UPANISHAD
Shunya Samadhi 04
Fourth Discourse from the series of 9 discourses – Shunya Samadhi by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
पहले दिवस की चर्चा में विस्मय-विमुग्धता पर, पहले सूत्र पर हमने विचार किया था। कल बीते दिन की चर्चा में आनंद-विभोर होने के सूत्र पर, दूसरे सूत्र पर हमने बात की थी। और आज तीसरे सूत्र: अभेद भाव या अद्वैत पर, तीसरे सूत्र पर बात करनी है।
जिसके चित्त की भूमिका विस्मय से प्रारंभ होती है, आनंद के लोक को पार करती है, वह सहज ही अद्वैत के जगत में प्रविष्ठित हो जाता है। लेकिन जिसने पहले दो सूत्रों पर कोई ध्यान न दिया हो, उसे तीसरी बात समझ में आनी कठिन हो सकती है।
एक आदमी ने एक पक्षी को, एक बूढ़े पक्षी को एक जंगल में पकड़ लिया था। उस बूढ़े पक्षी ने कहा: मैं किसी भी तो काम का नहीं हूं, देह मेरी जीर्ण-जर्जर हो गई, जीवन मेरा समाप्त होने के करीब है, न मैं गीत गा सकता हूं, न मेरी वाणी में मधुरता है, मुझे पकड़ कर करोगे भी क्या? लेकिन यदि तुम मुझे छोड़ने को राजी हो जाओ, तो मैं जीवन के संबंध में तीन सूत्र तुम्हें बता सकता हूं।
उस आदमी ने कहा: भरोसा क्या कि मैं तुम्हें छोड़ दूं और तुम सूत्र बताओ या न बताओ?
उस पक्षी ने कहा: पहला सूत्र मैं तुम्हारे हाथ में ही तुम्हें बता दूंगा। और अगर तुम्हें सौदा करने जैसा लगे, तो तुम मुझे छोड़ देना। दूसरा सूत्र मैं वृक्ष के ऊपर बैठ कर बता दूंगा। और तीसरा सूत्र तो, जब मैं आकाश में ऊपर उड़ जाऊंगा, तभी बता सकता हूं।
बूढ़ा पक्षी था। सच ही उसकी आवाज में कोई मधुरता न थी, वह बाजार में बेचा भी नहीं जा सकता था। और उसके दिन भी समाप्तप्राय थे, वह ज्यादा दिन बचने को भी न था। उसे पकड़ रखने की कोई जरूरत भी न थी।
उस शिकारी ने उस पक्षी को कहा: ठीक! शर्त स्वीकार है। तुम पहली सलाह, पहली एडवाइज, तुम पहला सूत्र मुझे बता दो।
उस पक्षी ने कहा: मैंने जीवन में उन लोगों को दुखी होते देखा है, जो बीते हुए को भूल नहीं जाते हैं। और उन लोगों को मैंने आनंद से भरा देखा है, जो बीते को विस्मरण कर देते हैं और जो मौजूद है उसमें जीते हैं। यह पहला सूत्र है।
बात काम की थी और मूल्य की थी। उस आदमी ने उस पक्षी को छोड़ दिया। वह पक्षी वृक्ष पर बैठा। और उस आदमी ने पूछा कि दूसरा सूत्र?
उस पक्षी ने कहा: दूसरा सूत्र यह है कि कभी ऐसी बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए जो तर्क-विरुद्ध हो, जो विचार के प्रतिकूल हो, जो सामान्य बुद्धि के नियमों के विपरीत पड़ती हो, उस पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए, वैसा विश्वास करने वाला व्यक्ति भटक जाता है।
पक्षी आकाश में उड़ गया। उड़ते-उड़ते उसने कहा: एक बात तुम्हें उड़ते-उड़ते बता दूं, यह तीसरा सूत्र नहीं है, यह केवल एक खबर है जो तुम्हें दे दूं। तुम बड़ी भूल में पड़ गए हो मुझे छोड़ कर; मेरे शरीर में दो बहुमूल्य हीरे थे। काश! तुम मुझे मार डालते, तो तुम आज अरबपति हो जाते।
वह आदमी एकदम उदास हो गया। वह एकदम चिंतित हो गया। लेकिन पक्षी तो आकाश में उड़ गया था। उसने उदास और हारे हुए और घबड़ाए हुए मन से कहा: खैर, कोई बात नहीं, लेकिन कम से कम तीसरी सलाह तो दे दो?
उस पक्षी ने कहा: तीसरी सलाह देने की अब कोई जरूरत न रही; तुमने पहली दो सलाह पर काम ही नहीं किया। मैंने तुमसे कहा था: जो बीत गया उसे भूल जाने वाला आनंदित होता है। तुम उस बात को याद रखे हो कि तुम मुझे पकड़े थे और तुमने मुझे छोड़ दिया। वह बात बीत गई, तुम उसके लिए दुखी हो रहे हो। मैंने तुमसे दूसरा सूत्र कहा था: जो तर्क-विरुद्ध हो, बुद्धि के अनुकूल न हो, उसे कभी मत मानना। तुमने यह बात मान ली कि पक्षी के शरीर में हीरे हो सकते हैं, और तुम उसके लिए दुखी हो रहे हो। क्षमा करो! तीसरा सूत्र मैं तुम्हें बताने को अब राजी नहीं हूं। क्योंकि जब दो सूत्रों पर ही तुमने कोई अमल नहीं किया, कोई विचार नहीं किया, तो तीसरा भी व्यर्थ के हाथों में चला जाएगा, उसकी कोई उपादेयता नहीं।
इसलिए मैं पहली बात तो यह कहता हूं कि अगर पिछले दो सूत्रों पर खयाल किया हो, सोचा हो, वह कहीं प्राण के किसी कोने में उन्होंने जगह बना ली हो, तो ही तीसरा सूत्र समझ में आ सकता है। अन्यथा तीसरा सूत्र बिलकुल अबूझ होगा। मैं उस पक्षी जैसी ज्यादती नहीं कर सकता हूं कि कह दूं कि तीसरा सूत्र नहीं बताऊंगा। तीसरा सूत्र बताता हूं। लेकिन वह आप तक पहुंचेगा या नहीं, यह मुझे पता नहीं है। वह आप तक पहुंच सकता है, अगर दो सूत्र भी पहुंच गए हों; उन्हीं की राह पर वह धीरे से विकसित होता है। और अगर दो सीढ़ियां खो जाएं, तो फिर तीसरी सीढ़ी बड़ी बेबूझ हो जाती है, उसको पकड़ना और पहचानना कठिन हो जाता है, वह बहुत मिस्टीरियस मालूम होने लगती है।
तीसरा सूत्र है: अद्वैत, अभेद।
क्या अर्थ है अभेद का? अद्वैत का? प्रभु प्राप्ति की वह अंतिम सीढ़ी है। इसलिए बहुत बारीक, बहुत सूक्ष्मता से उसे समझ लेना और खयाल में ले लेना जरूरी है।
क्या है अद्वैत का अर्थ?
अठारह सौ सत्तावन में गदर के दिनों में एक संन्यासी एक अंग्रेज छावनी में रात को पकड़ लिया गया था। यह समझ कर कि वह कोई जासूस है, जो रात में पता लगाने आया हुआ है। और जब उससे पूछा गया कि तुम कौन हो? और वह कुछ भी न बोला, तब तो बात बिलकुल पक्की हो गई कि वह निश्चित ही जासूस है और छिपाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन वह संन्यासी पंद्रह वर्षों से मौन था। न वह किसी का जासूस था, न किसी से उसका लेना-देना था। नहीं बोल रहा था तो इसलिए नहीं कि उसे नहीं बोलना था, नहीं बोल रहा था इसलिए कि वह तो पंद्रह वर्षों से चुप था। लेकिन अंग्रेज, उस छावनी के प्रधान ने समझा कि वह धोखा देने की कोशिश कर रहा है, चालबाजी कर रहा है। उसने आज्ञा दी कि इसकी छाती में इसी समय, इसी क्षण भाला भोंक दिया जाए।
उसकी छाती में एक अंग्रेज ने भाला भोंक दिया, खून के फव्वारे छूट गए। वह संन्यासी हंसने लगा। और उसने कहा: तत्वमसि! उसने कहा: तू भी वही है! दैट आर्ट दाउ!
