UPANISHAD
Samadhi Kamal 04
Fourth Discourse from the series of 15 discourses – Samadhi Kamal by Osho.
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बहुत से प्रश्न हैं, थोड़े से के उत्तर मैं दे पाऊंगा।
लेकिन अगर आपने ठीक-ठीक अपने ही प्रश्न के शब्दों को खोजने की कोशिश की, तो हो सकता है उत्तर न भी मिले। लेकिन जो उत्तर मैं दे रहा हूं, उनमें बाकी प्रश्नों के उत्तर भी होंगे। और सच तो यह है कि जो भी मैं कह रहा हूं अगर वह आपको ठीक से समझ में आ जाए, तो शायद ही आपके मन में कोई प्रश्न होने की गुंजाइश है।
एक प्रश्न पूछा है कि यदि जल में कमल की भांति मनुष्य अपने सांसारिक कामों में निमज्जित रह कर ही, उसमें डूबा रह कर ही शांति लाभ कर सकता है, तो माथेरान और एकांत में आने की जरूरत क्या है? इस एकांत में आने की और सारी चीजों से दूर हो जाने की जरूरत क्या है?
हम इस उपमा को बहुत बार सुने होंगे कि जल में और मिट्टी से कमल पैदा हो जाता है। लेकिन कमल के पैदा होने के लिए उसे मिट्टी से दूर हो जाना होता है और उसे जल से भी ऊपर उठ जाना होता है। अगर वह मिट्टी में ही निमज्जित रहे, तो कमल कभी पैदा नहीं होगा। वह मिट्टी से पैदा होता है, लेकिन मिट्टी से दूर होकर पैदा हो पाता है। उसकी जड़ें मिट्टी में होती हैं, लेकिन वह मिट्टी में नहीं होता। वह जितने दूर होता चला जाता है, उतना ही खिलता चला जाता है, उतना ही परिपूर्णता को उपलब्ध होता है।
मैं तो मानता ही यह हूं कि जीवन की सामान्य स्थिति से दूर भागने का कोई सवाल नहीं है। जीवन की सामान्य स्थिति से दूर भागने का सवाल नहीं है, कोई भाग भी नहीं सकता। फिर जो हम एकांत खोजते हैं, अकेलापन खोजते हैं, साधना के लिए कोई परिस्थिति खोजते हैं, उसका उपयोग दूसरा है। उसका उपयोग यह नहीं है कि आप जीवन से टूट जाएंगे। मेरा मानना है, उसके माध्यम से ही आप पहली दफा जीवन से संबंधित होंगे।
अभी आपको खयाल होगा कि आप घर में हैं, गृहस्थी में हैं। आप गलती में हैं। आप सिवाय अपने में और कहीं भी नहीं हैं। घर-गृहस्थी में आप दिखते हैं, आप वहां हैं नहीं; आप अपने में ही घिरे हैं। अभी सुबह ही मैंने कहा, जिनको आप प्रेम करते हैं उनको आप प्रेम थोड़े ही कर रहे हैं। आप सिवाय अपने को और किसी को प्रेम नहीं करते हैं। अभी आप अपने में घिरे हैं। तो मैं आपको घर-गृहस्थी से दूर नहीं ले जा रहा, मैं अपना यह जो घिराव है आपके भीतर, उससे दूर ले जा रहा हूं। सच में तो जमीन पर कोई मनुष्य तब तक न तो किसी को प्रेम करता है, न उसका कोई परिवार होता है, जब तक वह स्वयं को नहीं जानता। आमतौर से लोग कहेंगे कि जिन्होंने स्वयं को जाना है वे परिवार छोड़ कर गए थे। और मेरा मानना है, जिन्होंने स्वयं को जाना, यह पूरा संसार उनका परिवार हो गया है।
महावीर परिवार छोड़ कर गए हैं, ऐसा ही हमने देखा; फिर हमने यह नहीं देखा जब यह पूरा संसार उनका परिवार हो गया। छोटी गृहस्थियां गृहस्थियों के विपरीत नहीं तोड़ी गई हैं, वे बड़ी गृहस्थी में निमज्जित हो गई हैं। संसार को छोड़ कर भागने की बात नहीं है, आप जो अपने में घिरे हैं बुरी तरह, चौबीस घंटा जो एक सेल्फ आक्युपेशन चल रहा है, वह जो अपने में व्यस्तता चल रही है, उस दीवाल को तोड़ देने की बात है। उसको तोड़ कर आप पहली दफा संसार को देखेंगे। पहली दफा आप देख पाएंगे कि आस-पास कौन है और क्या है। अभी आप आस-पास देख भी नहीं रहे हैं। अभी आप भीतर इतने व्यस्त हैं कि आप आस-पास भी नहीं देख पा रहे हैं।
तो यहां इस एकांत में आकर हम संसार से दूर नहीं जा रहे हैं, अगर ठीक से समझिए तो अपनी व्यस्तता से, वह जो हमारा आक्युपाइड माइंड है, वह जो निरंतर उलझा हुआ मस्तिष्क है, हम उससे थोड़ा पीछे सरक रहे हैं और उसको खाली करने का उपाय कर रहे हैं। इस उपाय में जो भी सहयोगी है उसको हम माध्यम की तरह चुन रहे हैं। एक बार भी वह खाली हो जाए और एक बार भी उसके खाली होने पर हम उसको अनुभव कर लें जो उसके पीछे है, फिर उस अनुभव को खोना असंभव है, फिर आप कहीं भी चले जाएं वह अनुभव आपका खोएगा नहीं। यह जो एकांत है, यह जो अकेले में चले आना है, इसकी उपयोगिता केवल इतनी है कि वह आपके दिमाग की जो निरंतर धारा बह रही है, अंतरधारा, वह थोड़ी खंडित हो जाए, थोड़ी टूट जाए। एक बार भी आप उसके पीछे झांक सकें, तो फिर जो आप झांक लेंगे उसे भूलना असंभव है। सत्य को एक दफा जान लिया जाए, उसका विस्मरण नहीं होता है। सत्य का विस्मरण नहीं होता है और जो ज्ञान उपलब्ध हो जाए उसे खोया नहीं जा सकता है। ज्ञान को खोना असंभव है।
तो एक दफा व्यवस्था करके हम एकांत में, अकेले में उसे जानने की कोशिश करते हैं। और इस बीच हम उन सारी चीजों को और उनसे थोड़ा दूर रहना चाहेंगे जो कि उस कोशिश के विपरीत पड़ती हों।
…अव्यस्त माइंड, यह अनआक्युपाइड माइंड, यह मस्तिष्क का ऐसा खाली आकाश की तरह खाली हो जाना, आपके भीतर जो है उसकी अनुभूति में ले जाएगा। फिर मैं आपसे नहीं कहता आप संसार से टूट जाएंगे। उसके बाद ही आप पहली दफा कमल की भांति जल में हो सकेंगे। उसके बाद ही! उसके बाद ही आप सबके बीच हो सकेंगे और फिर भी अकेले होंगे। उसके बाद ही आप सब करेंगे और फिर भी जो आप करेंगे उसमें आपकी आसक्ति और मोह नहीं होगा। उसके बाद फिर आप पूरे जीवन में जीएंगे, लेकिन आप पूरे वक्त जानते रहेंगे वास्तविक जीवन कुछ और है। उस वक्त आप सारे जगत के बीच सब करते हुए भी उस करने से ग्रसित हुए और बंधे हुए नहीं होंगे।
एक साधु था, च्वांगत्सु। उसकी पत्नी का देहांत हो गया। चीन का जो उस समय का बादशाह था वह च्वांगत्सु को बहुत आदर करता था। वह सम्मान प्रकट करने और संवेदना प्रकट करने च्वांगत्सु के घर गया। सुबह पत्नी को दफनाया है, वह बारह बजे के करीब च्वांगत्सु के घर गया, बादशाह खुद एक अत्यंत गरीब और दरिद्र आदमी के घर आया। सारा गांव देखने खड़ा हो गया। लेकिन बादशाह जब पहुंचा तो वह देख कर हैरान हुआ, वह अपने एक झाड़ के नीचे बैठे एक बर्तन को बजाता था और एक गीत गाता था। तो उसे बहुत हैरानी हुई। उसकी पत्नी अभी सुबह-सुबह मरी है और वह बर्तन को बजा कर गीत गा रहा है। यह बड़ा अशोभन था। उसने जाकर च्वांगत्सु को कहा, मित्र एक तो दुख न मनाना ही काफी अशोभन है, अशिष्ट है, दूसरा तुम गीत गाते हो? यह तो…यह मुझे ठीक नहीं मालूम होता।
उस च्वांगत्सु ने कहा कि अगर मैं पत्नी के मरने पर गीत न गाऊं, तो तुम समझना कि मैंने उसे प्रेम ही नहीं किया। बहुत अच्छी बात कही। उसने कहा, अगर मैं पत्नी के मरने पर गीत न गाऊं, तो तुम समझना कि मैंने उसे प्रेम ही नहीं किया। और अगर पत्नी के मरने पर च्वांगत्सु गीत गाता हुआ न पाया जाए तो दुनिया कहेगी च्वांगत्सु कुछ जानता ही नहीं था। तो सारी दुनिया याद रखेगी कि च्वांगत्सु कुछ जानता ही नहीं था। यह मेरा गीत सूचना होगी कि मैंने उसे प्रेम किया था। और यह गीत मेरी सूचना होगी कि मैं जानता था कि कोई मरता नहीं है।
यह जो च्वांगत्सु ने कहा कि दुनिया कहेगी कि च्वांगत्सु जानता नहीं था। अगर आप जानते हैं, तो च्वांगत्सु ने कहा कि आपको दिखाई पड़ती है कि मृत्यु हुई और मुझे दिखाई पड़ता है मेरी पत्नी का मोक्ष हो गया। आपको दिखाई पड़ती है कि मृत्यु हुई, तो आप सोचते हैं रोऊं! मैं जरूर रोता अगर वह मृत्यु उसकी होती। उसकी मृत्यु नहीं हुई, उसका मोक्ष हो गया। मैं जरूर रोता, वे लोग रोने योग्य हैं जिनकी मृत्यु ही होती है और वे लोग गीत गाने योग्य हैं जिनका मोक्ष हो जाता है। और उसने कहा, उसे मैंने इतना प्रेम किया कि जीवन भर एक ही हमारी आकांक्षा थी कि मृत्यु न हो, मोक्ष हो जाए। और उसने मुझे इतना प्रेम किया कि उसकी भी जीवन भर यही आकांक्षा थी कि मेरी मृत्यु न हो, मोक्ष हो जाए।
अगर आप प्रेम करते हैं किसी को, तो आप उसकी मृत्यु से नहीं, उसके मोक्ष न होने से डरेंगे। और अगर आप प्रेम करते हैं किसी को, तो आपके लिए असंभव होगा कि आप उसको मोह कर सकें और उसे मोह में गिरा सकें। यह अप्रेम का लक्षण होगा। यानी इसे थोड़ा समझना जरूरी है। जिसे हम प्रेम करते हैं उसे हम मोह में गिराने का कारण बन सकें, यह असंभव है। हम उसे मोह-मुक्त करने का कारण बनेंगे। जिसे हम प्रेम करते हैं उसे हम बांधें, यह असंभव है। हम उसे मुक्त करने में सहयोगी बनेंगे। प्रेम का लक्षण यह होगा। जितना आपके भीतर जीवन का अनुभव, शांति का और आनंद का अनुभव और प्रकाश उत्पन्न होगा, उतना आप आसपास पाएंगे आप सबको प्रेम कर पा रहे हैं। और उस प्रेम का एक ही अर्थ होगा: आप उनके जीवन में सहयोगी हो जाएं कि वे परम जीवन को पा सकें।
अभी हम सब एक-दूसरे के लिए सहयोगी हैं कि हम कैसे एक-दूसरे को नरक में पहुंचा सकें। इसको हम प्रेम कहते हैं! अभी हम सहयोगी हैं कि एक-दूसरे को नरक में कैसे पहुंचा सकें। इसको हम प्रेम कहते हैं!
