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सीखे हुए ज्ञान से मुक्ति
कोई कितना ही पढ़े, कितना ही सिद्धांतों को, थियरीज़ को, आइडियालॉजी़ज को समझ ले, इकट्ठा कर ले, सारे शास्त्रों को पी जाए, फिर भी जीवन का उत्तर उसे उपलब्ध नहीं होता है। उत्तर बहुत हो जाते हैं उसके पास, लेकिन कोई समाधान नहीं होता। समाधान न हो, तो प्रश्न का अंत नहीं होता है। प्रश्न का अंत न हो, तो चिंता समाप्त नहीं होती है। चिंता समाप्त न हो, तो वह जो चित्त की अशांति है, जो केवल ज्ञान के मिलने पर ही उपलब्ध होती है, उपलब्ध नहीं की जा सकती है।
फिर भी मैं आपको उत्तर दे रहा हूं, यह जानते हुए भी कि मेरा उत्तर आपका उत्तर नहीं हो सकता। फिर किसलिए उत्तर दे रहा हूं? दो कारण हैं। एक तो इसी भांति मैं आपको बता सकता हूं कि जो उत्तर आपने दूसरों से सीख लिए हैं, वे व्यर्थ हैं। लेकिन भूल होगी उनको हटा दें और मैं जो उत्तर दूं उन्हें अपने मन में रख लें। यह भी दूसरे का ही उत्तर होगा। तो मैं जो उत्तर दे रहा हूं, एक अर्थ में केवल निषेधात्मक हैं, एक अर्थ में केवल डिस्ट्रक्टिव हैं। चाहता हूं कि आपके मन में जो उत्तर इकट्ठे हैं वे नष्ट हो जाएं, लेकिन उनकी जगह मेरा उत्तर बैठ जाए, यह नहीं चाहता हूं।
मन खाली हो, प्रश्न भर रह जाए। प्रश्न हो, मन खाली हो, जिज्ञासा हो, हमारे पूरे प्राण प्रश्न के साथ संयुक्त हो जाएं, हमारे पूरी श्वास-श्वास में प्रश्न, समस्या खड़ी हो जाए, तो आप हैरान होंगे, आपके ही भीतर से उत्तर आना प्रारंभ हो जाता है। जब पूरे प्राण किसी प्रश्न से भर जाते हैं, तो प्राणों के ही केंद्र से उत्तर आना शुरू हो जाता है।
जो भी ज्ञान उपलब्ध हुआ है वह स्वयं की चेतना से उपलब्ध हुआ है। कभी भी, इतिहास के किन्हीं वर्षों में, अतीत में, या भविष्य में कभी यदि होगा तो वह अपने ही भीतर खोज लेना होता है। समस्या भीतर है तो समाधान भी भीतर है। प्रश्न भीतर है तो उत्तर भी भीतर है। लेकिन हम कभी भीतर खोजते नहीं और हमारी आंखें बाहर भटकती रहती हैं और बाहर खोजती रहती हैं। कुछ कारण हैं, जिससे ऐसा होता है। हमारी आंखें बाहर खुलती हैं, इसलिए हम बाहर खोजते हैं। ओशो
सीखे हुए ज्ञान से मुक्ति
कोई कितना ही पढ़े, कितना ही सिद्धांतों को, थियरीज़ को, आइडियालॉजी़ज को समझ ले, इकट्ठा कर ले, सारे शास्त्रों को पी जाए, फिर भी जीवन का उत्तर उसे उपलब्ध नहीं होता है। उत्तर बहुत हो जाते हैं उसके पास, लेकिन कोई समाधान नहीं होता। समाधान न हो, तो प्रश्न का अंत नहीं होता है। प्रश्न का अंत न हो, तो चिंता समाप्त नहीं होती है। चिंता समाप्त न हो, तो वह जो चित्त की अशांति है, जो केवल ज्ञान के मिलने पर ही उपलब्ध होती है, उपलब्ध नहीं की जा सकती है।
फिर भी मैं आपको उत्तर दे रहा हूं, यह जानते हुए भी कि मेरा उत्तर आपका उत्तर नहीं हो सकता। फिर किसलिए उत्तर दे रहा हूं? दो कारण हैं। एक तो इसी भांति मैं आपको बता सकता हूं कि जो उत्तर आपने दूसरों से सीख लिए हैं, वे व्यर्थ हैं। लेकिन भूल होगी उनको हटा दें और मैं जो उत्तर दूं उन्हें अपने मन में रख लें। यह भी दूसरे का ही उत्तर होगा। तो मैं जो उत्तर दे रहा हूं, एक अर्थ में केवल निषेधात्मक हैं, एक अर्थ में केवल डिस्ट्रक्टिव हैं। चाहता हूं कि आपके मन में जो उत्तर इकट्ठे हैं वे नष्ट हो जाएं, लेकिन उनकी जगह मेरा उत्तर बैठ जाए, यह नहीं चाहता हूं।
