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एक ज्ञान बाहर है, एक प्रकाश बाहर है। अगर आपको गणित सीखनी है, केमिस्ट्री सीखनी है, फिजिक्स सीखनी है, इंजीनियरिंग सीखनी है, तो आप किसी स्कूल में भरती होंगे, किताब पढ़ेंगे, परीक्षाएं होंगी और सीख लेंगे। यह लर्निंग है; नॉलेज नहीं। यह सीखना है; ज्ञान नहीं। विज्ञान सीखा जाता है, विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं होता। लेकिन धर्म सीखा नहीं जाता, उसका ज्ञान होता है। उसकी लर्निंग नहीं होती, उसकी नॉलेज होती है। एक प्रकाश बाहर है, जिसे सीखना होता है; एक प्रकाश भीतर है, जिसे उघाड़ना होता है, जिसे डिस्कवर करना होता है। ओशो
अनुक्रम
#1: छाया-जगत का बोध
#2: सीखे हुए ज्ञान से मुक्ति
#3: सत्य का बोध
#4: स्वतंत्रता, सरलता, शून्यता
#5: प्रश्न-शून्य चित्त
सत्र--दूसरा
मैं क्षमा चाहता हूं, क्योंकि कुछ पुस्तकों का उल्लेख आज सुबह मुझे करना चाहिए था, लेकिन मैंने किया नहीं। जरथुस्त्र, मीरदाद, च्वांग्त्सु, लाओत्सु, जीसस और कृष्ण से मैं इतना अभिभूत हो गया था कि मैं कुछ ऐसी पुस्तकों को भूल ही गया जो कि कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। मुझे भरोसा नहीं आता कि खलील जिब्रान की ‘दि प्रोफेट’ को मैं कैसे भूल गया। अभी भी यह बात मुझे पीड़ा दे रही है। मैं निर्भार होना चाहता हूं--इसीलिए मैं कहता हूं मुझे दुख है, किंतु किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं।
कैसे मैं उस पुस्तक को भूल गया जो परम शिखर है: ‘दि बुक ऑफ दि सूफी़ज!’ शायद इसीलिए भूल गया क्योंकि इसमें कुछ है ही नहीं, बस खाली पन्ने। पिछले बारह सौ वर्षों से सूफियों ने इसे परम श्रद्धापूर्वक संजोया है, वे इसे खोलते हैं और पढ़ते हैं। किसी को भी आश्चर्य होता है कि वे पढ़ते क्या हैं। जब बहुत लंबे समय तक खाली पन्नों को देखो तो स्वयं पर ही लौट आने के लिए बाध्य हो जाते हो। यही असली अध्ययन है--असली काम।
‘दि बुक’ को मैं कैसे भूल गया? अब कौन मुझे क्षमा करेगा? ‘दि बुक’ का उल्लेख सर्वप्रथम होना चाहिए, अंत में नहीं। इसका अतिक्रमण तो हो ही नहीं सकता। इससे बेहतर पुस्तक रची कैसे जा सकती है, जिसमें कुछ भी न हो, शून्य का संदेश हो?
अपने नोट्स में देवगीत, ना-कुछ, नथिंगनेस को ना-कुछ-पन ही लिखना। अन्यथा ना-कुछ का नकारात्मक अर्थ होता है--खालीपन। पर ऐसा नहीं है। इसका अर्थ है ‘पूर्णता।’ पूरब में खालीपन दूसरे ही संदर्भ में प्रयुक्त होता है...‘शून्यता।’
अपने एक संन्यासी को मैंने ‘शून्यो’ नाम दिया है, लेकिन वह बेवकूफ अपने को डॉक्टर इचलिंग कहता रहता है। अब इससे अधिक बेवकूफी क्या होगी? ‘डॉक्टर इचलिंग’--कितना भद्दा नाम है! और डॉक्टर इचलिंग बनने के लिए उसने अपनी दाढ़ी मूंडवा दी, क्योंकि दाढ़ी में वह थोड़ा सुंदर लगता था।
पूरब में शून्यता--खालीपन का अर्थ खालीपन नहीं है जैसा अंग्रेजी भाषा में होता है। इसका अर्थ है पूर्णता, अतिशय होना, इतना पूर्ण कि और किसी कुछ की आवश्यकता ही न रहे। ‘दि बुक’ का यही संदेश है। कृपया सूची में इसे सम्मिलित कर लो।
"व्यक्ति बनें, तो ही आप सत्य को जान सकेंगे। और व्यक्ति बनने की पहली आधारशिला यहीं से शुरू होती है कि हम यह जानें कि असंदिग्ध रूप से जो सत्य मेरे निकटतम है, वह मैं हूं। कोई दूसरा मेरे लिए उतना सत्य नहीं है, जितना मैं हूं। कोई दूसरा किसी के लिए सत्य नहीं है--उसकी स्वयं की सत्ता। और वहां प्रवेश करना है। और वहां पहुंचना है। और इसके लिए जरूरी है कि ये जो भीड़ के संगठन हैं, ये जो भीड़ के चारों तरफ आयोजन हैं, उनसे थोड़ा अपने को बचाएं और स्वयं में प्रवेश करें। थोड़ा एकांत खोजें, अकेलापन खोजें, थोड़ी देर अपने साथ रहें।" ओशो पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु: क्या आप अपने को जानना चाहते है? जीवन की समस्या क्या है? क्या आप स्वतंत्रा चाहते है? क्या है विवेक का मार्ग?
"अंधेरा हटाना हो, तो प्रकाश लाना होता है। और मन को हटाना हो, तो ध्यान लाना होता है। मन को नियंत्रित नहीं करना है, वरन जानना है कि वह है ही नहीं। यह जानते ही उससे मुक्ति हो जाती है।
यह जानना साक्षी चैतन्य से होता है। मन के साक्षी बनें। जो है, उसके साक्षी बनें। कैसे होना चाहिए, इसकी चिंता छोड़ दें। जो है, जैसा है, उसके प्रति जागें, जागरूक हों। कोई निर्णय न लें, कोई नियंत्रण न करें, किसी संघर्ष में न पड़ें। बस, मौन होकर देखें। देखना ही, यह साक्षी होना ही मुक्ति बन जाता है।
साक्षी बनते ही चेतना दृश्य को छोड़ द्रष्टा पर स्थिर हो जाती है। इस स्थिति में अकंप प्रज्ञा की ज्योति उपलब्ध होती है। और यही ज्योति मुक्ति है।"—ओशो
सत्य शाश्वत है, सनातन है, समयातीत है। जो बदलता है वह स्वप्न है। जो नहीं बदलता वही सत्य है। परिवर्तित...