लोग पूछने लगे: क्या तुम कह रहे हो? और तुम इतनी देर तक चुप क्यों थे?
उसने कहा: चुप तो मैं पंद्रह वर्षों से था, और मैंने एक संकल्प ले रखा था कि उसी दिन बोलूंगा जिस दिन मुझमें और उसमें मुझे कोई भेद नहीं दिखाई पड़ेगा। आज वह घड़ी आ गई। मैं सोचता था कि अगर इस क्षण भेद दिखाई पड़ जाएगा, तो फिर अभेद की परीक्षा का कोई उपाय न रहा। जब इस सिपाही ने मेरी छाती में भाला भोंका, तब मैं गौर से देखता रहा: क्या इस सिपाही के भीतर भी मुझे मैं ही दिखाई पड़ता हूं या नहीं? अगर दिखाई पड़ गया तो जीवन सफल हो गया, अगर नहीं दिखाई पड़ गया तो हार गया। और जब मेरी छाती में छुरा भोंका गया, वह भाला भोंका गया, तब मैं दंग रह गया! मैंने देखा कि मैं भी वही हूं जो मारा जा रहा है और वह भी वही है जो मार रहा है! इसलिए अब अंतिम बात कह देता हूं: तत्वमसि! दैट आर्ट दाउ! तुम भी वही हो! मैं भी वही हूं! यह कहते हुए वह मर गया।
अद्वैत का अर्थ है: मेरे बीच और समस्त के बीच कोई सीमा न रह जाए, कोई दीवाल न रह जाए। मैं कहां समाप्त होता हूं और मुझसे जो अन्य है वह कहां शुरू होता है, इसका कोई पता न रह जाए। मैं कहीं समाप्त न होऊं, कहीं दूसरा शुरू न हो। एक विस्तार रह जाए और सारा विस्तार मेरे प्राणों से अंतर-संबंधित हो जाए। मेरे जीवन के बिंदु पर सारे जगत की परिधि हो जाए। मैं केंद्र रहूं, तो सारा जगत मेरा ही विस्तार रह जाए। सब-कुछ, जो भी है, जिसकी भी सत्ता है, उसमें और मेरे बीच कोई अंतराल, कोई इंटरवल, कोई गैप, कोई रिक्तता, कोई खाली जगह न रह जाए। उस, उस तादात्म्य, उस तारतम्य, उस तालमेल, उस हार्मनी, उस संगीत का, जहां मेरा स्वर और जीवन के सब स्वर एक हो गए हैं, उस भाव-दशा का नाम अद्वैत है, उस भाव-दशा का नाम अभेद है। और वह तीसरा सूत्र है।
कैसे इस बात की स्मृति आए? कैसे हम इस दिशा में प्रविष्ट हों? और सत्य यही है। भेद असत्य है, भेद कल्पित है, द्वैत सोचा हुआ है। जाना हुआ जैसा कोई द्वैत जगत में नहीं है। द्वैत केवल माना हुआ है। अनेकता और भेद केवल कल्पना है। कैसे यह दिखाई पड़े लेकिन? यह सारा जीवन, यह सारा अस्तित्व एक संघट है, एक इंटिग्रेटेड होल है, एक समग्रीभूत चेतना है। यह कैसे दिखाई पड़े? यह कैसे पहचान में आए? यह कैसे रिकग्निशन, यह कैसे हमारी स्मृति में उभर आए यह तथ्य कि सब-कुछ एक है और यहां भेद नहीं है?
एक आदमी झील के किनारे जाता है और एक पत्थर झील में फेंकता है। एक छोटा सा वर्तुल उठता है, एक छोटी सी लहर कंपती है, और फिर लहर बड़ी होने लगती है, बड़ी होने लगती है और चलने लगती है दूर अनंत किनारों की तरफ। एक दो तीन और करोड़ों लहर होती चली जाती हैं और बढ़ती चली जाती हैं। अनंत सागर के दूर किनारे पर जब यह लहर पहुंचेगी, तब कितना समय व्यतीत हो चुका होगा उस पत्थर को गिरे हुए जिससे पहली लहर उठी थी? और कौन सोच पाएगा कि यह लहर उससे संबंधित है? कौन सोच पाएगा? कौन स्मरण ला पाएगा कि यह वही, यह वही वर्तुल, वही लहर जो कंपी थी? एक क्षण, न मालूम अनंत के किन क्षणों में, वही दूर अनंत के किनारों तक होती हुई चली आई है। कोई खयाल में नहीं ले पाएगा। हम भी खयाल में नहीं ले पाते हैं।
हम भी अनंत की झील पर उठी हुई लहरें हैं। और हमसे पहले जो लहर थी, और उससे पहले जो लहर थी, और उससे पहले जो लहर थी, उन सभी लहरों से हम अंतर-गुंथित हैं, अंतर-संबंधित हैं।
एक बीज पैदा होता है और फिर वृक्ष बनता है और फिर वृक्ष में हजारों बीज लग जाते हैं; फिर वे हजारों बीज जमीन पर पहुंच जाते हैं, फिर उनसे अंकुर पैदा होते हैं, फिर वृक्ष पैदा होता है, फिर हजारों बीज लग जाते हैं। कौन कहेगा कि पहले बीज से हजारों वर्ष के बाद जो वृक्ष पैदा हुआ है वह संबंधित है? कौन स्मरण करेगा? वे अलग-अलग नहीं हैं, वे उसी एक बीज की अनंत में यात्रा हैं। वही बीज जो बहुत दूर अतीत में कहीं खो गया, जिसका कोई पता नहीं, जो न मालूम किस मिट्टी में डूब गया, जिसके अणु न मालूम कहां बिखर गए। लेकिन जो वृक्ष आपके द्वार पर लगा है, वह उसी बीज की अनंत यात्रा का हिस्सा है। यह वृक्ष कल गिर जाएगा और विलीन हो जाएगा; फिर कोई बीज लग जाएंगे, और यात्रा जारी रहेगी।
व्यक्ति बनते हैं और मिटते हैं। और वह जो बीज है, वह यात्रा करता चला जाता है। मैं कल नहीं था, आज हूं, कल नहीं रह जाऊंगा। लेकिन मेरे भीतर जो बीज है, जो पोटेंशियल है, जो एसेंशियल है, जो सारभूत है, वह मुझसे पहले था, वह मुझमें है। वह मैं कल विदा हो जाऊंगा, वह फिर शेष रह जाएगा। उसकी यात्रा आगे बढ़ती चली जाएगी। एक कंटीन्युटी है, एक सातत्य है, एक निरंतरता है। और इस निरंतरता का न कोई पीछे छोर है और न आगे कोई अंत है। न पीछे कोई प्रारंभ है, न आगे कोई समाप्ति है। लेकिन हमें दिखाई पड़ता है कि मैं हूं! यह मैं होना बिलकुल ही भ्रांत होना है। मैं नहीं हूं, मैं नहीं था, तब भी वह था जो मेरे भीतर सारभूत है। मैं नहीं रहूंगा, तब भी वह रहेगा जो मेरे भीतर सारभूत है। मैं अनंत के, अनादि के छोरों पर था, मैं अनंत के किनारों पर रहूंगा। यह जो कंटीन्युटी है, यह जो कंटीनम है, यह जो निरंतरता है, यह दिखाई पड़नी चाहिए।
अद्वैत भाव की पहली समझ: निरंतरता का बोध और स्मरण।
क्या यह आपको स्मरण होता है, आपके भीतर आपके पिता, आपके पिता के भीतर उनके पिता, उनके पिता के भीतर उनके पिता, और वे सब दूर के लोग जिनसे हमारा कोई संबंध नहीं दिखाई पड़ता, जिनसे कोई नाता नहीं दिखाई पड़ता, जिनकी कोई रेखा भी हमारे ऊपर नहीं छूट गई है, वे सब हमारे भीतर जीवित हैं? वे सब हमारे भीतर पुंजीभूत हैं? सारा अतीत, सब-कुछ जो बीत गया, इस क्षण में इकट्ठा है, उपस्थित है? सब जो आने को है, सब जो होने को है, सारा भविष्य, वह इस क्षण में मौजूद है? वह प्रकट होगा, खिलेगा, मैनिफेस्ट होगा, दिखाई पड़ेगा, दृश्य बनेगा, लेकिन अभी मौजूद है। एक बीज जो आपके हाथ में रखा हुआ है, उसमें क्या वह वृक्ष मौजूद नहीं है जो कल दिखाई पड़ेगा? अगर वह मौजूद नहीं है, तो वह कहां से आ सकता है? आज दिखाई नहीं पड़ रहा है, कल दिखाई पड़ेगा, इतना ही फर्क हो सकता है। लेकिन मौजूदगी का कोई फर्क नहीं है। सारा अतीत वर्तमान के क्षण में मौजूद है, सारा भविष्य वर्तमान के क्षण में मौजूद है। न अतीत की कोई सीमा है, न भविष्य की कोई सीमा है। इस अनंत धाराप्रवाह के हम एक हिस्से हैं, एक लहर हैं।
