UPANISHAD
Shunya Samadhi 03
Third Discourse from the series of 9 discourses – Shunya Samadhi by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन-साधना के दूसरे सूत्र ‘आनंद-भाव’ पर आज सुबह हमने बात की। उस संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। उन पर अभी हम विचार करेंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि
मैंने आनंद-भाव के लिए समझाते समय यह कहा कि आज तक की परंपरा की दृष्टि दुख की रही है। क्या सारी परंपरा ही गलत है? उन्होंने ऐसा पूछा है।
परंपरा गलत है या सही, यह बहुत जरूरी सवाल नहीं है, जरूरी सवाल यह है कि परंपरा को पकड़ने वाले लोग गलत होते हैं या सही? परंपरा को पकड़ लेने की, क्लिंगिंग की जो आदत है, वह गलत है। उससे व्यक्ति निज के अनुभव और सत्य को कभी भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। मुझसे पहले, आपसे पहले, हजारों वर्षों में हजारों लोगों ने प्रेम किया है। लेकिन जब मैं या आप प्रेम करने की यात्रा पर गतिमान होते हैं, तो प्रेमियों की परंपरा से हम क्या सीखते हैं? कुछ भी नहीं सीखते हैं। उन प्रेमियों के शब्दों को सीखते हैं? उन प्रेमियों के गीतों को सीखते हैं? उन प्रेमियों से हम क्या सीखते हैं? कुछ भी नहीं। हमारे प्रेम का अपना ही आविर्भाव होता है।
प्रेम हर बार नया है, वह कभी भी पुराना नहीं पड़ता। उसकी कोई परंपरा नहीं होती, उसकी कोई ट्रेडीशन नहीं होती। प्रत्येक बार जब कोई प्रेम करता है, तो उतना ही नया प्रेम है वह, जितना मनुष्य-जाति में कभी भी किसी ने किया होगा। उस प्रेम का न कोई पीछा है, न कोई आगा है। वह प्रेम अपने में पूरा और परिपूर्ण है। प्रेम की कोई परंपरा नहीं होती। आनंद की भी कोई परंपरा नहीं होती। परमात्मा की भी कोई परंपरा नहीं होती। परंपराएं होती हैं मिट्टी और पत्थरों की। जीवन की, जीवंतता की कोई परंपरा नहीं होती।
एक मकान अगर हम बनाना चाहें; तो जैसे अमरीका में आकाश को छूते हुए एक-एक सौ मंजिल के मकान हैं, वैसे मकान हम बना सकते हैं। एक मंजिल के ऊपर दूसरी मंजिल, दूसरी मंजिल के ऊपर तीसरी, तीसरी के ऊपर चौथी। एक ईंट के ऊपर दूसरी, दूसरी के ऊपर हजारों ईंटें रख सकते हैं हम। मकान ऊपर की तरफ उठ सकते हैं, लेकिन आदमी एक-दूसरे के ऊपर खड़े नहीं होते हैं। हर आदमी जमीन पर खड़ा होता है और पृथक खड़ा होता है। न तो बेटा बाप के ऊपर खड़ा होता है, न शिष्य गुरु के ऊपर खड़ा होता है, कोई किसी के सिर पर खड़ा नहीं होता। आदमियों की कोई श्रृंखला नहीं होती, नीचे से खड़ी होती हो और ऊपर चली जाती हो। प्रत्येक आदमी भूमि पर, अपने पैरों पर और अपनी भूमि पर खड़ा होता है।
हजारों साल में ऐसा नहीं होता कि आदमी एक-दूसरे के ऊपर खड़े होते हों, कोई आदमी किसी के ऊपर खड़ा नहीं होता। आपको अपने पिता की संपत्ति मिल सकती है, क्योंकि संपत्ति जड़ है। आपको अपने पिता का मकान मिल सकता है, क्योंकि मकान पदार्थ है। लेकिन आपको अपने पिता का कोई भी अनुभव नहीं मिल सकता। जो भी जीवन का अनुभव है, उस अनुभव को आपको स्वयं ही पाना होगा। अनुभव की खोज खुद ही करनी पड़ती है। अनुभव बासे और उधार नहीं मिलते। कोई किसी को अनुभव नहीं दे सकता है। लेकिन अनुभव की जगह शब्द जरूर मिल सकते हैं और शब्दों की परंपराएं हो जाती हैं। और इसलिए शब्दों की परंपराएं अनुभव को रोकने का कारण हो जाती हैं। और फिर एक बार जब सेंटिटी मिल जाती है, पवित्रता मिल जाती है, और किसी चलती हुई बात के लिए प्रामाणिकता, ऑथेरिटी मिल जाती है, तो फिर हम पूछना ही बंद कर देते हैं कि यह सब कैसे हुआ और क्या हुआ, और चुपचाप उसको स्वीकार करते चले जाते हैं।
एक राजधानी में, गजनी में, महमूद एक सुबह रास्ते से अपने घोड़े पर निकलता था। सुबह ही थी, अभी सूरज निकल रहा था और सड़कें चलनी शुरू हो रही थीं। रास्ते पर उसने एक गरीब और बूढ़े मजदूर को देखा, वह मजदूर एक बहुत बड़े पत्थर को अपने सिर पर उठा कर ढो रहा था, सुबह की ठंडी हवाओं में भी उसके माथे पर पसीना था और उसकी छाती फूल रही थी। वह बूढ़ा और कमजोर आदमी था, उसके कपड़े फटे थे और भारी पत्थर उठाए हुए था। उसके पास रुका महमूद और उसने कहा: मजदूर! पत्थर को नीचे गिरा दे। ड्रॉप दैट स्टोन, पोर्टर!
राजा की आज्ञा थी, उस मजदूर को उस पत्थर को बीच सड़क पर गिरा देना पड़ा। महमूद पत्थर को गिरवा कर अपने घर चला गया। गांव भर में खबर फैल गई कि बादशाह ने पत्थर गिरवाया है, जरूर उसमें कोई मतलब होना चाहिए। बीच रास्ते पर वह पत्थर पड़ा है, लोगों को निकलने में तकलीफ हो गई, वाहन निकलने में तकलीफ हो गई। लेकिन जब राजा ने पत्थर गिराया है, तो जरूर कोई बात होगी। इस पत्थर को हटाया नहीं जा सकता।
महमूद उसके बाद बीस साल जिंदा रहा। वह बीस साल राजपथ पर पत्थर पड़ा रहा। उसको कोई उठा नहीं सका। अधिकारियों ने रोक लगा दी कि जब सम्राट ने पत्थर गिराया है, तो कोई मतलब होगा। बीस साल की परंपरा बन गई फिर। फिर महमूद मर गया। मर जाने के बाद भी वह पत्थर वहीं रहा, उसको नहीं हटाया जा सका। क्योंकि उसके बाद वाले लोगों ने भी आदर दिया, सम्मान दिया महमूद की बात को।
पता नहीं वह पत्थर अब भी हटाया है या वहीं है। जहां तक तो वह पत्थर वहीं होगा; क्योंकि आदमियों में इतनी अक्ल नहीं होती कि वे परंपराओं पर विचार कर लें। और अगर एक रास्ते पर ऐसा पत्थर होता, तो हम माफ भी कर सकते थे; आदमी के हर रास्ते पर ऐसे अनेक पत्थर हैं, जिनको पार करना मुश्किल है। लेकिन परंपराओं ने रखे हैं, इसलिए कोई हटाने का विचार नहीं कर सकता।
