UPANISHAD
Samadhi Kamal 07
Seventh Discourse from the series of 15 discourses – Samadhi Kamal by Osho.
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इसके पहले कि आपके प्रश्नों को लूं, थोड़ी सी बात कुछ और मुझे कह देनी है वह कह दूं और फिर आपके प्रश्नों को लूंगा।
साधना की भूमिका के लिए कुछ अंगों पर मैंने प्रकाश डाला, उसकी आपसे चर्चा की। लेकिन मैंने दो बातें बताईं, एक तो साधना कैसे करनी यह बताया और एक यह बताया कि साधना के लिए भूमिका कैसे बनेगी। भूमिका भी ज्ञात हो जाए, साधना करने की पद्धति भी ज्ञात हो जाए, तो भी साधना शुरू नहीं हो जाती। आपको यह भी ज्ञात हो गया कि क्या करना है और यह भी ज्ञात हो गया कि कैसे करना है, तो भी करना शुरू नहीं हो जाता है। भूमिका समझ में आ गई, पद्धति समझ में आ गई, आपको पता चल गया कि इस भांति जमीन को साफ करना होता है, फिर इस भांति इसमें बीज डालने होते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप बागवानी शुरू कर देंगे। बागवानी शुरू करने के लिए इन दो के अलावा और भी कुछ बात जरूरी है। तो उन थोड़े से तत्वों पर मैं आपको प्रकाश और डाल दूं, जिसके बिना बागवानी का ज्ञान कोरा ज्ञान होगा और कोई फायदा नहीं होगा।
सबसे पहले तो वह तत्व जो आपको साधना में ले जा सके वह संकल्प है। पहला तत्व तो संकल्प है।
साधना कोई ऐसी बात नहीं है कि आपने समझा और हो गई, वह कोई ऐसी बात भी नहीं है कि आपने कभी ऐसे किसी फुर्सत के समय में चाहा और हो गई। वह एक सतत संकल्प है।
जीवन की क्षुद्र-क्षुद्र चीजों को पाने के लिए भी हमें संकल्प करना होता है। उन्हें पाने के लिए लगना होता है। आत्म-साक्षात के लिए, सत्य-उपलब्धि के लिए, हम अक्सर इच्छा करते हैं, लेकिन संकल्प कभी नहीं करते हैं। इच्छा और संकल्प में फर्क है। डिजायर और विल में फर्क है। इच्छा करना कि आत्मा मिल जाए, एक बात है; संकल्प करना कि आत्मा को पाऊंगा, बिलकुल दूसरी बात है। इच्छा तो कोई भी कर लेता है, संकल्प कोई भी नहीं करता है।
तो इच्छा करने वालों को यह भ्रम होता होगा कि हमने आत्मा को पाना चाहा, लेकिन मिलती तो नहीं है। तो उनको मैं कहूं, उन्होंने इच्छा की है, अभी संकल्प नहीं किया है। संकल्प का मतलब है कि आप अपने अंतःजीवन में यह निर्णय ले रहे हैं विवेकपूर्वक कि अब आपका जीवन आप ऐसे निर्णीत करेंगे और सतत इस केंद्र पर निर्णीत करेंगे कि आपको एक दिशा में गतिवान होना है। यह गतिवान होने का संकल्प कि मैं गतिवान होऊंगा, इस संकल्प के, इस अंतःप्रतिज्ञा के करते ही आपके भीतर अनेक शक्तियां जाग्रत होती मालूम होंगी, जो मात्र इच्छा करने से जाग्रत नहीं होती हैं। जब भी कोई इच्छा संकल्प में परिणत हो जाती है तभी आप अपने भीतर कुछ सोई हुई शक्तियों को जागता हुआ अनुभव करते हैं, जो आपके लिए सहयोगी हो जाती हैं। जो मात्र इच्छा रह जाती है वह केवल एक विकार मन का है, वह कभी सक्रिय शक्ति नहीं बन पाती है।
तो आपको वस्तुतः अगर साधना के जगत में प्रवेश करना है तो इच्छा और संकल्प के भेद को समझ कर, मात्र इच्छा नहीं, संकल्प की ओर दृष्टि देनी होगी। यह निर्णय अपने अंतःसाक्ष्य में–किसी और के सामने नहीं–लेना होगा कि सच में मैं क्या चाहता हूं, सच में क्या मेरी चाह है कि आत्मा उपलब्ध हो? क्या वस्तुतः मेरा संकल्प है कि मैं सत्य को जानूं? या कि मात्र मेरी जिज्ञासा है?
परसों मैं बात करता था तो मैंने कहा, जिज्ञासा और जिज्ञासु और मुमुक्षु में यही अंतर है। जिज्ञासा का अर्थ है: हम जानना चाहते हैं कि क्या है? जैसे ही वह समाप्त होगा, हम दूसरी बात जानना चाहेंगे कि वह क्या है? तीसरी बात जानना चाहेंगे कि वह क्या है?
अब आपके जो प्रश्न हैं उनमें मुमुक्षा कम है, जिज्ञासा ही ज्यादा है। जानना चाहते हैं कि क्या है? किसी ने पूछा है कि जगत का स्रष्टा कौन है? किसी ने पूछा है कि प्रारब्ध क्या है? कोई पूछता है कि पुरुषार्थ क्या है? कोई पूछता है कि स्त्री-पुरुष के बीच आकर्षण क्यों है? कोई और कुछ पूछा है। एक व्यक्ति ने पूछा है भाई ने कि क्या यह हो सकता है कि हम ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं और फिर भी पाप करते रहें और पाप न लगे? क्या यह हो सकता है कि ज्ञानी व्यभिचार करे, उन्होंने पूछा है, और कोई पाप न लगे?
तो अब ये जो बातें हैं, ये जिज्ञासाएं तो ठीक हैं, मन बहुत सी बातें नहीं जानता, पूछना चाहता है। लेकिन इनमें मुमुक्षा नहीं है। ये आपको मुमुक्षु नहीं बनातीं। मुमुक्षु का मतलब बहुत भिन्न है। उसका अर्थ यह नहीं है कि हम कुछ जानना चाहते हैं। उसका अर्थ है हम कुछ होना चाहते हैं। उसका यह अर्थ नहीं है कि एक खुजलाहट है दिमाग की, हम इसको हल कर लेना चाहते हैं। उसका यह अर्थ है कि हमारे जीवन पर संकट है और हम इस संकट को परिवर्तित करना चाहते हैं। जिज्ञासा का अर्थ है एक क्युरिआसिटी कि हम कुछ पूछते हैं। बच्चे पूछते हैं: आकाश कहां है? चांद कहां से आया? वैसी ही हमारी जिज्ञासाएं हैं! हम बच्चों से बहुत बड़े नहीं हो पाते। उम्र बड़ी हो जाती है, बच्चा हमारे भीतर का मरता नहीं है। पूछना चाहते हैं: जमीन कैसे बनी होगी? किस चीज पर थमी हुई है? बच्चे पूछते हैं, वह हम पूछते हैं। हम पूछते चले जाते हैं।
लेकिन जब तक आपमें मुमुक्षा पैदा न हो तब तक आपका बच्चा समाप्त नहीं होता। जिज्ञासा बालपन है, मुमुक्षा–मुमुक्षुत्व प्रौढ़ता है। वह है जब आप पहली दफा प्रौढ़ बनते हैं। जब आप जानने के लिए उत्सुक नहीं रह जाते बहुत, जब आप होने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। जानना केवल इच्छा है और होना फिर संकल्प को मांगता है।
तो अपने सामने, साधना शुरू करने के पूर्व, इसके पहले कि हम प्रवेश हों साधना के जीवन में, हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ये हमारी जिज्ञासाएं तो नहीं हैं? अगर ये जिज्ञासाएं हैं, तो बजाय साधना में प्रवेश के किन्हीं शास्त्रों में प्रवेश करना अच्छा है। अगर ये जिज्ञासाएं हैं, तो बजाय साधना में या योग से संबंधित होने के किसी पुस्तकालय में बैठ कर अध्ययन करना अच्छा है।
आपको यह भी समझा दूं, पश्चिम की जो फिलासफी है वह जिज्ञासा है और पूरब का जो दर्शन है वह जिज्ञासा नहीं है। इसलिए पश्चिम की फिलासफी और पूरब की फिलासफी जमीन-आसमान के फासले पर हैं, उनका कोई संबंध नहीं। इसलिए पश्चिम की फिलासफी का जो आनुषंगिक अंग है वह तर्क और लॉजिक है और पूरब के दर्शन का जो आनुषंगिक अंग है वह तर्क और लॉजिक नहीं है, वह योग और साधना है। पश्चिम की फिलासफी के साथ योग विकसित नहीं हुआ, वहां का कोई दार्शनिक योगी नहीं है। और पूरब का कोई दार्शनिक नहीं है जो योगी न हो।
इसको समझ लेना। यह फिलासफी नहीं है जो हम यहां चर्चा कर रहे हैं। या महावीर ने, या बुद्ध ने, या पतंजलि ने, या कृष्ण ने, या शंकर ने जो चर्चा की है वह फिलासफी नहीं है। अब यह नासमझी की बात है कि हम उसको इंडियन फिलासफी कहते हैं। वह बिलकुल फिलासफी नहीं है। वह बिलकुल भी फिलासफी नहीं है। वह तो साधना है। वह जिज्ञासा नहीं है। वह तो इस बात की चेष्टा है कि हम परिवर्तित होना चाहते हैं, हम कुछ और होना चाहते हैं। जो है वह योग्य नहीं है, हम कुछ और होना चाहते हैं। वह एक गहरा संकल्प है। एक पूरी अंतरात्मा का विल, एक पूरी अंतरात्मा का इकट्ठा होकर यह संकल्प करना कि मैं जैसा हूं, व्यर्थ हूं, और मुझे सार्थक होना है। और तब जिज्ञासा आनुषंगिक होगी। मुमुक्षा प्राथमिक होगी, जिज्ञासा आनुषंगिक होगी। यानी वह साधना के लिए तलाश होगी। उसका अपने में कोई मूल्य नहीं होगा।