पहला स्मरण: निरंतरता का। काल, टाइम में, काल की निरंतरता का, काल की अनंतता का पहला बोध, तो मनुष्य अद्वैत की तरफ उठ सकता है। नहीं तो नहीं उठ सकता। सिर्फ बैठा हुआ दोहराता रहे कि मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं, इससे नहीं उठ सकता। इस दोहराने से कोई संबंध नहीं है। इस बात की तो प्राणों को पूरी स्मृति कि यह निरंतरता है। इस निरंतरता में मैं भी हूं, जब मैं नहीं था तब भी था, जब नहीं रहूंगा तब भी रहेगा। क्योंकि न कुछ नष्ट होता है, न कुछ जन्मता है, न कुछ नया बनता है, न कुछ पुराना है। जीवन है और होने के अनंत रूपांतरण हैं, अनंत ट्रांसफार्मेशन हैं।
समय की दृष्टि से निरंतरता का बोध–यह एक डाइमेन्शन है अद्वैत का, यह एक आयाम है।
और स्पेस की दृष्टि से, क्षेत्र की दृष्टि से विस्तार का बोध–यह दूसरा डाइमेन्शन है, यह दूसरा आयाम है अद्वैत का।
समय पीछे की तरफ फैला है और आगे की तरफ, यह एक दिशा हुई। क्षेत्र, स्पेस, स्थान, चारों तरफ फैला है, फैलता चला गया है, फैलता चला गया है, फैलता चला गया है। उसकी भी कोई सीमा नहीं है। उसकी भी कोई सीमा नहीं है। यह जो फैलता हुआ चला गया विस्तार है, इस विस्तार के भी हम एक हिस्से हैं, इस विस्तार से भी मैं अलग नहीं हूं। लेकिन यह पहचानना बहुत कठिन है कि करोड़ों-करोड़ों मील जो तारा है उससे भी मैं संबंधित हूं। यह खयाल में आना मुश्किल है कि जिस तारे को मैं जानता नहीं वह भी मेरे प्राणों का हिस्सा है। यह हमें खयाल में नहीं है। लेकिन आपको पता है, सुबह सूरज निकलता है और एक कली चटक कर खुल जाती है, क्या आप कह सकते हैं फूल की इस कली में और सूरज में कोई संबंध नहीं है? यह किसी एक ही ग्रेटर होल के, किसी एक बड़ी इकाई के हिस्से नहीं हैं? सूरज ऊगता है और आपकी बगिया की छोटी सी कली चटकती है और खिल जाती है। सूरज कितनी दूर है! सूरज बहुत दूर है। सूरज से पृथ्वी तक किरण को आने में दस मिनट लगते हैं। और सूरज की किरण एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलती है। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील; साठ सेकेंड में साठ गुनी, साठ मिनटों में उससे ज्यादा साठ गुनी। दस मिनट में सूरज की किरण आ पाती है।
यह जो इतनी दूर सूरज है, इसकी किरण, इसके सूरज का होना, आपकी बगिया में जो छोटा सा फूल खिला है, उसके होने से अंतर-संबंधित है। ये दोनों अलग बातें नहीं हैं। यह फूल नहीं हो सकता अगर सूरज न हो। और कौन जानता है कि अगर यह फूल न हो तो सूरज भी न हो सके। कौन कह सकता है? क्योंकि अगर फूल सूरज पर निर्भर है तो यह असंभव है कि सूरज फूल पर निर्भर न हो। जो भी निर्भर होते हैं वे हमेशा परस्पर निर्भर होते हैं, म्युचुअल डिपेंडेंस होती है। जहां भी निर्भरता है वहां हमेशा पारस्परिक निर्भरता है। कोई दो चीजें अलग–एक निर्भर हो और दूसरी उस पर निर्भर न हो, यह संभव नहीं है। यह असंभव है। वह घास का जो छोटा सा तिनका खड़ा है उसके होने से सूरज होगा, सूरज के होने से वह घास का तिनका है। उन दोनों के होने से यह सब-कुछ होना है।
लेकिन सूरज को हम समझ सकते हैं, हमारे निकट है, फूल उससे जुड़ा हो सकता है, लेकिन अनंत सूरज हैं, अनंत विस्तार में, वे भी हमसे जुड़े होंगे। निश्चित ही जुड़े होंगे। कोई वजह नहीं है, यह असंभव है कि वे हमसे न जुड़े हों। क्योंकि जो चीज नहीं जुड़ी है इस अस्तित्व में, वह हो भी नहीं सकती है, उसके होने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता, आंखें हमारी बोथली हैं, बहुत गहरे नहीं देखती हैं, इसलिए हमें दिखाई नहीं पड़ता कि हम जुड़े हो सकते हैं।
वैज्ञानिक क्या कहते हैं? वैज्ञानिक कहते हैं कि आज से कोई दो अरब वर्ष पहले एक महासूर्य इस सूर्य के करीब से निकल गया था। दो अरब वर्ष पहले। उस महासूर्य के इसके करीब से निकल जाने से इस सूरज के प्राणों में इतनी खलल मच गई, इतना उपद्रव मच गया, इतना विस्फोट हो गया कि उस सूरज की कशिश के कारण इसके कुछ टुकड़े टूट कर बिखर गए। उन्हीं टूटे हुए टुकड़ों में से एक जमीन बन गई। अगर वह सूरज दो अरब वर्ष पहले इस सूरज के करीब से न निकलता, आप राजकोट में नहीं हो सकते थे, मैं भी यहां नहीं हो सकता था; क्योंकि यह पृथ्वी ही न होती।
वह दो अरब वर्ष पहले जो सूरज निकला था महासूर्य इस सूरज के पास से, उसकी मौजूदगी के कारण इस सूरज के कुछ टुकड़े टूट गए खिंच कर। पृथ्वी बनी, समुद्र बने, जमीन पर घास आई, पशु-पक्षी आए, जानवर आए, आदमी आया, राजकोट बसा, आप हैं, मैं आ गया हूं। वह जो सूरज निकला था दो अरब वर्ष पहले, उससे मेरा नाता है, उससे आपका संबंध है। वह नहीं निकलता तो यह कुछ भी नहीं हो सकता था।
जीवन अनंत से जुड़ा है। आज हमें पता नहीं, एक कोई महासूर्य कल फिर निकल जाए इस सूरज के पास से और यह सूरज टूट जाए, हम सब उसी क्षण समाप्त हो जाएंगे। हम कहीं भी नहीं रह जाएंगे।
वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार वर्षों के भीतर धीरे-धीरे सूरज ठंडा हो जाएगा। ठंडा हो रहा है सूरज, उसकी रोज गर्मी फिंकती जा रही है, वह ठंडा होता जा रहा है। चार हजार वर्ष बाद वह एक दिन अचानक बिलकुल ठंडा हो जाएगा। फिर उससे कोई रोशनी नहीं निकलेगी, फिर उससे कोई प्रकाश नहीं पैदा होगा। फिर आपकी बगिया का फूल नहीं खिलेगा। फिर आपके गांव में सुबह नहीं होगी। फिर सुबह नहीं होगी और आप नहीं जाग सकेंगे। क्योंकि बिना सूरज के जीवन नहीं है। उस सूरज से हम जुड़े हैं।