परंपराएं आदमी के लिए आंखें नहीं बन सकती हैं। आंखें खुली हुई होनी चाहिए। और रास्ते पर पत्थर चाहे कितनी ही आदृत परंपराओं से रखे गए हों, अगर वे जीवन की धारा में बाधा बनते हों, तो उन्हें हटा देने की हिम्मत खोने की कोई भी जरूरत नहीं है। और आदमियों ने जिन पत्थरों को रखे हैं, अगर उन्हें आदमी नहीं हटाएंगे तो और कौन हटा सकता है? उन्हें हटाने का सामर्थ्य और समझ होनी चाहिए। लेकिन यह समझ नहीं होती। और परंपराओं में घुस कर भी हम कभी पूछते नहीं कि चीजें कैसे घट गई हैं? चुपचाप अंधे आदमियों की तरह स्वीकार कर लेते हैं।
एक और घटना मैंने सुनी है।
एक गांव था, उस गांव में दो समानांतर सड़कें थीं, सारा गांव दो सड़कों पर ही बसा हुआ था। एक दिन दोपहर में एक सूफी फकीर एक सड़क से दूसरी सड़क पर प्रविष्ट हुआ, उसकी आंखों से आंसू टपक रहे थे। किसी ने उससे पूछा कि क्या हो गया है, आप क्यों रो रहे हैं? लेकिन उसकी आंखों से इतने आंसू टपक रहे थे, और वह कुछ भी नहीं बोला। जिसने पूछा था उसके पड़ोस में खड़े आदमी ने कहा: मालूम होता है सामने की सड़क पर कोई मर गया है। फिर सारी, उस दूसरी सड़क पर खबर पहुंच गई कि सामने की सड़क पर कोई मर गया है। और हर आदमी के हाथ से जब खबर गई, तो उसमें कुछ और जुड़ता गया, और जुड़ता गया। सांझ होते-होते यह खबर हो गई कि सामने की सड़क पर प्लेग की महामारी फैली हुई है। और जहां प्लेग की महामारी फैली हुई है उस सड़क पर जाना ठीक नहीं है। इसलिए पूछने वहां कोई भी नहीं गया। लेकिन अनेक इस सड़क के रिश्तेदार उस सड़क पर रहते थे। उनके दुख में लोग रोने लगे और अनेक लोग चिंतित हो गए कि पता नहीं हमारा संबंधी भी कोई न मर गया हो? दूसरी सड़क के लोगों ने देखा कि उस सड़क के लोग सब उदास हैं, रो रहे हैं। पूछताछ की, पता चला कि उस सड़क पर कोई मर गया है। कोई प्लेग की महामारी फैली है, ऐसी खबर आ रही है। फिर उस सड़क के लोगों ने भी इधर आकर पूछना उचित नहीं समझा। उनके भी मित्र यहां रहते थे, पता नहीं कौन मर गया हो? रातों-रात दोनों सड़कों ने अपने-अपने घर खाली कर दिए। गांव छो़ड़ कर नदी के पार जाकर वे रहने लगे, क्योंकि महामारी भयंकर फैल गई थी। और उस गांव में वे कभी नहीं लौटे।
वह गांव अब भी उजड़ा पड़ा हुआ है। उसकी जगह नदी के पार दो छोटे-छोटे गांव बसे हैं। और उन गांव के लोगों से पूछो, तो वे कहते हैं, कभी एक बार एक बहुत अनजानी बीमारी फैली थी और उस समय हमारे पूर्वज अपनी सड़कों को छोड़ कर यहां आ गए थे, तब से यहीं बस गए हैं। और मजा यह है कि उस फकीर से किसी ने भी नहीं पूछा कि बात क्या थी? बात कुल इतनी थी कि वह फकीर प्याज छील रहा था और प्याज छीलने की वजह से उसकी आंख में आंसू आ गए थे।
लेकिन ट्रेडीशन, लेकिन परंपरा! परंपरा बड़ी मजबूत चीज है। उस पर शक मत उठाना, उस पर विचार भी मत करना, उस पर सोचना भी मत। कौमें मर जाती हैं, समाज मुर्दा हो जाते हैं। जो लौट कर सोचने की सामर्थ्य खो देते हैं, वे जीवन भी खो देते हैं।
इसलिए मैं आपसे निवेदन करता हूं: यह सवाल नहीं है कि हजारों साल तक कौन सी चीज मानी गई है। सवाल यह है कि उस चीज को जीवन की कसौटी पर अगर हम आज कसते हैं, तो वह कहां खड़ी होती है? अगर वह असफल होती है, तो चाहे लाखों वर्षों से उसको पूजा मिली हो, उसे कचराघरों में फेंक देना जरूरी है। और चाहे आज की भी कोई चीज, नई समय की, जीवन की कसौटी पर ठीक उतरती हो, तो जीवन को उस रास्ते को चुनने के लिए तत्पर होना चाहिए।
इस आधार पर मैं आपसे कहता हूं: जीवन को असार, जीवन को दुखपूर्ण, जीवन की निंदा करने वाली धारणाएं गलत और घातक और पाय़जनस, जहरीली साबित हुई हैं। उन्होंने मनुष्य के जीवन के सारे आनंद की क्षमता छीन ली, सारे रस के स्रोत सुखा दिए, उसके प्राणों के सारे गीत तोड़ डाले।
यह क्यों किया गया, यह आपको पता है? यह कैसे हो गया, कभी आपने पूछा है? यह किन लोगों ने यह सारी बात की होगी? यह साजिश कैसे चली? किस फकीर ने प्याज छीली थी, किस फकीर की आंख में आंसू आ गए थे, यह हुआ कैसे?
यह हुआ इसलिए कि जिन लोगों ने ईश्वर का धंधा किया, जिन लोगों ने ईश्वर का व्यवसाय किया, जिन्होंने मंदिरों और मस्जिदों में पुजारी की जगह सम्हाली, जिन्होंने समाज में पुरोहित और ब्राह्मण और उपदेशक की व्यवस्था की, उन सारे लोगों को एक बात बहुत साफ दिखाई पड़ गई और वह यह कि अगर परमात्मा का आदर बढ़ाना है, अगर परमात्मा की इज्जत बढ़ानी है, अगर परमात्मा को बड़ा बताना है, तो उनको एक ही बात सूझी सीधी सी कि संसार को बुरा बताओ और संसार को छोटा बताओ, संसार को हेय और तुच्छ सिद्ध करो, तो हम परमात्मा को बड़ा और महान सिद्ध कर सकते हैं। उनको यह गणित का सीधा सा नियम खयाल में आया कि संसार को कहो बुरा, संसार को दो गाली, संसार की करो निंदा, संसार को बताओ नरक, तभी लोग परमात्मा की तरफ आंखें उठा सकते हैं। तो घबड़ाओ लोगों को, भयभीत करो, उन्हें चिंतातुर कर दो, उनके पैर जीवन से डगमगा दो, तो ही शायद वे परलोक के बाबत विचार कर सकते हैं।
लेकिन उनमें से यह किसी को भी खयाल नहीं आया कि जीवन जो कि इतना साक्षात और सत्य है, जीवन जो इतना रियल और यथार्थ है, अगर तुम इसको ही असार सिद्ध कर दोगे, तो तुम भूल रहे हो। जब इतना यथार्थ जीवन असार हो जाएगा, तो जो परमात्मा बिलकुल नहीं दिखाई पड़ता, वह सार्थक नहीं हो सकता, वह और भी असार प्रतीत होगा। जब ठोस जिंदगी व्यर्थ सिद्ध कर दी जाएगी, तो परमात्मा जो अदृश्य है और जिस पर हमारी मुट्ठी नहीं बंधती, उस पर तो हम और भी संदिग्ध हो जाएंगे। कि जब इतनी असली जिंदगी झूठी है, तो यह सपनों की और आकाश की बातें कैसे सच हो सकती है?
