UPANISHAD
Shunya Ke Par 02
Second Discourse from the series of 4 discourses – Shunya Ke Par by Osho. These discourses were given during Mar 6, 1970 to Mar 9, 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य को खंडों में तोड़ना और फिर किसी एक खंड से सत्य को जानने की कोशिश करना, अखंड सत्य को जानने का द्वार नहीं बन सकता है। अखंड को जानना हो तो अखंड मनुष्य ही जान सकता है।
न तो कर्म से जाना जा सकता है, क्योंकि कर्म मनुष्य का एक खंड है। न ज्ञान से जाना जा सकता है, क्योंकि ज्ञान भी मनुष्य का एक खंड है। और न भाव से जाना जा सकता है, भक्ति से, क्योंकि वह भी मनुष्य का एक खंड है।
अखंड से जाना जा सकता है। और ध्यान रहे, इन तीनों को जोड़ कर अखंड नहीं बनता। इन तीनों को छोड़ कर जो शेष रह जाता है, वह अखंड है। जोड़ से कभी अखंड नहीं बनता। जोड़ में खंड मौजूद ही रहते हैं।
जैसे उदाहरण के लिए, हिंदू-मुसलमान को जोड़ कर कभी हम एकता स्थापित नहीं कर सकते। हिंदू-मुसलमान जुड़ जाएं तो भी दो खंड सदा मौजूद रहते हैं। लेकिन हिंदू हिंदू न रह जाए, मुसलमान मुसलमान न रह जाए, तब जो शेष रह जाता है, वह एकता है। हिंदू-मुसलमान को जोड़ने से एकता नहीं होने वाली। हिंदू-मुसलमान दोनों ही हिंदू-मुसलमान न रह जाएं, तब जो शेष रह जाएगी आदमियत, वह एक होगी।
बुद्धि को, भाव को, कर्म को जोड़ने के भी प्रयास किए गए हैं–कि इन तीनों को हम जोड़ लें, लेकिन इन तीनों को जोड़ कर जो बनता है, वह अखंड नहीं है। क्योंकि जो जोड़ कर बनता है, वह अखंड हो ही नहीं सकता। उसमें खंड मौजूद रहेंगे ही। जुड़े हुए होंगे, लेकिन मौजूद होंगे। अखंड तो खंडों से मुक्त होकर ही मिलता है। ट्रांसेंडेंस से मिलता है, अतिक्रमण से मिलता है। जब हम खंडों के ऊपर उठ जाते हैं, तब मिलता है।
अखंड जोड़ नहीं है, अखंड खंड से मुक्त हो जाना है।
मनुष्य का मन खंडन की प्रक्रिया है। मनुष्य का जो मन है, वह चीजों को खंड-खंड करके देखता है। जैसे आपने सूरज की किरण देखी है, सूरज की किरण अगर कांच के, प्रिज्म के टुकड़े में से निकाली जाए तो खंड-खंड हो जाती है। सात टुकड़ों में टूट जाती है। सात रंग पैदा हो जाते हैं। सूरज की किरण सिर्फ शुभ्र है। शुभ्र कोई रंग नहीं है। शुभ्र कोई रंग नहीं है! जब प्रिज्म से किरण टूटती है, तब सात रंग दिखाई पड़ने शुरू होते हैं।
बुद्धि का जो प्रिज्म है, बुद्धि का जो टुकड़ा है, बुद्धि का जो देखने का ढंग है वह चीजों को तोड़ कर देखने का ढंग है। बुद्धि सदा तोड़ कर ही देख सकती है। बुद्धि कभी इकट्ठे को नहीं देख सकती। बुद्धि सदा खंड को देख सकती है। अखंड को नहीं देख सकती।
तो बुद्धि जीवन के सत्य को कई खंडों में तोड़ देती है। वे खंड बुद्धि के द्वारा तोड़े गए हैं और ऐसे ही झूठ हैं, जैसे पानी में हम लकड़ी को डाल दें और लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ने लगे। तिरछी हो नहीं जाती, सिर्फ दिखाई पड़ती है। बाहर निकाल लें पानी के, वह फिर सीधी हो जाती है। सीधी हो नहीं जाती, सीधी थी ही। सिर्फ वह तिरछा दिखाई पड़ना, जो पानी की वजह से पैदा होता था, माध्यम की वजह से पैदा होता था, वह विदा हो जाता है। पानी में डाल दें, फिर वह लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ने लगती है।
क्या लकड़ी पानी के भीतर तिरछी हो जाती है? अगर आप अपना हाथ डाल कर लकड़ी को देखें पानी के भीतर तो भी पता चलेगा कि वह तिरछी नहीं हुई। लेकिन हाथ भी तिरछा मालूम पड़ने लगेगा। पानी के माध्यम में सभी चीजें तिरछी हो जाती हैं, दिखाई पड़ने लगती हैं।
बुद्धि के माध्यम में सभी चीजें टूट जाती हैं, टुकड़ों में हो जाती हैं। और बुद्धि के तीन टुकड़े हैं। विचार है, भाव है, कर्म है। इसलिए बुद्धि जब भी देखेगी तो तोड़ कर देखेगी। फिर बुद्धि एक काम और भी कर सकती है कि इन तीनों को जोड़ ले, लेकिन वह जोड़ भी अखंड नहीं होगा। बुद्धि का जोड़ एकदम भ्रांत होगा। बुद्धि जोड़ सकती है ऊपर से, लेकिन खंड फिर भी मौजूद रह जाएंगे। जिन्हें जोड़ेंगे हम, वे मौजूद रहेंगे। जुड़े हुए भी मौजूद रहेंगे।
अखंड सत्य को जानना हो तो मन को पार करना जरूरी है। और उसे पार करने के लिए कर्म भी सहयोगी नहीं है, भाव भी सहयोगी नहीं है, ज्ञान भी सहयोगी नहीं है। इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है, फिर मैं आपके कल के संबंध में कुछ प्रश्र्न हैं, उनकी बात करूं।
अखंड को जानने के लिए मुझे भी अखंड ही खड़ा होना पड़ेगा, क्योंकि मैं वही जान सकता हूं, जो मैं हूं। मैं उसे नहीं जान सकता, जो मैं नहीं हूं।
आपके पास आंख है, इसलिए आप सूरज की किरण को जान पाते हैं। अगर आपके पास आंख नहीं है तो आप सूरज की किरण को नहीं जान पाते। सूरज को जानना हो तो आंख का होना जरूरी है। अंधा सूरज को नहीं जान पाएगा। आप ध्वनि को सुन पाते हैं, तो उसके लिए कान होना जरूरी है। आपके पास कुछ होना जरूरी है, तभी आप कुछ जान सकते हैं।
अगर अखंड को जानना हो तो आपके पास क्या होना जरूरी है? अगर अखंड को जानना है तो आपके पास एक अखंड चेतना होनी जरूरी है। इंटिग्रेटेड कांशसनेस होनी जरूरी है। जिसमें कोई तोड़ न हो, खंड न हो।
लेकिन अभी हमारे पास जो मन है, वह खंड-खंड ही है। मन खंड-खंड ही होता है। मन के होने का ढंग ही यही है। मन के होने की व्यवस्था ही यही है।
और मन के होने की यह व्यवस्था किसी दिशा में उपयोगी भी है। जरूरी है कि किन्हीं आयाम में, किन्हीं दिशाओं में मन खंड-खंड देखे। और उसका उपयोग भी है। जब कोई आदमी सोच रहा हो, अगर उसी समय भाव भी करे तो सोचना मुश्किल हो जाएगा। जैसे एक वैज्ञानिक विचार करता है तो उस समय उसे समस्त भाव से मुक्त हो जाना जरूरी है। अगर वह भाव भी भीतर रखता है तो फिर वह वैज्ञानिक न हो सकेगा। भाव का मतलब होगा उसकी प्रिज्युडिस, पक्षपात।
एक डॉक्टर बनर्जी हैं। उनका नाम शायद आपने सुना हो, वे जयपुर विश्र्वविद्यालय में पुनर्जन्म के संबंध में खोज-बीन करते हैं। वह मुझे मिलने बंबई आए। दस-बीस लोग इकट्ठे हो गए थे, हम दोनों की बात सुनने को। उन डॉक्टर बनर्जी ने कहा कि मैं यह सिद्ध करना चाहता हूं वैज्ञानिक रूप से कि पुनर्जन्म होता है!
मैंने उनसे कहा कि यह जो बात आप कह रहे हैं, यह बात ही अवैज्ञानिक हो गई है।
उन्होंने कहा: क्या मतलब?
मैंने उनसे कहा: वैज्ञानिक कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहता। और अगर सिद्ध करना चाहता है तो उसका मतलब है सिद्ध करने के पहले ही उसने मान रखा है कि सिद्ध क्या करना है। आप कहते हैं, ‘मैं सिद्ध करना चाहता हूं वैज्ञानिक रूप से कि पुनर्जन्म है,’ यह बात ही अवैज्ञानिक हो गई। अभी सिद्ध नहीं हुआ और आपने सिद्ध मान रखा है मन में! उसी को आप सिद्ध करना चाहते हैं!
वैज्ञानिक यह कहता है, मुझे पता नहीं कि पुनर्जन्म है या नहीं। जो भी होगा, उसे मैं जानना चाहता हूं। उसका अपना कोई भाव नहीं होना चाहिए। अन्यथा वह अपने भाव के अनुरूप सिद्ध कर लेगा। वैज्ञानिक के पास भाव होगा तो वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता। उसे सब भाव छोड़ देने पड़ेंगे। उसे सिर्फ विचार करना पड़ेगा। उसके पास कोई पक्षपात नहीं होना चाहिए। अगर उसके पास जरा सा भी पक्षपात है, तो वह जो खोज करेगा, वह खोज वैज्ञानिक नहीं रह जाएगी।
तो मन को तो खंड करना जरूरी है। मन का खंड होना बहुत आवश्यक है, नहीं तो विचार असंभव हो जाएगा। इसलिए बहुत भावुक लोग विचार नहीं कर पाते। उनका भाव बाधा देता है।
इसलिए जो कौमें बहुत भाव से भरी हैं, वे वैज्ञानिक नहीं हो पाईं। जैसे हमारी ही कौम है। वह भाव से अति प्रेरित है, इसलिए विज्ञान का जन्म नहीं हो पाया। विज्ञान के जन्म के लिए भाव को बिलकुल हट जाना जरूरी है।
और अगर कोई बहुत भावुक हो और बीच-बीच में विज्ञान और विचार उसमें प्रवेश करें, तो भी मुश्किल में पड़ जाएगा। अगर आपको किसी का चेहरा सुंदर लगता है। और आपका विचार बीच में आ जाए और कहने लगे, क्यों सुंदर लगता है? तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे, क्योंकि सुंदर लगना विचार की बात नहीं, सिर्फ भाव की बात है। उसके लिए कोई तर्क की जरूरत नहीं। और अगर तर्क बीच में आया तो आप थोड़ी देर में ही मुश्किल में पड़ जाएंगे। पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि क्यों सुंदर लगता है?