मन खाली हो, प्रश्न भर रह जाए। प्रश्न हो, मन खाली हो, जिज्ञासा हो, हमारे पूरे प्राण प्रश्न के साथ संयुक्त हो जाएं, हमारे पूरी श्वास-श्वास में प्रश्न, समस्या खड़ी हो जाए, तो आप हैरान होंगे, आपके ही भीतर से उत्तर आना प्रारंभ हो जाता है। जब पूरे प्राण किसी प्रश्न से भर जाते हैं, तो प्राणों के ही केंद्र से उत्तर आना शुरू हो जाता है।
जो भी ज्ञान उपलब्ध हुआ है वह स्वयं की चेतना से उपलब्ध हुआ है। कभी भी, इतिहास के किन्हीं वर्षों में, अतीत में, या भविष्य में कभी यदि होगा तो वह अपने ही भीतर खोज लेना होता है। समस्या भीतर है तो समाधान भी भीतर है। प्रश्न भीतर है तो उत्तर भी भीतर है। लेकिन हम कभी भीतर खोजते नहीं और हमारी आंखें बाहर भटकती रहती हैं और बाहर खोजती रहती हैं। कुछ कारण हैं, जिससे ऐसा होता है। हमारी आंखें बाहर खुलती हैं, इसलिए हम बाहर खोजते हैं। ओशो
Weight | 0.35 kg |
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सत्र--दूसरा
मैं क्षमा चाहता हूं, क्योंकि कुछ पुस्तकों का उल्लेख आज सुबह मुझे करना चाहिए था, लेकिन मैंने किया नहीं। जरथुस्त्र, मीरदाद, च्वांग्त्सु, लाओत्सु, जीसस और कृष्ण से मैं इतना अभिभूत हो गया था कि मैं कुछ ऐसी पुस्तकों को भूल ही गया जो कि कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। मुझे भरोसा नहीं आता कि खलील जिब्रान की ‘दि प्रोफेट’ को मैं कैसे भूल गया। अभी भी यह बात मुझे पीड़ा दे रही है। मैं निर्भार होना चाहता हूं--इसीलिए मैं कहता हूं मुझे दुख है, किंतु किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं।
कैसे मैं उस पुस्तक को भूल गया जो परम शिखर है: ‘दि बुक ऑफ दि सूफी़ज!’ शायद इसीलिए भूल गया क्योंकि इसमें कुछ है ही नहीं, बस खाली पन्ने। पिछले बारह सौ वर्षों से सूफियों ने इसे परम श्रद्धापूर्वक संजोया है, वे इसे खोलते हैं और पढ़ते हैं। किसी को भी आश्चर्य होता है कि वे पढ़ते क्या हैं। जब बहुत लंबे समय तक खाली पन्नों को देखो तो स्वयं पर ही लौट आने के लिए बाध्य हो जाते हो। यही असली अध्ययन है--असली काम।
‘दि बुक’ को मैं कैसे भूल गया? अब कौन मुझे क्षमा करेगा? ‘दि बुक’ का उल्लेख सर्वप्रथम होना चाहिए, अंत में नहीं। इसका अतिक्रमण तो हो ही नहीं सकता। इससे बेहतर पुस्तक रची कैसे जा सकती है, जिसमें कुछ भी न हो, शून्य का संदेश हो?
अपने नोट्स में देवगीत, ना-कुछ, नथिंगनेस को ना-कुछ-पन ही लिखना। अन्यथा ना-कुछ का नकारात्मक अर्थ होता है--खालीपन। पर ऐसा नहीं है। इसका अर्थ है ‘पूर्णता।’ पूरब में खालीपन दूसरे ही संदर्भ में प्रयुक्त होता है...‘शून्यता।’
अपने एक संन्यासी को मैंने ‘शून्यो’ नाम दिया है, लेकिन वह बेवकूफ अपने को डॉक्टर इचलिंग कहता रहता है। अब इससे अधिक बेवकूफी क्या होगी? ‘डॉक्टर इचलिंग’--कितना भद्दा नाम है! और डॉक्टर इचलिंग बनने के लिए उसने अपनी दाढ़ी मूंडवा दी, क्योंकि दाढ़ी में वह थोड़ा सुंदर लगता था।
पूरब में शून्यता--खालीपन का अर्थ खालीपन नहीं है जैसा अंग्रेजी भाषा में होता है। इसका अर्थ है पूर्णता, अतिशय होना, इतना पूर्ण कि और किसी कुछ की आवश्यकता ही न रहे। ‘दि बुक’ का यही संदेश है। कृपया सूची में इसे सम्मिलित कर लो।
दरिया के शब्द सुनो, जिंदगी की थोड़ी तलाश करो–‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’ ये प्यारे सूत्र हैं, इनमें बड़ा माधुर्य है,...