परिणाम यह हुआ, परिणाम यह नहीं हुआ कि जगत की निंदा लोगों को ईश्वर की तरफ ले गई हो, परिणाम यह हुआ कि जगत की निंदा ने लोगों के जगत के आनंद को तो नष्ट किया ही, लोगों ने परमात्मा की तरफ उठने का खयाल भी समाप्त कर दिया।
इससे कोई लोक-चेतना धार्मिक नहीं हुई, अधार्मिक हुई। और एक उपद्रव हुआ कि जब सारा जीवन दुखपूर्ण हो, तो परमात्मा के प्रति मन में धन्यवाद कैसे पैदा हो सकता है? जब सारा जीवन एक कष्ट की कथा हो, तो परमात्मा के प्रति प्रार्थना कैसे पैदा हो सकती है? ग्रेटिट्यूड कैसे पैदा हो सकता है? कैसे अनुग्रह का भाव पैदा हो सकता है? कैसे हम परमात्मा को धन्यवाद दें? हम कैसे कहें कि तुम, तुमने हम पर कृपा की है, किस मुंह से कहें? और कहेंगे तो वह मुंह झूठा होगा, वे शब्द झूठे होंगे, वे केवल सीखे हुए तोतों की प्रार्थनाएं होंगी, हमारे प्राणों से उठी हुई नहीं।
जीवन अगर आनंद हो, तो ही परमात्मा के प्रति धन्यवाद पैदा हो सकता है। जीवन अगर एक अहोभाग्य हो, तो ही हमारे हाथ उठ सकते हैं उस प्रभु के लिए जो अज्ञात है और हम कह सकते हैं कि जिसने इतना दिया, जिसने इतने अमृत की वर्षा की, जिसने इतने प्रेम के फूल दिए हैं, जिसने इतने जीवन के आनंद बरसाए–अपात्र को, जिसकी कोई क्षमता न थी उसको इतना दिया, उसके प्रति हमारे प्राण अगर आतुरता से, आग्रह से, प्रार्थना से और अनुग्रह से भर जाएं, तो कोई आश्चर्य नहीं है।
परमात्मा की ओर आदमी केवल अनुग्रह के भाव से जाता है, ग्रेटिट्यूड, और कोई सूत्र नहीं है। और अनुग्रह, ग्रेटिट्यूड केवल उसी हृदय में पैदा होता है जो हृदय आनंद का अनुभव करता है। जो हृदय दुख का अनुभव करता है, उसके मन में अनुग्रह नहीं; शिकायत पैदा होती है। जो हृदय पीड़ा अनुभव करता है, उसके मन में क्रोध पैदा होता है, उसके मन में परमात्मा के प्रति विद्रोह पैदा होता है।
यह जो सारी दुनिया में विद्रोही लोग पैदा हुए ईश्वर का विरोध करने वाले, ये किन्होंने पैदा किए हैं? ये जीवन को दुख समझाने वाले लोगों, शिक्षकों के रिएक्शन से। ये उनकी प्रतिक्रियाएं हैं। जब सारा जीवन दुख हो जाएगा, तो कुछ लोग कहेंगे कि हम विद्रोह करते हैं ऐसे ईश्वर के खिलाफ, जो ईश्वर दुख ही दुख देता है, पीड़ा ही पीड़ा देता है। जिसने असार जगत बनाया, यह माया की दुनिया बनाई, जिसने आदमी को फंसाया है जाल में और मकड़ी के जाल की तरह उसको गूंथता चला जाता है, उसके प्रति कैसे अनुग्रह मानें? कैसे धन्यवाद दें? नहीं, यह नहीं संभव है। और तब क्रोध पैदा होता है। तब विरोध पैदा होता है। तब ईश्वर से भी विद्रोह पैदा होता है।
यह सदी हमारी ईश्वर के प्रति विद्रोह की सदी है। पिछले पांच हजार वर्षों में जो शिक्षा दी गई उसका अंतिम चरम प्रतिकार इस सदी में उत्पन्न हो रहा है। बच्चे इनकार कर रहे हैं, बच्चे विरोध कर रहे हैं। उनसे आज कहो: ईश्वर की प्रार्थना, तो उनके चेहरों पर हंसी दौड़ जाती है। और इस हंसी के लिए ये बच्चे जिम्मेवार जरा भी नहीं हैं, इस हंसी के लिए वे ही लोग जिम्मेवार हैं जिन्होंने जीवन को एक विषाद का रूप दे दिया है।
इसलिए मैंने कहा कि धार्मिक चेतना का दूसरा सूत्र है: आनंद का भाव। और आनंद का भाव कैसे विकसित हो?
कुछ मित्रों ने इस संबंध में भी प्रश्न पूछे हैं कि
भगवान, आनंद का भाव कैसे विकसित हो? आनंद की थिरक, वह आनंद की थ्रिल, वह आनंद का उत्तेजन, वह आनंद का नृत्य कैसे अनुभव हो? कैसे जीवन उससे भर जाए?
दो बातें इस संबंध में समझनी जरूरी हैं। एक, आनंद को केवल वे ही लोग अनुभव कर पाते हैं जो अत्यंत तीव्रता से जीने की सामर्थ्य को पैदा करते हैं। इंटेंस लिविंग, त्वरित और त्वरा से भरा हुआ जीवन।
हम सब बहुत कुनकुने-कुनकुने जीते हैं, ल्यूकवार्म। कुनकुना पानी होता है, ऐसा हमारा जीवन है। तीव्र नहीं, इंटेंसिटी नहीं, हमारे किसी कृत्य में कोई तीव्रता नहीं है। और जीवन का अनुभव, आनंद का द्वार तीव्र अनुभूतियों से पैदा होता है। जितनी इंटेंस, जितनी तीव्रता से भरी अनुभूति होगी, उतना ही व्यक्ति आनंद के शिखरों को छूता है। और जितना कुनकुना-कुनकुना जीवन होगा, उतना जीवन कुछ भी नहीं छूता है–कुछ भी नहीं छूता है।
और हमारा सारा परंपरागत ढांचा मनुष्य को कुनकुना बनाता है, तीव्र नहीं बनाता। न तो वह साहस सिखाता है, न एडवेंचर, न समुद्रों को पार करना, न पहाड़ों को चढ़ना, न जीवन की गहरी अनुभूति में उतरने के खतरे। जोखिम वह कुछ भी लेने के लिए नहीं कहता। वह बहुत सस्ती सी बातें सिखाता है। और उन सस्ती बातों के आधार पर सोचता है कि आदमी जी लेगा और आनंद को पा लेगा।
अकबर के दरबार में दो जवान एक दोपहर पहुंचे। वे दोनों तलवारें बांधे हुए हैं। दो राजपूत। अकबर के सामने जाकर वे दोनों खड़े हो गए। वे दोनों भाई हैं, दोनों जुड़वां भाई हैं। दोनों एक सी शक्ल-सूरत के हैं, एक से स्वस्थ, एक से सुंदर। वे एक से वस्त्रों में जब अकबर के सामने खड़े हो गए, तो अकबर भी मोहित हो गया। और उन दोनों ने कहा कि हम दो बहादुर जवान हैं और बहादुरी की जिंदगी खोजने निकले हैं, क्या इस दरबार में सिपाही होने का हमें मौका और अवसर मिल सकता है?
अकबर ने कहा: तुम कहते हो, बहादुर हो, लेकिन बहादुरी का कोई प्रमाण-पत्र, कोई सर्टिफिकेट लाए हो?
जैसे उन दोनों की आंखें बिजलियों की तरह चमक उठीं, एक क्षण अकबर तो घबड़ा कर रह गया, उसे कल्पना भी न थी कि यह हो जाएगा, दो तलवारें उनकी म्यानों के बाहर आ गईं। एक क्षण भी नहीं बीता और वे दोनों तलवारें एक-दूसरे की छाती में घुस गईं। एक सेकेंड बाद उत्तर में दो लाशें पड़ी थीं और खून पड़ा था और दो मुस्कुराते हुए जवान पड़े थे।
अकबर को तो खयाल भी नहीं था कि यह हो जाएगा। उसने अपने सेनापतियों को बुला कर कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई, मैंने इन दो जवान छोकरों से पूछा था कि बहादुरी का कोई प्रमाण-पत्र लाए हो?
वे सेनापति हंसने लगे। और उन्होंने कहा: नासमझ हैं आप, बहादुर आदमी से प्रमाण-पत्र पूछने का और क्या मतलब हो सकता था? कोई बहादुर आदमी कागज पर लिखवा कर लाएगा किसी से कि मैं बहादुर हूं? यह बात पूछी गई थी, दो बहादुर जवान यही उत्तर दे सकते थे। क्योंकि बहादुरी का एक ही मतलब हो सकता है: मृत्यु का साक्षात करने का साहस।
लेकिन उस सेनापति ने कहा: आप चिंतित न हों, मर गए जवानों की आंखों में और उनके चेहरों पर जो खुशी है, उसे देखें। उन्होंने वह इंटेंसिटी का, वह तीव्रता का एक क्षण जान लिया, जो जीवन का आनंद है और जिस आनंद के क्षण में प्रभु के दर्शन हो जाते हैं।
तीव्र जीवन का मतलब क्या है?