मैं कहां शुरू होता हूं और कहां समाप्त होता हूं–यह जिस शरीर को मैं कह रहा हूं कि मेरा है, इस शरीर का एक-एक टुकड़ा न मालूम कितने शरीरों में रह चुका है। इसे मैं कैसे कहूं कि मेरा है? मेरे शरीर का एक-एक अंग न मालूम कितने शरीरों का हिस्सा रह चुका है। कल सुबह मेरे शरीर का एक टुकड़ा किसी घास का हिस्सा था, फिर एक गाय उसे खा गई, वह गाय के शरीर का हिस्सा और उसका खून बन गया और उसका दूध बन गया। आज वह मेरे शरीर का हिस्सा हो गया। कल वह मेरे शरीर को छोड़ देगा। कौन कह सकता है कि मैं गाय से नहीं जुड़ा हूं? कौन कह सकता है कि मैं घास से नहीं जुड़ा हूं? कैसे कहेंगे? कैसे कहेंगे कि हम जुड़े नहीं हैं, इंटिग्रेटेड नहीं हैं? हम अलग-अलग कहां हैं? और एक छोटा सा फर्क और सारा जगत प्रभावित हो जाता है। छोटा सा फर्क, जरा सा फर्क, एक जरा सी घटना और दुनिया की पूरी कथा दूसरी हो जाती है। हम इतने जुड़े हैं।
हो सकता है आज सुबह आपको घर में छींक आई हो और इससे दुनिया का इतिहास अब दूसरा हो, वह न हो सके जो कि आपको छींक न आई होती तो होता। आप कहेंगे, इससे क्या जोड़ हो सकता है? इससे क्या संबंध हो सकता है? एक गरीब आदमी को अपनी झोपड़ी में छींक आ गई, इससे दुनिया का क्या वास्ता? लेकिन यह घटना उतनी ही बड़ी है जितना किसी महासूर्य का निकल जाना। क्योंकि कोई घटना छोटी नहीं, कोई घटना बड़ी नहीं। छोटी हमें दिखाई पड़ती है, क्योंकि हम उसके इंप्लिकेशन, उसके विस्तार के परिणाम नहीं देख पाते। बड़ी दिखाई पड़ती है, क्योंकि हमको विस्तार के परिणाम दिखाई पड़ते हैं।
नेपोलियन छोटा था, वह अपने झूले में घर में सोया हुआ है छह महीने का, एक जंगली बिल्ली आई और उसकी छाती पर चढ़ गई। नौकरानी भागी, उसने बिल्ली को हटा दिया। लेकिन छह महीने के उस नेपोलियन के प्राण में बिल्ली का एक भय हमेशा के लिए समा गया। नेपोलियन इतना बहादुर आदमी हो गया बाद में–शेर से लड़ सकता था, मौत से जूझ सकता था; लेकिन बिल्ली को देख कर उसके हाथ-पैर ढीले हो जाते। नेपोलियन जिस युद्ध में हारा, शायद आपको पता न हो, उसका दुश्मन नेल्सन, सत्तर बिल्लियां युद्ध के मैदान पर बांध कर ले गया था। नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं और उसके हाथ-पैर ढीले हो गए। वह पहली हार थी, नेपोलियन उस दिन हार गया। रात उसने अपने मित्रों को कहा: नेल्सन भूल में है, नेल्सन सोचता हो कि उसकी वजह से मैं हार गया। मैं हार गया बिल्लियों की वजह से! बिल्लियां मौजूद थीं कि मेरे होश गुम हो गए। उन पर मेरा कोई वश ही नहीं है। नेपोलियन हार गया, इतिहास दूसरा हुआ। नेपोलियन जीतता, इतिहास दूसरा होता। और नेपोलियन की छाती पर बिल्ली न चढ़ी होती, तो दुनिया दूसरी होती।
जरा सा फर्क और सारी दुनिया दूसरी हो जाएगी; क्योंकि सारा, सब-कुछ संयुक्त है।
एक आदमी भागा जा रहा है अपनी कार में और उसके सामने वाले की कार बिगड़ गई है और चौरस्ते पर खड़ी हो गई है और पांच मिनट देर हो गई। उसे जहां पहुंचना था वह वहां पांच मिनट बाद पहुंचेगा। दुनिया दूसरी होगी, अब यह वही नहीं हो सकती जो कि पांच मिनट पहले पहुंचने से होती। क्योंकि क्या हो सकता है? हो सकता है वह पांच मिनट बाद जिस मकान में जाने को था वहां पहुंचे, लिफ्ट में सवार हो और एक लड़की उसे मिल जाए और वह उसके प्रेम में पड़ जाए और उनका विवाह हो जाए और उनके बच्चे पैदा हों और उनके बच्चों में कोई एक महावीर पैदा हो जाए, कोई एक बुद्ध पैदा हो जाए, यह सारी दुनिया दूसरी हो। अगर पांच मिनट वह रास्ते पर ट्रैफिक की वजह से न रुकता, उस लिफ्ट में उसे उस लड़की से मिलना नहीं हो सकता था, दुनिया दूसरी होती।
एक-एक छोटा-छोटा कण, एक-एक छोटी-छोटी घटना समस्त विस्तार में संयुक्त है, जुड़ी हुई है। इस जोड़ का बोध, इस इंटेग्रिटी का बोध। काल की दृष्टि से निरंतरता का बोध। स्पेस, क्षेत्र की दृष्टि से संबद्धता का बोध अद्वैत की तरफ दूसरा चरण है।
हमें कुछ खयाल में नहीं कि कब क्या हो जाए। मैं यहां बोल रहा हूं, मेरा कौन सा शब्द आपके प्राणों में जाकर क्या करे, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। और अगर मेरा एक शब्द आपके कानों में प्रविष्ट हो जाता है, तो आप वही आदमी नहीं रह गए जो आप थे; मैं आपसे संबंधित हो गया, हम दोनों किसी तल पर एक हो गए, किसी केंद्र पर हमारे प्राणों ने एक नया संयोग स्थापित कर लिया।
प्रतिपल हम वृहत्तर से वृहत्तर इकाइयों से जुड़े हुए हैं, उनसे आदान-प्रदान चल रहा है, चाहे हमें ज्ञात हो, चाहे हमें ज्ञात न हो।
मैं एक विश्वविद्यालय में शिक्षक था। विद्यालय के बड़े भवन के समक्ष गुलमोहर के कोई बीस पौधे लगे हुए थे। लेकिन उन्नीस पौधे सूखे हुए थे, उनमें मैंने कभी कोई पत्ते नहीं देखे। एक पौधे में पत्ते थे, हरियाली थी, तो मैं अपनी गाड़ी उसी पौधे के नीचे रख कर पढ़ाने के लिए भीतर चला जाता था। मैं उसके नीचे गाड़ी इसलिए रखता था कि वह हरियाली थी, उसमें छाया थी। लेकिन धीरे-धीरे विश्वविद्यालय में यह खबर फैल गई कि मेरी गाड़ी रखने की वजह से वह वृक्ष हरा है। बाकी वृक्ष सूख गए हैं। मुझे उस कालेज के प्रिंसिपल ने कहा कि
एक बड़ी चमत्कार की बात, वह आपको पता है? लोग कहते हैं कि आप वहां गाड़ी रखते हैं अपनी इसलिए वृक्ष हरा है। मैंने कहा: मजाक करते होंगे। मैं तो वहां गाड़ी इसलिए रखता हूं चूंकि वृक्ष हरा है, छाया है, इसलिए वहां गाड़ी रखता हूं। और जब से मैंने गाड़ी रखनी शुरू कर दी मेरे लिए वह जगह खाली रहती है, कोई वहां गाड़ी नहीं रखता। लोग खयाल रखते हैं कि मुझे वहां गाड़ी रखनी होगी। तो धीरे-धीरे मेरा अड्डा हो गया, उस वृक्ष से मेरा नाता हो गया। लेकिन मेरी गाड़ी रखने की वजह से वह हरा है यह कहना मुश्किल है। हरे होने की वजह से जरूर मैं गाड़ी रखता हूं।
फिर मैंने वह विश्वविद्यालय छोड़ दिया। तीन महीने बाद किसी काम से मैं विश्वविद्यालय में बोलने गया। वे प्रिंसिपल मुझसे कहने लगे, उस दिन जो बात मजाक में हुई थी…। आप मेरे साथ आइए। वे मुझे बाहर ले गए। मैंने देखा, वह वृक्ष सूख गया है। वे कहने लगे, अब बताइए, अब बोलिए, क्या हुआ? यह वृक्ष तो सूख गया। जब से आपने यहां गाड़ी रखनी बंद की, यह वृक्ष सूखना शुरू हो गया।