अगर मुझे किसी से प्रेम हो गया, और मैं विचार करने लगूं वैज्ञानिक रूप से कि मेरा प्रेम क्यों हो गया? तो प्रेम खो जाएगा। प्रेम नहीं बचेगा। क्योंकि प्रेम के लिए वैज्ञानिक विचार की कोई भी जरूरत नहीं है। इसलिए जो लोग बहुत वैज्ञानिक ढंग से चिंतन करेंगे, वे प्रेम करने में असमर्थ हो जाएंगे।
जो लोग बहुत वैज्ञानिक ढंग से विचार करते हैं, वे कविता नहीं लिख सकते, क्योंकि काव्य में विचार की कोई जरूरत नहीं। वहां तो विचार जितना कम होगा, उतनी ही काव्य की गति होगी। अगर एक वैज्ञानिक से जाकर मैं कहूं कि मेरी जो प्रेयसी है, उसका चेहरा मुझे चांद जैसा मालूम पड़ता है। तो वह कहेगा, आपका दिमाग खराब हो गया! कहां चांद और कहां स्त्री का चेहरा! इनके बीच तालमेल ही नहीं है। अगर इनको तराजू पर रख कर तौलें तो कोई तौल नहीं है। कहां चांद, कहां एक स्त्री का चेहरा! चांद से स्त्री के चेहरे का क्या संबंध! वह मुझे मुश्किल में डाल देगा और मैं सिद्ध न कर पाऊंगा कि किसी स्त्री का चेहरा और चांद जैसा हो सकता है। हो भी नहीं सकता। लेकिन भाव में हो सकता है, गणित में नहीं हो सकता। गणित और भाव की अलग दुनिया है, उनकी अलग यात्राएं हैं।
मन तीन आयाम में काम करता है। और जिसे कर्म करना हो, उसे भी बहुत भावुक नहीं होना चाहिए, अन्यथा कर्म में बाधा पड़ेगी। जिसे कर्म करना हो, उसे भी बहुत विचार में नहीं पड़ना चाहिए। नहीं तो विचार बाधा डालेगा।
मैंने सुना है कि एक विचारक पहले महायुद्ध में भरती हो गया था। युद्ध था जोर पर और वह विचारक युद्ध में भरती हो गया। लेकिन वह विचारक था। और जब उसे मिलिट्री में ट्रेनिंग दी गई और कहा गया: बाएं घूम जाओ, तो सारे लोग तो बाएं घूम गए और वह खड़ा ही रहा।
उसके प्रधान ने उससे कहा: आप घूमते क्यों नहीं?
उसने कहा: मैं बिना विचारे कुछ भी नहीं कर सकता हूं। मैं सोच रहा हूं कि बाएं क्यों घूम जाऊं?
उसने कहा कि अगर इस तरह सोच-विचार चलेगा तो आप हमारे काम के नहीं। मिलिट्री में सोच-विचार से काम नहीं चल सकता–आज्ञा परम है। उसमें सोच-विचार की आपको जरूरत नहीं है। कहा, बाएं घूम जाओ तो बाएं घूम जाएं।
लेकिन उस आदमी ने कहा: पहले मैं सोच तो लूं कि क्यों घूम जाऊं?
उसे बहुत दिन सिखाया गया, लेकिन वह बाएं-दाएं भी घूम न सका। सोचे न, तो कर न सके। लेकिन भरती हो गया था तो उसके प्रधान ने उसे जो मिलिट्री का मेस था, भोजनालय था, वहां भेज दिया कि तुम वहीं कुछ काम करो।
मटर बनने आए थे सब्जी के लिए तो उससे कहा कि तुम छोटे मटर अलग कर लो, बड़े मटर अलग कर लो। घंटे भर बाद जब उसका प्रधान गया तो वह थाली में सब मटर जैसे थे वैसे ही रखे हुए बैठा था–आंख बंद किए हुए! उसके प्रधान ने कहा: तुम क्या कर रहे हो? अभी तक यह भी न कर पाए!
उसने कहा: मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। आप ठीक कहते हैं, छोटे और बड़े अलग कर दूं। लेकिन कुछ मटर ऐसे भी हैं, जो बिलकुल बीच के हैं–न छोटे हैं, न बड़े हैं, उनको मैं कहां करूं? और जब तक यह तय न हो जाए, तब तक कुछ भी करना मेरे लिए संभव नहीं है। मैं पहले सोच लूं, तब कुछ करूं।
मन विभाजित है, मन के काम के लिए यह जरूरी है कि मन विभाजित हो। मन के कंपार्टमेंट से आवश्यक है कि वहां खंड-खंड हो। और इसलिए मन सत्य को नहीं जान पाता। क्योंकि सत्य कोई उपयोगिता नहीं है।
सत्य तो, अखंड जो है, उसे जानने की बात है। शायद ‘जानना’ कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जानने से ज्ञान का खयाल आता है। इसलिए सत्य को जब हम कहते हैं ‘जानना’ तो ज्ञान का खयाल मत ले लेना आप। सत्य को जानने का मतलब है, सत्य के साथ एक ही हो जाना। लेकिन शायद ‘हो जाने’ से भाव का खयाल आता है। जिसे हम प्रेम करते हैं, उसके साथ एक हो जाते हैं। लेकिन सत्य के साथ ‘एक हो जाने’ का भी यह अर्थ नहीं है, जो भाव का अर्थ होता है।
इसलिए सच बात तो यह है कि सत्य को हम जानना कहें, होना कहें, करना कहें–कोई भी शब्द कारगर नहीं है। क्योंकि हमारे सारे शब्द मन की तीन चीजों के लिए, काम के लिए बनाए गए हैं–या तो कर्म के लिए, या भाव के लिए, या ज्ञान के लिए। हमारी सारी भाषा मन की बनाई भाषा है। इसलिए तो जो सत्य को जानते हैं, वे कहते हैं कि कहना मुश्किल है, क्योंकि उसे कहने के लिए मन ने कोई भाषा विकसित नहीं की है।
मन ने जो भाषा विकसित की है, वह तीन कामों के लिए की है। मन काम कर सकता है, उसकी भाषा है उसके पास। मन प्रेम कर सकता है, उसकी भी भाषा है उसके पास। मन विचार कर सकता है, उसकी भी भाषा है। लेकिन मन जब तीनों नहीं करता है, तब उसके लिए उसके पास कोई भाषा नहीं है। और उसका कारण है।
भाषा हो भी नहीं सकती, क्योंकि तब मन ही नहीं रह जाता। तब जो रह जाता है, वह मन नहीं है। इसलिए उसकी भाषा भी नहीं है।
और फिर भाषा के लिए जरूरी है कि दो हों। बोलने वाला हो, सुनने वाला हो। तो जहां तक मन है, वहां तक भाषा है। क्योंकि जहां तक मन है, वहां तक मैं हूं और आप हैं।
लेकिन जहां मन नहीं रह गया, वहां न कोई सुनने वाला है, न कोई बोलने वाला है। वहां न मैं हूं, न आप हैं। वहां तो जो है, वही रह गया। वहां मैं-तू का भेद भी गिर गया। तो वहां कौन बोले, कौन सुने? इसलिए वहां भाषा नहीं विकसित हो सकी। सत्य को बताने वाली कोई भाषा विकसित नहीं हो सकी। इसलिए जितने भी शास्त्र हैं, वे सत्य को कहने की कोशिशें हैं–असफल कोशिशें, सफल कोशिशें नहीं। अभी तक कोई कोशिश सफल नहीं हो पाई। और ऐसा नहीं है कि आगे सफल हो जाएगी। आगे भी सफल नहीं हो सकती। उसका कारण सिर्फ यही है कि मन के बाहर भाषा का उपाय नहीं है।
लेकिन आदमी तो भाषा से ही समझेगा। आदमी भाषा के बाहर कैसे समझेगा? चूंकि आदमी कहता है, भाषा में ही समझेंगे। तो फिर तीन रास्ते हैं। फिर कर्मयोग है, भक्तियोग है, ज्ञानयोग है। ये भाषा के भीतर कहने के उपाय हैं। लेकिन जो कहा जा रहा है, वह सत्य नहीं रह जाता। क्योंकि जो कहा जा रहा है, वह मन के खंडों से कहा जा रहा है। वह उतना ही झूठा हो गया, जैसे पानी के माध्यम में लकड़ी तिरछी हो जाती है। ऐसे ही मन के माध्यम में सत्य जो है, तीन खंडों में बंट जाता है और बंटते ही झूठ हो जाता है। वह अखंड होकर ही सत्य हो सकता है।