क्या आप सोच सकते हैं कि उन दो जवानों ने तीव्र जीवन का कोई क्षण जान लिया? मोमेंट ऑफ इंटेंस लिविंग जान लिया? मैं आपसे कहता हूं: जान लिया। एक क्षण में वे लीन हो गए विश्वसत्ता में, एक क्षण में। और इस क्षण में जब कि प्राणों के दांव लगा दिए गए होंगे–तो उनके मन में कोई विचार रहा होगा? कोई कामना रही होगी? कोई फलाकांक्षा रही होगी? कोई चिंता रही होगी? कोई दुख रहा होगा? कोई पीड़ा रही होगी? इस एक क्षण में जब कि पूरा जीवन दांव पर था, इस क्षण में उनके भीतर क्या रहा होगा? इस तीव्रता के क्षण में सब शून्य हो जाता है, सब मौन हो जाता है, सब शांत हो जाता है। इस तीव्रता के क्षण में उनके भीतर मैं का भाव भी नहीं रह जाता। इस निर्भाव की और शून्य की और समाधि की दशा में उसके दर्शन हो जाते हैं जो परमात्मा है।
तो एक तो बात मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जीवन हमारा कुनकुना जीवन न हो। जीवन हमारा एक तीव्रता का जीवन हो, जिसे हम पूरे कमिटमेंट से, पूरी प्रतिबद्धता से जी रहे हों। हम जो भी कर रहे हों, वह हमारे समग्र प्राणों के लिए चुनौती हो। हम जो भी कर रहे हों, वह हमारे पूरे प्राणों की सारी शक्तियों के लिए बुलावा हो। हम उसे कर रहे हों, जैसे हमने सब-कुछ अपना दांव पर लगा दिया है।
धार्मिक व्यक्ति जब सुबह उठता है, तो इस भांति उठता है कि जैसे यह अंतिम दिन है; इस दिन के बाद अब कोई दिन नहीं। धार्मिक व्यक्ति जब सांझ को सोता है, तो इस तरह सोता है, यह अंतिम रात है; इसके बाद अब कोई रात नहीं। एक-एक पल, एक-एक क्षण उसके लिए अंतिम है। और एक-एक क्षण उसे जीने के लिए मिला है, जिसे वह पूरा जी ले या खो दे। और जब एक व्यक्ति के पास एक ही क्षण हाथ में होता है–और कोई क्षण होते भी नहीं हाथ में–एक ही क्षण एक बार में हाथ में उपलब्ध होता है, दो क्षण तो किसी भी आदमी को एक साथ नहीं मिलते हैं। जब एक ही क्षण सामने होता है, एक मोमेंट, तो सारे प्राणों की बाजी उस मोमेंट में होती है, उस क्षण में होती है। और तब जीवन में इंटेंसिटी जिसे मैं कह रहा हूं, तीव्रता जिसे कह रहा हूं, उसका अनुभव होता है।
तीन फकीर एक बड़ी यात्रा पर थे। वे एक मरुस्थल से गुजरते थे। मरुस्थल लंबा था और उनकी आशा से ज्यादा लंबा निकला। उनका भोजन चुक गया, उनका पानी चुक गया। और अभी कोई आशा नहीं दिखाई पड़ती थी कि कितनी यात्रा और शेष रह गई है। शायद वे भटक गए थे। एक सांझ जब वे रात को रुके, तो उनके पास केवल एक रोटी का टुकड़ा और एक छोटी सी बोतल पानी की बची थी। तीनों लोगों को उतना पानी पूरा नहीं हो सकता था, तीनों लोगों को उतनी रोटी से कोई मतलब हल नहीं होता था। तो उन तीनों ने सोचा, बजाय इसके कि हम तीनों इसे खाएं और तीनों समाप्त हो जाएं, यह उचित होगा कि एक इसे खा ले, शायद वह मंजिल तक पहुंच जाए। दिन, दो दिन की उसे ताकत मिल जाए। लेकिन कौन खाए इसे? उन तीनों में विवाद हो गया कि कौन खाए इसे? कोई निर्णय नहीं हो सका। तो उन तीनों ने यह सोचा कि हम सो जाएं; एक ने सुझाव दिया कि हम तीनों सो जाएं, और रात जो भी सपने हमें दिखाई पड़ें, सुबह हम अपने सपने बताएं, और जिसने श्रेष्ठतम सपना देखा होगा, वह रोटी और पानी का सुबह अधिकारी हो जाएगा।
वे तीनों सो गए। फिर सुबह दूसरे दिन उठे, उनमें से एक ने पहले अपना सपना बताया कि मैंने बहुत ही श्रेष्ठ सपना देखा, मैंने देखा, सपने में परमात्मा खड़ा है और वह यह कह रहा है कि तेरा आज तक का जीवन अत्यंत पवित्र है, तेरा अतीत एक पवित्रता की कहानी है, तू ही रोटी और पानी के खाने का हकदार है।
फिर दूसरे फकीर ने कहा कि मैंने भी सपना देखा और मैंने देखा कि अंतरिक्ष से कोई आवाज गूंजती है कि तू ही हकदार है रोटी और पानी का, क्योंकि तेरा भविष्य बहुत उज्जवल है। आने वाले दिनों में तेरे भीतर बड़ी संभावनाएं प्रकट होने को हैं, तुझसे जगत का, लोक का बहुत कल्याण होगा, इसलिए तू ही हकदार है रोटी और पानी का।
फिर उन दोनों ने तीसरे मित्र से कहा कि तुमने क्या देखा? उसने कहा: मुझे न तो कोई आवाज सुनाई पड़ी, न कोई परमात्मा दिखाई पड़ा, न कोई मुझसे बोला, मुझे तो मेरे भीतर से यह खबर आई कि तू उठ और जाकर रोटी और पानी खा ले। तो मैं तो खा भी चुका हूं।
ये तीन फकीर हैं। इनमें एक अतीत की कथा को श्रेष्ठ समझ रहा है, दूसरा भविष्य के आने वाले दिनों को; लेकिन एक वर्तमान के क्षण को ही जी लिया है, जी चुका है।
आनंद के अनुभव को वे लोग उपलब्ध नहीं होते, जो पीछे लौट कर देखते रहते हैं। वे लोग भी नहीं, जो आगे का सोचते रहते हैं। केवल वे ही लोग, जो प्रतिक्षण जीते हैं–प्रतिक्षण। और जीवन में जो भी उपलब्ध है, प्रतिक्षण उसे पी लेते हैं और स्वीकार कर लेते हैं। और इसे इस भांति स्वीकार कर लेते हैं कि जैसे इसके आगे कोई क्षण नहीं, जैसे इसके आगे कोई जीवन नहीं, जैसे यह अंतिम निपटारे का क्षण है।
जो पीछे लौट-लौट कर देखते रहते हैं, उनके वर्तमान का क्षण हाथ से छूट जाता है। जो आगे-आगे सपने देखते रहते हैं, उनका भी वर्तमान का क्षण हाथ से छूट जाता है। और स्मरण रहे, कि वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त, वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है। वर्तमान का क्षण ही है केवल, वही द्वार बन सकता है–अनुभव का, आनंद का, प्रभु का।
तीव्र जीवन चाहिए वर्तमान के क्षण पर केंद्रित। वर्तमान के क्षण पर घनीभूत तीव्र जीवन चाहिए। जितना तीव्र जीवन होगा उतने ही आनंद की झलकें मिलनी शुरू हो जाएंगी।
लेकिन सामान्यतः पृथ्वी पर आज तक की जैसी गलत जीवन-व्यवस्था रही है, सिवाय सेक्स के अनुभव के, सिवाय काम और यौन के अनुभव के आदमी किसी तीव्र अनुभव को नहीं जानता है। बस एक क्षण है काम का, यौन का, सेक्सुअलिटी का, जिस समय वह थोड़ी सी तीव्रता अनुभव करता है और बाकी कभी कोई अनुभव नहीं करता। इसीलिए तो सेक्स के पीछे इतना पागलपन सारी दुनिया में पैदा हुआ है। यह जो इतनी तीव्र दौड़ पैदा हुई है सारी दुनिया में, और इस सदी में आते-आते सारा जीवन सेक्सुअलिटी से भर गया है, कामुकता से। चित्र, कहानी, फिल्म, कविता, साहित्य, सब एक चीज पर घूमने लगा है–सेक्स। यह इसीलिए घूमने लगा है कि वह अकेला तीव्र क्षण है, और कोई तीव्र क्षण ही हमारे पास नहीं बचा। उसी तीव्रता के क्षण में थोड़ा सा अनुभव होता है, अन्यथा कोई अनुभव नहीं होता। और वह भी अनुभव बहुत दिन तक नहीं चलता, वह भी पहली बार जो अनुभव होता है दूसरी बार नहीं होता; दूसरी बार जो होता है तीसरी बार नहीं होता। रूटीन और रिपीटिशन, फिर वही-वही दोहरना और पुनरुक्ति, फिर वह भी बोथला और बोर्डम से भर जाता है, उसमें भी फिर कोई रस और आनंद नहीं रह जाता।
लेकिन एक ही क्षण है जो आदमी जानता है आमतौर से और कुछ भी नहीं जानता। और सारे धर्म सिखाते हैं, इससे भी छूट जाओ, इससे भी मुक्त हो जाओ। इससे कोई छूट नहीं सकता, तब तक जब तक कि वह और तीव्र क्षणों का आविष्कार न कर ले। जब तक कि वह जीवन की और गहरी अनुभूतियों को उपलब्ध न कर ले, तब तक कोई सेक्स से छूट नहीं सकता। छूटने की कोशिश उसकी असफलता और व्यर्थता होगी। जब कि उसके जीवन में तीव्रता के और बिंदु उपलब्ध न हो जाएं, तब तक यह एक तीव्रता का बिंदु कैसे छोड़ा जा सकता है? अगर वह छोड़ देगा, तो चित्त उसका इसी के पास-पास घूमने लगेगा। चौबीस घंटे वह सेक्स के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटने लगेगा। वह सारी संस्कृति और सारी सभ्यता वहीं घूमने लगेगी। घूम रही है। और इसे तथाकथित धार्मिक लोग इस चक्कर से नहीं बचा सकते, कभी नहीं बचा सकते। क्योंकि वे ही इसे उस केंद्र पर घुमाने के लिए मूलभूत कारण हैं। उन्होंने तीव्रता का सारा जीवन ही छीन लिया आदमी से।