मेरी तो समझ में नहीं बात आ सकी एकदम से। मैंने कहा: यहां तक तो मेरे खयाल में था कि मैं वहां गाड़ी रखता हूं, क्योंकि वृक्ष हरा है; लेकिन यह दूसरा पहलू मेरी कल्पना में नहीं बैठता कि वृक्ष इसलिए हरा है कि मैं गाड़ी रखता हूं। यह संयोग ही होगा मैंने कहा कि वृक्ष सूख गया है। लेकिन मेरी आंखों में आंसू जरूर आ गए। कौन जाने जीवन इतना रहस्यपूर्ण है कि वृक्ष इसीलिए सूख गया हो? कौन जाने मुझे पहली बार स्मरण आया कि वृक्ष भी मेरा हिस्सा हो सकता है? लेकिन यह संयोग हो सकता था।
अमरीका में एक वैज्ञानिक था, लूथर बरबांक। वह एक मरुस्थलीय पौधे के ऊपर, कैक्टस के ऊपर, जिसमें कांटे ही कांटे होते हैं और बिना कांटे की कोई भी शाखा नहीं होती, कोई भी पत्ता नहीं होता। उस पर सात साल तक निरंतर मेहनत करता रहा। सारी अमरीका में खबर फैल गई कि बरबांक पागल हो गया है। वह नोबल प्राइज विनर था। उसका दिमाग खराब हो गया है मालूम होता है। एक पौधे के साथ दिन-रात मेहनत कर रहा है। और यह मेहनत कर रहा है जो कि शायद ही सफल हो सके। उसकी पत्नी तक उसको कहने लगी कि तुम्हारा दिमाग मुझे भी शक होता है कि खराब हो गया है।
उस पौधे के साथ वह यह श्रम सात साल तक करता रहा। वह यह कहता था कि चूंकि पौधे में प्राण हैं, जीवन है; मुझमें भी प्राण हैं और जीवन है, इसलिए किसी न किसी गुह्यतर मार्ग से मेरा प्राण और मेरा जीवन पौधे के जीवन से संबंधित होगा। और अगर संबंधित है, तो कोई कम्युनिकेशन, कोई बातचीत भी पौधे से हो सकती है।
अब यह कोई साधु-संन्यासी बातें करे, कोई कवि बात करे, तो ठीक; लेकिन बरबांक की हैसियत का नोबल प्राइज विनर वैज्ञानिक यह बात करे, तो बड़ी मुश्किल है। क्या पौधे से संबंध हो सकता है?
बरबांक रोज उस पौधे से सुबह-सांझ कहता कि प्यारे पौधे, एक बार एक सबूत दे दे कि मेरी खबर तुझ तक पहुंच रही है, तू इतना कर कि तुझमें एक शाखा निकल आए जिसमें कांटे न हों। लेकिन उस पौधे में बिना कांटे की शाखा होती ही नहीं; कभी नहीं हुई, हो ही नहीं सकती। सात साल तक की मेहनत। लेकिन बरबांक भी एक ही आदमी रहा होगा; मेहनत करता गया, करता गया, और एक दिन सुबह उसकी आशा पूरी हो गई। उस कांटों भरे पौधे में एक शाखा निकली जिसमें कांटे नहीं थे।
इसको संयोग कहना कठिन है। इसको संयोग कहना कठिन है। क्या बरबांक की बात सुन ली गई? क्या पौधे के प्राणों तक यह खबर पहुंच गई कि मैं उत्तर दूं इस आदमी का जो सात साल से मेरे द्वार पर प्रेम कर रहा है और प्रार्थना कर रहा है? इसको उत्तर दूं, इसको उत्तर देना जरूरी हो गया है। और उस पौधे में से एक शाखा निकल आई। उस शाखा को देखने लाखों लोग इकट्ठे हुए। यह मिरेकल था। यह चमत्कार था। लेकिन शायद कोई चमत्कार नहीं है, शायद हमें पता नहीं कि हम कैसे संबंधित हैं।
जीवन संबंधित है, जीवन अंतर-संबंधित है, इंटर-रिलेटेड है, सब इकट्ठा है। वह जो पत्थर मार्ग पर पड़ा है, वह जो आकाश में पक्षी उड़ रहा है, वह जो दूर का तारा है और मैं हूं और आप हैं, हम सबके भीतर जीवन की कोई अंतर-धारा दौड़ रही है, कोई करंट, कोई विद्युत जीवन की हम सबके भीतर दौड़ रही है। वह हम सबको पार कर रही है और हम सबको जोड़ रही है। हम सब उसके हिस्से हैं। यह बोध, यह स्मरण अद्वैत भाव के लिए अनिवार्य भूमिका है। शास्त्र पढ़ने से कुछ भी नहीं होगा, सीखे हुए सूत्र दोहराने से कुछ भी नहीं होगा। जीवन की यह सच्चाई और जीवन के ये अर्थ खोजने होंगे। जीवन के ये मिरेकल, जीवन के ये चमत्कारों के पर्दे उठाने होंगे, और तब शायद आपको दिखाई पड़ेगा सब जुड़ा है, क्योंकि बिना जुड़े कैसे कुछ हो सकता है?
एक पत्ता आकाश में हिल रहा है वृक्ष का, उसके नीचे सैकड़ों पत्ते उसी वृक्ष पर हिल रहे हैं, लेकिन क्या उस पत्ते को पता होगा कि ये जो दूसरे पत्ते हिल रहे हैं इनसे मैं जुड़ा हूं, इनसे मैं संबंधित हूं? नहीं, उसे कुछ भी पता नहीं चल रहा होगा, वह अपनी मौज में हिल रहा है, दूसरे पत्ते अपनी मौज में हिल रहे हैं। वे बिलकुल अलग हैं। उसका अपना व्यक्तित्व है, उन पत्तों का अपना व्यक्तित्व है। कहां जुड़े होंगे वे? कौन मान सकता है कि वे जुड़े हैं? एक पत्ता उनमें से सूख कर गिर जाएगा, दूसरा पत्ता हरा बना रहेगा, वह कैसे मान सकता है कि मैं उस पत्ते से जुड़ा था जो सूख कर गिर गया, मैं तो हरा हूं? वह कैसे मान सकता है कि यह जो हवा चलती है, तो कभी मैं हिलता हूं, वह नहीं भी हिलता है? अगर हम जुड़े होते, तो हम दोनों साथ-साथ हिलते। अगर हम जुड़े होते, हम साथ-साथ मरते। वह पत्ता बूढ़ा हो गया, मैं अभी जवान हूं। अगर हम जुड़े होते, तो हम दोनों एकसे जवान होते। वह पत्ता कहेगा, हम कैसे जुड़े हैं, कैसे मान सकते हैं? कैसी इल्लॉजिकल, कैसी अतर्क बात आप कहते हैं कि हम जुड़े हैं? पत्ता नहीं मानेगा।
लेकिन हम भलीभांति जानते हैं कि एक पत्ता जवान है, एक बूढ़ा है, एक अभी पीक रहा है, एक अभी सूखने के करीब पहुंच गया है, एक दूर ऊपर की शाखा पर शिखर पर लगा है, एक नीचे छिपा है, लेकिन हम जानते हैं कि वे जुड़े हैं, वे एक ही वृक्ष के पत्ते हैं। उनके पीछे शाखाएं चली गई हैं, उनके पीछे पिंड चली गई हैं, उनके पीछे जमीन में जड़ें चली गई हैं, वे सब जुड़े हैं, वे संयुक्त हैं। लेकिन उन पत्तों को कोई भी पता नहीं है। पत्ते द्वैत में जी रहे हैं। अगर उन्हें पता चल जाए, वे अद्वैत में प्रविष्ट हो जाएंगे।
आदमी भी द्वैत में जी रहा है। मैं कैसे मानूं कि मैं और आप एक हैं? मैं काला हूं, आप गोरे हैं; मैं हिंदू हूं, आप मुसलमान हैं; मैं बच्चा हूं, बूढ़ा हूं, आप जवान हैं, हम कैसे जुड़े हो सकते हैं? हम अलग-अलग हैं। मैं मर जाऊंगा, आप जिंदा रहेंगे, हम कैसे जुड़े हो सकते हैं? वही जो पत्ते का तर्क था, वही तर्क हमारा है। क्योंकि हम अलग-अलग मालूम पड़ते हैं, इसलिए कैसे जुड़े हो सकते हैं?