यह ऐसे ही जैसे मैं एक फूल को देखूं और फूल के पचास टुकड़े कर डालूं। और मैं कहूं कि फूल का जो सौंदर्य था–उन पचास टुकड़ों में से एक-एक टुकड़ा आपको दे दूं और आपको कहूं कि जो सौंदर्य मैंने जाना था, न सही पूरा, लेकिन पचासवां हिस्सा तो आप भी जान लेंगे।
नहीं, पचासवां हिस्सा भी आप नहीं जान सकेंगे, क्योंकि फूल का जो सौंदर्य था, वह अखंड फूल में था। पचास टुकड़े करके पचासवां हिस्सा आपके पास नहीं आएगा। आपके पास कुछ भी नहीं आएगा। जो पचासवां हिस्सा आएगा, उसमें सौंदर्य का कोई हिस्सा नहीं आएगा। बल्कि आप थोड़े हैरान भी होंगे कि यह आदमी पागल मालूम होता है। कहता है, फूल बड़ा सुंदर था! और मेरे हाथ में एक टूटी हुई पंखुड़ी आई है, जिससे कुछ भी पता नहीं चलता कि सुंदर क्या था? आप सोचेंगे, अगर मैं कहूं कि यह पचासवां टुकड़ा है, तो आप सोचेंगे, जो मेरे पास है, अगर इसमें पचास का गुणा मैं कर लूं तो शायद सब ठीक हो जाएगा। तो आप अपनी पंखुड़ी में पचास का गुणा भी मन में कर लें, तब भी आप कहेंगे, सौंदर्य नहीं बनता। फूल पचास गुना नहीं था। फूल बात ही अलग थी। वह अखंड था।
एक आदमी है जिंदा। हम उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालें। हड्डी-मांस फैला दें। कोई उसे प्रेम करता रहा हो, और कहता रहा हो कि बहुत सुंदर है, बहुत प्यारा आदमी है। फिर हम उसे ले आएं कि यह रहा तुम्हारा सुंदर और प्यारा आदमी। तो वह कहे कि यह तो वह आदमी ही नहीं है। इन हड्डियों को मैंने कभी प्रेम नहीं किया। इस चमड़े को मैंने कभी प्रेम नहीं किया। इस मांस-मज्जा को मैंने कभी प्रेम नहीं किया। मैंने तो जिसे प्रेम किया था, वह यह नहीं है।
और हम कहें कि वह पूरा का पूरा है, आप तराजू पर तौल लें, क्योंकि जितना वजन उस आदमी का था, उतना ही वजन इनका भी है। आप जाकर लेबोरेटरी में जांच करवा लें। उस आदमी में जितना अल्युमिनियम था, उतना अल्युमिनियम अब भी उसकी हड्डी में है। जितना फास्फोरस था, उतना फास्फोरस अब भी है। आप सारी जांच करवा लें। जितना खून था, वह सब खून मौजूद है। जितना मांस था, वह सब मांस मौजूद है।
फिर भी वह प्रेम करने वाला कहे कि क्षमा करिए, यह वह आदमी नहीं है, क्योंकि वह आदमी एक अखंड इकाई था और ये खंड-खंड टुकड़े हैं। और कुछ चीजें हैं, जो अखंड में ही प्रकट होती हैं और खंड में खो जाती हैं। वे खंड में होती ही नहीं।
मन खंड करने की प्रक्रिया है। मन खंडन की प्रक्रिया है। मन जो है, वह चीजों को तोड़ता है।
उपयोगिता है उसकी इस जगत में, लेकिन उस जगत में नहीं। इस जगत में जहां हम आदमियों के बीच जीते हैं, और दूसरे मनों के साथ जीते हैं, वहां इसकी उपयोगिता है। लेकिन जहां हमें परमात्मा के साथ जीना हो, वहां उसकी कोई उपयोगिता नहीं। वहां मन एकदम छोड़ देना पड़ता है।
जगत के लिए मन एक सार्थक साधन है, सत्य के लिए मन एक बाधा है। जगत के लिए मन एक सहयोग है, सत्य के लिए मन एक हिंडरेंस, एक अवरोध है।
और हमारी कठिनाई यह है कि हम सोचते हैं जब मन से जगत में काम चल जाता है, तो सत्य में काम क्यों न चले? हम उसी तरह की भूल कर रहे हैं, जैसे कि एक बैलगाड़ी जमीन पर चलती है, लेकिन बैलगाड़ी आकाश में नहीं उड़ सकती। तो हम अगर सोचें कि जो बैलगाड़ी जमीन पर चल जाती है, तो आकाश में क्यों न उड़ेगी?
हमारा सोचना गलत है। असल में बैलगाड़ी जमीन पर चलती है, इसीलिए आकाश में नहीं उड़ सकती है। आकाश में उड़ने के लिए दूसरा ही वाहन होगा, क्योंकि आकाश का डाइमेन्शन बदल जाता है। बैलगाड़ी को चलना पड़ता है–अ से ब की तरफ, सीधी रेखा में, हॉरिजेंटल, क्षितिज-रेखा में चलना पड़ता है। हवाई जहाज को उठना पड़ता है–नीचे अ से ब की तरफ, वर्टिकल, ऊपर की तरफ। बैलगाड़ी को जाना पड़ता है आगे की तरफ। हवाई जहाज को जाना पड़ता है ऊपर की तरफ। वह यात्रा बिलकुल भिन्न है। हवाई जहाज का वाहन बिलकुल भिन्न है।
संसार में जाना पड़ता है बाहर की तरफ, सत्य में जाना पड़ता है भीतर की तरफ।
संसार में संबंधित होना पड़ता है दूसरों से, सत्य में संबंधित होना पड़ता है अपने से।
सत्य में मन का कोई उपयोग नहीं है। और हमारे जो तीन मार्ग हैं–ज्ञान के, भक्ति के, कर्म के; वे मन के ही मार्ग हैं। इसलिए उन मार्गों से कोई कभी सत्य तक न पहुंचा है, न पहुंच सकता है।
एक मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं, विचार मौलिक नहीं होता, ओरिजिनल नहीं होता, ज्ञान मौलिक नहीं होता। तो फिर जो आप बातें कह रहे हैं–यानी मैं जो बातें कह रहा हूं–वे मौलिक हैं? उधार हैं? बासी हैं? वे कैसी हैं?
जब मैंने यह कहा कि विचार मौलिक नहीं होता, तब मैंने यह नहीं कहा कि मौलिक कुछ भी नहीं होता। मैंने कहा, विचार मौलिक नहीं होता। दृष्टि मौलिक हो सकती है। दृष्टि विचार नहीं है, दर्शन विचार नहीं है, अनुभूति विचार नहीं है। वही तो मैं कह रहा हूं, सत्य का अनुभव मौलिक होता है। सत्य का विचार मौलिक नहीं होता। जब आप सत्य को जानेंगे, तो वह जानना बिलकुल ओरिजिनल है, बिलकुल मौलिक है। वह उधार नहीं है, बासा नहीं है।
इस बात को थोड़ी सी बारीकी से समझ लेना चाहिए।
जब आप सत्य को जानेंगे तो वह जानना तो मौलिक होगा, लेकिन जब आप सत्य के संबंध में जानते हैं, तब वह मौलिक नहीं होता। सत्य के संबंध में जानना, विचारों को ही जानना है। सत्य को जानना, विचार को जानना नहीं है। सत्य की अनुभूति तो सदा मौलिक होती है, लेकिन सत्य के शास्त्र कभी मौलिक नहीं होते।
लेकिन दो बातें हैं। अगर मैं सत्य को जान लूं और आपसे कहने आऊं, तो मेरी प्रतीति तो मौलिक होगी, लेकिन मेरी भाषा मौलिक नहीं हो सकती। भाषा तो मुझे वही उपयोग करनी पड़ेगी, जो आप उपयोग करते हैं। और इसीलिए तो कठिनाई है सत्य को कहने में, क्योंकि सत्य है सदा ताजा और भाषा है सदा बासी। इसलिए ताजे को जब हम बासी में डालते हैं तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। तब कहने में बड़ी मुश्किल हो जाती है। फिर जरूरी नहीं है कि ताजा आप तक पहुंचे। आप तक कैसे पहुंचेगा? आप तक तो बासे शब्द ही पहुंचेंगे।
इसलिए तो मैं कहता हूं: मुझे सुनने से, किसी और के सुनने से सत्य नहीं मिल जाएगा, सिर्फ बासे शब्द मिलेंगे।
सत्य अगर खोजना हो तो आपको, आपको ही उस जगह खड़ा होना पड़ेगा, जहां सत्य मिलता है।
फिर मैं किसलिए बोल रहा हूं? कोई किसलिए बोल रहा है? कोई किसलिए लिख रहा है?