तीव्रता के जीवन के लिए हमारी तैयारी होनी चाहिए, अगर हम आनंद की दिशा में जाना चाहते हैं। जो भी हम करते हों।…
कबीर कपड़े ही बुनता था, जुलाहा, कपड़े बुन रहा है, लेकिन ऐसी तीव्रता से बुन रहा है कि लोग हैरान हो जाते थे। कपड़े क्या बुन रहा है जैसे भगवान की पूजा कर रहा है। कपड़े बुन रहा है और कह रहा है: राम की चदरिया बना रहा हूं। नाच रहा है, जब चदरिया बन गई है तो नाच रहा है। फिर नाचता हुआ चादर को लेकर बाजार जा रहा है, वहां ग्राहक से कह रहा है कि राम! सम्हाल कर पहनना; मैंने बहुत मुिश्कल और बहुत मेहनत से इसे बनाया है।
लोग कबीर से कहते कि तुम तो साधु हो, अब तुम कपड़े क्यों बुनते हो? तो कबीर कहता कि राम के लिए अगर मैं कपड़े नहीं बुनूंगा तो कौन बुनेगा? जब चादर राम के लिए बुनी जाने लगी, तो उसमें एक इंटेंसिटी आ गई, एक तीव्रता आ गई, एक बल आ गया, एक त्वरा आ गई।
कभी आपने खयाल किया है? जब कोई अपने किसी प्रेमी के लिए कुछ करने में संलग्न हो जाता है, तो उसके करने की क्वालिटी, गुण बदल जाता है। बात ही और हो जाती है।
अकबर एक रात एक संध्या जंगल में शिकार करने गया था और भटक गया रास्ता, और एक रास्ते के किनारे बैठ कर उसे सांझ की नमाज पढ़नी पढ़ी। उसने घोड़ा बांध दिया, अपना नमाज का कपड़ा बिछा लिया और घुटने टेक कर नमाज पढ़ने लगा, तभी एक औरत वहां से भागती हुई निकली, अकबर के नमाज के कपड़े पर पैर रखती हुई, अकबर को धक्का मारती हुई, वह औरत भागती हुई चली गई तीर की तरह। अकबर को बहुत क्रोध आया। उसने कहा: कौन बदतमीज औरत है यह? पहली तो बात यह कि अगर कोई आदमी प्रार्थना कर रहा हो, नमाज पढ़ रहा हो, तो उसे धक्का देना बहुत, बहुत पापपूर्ण बात है, अपराधपूर्ण। और फिर कोई साधारण आदमी नमाज नहीं पड़ रहा है, मैं मुल्क का बादशाह नमाज पढ़ रहा हूं। और अगर मेरे साथ यह सलूक है तो दूसरों के साथ क्या होगा?
जल्दी उसने नमाज पूरी की, घोड़े पर सवार हुआ और भागा। थोड़ी ही दूर जाकर उसने उस औरत को पकड़ लिया, वह वापस लौटती थी। अकबर ने उससे कहा कि बदतमीज औरत! तुझे यह भी पता नहीं कि जब कोई नमाज पढ़ता हो, तो उसे धक्का नहीं देना चाहिए। मैं नमाज पढ़ रहा था। फिर मैं मुल्क का बादशाह हूं। और तू इस तरह धक्का देती हुई वहां से निकली, होश में है या पागल है?
उस औरत ने नीचे से ऊपर तक अकबर को देखा। उसने कहा: आप कहते हैं, तो धक्का जरूर लगा होगा। लेकिन मुझे कुछ भी याद नहीं। मैं अपने प्रेमी से मिलने जा रही थी। मुझे कुछ पता नहीं कि आप कहां नमाज पढ़ रहे थे। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है बादशाह, कि मैं तो अपने प्रेमी से मिलने जा रही थी और मेरा चित्त इतना केंद्रित हो गया था कि मुझे आपका कोई पता नहीं चला, और आप परमात्मा की प्रार्थना कर रहे थे और आपको मेरा पता चल गया?
कैसी थी यह प्रार्थना? कैसी थी यह तीव्रता? कैसा था यह भाव?
थोथी रही होगी वह प्रार्थना। नहीं रहा होगा उसमें कोई भाव। रहा होगा वह एक काम, जिसको पूरा कर देना था। लेकिन, नहीं रहे होंगे उसमें प्राण, जिनमें कि डूबा जाता है।
हमारा एक-एक जीवन का कृत्य एक समर्पण का भाव ले ले–प्रेम का समर्पण, खोज का समर्पण, जिज्ञासा का समर्पण–एक अन्वेषण, एक साधना बन जाए। और एक-एक क्षण इतना त्वरित, इतना तीव्र कि हमारे पूरे प्राण जैसे उस पर दांव पर हों, चुनौती पर हों, तो आनंद की अपूर्व वर्षा शुरू हो जाती है। और ऐसे क्षणों में ही व्यक्ति कामुकता के ऊपर उठता है। क्योंकि तब उसे पता चलता है कि मैंने जिसे तीव्रता जानी थी वह तो ना-कुछ भी थी, वह तो कुछ भी न थी। तब उसे पहली बार पता चलता है कि मिलन क्या है, तब उसे पहली बार पता चलता है कि अस्तित्व के साथ संभोग क्या है। तब वह पहली बार जानता है कि अस्तित्व के साथ मिलने का आनंद क्या है। तब उसे पता चलता है कि दो शरीरों के मिलने का आनंद ना-कुछ था, उस मिलने में कोई अर्थ न था, कोई प्रयोजन न था। जब दो आत्माएं मिलती हैं, जब व्यक्ति के प्राण उस समष्टि से संयुक्तहोते हैं, तब पहली बार, पहली बार जिसको आत्मिक मैथुन कहें, उसकी पहली उपलब्धि, और पहली, पहली प्रतीति उत्पन्न होती है। लेकिन वह इंटेंसिटी का, वह तीव्रता का क्षण है। उस तीव्रता के क्षण के लिए निरंतर-निरंतर ध्यान रहे, तो इस क्षण को लाना कठिन नहीं है–कोई कठिन नहीं है।
रास्ते पर आप जा रहे हैं, आप मुर्दे की भांति भी चल सकते हैं और आप एक जीवंत विद्युत की धारा की भांति भी। मैं अभी बोल रहा हूं, मैं ऐसे भी बोल सकता हूं जैसे स्कूलों में मास्टर पढ़ाए चले जाते हैं, और मैं ऐसे भी बोल सकता हूं जैसे मेरे सारे प्राण का और सारे जीवन का प्रश्न है। मेरी सारी श्वासें और सारे प्राण जैसे इसमें संलग्न हैं। जैसे मैं सिर्फ बोलना ही हो जाऊं और मेरे भीतर कुछ भी न रह जाए, तो फिर यह क्षण तीव्रता का क्षण हो गया, और यह क्षण प्रार्थना का क्षण भी हो गया। मैं इस भांति भी आपको देख सकता हूं जैसे आप मुझे दिखाई ही नहीं पड़ रहे, और मैं इस भांति भी देख सकता हूं कि मैं सिर्फ आंखें ही हो जाऊं और आप ही मुझे दिखाई पड़ते रह जाएं–सिर्फ आप–और सब मिट जाए, तो फिर मैं अगर आंखें ही हो जाऊं, तो जो दर्शन होगा, वह तीव्रता का दर्शन है। और वहां मुझे आपके भीतर उसकी भी प्रतीति हो जाएगी जो आपसे बहुत पार का है और आपके बहुत अतीत है, जो प्रभु है। हम सुन रहे हैं अभी, हम ऐसे भी सुन सकते हैं जैसे बाजार में चलते हुए कोई आवाजों को सुन लेता है, और हम ऐसे भी सुन सकते हैं जैसे हमारी फांसी की सजा सुनाई जाने वाली हो, तो सब-कुछ चुप हो जाएगा, सब शांत हो जाएगा, श्वासें भी स्तब्ध हो जाएंगी, और सारी जीवन की शक्ति कान बन जाएगी सिर्फ सुनने के लिए तैयार। और उस तीव्रता के क्षण में आनंद की झलक शुरू हो जाएगी।
किसी भी कोने से, जीवन के किसी भी कार्नर से, जीवन के किसी भी मार्ग से तीव्रता को पकड़ लें और आप पाएंगे कि वहां से आनंद की धुन आनी शुरू हो गई है। लेकिन अगर आप तीव्रता को नहीं पकड़ते और कुनकुने-कुनकुने जीते हैं; नहीं, कोई रास्ता नहीं कि आपको आनंद का पता चल सके।
यह पहली बात कि आनंद के मार्ग पर तीव्र जीवन, इंटेंस लिविंग। और दूसरी बात: ठीक इससे उलटी दिखने वाली, लेकिन बिलकुल इसका ही दूसरा पहलू है, उलटा नहीं।
आनंद की अनुभूति या तो तीव्रता के क्षण में होती है या अत्यंत रिलैक्स मोमेंट में, अत्यंत शिथिल क्षण में। बस आनंद के अनुभव दो किनारों पर होते हैं। आनंद की सरिता दो किनारों के बीच बहती है: या तो तीव्रता के क्षण में, या अत्यंत शिथिल और शून्य और विश्राम के क्षण में।
जब कुछ भी नहीं कर रहे हैं, जब सब मौन और शांत रह गया है, जब सब शिथिल है, सब रिलैक्सड है, जैसे जीवन ठहर गया है, जैसे धारा रुक गई है, जैसे हवाएं बंद हैं, जैसे झील पर लहर नहीं उठ रही है, ऐसे क्षण में भी आनंद की झलक उपलब्ध होती है। ये दो किनारे हैं, जिनके बीच में आनंद की गंगा बहती है। इन दो किनारों पर कहीं भी खड़े हो सकते हैं। ये विरोधी दिखाई पड़ेंगे, क्योंकि एक तरफ मैं कह रहा हूं तीव्रता और एक तरफ मैं कह रहा हूं बिलकुल शिथिलता। लेकिन ये विरोधी नहीं हैं। ये विरोधी उसी भांति नहीं हैं कि जो आदमी दिन में परिपूर्ण विश्राम करता है वही आदमी रात की निद्रा का हकदार हो जाता है। जो आदमी श्रम करता है वही विश्राम भी कर सकता है। जो विश्राम करता है वही श्रम भी कर सकता है। श्रम और विश्राम विरोधी बातें नहीं हैं। श्रम विश्राम की तैयारी है, विश्राम श्रम की तैयारी है। तो जो आदमी बहुत तीव्रता में जीता है वह आदमी एकदम शिथिलता में भी जीने की क्षमता को उपलब्ध हो जाता है।
शिथिल आदमी का क्या मतलब?