तो आपकी अगर जिज्ञासा है, तब एक बात है। यह फिर एक बहुत बौद्धिक व्यायाम है, जो आप जीवन भर करते रह सकते हैं। उससे कोई परिणाम नहीं होगा। लेकिन अगर यह आपकी मुमुक्षा है, अगर यह आपकी आकांक्षा है कि जैसा जीवन आप पाते हैं वह व्यर्थ है, मीनिंगलेस है। और हमें कोई मीनिंग खोजना है…
एक फकीर था। वह स्नान करने सुबह-सुबह निकला। किसी ने रास्ते पर पूछा कि ईश्वर है क्या? वह रास्ते पर नहाने जा रहा है, किसी ने पूछा, ईश्वर है क्या? उसने कहा, जानना चाहते हो कि सुनना चाहते हो? आपसे भी पूछा होता तो आप कह देते कि जानना ही चाहते हैं। उसने भी कहा, जानना ही चाहते हैं। वह फकीर हंसने लगा, बोला, अगर जानना ही चाहते हो तो मेरे साथ हो लो। स्नान कर लें, तुम भी स्नान कर लो, फिर समझ लेंगे, फिर हम तुम्हें जना देंगे, बता देंगे।
वे दोनों स्नान करने उतरे, जब फकीर और वह दोनों नदी में गए और वह जिसने जिज्ञासा की थी वह नदी में डूबा, वह फकीर ने उसकी गर्दन पानी के भीतर दबा ली। तड़फने लगा, पानी के भीतर गर्दन दबी है और फकीर वजनी और तगड़ा है। और वह दबाए जा रहा है और निकलने की उस जिज्ञासु की हिम्मत नहीं है। उसके प्राण छटपटाने लगे, उसकी श्वास-श्वास रोने लगी होगी, उसका रोआं-रोआं कंप गया होगा! वह बिलकुल जैसे श्वास टूटने को हो तब उसने उसे छोड़ा, जैसे वह मरने को था तब उसे छोड़ा। वह एकदम घबड़ा कर बाहर निकला। उसकी आंखें लाल हो गई हैं, उसके हाथ-पैर कंप रहे हैं। वह हैरान हुआ कि फकीर से हम ईश्वर को जानने को कहते थे और ये तो मृत्यु का साक्षात करवाए दिए देते थे! उसने उस फकीर को कहा, आप यह क्या करते हैं? आप होश में हैं या पागल हैं!
उस फकीर ने कहा, मैं तो होश में हूं और तुमने जो पूछा उसका उत्तर दे रहा हूं। यह पूछना है कि जब मैं तुम्हारी गर्दन को पानी के भीतर दबाया था तो तुम्हें क्या हुआ?
वह बोला, अब यह कोई पूछने की बात है? मेरे प्राण छटपटा गए बाहर निकलने को! फिर तो मैं यह भी भूल गया कि बाहर निकलना है, फिर तो एक प्यास रह गई अंधी कि किसी भांति एक श्वास हवा मिल जाए!
तो उस फकीर ने कहा, अभी ईश्वर को पाने की आकांक्षा इस स्थिति में आई है क्या? कि ऐसी तड़प हो रही हो इस संसार से कि वह नहीं मिलेगा तो मैं टूट जाऊंगा और मिट जाऊंगा और सब समाप्त हो जाएगा? तब तो फिर जिज्ञासा नहीं है, तब तो फिर प्यास है। और प्यास है तो संकल्प पैदा होगा। तो उससे उसने कहा कि तुम सामान्य इच्छा करते थे कि बाहर निकल आएं पानी के कि संकल्प करते थे?
वह बोला, इच्छा? संकल्प था! पूरे प्राण का संकल्प था कि बाहर निकल आऊं। अपनी पूरी शक्ति लगा रहा था कि बाहर निकल आऊं।
संकल्प से, इतने संकल्प से–जो कि पानी के भीतर आपको अगर कोई दबा दे, आपको करना पड़े–उतने संकल्प से जीवन-साधना में प्रवेश होता है।
एक बीज जब फूटता है तो कितने संकल्प से फूटता होगा? जब जमीन की पर्त को तोड़ता है और जब बीज के खोल को तोड़ कर अंकुर बाहर निकलता है तो कितने संकल्प से, कितने विल की जरूरत पड़ती होगी? उससे भी ज्यादा संकल्प की जरूरत तब पड़ती है जब एक व्यक्ति व्यर्थता के खोल को तोड़ कर सार्थक जीवन की तरफ प्रविष्ट होता है। सारी शक्ति इकट्ठी करके वह जब संकल्प लेता है तो प्रवेश पाता है।
तो आपको मैं कहूं, साधना फलवती होगी–अगर इच्छा ही न हो, संकल्प हो। अगर जिज्ञासा न हो, मुमुक्षा हो। तो पहली शर्त है–संकल्प। यह तो प्राथमिक शर्त है, इसके बिना तो कुछ शुरू नहीं होता। इसके बिना तो कुछ शुरू नहीं होता। अपने अंतःसाक्ष्य में, अपने जीवन में, अपनी अंतरात्मा में यह अंतःप्रतिज्ञा जरूरी है कि मैं संकल्पबद्ध हूं।
जिस रात्रि बुद्ध को बुद्धत्व उपलब्ध हुआ…वे सात वर्ष से भटकते थे। सात वर्ष वे न जाने कहां-कहां भटके, कहां-कहां गए, किन-किन से पूछा, किन-किन साधनाओं में गए। सात वर्ष भटके, थक गए, परेशान हो गए। जिस रात उनको बुद्धत्व उपलब्ध हुआ, उस रात बड़े संकल्प से उपलब्ध हुआ। और तब उनको ज्ञात हुआ कि सात वर्ष इच्छा थी, संकल्प पहली दफा आया था। उस संध्या वे स्नान करने को उतरे, देह उनकी इतनी कृश थी, इतने उन्होंने उपवास किए कि जब वे उठने लगे, नदी के तट के बाहर निकलने लगे, तो उनके हाथ-पैर कंप गए और उनके हाथ में इतनी ताकत न मालूम हुई कि वे घास को पकड़ कर चढ़ जाएं। वे एक लटकी हुई जड़ को पकड़ कर रुक रहे। उनको पहली दफा लगा: इतना कमजोर हो गया हूं कि नदी पार नहीं होती तो यह संसार कैसे पार करूंगा? इतना कमजोर हो गया हूं कि नदी के घाट पर नहीं चढ़ पाता तो जीवन के घाट पर चढ़ पाना कैसे संभव होगा?
वे उठे जब उनको शक्ति मालूम हुई, बाहर आए और उन्होंने निर्णय किया कि आज अंतिम रात है, कल सुबह यह खयाल छोड़ दूंगा आत्मा और सत्य के पाने का, लेकिन अब आज इस पूरी रात यही खयाल हो जाए। और वे उस दरख्त के नीचे बैठे जो बाद में बोधिवृक्ष बन गया और उन्होंने संकल्प किया कि अब मैं इस जगह से उठूंगा नहीं; या तो सत्य पा लूंगा या समाप्त हो जाऊंगा। और वे हैरान हुए! जैसे ही यह संकल्प प्रगाढ़ हुआ और उन्होंने देखा कि न मालूम कितने दिनों के विचार का चक्र जो नहीं टूटता था वह विलीन और विसर्जित होता चला जा रहा है। सुबह भोर का तारा निकला, डूबने को था, और उन्हें बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। जो सात वर्ष में नहीं हुआ वह उस दिन उपलब्ध हुआ।
संकल्प बना। ढीली-ढाली इच्छा न रही, प्रगाढ़ संकल्प हुआ।
स्वामी रामतीर्थ गणित के विद्यार्थी थे। उनकी अंतिम परीक्षा थी। उनकी आदत थी कि जितने प्रश्न आएं गणित के वे सब हल कर देना। जैसा प्रश्न-पत्र पर लिखा होता है: आठ में से कोई पांच करिए। वैसा वे आठों हल करके ऊपर लिख देते परीक्षक को सूचना कि आठ में से कोई पांच जांचिए। आठ ही करते हल और ऊपर सूचना दे देते परीक्षक को कि आठ में से कोई पांच जांचिए। वैसी उनकी आदत थी। अंतिम परीक्षा थी, उनका अंतिम पत्र था। रात वे प्रश्न को हल करने बैठे, एक प्रश्न पर उलझ गए, वह हल नहीं होता था। दो बज गए, तीन बज गए, उनका जो साथी था उनके छात्रावास में, उसने कहा, इसे छोड़ो भी, कोई इसी प्रश्न पर कोई सारी बात नहीं टिकी है। और यह प्रश्न आएगा, यह भी क्या जरूरी है? और इसके पीछे रात खराब कर रहे हो, दूसरे प्रश्न रह जाएंगे।
रामतीर्थ ने कहा, मैंने कभी कोई ऐसा प्रश्न हाथ में ही नहीं लिया जिसे न करूं। अब अपनी जिंदगी है और यह प्रश्न है, बाकी दुनिया में कोई प्रश्न नहीं है। इसे हल करूंगा।
उन्होंने कहा, इसे बाद में हल कर लेना, कल परीक्षा है।
उन्होंने कहा, मैं तो बिना हल किए…या तो हाथ में ही नहीं लेता, अब हाथ में ले लिया तो अब यह जिंदगी है और यह प्रश्न है, इसको हल किए बिना मैं उठने वाला नहीं।
तो उन्होंने कहा, फिर सुबह की परीक्षा गई।
रामतीर्थ ने कहा, जाएगी नहीं। चार बजे तक देखता हूं और अन्यथा फिर संकल्प करूंगा इसको हल करने का।
तो वह बोला, फिर क्या संकल्प? अभी क्या कर रहे हो इतनी देर से?