प्रेम का अर्थ होगा: हम कैसे एक-दूसरे को नरक के बाहर निकाल सकें। और अगर आपको अपनी थोड़ी आंतरिक अनुभूति शुरू होती है, तो आपके आसपास आपका प्रेम एक ही फल लाएगा कि जिस भांति कीचड़ से आप उठ कर कमल बने हैं, दूसरे भी बन जाएं। वे कोई आपके निकट हों, दूर हों। और उस स्थिति में आपके जीवन से कोई क्रियाएं नहीं शून्य हो जाएंगी कि आप भाग जाएंगे सब छोड़ कर। भागने का प्रश्न ही तब है जब जो आप कर रहे हैं उससे डर हो।
अभी सुबह ही मैं कहता था, कोई किसी साधु के पास गया, उसने रुपये-पैसे उसके सामने किए तो उसने मुंह मोड़ लिया। वह मुझसे बोला कि कितने अनासक्त वे साधु होंगे, उन्होंने पैसे पर से मुंह मोड़ लिया। मैंने कहा, अभी वे अनासक्त न होंगे। एक व्यक्ति है, उसके सामने पैसे रखो और धन रखो, उसकी लार टपक जाएगी कि उसे पा ले। और एक व्यक्ति है जो कि दूसरी तरफ मुंह फेर रहा है। जो उससे दूसरी तरफ मुंह फेर रहा है वह किसलिए फेरता होगा? लार टपकने का डर होगा। दूसरी तरफ मुंह फेरने का प्रयोजन क्या होगा? दूसरी तरफ मुंह फेरने का प्रयोजन एक ही हो सकता है कि अगर उस धन पर आंख रही तो वह उसे खींच लेगा। वह अनासक्ति नहीं है, यह संसार से भागना है।
संसार से भागते वे हैं जिनके मन में संसार बहुत घना है और बहुत गहरा है। संसार से भागते वे हैं जो संसार से डरे हुए हैं। संसार से भागने का प्रश्न नहीं है, अपने को परिवर्तित करने और बदलने का प्रश्न है। और अगर आप अपने को परिवर्तित करते हैं और बदलते हैं, तो आपको धन को देख कर आंख फेरने की जरूरत नहीं है। धन आपको दिखेगा, लेकिन आपको पकड़ेगा नहीं। यानी सवाल यह नहीं है कि धन को छोड़ दें; सवाल यह है कि धन आपको पकड़े नहीं। सवाल यह नहीं है कि आप मकान को छोड़ कर बाहर चले जाएं; सवाल यह है कि मकान आपके भीतर न प्रवेश कर जाए।
एक साधु था। एक बादशाह उसे बहुत प्रेम करता रहा, बहुत प्रेम किया। इतना प्रेम किया कि एक दिन उसने कहा कि आप मेरे महल में आ जाएं तो बड़ी कृपा हो, वहीं रहें। मुझसे नहीं देखा जाता कि इस झोपड़े में और दरख्त के नीचे आप पड़े रहें।
वह साधु बोला, तुम्हारी मर्जी! हम यहां सोते थे, वहां सो जाएंगे।
बादशाह जब उसे रथ पर लेकर घर लौटने लगा, रास्ते में उसे संदेह हुआ। अगर वह सच में फकीर था, अगर सच में ही साधु था, तो कैसा साधु है कि राजमहल जाने के लिए तैयार हो गया? उसे इनकार करना था कि मैंने लात मार दी राजमहल को, मैं वहां नहीं आता। तो समझता बादशाह कि हां, कोई साधु है। बादशाह को शक हो गया। वह साथ बैठा है। उसने रथ पर बैठने में भी इनकार नहीं किया। वह मजे से गद्दी से टिक कर बैठ गया। वह राजमहल जाने को राजी भी हो गया, उसने एक दफे भी नहीं कहा कि नहीं, मैं राजमहल नहीं जा सकता। बादशाह को लगा कि जरूर कुछ गड़बड़ है। साधु पूरा नहीं मालूम होता। लेकिन अब ले ही आया था तो उसे ले गया। उसे बढ़िया से बढ़िया भवन में ठहराया, वह मजे से ठहर गया। उसे बढ़िया भोजन दिए, उसने खाए। राजा तो बहुत हैरान हुआ! दो ही दिन में वह समझा कि हम गलत आदमी को ले आए। सारा आदर खराब हो गया, यह काहे का साधु है! उसे बहुत बढ़िया बिस्तरों पर सुलाया, वह मजे से सो गया। थोड़े ही दिन, राजा को तो बहुत संदेह जोर से पकड़ने लगा। श्रद्धा सब संदेह में खंडित हो गई। क्योंकि श्रद्धा साधु पर थोड़े ही थी। श्रद्धा तो उस दरख्त पर थी, उस झोपड़े पर थी। श्रद्धा तो उस भूखे मरते आदमी पर थी, साधु पर थोड़े ही थी। श्रद्धा तो उस भीख मांगने में थी, साधु पर थोड़े ही थी। वह तो न भीख मांगता है, न दरख्त के नीचे है, न नंगा है, न उघाड़ा है। अब काहे पर श्रद्धा होने वाली थी।
आपने भी अभी तक जो श्रद्धा की होगी शायद ही कभी किसी साधु पर की हो। मैं आपको स्मरण दिलाता हूं, अभी तक आपने शायद ही किसी साधु को जाना भी हो। आपने कम कपड़ों पर श्रद्धा की होगी, कम भोजन पर श्रद्धा की होगी, उघाड़े-नंगे आदमी पर श्रद्धा की होगी, घर-द्वार छोड़े पन पर श्रद्धा की होगी। अभी साधु को तो आप जाने भी नहीं होंगे।
वह बादशाह एक दिन सुबह-सुबह उस साधु के पास आया और बोला, क्षमा करें, एक संदेह मुझे बड़ा हैरान किए दे रहा है। जब तक आप मेरे महल में नहीं आए थे, मैं आपके प्रति एक आदर अनुभव करता था। जब से आ गए हैं, मैं इतनी हैरानी में हूं, मेरे संदेह का निवारण कर दें। मेरी रातों की नींद मुश्किल हो गई है। उस राजा ने कहा कि जब से आप आए हैं, एक खयाल मुझे पकड़ता है कि मुझमें और आपमें कोई भेद नहीं है। और अब तो निश्चित ही हो गया। जैसा मैं रहता हूं, आप रहते हैं; जैसा मैं सोता हूं, आप सोते हैं; जो मैं खाता हूं, आप खाते हैं। तो मुझमें आपमें भेद क्या है?
उस साधु ने कहा, भेद अगर जानना ही चाहते हैं, थोड़ा गांव के बाहर चलना होगा।
वह बोला, मैं जानना ही चाहता हूं, गांव के बाहर चलूंगा।
वे दोनों सुबह-सुबह उठे और गांव के बाहर गए। जब नदी की रेखा समाप्त हो गई, उस राजा ने कहा, अब बता दें। वह साधु बोला, थोड़ा और आगे चलें तो बताऊं, और यह भी हो सकता है आगे चलने से ही उत्तर भी मिल जाए। राजा कुछ समझा नहीं। वे थोड़े और आगे गए, फिर राजा ने कहा। उसने कहा, थोड़ा और चलें। दोपहर घनी होने लगी, राजा ने कहा, बहुत देर हो गई, अब उत्तर दे दें। उस साधु ने कहा, उत्तर मेरा यह है कि मैं तो अब आगे जाता हूं, आप भी चलते हैं? वह राजा बोला, मैं कैसे जा सकता हूं? मेरा राज्य है, मेरा महल, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे–मेरा सब कुछ पीछे है।
वह फकीर बोला, मेरा पीछे कुछ भी नहीं है। तो मैं तो जाता हूं। तुम्हारे महल में जरूर था, इससे तुम्हें भ्रम हो गया कि मेरे भीतर तुम्हारा महल होगा। मैं तुम्हारे महल में था, इससे तुम्हें भ्रम हो गया कि मेरे भीतर तुम्हारा महल होगा। तुम्हारे महल में जरूर गया था, तुम्हारे महल को अपने भीतर नहीं लिया है। मैं जाता हूं।
वह बादशाह ने पैर पकड़े और कहा कि मत…मुझे बड़ा दुख है, मुझे बोध हो गया। वापस चलें।
वह साधु बोला, वापस तो अभी चलूं, लेकिन फिर तुम्हें संदेह पकड़ लेगा। तो इसलिए नहीं अब मैं पीछे जाने से रुक रहा हूं कि मुझे कोई दिक्कत है। क्योंकि जिसे झोपड़े में और महल में फर्क है वह अभी साधु नहीं है। जिसे झोपड़े में, महल में अभी फर्क है वह अभी साधु नहीं है। उसने कहा, मैं तो अभी चलूं, लेकिन तुम्हें दिक्कत हो जाएगी, तुम्हें फिर संदेह पकड़ लेगा। तुम्हें संदेह न पकड़े इसलिए अब मुझे जाने ही दो।
आप हैरान होंगे, वस्तुतः जो साधु हैं, वे इसलिए दरख्त के नीचे नहीं हैं कि महल में रहना कोई कठिन है। आप भर को संदेह न पकड़ जाए। आप भर को चिंता और दुख और परेशानी न हो जाए। अन्यथा उन्हें इससे कोई भेद नहीं पड़ता है। जिसे थोड़ा सा जीवन और आत्मिक अनुभव होना शुरू होगा, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह कहां है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह कहां है और वह क्या कर रहा है, क्या करना पड़ रहा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उस सारे करने और होने के भीतर वह निरंतर अलिप्त रह पाता है। उसको ही हम कर्मयोग कहते हैं। वह करेगा, लेकिन करने में उसकी आसक्ति नहीं होगी, मोह नहीं होगा।
पर कोई सोचता हो, कोई सोचता हो कि तब ठीक है, हम घर-गृहस्थी में हैं, कोई मोह न रखेंगे। तो आप गलती में हैं। आत्मज्ञान के पूर्व अमोह नहीं हो सकता। आप कहेंगे, फिर हम घर-गृहस्थी में हैं और मोह नहीं रखेंगे, ऐसा कर्म करेंगे कि मोह नहीं रखेंगे, आसक्ति नहीं रखेंगे और वहीं हमको तो जल में कमलवत रहने दें। आपकी यह जो दलील है, यह दलील केवल ना-कुछ करने की है। यह दलील केवल गृहस्थी में बने रहने की है। यह दलील झूठी है, यह आत्म-प्रवंचना है। आप सोचते हों, हम मोह न करेंगे, लेकिन वहीं रहने दें। असंभव है कि आप मोह नहीं करेंगे। मोह तो तभी जा सकता है, जब थोड़ी सी आत्मिक झलकें उपलब्ध हो जाएं। मोह तो इसलिए है कि मैं जानता हूं कि मैं देह हूं, इसलिए दूसरे की देह पर आकर्षण है, इसलिए दूसरे की देह से मोह है। जब तक मैं जानता हूं मैं देह हूं, तब तक धन से मोह होगा। जब तक मैं जानता हूं मैं देह हूं, तब तक मकान से मोह होगा। यह मेरा देह होना ही मेरा मकान के प्रति, मेरा देह के प्रति, दूसरे की देह के प्रति, धन के प्रति मोह है। जब तक मैं जानता हूं मैं पदार्थ हूं, तब तक पदार्थ से मेरा मोह विलीन नहीं हो सकता। जिस दिन मैं जानूंगा कि मैं पदार्थ नहीं, चैतन्य हूं, उस दिन जो-जो पदार्थ है उनसे मेरा मोह विलीन हो जाएगा। पदार्थ से मोह नहीं है, आत्म-अज्ञान है, देह का बोध है, वही मोह है।
तो कोई सोचता हो कि हम घर में रहेंगे और मोह न करेंगे, तो गलती में है, वह धोखा दे रहा है अपने को। और दुनिया में दूसरे को धोखा देना उतना बुरा नहीं है जितना अपने को धोखा देना बुरा है।
यह उस आत्मबोध के लिए थोड़ा सा, जो हमारी रोजमर्रा की परिस्थिति है, उससे अलग हट जाना जरूरी है। उस परिस्थिति से थोड़ा सा अलग हट कर अपने को देखना जरूरी है। क्योंकि उस घनेपन में आप अपने को देख नहीं पाएंगे। उस व्यस्तता में आपको फुर्सत नहीं है, समय नहीं है कि अपने को देख पाएं। इसलिए अच्छा है वर्ष में थोड़े दिन को कभी किसी एकांत में, किसी वन-प्रदेश में, किसी जंगल में चले जाएं। इसलिए नहीं कि जंगल में रहना है, बल्कि इसलिए कि जंगल में रह कर बस्ती को देखना आसान होगा। थोड़ी दूरी चाहिए न, पर्सपैक्टिव के लिए थोड़ी दूरी चाहिए। थोड़ा फासला चाहिए किसी भी चीज को देखने के लिए। तो थोड़ा वन में हट जाएं ताकि देख सकें कि घर-गृहस्थी क्या है? बस्ती क्या है? वह संसार क्या है जिसमें मैं था? तो दो-चार-आठ दिन को, पंद्रह दिन को, महीने भर को कहीं बिलकुल एकांत में हट जाएं। वहां से आप बहुत कुछ देख पाएंगे। और वह जो आपको बोध होगा–आप वापस लौट आएं–और फिर उस बोध के अनुसार जीना, उस बोध के अनुसार जीएं। तो किसी दिन वह घटना घटेगी कि आप जल में कमलवत हो जाएं। अन्यथा कोई जल में कमलवत नहीं होता। उसके बाद ही संभव हो सकता है।
आत्मज्ञान के बाद ही अमोह संभव हो सकता है। अमोह हो तो अनासक्ति फलित हो जाती है। पर इस प्रवंचना में कोई न पड़े कि तब हम तो घर-गृहस्थी में हैं ही, तो मजे से वहीं रहे चले जाएं, वहीं अमोह हो जाएगा, वहीं अनासक्ति हो जाएगी। और जैसे वह फकीर जिसकी मैंने बात कही, महलों में रहता था, ऐसे ही महलों में हम भी रहें, कोई हर्ज नहीं है। यह धोखा अपने आप को न दें। वह महलों में रहता था, लेकिन रहने का उसका बड़ा विशिष्ट ढंग है। वह महलों में वैसे ही रह रहा है जैसे दरख्तों के नीचे रहा है। शायद उसके लिए महल है ही नहीं, शायद वह अभी दरख्त के नीचे ही है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा। वह अंतर्दृष्टि आपमें हो तो फिर कहीं रह आएं। लेकिन अपने को धोखा मत देना, अपने को धोखा देने की व्यवस्था नहीं कर लेना। हमने बहुत सी व्यवस्था कर ली है। और ये अच्छे-अच्छे शब्द–कर्मयोग और अनासक्तियोग और घर के भीतर ही रह कर संन्यास और कर्म करते हुए अकर्म–ये अच्छे-अच्छे शब्द बहुत जहरीले हैं, बहुत घातक हैं। लाखों लोग इन शब्दों के धोखे में अपने को डुबा लेते और नष्ट कर लेते हैं।
तो स्मरण रहे कि कहीं जल में मिट्टी की भांति न पड़े रहें, जल में कमल की भांति होना बड़ी भारी बात है, बड़ी क्रांतिकारी बात है। और उसके पहले मिट्टी से इतना दूर होना चाहिए कमल को…कमल अपनी डंडियों को फेंकता है मिट्टी से दूर, और जब वह मिट्टी को भी पार कर जाता है, फिर वह पानी को भी पार कर जाता है, तब वह खड़ा होता है। वह दो पर्तें पार कर जाता है–मिट्टी की पर्त, जिससे वह पैदा हुआ। आप किससे पैदा हुए हैं? आप शरीर से पैदा हुए हैं। आप दो शरीरों से पैदा हुए हैं। जब आप शरीर से इतना दूर निकल जाएं जितना कि कमल अपनी डंडियों को मिट्टी से फेंक कर दूर निकल जाता है। और फिर आप पानी से पार हो जाएं।
और पानी क्या है?