सिकंदर हिंदुस्तान की तरफ आता था, रास्ते में उसे खबर मिली कि डायोजनीज एक फकीर यहां बीच में रहता है, उसके दर्शन करते चलूं। डायोजनीज की बड़ी चर्चा थी यूनान में, और आदमी बड़ा प्यारा था, चर्चा होने के योग्य था। सिकंदर का भी मन लोभ से भर गया, उसे देखता चलूं। अब जिसको सिकंदर देखने गया हो, उस आदमी में कुछ बात रही होगी। सिकंदर ने खबर पहुंचवाई। उसके सिपाही गए और उन्होंने डायोजनीज को जाकर कहा कि महान सिकंदर तुमसे मिलने को आता है!
डायोजनीज खूब हंसने लगा और कहने लगा: कहना उस पगले को कि जो खुद ही अपने को महान कहता है, उससे ज्यादा छोटा आदमी और नहीं हो सकता। फिर जरूर उसे लिवा आना, अगर वह आता ही है तो, लेकिन उससे कहना कि अपनी महानता पीछे छोड़ कर आए, अन्यथा हम गरीबों से मिलना कैसे हो सकेगा? वह खड़ा होगा पहाड़ पर और हम पड़े हैं झील में। वह होगा महान और हम तो ना-कुछ। उससे कहना कि महानता थोड़ी देर को वहीं रख आए, तो हमसे कुछ मिलना हो सके। वह है दौड़ में और हम बैठे हैं विश्राम में, कैसे मिलना होगा?
सिकंदर को खबर की गई। सिकंदर ने सोचा कि बात तो शायद वह ठीक कह रहा है, मिलना कैसे होगा? सिकंदर गया। सिपाहियों को पीछे छोड़ कर, अपनी तलवार और अपना जिरह-बख्तर पीछे छोड़ कर। डायोजनीज सुबह-सुबह अपने झोपड़े के बाहर, सर्दी के दिन हैं, धूप ले रहा है, लेटा हुआ है, नंगा पड़ा हुआ है। धूप है और डायोजनीज है, बीच में वस्त्र भी नहीं हैं। उस निर्जन एकांत में वह चुपचाप रेत पर पड़ा हुआ है; न मालूम किस आनंद के क्षण में हैं–मौन, चुप। सिकंदर जाकर उसके पास खड़ा हो गया और उसने कहा: डायोजनीज, तुम्हें इतने आराम में पड़े देख कर मुझे भी ईर्ष्या होती है। काश, मैं भी किसी दिन इसी तरह निश्चिंत, इसी तरह शांत; जिसे कोई भी फिकर नहीं आगे और पीछे, जो ऐसे चुपचाप पड़ा है जैसे जीवन का मालिक वही है, उसे कुछ और जानना नहीं, कुछ पाना नहीं, कुछ खोजना नहीं! कब…कब ऐसा सौभाग्य मिलेगा कि मैं भी इतना ही शांत लेट सकूं?
डायोजनीज ने आंखें खोलीं और कहा: सिकंदर, इस झोपड़े में बहुत जगह है, अगर तुम ठहरना चाहो, तो आ जाओ, हम दोनों साथ ही रह सकते हैं। आओ, लेट जाओ, कौन रोकता है? मालिक होने से कौन रोकता है तुम्हें इस क्षण के? आओ, विश्राम करें। उसने फिर आंख बंद कर ली।
सिकंदर का मन जरूर ईर्ष्या से भर गया होगा। किसका नहीं भर जाएगा! वह सुबह का वक्त, वह आस-पास की धूप पर पड़ी हुई ओस, वह सूरज की बरसती हुई किरणें और पक्षियों के गीत और वह किसी का चुपचाप वहां पड़े होना और शांत और मौन, जैसे कुछ भी नहीं है, सब ठहर गया, एक स्टिलनेस का मोमेंट आ गया, सब चुप।
सिकंदर ने कहा कि डायोजनीज, मैं खुश हुआ मिल कर, मैं आनंदित हुआ मिल कर, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं, बोलो? तुम जो कहो, मैं करूं।
डायोजनीज ने आंख खोली और कहा: दोस्त, थोड़ा हट कर खड़े हो जाओ, धूप आने से रुकावट पड़ रही है। और तो कुछ भी चाहिए नहीं, और तो हम मजे में हैं, सब यहां है।
सिकंदर ने सोचा था, डायोजनीज कुछ मांगेगा। और सिकंदर जैसा बादशाह जब कहता हो कि मांग लो, तो उसे पता चला कि मैं बादशाह कितना भी बड़ा होऊं, मुझसे बड़ा बादशाह नीचे सामने लेटा हुआ है। उसने कहा: थोड़ा हट कर खड़े हो जाओ, बस धूप मत छेड़ो मेरी, इतना काफी है, बाकी सब है, और यहां किस चीज की कमी है! और फिर आंख बंद कर ली है। सिकंदर ने ठंडी श्वास ली और कहा: अभी तो मैं जाता हूं, लेकिन कभी अगर जीवन में मौका मिला, या अगर फिर मुझे जन्म लेना पड़ा, और परमात्मा ने मुझसे पूछा कि सिकंदर होना चाहते हो या डायोजनीज? तो मैं कहूंगा, अब की बार मुझे डायोजनीज होना है।
यह डायोजनीज भी उपलब्ध कर लेता है। यह दूसरा किनारा है आनंद का: रिलैक्सड।
लेकिन न तो हम तीव्रता में जीते हैं और न शिथिलता में; हम बीच में ही डोलते हैं–मीडियाकर, मध्य में। न तो इतने तीव्र स्वर होते हैं हमारे कि आकाश को छू लें, न इतना मौन होता है कि पाताल तक सन्नाटा छा जाए। बस गुनगुनाहट-गुनगुनाहट, बाजार की आवाज ही चलती रहती है। इस बीच में आदमी समाप्त हो जाता है। और इस बीच के आदमी को क
भी भी कुछ उपलब्ध नहीं होता है। आनंद की कोई झलक, कोई किरण, कोई गीत की कड़ी इस तक नहीं पहुंच पाती है।
इस दूसरे किनारे को भी छूना जरूरी है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो पहले किनारे को छुएगा, वह दूसरे को नहीं छू सकता। मैं यह कह रहा हूं कि जो आनंद का खोजी है, वह उन दोनों किनारों के बीच निरंतर यात्रा करता रहता है। दिन भर वह तीव्रता के क्षण में है, सांझ वह एकदम शिथिल हो गया और मौन हो गया। सुबह सूरज उठा है, तो सूरज की तीव्रता के साथ वह भी जीवन की धारा में कूद पड़ा है। और सांझ जब सूरज विदा हो गया है, तो रात के अंधकार में वह चुपचाप सो गया है।
एक फकीर से किसी ने पूछा था: तुम्हारी साधना क्या है? तुम क्या करते हो? तुम्हारा योग क्या है? सोचा होगा उसने कि वह फकीर कहेगा कि मैं घंटों सिर के बल खड़ा रहता हूं, शीर्षासन करता हूं। कई पगले इसी को योग समझ लेते हैं कि सिर के बल खड़े हो गए तो योग पूरा हो गया। सर्कस में भर्ती हो जाना चाहिए। इससे योग का कोई संबंध नहीं है। कोई हाथ-पैर हिलाने से, कोई कसरत और कवायद करने से स्वास्थ्य ठीक होता होगा, लेकिन इससे योग का कोई वास्ता नहीं है। योग तो किसी बड़ी अंतर-मिलन की किसी घड़ी का नाम है, जो बात ही और है। तो उसने पूछा: क्या है योग? क्या है तुम्हारी साधना?
