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अनुक्रम
#1: प्रवचन 1 : हंसते व जीवंत धर्म के प्रतीक कृष्ण
#2: प्रवचन 2 : इहलौकिक जीवन के समग्र स्वीकार के प्रतीक कृष्ण
#3: प्रवचन 3 : अनुपार्जित सहज शून्यता के प्रतीक कृष्ण
#4: प्रवचन 4 : स्वधर्म-निष्ठा के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण
#5: प्रवचन 5 : ‘अकारण’ के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण
#6: प्रवचन 6 : जीवन के बृहद् जोड़ के प्रतीक कृष्ण
#7: प्रवचन 7 : जीवन में महोत्सव के प्रतीक कृष्ण
#8: प्रवचन 8 : क्षण-क्षण जीने के महाप्रतीक कृष्ण
#9: प्रवचन 9 : विराट जागतिक रासलीला के प्रतीक कृष्ण
#10: प्रवचन 10 : स्वस्थ राजनीति के प्रतीकपुरुष कृष्ण
#11: प्रवचन 11 : मानवीय पहलूयुक्त भगवत्ता के प्रतीक कृष्ण
#12: प्रवचन 12 : साधनारहित सिद्धि के परमप्रतीक कृष्ण
#13: प्रवचन 13 : अचिंत्य-धारा के प्रतीकबिंदु कृष्ण
#14: प्रवचन 14 : अकर्म के पूर्ण प्रतीक कृष्ण
#15: प्रवचन 15 : अनंत सागररूप चेतना के प्रतीक कृष्ण
#16: प्रवचन 16 : सीखने की सहजता के प्रतीक कृष्ण
#17: प्रवचन 17 : स्वभाव की पूर्ण खिलावट के प्रतीक कृष्ण
#18: प्रवचन 18 : अभिनयपूर्ण जीवन के प्रतीक कृष्ण
#19: प्रवचन 19 : फलाकांक्षामुक्त कर्म के प्रतीक कृष्ण
#20: प्रवचन 20 : राजपथरूप भव्य जीवनधारा के प्रतीक कृष्ण
#21: प्रवचन 21 : वंशीरूप जीवन के प्रतीक कृष्ण
उद्धरण : कृष्ण-स्मृति – दूसरा प्रवचन – इहलौकिक जीवन के समग्र स्वीकार के प्रतीक कृष्ण
“जीवन की यह जो संभावना है–जीवन की यह जो भविष्य की संभावना है, इस भविष्य की संभावनाओं को खयाल में रख कर कृष्ण पर बात करने का मैंने विचार किया है। हमें भी समझना मुश्किल पड़ेगा, क्योंकि हम भी अतीत के दुख के संस्कारों से ही भरे हुए हैं। और धर्म को हम भी आंसुओं से जोड़ते हैं, बांसुरियों से नहीं। शायद ही हमने कभी कोई ऐसा आदमी देखा हो जो कि इसलिए संन्यासी हो गया हो कि जीवन में बहुत आनंद है। हां, किसी की पत्नी मर गई है और जीवन दुख हो गया है और वह संन्यासी हो गया। किसी का धन खो गया है, दिवालिया हो गया है, आंखें आंसुओं से भर गई हैं और वह संन्यासी हो गया। कोई उदास है, दुखी है, पीड़ित है, और संन्यासी हो गया है। दुख से संन्यास निकला है। लेकिन आनंद से? आनंद से संन्यास नहीं निकला। कृष्ण भी मेरे लिए एक ही व्यक्ति हैं जो आनंद से संन्यासी हैं।
निश्र्चित ही आनंद से जो संन्यासी है वह दुख वाले संन्यासी से आमूल रूप से भिन्न होगा। जैसे मैं कह रहा हूं कि भविष्य का धर्म आनंद का होगा, वैसे ही मैं यह भी कहता हूं कि भविष्य का संन्यासी आनंद से संन्यासी होगा। इसलिए नहीं कि एक परिवार दुख दे रहा था इसलिए एक व्यक्ति छोड़ कर संन्यासी हो गया, बल्कि एक परिवार उसके आनंद के लिए बहुत छोटा पड़ता था, पूरी पृथ्वी को परिवार बनाने के लिए संन्यासी हो गया। इसलिए नहीं कि एक प्रेम जीवन में बंधन बन गया था, इसलिए कोई प्रेम को छोड़ कर संन्यासी हो गया, बल्कि इसलिए कि एक प्रेम इतने आनंद के लिए बहुत छोटा था, सारी पृथ्वी का प्रेम जरूरी था, इसलिए कोई संन्यासी हो गया। जीवन की स्वीकृति और जीवन के आनंद और जीवन के रस से निकले हुए संन्यास को जो समझ पाएगा, वह कृष्ण को भी समझ पा सकता है।”—ओशो