आपके चारों तरफ की परिस्थिति, जो आप शरीर के बाद उत्पन्न होकर उपलब्ध करते हैं। एक बच्चा मां-बाप से पैदा होता है, फिर वह क्या पाता है? आसपास जो पाता है वही संसार है। एक कमल जब अपने बीज को फोड़ता है और मिट्टी के ऊपर उठता है तो पानी को पाता है। मिट्टी को पार कर गया, फिर पानी को उपलब्ध होता है। फिर पानी को पार करता और ऊपर निकलता है।
तो दो चीजें आपको पार करनी हैं। देह को पार कर जाएं, जिससे आप पैदा हुए, वह आपकी मिट्टी है। और उस संसार को जो आपको चारों तरफ घेरे है, उसका घेरा आप पर न रह जाए, उसका इम्प्रिजनमेंट आपके ऊपर न रह जाए, आप उसको पार कर जाएं। तो फिर आप कमल की स्थिति में होंगे, उसके पहले नहीं हो जाएंगे।
तो इन अच्छे शब्दों में कभी खो जाने और भूल जाने जैसी बात नहीं होनी चाहिए। नहीं तो आदमी अपने को धोखा देने में बहुत होशियार है। बहुत होशियार है, उसकी होशियारी हद्द है, वह अपने को पूरे जीवन धोखा दे सकता है। अनेक जीवन धोखा दे सकता है।
तो मैं समझूंगा मेरी बात समझ में आपको पड़ी होगी।
प्रश्न:
भगवान, ध्यान के संबंध में जानकारी देते हुए ‘कृत्रिम’ शब्द का उपयोग किया था। क्या ध्यान कृत्रिम तरीके से आत्मा के पास पहुंचने का माध्यम है अर्थात वह केवल आत्मा के पास जाने का आभास है?
मैंने ‘कृत्रिम’ शब्द का प्रयोग बहुत सोच-विचार कर किया है। जैसे समझ लें, एक आदमी स्वप्न में कुछ देखे। एक आदमी स्वप्न में कुछ देखे, वह स्वप्न में जो देख रहा है वह तो झूठ है। कुछ जो देख रहा है वह आभास है। अगर आपने उसे हिला कर जगा दिया तो आभास टूट जाएगा। आभास टूट जाएगा और आभास के टूट जाने पर जो शेष रह जाएगा वह सत्य होगा।
ध्यान के माध्यम से हम किसी सत्य को नहीं पाते हैं, केवल आभास को ही तोड़ते हैं। हमने आत्मा को खोया नहीं है, हम यह समझ रहे हैं कि हमने खो दिया। यानी यह हमारी एक भ्रांति है कि हमने उसे खो दिया है। तो ध्यान आपको आत्मा को नहीं दिलाता है, केवल इस भ्रांति को तोड़ देता है।
तो जो भ्रांति झूठी है, उसे तोड़ने का उपाय उतना ही झूठा होगा। अगर सपने में किसी चीज को आप मिटाएं, तो क्या मिटाना वास्तविक कहा जाएगा। जब सपना ही असत्य था तो उसे मिटाना वास्तविक कैसे हो सकता है? यानी मेरा मतलब यह है कि ध्यान जो है वह आत्मा को पाने का उपाय है, ऐसा मत समझें; ऐसा कहा जाता है, ऐसा मैं कहता हूं, वह इस अर्थ में कह रहा हूं कि भ्रांति टूट जाएगी तो आत्मा आपको अनुभव होगी। लेकिन वस्तुतः ध्यान आत्मा को पाने का उपाय नहीं है, ध्यान केवल भ्रांति को तोड़ने का उपाय है। इसलिए मैंने उसे कृत्रिम कहा। एक भ्रांति को तोड़ने का उपाय कृत्रिम ही हो सकता है। भ्रांति को तोड़ने का उपाय वास्तविक नहीं हो सकता, क्योंकि वास्तविक चीज भ्रांति को नहीं तोड़ सकती है। वे एक ही तल की चीजें एक ही चीज को तोड़ती हैं। भ्रांति को भ्रांति ही तोड़ती है, आभास को आभास ही तोड़ देता है।
हम एक आभास में दूर निकल गए हैं कि हमको प्रतीत हो रहा है कि हम शरीर हैं। एक आभास हमने आरोपित किया है कि हम शरीर हैं। अब इस आभास को मिटाना है तो हमें यह आभास अभी करना होगा कि हम शरीर नहीं हैं। पहला आभास जितना झूठा है, दूसरा आभास भी उतना ही झूठा है। दोनों एक-दूसरे को काट देंगे और तब जो शेष रह जाएगा वह आपकी आत्मा होगी, वह आपकी वस्तुस्थिति होगी।
मेरी आप बात समझ रहे हैं? ध्यान जो है आत्मा को पाने का सीधा उपाय न होकर केवल भ्रांति के विसर्जन का उपाय है। एक भूल है उसके विसर्जन का उपाय है। अगर ध्यान से आत्मा पाई जाती हो, तो आत्मा ध्यान के खोने पर फिर खो जाएगी। अगर ध्यान से आत्मा पाई जाती हो तो वह अपनी चीज न होगी। जो चीज किसी चीज से पाई जाए वह अपनी नहीं हो सकती। वह अगर कोई उपलब्धि हो, कोई एचीवमेंट हो, तो वह अपना नहीं हो सकता है, वह स्वरूप का नहीं हो सकता है। स्वरूप का अर्थ यह है कि जिसे हमने खोया ही नहीं है। लेकिन हम एक भ्रम में, एक आभास में हैं। उस आभास को कोई तोड़ दे, तो हमें जो हमारे पास था वह दिख जाए।
इसे यूं समझें: मनुष्य को धर्म कुछ भी देता नहीं है, धर्म केवल उसके अज्ञान को छीन लेता है। समस्त योग ज्ञान-उपलब्धि का माध्यम नहीं है, अज्ञान-विसर्जन का माध्यम है। वह अज्ञान विसर्जित होता है और ज्ञान जो अज्ञान से आच्छादित था प्रकट हो जाता है, वह मौजूद है। वह मौजूद है! देखने में ऐसा ही लगेगा कि योग से हमें ज्ञान मिला। योग से ज्ञान नहीं मिला, केवल अज्ञान गया। ज्ञान मौजूद था। आच्छादित था, वह प्रकट हो गया। ज्ञान हमारा स्वरूप है। स्वरूप का अर्थ यह है: जिसके बिना हम नहीं हो सकते हैं। आत्मा हमारा स्वरूप है। उसका अर्थ है कि जिसके बिना न हम कभी थे, न कभी हम होंगे।
तो ध्यान को इसलिए मैंने कृत्रिम कहा, आर्टिफीशियल कहा। आर्टिफीशियल इसलिए कि वह एक दूसरी आर्टिफीशियलिटी को तोड़ रहा है। वह सत्य को नहीं दे रहा आपको, वह एक कृत्रिम है, दूसरे कृत्रिम को तोड़ रहा है।
विवेकानंद अमेरिका में थे। उनसे किसी ने कहा कि आप यह जो ध्यान वगैरह की बात करते हैं, यह तो एक तरह का हिप्नोटिज्म है। अभी आज सुबह ही मुझसे किसी ने कहा कि आप रात जो कहे वह तो एक तरह का हिप्नोटिज्म है। विवेकानंद ने क्या कहा? विवेकानंद ने कहा कि जरूर वह एक तरह का हिप्नोटिज्म है, लेकिन वह डी-हिप्नोटिज्म है। उन्होंने जो शब्द का प्रयोग किया: वह डी-हिप्नोटिज्म है। डी-हिप्नोसिस। उन्होंने कहा, हम एक तरह के सम्मोहन में, एक तरह के हिप्नोटिज्म में हैं। और उस हिप्नोटिज्म को, उस सम्मोहन को, उस मूर्च्छा को तोड़ने के लिए हमें एक दूसरे सम्मोहन के सिवाय कोई रास्ता नहीं है प्रयोग करने का। सम्मोहन सम्मोहन को काट देगा और तब जो शेष रह जाएगा वह हमारा सत्य होगा। आप बात समझ रहे हैं न? सम्मोहन सम्मोहन को काट देगा, एक भ्रम दूसरे भ्रम से खंडित हो जाएगा और तब जो शेष रह जाएगा वह हमारी सत्ता होगी, वह हमारी वास्तविकता होगी।
इसलिए ध्यान को वास्तविक मत समझ लेना। अन्यथा कोई ध्यान को ही पकड़ लेता है कि वही सब कुछ है। तो वह एक दूसरे भ्रम में पड़ गया, वह एक दूसरी दिक्कत में पड़ गया। ऐसे लोग हैं, जो ध्यान को उस भांति पकड़े हुए हैं।
एक साधु था, वह वर्षों से ध्यान कर रहा था। और ध्यान के पीछे पागल था और चौबीस घंटे कर रहा था, चौबीस घंटे ध्यान में लगा हुआ था। उसका गुरु आया। उसका गुरु सुना कि वह उसका शिष्य बड़े निरंतर अखंड ध्यान में लगा हुआ है। वह गया, उसने देखा। वह तो किसी से बोलता नहीं, कोई आ जाए तो उसकी तरफ देखता नहीं, कोई वहां से निकल जाए तो आंख बंद कर लेता है। वह बिलकुल खंडित नहीं होना चाहता, वह अपने ध्यान में लगा हुआ है। वह जितना वक्त मिलता है, ध्यान में। तो उसका गुरु बाहर बैठ गया, उसने एक पत्थर को लाया और उसकी देहली पर उसे घिसना शुरू कर दिया। उस पत्थर की ईंट को घिसता रहा बैठा–घंटा, दो घंटा, तीन घंटा। वह शिष्य कुछ भी नहीं बोला, वह अपने ध्यान में ही रहा, उसने इससे विघ्न नहीं माना। पर वह घिसता ही रहा, दोपहर बीत गई, वह घिसता ही रहा, सांझ आ गई। वह आखिर ध्यान करने वाला घबड़ा गया कि यह पत्थर क्यों घिसे जा रहा है उसका गुरु? सांझ को उसने उससे गुस्से में कहा कि क्षमा करिए, ये क्या पत्थर घिसे चले जा रहे हैं? क्या प्रयोजन है आपका यहां पत्थर घिसने से? सुबह से देख रहा हूं सांझ हो गई, आप पत्थर घिसे जा रहे हैं!
उसने कहा, मैं इसका एक दर्पण बनाना चाहता हूं। उसने कहा, मैं इसका एक दर्पण बनाना चाहता हूं।
वह शिष्य बोला, आप बुढ़ापे में पागल हो गए! पत्थर को घिसने से दर्पण बनेगा?
उसके गुरु ने कहा, मैं पागल नहीं हुआ हूं, केवल तुम्हें बताने आया हूं कि मन को कितने ही घिसते रहो, उससे भी आत्मा नहीं मिलेगी। मन से जागो! मन को घिसते रहो, उससे भी आत्मा नहीं मिलेगी, वह पत्थर घिसना है। मन से जागो!
तो अगर आप ध्यान को ऐसा पकड़ लें, तो वह मन के घिसने जैसा हो जाएगा। फिर उसको घिसे जा रहे हैं, उससे कुछ भी नहीं होगा। जागना है! इसलिए मैंने उसे कृत्रिम कहा। हर सीढ़ी कृत्रिम है। इसलिए कृत्रिम है कि अगर सच में ऊपर पहुंच जाना है, तो एक समय तो सीढ़ी पर पैर रखना होता है, फिर दूसरे समय उसे छोड़ देना होता है।
अभी मैं परसों यहां से गया, तो किन्हीं मित्र ने कहा कि आपने पहले तो इतना ध्यान को समझाया और फिर आपने यह कह दिया कि इसको भी छोड़ देना पड़ेगा। तो फिर पकड़ें ही क्यों? जैसे मैं आपको एक छत के किनारे कहूं कि अगर आपको छत पर जाना है तो सीढ़ी पर चढ़िए। जब आप सीढ़ी पर चढ़ कर खड़े हो जाएं, तो मैं आपसे कहूं, अब इसको छोड़िए ताकि आप ऊपर जा सकें। तो आप कहेंगे, अगर ऐसे ही इसको छोड़ना ही था तो मुझे चढ़ने को क्यों कहा? मैं नीचे ही खड़ा रहता।
सीढ़ी पहुंचा सकती है, दो काम करने पड़ेंगे। सीढ़ी पहुंचाती है, उस पर चढ़िए और उसको छोड़िए। अगर सीढ़ी पर नहीं चढ़े तो भी नहीं पहुंचेंगे, अगर सीढ़ी पर चढ़े और सीढ़ी पर ही पकड़ कर रुक गए तो भी नहीं पहुंचेंगे।
मेरी आप बात समझ रहे हैं न? सीढ़ी पहुंचाती है, तो पहुंचाने में उससे दो काम करने होंगे आपको, पहले चढ़ना और फिर उसे छोड़ देना। अन्यथा सीढ़ी दो तरह से रोक लेगी। न चढ़िए तो रोक लेगी और चढ़ कर रुक जाइए उस पर तो रोक लेगी। छत पर पहुंचने के लिए सीढ़ी पर चढ़ना जरूरी है और छत पर पहुंचने के लिए सीढ़ी को छोड़ देना जरूरी है। जो सीढ़ी पर है वह छत पर नहीं है।
तो ध्यान को मैंने कृत्रिम कहा इस वजह से कि कहीं उसे सत्य समझ कर मत पकड़ लेना। कोई माध्यम सत्य नहीं होता। उसे कृत्रिम कहा ताकि यह स्मरण रहे कि उसे शुरुआत में पकड़ लेना है और उसे फिर छोड़ देना है। उसकी सार्थकता तब है जब आप पकड़ें और छोड़ दें।
अब अनेक लोग हैं, जो इन चीजों को इस भांति पकड़ लेते हैं कि वे उनके प्राण हो जाती हैं। वे उनको पकड़ कर जिंदगी भर बिता देते हैं। उन्होंने खराब कर लिया। वे सीढ़ियां पकड़े बैठे हैं, छत पर पहुंचे नहीं। यानी मेरा कहना यह है, किसी चीज को भी जिसको आप कृत्रिम रूप से आयोजित कर रहे हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता। न ध्यान आपका स्वभाव है। ध्यान भी एक माध्यम मात्र है, आपके ऊपर जो विभाव है उसको अलग करने का। उसे पकड़ लेंगे तो बड़ी गलती हो जाएगी।
समझ लीजिए एक आदमी कुआं खोदता है और कुदाली से कुआं खोदता है। तो वह कुदाली से कुआं खोदता है, मिट्टी की पर्तें फेंकता है कुदाली से खोद कर। तो क्या आप सोचते हैं यह कुदाली जो है यही कुआं है? कि जब कुएं को खोद लेगा तो कुदाली को सिर पर रख कर घूमेगा?