अलग-अलग होने के लिए न जुड़ा होना जरूरी नहीं है। जुड़े हुए हम अलग-अलग हो सकते हैं। जोड़ हमारे व्यक्तित्व को नष्ट नहीं करता; जोड़ अनेक रूपों में हमारे व्यक्तित्व को पुष्ट करता है। और पत्ते ही जुड़े होते, तो ठीक था, इतने दूर तक हम राजी हो सकते हैं कि एक वृक्ष के पत्ते आपस में जुड़े हैं, ठीक है, एक वृक्ष एक इकाई है, लेकिन दूसरे वृक्ष के पत्ते तो उससे नहीं जुड़े हैं? लेकिन थोड़ा और गहरे जाएं, तो हम पाएंगे, वे भी जुड़े हैं, क्योंकि इस वृक्ष की जड़ें जमीन से जुड़ी हैं, उस वृक्ष की जड़ें भी जमीन से जुड़ी हैं, ये एक जमीन से दोनों जुड़े हैं, ये दोनों अलग कैसे हो सकते हैं? ये भिन्न कैसे हो सकते हैं? इनमें भेद कैसे हो सकता है?
तो हमारे जीवन की खोज, अन्वेषण, क्या हमें पृथकता पर ले जाता है? क्या जीवन के सत्य की झलक हमें पृथकता पर ले जाती है या अभेद पर? सामान्यतः हम पृथकता पर ही गति करते हैं, अभेद पर नहीं। हम पृथकता में ही जीते हैं। और यह हमारी यह पृथकता किस केंद्र पर खड़ी होती है? जिस केंद्र पर पृथकता खड़ी होती है, उस केंद्र का नाम अहंकार है, उस केंद्र का नाम ईगो है।
अभेद भाव में जाना है, तो अहंकार भाव को विसर्जन करना होता है, उसके बिना कोई प्रवेश नहीं कर सकता है। ‘मैं हूं’ यह हमारी घोषणा इतनी तीव्र है कि हम जो सबसे जुड़े हैं उसका हमें पता नहीं चलता। क्योंकि अगर मुझे पता चल जाए कि मैं सबसे जुड़ा हूं, तो फिर मेरे मैं को खड़े होने की कोई भी जगह नहीं रह जाएगी। फिर मेरे मैं को मिटना पड़ेगा, टूटना पड़ेगा, बिखरना पड़ेगा। इसलिए मैं आंख बंद रखता हूं कि मुझे दिखाई न पड़ जाएं जोड़, ताकि मेरा अहंकार सुरक्षित रहे। और हम सबका अहंकार है।
एक सुबह एक मच्छर एक हाथी के आस-पास गीत गुनगुना रहा था, फिर वह हाथी के कान में प्रविष्ट हुआ। वह जगह उसे बहुत साफ-सुथरी मालूम पड़ी, काफी बड़ा भवन मालूम पड़ा, उसने सोचा कि मैं अब तक व्यर्थ झोपड़ों में पड़ा रहा, अब इसमें ही निवास करूं। लेकिन शिष्टाचारवश उसने हाथी को खबर दे देनी जरूरी समझी। उसने बहुत जितनी तेज आवाज वह जुटा सकता था उतनी आवाज में कहा कि सुनते हैं महाशय, मैं एक भूतपूर्व मच्छरों का मंत्री, बीस साल तक दिल्ली रहा हूं और अब इस भवन में निवास करना चाहता हूं। जस्ट टु इनफॉर्म यू। उसने कहा कि तुम्हें खबर कर देनी उचित है, इसलिए तुमसे कह रहा हूं। लेकिन पिछले चुनाव में मैं हार गया, तब से मैं संन्यासी हो गया हूं। और अब मेरा नाम स्वामी मच्छड़ानंद जगदगुरु! और अब मैं गौ आंदोलन चलाता हूं। तो आपको पता तो होगा, अखबार तो पड़ते ही होंगे, मेरी तस्वीर तो आपने देखी ही होगी–सारी दुनिया मुझसे भलीभांति परिचित है। आपका सौभाग्य कि आपके कान को मैंने अपने निवास का स्थान चुना।
लेकिन हाथी को कुछ सुनाई नहीं पड़ा। हाथी को पता ही नहीं चला कि कोई मच्छर क्या गुनगुनाता था, क्या कहता था। उसे पता भी नहीं चला कि कोई मच्छर आकर उसके कान में निवास कर लिया है। मच्छर के दो-चार शिष्य भी थे, उन्होंने मच्छर से कहा भी कि यह हाथी बिलकुल जड़बुद्धि है, यह कुछ सुन ही नहीं रहा मालूम होता है। और यह हाथी तो हाथी, मच्छरों को छोड़ कर सभी जड़बुद्धि हैं, उन मच्छरों ने कहा। आप जिस गऊ के लिए जेल गए और जिस गऊ के लिए इतना आंदोलन चलाया, मैं उस गऊमाता के भी पास गया था, तो वह गऊमाता भी हंसने लगी और उसने कहा कि कुछ न कुछ पोलिटिकल स्टंट होना चाहिए, कोई राजनैतिक चालबाजी होनी चाहिए। नहीं तो मच्छरों को गऊ से क्या लेना। तो वह गऊ भी फिकर नहीं करती है हमारी, और हम उसके लिए जान खपाए दे रहे हैं। और यह हाथी से आप चिल्ला कर कह रहे हैं, वह कुछ भी नहीं सुन रहा है।
फिर वह मच्छर उस भवन में निवास करने लगा। वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष, उसकी न मालूम कितनी संततियां उस भवन में हुईं और दुनिया की यात्रा पर निकल गईं। फिर तीन वर्ष बाद मौसम बदल गया, दिल्ली के निष्कासन का समय समाप्त हो गया, अज्ञातवास पूरा हो गया, उस मच्छर को वापस दिल्ली जाने का मौका मिला। तो उसने उस हाथी को कहा कि सुनता है, ऐ हाथी के बच्चे! मच्छर वह हाथी से कहने लगा, ऐ हाथी के बच्चे, सुनता है! अब हम यह मकान छोड़ रहे हैं। लेकिन हाथी ने कुछ भी नहीं सुना। तो वह मच्छर बहुत जोर से उसके कान पर पीटने लगा, आवाज करने लगा, चिल्लाने लगा, और दस-पच्चीस मच्छरों को बुला लाया, उन्होंने बहुत शोरगुल मचाया। जब बहुत शोरगुल मचाया तो हाथी को थोड़ा सा खयाल
आया कि कुछ कान के पास कुछ गड़बड़ होती है। उसने पूछा: क्या बात है भाई, क्या मामला है? थोड़ा जोर से कहो। तो उस मच्छर ने कहा कि हम छोड़ रहे हैं यह मकान। तीन साल पहले हमने यहां निवास किया, तीन साल हम यहां रहे। तुम्हारा सौभाग्य कि मैं मच्छड़ानंद एक्स एम पी, एक्स मिनिस्टर यहां इतने दिन रहा! तो तुम्हें बता देना जरूरी है। तुम्हारा क्या खयाल है? मैं मकान छोड़ रहा हूं अब।
उस हाथी ने कहा: सर, गो इन पीस। यू आर सो मच इंट्रेस्ंिटग एंड सिग्निफिकेंट टु मी व्हेन यू आर गोइंग एज मच यू वर व्हेन यू केम इन। बड़े शौक से, बड़ी शांति से जाइए महानुभाव। आपमें मेरा रस और उत्सुकता उतनी ही है जितनी जब आप आए थे, उतनी ही जाते समय भी है। न मुझे पता कि आप कब आए थे, न मुझे ध्यान कि आप कब जा रहे हैं। आप शांति से जाइए।
इस मच्छर का क्या पागलपन है, इसको क्या हो गया है? आदमी का भी क्या पागलपन है, आदमी को भी क्या हो गया है? घोषणाएं कर रहे हैं हम अपने अहंकार की कि मैं, मैं फलां हूं! जानते नहीं, मैं कौन हूं!