वे बोले, अभी इच्छा कर रहा हूं। अभी हल करने की इच्छा कर रहा हूं।
मैं फर्क दिखला रहा हूं आपको, इच्छा और संकल्प में फर्क कहां है?
उन्होंने कहा, अभी मैं इच्छा कर रहा हूं इसको हल करने की, चार बजे रात के बाद संकल्प करूंगा। इच्छा तो पूरी रात गंवा दी, संकल्प केवल पांच मिनट का करूंगा।
वह लड़का कुछ समझा नहीं। वह समझा कि ठीक है, करने दो। चार बज गए, वह प्रश्न हल नहीं हुआ। उन्होंने अपनी पेटी से एक छुरा निकाला, उस छुरे को टेबल पर लगा कर रख लिया। वह लड़का बोला, क्या करते हो?
वे बोले, चार बज गए, अब संकल्प करता हूं। पांच मिनट के भीतर या तो प्रश्न हल हो या छुरा छाती के भीतर हो जाएगा।
वह लड़का बोला, आपका दिमाग खराब है! इस प्रश्न से क्या लेना-देना है?
उन्होंने कहा, यह सवाल नहीं है प्रश्न से लेने-देने का। यह तो अपने संकल्प को उठाने की बात है। उन्होंने छुरे को सामने रखा, ठीक चार पर उन्होंने प्रश्न हल करना शुरू किया। उस लड़के ने देखा, वे अभी तक बिलकुल ठीक थे, अब सारा चेहरा तमतमा आया और पसीना झर रहा है। अब वह पांच मिनट का प्रश्न है केवल! फासला बहुत छोटा है। और जो छह घंटे में नहीं हल हुआ है, वह पांच मिनट में हल होगा इसकी संभावना भी क्या है? लेकिन जैसे सारी दुनिया मिट गई। उस लड़के ने देखा: उनके सामने कोई दुनिया नहीं है, वे हैं और प्रश्न है। और केवल तीन मिनट में वह हल हो गया! वह हल हो गया और रामतीर्थ ने कहा, वह हल हुआ। इच्छा से जो नहीं हुआ वह संकल्प से होगा।
उनके मित्र ने कहा, यह तो तरकीब अच्छी है। कभी कोई प्रश्न इस तरह हल न होता हो तो करने का रास्ता अच्छा है।
रामतीर्थ ने कहा, तुमसे न होगा। तुमसे न हो सकेगा।
वह बोला, इसमें क्या दिक्कत है? छुरे को सामने लगा लिया, घड़ी रख ली और सोचा कि अगर पांच मिनट में नहीं हुआ तो छुरा मार लूंगा। मारता कौन है?
इच्छा और संकल्प में भेद है। साधक इच्छा से नहीं चलता। इच्छा से वहां गति नहीं है, वहां संकल्प चाहिए। तो संकल्प प्रगाढ़ हो, इसकी थोड़ी भावना करें, इस सत्य को थोड़ा समझें। अगर आत्म-साक्षात न होता हो तो उसका कारण यह मत समझें कि आत्म-साक्षात कठिन है, उसका कुल कारण इतना है कि अभी इच्छा है, संकल्प नहीं है।
तो पहली बात तो संकल्प है साधक के लिए। जो अनिवार्य है, जिसके बिना शुरुआत नहीं होगी। दूसरी बात सातत्य है। जो शुरू करते हैं उसका सातत्य होना, उसका अविच्छिन्न होना जरूरी है। अन्यथा कोई आदमी कभी एक बीज फेंक दे, कभी दूसरा बीज फेंक दे, अलग-अलग जमीनों पर फेंक दे, अलग-अलग समयों में फेंक दे, उनका कोई फल न होगा। उसका सातत्य, कि हमने जो बोया है उसे हम सम्हालें, उसकी हम सुरक्षा करें। और उसकी तो चौबीस घंटे सुरक्षा करनी होगी। साधना कोई खंडित चीज नहीं है कि कभी पंद्रह मिनट कर ली चौबीस घंटे में और निपट गए। साधना अखंड बात है। जो पंद्रह मिनट की है उसे शेष चौबीस घंटे सुरक्षा करनी होगी। और एक सातत्य अंतःधारा, एक अंडरकरंट सातत्य की जारी रखनी होगी। तब कुछ होगा।
और नहीं तो होगा यह…एक फकीर का स्मरण मुझे आया। उसने अपने साधकों को ले जाकर एक दफा एक खेत दिखलाया। साधक देख कर हैरान हुए, खेत में आठ बड़े-बड़े गड्ढे थे! तो साधकों ने पूछा, ये गड्ढे किसलिए किए गए? उसने कहा, मैं इसीलिए तुम्हें दिखाने लाया। इस खेत का मालिक बड़ा अदभुत है। उसने यहां कई दफे कुएं खोदने चाहे। पहली दफा खोदना चाहा, वह वह है। लेकिन थोड़ा खोद कर वह रुक गया, दिल बदल गया। फिर दुबारा उसने सोचा कि फिर खोदना है, तब उसने दूसरा खोदना शुरू किया। फिर कुछ दिन में दिल बदल गया, वह रुक गया। उसने आठ कुएं खोदे। पूरा खेत खराब हो गया है। कुआं अभी नहीं खुदा है।
कई दफा तरंग उठती है कि आत्मा को जानें, ईश्वर को जानें। वह तरंग है, संकल्प नहीं। तरंग उठती है कि जानें। कोई जिंदगी का दुख, कोई परेशानी खयाल दिला देती है कि अब आत्मा को ही जानो। बहुत हो गई यह गृहस्थी और बहुत हो गई यह दुकान, अब आत्मा को ही जान लें। यह तरंग है। यह तरंग ठीक ही है। तरंग तो तरंग है, वह तो मूड है, वह कोई संकल्प नहीं है, वह आएगा और चला जाएगा। तब थोड़ी सी खुदाई करेंगे, फिर भूल जाएंगे। फिर कभी आएगा, फिर खुदाई करेंगे, फिर भूल जाएंगे। सातत्य नहीं होगा तो कुआं नहीं खुदेगा।
एक ही जगह पर और सतत खोदने से जलस्रोत उपलब्ध होते हैं। और ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां कि खोदते ही चले जाएं तो जलस्रोत उपलब्ध न हो जाएं। देर-अबेर हो सकती है। ऐसा कोई भूमि-थल नहीं है जहां खोदते ही चले जाएं तो जलस्रोत उपलब्ध न हो जाएं। ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो खोदता ही चला जाए तो आत्म-जीवन को उपलब्ध न हो जाए। देर-अबेर हो सकती है, क्योंकि हर आदमी ने बीच में अपने कर्मों की और अपने विचारों की चट्टानें अड़ाई हुई हैं, जो थोड़ा-थोड़ा फासला देंगी। अलग-अलग पर्तें हैं अपने-अपने जीवन की, अपने-अपने चैतन्य की। लेकिन यह असंभव है कि वह खुदाई पूरी न हो जाए। पर उसके लिए एक सातत्य चाहिए, एक सतत धारा चाहिए।
तो थोड़ा शुरू करें, लेकिन सतत करें, उसका परिणाम है। बहुत शुरू करें और सतत न करें, उसका कोई परिणाम नहीं है। बहुत धीमी चोट हो, लेकिन सतत हो, तो परिणाम होगा। सातत्य का अदभुत अर्थ है। बहुत धीमी चोट भी सतत परिणाम में क्या कर देती है, इसका आपको पता है? पानी गिरता है पहाड़ से, नीचे सख्त चट्टानों पर कोमल पानी गिरता है। चट्टानों को पानी क्या तोड़ पाएगा? पानी जैसी चीज वह क्या चट्टानों को तोड़ेगी? उससे कमजोर और क्या होगा? लेकिन दिन बीतते हैं, वर्ष बीतते हैं–वह अडिग कड़ी चट्टान कि पानी गिरा था और छिटक कर उसके किनारों से बह गया था, चट्टान को पता भी नहीं चला होगा–दिन बीतते हैं, वर्ष बीतते हैं और चट्टान टूटती चली जाती है। और एक दिन पता चलता है कि पानी तो बह रहा है, चट्टान नहीं है। वह रेत हो गई और बह गई।
पानी जो कि इतना कमजोर है, लेकिन सतत है, वह चट्टान को जो कि इतनी मजबूत है, तोड़ देता है। तो आपका प्रयास चाहे छोटा हो, लेकिन सतत हो, तो बड़ी से बड़ी चट्टान जो बीच में बाधा होगी वह टूट जाएगी।