कुदाली को फेंक देगा। वह तो केवल मिट्टी अलग करने का उपाय था, कुआं खोदने का नहीं, अगर बहुत ठीक से समझिए। कुदाली की वजह से पानी नहीं आया है, कुदाली की वजह से केवल मिट्टी अलग हुई है, पानी तो था। कुदाली की वजह से मिट्टी अलग हुई है, कुदाली की वजह से पानी नहीं आया है, पानी तो था। मिट्टी अलग हो गई, उसके साथ कुदाली भी फेंक देनी पड़ेगी। अगर अब आप कुदाली को पकड़ कर बैठ जाइए, तो फिर आपको पानी नहीं मिलेगा। पहले आप मिट्टी पकड़े बैठे रहे, अब कुदाली पकड़े बैठे हुए हैं।
बुद्ध ने कहा, कुछ ऐसे नासमझ हैं, नदी पर बैठ कर नाव में नदी पार करते हैं, फिर नाव को लेकर बाजार में घूमते हैं। वे कहते हैं कि इसने हमको नदी पार करवा दी। तो उन्होंने कहा, अनेक धार्मिक लोग ऐसे हैं जो धर्म को नाव न समझ कर उसको सिर का बोझ समझे हुए हैं। जिस दिन धर्म आपका छूट जाए, उस दिन समझना आप नदी पार हुए और नाव को भी वहीं छोड़ आए। नाव को कहां लिए फिरिएगा? जिसको हम साधना कहते हैं–साधना सीढ़ी की तरह है, नाव की तरह है, कुदाली की तरह है–वह व्यर्थ हो जाएगी। इसलिए मैं कह रहा हूं वह कृत्रिम है। क्योंकि वह अगर मैं वास्तविक आपसे कहूं, तो फिर उसको छोड़ा आपसे नहीं जा सकेगा।
इसे स्मरण रखिए कि जो भी आप साध रहे हैं सब कृत्रिम है। और उसकी उपयोगिता इतनी है कि आपके ऊपर जो कृत्रिम छा गया है उसे वह काट देगा। इससे ज्यादा उसकी उपयोगिता नहीं है। जिस दिन कृत्रिम छंट जाएगा उस दिन वह उतना ही फिजूल है जितना जिसको उसने काटा वह फिजूल है। उसी वक्त उसे भी छोड़ देना है। अगर वह वास्तविक मालूम हुआ और लगा कि वह पकड़े रहना है तो वह बाधा हो जाएगी। रास्ते पर चलते हैं मंजिल पर पहुंचने को; मंजिल पर पहुंच कर रास्ता फिजूल हो जाना चाहिए। अगर रास्ता उस वक्त फिजूल न हो तो आप मंजिल पर नहीं पहुंच पाएंगे। इसलिए मैंने कहा सब रास्ते कृत्रिम हैं। सब रास्ते कृत्रिम हैं। और आंतरिक जीवन के तो सारे रास्ते कृत्रिम हैं। कृत्रिम हैं कृत्रिम को काटने के लिए, ताकि कृत्रिम जब विलीन हो जाए तो जो वास्तविक है वह उपलब्ध हो जाए।
और यह तो आप समझ ही लीजिए, अज्ञान में आप जो भी करेंगे वह कृत्रिम होगा। अज्ञान में आप जो भी करेंगे, जो भी करेंगे वह कृत्रिम होगा। बस उस कृत्रिमता में दो तरह की कृत्रिमताएं हो सकती हैं। एक ऐसी जो अज्ञान को और घनी करती चली जाएं और एक ऐसी जो अज्ञान को कम कर दें।
अभी सुबह कोई मुझसे पूछता था कि आप ध्यान को कहते हैं विचार-शून्यता, तो इसमें तो विचार तो हम करते ही रहते हैं कि विचार शून्य हो रहा है या श्वास देख रहे हैं, तो यह सब विचार है।
तो मैंने उनसे कहा कि अगर यह भवन है, यह कमरा है, और इस कमरे के बाहर जाना हो, तो मैं आपको कहूंगा, कमरे के बाहर जाने के लिए कमरे के बाहर, जहां कमरा समाप्त हो जाता है, वहां पहुंच जाइए। आप कहेंगे, लेकिन अभी तो आप कहते हैं कमरे के बाहर पहुंच जाइए, लेकिन आप कहते तो हैं कमरे में चलिए।
तो कमरे में चलना दो तरह का हो सकता है। एक तो आदमी जो गोल चक्कर इसी कमरे में काटे। वह काटता रहे, काटता रहे। वह भी कमरे में चल रहा है। और एक वह आदमी जो यहां से चले और दरवाजे से बाहर निकल जाए। वह भी कमरे में चल रहा है। एक कमरे में चलना कमरे में ही बनाए रखेगा और दूसरा कमरे में चलना कमरे के बाहर ले जाएगा। कमरे के भीतर दो तरह से चला जा सकता है: चक्कर में और सीधा।
इस कृत्रिम अज्ञान के जीवन में मनुष्य दो तरह के काम कर सकता है। एक ऐसे जिनसे कृत्रिमताएं चक्कर की तरह बनी रहें और एक ऐसे जिनसे कृत्रिमताएं टूट जाएं। जब कृत्रिमता टूट जाए तो आपको पता चलेगा: ध्यान भी कृत्रिमता थी, साधना भी कृत्रिमता थी, तपश्चर्या भी कृत्रिमता थी। छोड़ा, पकड़ा, सब कृत्रिम था। जब आपको वास्तविक उपलब्ध होगा तो आपको पता चलेगा सब कृत्रिम था। लेकिन कुछ कृत्रिमताएं ऐसी थीं जो सहयोगी थीं बाहर लाने को, कुछ कृत्रिमताएं ऐसी थीं जो विरोधी थीं बाहर लाने में और अंदर ले जाती थीं।
इसलिए उसको मैंने कृत्रिम कहा है। कृत्रिम का अर्थ यह मत समझ लेना कि वह बेकार है, उसे कुछ करना नहीं है। कृत्रिम का मेरा मतलब यह है कि किसी दिन वह जब बेकार हो जाए तो उसे वास्तविक समझ कर पकड़े मत रह जाना। मगर अगर कृत्रिम से आप यह मतलब लो कि वह बेकार है, जब कृत्रिम है तो अभी से उसको क्या पकड़ना! तो फिर सब बात फिजूल हो जाएगी।
जैसा मैंने परसों कहा, हम बच्चे को सिखाते हैं: ग–गणेश का। यह बिलकुल झूठी बात है, यह बिलकुल कृत्रिम है। गणेश का ग से क्या वास्ता? और अगर कोई वास्ता है गणेश का ग से, तो गधा का भी उतना ही है। वास्ता क्या है? लेकिन हम उसे एक कृत्रिम बात सिखाते हैं: ग–गणेश का। एक कृत्रिम बात सिखाते हैं ताकि ग उसे पकड़ जाए। अगर वह उसको पकड़ ले और जब भी पढ़े कहीं, तो पहले कहे: ग–गणेश का और तब ग को पढ़े। तो आप पाएंगे इसका दिमाग खराब है। एक कृत्रिमता थी जो सहयोगी थी, वह अब इसके लिए दिक्कत हो गई है, अब यह उसको पकड़े हुए है। वह कृत्रिमता सिखाने के लिए उपयोगी थी, लेकिन सिखाते से ही छूट जानी चाहिए। इशारे छोड़ देने चाहिए जब चीज मिल जाए। इस अर्थ में उसे मैंने कृत्रिम कहा है।
इस अर्थ में नहीं कि उसे पकड़ना नहीं है, इस अर्थ में कि पकड़ लेने के बाद स्मरण रखना है कि उसे छोड़ देना है। नहीं तो ध्यान पकड़ जाएगा, वही आपकी पकड़ हो जाएगी, वही आपकी जकड़ हो जाएगी, वह धीरे-धीरे आपकी मेंटल हैबिट हो जाएगी और उसमें कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
सब छोड़ते जाना है जो पकड़ा है हमने, उस घड़ी तक पहुंचने के लिए जब वह मिल जाए जिसको हमने पकड़ा नहीं है, जो हमें पकड़े हुए है। उसको ही, जो हमें धारण किए हुए है, हमने धर्म कहा है। जिसको हम धारण कर रहे हैं, वह धर्म नहीं हो सकता। चाहे आप ध्यान कर रहे हों, चाहे मंदिर जा रहे हों, चाहे कुछ भजन कर रहे हों, चाहे कीर्तन कर रहे हों। ये तो आपने धारण किए हैं, ये धर्म नहीं हो सकते। जो आपको धारे हुए है वह धर्म है। तो जब आप अपने धारण किए हुए सारे वस्त्र छोड़ कर खड़े हो जाएंगे, उस दिन आपको उसका पता चलेगा जिसको आपने धारण नहीं किया, जो आपको निरंतर उपलब्ध रहा है, जो आपका है, जो आपका स्वरूप है।
ध्यान भी आप धारण कर रहे हैं, शांति भी आप धारण कर रहे हैं, साधना भी आप धारण कर रहे हैं, तपश्चर्या भी आप धारण कर रहे हैं। जो आप धारण कर रहे हैं वह सत्य नहीं है, वह केवल जो आपने धारण किया है उस असत्य का विरोध है। वे दोनों असत्य एक-दूसरे को खंडित कर देंगे और तब शेष जो रह जाएगा वह सार्थक होगा, वह वास्तविक होगा।
उस वास्तविक की तरफ स्मरण आपको बना रहे, इसलिए मैंने ध्यान को कृत्रिम कहा है।
प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि शास्त्रों व धार्मिक ग्रंथों का उपयोग नहीं है; और है तो ज्ञान होने के पश्चात। उसको स्पष्ट समझाइए। ज्ञान होने के पश्चात तो किसी शास्त्र की जरूरत नहीं है, ऐसी मान्यता है।
मैंने कहा परसों आपको कि ज्ञान के पूर्व शास्त्र अर्थहीन हैं। क्योंकि आप उनमें जो भी पढ़ेंगे वह आपका अपना अर्थ होगा, उनका नहीं जिनकी वाणी उन शास्त्रों में संगृहीत है। आप जो भी पढ़ेंगे, अपने को पढ़ेंगे, उन ग्रंथों को नहीं पढ़ेंगे। वह पढ़ ही नहीं सकते। उसे पढ़ने के लिए वही चैतन्य की स्थिति चाहिए, जो उस व्यक्ति की रही होगी जिससे वह वाणी निकली है।
कभी भी हम, चेतना की समान स्थिति न हो, तो एक-दूसरे को नहीं समझ पाते। इस जगत में आप इस भ्रम में होंगे कि एक-दूसरे को हम समझते हैं, तो आप गलती में हैं। हममें से कोई एक-दूसरे को नहीं समझता। सबके चैतन्य के तल इतने भिन्न हैं, अंडरस्टैंडिंग संभव ही नहीं हो पाती। हम सबके चैतन्य के स्तर इतने भिन्न हैं, हम एक-दूसरे को समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन आपको खयाल कभी आया कि कोई किसी से समझता है? कोई किसी से नहीं समझता। समझ ही नहीं सकता कोई किसी से। और समझेगा भी, तो इस भ्रम में न रहे कि उसने दूसरे को समझा, वह अपने तल पर कोई बात समझेगा।
इसलिए मैंने कहा कि अगर आप गीता पढ़ें, कुरान पढ़ें, बाइबिल पढ़ें, समयसार पढ़ें, तो आप इस भ्रम में न हों कि समयसार कुंदकुंद ने लिखा, इसलिए आप जो समझ रहे हैं वह कुंदकुंद ने कहा होगा। कुंदकुंद ने क्या लिखा, वह आप नहीं समझ सकते, जब तक कुंदकुंद की चेतना स्थिति आपके भीतर न हो। आप वही समझेंगे जो आप समझ सकते हैं। वह आपका ही समझना होगा, आपका अपना पढ़ना होगा कुंदकुंद में, कुंदकुंद का समझना नहीं या कृष्ण का समझना नहीं।
तो मैंने कहा कि आप शास्त्र समझ नहीं सकते जब तक ज्ञान न हो और जब ज्ञान आपको होगा तो आप शास्त्र समझ सकेंगे। तब यह बात भी बिलकुल सच है कि तब शास्त्र के समझने की जरूरत नहीं रहेगी कोई। जब आपको स्वयं ज्ञान उत्पन्न हुआ तो आपको शास्त्र को समझने की जरूरत क्या रह जाएगी? कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। शास्त्र को समझने की जरूरत आपके लिए बिलकुल नहीं रह जाएगी। जरूरत का कोई प्रश्न नहीं है न, आपको खुद बोध हो रहा है। लेकिन मैंने कहा, तब शास्त्र पढ़े जा सकते हैं। तब शास्त्र किसलिए पढ़े जाएंगे? तब शास्त्र केवल एक वजह से पढ़े जा सकते हैं। जो आपको उपलब्ध हुआ है वह अनेक लोगों को उपलब्ध हुआ है, आप अकेले नहीं हैं उस सीमा में, उस जगत में, उस प्रदेश में। आप अकेले नहीं हैं, आपकी अनुभूति अपनी अकेली नहीं है। अनेक लोग उस मार्ग पर गए हैं, अनेक लोगों को वह अनुभव हुआ है। उनकी जो वाणी और उनके शब्द जो उपलब्ध हैं, वे उसका इंगित देंगे। उस प्रदेश में आपका पहुंचना अकेला नहीं हुआ है, उस पर अनेक लोग पहुंचे हैं। और वे लोग जो पहुंचे हैं, उनकी गवाही में और उनकी साक्षी में आपके वचन अब होंगे।
परंपरा धर्म की ऐसे बनती है! ऐसे नहीं बनती कि आपने शास्त्र पढ़ा और बन गई। परंपरा धर्म की ऐसे बनती है कि आप गवाही देते हैं उनकी। आपका अपना ज्ञान–महावीर की, बुद्ध की और कनफ्यूशियस की गवाही हो जाता है कि ठीक है! मैंने जाना, और मैं जो जान रहा हूं, उन्होंने भी जाना। उनकी आप गवाही देते हैं। और वह गवाही मूल्यवान है। वह मूल्यवान इसलिए है कि उस गवाही के परिणाम में लाखों लोगों को एक सत्य का आभास, एक सत्य का इशारा, एक सत्य की तरफ अंगुली होनी शुरू हो जाती है।
इस तरह के गवाह हमारी सदी में कम हो गए हैं। इसलिए महावीर आपको झूठे मालूम पड़ने लगे हैं, इसलिए बुद्ध झूठे मालूम पड़ने लगे हैं। आप श्रद्धा किए चले जाते हैं, लेकिन आपको शक होने लगा है–कि पता नहीं हैं भी या नहीं!