न चांद-तारे सुनते हैं, न आकाश सुनता है, न पशु-पक्षी सुनते हैं, न पौधे सुनते हैं, न तितलियां सुनती हैं, न राह के पत्थर सुनते हैं, कोई भी नहीं सुनता और हम चिल्लाए चले जा रहे हैं कि जानते हैं, मैं कौन हूं? सारे जगत में कोई भी नहीं सुनता, सारे जगत में इस चिल्लाने का कोई भी अर्थ नहीं है, कोई भी प्रयोजन नहीं है। हम किसको समझा रहे हैं, हम किसके लिए चिल्ला रहे हैं?
लेकिन आदमी का सारा रस एक बात में है कि वह घोषणा कर सके कि मैं कौन हूं! मैं यह हूं! मैं वह हूं! चिल्ला-चिल्ला कर मरा जाता है, दुखी हुआ जाता है, परेशान हुआ जाता है। पत्थरों पर नाम खोदता है कि मैं मिट जाऊं तो मिट जाऊं, कम से कम मेरा नाम तो पीछे पत्थरों पर रह जाए। छोटे-छोटे बच्चे जाकर रेत में हस्ताक्षर करते हैं, सुबह लौट कर देखते हैं हवाओं ने रेत बदल दी, पानी की धाराएं रेत को बहा ले गईं, सब नाम पुंछ गए हैं। बूढ़े बच्चों पर हंसते हैं और कहते हैं, पागलो, रेत पर दस्तखत करते हो, रेत पर दस्तखत कैसे टिकेंगे, सख्त चट्टान पर नाम खोदना चाहिए। मंदिर में पत्थर लगवाना चाहिए। सख्त चट्टान पर खोदना चाहिए, बूढ़े कहते हैं। बस बूढ़े और बच्चों में इतना ही फर्क है। लेकिन बूढ़ों को शायद पता नहीं कि जिसको वे चट्टान कहते हैं वह एक दिन रेत थी और एक दिन रेत हो जाएगी।
बच्चे जरा सॉफ्ट मीडियम पर काम कर रहे हैं, बूढ़े जरा हार्ड मीडियम पर काम कर रहे हैं। लेकिन बूढ़े और बच्चों की बुद्धि में कोई फर्क नहीं है, कोई भेद नहीं है। बच्चे जरा सस्ते खिलौनों से खेलते हैं, बूढ़े महंगे खिलौनों से खेलते हैं। लेकिन चाइल्डिशनेस में, बचकानेपन में कोई फर्क नहीं है।
जिस आदमी को अहंकार का खयाल है उसकी बुद्धि बचकानी है, उसकी बुद्धि अप्रौढ़ है, इम्मैच्योर है। उसे जीवन का कोई पता ही नहीं है कि यहां लिखे हुए नामों का कोई ठिकाना है! यहां चिल्लाई गई घोषणाएं कोई सुनता है! यह पृथ्वी को ऐसा ही है कि आप आएं या आप चले जाएं, चांद-तारों को ऐसा ही है कि कौन ठहरा, कौन मेहमान बना, किसने मकान बनाया, किसने नहीं बनाया, इसकी कोई खबर इस विराट विश्व में कहीं भी नहीं गूंजेगी, कहीं कोई अंकन नहीं रह जाएगा। यह लेकिन हमारी सारी चेष्टा यही है, हमारे जीवन का सारा उपक्रम एक ही केंद्र पर घूमता है कि मैं अपने मैं को सिद्ध कर दूं। जो है ही नहीं उसको हम सिद्ध करना चाहते हैं और जो है उसको हम देखना भी नहीं चाहते। अहंकार असत्य है, क्योंकि अहंकार इसलिए असत्य है कि वह यह कहता है कि आप एक सेपरेट एनटाइटी हैं। अहंकार इसलिए असत्य है कि उसकी घोषणा है कि मैं पृथक हूं। पृथकता एकदम असत्य है, इस जगत में कुछ भी पृथक नहीं है। अहंकार इसलिए असत्य है कि वह आपको तोड़ता है जोड़ता नहीं; जब कि आप वस्तुतः जुड़े हुए हैं, टूटे हुए नहीं हैं।
क्या है नाम आपका? भीतर झांकें और पूछें कोई नाम है? कभी खोजा इस बात को कि मेरा कोई नाम है? एक-एक आदमी अनाम पैदा होता है, नेमलेस। नाम आदमियों की ईजाद हैं, हमारे दिए हुए हैं। किसी आदमी का कोई नाम नहीं है। कोई नाम ही नहीं है किसी का। नाम सब हमारी खोज, ह्यूमन इनवेंशन, आदमी के आविष्कार हैं। लेकिन इन आविष्कारों के इर्द-गिर्द ही हम सारे जीवन को लगा देते हैं। सारे जीवन को लगा देते हैं–प्राण लगा देते हैं, शक्ति लगा देते हैं, सुख खो देते हैं, आनंद खो देते हैं, सब खो देते हैं–एक दौड़ में कि मेरा नाम किसी पत्थर पर लिख जाए, मैं मर जाऊं लेकिन नाम बच जाए। और हम पूछते भी नहीं कि मेरा कोई नाम ही नहीं था तो मैं अपने नाम को बचा कैसे सकूंगा! बचेगा क्या?