तो पहली बात: संकल्प। संकल्प के बाद सातत्य। और तीसरी और भी महत्वपूर्ण बात–संकल्प भी है, सातत्य भी है, लेकिन तीसरी और भी गहरी बात–अगर प्रतीक्षा नहीं है, तो संकल्प भी व्यर्थ हो जाएगा, सातत्य भी व्यर्थ हो जाएगा।
एक आदमी बीज बो दे…मुझे बचपन का खयाल आता है, वह आम की बजाने के लिए उसकी गोई को बो देते और फिर थोड़ी देर में आधा घंटे में जाकर उसको निकाल कर देखते कि अभी उसमें पीका आ गया कि नहीं। वह अभी नहीं निकला है, फिर उसको डालते। फिर देखते पंद्रह मिनट बाद जाकर कि अभी आया कि नहीं। वह कभी नहीं आता।
प्रतीक्षा नहीं थी। बीज को तो बोते थे, प्रतीक्षा नहीं थी। और करीब-करीब हम ऐसे ही बच्चे हैं जो आम की गोइयों को बो रहे हैं जो कि उनको पंद्रह-पंद्रह मिनट में निकाल कर देखेंगे।
अभी परसों मुझे किसी ने कहा। पहले दिन ही वे पंद्रह मिनट जाकर रात को बैठे, फिर मैं वहां से गया, वे मुझे आकर बोले, अभी कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं जगी।
अगर पंद्रह मिनट में आध्यात्मिक शक्ति नहीं जगी तो वे समझेंगे काम ही फिजूल है। इसमें क्या मतलब है! पंद्रह मिनट बेकार गए और आध्यात्मिक शक्ति अभी जगी भी नहीं।
प्रतीक्षा, और अनंत प्रतीक्षा! प्रतीक्षा, और अनंत प्रतीक्षा! जितना विराट उपलब्ध होना हो उतनी अनंत प्रतीक्षा करनी होगी। जितना क्षुद्र उपलब्ध करना हो वह जल्दी मिल जाएगा।
क्षुद्र को पाने में लेकिन हम बहुत प्रतीक्षा कर लेते हैं और विराट को पाने में प्रतीक्षा के लिए राजी ही नहीं होते। अब मैं इस बीच बहुत लोगों से परिचित हुआ, एक-दो दिन करेंगे, कहेंगे, अभी तो कुछ भी नहीं हुआ।
एक महिला आती थीं। वे मेरे पास सात दिन प्रयोग करती थीं। पहले दिन वापस जाती हुई सीढ़ियों पर मुझे मिलीं, बोलीं, अभी तो कुछ हुआ नहीं, अभी तो कोई साक्षात वगैरह नहीं हुआ। मैंने कहा, कल देखिए। कल आईं। दूसरे दिन भी मुझसे आकर बोलीं, आज का दिन भी बेकार गया, अभी कुछ नहीं हुआ। वे नासमझ नहीं हैं, अध्यापिका हैं। संस्कृत की अध्यापिका हैं, बहुत जानती हैं धर्म के बाबत। खूब गीता पर भाषण भी करती हैं, बहुत समझदार हैं। सात दिन बाद मुझसे बोलीं, सात दिन हो गए और आप कहते हैं कल होगा, आप कहते हैं कल होगा। और सात दिन में नहीं हुआ, फिर कब होगा? मैंने कहा, देखें कल। देखती चलें। कल तक तो प्रतीक्षा रखें कम से कम। इसलिए ज्यादा की आपसे नहीं कहता। एक दिन की है, शायद आपको आशा बंधी रहे। ज्यादा कहूंगा, शायद आप करें भी नहीं।
तो जो मैं आपसे कहता हूं कि अभी और यहीं मिल सकता है, कोई इस भ्रम में न पड़े कि वह दस मिनट बैठा तो मिल जाएगा। वह सिर्फ इसलिए कि
अल्प प्रतीक्षा के लोग हैं हम। आपको हिम्मत बंधाता हूं: अभी मिल जाएगा, कल मिल जाएगा।
लेकिन थोड़ा सोचें कि जिस विराट के, जिस अनंत के, जिस परमात्मा के, जिस आत्मा के आप खयाल में हैं, अगर सच में इतना सस्ता मिल जाए तो उसको आत्मा और परमात्मा कह सकिएगा? सरल तो है, लेकिन सस्ता नहीं है। थोड़ा तो मूल्य चुकाना पड़ेगा।
हमारी क्या वृत्ति है, इस जगत में हम हर कमोडिटी के लिए पैसा देने को राजी हैं, भगवान के लिए देने को राजी नहीं हैं। हर वस्तु के लिए हम पैसा देने को राजी हैं। भगवान मुफ्त मिले तो भी शायद हम सोचें कि लेना कि नहीं लेना। तो भी हम विचार करेंगे कि अब घर में वैसे ही पांच लोग हैं और इस छठवें को कहां रखेंगे! और एक उपद्रव न पैदा हो जाए।
तो मैं आपको कहूं: संकल्प चाहिए, सातत्य चाहिए, प्रतीक्षा चाहिए और अनंत प्रतीक्षा चाहिए।
एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे समझ में आपको आएगा, अनंत प्रतीक्षा का अर्थ क्या है! और बड़े रहस्य की बात यह है कि जो अनंत प्रतीक्षा करने को राजी है उसे इसी क्षण उपलब्ध हो सकता है, इसी क्षण! वह एटिट्यूड, वह अनंत प्रतीक्षा का एटिट्यूड, वह रिलैक्स्ड, वह चित्त की विश्रांत स्थिति कि अनंत-अनंत बाद मिलेगा तो भी राजी हैं, तो भी जीएंगे और खोदेंगे। वह दृष्टि, वह पकड़, वह भाव-स्थिति, वह इसी क्षण ला देगी।
एक कहानी आपसे कहूं, मुझे बहुत प्रीतिकर रही; और जहां भी गया, उसको लोगों से कहा। एक काल्पनिक कथा है। एक बहुत वृद्ध साधु, कोई नब्बे वर्ष बीते जीवन के, बचपन से दीक्षित हुआ, साधना में रत है। माला है, जप है, सब करता है। तपश्चर्या करता है, भूखा-प्यासा मरता है। नारद को उसने देखा एक दिन जाते। नारद से उसने कहा, नब्बे वर्ष हुए! और सुनता हूं कि तुम बैकुंठ जाते और भगवान के दर्शन करते हो। थोड़ा जरा पता लगाना कि कब तक मेरा मोक्ष, कब तक मेरी मुक्ति है? थोड़ा उनके दफ्तर में थोड़ा पूछताछ करना भगवान के कि कब तक मेरी मुक्ति है? कब तक मेरा मोक्ष है? कितनी देर और? और यह कब तक करना पड़ेगा? बहुत हो गया, जिंदगी बीत गई!
नारद ने कहा, देखो पूछूंगा।
उसके बगल में ही एक बरगद का दरख्त है और उसके नीचे एक फकीर नाच रहा है जो आज सुबह ही साधु हुआ है। वह नाच रहा है और एक तंबूरे को बजा रहा है। नारद ने उससे हंसी में ही पूछा कि मित्र, तुमको भी पूछना हो, तुम्हारा भी पूछ लूं।
वह कुछ बोला नहीं। वह नाचता था, नाचता रहा। उसने नारद की बात जैसे सुनी भी नहीं। वह गीत गाता था, गाता रहा। नारद आगे बढ़ गए। वे कुछ दिन बाद बैकुंठ से वापस हुए। उन्होंने उस वृद्ध को कहा कि मैंने पूछा था, भगवान ने कहा कि तीन जन्म और लग जाएंगे।
वह माला हाथ में लिए था, उसने माला नीचे पटक दी। उसने कहा, तीन जन्म और? यह तो अन्याय हो गया! यह तो हद्द हो गई! जीवन गंवा दिया, अभी तीन जन्म और!
नारद बोले, मजबूरी है, मैं क्या करूं! उन्होंने कहा कि तीन जन्म और लग जाएंगे।
वे आगे बढ़े, वह फकीर नाचता था उसी दरख्त के नीचे। उन्होंने कहा, मित्र तुमने तो नहीं कहा था, लेकिन मैंने पूछ ही लिया। वह नाचता गया। नारद ने कहा, लेकिन सुन लो, नाराज मत होना। उन्होंने कहा कि जितने उस बरगद में पत्ते हैं जिसके नीचे वह फकीर नाचता है, उतने जन्म और लग जाएंगे। वह फकीर दुगने वेग से नाचने लगा। नारद बोले, क्यों नाचने लगे जोर से? वह बोला, तब तो पा लिया! कितने जमीन पर पत्ते हैं, कितने पत्ते हैं! उसमें सिर्फ इस बरगद के पत्ते! तब तो पा लिया! और कथा कहती है, उसने उसी क्षण पा लिया! उसी क्षण! तत्क्षण उपलब्ध हो गया वह!