एक ईसाई साधु ने गांधीजी के पास कुछ दिनों रहने के बाद लिखा कि पहली दफा गांधी के करीब रह कर मैंने अनुभव किया क्राइस्ट हुए होंगे। उसने लिखा: गांधी के पास रह कर मैंने पहली दफा अनुभव किया क्राइस्ट हुए होंगे, अन्यथा मुझे शक था। अन्यथा मुझे शक था। हमने सुना कि क्राइस्ट को जब सूली दी, तो उन्होंने सूली पर, जब हाथ ठोंक दिए गए उनके कीलों से तब उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की कि हे प्रभु, इन सारे लोगों को माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। हमको शक होता है कि किसी आदमी को कोई सूली देगा और वह यह बात कहेगा।
लेकिन अगर हम गांधी को जानते हैं तो गवाही मिल जाएगी कि यह बात ठीक है, इस तरह का आदमी हुआ है। और इस तरह का आदमी हुआ है, तो वे लोग जो कि अभी उस स्थिति में नहीं हैं, उनको यह संभावना फलवती होती है कि हमारे भीतर भी उस तरह की घटना घट सकती है। एक सत्य की संभावना, एक बीज की संभावना फलवती होती है, और कुछ नहीं होता।
तो जो ज्ञान को उपलब्ध होता है वह शास्त्रों को केवल इस अर्थ में देख सकता है कि वह गवाही दे सके अपने पीछे की परंपरा की, कि जो हम कहते रहे हैं परंपरा से वह असत्य नहीं है, जो हम जानते रहे हैं परंपरा से वह असत्य नहीं है। वह गवाही दे सके, वह साक्षी हो सके अनंत पीछे की परंपरा का। वह वापस उस परंपरा को पुनरुज्जीवन दे सके। वह पुनरुज्जीवित परंपरा उसमें हो जाएगी। जब वह ज्ञान को उपलब्ध होगा, अगर वह महावीर की वाणी से परिचित हुआ, तो उस ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के माध्यम से वहां महावीर की वाणी फिर से जीवित हो जाएगी। और वह जीवन अर्थपूर्ण होगा। और वह जीवन शास्त्र और आगम को जानने का अर्थ होगा।
तो मैंने कहा, आगम को तो नहीं जाना जा सकता, शास्त्र को तो नहीं जाना जा सकता अज्ञान में। ज्ञान में जाना जा सकता है। लेकिन ज्ञान में उसके अपने लिए तो कोई शास्त्र जानने का उपयोग न होगा, लेकिन दूसरों के लिए, जो निकट हैं, चारों तरफ घिरे हैं, उनके लिए वह गवाही और साक्षी हो जाएगा। उपयोगिता शास्त्र की साक्षी की तरह है। उपयोगिता शास्त्र की अध्ययन की तरह नहीं है।
मेरी बात आप समझेंगे तो समझ में आएगा कि हम जितने साक्षी कम होते चले जाते हैं, उतना हमारी परंपरा खंडित, धूमिल और धुंधली होती चली जाती है।
आपको पक्का विश्वास सच में आता है कि महावीर हुए हैं? आपको सच में विश्वास आता है कि महावीर हुए हैं? आप अपने भीतर बहुत तलाश करेंगे तो आपको शक मिलेगा। शक मिलेगा यह कि ऐसा आदमी कैसे हो सकता है? कि लोग उसको मारते हों, पीटते हों, कि लोग उसके कानों में कीलें ठोंकते हों और उसको कुछ भी न होता हो! आप जरा अपने पर विचार करें तो आपको पता लगेगा या तो महावीर असत्य हैं या आप असत्य हैं। यानी आपके कानों में कोई कीलें ठोंकता है और मारता है और आपको कुछ भी नहीं होता? आपको लगेगा–यह कैसे होगा?
तो अब दो ही रास्ते हैं महावीर को असत्य करने के। एक रास्ता तो यह कि कह दें कि वे भगवान थे। यह भी असत्य करने का रास्ता है उनको। कि वे सामान्य आदमी नहीं थे, इसलिए नहीं होता होगा। या कह दें कि उनकी काया बहुत विशिष्ट तरह की थी, तीर्थंकरों की काया बहुत दूसरे ढंग की होती है, उस पर चोट ही नहीं लगती। वह लोह-काया थी या कुछ और थी काया। यूं ये तरकीबें हैं असत्य करने की। आप उनको सामान्य आदमी नहीं मान पाते। और सामान्य नहीं मान पाते…
एक तो रास्ता यह है कि कह दें कि भगवान हैं, कह दें कि तीर्थंकर हैं, कह दें कि अवतार हैं, कह दें कि उनकी विशेष काया है, ये एक तरकीबें हैं असत्य करने की। दूसरी तरकीबें ये हैं कि कह दें कि वे ऐतिहासिक पुरुष ही नहीं हैं, ये सब कल्पनाएं हैं, ये सब कहानियां हैं। ये दो तरह की बातें हैं। एक तरह से धार्मिक आदमी असत्य करता है, दूसरी तरह से अधार्मिक आदमी उनको असत्य करता है। ये दोनों असत्य कर रहे हैं। लेकिन आपको बिलकुल अगर ऐसा लगता हो कि बिलकुल हमारे जैसे हड्डी-मांस के आदमी थे, तो आपको शक होगा। यह शक आपका तभी मिट सकता है जब कि कुछ लोग जो आपकी सदी में जीवित हैं, जिंदा हैं, हड्डी-मांस के हैं और गवाही दे दें, साक्षी दे दें अपने जीवन से। तो आपको यह शक मिट सकता है। यानी धर्म कभी एक दफा पैदा होकर समाप्त हो गया, ऐसा नहीं है, उसे बार-बार पुनरुज्जीवित होना पड़ता है अलग-अलग लोगों में। तब वह स्पष्ट होता है, तब वह ज्ञात होता है, तब वह जीवित होता है।
तो ज्ञान के बाद शास्त्र का उपयोग केवल एक है कि वह आदमी यह कह सके कि जो मैं कह रहा हूं, जो मैं जान रहा हूं, जो शब्द मैं दे रहा हूं, वे शब्द पहले भी दिए गए हैं, वे शब्द पहले भी कहे गए हैं। और अगर आप पढ़ेंगे वाणी, तो महावीर यह नहीं कहते कि मैं जान रहा हूं; महावीर कहते हैं, जो पहले भी जाना गया है वह मैं जान रहा हूं। कृष्ण कहते हैं, जो पहले भी कहा गया है वह मैं कह रहा हूं। बुद्ध कहते हैं, अनंत बुद्धों ने जो कहा है वह मैं कह रहा हूं। वे सारे लोग यह कहते हैं कि जो पहले कहा गया है…। अगर उपनिषद पढ़ते हैं तो आप उसमें बार-बार पाएंगे कि वे कहते हैं, जो पहले जाना गया, जो सनातन से जाना गया वह हम कह रहे हैं।
वह उसके कहने में अर्थ है। वे पूरी परंपरा को अपने माध्यम से पुनरुज्जीवित कर रहे हैं। और अपने माध्यम से आपको वे उन अनंत जाग्रत पुरुषों से संयुक्त कर रहे हैं जो पीछे हुए और जो अब आपके लिए धूमिल हो गए हैं।
यह तो उपयोग है, वैसे उसके अपने लिए कोई उपयोग नहीं है। वह उपयोग आपके लिए है। शास्त्र मुर्दा है, उसके माध्यम से वह जीवित हो जाएगा। और जो शास्त्र आपको नहीं कह पाया, नहीं समझा पाया, वह उस जीवित व्यक्ति के माध्यम से आपको प्रतीत होगा।
यह आप समझते हैं न? महावीर की वाणी समझना एक बात है और महावीर के सान्निध्य में होना बिलकुल दूसरी बात है। जो वाणी नहीं कह पाती वह सान्निध्य कह पाता है, क्योंकि सान्निध्य कुछ और दिखा देता है जो वाणी कभी नहीं दिखा सकती।
बुद्ध जब पहली दफा ज्ञान को उपलब्ध हुए तो वे काशी आए। वे काशी के बाहर एक दरख्त के नीचे ठहरे हुए थे। तब उन्हें कोई भी नहीं जानता था, कोई पहचानता नहीं था। वे एक अदना, अनजान, अपरिचित भिखमंगे थे, भिक्षु थे। काशी का नरेश सांझ को बहुत परेशान, चिंतित था, वह अपने रथ पर हवाखोरी को निकला था। वह जब गांव के बाहर गया, सूरज की रश्मियां ढलती थीं, बुद्ध एक दरख्त से टिके हुए बैठे थे, उनके चेहरे पर सूरज का प्रकाश पड़ता था। उसने अपने सारथी को कहा, रोको-रोको! यह आदमी तो कुछ अदभुत है। इतना प्रकाशोज्ज्वल, इतना शांत! इतने संगीत से, इतने आनंद से भरी आंख तो मैंने कभी देखी नहीं! उसने कहा, रोको, थोड़ा इसके पास हो लें।
जैसे आप किसी फूल से भरे हुए गंध के बगीचे के करीब से निकलें और आपका मन हो कि थोड़ा इसमें ठहर जाएं। और जैसे आप धूप से तपे हुए निकलें और किसी बड़े बरगद की छाया के नीचे आपका मन हो जाए कि थोड़ी देर इसके पास ठहर जाएं। वैसा उस राजा को हुआ कि इस आदमी के पास थोड़ा रुक लें, वह एक चिंता से विदग्ध था।
वह बुद्ध के पास गया और उसने कहा कि मैं इतनी चिंता से भरा हूं और मेरे पास सब कुछ है, और तुम्हारे पास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता, तुम इतनी शांति से, इतने आनंद से बैठे हो! क्या मैं पूछूं यह कैसे संभव हुआ? मेरे पास सब कुछ है और मैं तीन दिन से चिंता करता हूं कि आत्मघात कर लूं। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता और तुम इतने निश्चिंत बैठे हो कि अनंत जन्मों तक भी अगर तुम्हें जीना पड़े, तुम ऐसे ही बैठे जीते रहोगे। और मुझे तो भार हो गया है जीना और खत्म करना चाहता हूं अपने को।
बुद्ध ने कहा, एक दिन मेरे पास भी सब कुछ था, लेकिन मेरे भीतर कुछ नहीं था। आज मेरे भीतर कुछ है, बाहर मेरे पास कुछ भी नहीं है। जो मैंने भीतर पा लिया है उससे मैंने जो खोया, वह बिलकुल नहीं खोया, मैंने सभी पा लिया है। एक दिन मैं तुम्हारी हालत में था, आज मैं इस हालत में हूं। अभी तुम इस हालत में हो, कल चाहो तो इस हालत में हो सकते हो।
उसने एक क्षण बुद्ध को देखा। वे जो कह रहे थे उसकी गवाही थी, वे जो कह रहे थे उसके वे स्वयं साक्षी थे। उसने सारथी को पास बुलाया, अपना मुकुट उसको वापस दिया, अपने कपड़े उतार कर दे दिए, उससे कहा, घर सूचना करना कि मैं कुछ और बड़ी संपत्ति की खोज में निकल गया हूं।
बुद्ध ने कहा था क्या कुछ? वह तो अपने रास्ते जाता था। बुद्ध ने बुलाया था क्या कुछ? वह तो अपने रास्ते जाता था। बुद्ध ने कोई आवाज दी थी कि सुनो, कि मैं कुछ समझाऊं? उसने बुद्ध को देखा और वह कुछ समझा।
शास्त्र जो नहीं कह पाते वह सान्निध्य कह देता है। इसलिए जीवित सत्य जब किसी व्यक्ति को उपलब्ध होता है, उसके आसपास जो लोग उसके जीवन की प्रेरणा से खड़े होते हैं, उनमें तो वास्तविक धर्म होता है। उसके मरने के बाद उसकी वाणी के कारण जो खड़े होते हैं, वे मुर्दा धर्म होते हैं। फिर धर्म मर जाता है, फिर उसमें प्राण नहीं रह जाते। फिर वह शब्द-आधारित होता है, फिर वह सत्य-आधारित नहीं होता। सत्य का अनुभव उसके जीवन के सान्निध्य में संभव हो पाता है।
तो मैं शास्त्र का कोई उपयोग साधारण के लिए तो नहीं मानता, बल्कि घातक मानता हूं, उसको नुकसान पहुंच सकता है, लाभ तो नहीं हो सकता। शास्त्र तो बड़ी वसीयत है, इस अर्थ में वसीयत है कि जब आप जानेंगे तब आप पहचानेंगे कि उस सीमा में, उस प्रदेश में आप अकेले नहीं हैं। और तब आप पहचानेंगे कि आप किसी निर्जन वन में नहीं प्रविष्ट कर गए हैं। आपके पहले बहुत जीवित और जागते हुए लोगों की परंपरा है और उनके चरण-चिह्न आपको पहचान में आ जाएंगे। शास्त्र उनके चरण-चिह्नों को पहचानने के उपाय से ज्यादा नहीं है। पर यह आप शास्त्र पढ़ कर नहीं समझ सकते, यह आप स्वयं को पढ़ कर समझ सकते हैं, स्वयं में उतर कर समझ सकते हैं।
किसी को लग सकता है कि मेरी शास्त्रों के प्रति बड़ी श्रद्धा नहीं है। किसी को लग सकता है कि मैं आपको शास्त्रों के विरोध में ले जाने की बात कर रहा हूं।
मैं आपको शास्त्रों के विरोध में इसलिए ले जाना चाहता हूं कि आप किसी दिन उस जगह पहुंच जाएं जहां से शास्त्र पैदा होते हैं, जहां शास्त्र बनते हैं। उस चेतना में पहुंच जाएं जहां शास्त्रों का जन्म होता है। और तब आप शास्त्रों को समझ पाएंगे, उसके पहले नहीं समझ पाएंगे। मेरी श्रद्धा बहुत प्रगाढ़ है। वह आप जैसी श्रद्धा नहीं है, मेरी श्रद्धा बहुत प्रगाढ़ है। और उस श्रद्धा के कारण ही आपसे कहता हूं कि शास्त्रों पर बिलकुल श्रद्धा न करें, स्वयं पर श्रद्धा करें। उसके माध्यम से किसी दिन आप उस जगह पहुंचेंगे जहां शास्त्रों का जन्म हो जाता है। आप शास्त्रों के पढ़ने वाले ही न बने रहें, उनके जन्मदाता बनें।…यह संभव है।
प्रश्न:
भगवान, आत्मा का दर्शन कौन करता है? स्व का दर्शन स्व कैसे करेगा?