लिखने और बोलने का उपयोग यह नहीं है कि उससे आपको सत्य मिल जाएगा। लिखने और बोलने का एक ही उपयोग है कि अगर आपको तड़प और प्यास भी मिल जाए तो बस काफी है। अगर आपको यह खयाल भी आ जाए–मेरी सारी परेशानी से–बोलने की, समझाने की, मेरी आंखों से, मेरे उठने-बैठने से, मेरी इस चुप्पी से–अगर इतनी सिर्फ प्यास भी जग जाए कि हो सकता है यह आदमी कहीं पहुंचा हो! शायद कोई ऐसी जगह हो! यह खयाल भी आ जाए। और आप उस खयाल से, उस प्यास से किसी खोज में चले जाएं तो बात काफी हो गई।
अब तक जो भी कहा गया है, उससे सत्य नहीं मिला। सत्य की प्यास भी जग जाए तो काफी है। और प्यास जग सकती है।
मैं जो बोल रहा हूं, वह तो भाषा होगी। वही भाषा होगी, जो हम हजारों साल, लाखों साल से उपयोग कर रहे हैं। वह बासी है। भाषा कैसे ताजी हो सकती है? लेकिन यह हो सकता है कि वह भाषा मैंने किताबों से इकट्ठी की हो और मेरे पास कोई भी अनुभव न हो, तब उस भाषा के पीछे भी कोई मौलिक अनुभव न होगा। तब वह भाषा मुर्दा होगी, वह लाश होगी।
एक लाश और जिंदा आदमी में क्या फर्क होता है? लाश और जिंदा आदमी में इतना ही फर्क होता है कि लाश सिर्फ लाश होती है। उसके पास और कुछ नहीं होता। जिंदा आदमी में भी लाश होती है, लेकिन और कुछ भी होता है, भीतर एक प्राण भी होता है। अगर मैं शास्त्रों से शब्दों को उठा कर आपसे कह दूं तो वे लाश होंगे–मरे हुए।
लेकिन अगर मेरा भी अनुभव हो तो उनके भीतर एक प्राण भी होगा, एक जिंदा बात भी होगी। लेकिन वह जिंदा बात आप तक पहुंचेगी? बहुत मुश्किल है। हो सकता है, आप तक सिर्फ शब्द ही पहुंचें।
बहुत कठिनाई है, सदा की कठिनाई है। कभी भी हल नहीं होगी। और कृपा है बड़ी परमात्मा की कि हल नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अगर मेरे शब्दों से आपको सत्य मिल जाए तो वह सत्य इतना सस्ता होगा कि उसकी कोई कीमत न रह जाएगी। नहीं, वह सत्य आपको ही खोजना पड़ेगा, क्योंकि उसको खोजने में, उसकी यात्रा में, उसमें डूबने में, उस तक जाने में, जाने की यात्रा में, मिटने में–उस सबमें जो होगा, वही, वही बहुमूल्य है। अगर वह बासा उठा कर हाथ में दिया जा सके तो बेमानी हो जाएगा, अर्थहीन हो जाएगा।
एक मां अपने बच्चे को पैदा करती है और एक मां किसी दूसरे के बच्चे को गोद ले लेती है। कभी फर्क अनुभव किया है कि दोनों में क्या फर्क है? मां जब बच्चे को पैदा करती है, तो प्रसव की पीड़ा से गुजरती है। असल में उधार बच्चा ले लेना ज्यादा आसान है। प्रसव की पीड़ा से बच जाते हैं। लेकिन उधार बच्चा उधार ही है। और मां कभी मां नहीं बन पाती। बस दिखावा पैदा होता है। बेटा उसे मां कहने लगता है, वह भी अपने को मां मानने लगती है।
लेकिन एक बहुत बहुमूल्य अनुभव जो मां होने का है, वह उसे कभी नहीं मिल सकता। कैसे मिल सकता है? क्योंकि मां होना, बेटे को उधार लेने से कैसे फलित हो सकता है? मां होने में वह नौ महीने की पीड़ा भी सम्मिलित है, वह प्रसव भी सम्मिलित है, वह बच्चे को जन्म देने का कष्ट भी सम्मिलित है। उस सारे कष्ट के आधार के बिना मां होने की स्थिति का जन्म ही नहीं होता।
ध्यान रहे, जब बेटा पैदा होता है, तब सिर्फ बेटा ही पैदा नहीं होता, साथ में मां भी पैदा होती है। मां को भी पैदा होना पड़ता है। इधर बेटा पैदा होता है, उधर पीछे मां पैदा होती है। यह घटना एक साथ घटती है। हम आमतौर से समझते हैं कि बेटा ही पैदा हुआ, इसलिए भूल हो जाती है। तो हम सोचते हैं कि बेटे को तो उधार भी लिया जा सकता है–मां बन जाएगी। मां कैसे पैदा होगी? बेटे के पैदा होने के क्षण में मां भी पैदा होती है। इसलिए उधार बेटे से काम नहीं चल सकता। धोखा हो सकता है।
सत्य उधार नहीं लिया जा सकता। सत्य को पैदा करने की प्रसव-पीड़ा से गुजरना जरूरी है।
अनुभूतियां मौलिक ही होती हैं।
सिर्फ अनुभूतियां ही मौलिक होती हैं, विचार मौलिक नहीं होते। लेकिन अनुभूति को भी कहना हो तो विचार का उपयोग करना पड़ता है। लेकिन तब विचार केवल वाहन है। वाहन के भीतर जो बैठा है, उसे अगर आप पहचानेंगे तो मौलिक का पता चलेगा। और अगर वाहन को ही पहचानेंगे और भीतर को नहीं पहचान पाएंगे तो आपको भी पता लगेगा कि यह तो वाहन बहुत बार देखा है, इस वाहन में तो कोई बात नहीं है। शब्द तो बहुत बार सुने हैं, शास्त्र बहुत बार पढ़े हैं।
वही तो कहा जा रहा है, जो कहा गया था। गीता में भी वही है, कुरान में भी वही है, बाइबिल में वही है, तब आप खो गए। जब मैं कह रहा हूं, तो जो कह रहा हूं, जिन शब्दों और जिन विचारों से कह रहा हूं, वे तो मौलिक नहीं हो सकते। वे कभी मौलिक नहीं होते। अगर वे मौलिक हों तो आप समझ ही न पाएंगे। मैं एक ऐसी भाषा बोल सकता हूं, जो बिलकुल मौलिक हो। मौलिक भाषा का एक ही मतलब हुआ कि जिसको मैं ही समझ सकता हूं–और कोई न समझ सके। क्योंकि अगर कोई और समझता है, तो बासी हो जाएगी, क्योंकि किसी और को भी पता है।
तो मौलिक भाषा तो सिर्फ पागल ही बोल सकते हैं। पागल मौलिक भाषा बोलते हैं, इसलिए तो उनको पागलखाने में बंद करना पड़ता है, क्योंकि अपनी भाषा वे अकेले ही समझते हैं। कोई और नहीं समझता। मौलिक भाषा बोलनी हो तो पागल होना जरूरी है, क्योंकि उसको आप ही समझेंगे। और जिस भाषा को आप ही समझते हैं, उसके बोलने की भी क्या जरूरत है? उसके बिना बोले भी चल सकता है। उसे कोई समझेगा भी?
भाषा तो बासी होगी, क्योंकि भाषा हमारे बीच का संबंध है। हम सबको समझनी चाहिए। तभी उसका कोई अर्थ है, अन्यथा वह व्यर्थ है। लेकिन अनुभूति मौलिक हो सकती है, और होनी चाहिए। अनुभूति ही मौलिक होती है। लेकिन अनुभूति और विचारों में ऐसी ही भूल हो जाती है, जैसे अपने बेटे में और उधार बेटे में भूल हो जाती है।
मैं एक घर में मेहमान होता हूं। उस घर की जो महिला है, उसको बेटा नहीं हुआ। तो उसने, थोड़े-बहुत नहीं–बहुत करोड़पति महिला है–उसने सत्तर अनाथ बच्चे पाल रखे हैं। थोड़े-बहुत नहीं, सत्तर उसने… बच्चे बढ़ाती ही चली जाती है। कोई भी अनाथ बच्चा आ जाए, तो उसको पालना शुरू कर देती है। वह पूरा घर जो है उनका, एक अनाथालय हो गया। लेकिन फिर भी वह औरत अभी मां नहीं बन पाई। सत्तर बच्चे भी मां नहीं बना पाए!
जब मैं उनके घर मेहमान हुआ तो मैंने कहा कि कब रुकेगी यह यात्रा? सात सौ बच्चे ले लो तो भी मां नहीं बन पाओगी। मैंने कहा: जब तुमने एक बच्चा लिया, तब तुम मां नहीं बन पाईं, तुमने दूसरा ले लिया! अब सत्तर बच्चे इकट्ठे हो गए हैं घर में, लेकिन तुम अभी भी मां नहीं बन पाईं! तुम सात सौ भी ले लो तो भी मां नहीं बनोगी।
उस महिला की आंख में आंसू आ गए, उसने कहा: यह आप क्या कहते हैं! यही तो मुझे भी अनुभव होता है। बच्चे तो मैंने इतने ले लिए, लेकिन मां होने का सुख मुझे नहीं मिल पाया।
मां को जन्म लेना पड़ता है। वह बेटे के साथ ही पैदा होती है। उधार बेटे काम नहीं कर सकते। उधार सत्य भी काम नहीं कर सकते। और विचार और ज्ञान उधार हैं। इसलिए मैं कहता हूं: ज्ञान मार्ग नहीं है।
इसे थोड़ा और समझ लें।
सब ज्ञान उधार हैं। जानना उधार नहीं है, ज्ञान उधार है। ‘जानने’ और ‘ज्ञान’ में थोड़ा फर्क कर लेना। ज्ञान का मतलब नॉलेज और जानने का मतलब नोइंग। जानने की मेरी जो शक्ति है, वह तो मौलिक है। लेकिन जो मैंने ज्ञान इकट्ठा कर लिया है, वह सब उधार है। जानने की शक्ति तो प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी है, लेकिन ज्ञान जो उसने इकट्ठा किया है, वह अपना नहीं है।
और मजे की बात यह है कि जानने की शक्ति उतनी ही कम हो जाती है, जितना ज्ञान हम इकट्ठा कर लेते हैं। इसलिए पंडित का ज्ञानी होना असंभव हो जाता है। इतना जान लेता है वह, दूसरों से इतना उधार कर लेता है; वह इतना इकट्ठा कर लेता है कि उसकी अपनी जानने की क्षमता दब जाती है। फिर कभी वह जान ही नहीं पाता, क्योंकि जानने के पहले ही उसे बहुत कुछ पता होता है। उसे अपनी तरफ से जानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वह सदा दूसरों की आंख से जान लेता है।
अगर कोई सवाल उसकी जिंदगी में उठता है तो उसके पास उत्तर पहले से होते हैं, सवाल पीछे उठता है। अगर उससे कोई पूछे, आत्मा है? तो उसे जानना नहीं पड़ता। वह कहता है, ‘है।’ क्योंकि उपनिषद में लिखा है, क्योंकि गीता कहती है, क्योंकि कृष्ण कहते हैं, महावीर कहते हैं–आत्मा है। यह उसका उत्तर अपना नहीं है। ये उत्तर उधार और बासे हैं। और मजा यह है कि उसने कभी प्रश्र्न ही ईमानदारी से नहीं पूछा, नहीं तो अपना उत्तर भी आ सकता था। वह उसने पूछा नहीं। उसने पूछा: आत्मा है? यह पूछने के पहले ही वह जान रहा है कि है, क्योंकि गीता कहती है, क्योंकि बुद्ध कहते हैं। बुद्ध गलत कहेंगे? गीता झूठ कहेगी? मैं भी नहीं कहता कि वे गलत कहते हैं। लेकिन वह बुद्ध कहते हैं। वे जो भी कहते हैं, अपने लिए कहते हैं। वह तुम्हारे लिए सही नहीं, मेरे लिए सही नहीं। वह उनके लिए सही है, वे जान कर कहते हैं।
बुद्ध के पास एक आदमी आता है, वह गाय चराने वाला एक चरवाहा है। उसने बुद्ध से कहा कि मुझे भी दीक्षा दे दो। बुद्ध ने कहा: तेरी मर्जी है तो आ जा, लेकिन मैंने तेरे संबंध में एक खबर सुनी है। मैंने सुना है कि तू नदी के किनारे बैठ कर दूसरे की गाय-भैंसें गिना करता है। उसने कहा: हां, यह मेरी सदा की आदत है। मुझे गांव भर की गाय-भैंसों की संख्या मालूम है।
बुद्ध ने कहा: तेरी अपनी भी कोई गाय-भैंस है?