वह पा लेने का प्रश्न नहीं है बड़ा, वह तो एटिट्यूड की बात है। वह तो आपके चित्त के विश्रांत और प्रतीक्षारत होने की बात है। प्रतीक्षा ही प्रार्थना है। आपका कुछ मांगना नहीं, प्रतीक्षा। अनंत प्रतीक्षा प्रार्थना है। प्यास संकल्प है, सतत इस प्यास को जगाए रखना सातत्य है और उस प्यास में चुपचाप अनंत प्रतीक्षा को अनुभव करना वह तीसरा तत्व है। जो अनंत धैर्य रखने को राजी हैं, उनकी यात्रा इसी क्षण भी पूरी हो सकती है। जो अधैर्यवान हैं, वे कहीं नहीं पहुंचते हैं।
ये तीन बातें और आपसे कहनी थीं। ये जरूरी थीं कि आपसे कह दूं। इसके पहले कि हम यहां से विदा हों, ये तीन बातें आपसे कहनी जरूरी थीं। खयाल उनका रखेंगे। वे सरल हैं, कठिन नहीं हैं। और सच ही प्रतीक्षा में ही प्रेम है। जो प्रतीक्षा करने को राजी नहीं है वह झपटने को राजी है। और झपटने में हिंसा है, वायलेंस है। हम सब वायलेंट अटैक करते हैं भगवान पर, कि उसको पा ही लेना है। यानी पा लेने का मतलब हम उसको पजेस करना चाहते हैं। प्रतीक्षा में हम उसे पजेस नहीं करना चाहते, उसके मालिक नहीं होना चाहते, अपने को खोलते हैं और उसकी प्रतीक्षा करते हैं, उसकी राह देखते हैं।
तो प्रतीक्षा बड़ा अदभुत शब्द है। बड़ा अदभुत शब्द है। और सारी साधना वह प्रतीक्षा है, वेटिंग फॉर गॉड! वह वेटिंग है, वह बिलकुल प्रतीक्षा है। और अगर वह प्रतीक्षा है तो एक बात और आपको समझ में आ जाएगी कि उस प्रतीक्षा में आपको तनाव नहीं होगा। सब तनाव पाने की जल्दी से होता है। सब टेंशन पाने की जल्दी में होता है। अभी मिल जाए, अभी मिल जाए, उसमें होता है।
अगर प्रतीक्षा गहरी है और घनी है तो पाने का तनाव नहीं होगा। प्रयत्न का सातत्य होगा, लेकिन पुरस्कार पाने का तनाव नहीं होगा। प्रयत्न का सातत्य, पुरस्कार पाने का तनाव नहीं–यह है प्रतीक्षा; यह है इफर्टलेस इफर्ट; यह है कल्टीवेशन बाइ नो कल्टीवेशन; यह है अनभ्यास और साथ ही अभ्यास। इसे कहें सहज समाधि।
समाधि तो साधनी होती है, तो सहज कैसे होगी? सब समाधि असहज मालूम होगी। कुछ करेंगे, कुछ करेंगे तो समाधि होगी।
कुछ करेंगे तो जरूर समाधि होगी, लेकिन करने के पीछे अगर अनंत प्रतीक्षा हो तो समाधि सहज हो जाएगी। वह तनाव जो फल को पाने का है, नहीं होगा, तो समाधि सहज हो जाएगी।
तो मैं जिस ध्यान की बात कर रहा हूं वह कोई इफर्ट और प्रयत्न और कल्टीवेशन और साधने की उतनी बात नहीं कर रहा हूं, एक अप्रयास में, एक शांति में, एक इफर्टलेसनेस में प्रतीक्षा की बात है। और तब घटना घट सकती है।
तो यूं नौ तत्व मैंने आपको भूमिका के लिए बताए, तीन तत्व मैंने आपको साधना के लिए बताए और तीन तत्व मैं आपको उस साधना के फलीभूत होने के लिए, उस साधना पथ पर चलने के लिए सहारे की तरह आपको कह रहा हूं। ये तीन आपके सहारे होंगे, नौ आपकी भूमिकाएं होंगी और तीन आपके प्रयत्न होंगे। अगर ये, इनका एक सामंजस्य और इनके माध्यम से एक वातावरण आपके चित्त में बन सके, तो बिलकुल निश्चित मानिए, जिसको मैं अनंत दूरी पर कह रहा हूं वह बिलकुल आपके हाथ के बगल में है। उसे आप हाथ भी बढ़ाएंगे तो पा लेंगे।
इतनी ही बात मुझे अपनी तरफ से कहनी थी, वह मैंने आपसे कह दी।
अब ये कुछ प्रश्न हैं, मुझे तो मूल्यवान नहीं मालूम होते, बड़ी दिक्कत यह है। इसलिए…लेकिन आपको मूल्यवान मालूम होते हैं।
प्रश्न:
भगवान, मेरा सवाल लौटा दें!
प्रश्न करना तो आसान है, प्रश्न वापस ले लेना अच्छी बात है।
प्रश्न:
भगवान, क्योंकि मुझे भी ऐसा लगने लगा है कि मूल्यवान नहीं है।
हां, यह मूल्यवान, यही बात है, इसीलिए मैं कह रहा हूं। इसीलिए मैं कह रहा हूं, यह अगर लगे तो हम जिज्ञासा से मुमुक्षा की तरफ प्रवेश करते हैं। वही मैं समझा रहा था, वही हमको लगे। जिस दिन आपको लगे कि सारे प्रश्न फिजूल हैं, सच में मूल्य की बात हुई। जब तक आपको प्रश्न बड़े मूल्यवान लगते हैं, तब तक अभी आप समझ नहीं रहे। वे जो प्रश्न मूल्यवान लग रहे हैं वे इसीलिए लग रहे हैं कि बस एक कुतूहल है, उनको जान लेना है।
क्या करिएगा जान कर? यानी सवाल यह है, कभी यह पूछिए अपने से कि अगर मैंने इसको जान भी लिया तो क्या होगा? उस प्रश्न का मूल्य है जिसे जान लेने से आपमें फर्क हो जाएगा।
मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। दो वृद्ध सज्जन मेरे पास आए। वे मुझसे बोले, हमारा तीस साल का झगड़ा है उसे निपटा दीजिए। मैं बोला, क्या झगड़ा है? दोनों भले थे। एक जैन थे, एक ब्राह्मण थे। बोले, हम दोनों पड़ोसी हैं और बचपन के मित्र हैं, और ईश्वर ने जगत को बनाया या नहीं, यह झगड़ा है। तो मैं कहता हूं–वे जो ब्राह्मण थे वे बोले, मैं कहता हूं–ईश्वर ने बनाया और ये कहते हैं कि ईश्वर ने नहीं बनाया, यह अनादि है। इस पर तीस साल हो गए माथापच्ची करते, और सबके पास हम गए, जो भी गांव में आया उससे पूछने गए, और कोई हल नहीं मिलता। तो आपके पास आए हैं।
मैंने कहा, आपको इतने दिन हल नहीं मिला तो मेरे पास कैसे मिल जाएगा? और हल अगर मिल सकता होता तो जरूर मिल गया होता। मैं आपको आपके प्रश्नों का उत्तर तो नहीं देता, मैं सिर्फ एक-एक प्रश्न आपसे और पूछ लेता हूं। मैं आपसे यह पूछता हूं कि अगर जगत को ईश्वर ने बनाया हो तो फिर आप क्या करिएगा? ब्राह्मण से मैंने पूछा, अगर जगत को ईश्वर ने बनाया हो तो फिर आप क्या करिएगा?
वे बोले, करेंगे क्या, एक अपना सत्य का पता चल जाएगा।
तो मैंने कहा, उसका कोई मूल्य नहीं है। जो सत्य आपके भीतर क्रांति न कर देता हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। उस सत्य को जान लेने का कोई मूल्य नहीं है। सत्य का तो मूल्य तब है जब वह आपके भीतर क्रांति कर दे। तो आप एक ऐसे सत्य को जानने में तीस साल खराब किए जिसे जान लेंगे तो आपमें कुछ भी नहीं होगा। अगर मैंने कहा आपको, ईश्वर ने जगत को बनाया, इसके जानने से कोई फर्क आपमें होता हो, तो कृपा करके उस फर्क को करने में लग जाइए। उस फर्क को करने में लग जाइए।
और दूसरे को मैंने कहा, आपको क्या मतलब होगा इस बात को जानने से कि ईश्वर ने जगत को नहीं बनाया? आप क्या करिएगा फिर? क्या उससे होगा? और अगर उससे कुछ करने वाले हैं उस सत्य को जान कर, तो मान लीजिए कि ईश्वर ने जगत को नहीं बनाया और उस काम को शुरू कर दीजिए। तीस साल आपने व्यर्थ बकवास में गंवाए हैं।
और सारे पंडित और सारे दार्शनिक जीवन व्यर्थ की बकवास में गंवाते हैं। जो जानता है वह सोचता होगा कि कैसी बकवास में लोग लगे हुए हैं! कैसे व्यर्थ की बकवास में लगे हुए हैं! और पंडित कितने बच्चों जैसे मालूम होते होंगे। और कितनी बाल-बुद्धि मालूम होती होगी। जीवन का एक बहुमूल्य अवसर, जिसमें कुछ हो सकता था, उसमें हम क्या पूछते हैं और क्या सोचते हैं? जिससे हमें कोई मतलब नहीं है।
तो जिस दिन आपको अपना कोई प्रश्न फिजूल लगने लगे, समझिए कि उत्तर मिलने के करीब आ गए। प्रश्न का तो उत्तर नहीं है, लेकिन अगर प्रश्न फिजूल लगने लगे तो आपके भीतर उत्तर का जन्म होना शुरू हो जाएगा।
ये कुछ प्रश्न हैं। अच्छा तो होता कि आज आप कुछ ऐसे प्रश्न पूछ लेते जो आपकी साधना के लिए उपयोगी होते। कुछ साधना के और तत्वों पर आप चर्चा कर लेते। जो आपके लिए रास्ते पर–जिस पर आपको चलने का खयाल है अभी, हो सकता है कभी संकल्प भी हो जाए; जिसकी अभी इच्छा है, कभी वह संकल्प बन सकता है; इच्छा अच्छा लक्षण है, कम से कम शुरुआत तो है, कभी वह संकल्प हो सकती है–तो उस संबंध में कुछ पूछते तो वह उपयोगी होता और आपके लिए अर्थ का होता। लेकिन अगर वैसा कोई प्रश्न नहीं है…एक-दो प्रश्न इसमें हैं जो साधना से संबंधित हैं।
एक तो यह है, इसमें पूछा गया है कि आप दर्शन पर जोर देते हैं और विचार को कोई मूल्य नहीं देते, उसकी कोई आवश्यकता नहीं मानते हैं। तो क्या विचार व्यर्थ है? उसका जीवन में कोई उपयोग नहीं है या विचार की कोई शक्ति नहीं है?