यह मूल्यवान है। यह बात खयाल में आनी बड़ी जरूरी है कि जब हम कहते हैं, आत्मा का दर्शन होता है, तो दर्शन कौन करेगा?
दर्शन में तो दो की जरूरत है। दर्शन में दो की जरूरत है–जो देखे उसकी और जो दिखाई पड़े उसकी। तो जब हम कहते हैं आत्मा का दर्शन, तो वहां कौन देखेगा और किसको देखेगा? वहां तो एक ही होगा न। जो देख रहा है, वही होगा। तो दिखाई कौन पड़ेगा? तो फिर दर्शन कैसे होगा?
यह बात बड़ी अर्थ की है। सच में ही दर्शन शब्द झूठा है। असल में हमारे सब शब्द झूठे हैं, क्योंकि वे दो के लिए बने हैं। ज्ञान कहें तो भी झूठा है, क्योंकि ज्ञान में भी दो चाहिए–जिसका ज्ञान हो और जिसको ज्ञान हो। दर्शन कहें तो भी दो चाहिए–जिसका दर्शन हो और जिसको दर्शन हो। अनुभव कहें तो भी दो चाहिए–जिसको अनुभव हो और जिसका अनुभव हो। हमारे सारे शब्द दो के लिए बने हैं, क्योंकि हमारा पूरा संसार दो से बना हुआ है। और वहां अकेला रह जाएगा। तो इस दो के लिए बनी हुई जो भी भाषा है वह वहां बिलकुल ही अपर्याप्त है। बिलकुल अपर्याप्त है। इसलिए अगर बिलकुल ठीक उसके संबंध में कुछ कहना हो, तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। उस आत्म-अनुभव के लिए अगर बिलकुल ठीक से कुछ कहना हो, तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि हमारे सब शब्द अधूरे पड़ जाएंगे और झूठे पड़ जाएंगे। कोई भी शब्द उसे पूरी तरह प्रकट नहीं करेगा। इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा कि उस संबंध में हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं। फिर, कह तो नहीं सकते, उस तरफ इशारा कैसे करें? तो इन्हीं शब्दों से काम चलाने की कोशिश करते हैं और इन्हीं शब्दों में उस बात को रखने की कोशिश करते हैं जो कि नहीं कही जा सकती।
तो उसको हम दर्शन कहते हैं, इस शर्त के साथ कि वहां कोई दृश्य नहीं है। इस शर्त के साथ हम उसको दर्शन कहते हैं, वहां कोई दृश्य नहीं है, वहां केवल द्रष्टामात्र रह गया है। और वह द्रष्टामात्र किसी को देख नहीं रहा, क्योंकि देखेगा वहां कौन? वह द्रष्टामात्र किसी को भी नहीं देख रहा है। तो उसे कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। वहां वह अकेला जो शेष रह गया है। तो वह जो उसकी दर्शन की क्षमता थी, वह जो देखने की क्षमता थी, वह जो जानने की क्षमता थी, वह जो बोध की क्षमता थी, वह जो अनुभव की क्षमता थी, वह क्षमता तो मौजूद है, वह कहीं गई नहीं। वह क्षमता अब किसी को भी नहीं जान रही है। इस घड़ी में उसके भीतर क्या होगा?
समझ लें यहां एक दीया जले। दीया जले तो दीये का प्रकाश पड़ेगा दीवालों पर, दीवालें दिखाई पड़ेंगी। दरख्तों पर, तो दरख्त दिखाई पड़ेंगे। लेकिन क्या आप सोचते हैं–दरख्त और दीवालें न रह जाएं तो दीया बुझ जाएगा? एक दीया यहां जले, उसका प्रकाश पड़े दीवालों पर, तो दीवालें दिखाई पड़ेंगी। दरख्तों पर पड़े, तो दरख्त दिखाई पड़ेंगे। लेकिन आप कल्पना करें कि दरख्त और दीवालें नहीं रह गईं, तो क्या दीया बुझ जाएगा? क्या दीया इसलिए जलता था कि दरख्त हैं और दीवालें हैं। दरख्तों के, दीवालों के होने से दीये के जलने का क्या वास्ता? दरख्त और दीवालें थीं तो दीये के प्रकाश में दिखाई पड़ती थीं, अगर वे न होंगी तो क्या होगा? दीया अकेला जलेगा। वह किसी को प्रकाशित नहीं करेगा, बस केवल प्रकाशित रह जाएगा। कोई उसमें दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन अंधेरा थोड़े ही हो जाएगा। यह आप फर्क समझ रहे हैं न? कोई दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन अंधेरा थोड़े ही हो जाएगा, दीया जलेगा। अब इस दीये के जलने में जब कोई प्रकाशित नहीं हो रहा, तो क्या होगा? दीया अकेला प्रकाशित होता रहेगा। यानी जब कोई प्रकाशित नहीं हो रहा तब भी दीया तो प्रकाशित होता ही रहेगा।
उस दीये का जो प्रकाशन है, वैसे ही, आत्मा जब किसी को नहीं जानती, तब वह केवल अपने को ही जानती रह जाती है। यह जानना शब्द बहुत ठीक नहीं है। कोई शब्द ठीक नहीं है। लेकिन बस वह अकेली अपने को ही प्रकाशित करती रह जाती है। इसलिए हम उसे स्व-पर-प्रकाशक कहते हैं। उससे दूसरे पर प्रकाश पड़ता है, दूसरी चीजें देखी जाती हैं; जब कोई चीज मौजूद नहीं रह जाती तो वह स्वयं को जानती है। स्वयं को जानने का मतलब आप समझ लेना। जानना उस अर्थ में नहीं जैसे हम दूसरी चीजों को जानते हैं। जानना इस अर्थ में कि जब कुछ भी जानने को नहीं रह जाता, तो भी ज्ञान तो जलता रह ही जाता है। वह ज्ञान का दीया तो बना ही रह जाता है।
उस अनुभव को, उस प्रतीति को, उस साक्षात को जो भी शब्द आप देना चाहें दे सकते हैं। सब शब्द झूठे हैं, एक सुविधा यह है। इसलिए कोई भी शब्द दे दें, कोई दिक्कत नहीं है। उसे कोई साक्षात कहता है, कोई उसे अनुभव कहता है, कोई उसे दर्शन कहता है, कोई प्रतीति कहता है, कोई प्रत्यक्ष कहता है। कोई भी शब्द दे दें, उन सब शब्दों में एक समानता है कम से कम कि वे सब झूठे हैं, वे कामचलाऊ हैं, वे इशारा करते हैं। और इसलिए उनमें कोई झंझट नहीं, कोई शब्द आप दे सकते हैं। एक ही सुविधा है कि वे सब झूठे हैं, यह उनमें समानता है। सारे धर्मों ने जो इशारे किए हैं वे सब इशारे इस अर्थ में झूठे हैं, क्योंकि वे शब्दों में किए गए हैं। और कोई शब्द उसे ठीक से प्रकट करने में समर्थ नहीं है। लेकिन आप समझ सकते हैं, इशारा समझ सकते हैं। शब्द को पकड़ लें तो नहीं समझ पाएंगे, अगर शब्द के इशारे को समझ लें तो शब्द पीछे छूट जाएगा और इशारा समझ जाएंगे।
इसलिए सारा धर्म जो है वह सिंबालिक है, प्रतीकात्मक है। और उसकी बात सब पैरेबेल्स में, कथाओं में और कहानियों में कही गई है। उसको सीधे-सीधे कहने का कोई भी उपाय नहीं है।
अब जैसे मैंने यही कहा, यह एक प्रतीक हुआ: एक दीया जलता है, चीजें दिखाई पड़ती हैं। फिर चीजें मौजूद नहीं हैं तो दीये का क्या होगा? दीया जलेगा। तब सिर्फ दीया ही दिखाई पड़ेगा वहां। और कुछ नहीं होगा। उसी भांति आत्मा दूसरों को जानती है। जब वह किसी को भी नहीं जानेगी, तब उसके जानने का क्या होगा? वह जानने का दीया जलता रहेगा। वह जानने के दीये का जो अनुभव होगा उसके लिए कोई शब्द रास्ता नहीं है कहने का। लेकिन कुछ होगा जो बहुत अभूतपूर्व है। क्योंकि जो दूसरे को जान सकता था, यह असंभव है कि वह अपने को न जान सकता हो। जो दूसरे को जान सकता था, यह असंभव है कि वह अपने को न जान सकता हो। जो दूसरे को देखता था, यह असंभव है कि वह स्वयं को न देख सकता हो। क्योंकि जो स्वयं को न जान सकता हो वह दूसरे को जान ही कैसे सकता है?
इसलिए उस क्षण घटना घटेगी एक ऐसे ज्ञान की जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय एक होगा, दो नहीं होंगे। एक ऐसे दर्शन की जहां देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला एक होगा और दो नहीं होंगे। उस घड़ी में, उस घड़ी में कोई शब्द नहीं है–साक्षात है। उस घड़ी में कोई शब्द नहीं है–अनुभूति है।
इसलिए, अभी मुझसे एक और प्रश्न पूछा–आत्मा क्या है?
तो मैं समझता हूं इसमें उसका उत्तर भी होगा। उसे कहने का कोई उपाय नहीं है। जो भी कहा जा सके वह आत्मा नहीं होगा। वह केवल इशारा होगा। उसे जाना जा सकता है, कहा नहीं जा सकता है। और आप जान लेंगे, तो जिन्होंने कहा है उनके इशारे आपकी समझ में आ जाएंगे। और आप नहीं जानेंगे, तो उनके शब्द आपकी पकड़ में होंगे, उनसे कुछ जानना नहीं होगा।
एक प्रश्न और है:
क्या यह सच है कि ब्रह्म को जानना ब्रह्म हो जाना है?
मैं समझता हूं आपको समझ में आया होगा। उसे बिना हुए नहीं जाना जा सकता। वही एक तत्व है जिसे बिना हुए नहीं जाना जा सकता। ज्ञान और हो जाना वहां एक ही बात है। वहां होने में और ज्ञान में फासला नहीं हो सकता है।
एक प्रश्न है:
आत्म-ज्ञान पाना मुश्किल नहीं है तो वह ज्ञान बहुत कम लोगों ने क्यों पाया? सामान्य व्यक्ति उसे क्यों नहीं पा सकता है?