अनुक्रम
#1: प्रवचन 1 : हंसते व जीवंत धर्म के प्रतीक कृष्ण
#2: प्रवचन 2 : इहलौकिक जीवन के समग्र स्वीकार के प्रतीक कृष्ण
#3: प्रवचन 3 : अनुपार्जित सहज शून्यता के प्रतीक कृष्ण
#4: प्रवचन 4 : स्वधर्म-निष्ठा के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण
#5: प्रवचन 5 : ‘अकारण’ के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण
#6: प्रवचन 6 : जीवन के बृहद् जोड़ के प्रतीक कृष्ण
#7: प्रवचन 7 : जीवन में महोत्सव के प्रतीक कृष्ण
#8: प्रवचन 8 : क्षण-क्षण जीने के महाप्रतीक कृष्ण
#9: प्रवचन 9 : विराट जागतिक रासलीला के प्रतीक कृष्ण
#10: प्रवचन 10 : स्वस्थ राजनीति के प्रतीकपुरुष कृष्ण
#11: प्रवचन 11 : मानवीय पहलूयुक्त भगवत्ता के प्रतीक कृष्ण
#12: प्रवचन 12 : साधनारहित सिद्धि के परमप्रतीक कृष्ण
#13: प्रवचन 13 : अचिंत्य-धारा के प्रतीकबिंदु कृष्ण
#14: प्रवचन 14 : अकर्म के पूर्ण प्रतीक कृष्ण
#15: प्रवचन 15 : अनंत सागररूप चेतना के प्रतीक कृष्ण
#16: प्रवचन 16 : सीखने की सहजता के प्रतीक कृष्ण
#17: प्रवचन 17 : स्वभाव की पूर्ण खिलावट के प्रतीक कृष्ण
#18: प्रवचन 18 : अभिनयपूर्ण जीवन के प्रतीक कृष्ण
#19: प्रवचन 19 : फलाकांक्षामुक्त कर्म के प्रतीक कृष्ण
#20: प्रवचन 20 : राजपथरूप भव्य जीवनधारा के प्रतीक कृष्ण
#21: प्रवचन 21 : वंशीरूप जीवन के प्रतीक कृष्ण
उद्धरण : कृष्ण-स्मृति – दूसरा प्रवचन – इहलौकिक जीवन के समग्र स्वीकार के प्रतीक कृष्ण
“जीवन की यह जो संभावना है–जीवन की यह जो भविष्य की संभावना है, इस भविष्य की संभावनाओं को खयाल में रख कर कृष्ण पर बात करने का मैंने विचार किया है। हमें भी समझना मुश्किल पड़ेगा, क्योंकि हम भी अतीत के दुख के संस्कारों से ही भरे हुए हैं। और धर्म को हम भी आंसुओं से जोड़ते हैं, बांसुरियों से नहीं। शायद ही हमने कभी कोई ऐसा आदमी देखा हो जो कि इसलिए संन्यासी हो गया हो कि जीवन में बहुत आनंद है। हां, किसी की पत्नी मर गई है और जीवन दुख हो गया है और वह संन्यासी हो गया। किसी का धन खो गया है, दिवालिया हो गया है, आंखें आंसुओं से भर गई हैं और वह संन्यासी हो गया। कोई उदास है, दुखी है, पीड़ित है, और संन्यासी हो गया है। दुख से संन्यास निकला है। लेकिन आनंद से? आनंद से संन्यास नहीं निकला। कृष्ण भी मेरे लिए एक ही व्यक्ति हैं जो आनंद से संन्यासी हैं।