विचार की जरूर बड़ी शक्ति है। व्यर्थ उसे मैं इसलिए कहता हूं कि वह सत्य को जानने में समर्थ नहीं है। विचार को जो मैंने व्यर्थ कहा है वह विचार की व्यर्थता की दृष्टि से नहीं, सत्य को जानने की असामर्थ्य की दृष्टि से कहा है। सत्य को विचार नहीं जानता है। सत्य विचार से उपलब्ध नहीं है, इसीलिए विचार व्यर्थ है। विचार की कोई सार्थकता नहीं, यह मैंने नहीं कहा है। अगर मैं यह कहूं कि विचार की कोई सार्थकता नहीं, तो मैं आपसे क्या कर रहा हूं? यानी आपसे मैं विचार ही तो कर रहा हूं न! आप यहां बैठ कर तीन दिन से क्या कर रहे हैं? हम विचार कर रहे हैं।
विचार की एक ही सार्थकता है कि वह आपको यह दिखा दे कि कहां तक वह समर्थ है और कहां तक वह असमर्थ है। विचार की एक ही सार्थकता है कि वह यह आपको दिखा दे कि उसकी सामर्थ्य कहां है और असामर्थ्य कहां है। विचार को अगर मनुष्य ठीक से अनुसरण करे तो उसे यह दिखाई पड़ जाएगा कि पदार्थ का जहां तक जगत है वहां तक विचार अनुसंधान करने में समर्थ है। ‘पर’ का जहां जगत है, ‘अन्य’ का, वहां विचार सहयोगी है। जहां ‘स्व’ का सवाल है, वहां विचार नहीं, दर्शन सहयोगी है।
तो विचार जो है उससे साइंस का जन्म होता है। और इसीलिए साइंस कभी आत्मा को नहीं जान सकेगी, क्योंकि वह विचार से जन्मी है। साइंस कभी आत्मा को नहीं जान सकेगी। वह जो भी जानेगी वह सब अनात्मा होगा। वह कितने ही गहरे जाए, वह अनात्म की पर्त को पार नहीं करेगी। विचार अनात्म के ऊपर नहीं जाता। इसलिए नहीं जाता कि जो विचार करता है स्वयं, वह विचार से कैसे जाना जा सकता है?
यह मेरा हाथ है, इस हाथ से मैं दुनिया की सारी चीजें पकड़ लूं, इसी हाथ को नहीं पकड़ सकता हूं। एक चिमटे से मैं दुनिया की सारी चीजें पकड़ लूं, उसी चिमटे को नहीं पकड़ सकता हूं। यानी चिमटा समर्थ होगा सबको पकड़ने में, अपने को पकड़ने में असमर्थ होगा।
विचार जो है वह माध्यम है मनुष्य के चैतन्य का, वह सारे जगत को उससे समझ ले और पकड़ ले। एक जगह वह असमर्थ है–स्वयं को पकड़ने में। क्योंकि वह उसके पीछे पड़ जाता है। विचार आपकी शक्ति है, इसलिए आपको नहीं पकड़ सकती है। और सबको पकड़ सकती है। अगर अपने को पकड़ना है तो यह विचार जब शून्य होगा और दूसरे को पकड़ने की प्रक्रिया बंद होगी, तब उसका उदघाटन होगा जो विचार के पीछे था, जिसका यह विचार था। विचार छूटे तो विचार के मूल-स्रोत और उद्गम की पकड़ आपको आ जाएगी।
तो साइंस विचार है, धर्म विचार नहीं है।
जैसा मैंने सुबह आपको कहा कि सब विचार पराए हैं, सब विचार पराए हैं, पर पराए विचारों का भी उपयोग है। साइंस में तो पूरा उपयोग है। कल तक जिस वैज्ञानिक ने सोचा है, उसके आगे दूसरा वैज्ञानिक सोचेगा। इसलिए साइंस एक ट्रेडीशन है, रिलीजन ट्रेडीशन नहीं है। महावीर ने जहां तक सोचा, उसके आगे आप सोचिएगा? आइंस्टीन ने जहां तक सोचा, उसके आगे का वैज्ञानिक सोचेगा। न्यूटन ने जहां तक सोचा, आइंस्टीन उसके आगे सोचेगा। आप सोचते हैं कि महावीर ने जहां तक सोचा, उसके आगे आप सोचिएगा? जहां से महावीर ने प्रारंभ किया, धर्म में वहीं से प्रारंभ करना होगा। और विज्ञान में जहां पीछे का वैज्ञानिक अंत करता है वहां से प्रारंभ होता है। इसलिए विज्ञान में परंपरा होती है, धर्म में परंपरा नहीं होती। धर्म में परंपरा नहीं हो सकती। परंपरा का मतलब है: पीछे वाले के कंधे पर हम खड़े होंगे। महावीर के कंधे पर आप खड़े नहीं हो सकते।
हम सोचते हैं–मेरी दिक्कत है यह–हम सोचते हैं कि परंपरा का मैं विरोध करता हूं तो मैं बड़ी अश्रद्धा प्रकट कर रहा हूं। परंपरा का मतलब है कि महावीर के आगे शुरू करिए। जहां महावीर छोड़ते हैं वहां से शुरू करिए तो परंपरा होगी। और जहां महावीर शुरू करते हैं वहीं आपको शुरू करना पड़े, उसी जगह से, तो परंपरा कहां है? वह महावीर की व्यक्तिगत साधना हुई, आपकी अपनी व्यक्तिगत साधना होगी।
साइंस व्यक्तिगत साधना नहीं है, सामूहिक साधना है। और धर्म वैयक्तिक साधना है। इसलिए उधार और पर के विचार साइंस में उपयोग के हैं, स्वयं को जानने में बिलकुल उपयोग के नहीं हैं।
विचार शक्ति है, वही विज्ञान है। लेकिन वह शक्ति मात्र है, स्वयं शक्ति का स्रोत और उद्गम वह नहीं है। जिसकी वह शक्ति है वह पीछे है। विचार न हो तो भी आप होंगे। विचार न हो तो भी आप होंगे, विचार है तो भी आप हैं। विचार के होने न होने पर आपका होना निर्भर नहीं है। हां, आपके होने पर विचार का होना जरूर निर्भर है।
इस फर्क को समझ लीजिए! विचार के होने पर आपका होना निर्भर नहीं है, आपके होने पर विचार का होना निर्भर है। तो आपको विचार से नहीं पाया जा सकता। आपको निर्विचार से पाना होगा।
इसलिए समस्त योग विचार-त्याग है, समस्त योग विचार-विसर्जन है।
ध्यान, समाधि विचार-मुक्ति, विचार-शून्यता है।
इससे एक दिक्कत होती है खयाल में कि जब मैं बार-बार जोर देता हूं कि विचार-विसर्जन, विचार-मुक्ति, विचार-शून्यता, तो आपको लगता है कि अगर निर्विचार हो गए और बुद्धि खो दी तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी। फिर कुछ भी कर रहे हैं, क्योंकि अब कोई विचार है नहीं।
आपको पता नहीं कि जब विचार शून्य होगा तो जो शेष रह जाएगा उसका नाम विवेक है। विवेक से कभी भूल होती ही नहीं। विचार से भूल-चूक होती है, क्योंकि विचार टटोलना है।