आत्मा को पाना तो सरल है, इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे सभी लोग पा लेंगे। आत्मा को पाना सरल है, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि जो भी पाना चाहते हैं वे अवश्य पा लेंगे। जब तक हम पाना नहीं चाहते तब तक हमारे ऊपर उस ज्ञान को कोई थोपेगा नहीं। हम सामान्यतया कुछ और पाना चाहते हैं। हम सारी चीजें पाना चाहते हैं और इसलिए उनको पाने में लगे रहते हैं और आत्मा को नहीं पा सकते हैं। लेकिन जो उस दिशा में चलेगा वह अवश्य पा लेता है। सरल का मतलब इतना है कि जो उस दिशा में चलेगा, जो उन्मुख होगा, कठिन नहीं है, असंभव नहीं है। और जिन थोड़े से लोगों ने पाया, वे इस बात की गवाही हैं कि कोई दूसरा आदमी पा सकता है। इस जमीन पर अगर एक भी आदमी ने कभी आत्मा पाई है तो कोई भी दूसरा आदमी पा सकता है। क्योंकि दो आदमियों की शक्ति में, सामर्थ्य में, कितना ही भेद हो, बहुत भेद नहीं है। और उस सत्य को पाने के लिए कोई भी भेद नहीं है, क्योंकि वह समान रूप से सबको उपलब्ध है।
सरलता का मतलब यह है, वह पाई जा सकती है, वह संभावना है, वह सरल संभावना है। नहीं पाते अधिक लोग, यह बिलकुल दूसरी बात है। रात को चांद निकलता है, मैं नहीं समझता कितने लोग देखते हैं? रात को रोज चांद निकलता है, कितने लोग देखते हैं, यह मैं नहीं समझता। लेकिन चांद को देखना कठिन नहीं है। अब अगर आप यह कहें कि चांद को देखना जरूर कठिन होगा, क्योंकि पांच लाख लोग रहते हैं एक गांव में तो पांच भी तो नहीं देखते, तो मैं आपको क्या कहूंगा? मैं कहूंगा, चांद को देखना तो सरल है, अब यह बिलकुल दूसरी बात है कि आप कुछ और देख रहे हैं और नहीं देखना चाहते, न देखें।
कल हम झील पर गए, वहां झील पर बैठे थे। अब जरूरी नहीं है कि झील पर हम बैठे थे तो हमने झील देखी हो। हममें बहुत थे जिन्होंने झील नहीं देखी। जो झील पर थे, लेकिन झील को नहीं देखा। जो बिलकुल झील पर खड़े थे, लेकिन झील को नहीं देखा। मैंने देखा वे वहां भी बात कर रहे हैं, वे वहां भी चिंतन में लगे हैं, वे वहां भी कुछ चर्चा में लगे हुए हैं, वे वहां हैं ही नहीं, वे बंबई में हैं या कहीं और हैं।
तो अब झील को देखना कठिन तो बिलकुल नहीं था, उस झील के बिलकुल किनारे खड़े थे, लेकिन वे वहां मौजूद ही नहीं थे, वे कहीं और थे। उन्होंने झील को नहीं देखा।
एक मेरे मित्र थे, उनको लेकर एक जगह दिखाने गया। नाव में यात्रा की। वे स्विटजरलैंड की बातें करते रहे। वे स्विटजरलैंड रहे कुछ दिन, वहां की झीलों की बात करते रहे, मैं सुनता रहा। फिर कश्मीर की झीलों की बात करते रहे, वह भी मैं सुनता रहा। उस झील पर जिस पर हम थे, उन्होंने उसको बिलकुल नहीं देखा। फिर लौटने लगे, रास्ते में मुझसे बोले, बड़ी सुंदर झील थी।
मैंने कहा, अभी तक मैं आपसे कुछ नहीं बोला, लेकिन अब इस झूठ को आप न बोलें तो अच्छा। वह झील सुंदर थी या नहीं थी, इससे आपको क्या मतलब? आपने उसे देखा भी नहीं। आप वहां थे ही नहीं! आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे उस वक्त, कश्मीर में रहे होंगे, यह हो सकता है। उस झील पर नहीं थे जहां मैं आपके साथ था, आप मेरे पास नहीं थे। जिस नाव पर हम बैठे थे उस पर आप बिलकुल नहीं थे। वहां आप अनुपस्थित थे। और तब मैं अब यह भी जानता हूं कि जब आप स्विटजरलैंड की झीलों में रहे होंगे तो वहां भी आप उपस्थित नहीं रहे होंगे। और मैं यह भी जानता हूं कि जब आप कश्मीर की झीलों में रहे होंगे, वहां भी उपस्थित नहीं रहे होंगे। आप ही तो थे मेरे साथ अभी। तो आप कृपा करके, इस झील में आपका साथ देख कर मैं जान गया हूं कि उन झीलों के बाबत भी आपकी जो राय है वह झूठी होगी। आपने उनको देखा नहीं।
देखना तो बड़ी सरल बात थी, लेकिन देख कम ही लोग पाएंगे। और उसका कारण यह नहीं है कि बात कठिन है इसलिए कम लोग देख पाएंगे; उन्होंने देखना ही नहीं चाहा, वे कहीं और ही देखते रहे।
सच में आप अगर देखना चाहते हैं तो कठिनाई बिलकुल नहीं है। अगर पूरी तरह देखना चाहते हैं तो इसी क्षण देखना हो जाएगा। क्योंकि रोकने को कौन है वहां सिवाय आपके? वहां कोई है ही नहीं। यानी कोई चीजें ऐसी होती हैं जिनको पाने में कोई फासला तय करना होता है। अब अगर मुझे बंबई जाना है तो इसी क्षण नहीं जा सकता, बीच में टाइम गिरेगा। लेकिन मुझे अपने को जानना है तो इसमें तो टाइम के गिरने की कोई वजह नहीं है, क्योंकि मैं वहां मौजूद हूं। अगर मैं परिपूर्ण प्रगाढ़ता में जानना चाहता हूं तो इसी क्षण जान सकता हूं।
लेकिन हम जानना कब चाहते हैं! आप इस भ्रम में पड़ जाते होंगे अक्सर कि हम आत्मा को जानना चाहते हैं। आप जानना आत्मा को बिलकुल नहीं चाहते।
मैं एक जगह था। एक साधु वहां लोगों को समझाते थे कि तुम्हारे पास यह जो संपत्ति है, यह सब एक दिन मौत आएगी, तुमसे छिन जाएगी। इसमें कोई सार नहीं है, यह तो मरने के पहले सब छिन जाएगी, नश्वर है। तो तुम आत्मा को जरूर जान लो, वह तुम्हारे साथ रहेगी। तब उनके भक्त जो सुने होंगे, अगर वे आत्मा को जानना चाहें तो आप सोचते हैं वे आत्मा को जानना चाहते हैं? बिलकुल भी नहीं। वे एक ऐसी संपत्ति चाहते हैं जो मरने के बाद भी साथ रहे। वे उसी संपत्ति को जिसे वे जिंदगी भर इकट्ठा करते रहे हैं, उसी तरह की कोई स्थायी संपत्ति चाहते हैं जो मरने के बाद भी साथ चली जाए। वे आत्मा को नहीं जानना चाहते हैं। आप साधुओं को समझाते हुए सुनेंगे: आत्मा अमर है। आपके मन में होता है आत्मा को जानें। इसलिए नहीं कि आप आत्मा को जानना चाहते हैं; केवल इसलिए कि आप मौत से डरते हैं। आप मृत्यु से डरे हुए हैं और चाहते हैं कि कोई ऐसी तरकीब हो कि मरें न। शरीर का बहुत उपाय करेंगे, लेकिन आखिर में जानते हैं कि वह मर जाएगा, रोज उसको मरते देखते हैं, फिर भी उपाय जारी रखेंगे। लेकिन एक यह भी आखिर-आखिर में लगेगा कि यह आत्मा भी जान ही लो, कम से कम इससे मरना बच जाएगा।
आप आत्मा को नहीं जानना चाहते हैं, आप मृत्यु से डरते हैं केवल। और उस डर से आपमें आत्मा की चाह पैदा होती है, वह वास्तविक नहीं है, झूठी है। वास्तविक चाह मौत से बचने की है। और आत्मा को वह जानेगा जो मरने को राजी हो। अब यह दिक्कत है। आपकी जो आत्मा को जानने की चाह है, मौत के भय से उठी है। और आत्मा को वह जानेगा जो मरने को राजी हो। और आपमें इसलिए चाह उठी है कि यह संपत्ति यहीं चूक जाएगी।
मैं उनके साधु के बाद ही बोलता था, तो मैंने कहा, अगर समझ लीजिए यह संपत्ति आपके साथ जा सके, तो फिर आपको आत्मा की कोई जरूरत है? तो आप कहेंगे, फिर क्या जरूरत है! और अगर मैं आपको कहूं कि आपका शरीर अमर हो सके, आप में से कोई आत्मा को चाहता है? आप कहेंगे, फिर फिजूल, कौन बकवास करे।
यानी आप असली में चाहते क्या हैं? आप संपत्ति…यह संपत्ति आपको काफी नहीं लगती। जो कम लोभी हैं वे बेचारे इसी संपत्ति में तृप्त हो जाते हैं। जो ज्यादा लोभी हैं वे ऐसी संपत्ति चाहते हैं कि साथ चली जाए। जो बेचारे कम मौत से डरे हैं वे इसी शरीर पर तृप्त हो जाते हैं। जो मौत से ज्यादा डरे हैं वे आत्मा को भी पाना चाहते हैं। आत्मा से आपका कोई मतलब नहीं है।
तो जितनी आकांक्षा दिखती है लोगों में आत्मा को जानने की, यह आत्मा को जानने की नहीं है। इसे समझ लें ठीक से। यह किन्हीं और चीजों से एस्केप है, पलायन है। आप सत्य के जिज्ञासु नहीं हैं, आप केवल सुरक्षा के खोजी हैं। एक सिक्योरिटी खोज रहे हैं। आत्मा हमें मिल जाएगी तो अच्छा होगा। वही आदमी जो बैंक बैलेंस में सिक्योरिटी खोजता था, वही आदमी पुण्य में खोज रहा है। कोई भेद नहीं है। जो सोचता था बहुत धन वहां जमा होगा तो ठीक रहेगा। वह इससे भी डरा हुआ है कि कुछ पुण्य भी जमा हो, वहां कुछ दिक्कत न हो। वह वही आदमी जो बैंक में पैसा जमा करता था, वही आदमी पुण्य के खाते में भी पुण्य जमा करना चाहता है। यह वही आदमी है, इसमें कोई फर्क नहीं है, यह बिलकुल वही आदमी है। और यह वही वृत्ति है, इसमें कोई भेद नहीं है। आत्मा को जानने से इसका कोई मतलब नहीं है।
आत्मा को जानना आपके इन कारणों से नहीं होता; आत्मा को जानने की प्यास किसी और ही दूसरी वजह से पैदा होती है। वह आपकी सुरक्षा और बचाव नहीं है। वह आपका इस बात का बोध कि जो कुछ भी मेरे चारों तरफ है, जिस दिन आपको यह बोध होता है कि मेरे चारों तरफ जो कुछ है और जो कुछ मैं कर रहा हूं वह बिलकुल ही अर्थहीन है। उसमें आपको कहीं कोई सार्थकता नहीं दिखाई पड़ती। चौबीस घंटे का, जन्म से लेकर मृत्यु तक का जीवन जब आपको बिलकुल व्यर्थ दिखाई पड़ता है, जब आपको उसमें कोई सार्थकता नहीं दिखाई पड़ती। तो उस व्यर्थता के बीच, जब यह सब दुख दिखाई पड़ता है और इस दुख के बीच, और जब यह सब संताप दिखाई पड़ता है, इस संताप के बीच आपके भीतर ऐसा होता है कि या तो मैं इस जीवन को समाप्त कर दूं जो कि बिलकुल व्यर्थ है और या फिर उसको जान लूं जिसमें कोई सार्थकता हो। जो आदमी जीवन में घबड़ा कर उस सीमा पर पहुंच गया हो जहां आत्मघात कर सकता हो, वह आदमी केवल आत्मसाधना में लग सकता है। यानी उस बिंदु पर जहां सुसाइड होता है, उसी बिंदु पर साधना भी शुरू होती है। उसी बिंदु पर, जहां आदमी इतनी ज्यादा अर्थहीनता अनुभव करता है कि सब व्यर्थ है और उसे ऐसा लगता है कि इस जीवन में कोई भी अर्थ नहीं, उस क्षण वह आत्मसाधना में संलग्न हो सकता है। उस वक्त उसमें एक प्यास पैदा होती है कि वह जान ले कि अगर भीतर कुछ और है जिसमें कोई अर्थ है तो ठीक है, अन्यथा समाप्त कर दे। उसके पहले नहीं।
आप तो इसी जीवन को प्रोलांग करना चाहते हैं, तो आत्मा को खोजते हैं। वह इस जीवन को बिलकुल व्यर्थ जान लेता है, तो आत्मा को जान पाता है। आप इसी जीवन को प्रोलांग करना चाहते हैं।
अभी मैं एक गांव से निकला। एक जगह रुका था तो एक महिला ने मुझे लाकर एक किताब भेंट की। उसके ऊपर लिखा था: अगर आपके पास मकान नहीं है तो मकान की व्यवस्था है। अगर आपके पास बगीचे नहीं हैं तो बगीचे की व्यवस्था है।
तो मैं हैरान हुआ कि वह क्या है? ऊपर उसके शीर्षक था, मैंने अंदर देखा, तो उसमें लिखा है: प्रभु के राज्य में…वह किसी ईसाई का प्रचार था…उसमें लिखा था: प्रभु के राज्य में सुंदर बगीचे हैं, सुंदर मकान हैं, बड़ा स्वस्थ जीवन है, वहां कोई बीमारी नहीं होती, वहां कोई परेशानी नहीं होती। अगर आप ऐसा जीवन चाहते हैं तो प्रभु ईसा को स्वीकार करिए।