वह फकीर कहने लगा: पूछते हो, पूछते ही हो तो मैं कह देता हूं, लेकिन समझोगे कि नहीं, यह जरा मुश्किल है। उसने कहा: फिर भी आप कहें। उस फकीर ने इतनी सरल बात की कि कोई भी समझ जाता। वह आदमी हैरान हो गया। उस फकीर ने कहा कि जब मुझे नींद आती है, तो मैं सो जाता हूं; जब मुझे भूख लगती है, तो मैं खा लेता हूं; जब मुझे प्यास लगती है, तो पी लेता हूं; और जब काम करना मुझ पर सवार होता है, तो मैं काम कर लेता हूं। बस इतनी ही मेरी साधना है, और कुछ भी नहीं।
उस आदमी ने कहा: इसमें कौन सी कठिनाई बता रहे हैं आप। यह तो हम सभी करते हैं।
उस फकीर ने कहा: काश! पृथ्वी जिस दिन, पृथ्वी के सारे लोग, सभी यही करने लगेंगे, उस दिन मोक्ष को खोजने कहीं और जाने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। क्योंकि, उस फकीर ने कहा कि जब तुम सोते हो, तब सोते नहीं और हजार काम भी साथ में करते हो। तुम्हारी नींद एक लंबा डिस्टर्बेंस है, तुम्हारी नींद एक लंबी व्यथा, एक लंबा विघ्न, एक दुखस्वप्न है। और जब तुम भोजन करते हो, तब भोजन ही नहीं करते और हजार काम करते हो। दिखाई पड़ते हो भोजन कर रहे हो; दुकान पर भी बैठे होते हो उसी वक्त। दिखाई पड़ते हो भोजन कर रहे हो; अदालत में मुकदमा भी लड़ते होते हो तो उसी वक्त। भोजन करते वक्त हजार काम करते हो। दुकान चलाते वक्त हजार काम करते हो। मंदिर में बैठे वक्त हजार काम करते हो। तुम्हारा कोई काम पूरे प्राणों को समाहित नहीं करता।
और एक ही साधना है, उस फकीर ने कहा, कि जब तुम कर रहे हो, पूरा उसे कर लो। जब काम कर रहे हो, तो पूरा काम, टोटल! और जब विश्राम कर रहे हो, तो पूरा विश्राम, टोटल! और तब यह आनंद के दोनों किनारों पर दिन-रात यात्रा होती रहती है। सुबह से सांझ आदमी यहां से वहां डोलता रहता है। जीवन दो किनारों के बीच निरंतर उड़ान है।
रात आदमी सोता है, वह परमात्मा ने शिथिलता का क्षण दिया है। लेकिन आदमी ने नष्ट कर दी है नींद। आदमी दुश्मन साबित हुआ है नींद का। पक्षी जहां पहुंच जाते हैं, मछलियां जहां पहुंच जाती हैं, पशु जहां पहुंच जाते हैं, आदमी वहां भी पहुंचना बंद हो गया है। रात का क्षण है विश्राम का क्षण, अंधकार का क्षण कि उसमें हम लीन हो जाएं और डूब जाएं, सन्नाटे का क्षण। लेकिन आदमी की सारी सभ्यता ने नष्ट कर दिया है वह। आदमी ने अपने ही हाथों अपनी नींद को नष्ट करने के पूरे उपाय कर लिए हैं। और दिन का क्षण है तीव्र ज्वलंत जीवन का क्षण कि हम अपनी संपूर्ण शक्ति से जीवन के उपक्रम में संलग्न हो जाएं। दौड़ें तो पूरे; चलें तो पूरे; करें जो भी तो परिपूर्ण, वह एक्ट टोटल हो। तो चौबीस घंटे की ये दो स्थितियां हैं: रात और दिन। दिन है श्रम और रात है विश्राम। दिन है ज्वलंत जीवन और रात्रि है परिपूर्ण शैथिल्य। रात और दिन दो प्रतीक हैं साधक के लिए। दिन में जाएं सूरज जैसे उग आता है और गतिमान हो जाता है वैसे ही। और रात में जाएं जैसे अंधकार छा जाता है और मौन हो जाता है वैसे ही। और अगर एक आदमी रात और दिन की यात्रा को समझ ले, तो आनंद की साधना के सूत्र उसके समक्ष स्पष्ट हो जाएंगे।
ये दो बातें, ये तो बातें मात्र समझ लेने से कुछ भी नहीं हो सकता है। इन दो बातों पर थोड़ा प्रयोग, थोड़ा एक्सपेरीमेंट, थोड़ा इन दो बातों पर गतिमान होना, इन पर थोड़े कदम उठाने हैं। क्या आपने कभी जाना है त्वरित, ज्वलंत, जीवंत तीव्र क्षण? क्या कभी आपने जाना है विश्राम? दोनों ही नहीं जाने। अन्यथा दोनों को जो जान लेता है, उससे परमात्मा भी अपरिचित नहीं रह जाता है। परमात्मा के लिए अपरिचित रह जाने का और कोई कारण नहीं है। लेकिन दोनों बातें नष्ट होती गई हैं। जीवन की जो तीव्रता है वह भी नष्ट होती चली गई, क्योंकि आदमी ने हर तरह से यह व्यवस्था करने की कोशिश की है कि सब तीव्र काम मशीनों पर चले जाएं। आदमी के पास कोई तीव्र काम न रह जाए। वह चुपचाप अपने सोफे पर बैठा रहे। सारी तीव्रता आदमी के हाथ से चली जाए।
कनफ्यूशियस एक गांव में गया हुआ था। उस गांव के बगीचे में वह गया, दोपहर के विश्राम के लिए। बगीचे का माली बूढ़ा है, वह बूढ़ा माली कुएं के पास मोट में जुता हुआ है खुद, बैल नहीं जोते हैं उसने, घोड़े नहीं जोते हैं, खुद जुता हुआ है, उसका जवान लड़का भी जुता हुआ है।
कनफ्यूशियस बहुत हैरान हुआ। उसने सोचा, क्या इस माली को अब तक पता नहीं चला, यह कहां की पुरानी बातों का उपयोग कर रहा है? अब तो घोड़े और बैल जोते जाने लगे हैं सारी दुनिया में, इसको पता नहीं चला क्या? खुद आदमी जुते हुए हैं?
उसने जाकर उस बूढ़े के पास कहा कि मेरे दोस्त, क्या तुम्हें पता नहीं है कि अब तो बैल और घोड़े जोते जाने लगे हैं, तुम क्यों जुते हुए हो? अपने जवान लड़के को क्यों जोते हुए हो? उस बूढ़े ने कहा: थोड़े धीरे, बहुत धीरे बोलना, कहीं मेरा जवान लड़का न सुन ले! फिर जब लड़का चला जाए, मैं आपसे बात करूंगा। लड़का चला गया। कनफ्यूशियस बहुत हैरान हुआ! उसने कहा: तुमने यह क्यों कहा कि धीरे, बहुत धीरे, लड़का न सुन ले? उसने कहा: लड़के को अभी समझ भी क्या हो सकती है। लेकिन मैं जीवन भर के अनुभव से कहता हूं कि श्रम के क्षण में ही मैंने आनंद का क्षण भी जाना है। घोड़े तो लाए जा सकते हैं, बैल भी लाए जा सकते हैं, लेकिन तब, तब यह लड़का क्या करेगा? तब यह लड़का क्या करेगा? कनफ्यूशियस ने कहा: यह विश्राम करेगा। उस बूढ़े ने कहा: नासमझ हो तुम, क्योंकि विश्राम के हकदार केवल वे ही बनते हैं जो श्रम करते हैं। विश्राम कैसे करेगा जब श्रम नहीं करेगा? श्रम से चूक जाएगा, विश्राम से भी चूक जाएगा। और जिंदगी से भी चूक जाएगा। इसलिए क्षमा करो! तुम्हारी ईजाद तुम्हारे पास रखो।
आदमी ने श्रम छोड़ने के सारे उपाय किए कि सारा श्रम छूट जाए। सारा काम कोई दूसरा कर दे, सब काम कोई दूसरा कर दे–कोई मशीन कर दे, कोई आदमी कर दे, कोई कर दे, मेरे ऊपर कोई काम न रह जाए। बड़े आश्चर्य की बात है! अगर मेरे ऊपर कोई काम न रह जाएगा, तो मैं जीते-जी मर जाऊंगा। जीवन तो काम है, जीवन तो कर्म है। मृत्यु है, वहां कर्म नहीं है। और अगर मेरे ऊपर कर्म नहीं रह जाएगा, तो मेरे पास विश्राम कहां रह जाएगा?
