तुमसे मुक्ति। तुम्हारी कोई मुक्ति न होगी, तुमसे ही मुक्ति होगी। और जिस दिन तुम अपने को छोड़ पाओगे, जैसे सांप अपनी केंचुल छोड़ देता है, उस दिन अचानक तुम पाओगे कि तुम कभी अमुक्त नहीं थे। लेकिन तुमने वस्त्रों को बहुत जोर से पकड़ रखा था, तुमने खाल जोर से पकड़ रखी थी, तुमने देह जोर से पकड़ रखी थी, तुमने आवरण इतने जोर से पकड़ रखा था कि तुम भूल ही गए थे कि यह आवरण हाथ से छोड़ा भी जा सकता है।
ध्यान की समस्त प्रक्रियाएं, क्षण भर को ही सही, तुमसे इस आवरण को छुड़ा लेने के उपाय हैं। एक बार तुम्हें झलक आ जाए, फिर ध्यान की कोई जरूरत नहीं। फिर तो वह झलक ही तुम्हें खींचने लगेगी। फिर तो वह झलक ही चुंबक बन जाएगी। फिर तो वह झलक तुम्हें पुकारने लगेगी और ले चलेगी उस राह पर, जहां यह सूत्र पूरा हो सकता है, ‘तुम्हें शांति प्राप्त हो।’”—ओशो
Weight | 1 kg |
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एक ज्ञान बाहर है, एक प्रकाश बाहर है। अगर आपको गणित सीखनी है, केमिस्ट्री सीखनी है, फिजिक्स सीखनी है, इंजीनियरिंग सीखनी है, तो आप किसी स्कूल में भरती होंगे, किताब पढ़ेंगे, परीक्षाएं होंगी और सीख लेंगे। यह लर्निंग है; नॉलेज नहीं। यह सीखना है; ज्ञान नहीं। विज्ञान सीखा जाता है, विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं होता। लेकिन धर्म सीखा नहीं जाता, उसका ज्ञान होता है। उसकी लर्निंग नहीं होती, उसकी नॉलेज होती है। एक प्रकाश बाहर है, जिसे सीखना होता है; एक प्रकाश भीतर है, जिसे उघाड़ना होता है, जिसे डिस्कवर करना होता है। ओशो
अनुक्रम
#1: छाया-जगत का बोध
#2: सीखे हुए ज्ञान से मुक्ति
#3: सत्य का बोध
#4: स्वतंत्रता, सरलता, शून्यता
#5: प्रश्न-शून्य चित्त
सत्र--दूसरा
मैं क्षमा चाहता हूं, क्योंकि कुछ पुस्तकों का उल्लेख आज सुबह मुझे करना चाहिए था, लेकिन मैंने किया नहीं। जरथुस्त्र, मीरदाद, च्वांग्त्सु, लाओत्सु, जीसस और कृष्ण से मैं इतना अभिभूत हो गया था कि मैं कुछ ऐसी पुस्तकों को भूल ही गया जो कि कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। मुझे भरोसा नहीं आता कि खलील जिब्रान की ‘दि प्रोफेट’ को मैं कैसे भूल गया। अभी भी यह बात मुझे पीड़ा दे रही है। मैं निर्भार होना चाहता हूं--इसीलिए मैं कहता हूं मुझे दुख है, किंतु किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं।
कैसे मैं उस पुस्तक को भूल गया जो परम शिखर है: ‘दि बुक ऑफ दि सूफी़ज!’ शायद इसीलिए भूल गया क्योंकि इसमें कुछ है ही नहीं, बस खाली पन्ने। पिछले बारह सौ वर्षों से सूफियों ने इसे परम श्रद्धापूर्वक संजोया है, वे इसे खोलते हैं और पढ़ते हैं। किसी को भी आश्चर्य होता है कि वे पढ़ते क्या हैं। जब बहुत लंबे समय तक खाली पन्नों को देखो तो स्वयं पर ही लौट आने के लिए बाध्य हो जाते हो। यही असली अध्ययन है--असली काम।
‘दि बुक’ को मैं कैसे भूल गया? अब कौन मुझे क्षमा करेगा? ‘दि बुक’ का उल्लेख सर्वप्रथम होना चाहिए, अंत में नहीं। इसका अतिक्रमण तो हो ही नहीं सकता। इससे बेहतर पुस्तक रची कैसे जा सकती है, जिसमें कुछ भी न हो, शून्य का संदेश हो?