अब यह जिन लोगों के पास मकान नहीं हैं; या हैं, बहुत अच्छे नहीं हैं; या बहुत अच्छे हैं, तो किसी के पास कितना ही अच्छा हो उसको और अच्छा चाहिए; उसे वहां एक जिंदगी मरने के बाद भी कायम रखनी है। इसी जिंदगी को आगे कायम रखना है। इस आकांक्षा से जो धर्म के पीछे जाता है वह धार्मिक कभी नहीं हो सकता।
जिसे यह जिंदगी अर्थहीन हो गई, जिसे यह जिंदगी दुख हो गई, इस जिंदगी में जिसे कोई अर्थ नहीं खोजे मिलता, यहां से लेकर वहां तक यह बिलकुल व्यर्थ कथा मालूम होती है, उसको एक बोध पकड़ेगा–कि या तो मैं जान लूं कि कुछ सार्थकता भीतर हो तो उसको जान लूं और अन्यथा तोड़ दूं इस सूत्र का…
दोस्तोवस्की के एक उपन्यास में उसका एक पात्र परमात्मा से कहता है कि हे परमात्मा, मैं नहीं जानता कि तू कहीं है। लेकिन अगर तू कहीं है, तो मैंने सुना है तू सर्वशक्तिमान है, तो इतनी कृपा कर कि मुझे जीवन से वापस ले ले। अगर तू है और सर्वशक्तिमान है, तो मैं एक ही बात में तेरी सर्वसत्ता का प्रत्यक्ष पाना चाहता हूं, मुझे जीवन से वापस ले ले।
यह जीवन बिलकुल मूढ़तापूर्ण है, इसमें कहीं भी कोई सार और अर्थ नहीं है। जिस दिन आपको ऐसासाक्षात होगा, इसी जीवन को आगे चलाने का नहीं, मृत्यु के बाद बच जाने का नहीं, बल्कि इसका कि यह जीवन इतना व्यर्थ है कि मृत्यु कल हो तो आज ही क्यों नहीं हो जाती! इसमें अर्थ कहां है? जिस दिन मृत्यु आपको इसी क्षण हो और कोई बाधा न मालूम हो और लगे कि सब व्यर्थ है, उस क्षण आपके भीतर एक बिंदु पर आप खड़े होंगे, जहां आप पहली दफा उस प्यास को अनुभव करेंगे जो सार्थकता की खोज की है, जो मीनिंग की खोज की है। मीनिंग ही आत्मा है, वह अर्थ ही आत्मा है। और तब आप भीतर प्रविष्ट होंगे।
जब तक आप बाहर जीवन को समझते हैं, इसमें आशा है किसी तरह के सुख के मिलने की, तब तक आत्मा की आपमें जानने की प्यास पैदा नहीं होती। जब तक आपको लगता है कि बाहर की दौड़ में कहीं सुख मिल सकता है–यहां या कि स्वर्ग में या कि मोक्ष में–जब तक आपको लगता है कि कहीं बाहर सुख मिल सकता है, तब तक आप आत्मा को नहीं खोजेंगे। जिस दिन आपको लगेगा बाहर सुख है ही नहीं, यह इतना स्पष्ट होगा कि इसमें कोई शक न रह जाएगा कि बाहर सुख है ही नहीं–न इस जमीन पर, न स्वर्ग में, न मोक्ष में–बाहर नहीं, बाहर की धारणा आपकी खंडित हो जाएगी, उस दिन आप इतने प्यास से भरेंगे और आप पाएंगे कि वह मिल गया, वह भीतर है।
आत्मा को जानना तो सरल है, आत्मा को चाहना थोड़ा कठिन है। अंत में आपसे इतना कहूं, आत्मा को जानना तो बहुत सरल है, आत्मा को चाहना कठिन है। आत्मा का जानना तो एक क्षण में हो जाता है, आत्मा की चाह जन्म-जन्मांतर के बाद आती है। तो जिनको मिल जाता है इसलिए नहीं कि उन्होंने बड़ी मेहनत की जानने के लिए। न, वह पाने के लिए लंबी यात्रा किए–वह आकांक्षा, वह अभीप्सा, वह प्यास। प्यासे हम नहीं हैं, तो फिर कोई मायने नहीं है। हम चलेंगे, बातें करेंगे, वह नहीं मिलेगा। प्यासे अगर हम हैं तो इसी क्षण मिल जाएगा।
पाना सरल है, जानना सरल है, आकांक्षा आपमें है या नहीं, यह आप निर्णय कर लें। यह निर्णय कोई दूसरा नहीं कर सकता। महावीर यह कह सकते हैं–पाना सरल है, स्वभाव है। बुद्ध यह कह सकते हैं–पाना सरल है, स्वभाव है। क्राइस्ट कह सकते हैं कि प्रभु का राज्य बिलकुल हाथ के करीब है, बढ़ाओ और पा लो। लेकिन वे इतना ही कह सकते हैं। वे, आप चाहें, ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते। यानी मेरा मतलब यह है कि आपको यह बताया जा सकता है कि यह पानी है, कृपा करके चाहें तो पी लें, बड़ा सरल है। पानी तक आपको पहुंचाया जा सकता है, लेकिन प्यास कोई दूसरा आपमें पैदा नहीं कर सकता। आपको पानी में डुबकियां दिलाई जा सकती हैं, लेकिन प्यास आपमें कोई पैदा नहीं कर सकता। प्यास आप पैदा करेंगे, पानी निकट है। प्यास न हो तो आप पानी के किनारे खड़े रहें, वह बहुत दूर है, अनंत दूरी पर है। प्यास जितनी है, पानी उतना निकट है; और प्यास जितनी कम है, पानी उतना दूर है। प्यास अगर परिपूर्ण है तो तृप्ति उसी क्षण हो जाएगी। इसलिए फासला हो सकता है। लेकिन कठिन नहीं है, इसे स्मरण रखें।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
समाधि का अर्थ ही यह होता है: जिससे चित्त की समस्त अशांति का समाधान हो गया। जिसे वे लगाते होंगे वह समाधि नहीं है, वह केवल जड़मूर्च्छा है। जो चीज लगाई जा सकती है वह समाधि नहीं है, वह केवल जड़मूर्च्छा है। वह अपने को बेहोश करने की तरकीब है। ट्रिक सीख गए होंगे, और तो कुछ नहीं। तो वह ट्रिक अगर सीख ली जाए तो कोई भी आदमी उतनी देर तक बेहोश रह सकता है, उतनी देर उसे कुछ पता नहीं होगा। अगर आप उसको मिट्टी में दबा दें तो भी कुछ पता नहीं होगा। उस वक्त श्वास भी बंद हो जाएगी और सब चेतन कार्य बंद हो जाएंगे।
उसको लोग समाधि समझ लेते हैं। वे उसको समझ लेते हैं वह तो ठीक है, लेकिन दूसरे भी समझ लेते हैं कि वह समाधि है। समाधि के नाम पर एक मिथ्या, जड़अवस्था प्रचलित हुई है। जिसका समाधि से, धर्म से कोई संबंध नहीं है। जो बिलकुल मदारीगिरी है। समाधि कोई ऐसी चीज नहीं जिसको आप लगाते हैं और जिसमें से निकल आते हैं। समाधि उत्पन्न हो जाए तो वह आपका स्वभाव होती है। इसलिए न आप उसको लगा सकते हैं, न उसके बाहर निकल सकते हैं, न उसके भीतर जा सकते हैं।
समाधि जो है वह लगाने और निकलने की चीज नहीं है। जैसे स्वास्थ्य है। अब आप स्वस्थ हैं तो कोई बताइएगा कि हम एक घंटे भर के लिए स्वस्थ हुए जाते हैं और फिर हम अस्वस्थ हो जाएंगे। हम स्वास्थ्य लगाए लेते हैं और फिर हम न लगाएंगे। जैसा स्वास्थ्य है न, स्वास्थ्य तो देह का है, वह आंतरिक चित्त का स्वास्थ्य है, वहां एक दफा स्वास्थ्य प्राप्त हो जाए, तो वह सतत आपके साथ होता है, उसके बाहर आप नहीं हो सकते। तो समाधि में भीतर तो जा सकते हैं, समाधि के बाहर कभी नहीं आ सकते। आज तक कोई आदमी तो समाधि के बाहर नहीं आया।
लेकिन जिसको हम समाधि जानते हैं उसमें भीतर-बाहर दोनों हो जाता है आना-जाना। वह आना-जाना कुछ भी नहीं है, वह मूर्च्छा है। आप मूर्च्छित कर लेते हैं, फिर होश में आ जाते हैं। उस आदमी में आप कुछ भी न पाएंगे, जो बहत्तर घंटे नहीं, कितने ही घंटे लगाता हो। उसके जीवन में कुछ भी नहीं होगा। समाधि से हम धीरे-धीरे चमत्कार में पतित हो गए हैं और उसको मदारीगिरी बना लिया है। समाधि का वह लक्षण नहीं है।
एक ईसाई फकीर हुआ, साधु था, वह अपने एक शिष्य के साथ एक यात्रा पर था। उसने…रास्ते में पानी पड़ा, अंधेरी रात, वे रास्ता भटक गए…उसने अपने शिष्य से पूछा, शिष्य का नाम लियो था, उसने कहा, लियो, तुम परम धर्म क्या समझते हो? क्या बीमारों को छूकर ठीक कर देना, या कि अंधों की आंख पर हाथ रख कर आंखें ठीक कर देना, या कि मुर्दों को छूकर जिला देना, क्या तुम इसे सिद्धि समझते हो? उस लियो ने कहा, सिद्धि तो मालूम होती है। उसके गुरु ने कहा, लेकिन मैं इसे सिद्धि नहीं समझता।
हम तो इसे ही सिद्धि समझते हैं। हम तो ईसा का इसीलिए मूल्य समझते हैं कि उन्होंने किसी की आंख छू दी और वह उसकी आंख ठीक हो गई, और किसी मुर्दे को छू दिया और वह जिंदा हो गया। अगर ये सिद्धियां नहीं हैं, तो फिर ईसा में क्या मूल्यवान रह जाएगा?
उसने कहा, समय आया तो मैं बताऊंगा कि सिद्धि क्या है।
वे रात दो बजे एक गांव में पहुंचे, उन्होंने एक सराय का दरवाजा खटखटाया। वे दोनों फकीर, नंगे आदमी, फटे कपड़े, कीचड़ में भिड़ गए, पानी से भीगे हुए, दो बजे अंधेरी रात दरवाजा खटखटाया। खिड़की से झांक कर पहरेदार ने देखा और उसने कहा, भिखमंगो, भाग जाओ! यहां अब इस रात, इतनी देर, स्थान नहीं मिलेगा। लियो गुस्से में आ गया और उसने कहा, तुमने कहा भिखमंगे! हम भिखमंगे नहीं हैं, हम साधु हैं! उसका गुरु चुपचाप खड़ा रहा। उसने दरवाजा बंद कर दिया पहरेदार ने। उन्होंने फिर दस्तक दी। अब की बार वह और गुस्से में आया। उन्होंने कहा कि क्षमा करें, रात ठहर जाने दें। अब हम इतनी रात किसको जगाएं? लेकिन उसने कहा, भाग जाओ, अन्यथा मैं डंडा लेकर आता हूं! अब रात दुबारा परेशान मत करना।
पर मजबूर थे, फिर उन्होंने तीसरी बार दस्तक दी, पानी जोर से गिर रहा था। अब की बार वह डंडा लेकर आया और उसने इन दोनों पर चोट की। उसने लियो पर भी चोट की, उसके गुरु पर भी चोट की। लियो गुस्से में आ गया, उसने डंडा उठा लिया। उसके गुरु पर चोट की, उसके सिर से खून बहता था और उसने कहा, लियो देखो, मैं समाधि में हूं, मैं सिद्धि में हूं। उसने कहा, देखो, अगर तुम्हारे मन में इस आदमी के अपमान करने पर अपमान न हुआ हो, अगर तुम्हारे मन में इसके मारने पर चोट न लगी हो, अगर इसके दुतकारने पर तुम्हारे मन में कोई तरंग न उठी हो, तो सिद्धि है। तुम अंधों की आंखें जिला दो, मुर्दों को जिला दो, बीमारों को ठीक कर दो, उससे कोई वास्ता नहीं। उससे धर्म का कोई वास्ता नहीं है।
उससे साइंस का वास्ता हो सकता है। जिस समाधि की आप बात कह रहे हैं, उससे साइंस का वास्ता हो सकता है। आज नहीं कल साइकोलॉजी उसके बाबत सब जान लेगी, समझ लेगी। लेकिन उसका अध्यात्म से कोई वास्ता नहीं है। वह ट्रिक है दिमाग की, उसे कल साइकोलॉजी समझ लेगी, जान लेगी कि ये-ये करने से ऐसा हो जाता है। लेकिन उससे कोई वास्ता नहीं है। धर्म का और समाधि का वास्ता तो वहां है जब आपके भीतर इतना चित्त समाधान को उपलब्ध हुआ है कि बाहर की कोई तरंगें उसे विक्षुब्ध नहीं कर पातीं।
सबसे बड़ा चमत्कार वह आदमी है कि जिसे तुम जब बाहर से चोट करो तो जिसके भीतर कोई चोट न पहुंचे। और सबसे चमत्कार वह आदमी है जिसको बाहर से तुम मार भी डालो तो जिसके भीतर मृत्यु का भाव भी पैदा न हो। वह समाधि के परिणाम में वह घटना घटती है।
यानी समाधि एक अवस्था है। एक क्रिया नहीं है जिसके भीतर गए और लौट आए। एक अवस्था है चित्त के समाधान की। और उस पर अगर ध्यान रहा तो ठीक, अन्यथा ये जो इस तरह की बातें सारे मुल्क में चलती हैं, इस मदारीगिरी ने भारत के धर्मों को, भारत के योग को सारी दुनिया में अपमानित किया है। सारी दुनिया में अपमानित किया है। और पश्चिम से जो लोग आते हैं, वे इसी तरह की बातें देख कर लौट जाते हैं और समझते हैं यह अध्यात्म है। और वे महावीर और बुद्ध और इन सबके बाबत भी यही खयाल बनाते हैं, ये भी इसी तरह के मदारी रहे होंगे।
अगर भारत को अपने धर्मों की वापस सुरक्षा करनी है और उन्हें पुनर्जन्म देना है, तो इस तरह की तथाकथित झूठी बातें–जिनका समाधि से, योग से, धर्म से कोई संबंध नहीं है–हमें बंद करनी चाहिए। ये सब मदारीगिरियां हैं। इससे कोई वास्ता नहीं है।
कुछ और आपके रहे प्रश्न, उनको कल हम विचार करेंगे।