एक अंधा आदमी है, उसके पास एक लकड़ी है, वह लकड़ी से टटोल कर दरवाजा खोज लेता है और निकल जाता है। अगर हम उसकी आंख का इलाज करें, तो वह पूछेगा कि जब आंख ठीक हो जाएगी तो फिर लकड़ी का उपयोग करूंगा कि नहीं? तो हम उसको कहेंगे, लकड़ी बिलकुल फिजूल है। आंख ठीक हुई तो लकड़ी बिलकुल फिजूल है। वह कहेगा, यह तो बड़ी मुश्किल है, अगर लकड़ी न हुई तो दरवाजे से निकलेंगे कैसे? ठीक है, उसका जिंदगी भर का अनुभव यह है, लकड़ी से दरवाजे से निकलता है टटोल कर। और हम उससे कहें कि लकड़ी बिलकुल फिजूल है। तो वह कहेगा, यह तो आप बड़ी गड़बड़ बात कर रहे हैं, हम तो दीवाल से टकरा जाएंगे।
अभी हम विचार की लकड़ी से टटोल-टटोल कर, अंधे लोग हैं, विचार की लकड़ी से टटोल-टटोल कर जिंदगी में रास्ता बनाते हैं। हालांकि रास्ता क्या बनाते हैं! दिन-रात एक-दूसरे के रास्ते पर टकराते रहते हैं। रास्ता क्या बनाते हैं! एक-दूसरे की, एक-दूसरे की जान पर टकरा रहे हैं और एक-दूसरे के ऊपर रोज गिरते रहते हैं, रास्ता-वास्ता कुछ नहीं बनता। क्योंकि रास्ता वह है जो कहीं पहुंचा दे। जो कहीं पहुंचाता ही नहीं वह रास्ता क्या है! जहां शुरू करते हैं जिंदगी, करीब-करीब वहीं, उसी भूमि पर, उसी चौराहे पर मर जाते हैं। कोई रास्ता-वास्ता मिलता है कहीं? रास्ता वह है ही नहीं जो कहीं पहुंचाता नहीं। तो हम चलते जरूर हैं, रास्ते पर नहीं होते। बस किसी तरह इस भीड़-भड़क्का में एक-दूसरे को धक्के देते रहते हैं। उस धक्के में थोड़ी हलन-चलन होती है तो ऐसा लगता है कि चल रहे हैं। जैसे भीड़ में एक-दूसरे को धक्का दे रहे हों और फिर इधर आ गए और फिर उधर हिल गए, तो ऐसा लगता है कि चल रहे हैं, लेकिन कहीं पहुंचते नहीं।
तो विचार किसी तरह जिंदगी गुजार देता है। जैसे अंधा टटोल-टटोल कर रास्ते खोज लेता है। जब विचार शांत हो जाता है तो विवेक का जागरण होता है। प्रज्ञा का जागरण होता है विचार के शून्य हो जाने पर। जिसे अंतर्दृष्टि कहें, प्रज्ञा कहें, इनसाइट कहें, वह जगती है। और उस आंख को, जो शुभ है वह दिखाई पड़ता है, जो अशुभ है वह दिखाई पड़ता है। उसे सोचना नहीं पड़ता कि क्या करने जैसा है और क्या नहीं करने जैसा है। उसे दिखता है कि क्या करने जैसा है। वहां कोई विकल्प, कोई ऑल्टरनेटिव नहीं होता। वहां एक ही जो दिखता है।
अंधा यहां खड़ा हो तो उसके सामने खयाल आता होगा कि पता नहीं दरवाजा इस तरफ है कि दरवाजा उस तरफ है। एक अंधा यहां बीच में खड़ा है तो उसे विचार आता होगा कि पता नहीं दरवाजा इस तरफ है कि दरवाजा उस तरफ है कि सामने है। टटोलेगा। टटोलने के पहले कोई कल्पना से हाइपोथेटिकल चुन लेगा कि बाएं जाऊं, शायद यहां दरवाजा हो। न हो तो सोचे अब दाएं जाऊं, शायद वहां दरवाजा हो। अंधे के सामने कई विकल्प होंगे, उनमें से एक कल्पना के माध्यम से उसे चुन कर और टटोलना पड़ेगा।
विज्ञान हाइपोथीसिस से चलता है। तो एक कल्पना के माध्यम से सोच लेते हैं कि इधर देखें, शायद मिल जाए। मिल जाता है तो सिद्धांत बन जाता है, नहीं मिलता तो दूसरी तरफ टटोलने लगते हैं।
अंतर्दृष्टि का अर्थ है कि उसके आंख है। आंख वाला आदमी यहां खड़े होकर यह थोड़े ही देखता है कि कहां दरवाजा? शायद इधर हो कि शायद उधर हो! जहां दरवाजा है, दिखता है।
विचार जब शांत हो जाता है और विचार की विकलता…। विकलता है विचार की। और विचार जो है एक तरह की एंग्ज़ाइटी और चिंता है। और एक तरह की तरंगों की, तनाव की स्थिति है। जब वह शांत हो जाती है, तो जो विचार के माध्यम से टटोल-टटोल कर चलता था वह अकेला रह जाता है। वह विवेक जो विचार की लकड़ी पकड़े हुए था, अब अकेला रह जाता है। सब तनाव, सब शांति शून्य होती है, तो आपको दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। क्या ठीक है, वह आपको दिखता है। वह आपको दिखता है। और जब सत्य दिखता है, शुभ दिखता है, उसके विपरीत जाना असंभव होता है। वहीं आपको जाना पड़ता है। जब दरवाजा दिखता है तो दीवाल में जाना बिलकुल असंभव है। आप सोचते हैं कि जा सकते हैं? जब दरवाजा दिखता है तो दीवाल में जाना असंभव है। और जब आपकी अंतर्दृष्टि को, क्या ठीक है, यह स्पष्ट दिखता है, असंदिग्ध, तो फिर यहां-वहां जाना मुश्किल है।
प्रज्ञा के जागरण पर अपने आप सारा आचरण सम्यक और शुद्ध हो जाता है। जीवन में विचार के खोने से, विचार के शून्य होने से, आप कुछ खोते नहीं, कुछ पाते हैं।
पर साधना से विचार खोना एक बात है और विचार का न होना बिलकुल दूसरी बात है। एक मूढ़बुद्धि है, मंदबुद्धि है, विचार-इचार नहीं। तो हमको लगता है कि इसमें विचार नहीं है। ऐसी बात नहीं; विचार उसमें है। ऐसा मंदबुद्धि खोजना कठिन है जिसमें विचार न उठते हों। असंगत उठते हैं, ज्यादा असंगत उठते हैं। विचारहीन नहीं होता मंदबुद्धि, खूब विचार होते हैं उसके भी। असंगत होते हैं, अनर्गल होते हैं, उनके बीच कोई संगति नहीं होती। विचार तो बहुत होते हैं। तो आप उसको कहते हैं कि अविचारी है। अविचारी इसलिए कहते हैं कि उसमें विवेक कम है। विचार कम है इसलिए नहीं। उसको अविचारी कहते हैं, क्योंकि उसमें विवेक कम है। और विवेक, मैं आपको बताऊं, इसीलिए कम है कि विचार बहुत ज्यादा है। असंगत विचारों की भीड़ उसके भीतर ज्यादा है इसलिए विवेक कम है। जिस-जिस मात्रा में विचार कम होता चला जाएगा, विवेक ज्यादा होता चला जाएगा। जिस दिन पूर्ण विचार शून्य होगा, उस दिन पूर्ण विवेक जाग्रत होता है। और तब प्रकाश की भांति आपका पथ आलोकित हो जाता है। फिर आप चलते हैं तो टटोलते नहीं हैं, आपको दिखता है। उस अंतर्दृष्टि की उपलब्धि खोना नहीं है, पाना है।
इसलिए विचार खोने में कोई संकोच न करें। वह अंधे की लकड़ी की तरह है, डरें न कि आंख खुल जाएगी तो इस लकड़ी का क्या करेंगे? उसके कई काम हैं, आग जला सकते हैं घर में, या कुछ और कई काम कर सकते हैं।
एक प्रश्न है:
आत्म-धर्म और राष्ट्र-धर्म का एक-दूसरे से क्या संबंध है?