उसने कहा: यह तो मुझे खयाल ही नहीं आया! दूसरों की गिनती में मैं इतना उलझा रहा कि यह सवाल ही नहीं उठा कि अपनी भी कोई गाय-भैंस है। और सारे गांव की गाय-भैंसें गिनते-गिनते मुझे तो ऐसा लगने लगा है कि ये सब गाय-भैंसें मेरी हैं। आप भी कैसा सवाल उठाते हैं? यह तो मेरे मन में सवाल ही नहीं उठा।
बुद्ध ने कहा: दूसरों की गाय-भैंसें कितना ही गिन, उससे तेरी गाय-भैंस नहीं हो जाएंगी। हां, इतना हो सकता है कि दूसरे की गाय-भैंसें गिनते-गिनते तुझे सवाल ही भूल जाए कि अपनी भी कोई गाय-भैंस है!
बुद्ध ने कहा: दीक्षा तो तू ले ले, लेकिन ध्यान रख, दूसरों के सत्यों को मत गिनना। नहीं तो पुरानी आदत गाय-भैंस गिनने की यहां ले आए और गिनता रहे कि बुद्ध क्या कहते हैं? और कृष्ण क्या कहते हैं? और राम क्या कहते हैं? इसकी गिनती में मत पड़ जाना। तू क्या कहता है? तेरा भी कुछ कहना है इस जगत में? तू भी पैदा हुआ है तो कुछ कहने योग्य तेरे पास है?
अगर हम अपने से पूछें कि मेरे पास भी कुछ कहने योग्य है, जो मैंने जाना? तो हम एकदम दीन-दरिद्र मालूम पड़ेंगे। हमारे पास कहने योग्य कुछ भी नहीं पता चलेगा। हमने कुछ जाना ही नहीं। इस दरिद्रता को छिपाने के लिए हम दूसरों के शब्दों को दोहराए चले जाते हैं। रोज सुबह उठ कर गीता पढ़ लेते हैं, कंठस्थ कर लेते हैं, श्लोक दोहराए चले जाते हैं। और धीरे-धीरे यह भूल ही जाते हैं कि दूसरे की गाय-भैंस गिन रहे हैं। कृष्ण की गाय-भैंसें गिनने से क्या फायदा हो सकता है? कृष्ण को हुआ होगा, मुझे क्या हो सकता है? हां, इतना हो सकता है कि मैं भूल जाऊं कि अपना भी सवाल है और अपना ही उत्तर चाहिए।
ध्यान रहे, सवाल मेरा और उत्तर आपका, काम नहीं करेगा। सवाल मेरा है तो उत्तर भी मेरा चाहिए। एकाध ऐसा सवाल है, जिसका मेरा उत्तर हो; जो मेरी जिंदगी से आ गया हो, जो मेरे भीतर से उठा हो, जो मेरे प्राणों से निकला हो, जिसका बीज मेरे भीतर अंकुर बना हो, जो मेरा हो? अगर मेरे पास अपना कोई उत्तर नहीं है तो सारी दुनिया के उत्तर इकट्ठे करके भी कुछ भी नहीं होने वाला। मैं दीन ही रहूंगा, दीन ही मरूंगा–गरीब, भिखमंगा।
और ध्यान रहे, धन के संबंध में भिखमंगा होना इतना बुरा नहीं। क्योंकि भिखमंगा आखिर अगर आपके द्वार पर हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है तो ज्यादा से ज्यादा अपना पेट ही भरता है न, दो रोटी ले लेता है। लेकिन ज्ञान के संबंध में जो भिखमंगे हैं, वे अपनी आत्मा को भी भर लेते हैं!
हम सड़क पर भीख मांगते आदमी को तो कहते हैं, बुरा है। तेरे पास हाथ-पैर मजबूत हैं, क्यों भीख मांगता है? लेकिन कभी हम अपने संबंध में नहीं सोचते कि मेरी चेतना पूरी ठीक है–मैं क्यों भीख मांग रहा हूं? क्यों कृष्ण के, राम के, बुद्ध के दरवाजे पर खड़ा हूं?
और ध्यान रहे, पेट भर लेना इतना बुरा भी नहीं है, क्योंकि पेट यहीं छूट जाएगा। आत्मा भर लेना बहुत बुरा है, क्योंकि वह आगे भी साथ चलने वाली है। मैंने भीख मांग कर शरीर में खून बनाया था, कि कमा कर खून बनाया था, मरघट पर दोनों शरीर एक से जल जाएंगे। लेकिन जो आत्मा, मैंने भीख मांग कर भर ली है, वह मेरे साथ होगी। लेकिन सरल दिखता है वह उपाय।
ज्ञान मार्ग बड़ा सरल दिखता है। दिखता यह है कि ज्ञान इकट्ठा कर लो। दूसरों ने जान लिया, तो हमें जानने की जरूरत नहीं। हम उनको याद कर लें, कंठस्थ कर लें, और मान लें कि हमने भी जान लिया! उस ज्ञान में जो दब जाएगा, उसकी जानने की, नोइंग की क्षमता धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है।
जो आदमी दूसरों के पैरों से चलेगा, उसके अपने पैर अगर चलना भूल जाएं तो आश्र्चर्य तो नहीं! और जो आदमी दूसरों की आंखों से देखेगा, अगर उसकी अपनी आंखें देखना बंद कर दें तो इसमें कुछ हैरानी की बात नहीं। अगर अपनी आंखों से देखना है तो अपनी ही आंखों से देखना पड़ेगा। और अगर अपने पैरों में चलने की ताकत बनाए रखनी है तो अपने ही पैरों से चलना पड़ेगा। और अगर अपनी चेतना को यात्रा पर ले जाना है तो अपनी ही चेतना को ले जाना पड़ेगा।
ज्ञान ने बड़ा धोखा दिया है। और आश्र्चर्य तो यह है कि ज्ञान का धोखा इतना सूक्ष्म है कि पता नहीं चलता। ज्ञानी और पंडित में फर्क ही नहीं कर पाते हम। पंडित अक्सर ज्ञानी होने का धोखा दे जाता है। ऐसा नहीं कि दूसरों को दे जाता है। दूसरों को दे दे, तो कोई हर्ज नहीं है, अपने को भी दे जाता है! उसको सबसे बड़ा धोखा खुद को हो जाता है, कि उसे लगता है कि मैंने तो जान लिया!
कितने लोग मेरे पास आते हैं, उन्हें देख कर मेरा हृदय रोने लगता है। वे जो बातें कर रहे हैं, वे सारी की सारी बातें उन्होंने कहीं से सीख ली हैं। और वे उन्हें इस भांति कर रहे हैं कि जैसे वे बातें उनकी हों! और अगर उन्हें झिंझाड़ो, हिलाओ, और उनसे कहो कि ये बातें आपकी नहीं हैं, तो उनका मन बड़ा नाराज होता है। नाराज होगा ही। अगर किसी आदमी को यह खयाल हो कि मैं अमीर हूं, और हम बता दें कि तुम्हारे खीसे खाली हैं, तो वह नाराज होगा।
और वे गुरुओं के पास जा रहे हैं–इसलिए कि उनका ज्ञान और बढ़ जाए; और एक्युमुलेट कर लें, और संग्रह कर लें; और कुछ जान लें। एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जा रहे हैं। दूसरे गुरु से तीसरे गुरु के पास जा रहे हैं। गुरुओं को खोजते फिर रहे हैं। कहां से क्या मिल जाए, उसे इकट्ठा कर लें। और फिर यह सब कचरे को इकट्ठा करके वे सोचेंगे अपने पास भी कोई संपत्ति है! कल वे भी एक गुरु हो जाएंगे! और उनके पास भी लोग आने लगेंगे! और यह विसियस सर्किल बहुत लंबा है।
नहीं, ज्ञान इकट्ठा कर लेने से कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता।
और बुद्धि सिर्फ इकट्ठा कर सकती है, जान नहीं सकती। बुद्धि सिर्फ स्मृति बना सकती है, जान नहीं सकती। इसलिए बुद्धि सिर्फ एक यंत्र है, एक मैकेनिकल डिवाइस है। और बहुत आश्र्चर्य नहीं है…कि अब तो कंप्यूटर बन गया। अब तो बहुत जल्दी आपको अपने भीतर बुद्धि रखने की भी जरूरत न होगी, खीसे में कंप्यूटर भी रख सकते हैं। जरूरी नहीं होगा कि भीतर याद करें चीजों को। एक कंप्यूटर को फीड कर देंगे ज्ञान और वह जवाब दे देगा। जब भी आपको सवाल उठे कि आत्मा है? अपने कंप्यूटर को खीसे से निकाल कर पूछ लेना–आत्मा है? वह कहेगा, है। गीता में यह लिखा है, उपनिषद में यह लिखा है। वह सब बता देगा। आप प्रसन्न होकर कंप्यूटर को खीसे में रख लेना और अपनी यात्रा पर निकल जाना।
बुद्धि भी यही कर रही है। बुद्धि कंप्यूटर है। बुद्धि स्मरण का एक उपाय है, जिसमें आपने सब स्मरण कर रखा है। कभी आपने खयाल किया कि आप बुद्धि नहीं हैं? आप बुद्धि से बहुत अलग हैं। बहुत बार ऐसा हो जाता है, सुबह आप मुझसे मिलने आए हैं और आप मुझसे पूछते हैं: पहचाना? मैं सोचता हूं, देखा तो है कहीं। कहां देखा होगा? मैं अपने कंप्यूटर से पूछता हूं, अपनी बुद्धि से पूछता हूं–कहां देखा होगा?