अपने नोट्स में देवगीत, ना-कुछ, नथिंगनेस को ना-कुछ-पन ही लिखना। अन्यथा ना-कुछ का नकारात्मक अर्थ होता है--खालीपन। पर ऐसा नहीं है। इसका अर्थ है ‘पूर्णता।’ पूरब में खालीपन दूसरे ही संदर्भ में प्रयुक्त होता है...‘शून्यता।’
अपने एक संन्यासी को मैंने ‘शून्यो’ नाम दिया है, लेकिन वह बेवकूफ अपने को डॉक्टर इचलिंग कहता रहता है। अब इससे अधिक बेवकूफी क्या होगी? ‘डॉक्टर इचलिंग’--कितना भद्दा नाम है! और डॉक्टर इचलिंग बनने के लिए उसने अपनी दाढ़ी मूंडवा दी, क्योंकि दाढ़ी में वह थोड़ा सुंदर लगता था।
पूरब में शून्यता--खालीपन का अर्थ खालीपन नहीं है जैसा अंग्रेजी भाषा में होता है। इसका अर्थ है पूर्णता, अतिशय होना, इतना पूर्ण कि और किसी कुछ की आवश्यकता ही न रहे। ‘दि बुक’ का यही संदेश है। कृपया सूची में इसे सम्मिलित कर लो।
सुप्रसिद्ध संत शेख फरीद के कुछ अनूठे पदों के माध्यम से ओशो के दस अमृत प्रवचनों का संकलन। इस वार्तालाप में प्रति दूसरे दिन ओशो ने जिज्ञासुओं की विभिन्न जिज्ञासाओं और प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। ‘शेख फरीद प्रेम के पथिक हैं और जैसा प्रेम का गीत फरीद ने गाया है; वैसा किसी ने नहीं गाया। कबीर भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की भी बात करते हैं। दादू भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की बात को बिलकुल भूल नहीं जाते।
ज्योतिष के तीन हिस्से हैं।
एक, जिसे हम कहें अनिवार्य, एसेंशियल, जिसमें रत्ती भर फर्क नहीं होता। वही सर्वाधिक कठिन है उसे जानना। फिर उसके बाहर की परिधि है: नॉन-एसेंशियल, जिसमें सब परिवर्तन हो सकते हैं। मगर हम उसी को जानने को उत्सुक होते हैं। और उन दोनों के बीच में एक परिधि है--सेमी-एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य, जिसमें जानने से परिवर्तन हो सकते हैं, न जानने से कभी परिवर्तन नहीं होंगे। तीन हिस्से कर लें। एसेंशियल, जो बिलकुल गहरा है, अनिवार्य, जिसमें कोई अंतर नहीं हो सकता। उसे जानने के बाद उसके साथ सहयोग करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। धर्मों ने इस अनिवार्य तथ्य की खोज के लिए ही ज्योतिष की ईजाद की, उस तरफ गए। उसके बाद दूसरा हिस्सा है: सेमी-एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य। अगर जान लेंगे तो बदल सकते हैं, अगर नहीं जानेंगे तो नहीं बदल पाएंगे। अज्ञान रहेगा, तो जो होना है वही होगा। ज्ञान होगा, तो ऑल्टरनेटिव्स हैं, विकल्प हैं, बदलाहट हो सकती है। और तीसरा सबसे ऊपर का सरफेस, वह है: नॉन-एसेंशियल। उसमें कुछ भी जरूरी नहीं है। सब सांयोगिक है।
ओशो
जीवन-रूपांतरण के सात सूत्र "करुणा और क्रांति’--ऐसा शब्दों का समूह मुझे अच्छा नहीं मालूम पड़ता है। मुझे तो लगता है--करुणा यानी क्रांति। करुणा अर्थात क्रांति। कम्पैशन एंड रेवोल्यूशन ऐसा नहीं, कम्पैशन मीन्स रेवोल्यूशन। ऐसा नहीं कि करुणा होगी--और क्रांति होगी। अगर करुणा आ जाए, तो क्रांति अनिवार्य है। क्रांति सिर्फ करुणा की पड़ी हुई छाया से ज्यादा नहीं है। और जो क्रांति करुणा के बिना आएगी, वह बहुत खतरनाक होगी। ऐसी बहुत क्रांतियां हो चुकी हैं। और वे जिन बीमारियों को दूर करती हैं, उनसे बड़ी बीमारियों को पीछे छोड़ जाती हैं।" ओशो पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु: मनुष्य एक रोग क्यों हो गया है? ध्यान का अर्थ है : समर्पण, टोटल लेट-गो मन के कैदखाने से मुक्ति के उपाय? जिन्दगी के रूपांतरण का क्या मतलब है? करुणा, अहिंसा, दया, प्रेम इन सब में क्या फर्क है?