निश्र्चित ही आनंद से जो संन्यासी है वह दुख वाले संन्यासी से आमूल रूप से भिन्न होगा। जैसे मैं कह रहा हूं कि भविष्य का धर्म आनंद का होगा, वैसे ही मैं यह भी कहता हूं कि भविष्य का संन्यासी आनंद से संन्यासी होगा। इसलिए नहीं कि एक परिवार दुख दे रहा था इसलिए एक व्यक्ति छोड़ कर संन्यासी हो गया, बल्कि एक परिवार उसके आनंद के लिए बहुत छोटा पड़ता था, पूरी पृथ्वी को परिवार बनाने के लिए संन्यासी हो गया। इसलिए नहीं कि एक प्रेम जीवन में बंधन बन गया था, इसलिए कोई प्रेम को छोड़ कर संन्यासी हो गया, बल्कि इसलिए कि एक प्रेम इतने आनंद के लिए बहुत छोटा था, सारी पृथ्वी का प्रेम जरूरी था, इसलिए कोई संन्यासी हो गया। जीवन की स्वीकृति और जीवन के आनंद और जीवन के रस से निकले हुए संन्यास को जो समझ पाएगा, वह कृष्ण को भी समझ पा सकता है।”—ओशो
Weight | 0.35 kg |
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दरिया के शब्द सुनो, जिंदगी की थोड़ी तलाश करो–‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’ ये प्यारे सूत्र हैं, इनमें बड़ा माधुर्य है,...
"व्यक्ति बनें, तो ही आप सत्य को जान सकेंगे। और व्यक्ति बनने की पहली आधारशिला यहीं से शुरू होती है कि हम यह जानें कि असंदिग्ध रूप से जो सत्य मेरे निकटतम है, वह मैं हूं। कोई दूसरा मेरे लिए उतना सत्य नहीं है, जितना मैं हूं। कोई दूसरा किसी के लिए सत्य नहीं है--उसकी स्वयं की सत्ता। और वहां प्रवेश करना है। और वहां पहुंचना है। और इसके लिए जरूरी है कि ये जो भीड़ के संगठन हैं, ये जो भीड़ के चारों तरफ आयोजन हैं, उनसे थोड़ा अपने को बचाएं और स्वयं में प्रवेश करें। थोड़ा एकांत खोजें, अकेलापन खोजें, थोड़ी देर अपने साथ रहें।" ओशो पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु: क्या आप अपने को जानना चाहते है? जीवन की समस्या क्या है? क्या आप स्वतंत्रा चाहते है? क्या है विवेक का मार्ग?
‘यह पुस्तक आंख वाले व्यक्ति की बात है। किसी सोच-विचार से, किसी कल्पना से, मन के किसी खेल से इसका...
"अंधेरा हटाना हो, तो प्रकाश लाना होता है। और मन को हटाना हो, तो ध्यान लाना होता है। मन को नियंत्रित नहीं करना है, वरन जानना है कि वह है ही नहीं। यह जानते ही उससे मुक्ति हो जाती है।
यह जानना साक्षी चैतन्य से होता है। मन के साक्षी बनें। जो है, उसके साक्षी बनें। कैसे होना चाहिए, इसकी चिंता छोड़ दें। जो है, जैसा है, उसके प्रति जागें, जागरूक हों। कोई निर्णय न लें, कोई नियंत्रण न करें, किसी संघर्ष में न पड़ें। बस, मौन होकर देखें। देखना ही, यह साक्षी होना ही मुक्ति बन जाता है।
साक्षी बनते ही चेतना दृश्य को छोड़ द्रष्टा पर स्थिर हो जाती है। इस स्थिति में अकंप प्रज्ञा की ज्योति उपलब्ध होती है। और यही ज्योति मुक्ति है।"—ओशो
सत्य शाश्वत है, सनातन है, समयातीत है। जो बदलता है वह स्वप्न है। जो नहीं बदलता वही सत्य है। परिवर्तित...