एक चक्रवर्ती सम्राट वह चक्रवर्ती हो गया है, उसने सारी पृथ्वी को जीत लिया है। चक्रवर्तियों को एक विशेष बात का मौका दिया जाता था और वह यह कि वे स्वर्ग में प्रवेश करें और स्वर्ग के सुमेरु पर्वत पर अपने हस्ताक्षर कर दें। सुमेरु पर्वत सबसे हार्ड मीडियम है जगत में, वह सबसे सख्त पत्थर है। कल्प बीत जाते हैं, उस पत्थर में कोई परिवर्तन नहीं होता। महाकल्प बीत जाते हैं, वह पर्वत वैसा ही अडिग बना रहता है। तो चक्रवर्तियों को यह सौभाग्य मिलता था, इसी सौभाग्य के पाने के लिए आदमी चक्रवर्ती होना चाहते थे। फिर एक आदमी चक्रवर्ती हो गया, उसने सारी पृथ्वी जीत ली, फिर वह बैंड-बाजे लेकर शोरगुल करता हुआ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा और उसने पहरेदारों को कहा: रास्ता छोड़ो, मैं चक्रवर्ती हो गया, अब मैं दस्तखत करूंगा अपने।
पहरेदार खूब हंसने लगा, उसने कहा: आदमी भी खूब पागल है! जिंदगी भर दौड़-धूप करता है इसलिए कि सुमेरु पर्वत पर दस्तखत कर दे! बस कुल इसलिए! कुल खोज-बीन इतनी! कुल आकांक्षा इतनी! सारे जीवन को गंवाता है इसलिए कि हस्ताक्षर कर दे सुमेरु पर्वत पर! फिर भी आप आए, तो स्वागत। मैं तो इसीलिए हूं। लेकिन आप अकेले ही भीतर चल सकते हैं, ये बैंड-बाजे और यह फौज-फांटा बाहर रहेगा।
चक्रवर्ती निराश हो गया। क्योंकि हस्ताक्षर अकेले में करने में कोई मजा नहीं आता है, सबके सामने हो तो मजा आता है। जितनी भीड़ हो उतना मजा आता है। अकेले में तो अहंकार की जान ही निकल जाती है; क्योंकि वह बिलकुल झूठ है। अकेले में चले जाइए, तो खोजे से नहीं मिलता कि कहां है। वह पब्लिक ओपिनियन है। बिलकुल झूठ है। लोगों की धारणा से निर्मित होता है, उसके अपने कोई प्राण ही नहीं हैं। अफवाह है, अहंकार इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। इसलिए जितनी बड़ी भीड़ हो अहंकार उतना मजबूत हो सकता है, उतनी बड़ी अफवाह फैलाई जा सकती है।
राजा निराश हो गया। लेकिन उस पहरेदार ने कहा: आप निराश न हों। जब आप भीतर से लौटेंगे तब आप समझेंगे कि मैंने कितनी समझदारी की सलाह आपको दी कि लोगों को बाहर ही छोड़ जाएं। अभी आपकी समझ में नहीं आएगा। कृपा करके भीतर चलिए। राजा अकेला छैनी-हथौड़ी लेकर भीतर गया। विराट पर्वत है, जिसकी श्रेणियां कहां शुरू होती हैं और कहां समाप्त होती हैं कुछ पता नहीं चलता। फिर निकट पहुंचा, उस पहरेदार ने कहा: महाशय, एक निवेदन कर दूं, पहाड़ पूरा भर गया है, दस्तखत करने के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए आपको कोई नाम मिटा कर दस्तखत करना पड़ेगा। चक्रवर्ती हो चुके बहुत, वे दस्तखत कर गए। पहाड़ भर गया है बिलकुल, अब इसमें कोई खाली स्पेस, कोई जगह नहीं है जहां आप सीधा दस्तखत कर दें। तो पहले दो-चार नाम साफ करिए, फिर दस्तखत करिए।
राजा ने कहा: क्या कहते हो? मैं तो सोचता था कि मैंने कोई बड़ा काम कर लिया, मैं चक्रवर्ती हो गया! क्या यह अंतहीन पर्वत भर चुका है हस्ताक्षरों से? इतने चक्रवर्ती हो चुके हैं? जगह नहीं बची पहाड़ पर?
वह पहरेदार कहने लगा: मेरे पिता भी यहां पहरेदार थे, उनके पिता भी, उनके पिता भी, उनके पिता भी, और मैंने हमेशा से यही सुना है कि जब भी कोई चक्रवर्ती आता है, जगह साफ करनी पड़ती है। यह कभी भी खाली नहीं रहा। यह कोई आज भर गया हो, ऐसा नहीं है, यह हमेशा से भरा हुआ है। इतना अंतहीन काल बीत चुका है, आश्चर्य नहीं है कि भर गया हो। आप मिटाइए, हमेशा मिटा कर ही दस्तखत करने पड़ते हैं।
उस चक्रवर्ती ने कहा: व्यर्थ हो गया दस्तखत करना, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मैं कुछ अनूठा हूं। दस्तखत हो जाएंगे, मजा आ जाएगा। यहां तो कोई अनूठे का सवाल न रहा। फिर मिटा कर दस्तखत करूं! कौन पढ़ता होगा इन दस्तखतों को?
उस पहरेदार ने कहा: महानुभाव, सच्चाई तो यह है कि अपने हस्ताक्षरों को आदमी खुद ही पढ़ता है, कोई दूसरा पढ़ता ही नहीं! खुद पढ़ लीजिए और मजा ले लीजिए। दूसरे आदमी को अपने हस्ताक्षर में रस है, आपके हस्ताक्षर में क्या रस हो सकता है। तो लिखिए, पढ़ लीजिए और मजे से जाइए। और तो यहां कोई दूसरा उपाय नहीं है। फिर उस सम्राट ने कहा कि और फिर दूसरे के नाम पोंछ कर लिखूं, क्या पता कल कोई आए और मेरा नाम साफ करके लिख जाए।
वह सम्राट बिना लिखे वापस लौट आया। और उसने रास्ते में आकर पहरेदार को धन्यवाद दिया कि अच्छा हुआ तुमने मेरी भीड़-भाड़ बाहर रोक दी, वे सब यह हालत देख लेते तो मेरा तो सब पानी उतर जाता। उस पहरेदार ने कहा: परमात्मा ने इसीलिए यह नियम बना रखा है कि आदमी अकेले ही आकर कर जाए, भीड़-भाड़ साथ न लाए। भीड़-भाड़ को पता चल जाए, बड़ी बदनामी होती है।
लेकिन हम सब इसी कोशिश में लगे हैं। सारी कोशिश हमारे जीवन की क्या है? एक निचोड़ में क्या है? इतनी कोशिश है कि मैं अपना नाम लिख दूं। यह नाम लिखने की चेष्टा, यह अहंकार का भाव अद्वैत की तरफ कैसे उठने देगा।
इसलिए तीन बातें आपसे कही हैं। दो बातें कही हैं: एक, निरंतरता का बोध, विस्तार का; इकट्ठेपन का, समग्रता का, संबद्धता का बोध। और तीसरी बात, अहंकार को विदा, अहंकार के पागलपन को विदा, अहंकार को हाथ जोड़ लेना है कि क्षमा कर दो मुझे, कृपा करो मुझ पर। झूठ हो बिलकुल तुम, एकदम असत्य हो, एकदम असार हो। और तुम्हारे इर्द-गिर्द मैं अपने जीवन को समाप्त नहीं करना चाहता हूं, मुझे क्षमा कर दो।
जिस आदमी के जीवन में, जिसकी चेतना में ये तीन बातें स्पष्ट हो जाती हैं, वह अद्वैत भाव को उपलब्ध हो जाता है। यह तीसरा सूत्र है और इस तीसरे सूत्र का जहां द्वार खुल जाता है वहां व्यक्ति वह बन जाता है जिसे हम ब्रह्म कहते हैं। वहां उसे पता चलता है, अहं ब्रह्मास्मि। वहां वह जान पाता है कि मैं ब्रह्म हूं, ब्रह्ममय है, सब एक है, कहीं कोई भेद नहीं, कहीं कोई अंतर नहीं।
जीवन एक अनंत निरंतरता, संबद्धता है। और इस जीवन का जो अनुभव है, वह अमृत का अनुभव है। व्यक्ति मरते हैं; संबद्ध जीवन अमर है। व्यक्ति मिटते हैं; संबद्ध जीवन के मिटने का कोई उपाय नहीं। बूंद बनती है, बिखरती है; सागर बने रह जाते हैं। अस्तित्व सदा है। रेखाएं बनती हैं, पुंछती हैं। वृक्ष बनते हैं, गिरते हैं; बीज अमर है। इसलिए ब्रह्म अमर है। इसलिए आत्मा अमर है। अहंकार मरणधर्मा है, आत्मा अमर है।
भूल कर भी मत सोचना कि आप अमर हैं। आप हैं, तभी तक मृत्यु है; जिस दिन आप नहीं हैं, उस दिन अमृत है। अद्वैत अमृत की उपलब्धि है, अद्वैत शाश्वत जीवन की उपलब्धि है, अद्वैत ब्रह्म की उपलब्धि है।
इस सूत्र के संबंध में कुछ भी पूछने को हो, तो संध्या हम उसकी बात कर सकेंगे।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।