मैं तो अलग हूं–जो चक्कर में पड़ गया, जो इस चक्कर में पड़ गया कि इस आदमी को कहीं देखा कि नहीं देखा! अब मैं अपने कंप्यूटर से, अपनी मशीन से पूछता हूं, जल्दी खोजो इस आदमी को, कहीं देखा है? और वह आदमी कह रहा है, पहचाने नहीं अभी तक आप मुझे? अब मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं अपनी बुद्धि से कहता हूं, जल्दी पहचानो। यह आदमी कहीं देखा है, यह चेहरा खयाल में आता है–ये बाल, यह शक्ल, यह नाक। बुद्धि कहती है, हां, कहीं देखा है। मैं खोज करती हूं।
वह बुद्धि एक अलग यंत्र है, जो जल्दी से खोज-बीन करेगा। और अगर आपने बहुत जल्दी की तो वह गड़बड़ा जाएगा। यंत्र के साथ जल्दी नहीं करनी चाहिए, नहीं तो गड़बड़ हो जाती है। अगर आपने बहुत ही जल्दी की और कहा कि जल्दी पहचानिए, तो सब गड़बड़ हो जाएगा। अगर आपने थोड़ी सी मुझे फुर्सत दी, मैंने कहा कि बैठिए-बैठिए, जल्दी क्या है? पहचानता हूं, चाय पी लीजिए। दूसरी बातों में आपको लगाया, तब तक मेरा कंप्यूटर काम कर ले। क्योंकि उसके पास हजारों स्मृतियों का जाल है, उसमें उसको खोजना पड़ेगा। लाखों चेहरे हैं, लाखों नाम हैं, उसको जल्दी से खोजना पड़ेगा कि यह कौन आदमी है? जल्दी से इसकी शक्ल का मिलान करो। वह यंत्र काम करेगा।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि अगर आपको किसी का नाम न याद आए तो एकदम से नाम याद मत करिए, नहीं तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी। थोड़ी देर के लिए कुछ और काम करने लगिए। बुद्धि थोड़ी देर में काम करके जवाब दे देगी कि यह रहा नाम! आप बगीचे में चले जाइए, गड्ढा खोदने लगिए, चाय पीने लगिए, सिगरेट पीने लगिए, कुछ भी करिए। बुद्धि को थोड़ी देर के लिए छोड़ दीजिए, ताकि यंत्र जल्दी से अपना काम पूरा कर ले। उसको वक्त लगेगा, समय लगेगा। मशीन है, मशीन को वक्त लगता है–वह एकदम से कैसे उत्तर दे दे! वह थोड़ी देर में बता देगा कि यह नाम रहा। अक्सर ऐसा होता है कि दिन में हम याद नहीं कर पाते, रात सोते वक्त याद आ जाता है। दिन भर याद नहीं कर पाते, रात नींद में याद आ जाता है। सुबह होते से पता चलता है, सब ठीक हो गया।
मैडम क्यूरी, जिसको नोबल प्राइज मिला, जिन सवालों के हल करने पर उसको बड़ी प्रसिद्धि मिली, वे सवाल उसने सब नींद में हल किए! क्योंकि जब वह सवाल हल करने के लिए वह बहुत उत्सुक हो जाती तो मशीन गड़बड़ा जाती! क्योंकि अति तीव्रता के साथ मशीन मुश्किल में पड़ जाती है। आप कहते हैं, जल्दी करो! मशीन तो अपनी व्यवस्था से ही काम कर सकती है।
तो वह सो जाती थक कर रात। और जब उसे एक दफा तरकीब मालूम पड़ गई तो उसने फिर पूरी जिंदगी उपयोग किया। वह रात, शाम तक थक जाती, सवाल हल करते। सवाल हल न होता तो कागज-कलम बिस्तर के किनारे रख कर सो जाती। रात नींद में उठती और जवाब लिख देती और फिर सो जाती!
आपको जान कर हैरानी होगी कि दुनिया के बहुत कठिन सवालों का जवाब आपकी बुद्धि खोज ला सकती है, अगर उसको फीड किया गया है। अगर उसको पहले से भोजन दे दिया गया है तो वह सवाल खोज लाएगी। भोजन ऐसा है, जैसे हम बच्चों को सिखा रहे हैं, जो हम स्कूल में सिखा रहे हैं–वह भोजन है! हम बच्चे को सिखा रहे हैं–कि एक से नौ तक की गिनती होती है, एक से दस तक गिनती होती है। दो और दो चार होते हैं। तीन और तीन का गुणा करने से नौ होता है। ये सब हम फीड कर रहे हैं। फिर कल हम उससे पूछते हैं कि तीन सौ में तीन सौ का गुणा करने से कितना होता है? वह फौरन उत्तर निकाल लाता है, क्योंकि उसके पास सारा यंत्र तैयार है। कंप्यूटर भर दिया गया है। वे सब उत्तर तैयार हैं उसके पास। वह उत्तर खोज लाता है।
बुद्धि एक यंत्र है। और आप बुद्धि से बिलकुल अलग हैं।
मेरे एक मित्र हैं, वे ट्रेन से गिर पड़े। सिर को चोट लग गई और सारी स्मृति खो गई। यंत्र खराब हो गया। वे अब भी ठीक हैं, बाकी हम उनको अब ठीक नहीं मानते। अब उनको कोई ठीक नहीं मानता। मैं उनके पास गया देखने, बचपन में मेरे साथ पढ़े थे। उनके गांव गया, उनके घर गया। वे मुझे ऐसे देखने लगे जैसे उन्होंने मुझे कभी न देखा हो, क्योंकि वह यंत्र टूट गया, जिसमें रिकॉर्ड था। स्मृति उनकी खराब हो गई। वे मुझे पूछने लगे, आप कौन हैं? मैंने कहा: मुझे पहचाने नहीं? उन्होंने कहा: मैं किसी को भी नहीं पहचानता!
राहुल सांकृत्यायन एक बड़े पंडित थे, महापंडित थे। आखिरी-आखिरी वक्त दिमाग से कंप्यूटर खराब हो गया। दिल्ली के अस्पताल में बंद थे। बड़े पंडित थे। और बड़े पंडितों के कंप्यूटर कभी भी खराब हो सकते हैं, क्योंकि ज्यादा काम लेना पड़ता है। इतना काम लिया, इतनी किताबें लिखीं; इतनी किताब लिखीं, इतना काम लिया कि वह दिमाग जवाब दे गया। कंप्यूटर, फिर उसकी सीमा के बाहर बात चली गई। आखिर में हालत उनकी यह हो गई थी कि उनको अ ब स फिर से सीखना पड़ा! क ख ग; एक और एक दो; दो और दो चार–ये आखिर में मरते वक्त वे फिर से सीख रहे थे! क्योंकि सब भूल गए, वह स्मृति जवाब ही दे गई। मशीन ने काम ही बंद कर दिया। लेकिन वे थे।
आप इस बात को ठीक से समझ लेना कि आप जिसको अपना ज्ञान कहते हैं, वह एक यांत्रिक संग्रह है आपके प
ास, जिसका आपको उपयोग करना पड़ता है। वह जरूरी है। जिंदगी के काम के लिए बहुत जरूरी है। अभी मुझे घर वापस लौटना है तो मुझे पता होना चाहिए कि मैं कहां ठहरा हुआ हूं, नहीं तो मैं वापस कैसे लौटूंगा। बिलकुल जरूरी है, लेकिन परमात्मा के पास पहुंचने के लिए उस यंत्र की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि परमात्मा के पास पहुंचने के लिए–इसलिए जरूरत नहीं है उस यंत्र की, कि परमात्मा का न तो कोई पता है, न कोई ठिकाना है, न कोई मकान है। और परमात्मा के पास से जब हम आए हैं उससे–हम उसके पहले हैं, कंप्यूटर बाद में विकसित हुआ है। वह जो हमारा दिमाग है, वह बहुत बाद का विकास है। वह जिंदगी की जरूरत के लिए विकास है।
लेकिन हमें पीछे लौटना है, ओरिजिनल सोर्स पर लौट जाना है, जहां से हम आए हैं। परमात्मा वहां है। तो सब छोड़ कर लौट जाना पड़ेगा। वहां कोई इस यंत्र की जरूरत नहीं है। फिर यह यंत्र वहां काम भी नहीं कर सकता, क्योंकि परमात्मा की हमारी कोई स्मृति नहीं, उससे हमारा कभी मिलना नहीं हुआ। यह यंत्र तो वहीं काम कर सकता है, जिससे हमारा मिलना हुआ हो, पहचान हुई हो।
अगर परमात्मा आज आपको मिल जाए और कंधे पर हाथ रख कर कहे कि भाई जान! पहचाने? तो आप लौट कर कहेंगे कि नहीं पहचाने! आप अपने कंप्यूटर से पूछेंगे, पहचाना? वह कहेगा, नहीं पहचाना, यह आदमी कभी मिला नहीं, यह कौन? हां, अगर कृष्ण भगवान मिल जाएं तो आप पहचान लेंगे, क्योंकि वह कंप्यूटर में भरे हुए हैं। वह हम मंदिर में देख रहे हैं कि बांसुरी बजाए हुए खड़े हैं। अगर वह ऐसी बांसुरी बजाते मिल जाएं तो आप पहचान लेंगे कि हां, यह आदमी पहचाना मालूम पड़ता है। कंप्यूटर उत्तर दे देगा कि हां, यह आदमी ठीक लग रहा है, जरा मोरपंख तिरछा लगाया है, वैसे बाकी ठीक है।
लेकिन क्राइस्ट को मानने वाला न पहचान पाएगा। वह कहेगा, यह कौन आदमी है? यह कैसा मोरपंख लगाया है? यह क्या मामला है? यह कौन है?