तो पहले आदमी ने कर्म की सारी की सारी व्यवस्था डांवाडोल कर ली। अब उसकी सारी विश्राम की व्यवस्था डांवाडोल हो गई है।
अमरीका में, न्यूयार्क जैसे नगर में तीस परसेंट आदमी बिना नींद की दवा लिए हुए सो नहीं सकते हैं। और वैज्ञानिकों का कहना है कि न्यूयार्क में पच्चीस साल के भीतर एक भी आदमी बिना दवा लिए नहीं सो सकेगा। पच्चीस साल में न्यूयार्क में, पचास साल में पूरे अमरीका में, सौ साल में भारत में भी…। यह केवल समय का फासला हो सकता है। क्योंकि गति तो हमारी वह है, दिशा तो हमारी भी वह है।
सौ साल बाद यह हो सकता है कि बच्चे इस बात पर विश्वास न करें कि सौ साल पहले लोग चुपचाप रात को बिस्तर पर सिर रखते थे और सो जाते थे। यह हो सकता है। यह मैं आपसे कहे देता हूं, यह होगा। अभी भी, जिस आदमी को नींद नहीं आती, उससे कहिए कि बड़े अजीब आदमी हो आप, हम तो बिस्तर पर सिर रखते हैं और सो जाते हैं। तो वह कहेगा, बड़ी अजीब बात कह रहे हैं आप, हम तो रात भर सिर रखते हैं, करवट बदलते हैं, सब करते हैं, सब करते हैं और नींद नहीं आती, आपको कैसे आ जाती है, हमें विश्वास नहीं आता? लेकिन अभी तो लोगों को आ जाती है, इसलिए मजबूरी में विश्वास करना पड़ता है। सौ साल बाद जब किसी को नहीं आएगी, तो लोग कहेंगे, पुरानी कल्पनाएं मालूम होती हैं, कहानियां मालूम होती हैं, पुराण की कथाएं मालूम होती हैं ये सब कि आदमी सो जाते थे।
जितनी आज नींद दूर हो गई है। एक युग था, परमात्मा भी इतना ही पास था, जितनी नींद आज है। और आज भी ऐसे लोग हैं जिनके लिए परमात्मा इतना ही पास है जितनी आपके पास नींद है, इससे ज्यादा फासला नहीं है। सिर रखा और उसके चरणों में पहुंच जाता है। हाथ बढ़ाया और उसका हाथ हाथ में आ जाता है। आंखें उठाईं और उसके दर्शन शुरू हो जाते हैं। आंखें बंद कीं और वह मौजूद हो जाता है। इतना ही निकट। लेकिन उसके लिए विश्राम में जाने की परिपूर्ण क्षमता चाहिए। परिपूर्ण शिथिलता में प्रवेश करने की, शून्यता में प्रवेश करने की क्षमता चाहिए।
आदमी तो नींद खो रहा है–विश्राम कहां, शून्य कहां, ध्यान कहां, समर्पण कहां, नींद ही असंभव होती चली जा रही है! यह जो स्थिति है ‘श्रम’ और ‘विश्राम’ खो देने की, इसने मनुष्य को सर्वाधिक अधार्मिक बनाया है।
‘जिन मित्र ने पूछा है कि कैसे हम आनंद को…?’
तो मैं कोई नहीं बताऊंगा कि गंडे-ताबीज बिकते हैं कहीं उनको बांध लें, तो आनंद आपको उपलब्ध हो जाएगा; कि मैं आपको बताऊं कि फलानी माईं के मंदिर पर चले जाएं और सिर पटकें, तो आपको आनंद उपलब्ध हो जाएगा; कि मैं आपको कहूं कि आप संतोषी माता की जय, संतोषी माता की जय जपें, तो आपको आनंद उपलब्ध हो जाएगा। इन मूढ़ताओं से कुछ भी नहीं हो सकता है। अगर आनंद उपलब्ध करना है, तो जीवन का पूरा विज्ञान समझना होगा और उस पर प्रयोग करने होंगे।
जीवन की अपनी साइंस है, उस साइंस के दो सूत्र मैंने आपसे कहे। फिर उसे दोहरा देता हूं और एक छोटी सी बात और अपनी चर्चा मैं पूरी करूंगा।
जीवंत, ज्वलंत, तीव्र अनुभव जितना ज्यादा हो उसकी खोज करें। ढीले-ढीले, सुस्त-सुस्त, मंदे-मंदे मत जीएं। बुझे-बुझे अंगारे की तरह सौ साल जीने का कोई मतलब नहीं। और एक क्षण भी जलते हुए ज्वलंत अंगारे की भांति जीने का मतलब है। हजार साल तक दबे-दबे हुए राख में पड़े रहें, उसका कोई मूल्य नहीं। एक क्षण चमकते हुए तारे की भांति, एक क्षण भी पूरी तरह जलते हुए जी लेने का मतलब है, अर्थ है, मीनिंग है। क्योंकि उसी तीव्रता में जीवन के रहस्यों का, जीवन में छिपे हुए सत्यों का अनुभव शुरू होता है।
दिन-रात बिस्तरों पर पड़े रहने का भी कोई अर्थ नहीं है। एक क्षण भी परिपूर्ण शिथिलता में प्रवेश करने का बहुत मूल्य है, बहुत अर्थ है। और पूरे जीवन की प्राकृतिक योजना तो यही है कि वहां दिन है, वहां रात है, वहां सूरज का ऊगना है, वहां अंधेरे की मखमली चादर का फैल जाना है। सूरज की जलती हुई किरणों के साथ आपके भीतर भी कुछ जल उठे, कुछ प्रज्वलित हो जाए। दिन भर उस प्रज्वल में, उस प्राण की तीव्रता में गतिमान हो जीवन। जैसे खिंचे हुए प्रत्यंचाओं पर तीर चलते हों, जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हों, जैसे जंगलों में हरिण दौड़ते हों, ऐसी तीव्रता से दिन बीते। और जैसे रात फूलों की पंखुड़ियां बंद हो जाती हैं, और जैसे रात पत्ते चुपचाप सो जाते हैं, और जैसे पक्षी परों को सिकोड़ लेते हैं और सिरों को छिपा कर मौन हो जाते हैं, ऐसी रात के अंधेरे के नीड़ में आप सो जाएं, मौन हो जाएं, चुप हो जाएं।
तीव्र हो श्रम, तीव्र हो विश्राम, इंटेंस हो सब-कुछ–जागना भी, सोना भी; तो आनंद की सरिता के प्रवाह में आप निश्चित उतर जाएंगे, इन दोनों के किनारों के बीच। और जो आनंद की सरिता में उतर जाता है, एक दिन वह आनंद के सागर में भी पहुंच जाता है। सागर है व्यक्ति की चेतना।
एक मित्र ने पूछा है, वह अंतिम:
भगवान, आत्मा क्या है? और परमात्मा क्या है?
मैं कोई पंडित नहीं, मैं कोई शास्त्री नहीं, मुझे कुछ पता नहीं कि पंडित क्या कहते हैं, मैं तो इतना ही जानता हूं: आत्मा है सरिता, परमात्मा है सागर। आत्मा की सरिता में जो बहता है, वह एक दिन परमात्मा के सागर में जरूर पहुंच जाता है। जिस दिन भी सरिता खोने का सामर्थ्य जुटा लेती है–डूबने का, मिटने का, उसी दिन प्रभु हो जाती है। उस तीसरे सूत्र पर हम कल सुबह बात करेंगे। अभी के लिए इतना ही पर्याप्त है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।