सुप्रसिद्ध संत शेख फरीद के कुछ अनूठे पदों के माध्यम से ओशो के दस अमृत प्रवचनों का संकलन। इस वार्तालाप में प्रति दूसरे दिन ओशो ने जिज्ञासुओं की विभिन्न जिज्ञासाओं और प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। ‘शेख फरीद प्रेम के पथिक हैं और जैसा प्रेम का गीत फरीद ने गाया है; वैसा किसी ने नहीं गाया। कबीर भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की भी बात करते हैं। दादू भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की बात को बिलकुल भूल नहीं जाते।
इस पुस्तक में प्रेम, भोग, ईश्वर, सांसारिकता, ध्यान, शान्ति, चिंता, अहंकार, प्रार्थना तथा मृत्यु जैसे अनेक विषयों पर ओशो के...
"स्वतंत्रता विद्रोह नहीं है, क्रांति है।
क्रांति की बात ही अलग है। क्रांति का अर्थ है : दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है। हम किसी के विरोध में स्वतंत्र नहीं हो रहे हैं। क्योंकि विरोध में हम स्वतंत्र होंगे, तो वह स्वच्छंदता हो जाएगी। हम दूसरे से मुक्त हो रहे हैं--न उससे हमें विरोध है, न हमें उसका अनुगमन है। न हम उसके शत्रु हैं, न हम उसके मित्र हैं--हम उससे मुक्त हो रहे हैं। और यह मुक्ति, ‘पर’ से मुक्ति, जिस ऊर्जा को जन्म देती है, जिस डाइमेन्शन को, जिस दिशा को खोल देती है, उसका नाम स्वतंत्रता है।"—ओशो
ज्योतिष के तीन हिस्से हैं।
एक, जिसे हम कहें अनिवार्य, एसेंशियल, जिसमें रत्ती भर फर्क नहीं होता। वही सर्वाधिक कठिन है उसे जानना। फिर उसके बाहर की परिधि है: नॉन-एसेंशियल, जिसमें सब परिवर्तन हो सकते हैं। मगर हम उसी को जानने को उत्सुक होते हैं। और उन दोनों के बीच में एक परिधि है--सेमी-एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य, जिसमें जानने से परिवर्तन हो सकते हैं, न जानने से कभी परिवर्तन नहीं होंगे। तीन हिस्से कर लें। एसेंशियल, जो बिलकुल गहरा है, अनिवार्य, जिसमें कोई अंतर नहीं हो सकता। उसे जानने के बाद उसके साथ सहयोग करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। धर्मों ने इस अनिवार्य तथ्य की खोज के लिए ही ज्योतिष की ईजाद की, उस तरफ गए। उसके बाद दूसरा हिस्सा है: सेमी-एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य। अगर जान लेंगे तो बदल सकते हैं, अगर नहीं जानेंगे तो नहीं बदल पाएंगे। अज्ञान रहेगा, तो जो होना है वही होगा। ज्ञान होगा, तो ऑल्टरनेटिव्स हैं, विकल्प हैं, बदलाहट हो सकती है। और तीसरा सबसे ऊपर का सरफेस, वह है: नॉन-एसेंशियल। उसमें कुछ भी जरूरी नहीं है। सब सांयोगिक है।
ओशो
"अंधेरा हटाना हो, तो प्रकाश लाना होता है। और मन को हटाना हो, तो ध्यान लाना होता है। मन को नियंत्रित नहीं करना है, वरन जानना है कि वह है ही नहीं। यह जानते ही उससे मुक्ति हो जाती है।
यह जानना साक्षी चैतन्य से होता है। मन के साक्षी बनें। जो है, उसके साक्षी बनें। कैसे होना चाहिए, इसकी चिंता छोड़ दें। जो है, जैसा है, उसके प्रति जागें, जागरूक हों। कोई निर्णय न लें, कोई नियंत्रण न करें, किसी संघर्ष में न पड़ें। बस, मौन होकर देखें। देखना ही, यह साक्षी होना ही मुक्ति बन जाता है।
साक्षी बनते ही चेतना दृश्य को छोड़ द्रष्टा पर स्थिर हो जाती है। इस स्थिति में अकंप प्रज्ञा की ज्योति उपलब्ध होती है। और यही ज्योति मुक्ति है।"—ओशो
सत्य शाश्वत है, सनातन है, समयातीत है। जो बदलता है वह स्वप्न है। जो नहीं बदलता वही सत्य है। परिवर्तित...