आपको अगर जरथुस्त्र मिल जाएं, आप न पहचान पाएंगे, लेकिन जरथुस्त्र को मानने वाला पहचान जाएगा।
नहीं, जिसको आप पहचान लें, वह भगवान नहीं है, क्योंकि भगवान की हमारे पास कोई स्मृति ही नहीं है। हमारे कंप्यूटर ने कभी भगवान जाना ही नहीं। हमारी स्मृति के यंत्र के पास भगवान की कोई स्मृति नहीं है, जिसको कि वह बता दे कि हां, यह रहा भगवान। और अगर आप पहचान लें, रिकग्नाइज कर लें कि ठीक है, यही है, तो आप समझ लेना कि यह भगवान नहीं है। यह आपकी स्मृति का, आपके ज्ञान का ही कुछ मिला-जुला खेल है। जिसको आप बिलकुल न पहचान पाएं, जिसके सामने खड़े होकर कंप्यूटर जवाब दे दे कि यह बिलकुल नहीं पहचान में आता, इसको तो कभी जाना ही नहीं, यह कौन है? सारे भीतर आप खोजें और कोई उत्तर न आए, जिसको रिकग्नाइज न कर सकें आप, पहचान न सकें। तब आप समझना कि किसी दरवाजे पर आ गए, कहीं पहुंचे, किसी मंदिर पर, जहां कि अनजान, अज्ञात, अननोन खड़ा है। जिसको हम पहचानते ही नहीं।
भगवान को पहचाना नहीं जा सकता, क्योंकि भगवान को हम जानते नहीं। उसे हम कभी नहीं पहचानते। इसलिए अगर कोई आदमी आपके पास आए और कहे कि हां, मैंने भगवान को पा लिया है, तो आप समझना कि उसने उन्हीं भगवानों को पा लिया होगा, जो उसकी स्मृति पहचान लेती है। इसलिए मैं आपसे कहता हूं, भगवान की पहचान के लिए स्मृति, बुद्धि और ज्ञान का कोई यंत्र काम नहीं देगा। वह अज्ञात है। वह सदा अज्ञात है। इसलिए तो रहस्य है।
रहस्य और मिस्ट्री का मतलब क्या होता है? मतलब यह होता है कि जिसको हम न पहचान पाएं। जिसके सामने हम खड़े हो जाएंगे अवाक–आंखें खुली रह जाएंगी, झपकना मुश्किल हो जाएगा। मन कहेगा, नहीं पहचानते। बुद्धि कहेगी, नहीं जानते। भाव कहेंगे, कोई संबंध नहीं। कर्म कहेगा, हमारी, हमारी कोई सामर्थ्य नहीं। सारा व्यक्तित्व कहेगा–कुछ भी नहीं; हम कुछ जानते नहीं, पहचानते नहीं; यह कौन है? यह क्या है? यह कैसा है? और जब सब आपका यंत्र एकदम ही थक कर खड़ा हो जाएगा, कोई जवाब न आएगा। जब आपका अहंकार कहेगा, अपनी तो कोई गति नहीं, तभी आपका सिर झुक जाएगा उन चरणों में। उस अज्ञात के चरणों में आप गिर पड़ेंगे।
समर्पण आपके करने से नहीं होगा। आपके सब यंत्र जवाब दे देंगे, आपका कोई यंत्र सहयोगी न होगा, आप अचानक पाएंगे कि चरणों में गिर गए हैं–अज्ञात के। खो गया वह आदमी, जो आप थे–यंत्रों का जोड़। और बच गया सिर्फ वही, जो सारे यंत्रों के पीछे छिपा है। वही बच गया।
इसलिए जो जान लेता है परमात्मा को, वह कहेगा नहीं कि मैंने जान लिया। नहीं कहेगा! और अगर कहता हो, तो उसने जाना नहीं होगा। अगर आप उसे पूछने जाएंगे कि बताओ, परमात्मा को जान लिया? तो हो सकता है, वह हंस दे। हो सकता है, चुपचाप आपकी तरफ देखे। लेकिन यह न कह सकेगा कि हां, जान लिया, क्योंकि हां कहने की भी तो स्थिति हमारी नहीं है। हां कौन कहेगा उसके लिए? कौन सैंक्शन देगा? कौन सर्टिफिकेट देगा उसके लिए कि हां यही है। नहीं, वह भी नहीं।
जीसस को सूली पर लटकाने के पहले जिस गवर्नर, वाइसराय के द्वारा सूली दी गई उसे–पायलट के द्वारा। उस पायलट ने आकर जीसस को सूली लगने के पहले, पास में आकर पूछा कि एक सवाल मुझे भी पूछना है, मरने के पहले जवाब दे जाओ।
जीसस ने कहा: क्या सवाल है?
पायलट ने पूछा: वॉट इ़ज ट्रूथ? सत्य क्या है?
सोचा उस पायलट ने, यह आदमी मर रहा है, आखिरी वक्त, और लोग कहते हैं कि इसे पता है, इससे पूछ लेना चाहिए।
जीसस चुप रह गए!!
उस आदमी ने कहा: जवाब दें, वॉट इ़ज ट्रूथ?
फिर भी जीसस चुप रह गए!! शायद उन्होंने आंख से कहा होगा, ओंठों के भीतर बिना शब्दों के कहा होगा, प्राणों में कहा होगा। लेकिन पायलट तो सिर्फ आदमी की भाषा समझता है। कंप्यूटर उसका जो पहचान लेता है, वही भाषा समझता है।
उसने कहा: नहीं बोलता यह आदमी, कुछ भी जानता नहीं मालूम पड़ता है। सूली दे दी गई!
जीसस ने उत्तर नहीं दिया। हां, कोई पंडित होता, जीसस का कोई पादरी होता–वह भी उत्तर दे देता। वह भी कह देता कि बाइबिल में ऐसा लिखा है। सत्य यह है। जीसस ने उत्तर नहीं दिया और जीसस का पादरी उत्तर दे देता है! जरूर कहीं कोई फर्क है। जीसस जानते हैं और पादरी नहीं जानते।
सत्य क्या है–यह आदमी की सामर्थ्य है कि कह सके? परमात्मा क्या है–यह आदमी की सामर्थ्य है कि पहचान सके?
वहां तो हमारी सारी व्यवस्था गिर जाती है, केऑस हो जाती है, अराजकता हो जाती है। सब इंतजाम गिर जाता है, सब शब्द खो जाते हैं। सब भाषा खो जाती है। वह आदमी ही खो जाता है, जो कल तक खोज रहा था। सन्नाटा और शून्य रह जाता है। वहां कौन पहचाने? किसको पहचाने? पहचान भी ले तो कहां स्मरण करे? कहां उत्तर दे? किसको बताए? वहां सब खो जाता है।
नहीं, ज्ञानी वहां नहीं पहुंचते। वहां अज्ञानी पहुंच जाते हैं।
अज्ञानी से मेरा मतलब? अज्ञानी से मेरा मतलब वह है, जिसका ज्ञान–जो ज्ञान भी व्यर्थ हो गया, ऐसा जान लेता है। जो ज्ञान से भी ऊब जाता है। जो देखता है, ज्ञान में भी कुछ सार नहीं। जो ज्ञान को भी कहता है कि ठीक है, स्मृति सम्हाले। ठीक है, कामचलाऊ है। जिंदगी की जरूरत पूरी करता है, लेकिन कहीं ले नहीं जाता। ज्ञान कोई मार्ग नहीं है। लेकिन ज्ञान से भटकना जरूरी है। जरूरी इसलिए है कि यह पता भी न चलेगा।
कृष्णमूर्ति कहते हैं कि वे सौभाग्यशाली हैं कि उन्होंने शास्त्र नहीं पढ़े। और मैं कहता हूं कि मैं सौभाग्यशाली हूं कि मैंने शास्त्र पढ़े। क्योंकि शास्त्र पढ़ कर मुझे पक्का पता लग गया कि वहां कुछ भी नहीं है। बिना पढ़े पक्का पता नहीं लग सकता।
शास्त्र पढ़ लेना जरूरी है, ताकि पता चल जाए कि कुछ भी नहीं है। ज्ञान को भी खोज लेना जरूरी है, ताकि पता चल जाए कि यहां कुछ भी नहीं है, ताकि वह दिशा समाप्त हो जाए। तो मेरे लिए ज्ञानमार्ग का एक ही उपयोग है। चलना आप जरूर–चल लेना ठीक से, ताकि मन में कहीं यह खयाल न रह जाए कि पता नहीं शास्त्र में कुछ होता। न, उसे देख ही लेना ठीक से। वहां कुछ भी नहीं है।
शास्त्र का एक ही उपयोग है कि शास्त्र पढ़ने से शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन वह व्यर्थ हो जाना बड़ा भारी उपयोग है। क्योंकि तब वह झंझट समाप्त हो जाती है। तब आप ज्ञान के चक्कर में नहीं रहते। तब आप ‘जानने’ की दिशा में बढ़ते हैं। तब आप ‘ज्ञान’ की फिकर छोड़ देते हैं। तब आप एक बात जान लेते हैं कि दूसरे से नहीं हो सकेगा, दूसरा नहीं दे सकेगा, दूसरे से नहीं मिल सकता है।
यह इतनी बड़ी घटना है कि अगर मुझे यह पक्का ही पता चल जाए कि दूसरे से नहीं मिल सकता है तो मैं थ्रोन बैक, अपने पर ही फेंक दिया गया। अब तैरना है, डूबना है, मरना है–मुझे ही। अब कुछ रास्ता नहीं, कोई दूसरा नहीं दे सकता। कोई दूसरा नहीं दे सकता! और जिस दिन मुझे यह पक्का खयाल हो जाए कि कोई दूसरा देने वाला नहीं है, उस दिन मेरे भीतर इतनी ऊर्जा का जन्म होता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं! वह तभी तक रुकी रहती है–जन्म से–जब तक मैं दूसरे के कंधे का, हाथ का सहारा लिए रहता हूं।
अगर आपको समुद्र में फेंक दिया गया हो। कोई बचाने वाला न हो, कोई नाव न हो, कोई सहारा न हो–क्या करिएगा? हाथ-पैर नहीं तड़फड़ाइएगा? तैरने का मतलब क्या है और? तैरने का मतलब सिर्फ हाथ-पैर फेंकना है। और जब आदमी हाथ-पैर फेंकता है तो थोड़ी देर में व्यवस्था से फेंकने लगता है। पहले अव्यवस्था से फेंकता है, फिर व्यवस्था से फेंकने लगता है।
लेकिन तैरने की एक शर्त जरूरी है कि दूसरे का सहारा न हो। अगर दूसरे का सहारा हो तो कोई तैरना नहीं सीख सकता है। जो तैरना सिखाते हैं, वे कुछ भी नहीं सिखाते। वे सिर्फ एक काम करते हैं कि आपको उठा कर पानी में फेंक देते हैं। और सहारा नहीं देते और खड़े होकर किनारे पर देखते रहते हैं। कोई नहीं डूबना चाहता–हाथ-पैर फेंकने लगता है। और तैरना सबको मालूम है। एक दफे हाथ-पैर फेंकने की सिचुएशन पैदा होनी चाहिए। सिर्फ स्थिति आ जानी चाहिए कि हाथ-पैर फेंकना पड़े। सब आदमी तैरना जानते हैं।
तैरना कोई कला है? तैरना सबका स्वभाव है। पटक दो पानी में, सभी लोग हाथ-पैर फेंकेंगे। फर्क इतना ही पड़ता है कि जैसे-जैसे हाथ-पैर फेंकते हैं, हाथ-पैर ढंग से फिंकने लगते हैं। चार-छह दिन बाद व्यवस्था से फिंकने लगते हैं और कोई फर्क नहीं पड़ता।
धर्म सिर्फ उन्हें उपलब्ध होता है, जो जीवन के सागर में सब सहारे छोड़ कर डूबने की तैयारी कर लेता है, फिंक जाता है।
मैं गुरु उसको कहता हूं, जो आपको फेंक दे और घर की तरफ चला जाए। फिर लौट कर भी न देखे कि आपका क्या हुआ? और अगर गुरु आपका हाथ पकड़ कर चलाए तो वह गुरु आपका दुश्मन है। वह आपको मार डालेगा, क्योंकि आप कभी तैरना न सीख पाएंगे, क्योंकि कभी आप अपने ऊपर न फेंके जाएंगे।
ज्ञान इतना ही कर दे अगर, कि आपको फेंक दे पानी में और आपको पता चल जाए कि कोई शास्त्र न बचाएगा, कोई ज्ञान न बचाएगा। कुछ भी नहीं हो सकता है इससे, तो आपकी जिंदगी में एक क्रांति शुरू हो जाएगी।
इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं: ज्ञान मार्ग नहीं है। ज्ञान एक भटकन है। जब दिखाई पड़ जाती है तो आप उसके बाहर हो जाते हैं। और ऐसा नहीं है कि ज्ञान की भटकन जब दिखाई पड़ जाती है तो आपको फिर मीलों पीछे लौटना पड़ता है, क्योंकि आप मीलों चले गए! ऐसा नहीं है। जिस दिन आपको दिखाई पड़ता है कि ज्ञान का मामला बेकार है, आप तत्क्षण बाहर हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि मैं हजार मील चला आया ज्ञान के रास्ते पर–तब मैंने गीता सीख ली, कुरान सीख लिया, उपनिषद सीख लिया तो अब मुझे भूलना पड़ेगा। नहीं, भूलने का सवाल नहीं, भूलने की जरूरत भी नहीं। सिर्फ इतना ही जानना काफी है कि यह जो याद मैंने कर लिया है, यह ज्ञान नहीं है, यह सिर्फ स्मृति है। बात खत्म हो गई। यह मेरा जानना नहीं है, यह किसी और का जानना है। यह उधार है, बासा है। मेरा नहीं है, मेरी अनुभूति नहीं है, मौलिक नहीं है, इतना जान लेना काफी है। कोई गीता को भूलने की जरूरत नहीं है।
एक सज्जन मेरे पास आते थे। वे मेरी बातें सुनते थे। एक दिन आए और उन्होंने कहा कि आपकी बातें मुझे इतनी जंच गईं कि मैं गीता और उपनिषद वगैरह जो मेरे पास थे, सबको बांध कर कुएं में फेंक आया।
मैंने कहा: कुएं ने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा? अब कुआं दिक्कत में पड़ेगा, जितनी दिक्कत में तुम पड़े थे। अब वह गीता और उपनिषद पढ़ने लगा तो मरा! अब उस कुएं का क्या होगा? वह कहां फेंकेगा? उसके पास तो हाथ-पैर भी नहीं! तुमने कुएं को क्यों दिक्कत में डाला?