साधना की दृष्टि से तो कोई संबंध नहीं है। परिणाम की दृष्टि से बहुत संबंध है।
इसे समझ लेना उपयोगी होगा। जब कोई व्यक्ति धर्म को साधता है, तब तो किसी दूसरे से कोई संबंध नहीं होता। अगर मुझे धर्म साधना है तो निपट अकेला मैं साधूंगा। आप उसमें न साथी होंगे, न सहयोगी होंगे। न समाज, न राष्ट्र, कोई साथी-सहयोगी नहीं होगा। वह यात्रा बिलकुल असंग और अकेली होगी। दो आदमी एक साथ ध्यान में नहीं जा सकते, न समाधि में जा सकते हैं। वह निपट अकेला रास्ता है अपने भीतर जाने का। उसमें कोई साथ नहीं है। इसलिए वहां कोई समाज नहीं है। इसलिए सामूहिक साधना जैसी कोई चीज नहीं होती। साधना हमेशा वैयक्तिक है, वह इंडिविजुअल है।
तो धर्म की साधना तो वैयक्तिक है, क्योंकि साधना में जानना है स्वयं को और स्वयं को जानने में दूसरे का क्या साथ और क्या सहयोग? तो कोई साथी नहीं, कोई सहयोगी नहीं। वह रास्ता अपना है और अकेला ही तय करना है। वह बिलकुल एकाकी मार्ग है।
परसों हम एक भजन सुनते थे: कि अगर तेरी कोई पुकार न सुने तो तू अकेला ही चल।
असल में पुकार ही किसको दे रहे हैं? वहां अकेले ही जाना पड़ेगा, पुकार की कोई गुंजाइश नहीं। अकेला ही चलना पड़ेगा। पुकार देने की फिक्र क्यों कर रहे हैं? पुकार देने का कोई मतलब नहीं है वहां। अकेले ही जाना होगा। वह निपट असंग और एकाकी है।
तो धर्म की साधना तो एकांत और अकेले और स्वयं की है। लेकिन धर्म की साधना का जो फल उपलब्ध होगा आपको वह सामाजिक होगा। आत्मा तो वैयक्तिक है, आचरण वैयक्तिक नहीं है। आत्मा वैयक्तिक है, वह मेरी है, लेकिन आचरण वैयक्तिक नहीं है। आचरण का मतलब? आचरण वहां शुरू होता है जहां मैं दूसरे से संबंधित होता हूं। मेरे जो संबंध हैं लोगों से, मेरा जो व्यवहार है लोगों से, वह मेरा आचरण है। आचरण सामूहिक है, आत्मा वैयक्तिक है।
जब आत्म-ज्ञान होगा, आपका पूरा आचरण बदल जाएगा। अज्ञान था तो एक तरह का आचरण था, ज्ञान होगा तो दूसरे तरह का आचरण होगा। वह आचरण ही संस्कृति को बनाता है। वह आचरण समाज को, राष्ट्र को बनाता है। तो सीधा तो धर्म का राष्ट्र से कोई संबंध नहीं है। न किसी समाज से कोई संबंध है, न देश-काल से कोई संबंध है। लेकिन परोक्ष, आचरण के माध्यम से, जब आत्मा सधती है तो आचरण राष्ट्रीय संपत्ति होता है, सामाजिक संपत्ति होता है।
तो धर्म की साधना शाश्वत है और वैयक्तिक है और धर्म की साधना से उत्पन्न हुआ फल सामयिक है और सामाजिक है। साधक को तो अकेले में चला जाना होता है, लेकिन सिद्ध को समाज में आ जाना होता है। महावीर साधने गए तो जंगल भाग गए, लेकिन सध गया, फिर जंगल में क्यों नहीं रहे आए? मोहम्मद भाग तो पहाड़ पर गए थे साधना के लिए, फिर जब सध गया तो वहीं क्यों नहीं रहे आए? जब आत्मा उपलब्ध हुई तो वह जो आचरण और प्रकाश और सुगंध चारों तरफ फैलने लगी, वह सामूहिक थी, वह मजबूरी थी कि आनंद बंट जाए। आनंद की उपलब्धि तो वैयक्तिक, उसका बंटवारा सामूहिक है। उसका बंटवारा सामूहिक है।
तो महावीर को अगर विचार करें तो एक तो उनका शाश्वत धर्म है, जो उन्हें अपनी वैयक्तिक आत्मा की साधना में उपलब्ध हुआ है। और एक उनके आचरण का लोक धर्म है, जो उनके चारों तरफ परिव्याप्त हो गया है।
तो जब कोई कहता हो कि समाज-सेवा धर्म है, तो गलत कहता है। साधना की दृष्टि से बिलकुल गलत कहता है। अगर कोई किसी को सिखाता हो कि यही साधना है कि तुम समाज की सेवा करो, तो बिलकुल ही गलत और झूठी बात कह रहा है। अगर कोई समाज-सेवा को धर्म-साधना कहता हो, तो गलत कह रहा है। क्योंकि धर्म-साधना तो वैयक्तिक है, समाज-सेवा से उसका क्या लेना-देना! या राष्ट्र-सेवा से क्या लेना-देना! या राष्ट्रीय-आंदोलन से क्या लेना-देना! लेकिन हां, अगर यह शांति सध जाए वैयक्तिक रूप से तो जरूर उस व्यक्ति का जीवन समाज-सेवा में परिणत हो जाएगा।
सेवा तो धर्म में नहीं ले जाती है, लेकिन धर्म सेवा में ले जाता है। तो जो समाज-सेवा को धर्म समझता हो, वह गलत समझता है। जो धर्म को ही समाज-सेवा समझता हो, वह ठीक समझता है, सम्यक समझता है। सेवा धर्म नहीं है, धर्म जरूर सेवा है। यह भेद बहुत बुनियादी है।
इसलिए अगर आपने सोचा कि समाज-सेवा करेंगे–कहीं हरिजन-उद्धार करेंगे, कहीं जमीन बंटवाएंगे, कहीं कुछ और करेंगे–अगर आपने यह सोचा और आपने सोचा इससे आत्मा की उपलब्धि होगी, तो आप बिलकुल गलती में हैं। इससे कुछ आत्मा की उपलब्धि नहीं होगी। इससे आप एक अच्छे आदमी, एक सज्जन आदमी बन जाएंगे। आप लोकप्रिय होंगे, आपमें एक सूक्ष्म अहंकार का रस और मजा होगा, और कुछ नहीं होगा। सेवक होने का सुख आप लेंगे, सेवा का सुख न ले पाएंगे। सेवक होने का सुख एक है, सेवा का सुख बिलकुल दूसरा है।
लेकिन अगर आप धर्म-साधना में प्रविष्ट होते हैं, जो कि नितांत वैयक्तिक है, तो एक दिन ऐसा आएगा कि वह साधना आपके जीवन को सेवा में परिणत कर देगी। अभी वह जीवन स्वार्थ है, तब वह जीवन सेवा हो जाएगा। आत्म-अज्ञान में जीवन स्वार्थ होता है, आप जो भी करें वहां स्वार्थ किसी न किसी रूप में मौजूद रहेगा। और आत्म-ज्ञान में जीवन सेवा होता है, आप कुछ भी करें वहां स्वार्थ मौजूद नहीं रह सकता है।
मेरे लिए धर्म बुनियादी है, परिणाम उसका जरूर होगा। इसलिए पुराने उन सारे लोगों ने जिन्होंने धर्म को जाना, यह बड़ी हैरानी की बात है कि उन्होंने क्यों नहीं यह कहा कि समाज-सेवा धर्म है! यह कभी विचार आपने किया? जमीन पर अभी करीब सौ, डेढ़ सौ वर्षों से यह खयाल धीमे-धीमे पैदा होना शुरू हुआ कि समाज-सेवा ही धर्म है। रवींद्रनाथ ने गीत गाया है कि कहां तुम भगवान को खोज रहे हो? वह वहां है जहां किसान जमीन तोड़ते हैं और जहां मजदूर पत्थर तोड़ते हैं।
यह बात अच्छी लगती है, कविता भी बड़ी अच्छी है यह। लेकिन यह एक सामाजिक, एक सामाजिक सुधार आंदोलन होगा, लेकिन यह कोई धर्म से संबंधित बात नहीं है।
भगवान न तो वहां है जहां दुकानदार दुकान करता है और न वहां है जहां पूंजीपति शोषण करता है और न वहां है जहां मजदूर पत्थर तोड़ता है। और अगर है तो फिर तीनों में है। यानी वह एक सामाजिक इंफेसिस तो है सुधार की, उससे कोई मतलब नहीं है, लेकिन पिछले सौ वर्षों में सुधार आंदोलन धर्म को डुबाए दे रहे हैं और खाए जा रहे हैं। और कुल कारण इतना है कि धर्म का जो नाम है और जो मूल्य है, उस नाम और मूल्य का हम समाज-सुधार के लिए शोषण करना चाहते हैं, उसका फायदा लेना चाहते हैं। वृत्ति बुरी नहीं है, लेकिन उसे अलग ही चलाया जाए तो बेहतर है। सामाजिक सुधार एक बात है, सुखद है, अच्छी है, होनी चाहिए। धर्म बिलकुल दूसरी बात है। और मेरा मानना यह है कि धर्म में जो प्रतिष्ठित होगा, वही वस्तुतः, वही वस्तुतः सामाजिक हो पाता है। क्योंकि धर्म में प्रतिष्ठित होकर ही वह अहंकार टूटता है जो उसे अलग किए है। वह निर-अहंकार हो जाता है। निर-अहंकारिता ही सेवा है, निर-अहंकारिता ही प्रेम है, निर-अहंकारिता ही वह है जिसे हम चाहें कि व्यक्तियों में हो। और अहंकार सारी बुराई की जड़ है, जो सारे जीवन को विषाक्त कर देती है।
तो राष्ट्र-धर्म की बात, समाज-धर्म की बात न भी करें तो कोई हर्ज नहीं है। यानी अगर धर्म की ही बात पूरी हो जाए तो वह अपने आप हो जाएगा, वह इसका आया हुआ कांसीक्वेंस, इसका सहज परिणाम है। धर्म सधे, सब अपने से सध जाएगा। उससे बड़ी सधने की और कोई बात नहीं है। और नारे और स्लोगन्स–कि यह हरिजन-उद्धार, या वेश्याओं का उद्धार, या विधवाओं का विवाह, या गरीब बच्चों का पढ़ाना-लिखाना यही धर्म है–ऐसा जो हम जोर देते हैं, ये बातें बुरी नहीं हैं, सब अच्छी हैं, लेकिन यही धर्म है, ऐसा जो कह देते हैं तो गलती बात हो जाती है। ये सब लोक-धर्म हैं। होने चाहिए, हों तो बहुत अच्छा है। लेकिन ये धर्म नहीं हैं। धर्म से इसका कोई वास्ता नहीं है।
धर्म तो साधना है समाधि की, धर्म तो अंतःप्रवेश है। वह तो एक पूरी अलग दुनिया है व्यक्ति के भीतर जाने की, एक अलग रास्ता है। वह जरूर घटित हो जाएगा तो वैसा व्यक्ति, उसका जीवन, सारे जगत में जो भी अशुभ है, उसके विसर्जन का माध्यम होगा। उसके भीतर से अशुभ विसर्जित हो जाएगा। धार्मिक होकर पहली दफा व्यक्ति सामाजिक, बल्कि जिसको हम कहें जागतिक, सारे जगत से एक हो जाता है, क्योंकि उसका स्व और वह अहंकार, वह ईगो टूट जाती है और खंडित हो जाती है।
मैं समझता हूं बात मेरी आपको समझ में आई होगी। प्रश्न तो बहुत रह गए, यहां लिखे हुए रह गए, बहुत से अनलिखे आपके मन में रह गए होंगे, फिर कभी मिलते हैं तो उनकी चर्चा हो सकेगी। और धन्य तो वे होंगे, भाग्यशाली तो वे होंगे, जिनके वे बिना पूछे मिट जाएं, जिनके भीतर से वे टूट जाएं और वे निष्प्रश्न हो जाएं। जिस साधना की इस बीच हमने चर्चा की है, अगर उस पर थोड़ी गति हुई, तो जरूर वे अपने आप विसर्जित हो जाने को हैं।