उन्होंने कहा: आप क्या कहते हैं! मैं तो सोचता था कि आप बड़े खुश होंगे।
मैंने कहा: यह खुश होने का सवाल नहीं है, अगर तुम गीता और उपनिषद को कुएं में फेंक कर आते हो, तो इससे भी पता चलता है कि तुम अभी उससे मुक्त नहीं हुए। अभी राग मौजूद है। अभी तुमको पहले ऐसा लगता था कि गीता के ऊपर सिर रखो तो ज्ञान मिलेगा! अब तुमको ऐसा लगता है कि गीता को कुएं में फेंको तो ज्ञान मिलेगा! लेकिन मिलेगा गीता से ही! अब यह कुएं में फेंको या सिर रखो!
शास्त्रों को जला नहीं डालना है। वे बड़े उपयोगी हैं। उनको फेंक नहीं आना कुओं में, क्योंकि कुओं का कोई कसूर ही नहीं है। आदमी ने पैदा किए हैं, आदमी को ही ढोना पड़ेंगे। कुएं क्या करेंगे? कुओं को क्या मतलब है? नहीं, न फेंक आना है, न जला देना है। शास्त्र बड़े कीमती हैं। और उनकी सबसे बड़ी कीमत यह है कि उनको आप पढ़ेंगे तो आप उनसे मुक्त हो जाएंगे। जानेंगे कि नहीं कुछ मिला। तो शास्त्र पढ़ें, ज्ञान की खोज करें, लेकिन पूरे वक्त जांच करते रहें, कुछ मिला? कुछ पाया? शब्द ही शब्द, शब्द ही शब्द–सत्य कुछ भी नहीं! और जब शब्दों का जाल घेर ले और दिखाई पड़ जाए कि सत्य तो कुछ भी नहीं मिला–शब्द ही शब्द मिल गए! शब्द ही शब्द मिल गए!
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
एक आदमी था, बहुत अदभुत आदमी था, लारेंस। वह अरेबिया में, बहुत दिन तक अरब में आकर रहा। अरब की क्रांति में उसने भाग लिया था। और धीरे-धीरे अरब लोगों के साथ उसका इतना प्रेम हुआ कि वह करीब-करीब अरबी हो गया। फिर अपने कुछ अरब मित्रों को लेकर वह पेरिस गया दिखाने। पेरिस में एक बड़ा मेला भरा हुआ था तो उसने कहा कि चलो तुम्हें पेरिस दिखा लाऊं। एक बड़े होटल में ठहराया। जाकर पेरिस घुमाया–एफिल टॉवर दिखाया, लूव्र म्यूजियम दिखाया, सब बड़ी-बड़ी चीजें दिखाईं। लेकिन अरबों को किसी चीज में रस न था। उनको रस एक अजीब चीज में था, जिसकी आप सोच ही नहीं सकते। लूव्र म्यूजियम में, वे कहते, जल्दी करें, जल्दी होटल वापस चलो!
मेले में दिखाने ले गया। एक्झिबीशन दिखाई–बड़ी-बड़ी चीजें थीं। एफिल टॉवर दिखाया। वे कहते कि जल्दी वापस चलो और जल्दी से जाकर बाथरूम में घुस जाते। इसने कहा कि मामला क्या है?
सिनेमा में ले जाएं तो वे बीच में कहें कि जल्दी वापस चलो और जाकर सबके सब, जो आठ-दस साथी थे, सब अपने-अपने बाथरूम में अंदर हो जाते। तो इसने कहा कि मामला क्या है?
पता चला कि मामला यह था–तो उनके लिए सबसे चमत्कार की चीज थी–टोंटी नल की! रेगिस्तान में रहने वाले लोग थे, उनके लिए इतना बड़ा मिरेकल था यह कि टोंटी खोलो और पानी बाहर! वह तो बस बाथरूम जो इतना बड़ा चमत्कार था–क्योंकि पानी की बड़ी तकलीफ थी और उनकी समझ में नहीं आता था कि यह होता कैसे कैसे है? तो वे तो बार-बार दिन में बीस दफा अंदर बाथरूम में जाकर टोंटी खोल कर देखते कि फिर पानी गिर रहा है!
जिस दिन जाने का वक्त आया, सब वापस लौटने को थे। कार बाहर आ गई। सामान रख गया, सब अरब एकदम नदारत हो गए! तो उसने खोजवाया कि वे कहां गए? मैनेजर से पूछा कि सब साथी कहां गए? अभी तो यहां थे। उसने कहा कि पता नहीं। कहीं बाहर तो नहीं निकल गए? होटल के आस-पास दिखवाया, कहीं भटक न जाएं, भाषा नहीं जानते। लेकिन वे कहीं न निकले। फिर उसे खयाल आया कि कहीं वे बाथरूम में न चले गए हों, जाने का वक्त है।
वह गया। अंदर जाकर देखा तो वे सब अपने-अपने बाथरूम में नल की टोंटी निकालने की कोशिश करते थे! तो उसने पूछा: यह तुम क्या कर रहे हो पागलो?
तो उन्होंने कहा: इन टोंटी को हम घर ले जाना चाहते हैं। ये बड़ी अदभुत हैं। बस खोलो और पानी निकलता है!
उसने कहा कि पागलो, टोंटी ले जाने से कुछ भी न होगा, क्योंकि टोंटी के पीछे बड़ा जाल है, बड़ा रिजर्वायर है पानी का। उधर से यहां तक आई हुई नालियां पड़ी हैं, उनसे पानी आ रहा है। टोंटी से कोई मतलब नहीं है।
पर वे बिचारे यही समझते थे कि इतनी सी टोंटी, इसको खोल कर ले चलो घर, अरब में मजा आ जाएगा! जो भी देखेगा वही चमत्कृत होगा! खोलो टोंटी और पानी निकल आएगा!
वह जो शास्त्र है सिर्फ टोंटी है। उसके पीछे बड़ा जाल है। शास्त्र की टोंटी खोलने से कोई ज्ञान नहीं निकल आएगा। उसके पीछे बड़ा जाल है। कृष्ण की गीता सिर्फ टोंटी है, पीछे कृष्ण का बड़ा जाल है, बड़ा रिजर्वायर है। वह आप गीता को दबाए फिर रहे हैं। आप वही गलती कर रहे हैं, वे जो अरब नासमझी में वहां कर रहे थे। शास्त्रों को दबाए फिरने से कुछ भी न होगा। वे सिर्फ टोंटियां हैं, उनसे कुछ भी नहीं निकल सकता। उनके पीछे बड़ा जाल है। उस पीछे बड़े जाल पर पहुंचना होगा, तो आप भी शास्त्र बन जाएंगे। आप जो बोलेंगे, वह शास्त्र बन जाएगा। लेकिन उस पीछे के रिजर्वायर पर, वह पीछे जलस्रोत परमात्मा का, सत्य का, जहां है वहां पहुंचना पड़ेगा। टोंटी ले जाने से कुछ भी नहीं हो सकता।
टोंटियां बिक रही हैं, मुफ्त भी बिक रही हैं। वह गीता प्रेस गोरखपुर टोंटियां ही छापता है। अपने-अपने घर में रख लो। दो-दो पैसे, चार-चार पैसे में रख लो। खोलो टोंटी और ज्ञान की धारा बहने लगेगी। नहीं, टोंटियों से कुछ भी नहीं हो सकता है–ज्ञान नहीं, जानने की क्षमता।
और प्रश्र्न रह गए हैं, वह कल सुबह बात करूंगा।
मेरी बातों को इतनी शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।